94. सुव्यवस्थित व्यवहार से वृत्ति मुक्त रहती है
1.
प्यारे भाइयों, हम धीरे-धीरे
अंत तक पहुँचते आ
रहे हैं। पंद्रहवें अध्याय में हमने जीवन के संपूर्ण शास्त्र
का अवलोकन किया। सोलहवें अध्याय में एक परिशिष्ट देखा।
मनुष्य के मन में
और उसके मन के प्रतिबिंब
स्वरूप समाज में दो वृत्तियों, दो
संस्कृतियों अथवा दो संपत्तियों का
झगड़ा चल रहा है।
इनमें से हमें दैवी
संपत्ति का विकास करना
चाहिए, यह शिक्षा सोलहवें
अध्याय के परिशिष्ट से
मिली है। आज सत्रहवें अध्याय
में हमें दूसरा परिशिष्ट देखना है। एक दृष्टि से
कह सकते हैं कि इसमें कार्यक्रम-योग कहा गया है। गीता इस अध्याय में
रोज के कार्यक्रम की
सूचना दे रही है।
आज के अध्याय में
हमें नित्य क्रिया पर विचार करना
है।
2.
अगर हम चाहते हैं
कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे,
तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम
बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कायक्रम किसी-न-किसी निश्चित
आधार पर चलना चाहिए।
मन तभी मुक्त रह सकता है,
जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में
और एक निश्चित नियमित
रीति से चलता रहे।
नदी स्वच्छंदता से बहती है,
परंतु उसका प्रवाह बंधा हुआ है। यदि वह बद्ध न
हो, तो उसकी मुक्तता
व्यर्थ चली जायेगी। ज्ञानी पुरुष का उदाहरण अपनी
आंखों के सामने लाओ।
सूर्य ज्ञानी पुरुषों का आचार्य है।
भगवान ने पहले-पहल
कर्मयोग सूर्य को सिखाया, फिर
सूर्य से मनु को,
अर्थात विचार करने वाले मनुष्य को, वह प्राप्त हुआ।
सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है।
वह नियमित है- इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार है।
यह हमारे अनुभव की बात है
कि हमें एक निश्चित रास्ते
से घूमने जाने की आदत है,
तो रास्ते की ओर ध्यान
न देते हुए भी मन से
विचार करते हुए हम घूम सकते
हैं। यदि घूमने के लिए हम
रोज नये-नये रास्ते निकालते रहेंगे, तो सारा ध्यान
उन रास्तों में लगाना पड़ेगा। फिर मन को मुक्तता
नहीं मिल सकती। सारांश यह कि हमें
अपना व्यवहार इसीलिए बांध लेना चाहिए कि जीवन एक
बोझ सा नहीं, बल्कि
आनंदमय प्रतीत हो।
3.
इसलिए भगवान इस अध्याय में कार्यक्रम बता रहे हैं। हम तीन संस्थाएं साथ लेकर ही जन्म
लेते हैं। मनुष्य इन तीनों संस्थाओं का कार्य भली-भाँति चलाकर अपना संसार सुखमय बना
सके; इसीलिए गीता यह कार्यक्रम बताती है। वे तीन संस्थाएं कौन-सी हैं? पहली संस्था
है- हमारे आसपास लिपटा हुआ यह शरीर। दूसरी संस्था है- हमारे आसपास फैला हुआ यह विशाल
ब्रह्मांड- यह अपार सृष्टि, जिसके हम एक अंश हैं। जिसमें हमारा जन्म हुआ वह समाज, हमारे
जन्म की प्रतीक्षा करने वाले वे माता-पिता, भाई-बहन, अड़ोसी-पड़ोसी यह हुई तीसरी संस्था।
हम
रोज इन तीन संस्थाओं का उपयोग करते हैं- इन्हें छिजाते हैं। गीता चाहती है कि हमारे
द्वारा इन संस्थाओं में जो छीजन आती है, उसकी पूर्ति के लिए हम सतत प्रयत्न करें और
अपना जीवन सफल बनायें। इन संस्थाओं के प्रति हमारा यह जन्मजात कर्तव्य हमें निरहंकार
भावना से करना चाहिए।
इन
कर्तव्यों को पूरा तो करना है, परंतु उसकी पूर्ति की योजना क्या हो? यज्ञ, दान और तप-
इन तीनों के योग से ही वह योजना बनती है। यद्यपि इन शब्दों से हम परिचित हैं, तो भी
इनका अर्थ हम अच्छी तरह नहीं समझते। अगर हम इनका अर्थ समझ ले और इन्हें अपने जीवन में
समाविष्ट करें, तो ये तीनों संस्थाएं सफल हो जायेंगी तथा हमारा जीवन भी मुक्त और प्रसन्न
रहेगा।
95.
उसके लिए त्रिविध क्रियायोग
4.
इस अर्थ को समझने के लिए पहले हम यह देखें कि ‘यज्ञ’ का अर्थ क्या है। सृष्टि-संस्था से
हम प्रतिदिन काम लेते हैं। सौ आदमी यदि एक जगह रहते है, तो दूसरे दिन वहाँ की सारी
सृष्टि दूषित हुई दिखायी देती है। वहाँ की हवा हम दूषित कर देते हैं, जगह गंदी कर देते
हैं। अन्न खाते हैं और सृष्टि को भी छिजाते हैं। सृष्टि-संस्था की इस छीजन की हमें
पूर्ति करनी चाहिए। इसीलिए यज्ञ-संस्था का निर्माण हुआ है।
यज्ञ
का उद्देश्य क्या है? सृष्टि की जो हानि हुई, उसे पूरा करना। आज हजारों वर्षों से हम
जमीन जोतते आ रहे हैं, उससे जमीन का कस कम होता जा रहा है। यज्ञ कहता है- ‘पृथ्वी को
उसका कस वापस लौटाओ, जमीन में हल चलाओ, उसमें सूर्य की रोशनी पैठने दो। उसमें खाद डालो।’
छीजन की पूर्ति करना, यह है यज्ञ का एक हेतु। दूसरा हेतु है, उपयोग में लायी हुई वस्तुओं
का शुद्धीकरण। हम कुएं का उपयोग करते हैं, जिससे आसपास गंदगी हो जाती है, पानी इकट्ठा
हो जाता है। कुएं के पास की यह सृष्टि जो खराब हो गयी है, उसे शुद्ध करना चाहिए। वहाँ
का गंदा पानी निकाल डालना चाहिए। कीचड़ दूर कर देना चाहिए। क्षति-पूर्ति करने और सफाई
करने के साथ ही वहाँ कुछ प्रत्यक्ष निर्माण-कार्य भी करना चाहिए- यह तीसरी बात भी यज्ञ
के अंतर्गत है।
हमने
कपड़ा पहना, तो हमें चाहिए कि रोज सूत कातकर फिर नव-निर्माण करें। कपास पैदा करना,
अनाज उत्पन्न कराना, सूत कातना, यह भी यज्ञ-क्रिया ही है। यज्ञ में जो कुछ निर्माण
करना है, वह स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि हमने जो क्षति की है, उसे पूरा करने की कर्तव्य-भावना
से वह होना चाहिए। यह परोपकार नहीं है। हम तो पहले से ही कर्जदार हैं। जन्मतः ही अपने
सिर पर ऋण लेकर हम आते हैं। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें जो कुछ निर्माण करना है, वह
यज्ञ अर्थात सेवा है, परोपकार नहीं। उस सेवा से हमें अपना ऋण चुकाना है। हम पद-पद पर
सृष्टि का उपयोग करते हैं। अतः उस हानि की पूर्ति करने के लिए, उसकी शुद्धि करने के
लिए और नवीन वस्तु उत्पन्न करने के लिए हमें यज्ञ करना होता है।
5.
दूसरी संस्था है, हमारा मनुष्य-समाज। मां-बाप, गुरु, मित्र ये सब हमारे लिए मेहनत करते
हैं। समाज का यह ऋण चुकाने के लिए दान की व्यवस्था की गयी है। दान का अर्थ है, समाज
का ऋण चुकाने के लिए किया गया प्रयोग। दान का अर्थ परोपकार नहीं। समाज से मैंने अपार
सेवा ली है। जब मैं इस संसार में आया, तो दुर्बल और असहाय था। इस समाज ने मुझे छोटे
से बड़ा किया है। इसलिए मुझे समाज की सेवा करनी चाहिए।
‘परोपकार’
कहते हैं, दूसरे से कुछ न लेकर की हुई सेवा को। परंतु यहाँ तो समाज से पहले ही भरपूर
ले चुके हैं। समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिए जो सेवा की जाये, वही दान है। मनुष्य-समाज
को आगे बढ़ने में सहायता करना दान है। सृष्टि की हानि पूरी करने के लिए जो श्रम किया
जाता है, वह यज्ञ है, और समाज का ऋण चुकाने के लिए तन, मन, धन तथा अन्या साधनों से
जो सहायता की जाती है, वह दान है।
6.
इसके अलावा एक तीसरी संस्था और है। वह है शरीर। शरीर भी प्रतिदिन छीजता जाता है। हम
अपने मन, बुद्धि, इंदिय, सबसे काम लेते हैं, इनको छिजाते हैं। इस शरीर रूपी संस्था
में जो विकार, जो दोष उत्पन्न होते हैं, उनकी शुद्धि के लिए ‘तप’
बताया गया है।
7.
इस प्रकार सृष्टि, समाज और शरीर- इन तीनों संस्थाओं का कार्य जिससे अच्छी प्रकार चल
सके, उसी प्रकार व्यवहार करना हमारा कर्तव्य है। हम अनेक योग्य-अयोग्य संस्थाएं निर्माण
करते हैं, परंतु ये तीन संस्थाएं हमारी बनायी हुई नहीं हैं। ये तो स्वभावतः ही हमें
मिल गयी हैं। ये संस्थाएं कृत्रिम नहीं हैं। अतः इन तीन संस्थओं की हानि यज्ञ, दान
और तप- इन साधनों से पूरी करना हमारा स्वभाव-प्राप्त धर्म है। अगर हम इस तरह से चलें,
तो जो कुछ शक्ति हमारे अंदर है, वह सारी इसमें लग जायेगी। अन्य बातों के लिए और शक्ति
शेष ही नही बचेगी।
इन
तीनों संस्थाओं- सृष्टि, समाज और शरीर- को सुंदर रखने के लिए हमें अपनी सारी शक्ति
खर्च करनी पड़ेगी। यदि कबीर की तरह हम भी कह सकें कि ‘हे प्रभो, ज्यों की त्यों धरि
दीन्हीं चदरिया- तूने मुझे जैसी चादर दी थी, उसे वैसी-की-वैसी छोड़कर जा रहा हूं, तू
इसे अच्छी तरह जांच ले‘ तो वह कितनी बड़ी सफलता है। परंतु
ऐसी सफलता प्राप्त करने के लिए यज्ञ, दान और तप का त्रिविध कार्यक्रम व्यवहार में लाना
चाहिए।
यज्ञ,
दान और तप में हमने भेद माना है, परंतु सच पूछा जाये तो इनमें भेद नहीं है, क्योंकि
सृष्टि, समाज और शरीर- ये बिलकुल भिन्न-भिन्न संस्थाएं हैं ही नहीं। यह समाज सृष्टि
से बाहर नहीं है, न यह शरीर ही सृष्टि के बाहर है। इन तीनों को मिलाकर एक ही भव्य सृष्टि-संस्था
बनती है। इसीलिए हमें जो उत्पादक श्रम करना है, जो दान देना है, जो तप करना है, उन
सबको व्यापक अर्थ में ‘यज्ञ’ ही कह सकते हैं। गीता ने चौथे अध्याय
में ‘द्रव्य-यज्ञ’, ‘तपो-यज्ञ’
आदि यज्ञ बताये हैं। गीता ने यज्ञ का अर्थ विशाल बना दिया है।
इन
तीनों संस्थाओं के लिए हम जो-जो सेवा-कार्य करेंगे, वे यज्ञरूप ही होंगे। आवश्यकता
है उस सेवा को निरपेक्ष रखने की। उससे फल की अपेक्षा तो की ही नहीं जा सकती, क्योंकि
फल तो हम पहले ही ले चुके हैं। ऋण तो पहले ही सिर पर चला आ रहा है। जो लिया है, उसे
वापस करना है। यज्ञ से सृष्टि-संस्था में साम्यावस्था प्राप्त होती है। दान से समाज
में साम्यावस्था आती है और तप से शरीर में साम्यावस्था रहती है। इस तरह तीनों ही संस्थाओं
में साम्यावस्था रखने का कार्यक्रम है। इससे शुद्धि होगी और दूषित भाव नष्ट हो जायेगा।
8.
यह जो सेवा करनी है, उसके लिए कुछ ‘भोग’ भी ग्रहण करना पड़ेगा। भोग भी यज्ञ
का ही एक अंग है। इस भोग को गीता ‘आहार’ कहती है। इस शरीर रूपी यंत्र को अन्न
रूपी कोयला देने की जरूरत है। यद्यपि यह आहार स्वयं यज्ञ नहीं है, तथापि यज्ञ सिद्ध
करने का एक अंग अवश्य है। इसलिए हम कहा करते हैं- उदरभरण नोहे जाणिजे यज्ञकर्म - ‘यह उदर-भरण नहीं, इसे यज्ञ-कर्म जानो।’
बगीचे
से फूल लाकर देवता के सिर पर चढ़ाना, यह पूजा है, परंतु फूल उत्पन्न करने के लिए बगीचे
में जो मेहनत की जाती है, वह भी पूजा ही है। यज्ञ पूरा करने के लिए जो-जो क्रिया की
जाती है, वह एक प्रकार की पूजा ही है। शरीर तभी हमारे काम में आ सकेगा, जब हम उसे आहार
देंगे। यज्ञ-साधन रूप कर्म भी ‘यज्ञ’ ही है। गीता इन कर्मों को ‘तदर्थीय-कर्म’-
‘यज्ञार्थ-कर्म’- कहती है। सेवार्थ शरीर सतत खड़ा रहे
इसलिए इस शरीर को जो आहुति दूंगा, वह यज्ञ रूप है। सेवा के लिए किया गया आहार पवित्र
है।
9.
इन सब बातों के मूल में फिर श्रद्धा चाहिए। सारी सेवा को ईश्वरार्पण करने का भाव मन
में होना चाहिए। यह बड़े महत्त्व की बात है। ईश्वरार्पण बुद्धि के बिना सेवामयता नहीं
आ सकती। ईश्वरार्पणता इस प्रधान वस्तु को भुला देने से काम नहीं चलेगा।
96.
साधना का सात्त्विकीकरण
10.
परंतु हम अपनी सब क्रियाएं ईश्वर को कब अर्पण कर सकेंगे? तभी, जबकि वे सात्त्विक होंगी।
जब हमारे सब कर्म सात्त्विक होंगे, तभी हम उन्हें ईश्वरार्पण कर सकेंगे। यज्ञ, दान
और तप, सब सात्त्विक होने चाहिए। क्रियाओं को सात्त्विक कैसे बनाना, इसका तत्त्व हमने
चौदहवें अध्याय में देख लिया है। इस अध्याय में गीता उस तत्त्व का विनियोग बता रही
है।
11.
सात्त्विकता की यह योजना करने में गीता उद्देश्य दुहरा है कि बाहर से यज्ञ, दान और
तपरूप जो मेरी ‘विश्व-सेवा’ चल रही है, उसी को भीतर से ‘आध्यात्मिक
साधना’ का नाम दिया जा सके। सृष्टि की सेवा और साधना के भिन्न-भिन्न
कार्यक्रम नहीं होने चाहिए। सेवा और साधना, ये दो भिन्न बातें हैं ही नहीं। दोनों के
लिए एक ही प्रयत्न, एक ही कर्म! इस प्रकार जो कर्म किया जाये, उसे भी अंत में ईश्वरार्पण
करना है। सेवा + साधना + ईश्वरार्पणता- यह योग एक ही क्रिया से सिद्ध होना चाहिए।
12.
यज्ञ को सात्त्विक बनाने के लिए दो बातों की आवश्यकता है- निष्फलता का अभाव और सकामता
का अभाव। ये दो बातें यज्ञ में होनी चाहिए। यज्ञ में यदि सकामता होगी, तो वह राजस यज्ञ
हो जायेगा और यदि निष्फलता होगी, तो वह तामस यज्ञ हो जायेगा। सूत कातना यज्ञ है, परंतु
यदि सूत कातते हुए हमने उसमें अपनी आत्मा नहीं उड़ेली, और हमें चित्त की एकाग्रता नहीं
सधी, तो वह सूत्र – यज्ञ जड़ हो जायेगा। बाहर
से हाथ काम कर रहे हैं, उस समय अंदर से मन का मेल नहीं है, तो वह सारी क्रिया विधिहीन
हो जायेगी।
विधिहीन
कर्म जड़ हो जाते हैं। विधिहीन क्रिया में तमोगुण आ जाता है। उस क्रिया से उत्कृष्ट
वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता। उसमें से फल की निष्पत्ति नहीं होगी। यज्ञ में सकामता
न हो, तो भी उससे उत्कृष्ट फल मिलना चाहिए। कर्म में यदि मन न हो, आत्मा न हो, तो वह
कर्म बोझ सा हो जायेगा। फिर उसमें उत्कृष्ट फल कहां? यदि बाहर का काम बिगड़ा, तो यह
निश्चित समझो कि अंदर मन का योग नहीं था। अतः कर्म में अपनी आत्मा उड़ेलो। आंतरिक सहयोग
रखो। सृष्टि संस्था का ऋण चुकाने के लिए हमें उत्कृष्ट फलोत्पत्ति करनी चाहिए। कर्मो
में फलहीनता न आने पाये, इसीलिए आंतरिक मेल की विधियुक्तता आवश्यक है।
13.
इस प्रकार जब हमारे अंदर निष्कामता आ जायेगी और विधिपूर्वक सफल कर्म होगा, तभी हमारी
चित्त-शुद्धि होने लगेगी। चित्त-शुद्धि की कसौटी क्या है? बाहरी काम की जांच करके देखो।
यदि वह निर्मल और सुंदर न हो, तो चित्त को भी मलिन समझ लेने में कोई बाधा नहीं। भला,
कर्म में सुंदरता कब आती है? शुद्ध चित्त से परिश्रम के साथ किये हुए कर्म पर ईश्वर
अपनी पसंदगी की, अपनी प्रसन्नता की मुहर लगा देता है। जब प्रसन्न परमेश्वर कर्म की
पीठ पर प्रेम का हाथ फिराता है, तो वहाँ सौंदर्य उत्पन्न हो जाता है। सौंदर्य का अर्थ
है, पवित्र श्रम को मिला हुआ परमेश्वरीय प्रसाद।
शिल्पकार
जब मूर्ति बनाते समय तन्मय हो जाता है, तो उसे ऐसा अनुभव होने लगता है कि यह सुंदर
मूर्ति मेरे हाथों से नहीं बनी। मूर्ति का आकार गढ़ते-गढ़ते अंतिम क्षण में न जाने
कहाँ से उसमें अपने-आप सौंदर्य आ टपकता है। क्या चित्त-शुद्धि के बिना यह ईश्वरीय कला
प्रकट हो सकती है? मूर्ति में जो कुछ स्वारस्य, माधुर्य है, वह यही कि अपने अंतःकरण
का सारा सौंदर्य उसमें उंड़ेल दिया जाता है। मूर्ति यानि हमारे चित्त की प्रतिमा! हमारे
समस्त कर्म यानि हमारे मन की मूर्तियां ही हैं। अगर मन सुंदर है, तो वह कर्ममय मूर्ति
भी सुंदर होगी। बाहर के कर्मों की शुद्धि मन की शुद्धि से और मन की शुद्धि बाहर के
कर्मों से जांच लेनी चाहिए।
14.
एक बात और। वह यह कि इन सब कर्मों में मंत्र भी चाहिए। मंत्रहीन कर्म व्यर्थ है। सूत
कातते समय यह मंत्र अपने हृदय में रखो कि मैं इस सूत से गरीब जनता के साथ जोड़ा जा
रहा हूँ। यदि यह मंत्र हृदय में न हो और घंटों क्रिया करें, तो भी वह सब व्यर्थ जायेगी।
उस क्रिया से चित्त शुद्ध नहीं होगा। कपास की पूनी में से अव्यक्त परमात्मा सूत्ररूप
में प्रकट हो रहा है- ऐसा मंत्र अपनी क्रिया में डालकर फिर उस क्रिया की ओर देखो। वह
क्रिया अत्यंत सात्त्विक और सुंदर बन जायेगी। वह क्रिया पूजा बन जायेगी, यज्ञरूप हो
जायेगी। उस छोटे-से धागे द्वारा हम समाज के साथ, जनता के साथ, जगदीश्वर के साथ बंध
जायेंगे। बाल कृष्ण के छोटे-से मुंह में यशोदा मां को सारा विश्व दिखलायी दिया। उस
मंत्रमय सूत्र के धागों में तुम्हें विशाल विश्व दिखायी देने लगेगा।
97.
आहार-शुद्धि
15.
ऐसी सेवा के लिए आहार-शुद्धि आवश्यक है। जैसा आहार, वैसा ही मन! आहार परिमित होना चाहिए।
आहार कौन-सा हो, इसकी अपेक्षा यह बात अधिक महत्त्व की है कि वह कितना हो। ऐसा नहीं
कि आहार का चुनाव महत्त्व की बात नहीं, परंतु हम जो आहार लेते हैं, वह उचित मात्रा
में है या नहीं, यह उससे भी अधिक महत्त्व की बात है।
16.
हम जो कुछ खाते हैं, उसका परिणाम अवश्य होगा। हम खाते क्यों
हैं? इसीलिए कि उत्तम सेवा
हो। आहार
भी
यज्ञांग
ही है। सेवा रूपी यज्ञ को फलदायी बनाने
के लिए आहार चाहिए। इस भावना से
आहार की ओर देखो।
आहार शुद्ध और स्वच्छ होना
चाहिए। व्यक्ति अपने जीवन में कितनी आहार-शुद्धि कर सकता है,
इसकी कोई मर्यादा नहीं। हमारे समाज ने आहार-शुद्धि
के लिए पर्याप्त तपस्या की है। आहार-शुद्धि के लिए भारत
में विशाल प्रयत्न, प्रयोग हुए हैं। उन प्रयोगों में
हजारों वर्ष बीते। उनमें कितनी तपस्या लगी, यह कहा नहीं
जा सकता।
इस
भूमंडल पर भारत ही
एक ऐसा देश है, जहाँ कितनी ही पूरी-की-पूरी जातियां मांसाशन-मुक्त हैं। जो जातियां मांसाहारी
हैं, उनके भी भोजन में
मांस नित्य और मुख्य पदार्थ
नहीं है और जो
मांस खाते हैं, वे भी उसमें
कुछ हीनता अनुभव करते हैं। मन से तो
वे भी मांस का
त्याग कर चुके हैं।
मांसाहार की प्रवृत्ति को
रोकने के लिए यज्ञ
प्रचलित हुआ और उसी के
लिए वह बंद भी
हुआ। श्रीकृष्ण ने भगवान ने
तो यज्ञ की व्याख्या ही
बदल दी। श्रीकृष्ण ने दूध की
महिमा बढ़ायी। श्रीकृष्ण ने आसाधारण बातें
कुछ कम नहीं की
हैं, परंतु भारत की जनता किस
कृष्ण के पीछे पागल
हुई थी? भारतीय जनता को तो ‘गोपालकृष्ण’
‘गोपालकृष्ण’ यही नाम प्रिय है। वह कृष्ण, जिसके
पास गायें बैठी हुई हैं, जिसके अधरों पर मुरली धरी
है, ऐसा गायों की सेवा करने
वाला, गोपालकृष्ण ही आबाल-वृद्धों
का परिचित है। गो-रक्षण का
बड़ा उपयोग मांसाहार बंद करने में हुआ। गाय के दूध की
महिमा बढ़ी और मांसाहार कम
हुआ।
17.
फिर भी संपूर्ण आहार-शुद्धि हो गयी हो, सो बात नहीं। हमें अब उसे आगे बढ़ाना है। बंगाली
लोग मछली खाते हैं, यह देखकर कितने ही लोगों को आश्चर्य होता है। किंतु इसके लिए उन्हें
दोष देना ठीक नही होंगा। बंगाल में सिर्फ चावल होता है। उससे शरीर को पूरा पोषण नहीं
मिल सकता। इसके लिए प्रयोग करने पड़ेंगे। फिर लोगों में इस बात का विचार शुरू होगा
कि मछली न खाकर कौन-सी वनस्पति खायें, जिसमें मछली के बराबर ही पुष्टि मिल जाये। इसके
लिए असाधारण त्यागी पुरुष पैदा होंगे और फिर ऐसे प्रयोग होंगे। ऐसे व्यक्ति ही समाज
को आगे ले जाते हैं। सूर्य जलता रहता है। तब जाकर कहीं जीवित रहने योग्य 98° उष्णता
हमारे शरीर में रहती है। जब समाज में वैराग्य के प्रज्वलित सूर्य उत्पन्न होते हैं
और जब वे बड़ी श्रद्धापूर्वक परिस्थितियों के बंधन तोड़कर बिना पंखों के अपने ध्येयाकाश
में उड़ने लगते हैं, तब कहीं संसारोपयोगी अल्प-स्वल्प वैराग्य का हममें संचार होता
है। मांसाहार बंद करने के लिए ऋषियों को कितनी तपस्या करनी पड़ी होगी, कितने प्राण
अर्पण करने पड़े होंगे, इस बात का विचार ऐसे समय मेरे मन में आता है।
97.
आहार-शुद्धि
18.
सारांश यह कि आज हमारी सामुदायिक आहार-शुद्धि इतनी हुई है। अनंत त्याग करके हमारे पूर्वजों
ने जो कमाई की है, उसे गंवाओं मत! भारतीय संस्कृति की इस विशेषता को डुबाओ मत! हमें
जैसे-तैसे जीवित नहीं रहना है। जिसे किसी-न-किसी तरह जीवित रहना है, उसका काम बड़ा
सरल है। पशु भी किसी-न-किसी तरह जी ही लेते हैं। तब क्या, जैसे पशु, वैसे ही हम? पशु
में और हममें अंतर है। उस अंतर को बढ़ाना ही संस्कृति-वर्धन कहा जाता है। हमारे राष्ट्र
ने मांसाहार-त्याग का बहुत बड़ा प्रयोग किया। उसे और आगे ले जाओ। कम-से-कम जिस मंजिल
तक हम पहुँच चुके हैं, उससे पीछे तो मत हटो!
यह
सूचना देने का कारण यह है कि आजकल कितने ही लोगों को मांसाहार की इष्टता प्रतीत होने
लगी है। आज पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ रहा है। मेरा
विश्वास है कि अंत में इसका परिणाम अच्छा ही होगा। पाश्चात्य संस्कृति के कारण हमारी
जड़ श्रद्धा हिलती जा रही है। यदि अंध-श्रद्धा डिग गयी, तो कुछ हानि नहीं। जो अच्छा
होगा, वह टिकेगा और बुरा जलकर राख हो जायेगा। लेकिन अंध-श्रद्धा जाने पर उसके स्थान
पर अंध-अश्रद्धा नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि केवल श्रद्धा ही अंधी होती हो।
केवल श्रद्धा ही ‘अंध’ विशेषण का ठेका नहीं लिया है। अश्रद्धा भी अंधी हो सकती है।
मांसाहार
के बारे में आज फिर से विचार शुरू हो गया है। जो हो, कोई नवीन विचार सामने आता है,
तो मुझ बड़ा आनंद होता है। लगता है कि लोग जग रहे हैं और धक्के दे रहे हैं। जागृति
के लक्षण देखकर मुझे अच्छा लगता है। लेकिन यदि जगकर आखें मलते हुए वैसे ही चल पडेंगे,
तो गिर पड़ने की आशंका रहेगी। अतः जब तक पूरे-पूरे न जग जायें, अच्छी तरह आंख खोलकर
देखने न लगें, तब तक हाथ-पैर को मर्यादा में ही रखना अच्छा है।
विचार
खूब कीजिए, आड़ा-तिरछा, उलटा-सीधा, चारों ओर से खूब सोचिए। धर्म पर विचार की कैंची
चलाइए। इस विचार रूपी कैंची से जो धर्म कट जाये, समझो कि वह तीन कौड़ी का ही था। इस
तरह जो टुकड़े कट-छट जायें, उन्हें जाने दो। तुम्हारी कैंची से जो न कटे, बल्कि उससे
उलटे तुम्हारी कैंची ही टूट जाये, वही धर्म सच्चा है। धर्म को विचारों से डर नहीं।
अतः विचार तो करो, परंतु काम एकदम मत कर डालो। अधजगे रहकर यदि कुछ काम करोगे, तो गिरोगे।
विचार जोरों से चले, फिर भी कुछ देर आचार को संभाले रखो। अपनी कृति पर संयम रखो। अपनी
पहले की पुण्याई मत गंवा बैठो।
98.
अविरोधी जीवन की गीता की योजना
19.
आहार-शुद्धि से चित्त-शुद्धि रहेगी। शरीर को भी बल मिलेगा। समाज-सेवा अच्छी तरह हो
सकेगी। चित्त में संतोष रहेगा और समाज में भी संतोष फैलेगा। जिस समाज में यज्ञ, दान,
तप ये क्रियाएं विधि और मंत्र सहित होती रहती हैं, उसमें विरोध दिखायी नहीं देगा। दो
दर्पण यदि एक-दूसरे के आमने-सामने रखे हों, तो जैसे इसमें का उसमें और उसमें का इसमें
दीखेगा, उसी तरह व्यक्ति और समाज में बिंब-प्रतिबिंब-न्यास से परस्पर संतोष प्रकट होगा
जो मेरा संतोष है, वही समाज का है और जो समाज का है, वही मेरा। इन दोनों संतोषों की
हम जांच कर सकते हैं और देखेंगे कि दोनों एकरूप हैं। सर्वत्र अद्धैत का अनुभव होगा।
द्वैत और द्रोह अस्त हो जायेंगे। ऐसी सुव्यवस्था जिस योजना के द्वारा हो सकती है, उसी
का प्रतिपादन गीता कर रही है। अगर अपना दैनिक कार्यक्रम हम गीता की योजना के अनुसार
बनायें, तो कितना अच्छा हो!
20.
परंतु आज व्यक्ति और समाज के जीवन में विरोध उत्पन्न हो गया है। यह विरोध कैसे दूर
हो सकता है, यही चर्चा सब ओर चल रही है। व्यक्ति और समाज की मर्यादा क्या है? व्यक्ति
गौण है या समाज? इनमें श्रेष्ठ कौन है? व्यक्तिवार-समर्थक कुछ लोग समाज को जड़ समझते
हैं। सेनापति के सामने कोई सिपाही आता है, तो सेनापति उससे बोलते समय सौम्य भाषा का
उपयोग करता है। उसे ‘आप’ भी कहेगा, परंतु सेना को तो वह चाहे
जिस तरह हुक्म देगा। मानो सैन्य अचेतन हो, लकड़ी का एक लट्ठ ही उसे इधर-से-उधर हिलायेगा
और उधर-से-इधर। व्यक्ति चैतन्यमय है और समाज जड़, ऐसा अनुभव यहाँ भी हो रहा है। देखो,
मेरे सामने दो सौ, तीन सौ आदमी हैं, परंतु उन्हें रुचे या न रुचे मै तो बोलता ही जा
रहा हूँ। मुझे जो विचार सूझता है, वही कहता हूँ। मानो आप जड़ ही हैं। परंतु मेरे सामने
कोई व्यक्ति आयेगा, तो मुझे उसकी बात सुननी पड़ेगी और उसे विचारपूर्वक उत्तर देना पड़ेगा,
परंतु यहाँ तो मैंने आपको घंटे-घंटे भर यों ही बैठा रखा है।
‘समाज जड़ है और व्यक्ति चैतन्य’-
ऐसा कहकर व्यक्ति- चैतन्यवाद का कोई प्रतिपादन करते हैं तो कोई समुदाय को महत्त्व देते
हैं। मेरे बाल झड़ गये, हाथ टूट गया, आंखें चली गयीं और दांत गिर गये। इतना ही नहीं,
एक फेफड़ा भी बेकार हो गया, परंतु मैं फिर भी जीवित रहता हूं, क्योंकि पृथक रूप में
एक-एक अवयव जड़ है। किसी एक अवयव के नाश से सर्वनाश नहीं होता। सामुदायिक शरीर चलता
ही रहता है। इस प्रकार ये दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं। आप जिस दृष्टि से देखेंगे,
वैसा ही अनुमान निकालेंगे। जिस रंग का चश्मा उसी रंग की सृष्टि!
21.
कोई व्यक्ति को महत्त्व देता है, तो कोई समाज को। इसका कारण यह है कि समाज में जीवन-कलह
की कल्पना फैल गयी है। परंतु क्या जीवन कलह के लिए है? इससे तो फिर हम मर क्यों नहीं
जाते? कलह तो मरने के लिए है। तभी तो हम स्वार्थ और परमार्थ में भेद डालते हैं। जिसने
पहले-पहल यह कल्पना की कि स्वार्थ और परमार्थ में अंतर है, उसकी बलिहारी है! जो वस्तु
वास्तव में है ही नहीं, उसके अस्तित्व का आभास देने की शक्ति जिसकी बुद्धि में थी,
उसकी तारीफ करने को जी चाहता है। जो भेद नहीं है, वह उसने खड़ा किया और उसे जनता को
सिखाया, इस बात का आश्चर्य होता है। चीन की दीवार के जैसा ही यह प्रकार है। यह मानना
वैसा ही है, जैसा कि क्षितिज की मर्यादा बांधना और फिर यह मानना कि उसके पार कुछ नहीं
है। इन सबका कारण है, आज यज्ञमय जीवन का अभाव! इसी से व्यक्ति और समाज में भेद उत्पन्न
हो गया है।
परंतु
व्यक्ति और समाज में वास्तविक भेद नहीं किया जा सकता। किसी कमरे के दो भाग करने के
लिए अगर कोई पर्दा लगाया जाये और पर्दा हवा से उड़कर आगे-पीछे होने लगे, तो कभी यह
भाग बड़ा मालूम होता है और कभी वह। हवा की लहर पर उस कमरे के भाग अवलंबित रहते हैं।
वे स्थायी, पक्के नहीं हैं। गीता इन झगड़ों से परे है। ये झगड़े काल्पनिक हैं। गीता
तो कहती है कि अंतःशुद्धि की मर्यादा रखो। फिर व्यक्ति और समाज के हितों में कोई विरोध
उत्पन्न नहीं होगा। एक-दूसरे के हित में कोई बाधा नहीं होगी। इस बाधा को, इस विरोध
को दूर करना ही गीता की विशेषता है। गीता के इस नियम का पालन करने वाला यदि एक भी व्यक्ति
मिल जाये, तो अकेले उसी से सारा राष्ट्र सम्पन्न हो जायेगा। राष्ट्र का अर्थ है- राष्ट्र
के व्यक्ति। जिस राष्ट्र में ऐसे ज्ञान और आचार संपन्न व्यक्ति नहीं हैं, उसे राष्ट्र
कैसे मानेंगे?
भारत
क्या है? भारत यानि रवींद्रनाथ, भारत यानि गांधी या इसी तरह के पांच-दस नाम। बाहर का
संसार भारत की कल्पना इन्हीं पांच-दस व्यक्तियों पर से करता है। प्राचीन काल के दो-चार,
मध्यकाल के चार-पांच और आज के आठ-दस व्यक्ति ले लीजिए और उनमें हिमालय, गंगा आदि को
मिला दीजिए। बस, हो गया भारत। यही है भारत की व्याख्या। बाकी सब है इस व्याख्या का
भाष्य। भाष्य यानि सूत्रों का विस्तार। दूध का दही और दही का छाछ-मक्खन! झगड़ा दूध-दही,
छाछ-मक्खन का नहीं है। दूध का कस देखने के लिए उसमें मक्खन कितना है, यह देखा जाता
है। इसी प्रकार समाज का कस उसके व्यक्तियों पर से निकाला जाता है। व्यक्ति और समाज
में कोई विरोध नहीं है। विरोध हो भी कैसे सकता है? व्यक्ति-व्यक्ति में भी विरोध नहीं
होना चाहिए। यदि एक व्यक्ति से दूसरा व्यक्ति अधिक संपन्न हो जाये, तो इससे बिगड़ेगा
क्या? हां, कोई भी विपन्न अवस्था में न हो और संपत्ति वालों की संपत्ति समाज के काम
आती रहे, तो बस। मेरी दाहिनी जेब में पैसे हैं तो क्या, बांयी जेब में पैसे हैं तो
क्या, दोनों जेबें आखिर मेरी ही हैं! कोई व्यक्ति संपन्न होता है, तो उससे मैं संपन्न
होता हूं, राष्ट्र संपन्न होता है। ऐसी युक्ति साधी जा सकती है।
परंतु
हम भेद खड़े करते हैं। धड़ और सिर अलग-अलग हो जायेंगे, तो दोनों मर जायेंगे। अतः व्यक्ति
और समाज में भेद मत करो। गीता सिखाती है कि एक ही क्रिया स्वार्थ और परमार्थ को किस
प्रकार अविरोधी बना देती है। मेरे इस कमरे की हवा में और बाहर की अनंत हवा में कोई
विरोध नहीं है। यदि मैं इनमें विरोध की कल्पना करके कमरा बंद कर लूंगा, तो दम घुटकर
मर जाऊंगा अविरोध की कल्पना करके मुझे कमरा खोलने दो, तो वह अनंत हवा भीतर आ जायेगी।
जिस क्षण मैं अपनी जमीन और अपना घर का टुकड़ा औरों से अलग करता हूं, उसी क्षण मैं अनंत
संपत्ति से वंचित हो जाता हूँ। मेरा वह छोटा-सा घर जलता है, गिरता है, तो मैं ऐसा समझकर
कि मेरा सर्वस्व चला गया, रोने-पीटने लग जाता हूँ। परंतु ऐसा क्यों करना चाहिए? क्यों
रोना-पीटना चाहिए? पहले तो संकुचित कल्पना करें और फिर रोयें! ये पांच सौ रूपये मेरे
हैं, ऐसा कहा कि सृष्टि की अपार संपत्ति से मैं दूर हुआ। ये दो भाई मेरे हैं, ऐसा समझा
कि संसार के असंख्य भाई मुझसे दूर हो गये- इसका हमें ध्यान नहीं रहता। मनुष्य अपने
को कितना संकुचित बना लेता है! वास्वत में तो मनुष्य का स्वार्थ ही परार्थ होना चाहिए।
गीता ऐसा ही सरल-सुंदर मार्ग दिखा रही है, जिससे व्यक्ति और समाज में उत्तम सहयोग हो।
22.
जीभ और पेट में क्या विरोध है? पेट को जितना अन्न चाहिए, उतना ही जीभ को देना चाहिए।
पेट ने ‘बस’ कहा कि जीभ को देना बंद कर देना चाहिए। पेट एक संस्था
है, तो जीभ दूसरी संस्था। मैं इन संस्थाओं का सम्राट हूँ। इन सब संस्थाओं में अद्वैत
ही है। कहाँ से ले आये यह अभागा विरोध? जिस प्रकार एक ही देह की इन संस्थाओं में वास्तविक
विरोध नहीं है, बल्कि सहयोग है, उसी प्रकार समाज में भी है। समाज में इस सहयोग को बढ़ाने
के लिए ही गीता चित्त शुद्धिपूर्वक यज्ञ-दान-तप की क्रिया का विधान बताती है। ऐसे कर्मों
से व्यक्ति और समाज, दोनों का कल्याण होगा। जिसका जीवन यज्ञमय है, वह सबका हो जाता
है। प्रत्येक पुत्र को ऐसा मालूम होता है कि मां का प्रेम मुझ पर है। उसी प्रकार यह
व्यक्ति सबको अपना मालूम होता है। सारी दुनिया को वह प्रिय और अपना लगता है। सभी को
ऐसा मालूम होता है कि वह हमारा प्राण है, मित्र है, सखा है। ऐसा पुरुष तो पहावा। जनांस वाटे हा असावा॥ ‘ऐसे पुरुष का दर्शन करें, लोग
उसे अनन्य रूप से चाहते हैं'- ऐसा समर्थ रामदास ने कहा है। ऐसा जीवन बनाने की युक्ति
गीता ने बतायी है।
99.
समर्पण का मंत्र
23.
गीता यह भी कहती है कि जीवन को यज्ञमय बनाकर फिर उस सबको ईश्वरार्पण कर देना चाहिए।
जीवन के सेवामय हो जाने पर फिर और ईश्वरार्पणता किसलिए? हम यह सरलता से कह तो देते
हैं कि सारा जीवन सेवामय कर दिया जाये, परंतु ऐसा करना बहुत कठिन है। अनेक जन्मों के
प्रयत्न के बाद वह थोड़ा-बहुत सध सकता है। अलावा, भले ही सारे कर्म सेवामय अक्षरशः
सेवामय हो जाये, तो भी उससे ऐसा नहीं कह सकते कि वे पूजामय हो ही गये। इसलिए, ‘ऊँ तत्सत्’
इस मंत्र के साथ सारे कर्म ईश्वरार्पण करने चाहिए।
केवल
परार्थ संभव ही नहीं है। ऐसा कोई काम नहीं हो सकता, जिसमें मेरा लेशमात्र भी स्वार्थ
न हो। इसलिए प्रतिदिन अधिक निष्काम और अधिक निःस्वार्थ सेवा हाथों से हो, ऐसी इच्छा
रखनी चाहिए। यदि यह चाहते हों कि सेवा उत्तरोत्तर अधिक शुद्ध हो, तो सारी क्रियाएं
ईश्वरार्पण करो। ज्ञानदेव ने कहा है-
नामामृत गोडी वैष्णवां लाधली। योगियां
साधली जीवनकळा॥
‘वैष्णवों
को नामामृत का माधुर्य मिला है। योगियों को जीवन-कला सधी है।’
नामामृत की मधुरता और जीवन-कला अलग-अलग नहीं है।
नाम का आंतरिक घोष और बाह्य जीवन-कला, दोनों का मेल है। योगी और वैष्णव एक ही हैं।
परमेश्वर को क्रिया अर्पण कर देने पर स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ, सब एकरूप हो जाते
हैं। पहले तो जो ‘तुम’ और “मैं” अलग-अलग हैं, उन्हें एक करना
चाहिए। तुम और मैं मिलकर हम हो गए। अब ‘हम’ और ‘वह’
को एक कर डालना है। पहले मुझे इस सृष्टि से मेल साधना है और फिर परमात्मा से। ऊँ तत्सत्
मंत्र में यह भाव सूचित किया जाता है।
24.
परमात्मा के अनंत नाम हैं। व्यास जी ने तो उन नामों का ‘विष्णुसहस्रनाम’
बना दिया है। जो-जो नाम हम कल्पित कर लें, वे सब उसके हैं। जो नाम हमारे मन में स्फुरित
हो, उसी अर्थ में उसे हम सृष्टि में देखें और तदनुरूप अपना जीवन बनायें। परमेश्वर का
जो नाम मन को भाये, उसी को हम सृष्टि में देखें और उसी के अनुसार हम बनें, इसको मैं
‘त्रिपदा गायत्री’ कहता हूँ। उदाहरण के लिए ईश्वर का
‘दयामय’ नाम ले लीजिए। ऐसा मानकर चलें कि वह ‘रहीम’
है। अब उसी दया-सागर परमेश्वर को इस सृष्टि में आंखें खोलकर देखें। भगवान ने प्रत्येक
बच्चे को उसकी सेवा के लिए माता दी है, जीने के लिए हवा दी है। इस तरह उस दयामय प्रभु
की सृष्टि में जो दया की योजना है, उसे देखें और अपना जीवन भी दयामय बनायें। भगवद्गीता
के काल में भगवान को जो नाम प्रसिद्ध था, वही भगवद्गीता ने सुझाया है। वह है ऊँ तत्सत्।
25.
ऊँ‘ का अर्थ है ‘हां’। परमात्मा है,
इस बीसवीं शताब्दी में भी परमात्मा है
स एव अद्य स
उ श्वः। वही आज है, वही
कल था और वही
कल होगा। वह कायम है।
सृष्टि कायम है और कमर
कसकर मैं भी साधना करने
के लिए तैयार हूँ। मैं साधक हूं, वह भगवान है
और यह सृष्टि पूजा-द्रव्य, पूजा-साधन है। जब ऐसी भावना
से मेरा हृदय भर जायेगा, तभी
कहा जा सकेगा कि
‘ऊँ’ मेरे गले उतरा। वह है, मैं
हूँ और मेरी साधना
भी है- ऐसा यह ऊँ कार-भाव मन में पैठ
जाना चाहिए और साधना में
प्रकट होना चाहिए। सूर्य को जब कभी
देखिए, वह किरणों सहित
है। वह किरणों को
दूर रखकर कभी रह ही नहीं
सकता। वह किरणों को
भूलता नहीं। इसी प्रकार कोई भी किसी भी
समय क्यों ने देखे, साधना
हमारे पास दिखायी देनी चाहिए। जब ऐसा हो
जायेगा, तभी यह कहा जा
सकेगा कि ‘ऊँ’ को हमने पचा
लिया।
इसके
बाद है ‘सत्’ परमेश्वर सत् है अर्थात् शुभ
है, मंगल है। इस भावना से
अभिभूत होकर भगवान के मांगल्य का
सृष्टि में अनुभव करो। देखो, वह पानी की
सतह! पानी में से एक घड़ा
भर लो। उससे जो गड्ढा पड़ेगा,
वह क्षण भर में ही
भर जायेगा। यह कितना मांगल्य
है? यह कितनी प्रीति
है? नदी
वेगेन
शुद्धयति।-
सृष्टिरूपी नदी वेग से शुद्ध हो
रही है। सारी सृष्टि शुभ और मंगल है।
अपने कर्म को भी ऐसा
ही होने दो। परमेश्वर के इस ‘सत्’
नाम को आत्मसात् करने
के लिए सारी क्रियाएं निर्मल और भक्तिमय होनी
चाहिए। सोमरस जिस तरह पवित्रकों में से छाना जाता
था, उसी तरह अपने कर्मों और साधनों को
नित्य परीक्षण करके निर्दोष बनाना चाहिए।
अब
रहा ‘तत्’ का अर्थ है
‘वह’- कुछ तो भी भिन्न,
इस सृष्टि से अलिप्त। परमात्मा
इस सृष्टि से भिन्न है
अर्थात अलिप्त है। सूर्योदय होते ही कमल खिलने
लगते हैं, पक्षी उड़ने लगते हैं और अंधकार नष्ट
हो जाता है। परंतु ‘सूर्य’ तो दूर ही
रहता है। इन सब परिणामों
से वह बिल्कुल अलग-सा रहता है।
हम अपने कर्मों में अनासक्ति रखें, अलिप्तता लायें, तब माना जायेगा
कि हमारे जीवन में ‘तत्’ नाम प्रविष्ट हुआ।
26. इस
प्रकार गीता ने यह ऊँ
तत्सत् वैदिक नाम लेकर अपनी सब क्रियाओं को
ईश्वरार्पण करना सिखाया है। पीछे नौवें अध्याय में सब कर्मों को
ईश्वरार्पण करने का विचार आया
है। यत्करोषि यदश्नासि इस श्लोक में
यही कहा गया है। इसी बात का इस सत्रहवें
अध्याय में विवरण किया गया है। परमेश्वर को अर्पण करने
की क्रिया सात्त्विक होनी चाहिए। तभी वह पमेश्वरार्पण की
जा सकेगी- यह बात यहाँ
विशेष रूप में बतायी गयी है।
100.
पापापहारि हरिनाम
27. यह सब ठीक है, परंतु यहाँ एक प्रश्न उठता है कि यह ऊँ तत्सत् नाम पवित्र पुरुष को ही पच सकता है, तब पापी पुरुष क्या करे? पापियों के मुंह में भी सुशोभित होने योग्य कोई नाम है या नहीं? ‘ऊँ तत्सत्’ नाम में वह भी शक्ति है। ईश्वर के किसी भी नाम में असत्य से सत्य की ओर ले जाने की शक्ति रहती है। वह पाप से निष्पापता की ओर ले जा सकता है। जीवन की धीरे-धीरे शुद्धि करनी चाहिए। परमात्मा अवश्य सहायता करेगा। तुम्हारी दुर्बलता की घड़ी में हाथ पकड़ेगा।
28. यदि कोई मुझसे कहे कि ‘एक ओर पुण्यमय किंतु अहंकारी जीवन और दूसरी ओर पापमय, किंतु नम्र जीवन- इनमें से किसी एक को पसंद करो।’ तो यदि मैं मुंह से न भी बोल सकूं, फिर भी अंतःकरण से कहूंगा कि, ‘जिस पाप से मुझे परमेश्वर का स्मरण रहता है, वही मुझे मिलने दो!’ मेरा मन यही कहेगा कि अगर पुण्यमय जीवन से परमात्मा की विस्मृति हो जाती है, तो जिस पापमय जीवन से उसकी याद आती है, उसी को ले। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं पापमय जीवन का समर्थन कर रहा हूँ। परंतु पाप उतना पाप नहीं है, जितना कि पुण्य का अहंकार पाप है। बहु भितों जाण पणा। आड न यो नारायणा- बहुत डरता हूँ सुजानपन को, नारायण के आड़े न आ जाये!- ऐसा तुकाराम ने कहा है। वह बड़प्पन नहीं चाहिए। उसकी अपेक्षा तो पापी, दुःखी होना ही अच्छा है। जाणतें
लेंकरूं। माता लागे दूर धरूं- ‘सयाने बच्चे को मां भी दूर रखती है।’ परंतु अबोध बालक को मां अपनी गोद में उठा लेगी। मैं स्वावलंबी पुण्यवान नहीं होना चाहता। परमेश्वरावलंबी पापी होना ही मुझे प्रिय है। परमात्मा की पवित्रता मेरे पाप को समाकर भी बचने जैसी है। हम पाप को टालने का प्रयत्न करें। यदि वे नहीं टल पाये, तो हृदय रोने लगेगा। मन छटपटाने लगेगा। तब ईश्वर की याद आयेगी। वह तो खड़ा-खड़ा तमाशा देख रहा है। पुकार करो ‘मैं पापी हूँ इसलिए तेरे द्वार आया हूँ।’ पुण्यवान को ईश्वर-स्मरण का अधिकार है, क्योंकि वह पुण्यवान है। पापी को ईश्वर-स्मरण का अधिकार है, क्योंकि वह पापी है।