फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद

101. अर्जुन का अंतिम प्रश्न

1. मेरे भाइयो, आज ईश्वर की कृपा से हम अठारहवें अध्याय तक पहुँचे हैं। प्रतिक्षण बदलने वाले इस विश्व में किसी भी संकल्प को पूर्णता तक ले जाना परमेश्वर की इच्छा पर निर्भर है। इसमें भी जेल में तो कदम-कदम पर अनिश्चितता का अनुभव आता है। यहाँ कोई काम शुरू करने पर फिर यहीं उसके पूरा हो जाने की अपेक्षा रखना कठिन है। आरंभ करते समय ऐसी अपेक्षा नहीं थी कि हमारी यह गीता यहाँ पूरी हो सकेगी। लेकिन ईश्वर-इच्छा से हम समाप्ति तक पहुँचे हैं।

 

2. चौदहवें अध्याय में जीवन के अथवा कर्म के सात्त्विक, राजस और तामस, ये तीन भेद किये गये। इन तीनों में से राजस और तामस का त्याग करके सात्त्विक को ग्रहण करना है, यह भी हमने देखा। उसके बाद सत्रहवें अध्याय में यही बात दूसरे ढंग से कही गयी है। यज्ञ, दान और तप या एक ही शब्द में कहें, तोयज्ञही जीवन का सार है। सत्रहवें अध्याय में हमने ऐसी ध्वनि सुनी कि यज्ञोपयोगी जो आहारादि कर्म हैं, उन्हें सात्त्विक और यज्ञरूप बनाकर ही ग्रहण करें। केवल उन्हीं कर्मो को अंगीकार करें, जो यज्ञ रूप और सात्त्विक हैं, शेष कर्मों का त्याग ही उचित है। हमने यह भी देखा है किऊँ तत्सत्मंत्र को क्यों स्मरण रखना चाहिएऊँका अर्थ है सातत्य।तत्का अर्थ अलिप्तता औरसत्का अर्थ है सात्त्विकता। हमारी साधना में सातत्य, अलिप्तता और सात्त्विकता होनी चाहिए। तभी वह परमेश्वर  को अर्पण की जा सकेगी। इन सब बातों से ध्यान में आता है कि कुछ कर्म तो हमें करने हैं और कुछ का त्याग करना है।

 

गीता की सारी शिक्षा पर हम दृष्टि डालें, तो स्थान-स्थान पर यही बोध मिलता है कि कर्म का त्याग मत करो। गीता कर्म-फल के त्याग की बात कहती है। गीता में सर्वत्र यही शिक्षा दी गयी है कि कर्म तो सतत करो, परंतु फलका त्याग करते रहो; लेकिन यह एक पहलू हुआ। दूसरा पहलू यह मालूम पड़ता है कि कुछ कर्म किये जायें और कुछ का त्याग किया जाये। अतः अंततः अठारहवें अध्याय में आरंभ में अर्जुन ने प्रश्न किया- ‘एक पक्ष तो यह कि कोई भी कर्म फल-त्यागपूर्वक करो और दूसरा यह कि कुछ कर्म तो अवश्यमेव त्याज्य हैं और कुछ करने योग्य हैं, इन दोनों में मेल कैसे बिठाया जाये?‘ जीवन की दिशा स्पष्ट जानने के लिए यह प्रश्न है। फल-त्याग का मर्म समझने के लिए यह प्रश्न है। जिसे शास्त्र ‘संन्यास कहता है, उसमें कर्म स्वरूपतः छोड़ना होता है। अर्थात कर्म के स्वरूप का त्याग करना होता है। फलत्याग में कर्म का फलतः त्याग करना होता है। अब प्रश्न यह कि क्या गीता के फलत्याग को प्रत्यक्ष कर्म-त्याग की आवश्यकता है? क्या फल-त्याग की कसौटी में संन्यास का कोई उपयोग है? संन्यास की मर्यादा कहाँ तक है? संन्यास और फल-त्याग, इन दोनों की मर्यादा कहाँ तक और कितनी है? अर्जुन का यही प्रश्न है।

 

102. फल-त्याग सार्वभौम कसौटी

3. उत्तर में भगवान ने एक बात स्पष्ट कह दी है कि फल-त्याग की कसौटी सार्वभौम वस्तु है। फल-त्याग का तत्त्व सर्वत्र लागू किया जा सकता है। सब कर्मों के फलों का त्याग तथा राजस और तामस कर्मों का त्याग, इन दोनों में विरोध नहीं है। कुछ कर्मों का स्वरूप ही ऐसा होता है कि फल-त्याग की युक्ति का उपयोग करें, तो वे कर्म स्वतः ही गिर पड़ते हैं। फल-त्यागपूर्वक कर्म करने का तो यही अर्थ होता है कि कुछ कर्म छोड़ने ही चाहिए। फल-त्यागपूर्वक कर्म करने में कुछ कर्मों के प्रत्यक्ष त्याग का समावेश हो ही जाता है।

 

4. इस पर जरा गहराई से विचार करें। जो कर्म काम्य हैं, जिनके मूल में कामना है, उन्हें फल-त्यागपूर्वक करो-ऐसा कहते ही वे ढह जाते हैं। फल-त्याग के सामने काम्य और निषिद्ध कर्म खड़े ही नही रह सकते। फल-त्यागपूर्वक कर्म करना कोई केवल कृत्रिम, तांत्रिक और यांत्रिक क्रिया तो है नहीं। इस कसौटी के द्वारा यह अपने-आप मालूम हो जाता है कि कौन-से कर्म किये जायें और कौन-से नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘गीता केवल यही बताती है कि फल-त्यागपूर्वक कर्म करो, पर यह नहीं बताती कि कौन से कर्म करो। ऐसा भास तो होता है, परंतु वस्तुतः ऐसा है ही नहीं, क्योंकि ‘फल-त्यागपूर्वक कर्म करो। इतना कहने से ही पता चल जाता है कि कौन-से कर्म करें और कौन-से नहीं। हिंसात्मक कर्म, असत्यमय कर्म, चौर्य कर्म फल-त्यागपूर्वक किये ही नहीं जा सकते ।

 

सूर्य की प्रभा फैलते ही चीजें उजली दिखायी देने लगती हैं, पर अंधेरा भी क्या उजला दिखादी देता है। हमें सब कर्म फल-त्याग की कसौटी पर कस लेने चाहिए। पहले यह देख लेना चाहिए कि जो कर्म मैं करना चाहता हूं, वह अनासक्तिपूर्वक फल की लेशमात्र भी अपेक्षा न रखते हुए करना संभव है क्या? फल-त्याग ही कर्म करने की कसौटी है। इस कसौटी के अनुसार काम्य कर्म अपने-आप ही त्याज्य सिद्ध होते हैं। उनका तो त्याग ही उचित है। अब बचे शुद्ध सात्त्विक कर्म। वे अनाक्तिपूर्वक अहंकार छोड़कर करने चाहिए। काम्य कर्मों का त्याग भी तो एक कर्म ही हुआ। फल- त्याग की कैंची पर पर भी चलाओं। काम्य कर्मों का त्याग भी सहज रूप से होना चाहिए। इस प्रकार तीन बातें हमने देखीं। पहली तो यह कि जो कर्म हमें करने हैं वे फलत्यागपूर्वक करने चाहिए। दूसरी यह कि राजस और तामस कर्म निषिद्ध और काम्य कर्म फलत्याग की कसौटी पर कसते ही अपनेआप गिर जाते हैं। तीसरी यह कि इस तरह जो त्याग होगा उस पर भी फलत्याग की कैंची चलाओ। मैंने इतना त्याग किया ऐसा अहंकार नहीं होने देना चाहिए।

 

5. राजस और तामस कर्म त्याज्य क्यों है? इसलिए कि वे शुद्ध नहीं है। शुद्ध न होने से उन कर्मों का कर्ता के चित्त पर संस्कार पड़ता है, परंतु अधिक विचार करने पर पता चलता है कि सात्त्विक कर्म भी सदोष होते हैं। जितने भी कर्म है, उन सबमें कुछ-न-कुछ दोष है ही। खेती का स्वधर्म ही लो। यह एक शुद्ध सात्त्विक क्रिया है, लेकिन इस यज्ञमय स्वधर्म रूप   खेती में भी हिंसा तो होती ही है। हल जोतने आदि में कितने ही जीव-जंतु मरते हैं। कुँए के पास कीचड़न होने देने के लिए पत्थर बिठाते समय कितने ही जीव मरते हैं। सबेरे दरवाजा खोलते ही सूर्य का प्रकाश घर में प्रवेश करता है, उससे असंख्य जंतु नष्ट हो जाते हैं। जिसे ‘शुद्धीकरण’ कहते हैं, वह भी मारण-क्रिया ही हो जाती है। सारांश, जब सात्त्विक स्वधर्म रूप कर्म भी सदोष हो जाता है, तब क्या करें?

 

6. मैं पहले ही कह चुका हूँ कि सब गुणों का विकास होना तो अभी बाकी है। हमें ज्ञान, भक्ति, सेवा, अहिंसा- इनके बिंदुमात्र का ही अभी अनुभव हुआ है। सारा-का-सारा अनुभव हो चुका है ऐसी बात नहीं है। संसार अनुभव लेकर आगे बढ़ता जाता है। मध्ययुग में एक ऐसी कल्पना चली कि खेती में हिंसा होती है, इसलिए अहिंसक व्यक्ति खेती न करे। वह व्यापार करे। अन्न उपजाना पाप है, पर कहते थे कि अन्न बेचना पाप नहीं। लेकिन इस तरह क्रिया को टालने से हित नहीं हो सकता। यदि मनुष्य इस तरह कर्म-संकोच करता चला जाये, तो अंत में आत्मनाश ही होगा। मनुष्य कर्म से छूटने का ज्यों-ज्यों विचार करेगा, त्यों-त्यों कर्म का अधिक विस्तार होता जायेगा। आपके इस धान्य के व्यापार के लिए क्या किसी को खेती नहीं करनी पड़ेगी? तब क्या उस खेती से होने वाली हिंसा के आप हिस्सेदार नहीं होंगे? अगर कपास उपजाना पाप है, तो उस उपजी हुई कपास को बेचना भी पाप है। कपास पैदा करने में दोष है, इसलिए उस कर्म को ही छोड़ देना बुद्धि-दोष होगा। अब कर्मों का बहिष्कार करना- यही कर्म नहीं, वह कर्म नहीं, कुछ मत करो, इस प्रकार देखने वाली दृष्टि में, कहना होगा कि सच्चा दयाभाव शेष नहीं रहा, बल्कि वह मर गया। पत्ते नोचने से पेड़ नहीं मरता, वह तो उल्टा पल्लवित होता है। क्रिया का संकोच करने में आत्म-संकोच ही है।

 

103 क्रिया से छूटने की सच्ची रीति

7. अब यह प्रश्न होता है कि यदि सब क्रियाओं मे दोष हैं, तो फिर सब क्रियाओं को छोड़ ही क्यों न दें? इसका उत्तर पहले एक बार दिया जा चुका है। सब कर्मों का त्याग करने की कल्पना बड़ी सुंदर है। यह विचार मोहक है। पर यह असंख्य कर्म आखिर छोड़े कैसे? राजस और तामस कर्मों को छोड़ने की जो रीति है, क्या वही सात्त्विक कर्मों के लिए उपयुक्त होगी? जो दोषमय सात्त्विक कर्म हैं, उन्हें कैसे टालें? मजा तो यह है कि इंद्राय तक्षकाय स्वाहा- की तरह जब मनुष्य संसार में करने लगता है तब अमर होने के कारण इंद्र तो मरता ही नहीं, बल्कि तक्षक भी न मरते हुए उल्टा मजबूत हो बैठता है। सात्त्विक कर्मों में पुण्य है और थोड़ा दोष है। परंतु थोड़ा दोष होने के कारण यदि उस दोष के साथ पुण्य की भी आहुति देना चाहोगे, तो मजबूत होने के कारण पुण्य-क्रिया तो नष्ट ही होगी, उल्टे दोष-क्रिया अवश्य ही बढ़ती चली जायेगी। ऐसे मिश्रित, विवेकहीन त्याग से पुण्यरूप इंद्र तो मरता ही नहीं, पर मर सकने वाला दोष रूप तक्षक भी नहीं मरता। इसलिए उसके त्याग की रीति कौन-सी? बिल्ली हिंसा करती है, इसलिए उसका त्याग करेंगे, तो चूहे हिंसा करने लगेंगे। सांप हिंसा करते हैं, इसलिए अगर उन्हें दूर किया, तो सैकड़ों जंतु खेती नष्ट कर डालेंगे। खेती का अनाज नष्ट होने से हजारों मनुष्य मर जायेंगे। इसलिए त्याग विवेकयुक्त होना चाहिए।

 

8. गोरखनाथ से मच्छींद्रनाथ ने कहा- ‘इस लड़के को धो लाओ!‘ गोरखनाथ ने लड़के के पैर पकड उसे शिला पर अच्छी तरह पछाड़ा और बाड़ पर सुखाने डाल दिया। मच्छींद्रनाथ ने पूछा- ‘लड़के को धो लाये,‘ गोरखनाथ ने उत्तर दिया- ‘हां, उसे धो-धोकर सुखाने डाल दिया है!‘ लड़के को क्या इस तरह धोया जाता है? कपड़े और मनुष्य धोने का ढंग एक-सा नहीं है। इन दोनों ढंगों में बड़ा अंतर है। इसी तरह राजस-तामस कर्मों के त्याग तथा सात्त्विक कर्म के त्याग में बड़ा अंतर है। सात्त्विक कर्म छोड़ने की रीति दूसरी है।

 

विवेकहीन होकर कर्म करने से तो कुछ उलट-पुलट ही हो जायेगा। तुकाराम ने कहाः त्यागें भोग माइया येतील अंतरा। मग मी दातारा काय करूं- ‘त्याग से जो भीतर भोग उगे, तब हे दाता! मैं क्या करूं?’ छोटा त्याग करने जाते हैं, तो बड़ा भोग आकर छाती पर बैठ जाता है। इसलिए वह अल्प-सा त्याग भी मिथ्या हो जाता है। छोटे से त्यागी की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े इंद्रभवन खड़े करते हैं। इससे तो वह झोंपड़ी ही अच्छी थी। वही पर्याप्त थी। लंगोटी लगाकर आस-पास वैभव इकट्ठा करने से तो कुरता और बंडी ही अच्छी। इसीलिए भगवान ने सात्त्विक कर्मों के त्याग की पद्धति ही अलग बतायी है। वे सभी सात्त्विक कर्म तो करने हैं, लेकिन उनके फलों को तोड़ फेंकना है। कुछ कर्म तो समूल त्याज्य हैं और कुछ के सिर्फ फल ही छोड़ने होते हैं। शरीर पर कोई ऐसा-वैसा दाग पड़ जाये, तो उसको धोकर मिटाया जा सकता है, पर चमड़ी का रंग ही काला है, तो उस पर पुताई करने से क्या लाभ? यह काला रंग ज्यों-का-त्यों रहने दो। उसकी तरफ देखते ही क्यों को? उसे अमंगल मत कहो।

 

9. एक आदमी था। उसे अपना घर अमंगल प्रतीत होने लगा। तो वह किसी गांव में चला गया। वहाँ उसे गंदगी दिखायी दी, तो जंगल में चला गया। जंगल में एक आम के पेड़ के नीचे बैठा ही था कि एक पक्षी ने उसके सिर पर बीट कर दी। 'यह जंगल भी अमंगल है- ऐसा कहकर वह नदी में जा खड़ा हुआ। नदी में उसने देखा कि बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा रही हैं, तब तो उसे बड़ी घिन लगी। ‘अरे, यह तो सारी सृष्टि ही अमंगल है। यहाँ मरे बिना छुटकारा नहीं, ऐसा सोचकर वह पानी से बाहर आया और आग जलायी। उधर से एक सज्जन आये और बोले- ‘भाई, यह मरने की तैयारी क्यों?‘ ‘यह संसार अमंगल, है, इसलिए!‘- वह बोला। उस सज्जन ने उत्तर दिया- ‘तेरा यह गंदा शरीर, यह चरबी यहाँ जलने लगेगी, तो यहाँ कितनी बदबू फैलेगी। हम यहाँ पास ही रहते हैं। तब हम कहाँ जायेंगे? एक बाल के जलने से ही कितनी दुर्गंध आती है! फिर तेरी तो सारी चरबी जलेगी! कितनी दुर्गंध फैलेगी, इसका भी तो कुछ विचार कर। वह आदमी परेशान होकर बोला- ‘इस दुनिया में न जीने की सुविधा है और न मरने की ही, तो अब करूं क्या?’

 

10. तात्पर्य यह कि ‘अमंगल-अमंगल- ऐसा कहकर सबका बहिष्कार करेंगे, तो काम नहीं चलेगा। यदि तुम छोटे कर्मों से बचना चाहोगे, तो दूसरे बड़े कर्म सिर पर सवार हो जायेंगे। कर्म स्वरूपतः, बाहर से छोड़ने पर नहीं छूटते हैं। जो कर्म सहज रूप से प्रवाह-प्राप्त हैं, उनका विरोध करने में अगर कोई अपनी शक्ति खर्च करेगा, प्रवाह के विरुद्ध जाना चाहेगा, तो अंत में वह थककर प्रवाह के साथ बह जायेगा। प्रहवाहानुकूल क्रिया के द्वारा ही उसे अपने तरने का उपाय सोचना चाहिए। इससे मन पर का लेप कम होगा और चित्त शुद्ध होता जायेगा। फिर धीरे-धीरे क्रिया अपने-आप झड़ती जायेगी। कर्म-त्याग न होते हुए भी क्रियाएं लुप्त हो जायेंगी। कर्म छूटेगा ही नहीं। क्रिया लुप्त हो जायेगी।

 

11. कर्म और क्रिया दोनों में अंतर है। मान लें कि कहीं पर खूब हो-हल्ला मचा हुआ है और उसे बंद करना है। एक सिपाही स्वयं जोर से चिल्लाकर कहता है- ‘शोर बंद करो। वहाँ का शोर बंद करने के लिए उसे जोर से चिल्लाने की तीव्र क्रिया करनी पड़ी। दूसरा कोई आकर चुपचाप खड़ा रहेगा और केवल अपनी अंगुली उठाकर इशारा करेगा। इतने से ही लोग शांत हो जायेंगे। तीसरे व्यक्ति के केवल वहाँ उपस्थित होने मात्र से ही शांति छा जायेगी। एक को तीव्र क्रिया करनी पड़ी। दूसरे की क्रिया कुछ सौम्य थी और तीसरे की सूक्ष्म। क्रिया उत्तरोत्तर कम होती गयी, किंतु लोगों को शांत करने का काम समान रूप से हुआ। जैसे-जैसे चित्त-शुद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे क्रिया की तीव्रता में कमी होगी। तीव्र से सौम्य, सौम्य से सूक्ष्म और सूक्ष्म से शून्य होती जायेगी। कर्म भिन्न है और क्रिया भिन्न। कर्ता को जो अत्यंत इष्ट हो, वह कर्म-यही कर्म की व्याख्या। कर्म की प्रथमा और द्वितीया विभक्ति होती है, तो क्रिया के लिए स्वतंत्र क्रियापद लगाना पड़ता है।

कर्म और क्रियाओं में जो अंतर है, उसे समझ लीजिए। क्रोध आने पर कोई बहुत बोलकर और कोई बिलकुल ही न बोलकर अपना क्रोध प्रकट करता है। ज्ञानी पुरुष लेशमात्र भी क्रिया नहीं करता, किंतु कर्म अनंत करता है। उसका अस्तित्वमात्र ही अपार लोक-संग्रह कर सकता है। ज्ञानी पुरुष की तो केवल उपस्थिति ही पर्याप्त है। उसके हाथ-पैर आदि अवयव कुछ कार्य न करते हों, तो भी वह काम करता है। क्रिया सूक्ष्म होती जाती है और कर्म उलटे बढ़ते जाते हैं। विचार की यह धारा और आगे ले जायें एवं चित्त परिपूर्ण शुद्ध हो जाये, तो अंत में क्रिया शून्य रूप होकर कर्म अनंत होते रहेंगे, ऐसा कह सकते हैं। पहले तीव्र, फिर तीव्र से सौम्य, सौम्य से सूक्ष्म और सूक्ष्म से शून्य इस तरह अपने-आप क्रियाशून्यत्व प्राप्त हो जायेगा। परंतु तब अनंत कर्म स्वतः होते रहेंगे।

 

12. बाह्यरूपेण कर्म हटाने से वे दूर नहीं होंगे। निष्कामतापूर्वक कर्म करते हुए धीरे-धीरे उसका अनुभव होगा। कवि ब्राऊनिंग ने ‘ढोंगी पोप शीर्षक से एक कविता लिखी है। एक आदमी ने पोप से कहा- ‘तुम अपने को इतना सजाते क्यों हो? ये चोगे किसलिए? ये ऊपरी ढोंग क्यों? यह गंभीर मुद्रा किसलिए?‘ उसने उत्तर दिया- ‘ मैं यह सब क्यों करता हूं, सो सुनो। संभव है, यह नाटक, यह नकल करते-करते किसी दिन अनजाने में ही मुझमें श्रद्धा का संचार हो जाये। इसलिए निष्काम क्रिया करते रहना चाहिए। धीरे-धीरे निष्क्रियत्व भी प्राप्त हो जायेगा।

 

104. साधक के लिए स्वधर्म का खुलासा

13. सारांश यह कि तामस और राजस कर्म तो बिलकुल छोड़ देने चाहिए और सात्त्विक कर्म करने चाहिए। इसके साथ ही यह विवेक रखना चाहिए कि जो सात्त्विक कर्म सहज और स्वाभाविक रूप से सामने आ जायें, वे सदोष होते हुए भी त्याज्य नहीं हैं। दोष होता है तो होने दो। उस दोष से पीछा छुड़ाना चाहोगे, तो दूसरे असंख्य दोष पल्ले आ पड़ेंगे। अपनी नकटी नाक जैसी है, वैसी ही रहने दो। उसे काटकर सुंदर बनाने की कोशिश करोगे, तो वह और भी भयानक तथा भद्दी दीखेगी। वह जैसी है, वैसी ही अच्छी है। सात्त्विक कर्म सदोष होने पर भी स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने के कारण नहीं छोड़ने चाहिए। उन्हें करना है, लेकिन उनका फल छोड़ना है।

 

14. और एक बात कहनी है। जो कर्म सहज प्रवाह से प्राप्त न हुए हों, उनके बारे में तुम्हें कितना ही लगता हो कि वे अच्छी तरह किये जा सकते हैं, तो भी उन्हें मत करो। उतने ही कर्म करो, जितने सहज रूप से प्राप्त हों। उखाड़-पछाड़ और दौड़-धूप करके दूसरे नये कर्मों का भार मत उठा लो। जिन कर्मों को खास तौर पर जोड़-तोड़ करके ही करना पड़ता हो, वे कितने ही अच्छे क्यों न हों, उनसे दूर रहो। उनका मोह मत करो। जो कर्म सहज प्राप्त हैं, उन्हीं के बारे में फल-त्याग संभव है। यदि मनुष्य इस लोभ से कि यह कर्म भी अच्छा है और वह कर्म भी अच्छा है, चारों ओर दौड़ने लगे, तो फिर कैसा फल-त्याग? उससे तो जीवन सारा बरबाद हो जायेगा। फल की आशा से ही वह इन परधर्म रूपी कर्मों को करना चाहेगा और फल भी हाथ से खो बैठेगा। जीवन में कहीं भी स्थिरता प्राप्त नहीं होगी। चित्त पर उस कर्म की आसक्ति चिपक जायेगी। अगर सात्त्विक कर्मों का भी लोभ होने लगे, तो वह लोभ भी दूर करना चाहिए। उन नाना प्रकार के सात्त्विक कर्मों को यदि करना चाहोगे, तो उसमें भी राजसता और तामसता आ जायेगी। इसलिए तुम वही करो, जो तुम्हारा सात्त्विक, प्रवाह प्राप्त स्वधर्म है।

 

15. स्वधर्म में स्वदेशी धर्म, स्वजातीय धर्म और स्वकालीन धर्म का समावेश होता है। इन तीनों के योग से स्वधर्म बनता है। मेरी वृत्ति के अनुकूल और अनुरूप क्या है और कौन-सा कर्तव्य मुझे प्राप्त हुआ है, यह सब स्वधर्म निश्चित करते समय देखना ही होता है, तुममें ‘तुमपन जैसी कोई चीज है और इसलिए तुम ‘तुम हो। प्रत्येक व्यक्ति में उसकी अपनी कुछ विशेषता होती है। बकरी का विकास बकरी बने रहने में ही है। बकरी रहकर ही उसे अपना विकास कर लेना चाहिए। बकरी अगर गाय बनना चाहे, तो वह उसके लिए संभव नहीं। वह स्वयं प्राप्त बकरीपन का त्याग नहीं कर सकती। इसके लिए उसे शरीर छोड़ना पड़ेगा। नया धर्म और नया जन्म ग्रहण करना होगा, परंतु इस जन्म में तो उसके लिए बकरीपन ही पवित्र है। बैल और मेंढक की कहानी है न? मेंढकी के बढ़ने की एक सीमा है। वह बैल जितनी होने का प्रयत्न करेगी, तो मर जायेगी। दूसरे के रूप की नकल करना ठीक नहीं होता। इसलिए पर धर्म को ‘भयावह कहा गया है।

 

16. फिर स्वधर्म के भी दो भाग हैं।  एक बदलने वाला भाग, दूसरा न बदलने वाला। मैं आज जो हूं, वह कल नहीं और कल जो हूँ वह परसों नहीं। मैं निरंतर बदल रहा हूँ। बचपन का स्वधर्म होता है, केवल संवर्धन। यौवन में मुझमें भरपूर-कर्म शक्ति रहेगी, तो उसके द्वारा मैं समाज की सेवा करूंगा। प्रौढ़ावस्था में मेरे ज्ञान का लाभ दूसरों को मिलेगा। इस तरह कुछ स्वधर्म तो बदलता रहने वाला है और कुछ न बदलने वाला। इन्हीं को यदि पुराने शास्त्रीय नामों से पुकारना है, तो हम कहेंगे- ‘मनुष्य को वर्ण-धर्म है और आश्रम-धर्म है। वर्ण-धर्म बदलता नहीं, आश्रम-धर्म बदलता रहता है।

आश्रम-धर्म बदलता है- इसका अर्थ यह है कि ब्रह्मचारी-पद सार्थक करके मैं गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता हूँ। गृहस्थाश्रम से वानप्रस्थाश्रम में और वानप्रस्थाश्रम से संन्यास में जाता हूँ। इस तरह आश्रम-धर्म बदलता रहता है तब भी, वर्ण-धर्म बदला नहीं जा सकता। अपनी नैसर्गिक मर्यादा मैं छोड़ नहीं सकता। ऐसा प्रयत्न ही मिथ्या है। तुममें जो ‘तुमपन है, उसे तुम छोड़ नहीं सकते। इसी कल्पना पर वर्ण-धर्म की योजना की गयी है। वर्ण-धर्म की कल्पना बड़ी मधुर है। वर्ण-धर्म बिलकुल अटल है क्या? जैसे बकरी का बकरीपन, गाय का गायपन है, वैसे ही क्या ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षत्रियत्व है? मैं मानता हूँ कि वर्ण-धर्म इतना पक्का नहीं है। लेकिन हमें इसका मर्म समझ लेना चाहिए। ‘वर्ण-धर्म का उपयोग जब सामाजिक व्यवस्था की एक युक्ति के रूप में किया जाता है, तब उसमें अपवाद अवश्य होगा। ऐसा अपवाद मानना ही पड़ता है। गीता ने भी इस अपवाद को माना है। सारांश, इन दोनों प्रकारों के धर्मों को पहचानकर अवांतर धर्म कितना ही सुंदर और मोहक प्रतीत हो, तो भी उसे टालना चाहिए।

 

105. फलत्याग का कुल मिलाकर फलितार्थ

17. फल-त्याग की कल्पना का जो विकास हम करते आये हैं, उससे निम्नलिखित अर्थ निकला-

 

1.       राजस और तामस कर्मों का संपूर्ण त्याग।

2.       उस त्याग का भी फल-त्याग। उसका भी अहंकार न हो।

3.       सात्त्विक कर्मों का स्वरूपतः त्याग न कते हुए केवल फल-त्याग।

4.       सात्त्विक कर्म, जो फल-त्यागपूर्वक करने होते हैं, वे सदोष हों तो भी करना।

5.       सतत फल-त्यागपूर्वक उन सात्त्विक कर्मों को करते रहने से चितत शुद्ध होता जायेगा और तीव्र से सौम्य, सौम्य से सूक्ष्म और सूक्ष्म से शून्य इस तरह क्रियामात्र झड़ जायेगी।

6.       क्रिया लुप्त हो जायेगी, लेकिन कर्म- लोकसंग्रह रूपी कर्म- होते ही रहेंगे।

7.       सात्त्विक कर्म भी, जो स्वाभाविक रूप से प्राप्त हों, वे ही करें। जो सहज प्राप्त न हों, वे कितने ही अच्छे लगें, तो भी उन्हें दूर ही रखें। उनका मोह न करें।

8.       सहजप्राप्त स्वधर्म भी फिर दो प्रकार का होता है- बदलने वाला और न बदलने वाला। वर्ण-धर्म नहीं बदलता, पर आश्रम-धर्म बदलता रहता है। बदलने वाला स्वधर्म बदलते  रहना चाहिए। उससे प्रकृति विशुद्ध रहेगी।

 

18. प्रकृति बहती रहनी चाहिए। निर्झर बहता नहीं रहेगा, तो उससे दुर्गंध आने लगेगी। यही हाल आश्रम-धर्म का है। मनुष्य पहले कुटुंब को स्वीकार करता है। अपने विकास के लिए वह स्वयं को कुटुंब के बंधनों में बांध लेता है। यहाँ वह तरह-तरह के अनुभव प्राप्त करता है; परन्तु कुटुंबी बनकर वह सदा के लिए उसी में जकड़ जायेगा तो विनाश होगा। कुटुंब में रहना जो पहले धर्म रूप था, वही अधर्म रूप हो जायेगा; क्योंकि अब वह धर्म बंधनकारी हो गया। बदलने वाले धर्म को आसक्ति के कारण न छोड़ें तो भयानक स्थिति उत्पन्न होगी। अच्छी चीज की भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। आसक्ति से घोर अनर्थ होता है। क्षय के कीटाणु यदि भूल से भी फेफड़ों में चले जाते हैं, सारा जीवन भीतर से खा डालते हैं। उसी तरह आसक्ति के कीटाणु भी असावधानी से सात्त्विक कर्म में घुस जायेंगे, तो स्वधर्म सड़ने लगेगा। उस सात्त्विक स्व-धर्म में भी राजस और तामस की दुर्गंध आने लगेगी। अतः कुटुंब रूपी यह बदलने वाला स्व-धर्म यथा समय छूट जाना चाहिए। यह बात राष्ट्र धर्म के लिए भी है। राष्ट्र-धर्म में भी अगर आसक्ति आ जाये और केवल अपने ही राष्ट्र के हित का विचार हम करने लगें, तो ऐसी राष्ट्र-भक्ति भी बड़ी भयंकर वस्तु होगी। इससे आत्म-विकास रुक जायेगा। चित्त में आसिक्त घर कर लेगी और अद्यःपात होगा।

 

106. साधना की पराकाष्ठा ही सिद्धि

19. सारांश, यदि जीवन का फलित प्राप्त करना हो, तो फल त्याग रूपी चिंतामणि को अपनाओ। वह आपका पथ-प्रदर्शन करेगा। फल-त्याग का यह तत्त्व अपनी मर्यादा भी बताता है। यह दीपक पास होने पर अपने-आप यह पता चल जायेगा कि कौन-सा काम करें, कौन-सा न करें, और कौन-सा कब बदले।

20. परंतु अब एक दूसरा ही विषय विचार के लिए लेंगे। संपूर्ण क्रिया का लोप हो जाने की जो अंतिम स्थिति है, उस पर साधक को ध्यान रखना चाहिए या नहीं? साधक को क्या ज्ञानी पुरुष की उस स्थिति पर दृष्टि रखनी चाहिए, जिसमें क्रिया न करते हुए भी असंख्य कर्म होते रहेंगे ? नहीं, यहाँ भी फल-त्याग की ही कसौटी का उपयोग करना चाहिए। हमारे जीवन का स्वरूप इतना सुंदर है कि हमें जो चाहिए, उस पर निगाह न रखने पर भी वह हमें मिल जायेगा। जीवन का सबसे बड़ा फल मोक्ष है। उस मोक्ष, उस अकर्मावस्था का भी हमें लोभ न रहे। वह स्थिति तो अपने-आप अनजाने प्राप्त हो जायेगी। संन्यास कोई ऐसी वस्तु तो है नहीं कि दो बजकर पांच मिनट पर अचानक आ मिलेगी। संन्यास यांत्रिक वस्तु नहीं है। उसका तेरे जीवन में किस तरह विकास होता जायेगा, तुझे इसका पता भी नहीं चलेगा। इसलिए मोक्ष की चिंता छोड़।

 

21. भक्त तो ईश्वर से सदैव यही कहता है- ‘मेरे लिए यह भक्ति ही पर्याप्त है। वह मोक्ष, वह अंतिम फल, मुझे नहीं चाहिए। मुक्ति भी तो एक प्रकार की भुक्ति ही है। मोक्ष एक तरह का भोग ही तो है- एक फल ही तो है। इस मोक्ष रूपी फल पर भी फल-त्याग की कैंची चलाओ। परंतु उससे मोक्ष कहीं चला नहीं जायेगा। कैंची टूट जायेगी और फल अधिक पक्का हो जायेगा। जब मोक्ष की आशा छोड़ दोगे, तभी अनजाने मोक्ष की तरफ जाओगे। इतनी तन्मयता से साधना चलने दो कि मोक्ष की याद ही न रहे और मोक्ष तुझे खोजता हुआ तेरे सामने आ खड़ा हो जाये। साधक तो बस अपनी साधना में ही रंग जाये। मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।- भगवान ने पहले ही कहा था कि अकर्म-दशा की, मोक्ष की आसक्ति मत रखो।

अब फिर अंत में कहते हैं- अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।- मैं मोक्षदाता समर्थ हूँ। तू मोक्ष की चिंता मत कर। तू तो केवल साधना की ही चिंता कर। मोक्ष को भूल जाने से साधना उत्कृष्ट होगी और मोक्ष ही मोहित होकर तेरे पास चला आयेगा। मोक्ष-निरपेक्ष वृत्ति से अपनी साधना में ही रत रहने वाले साधक के गले में मोक्ष लक्ष्मी जयमाला डालती है।

 

22. जहाँ साधना की पराकाष्ठा होती है, वहीं सिद्धि हाथ जोड़कर खड़ी रहती है। जिस घर जाना है, वह यदि वृक्ष के नीचे ‘घर-घर का जाप करते बैठेगा, तो घर तो दूर ही रहेगा, उलटा उसे जंगल में ही रहने की नौबत आ जायेगी। घर का स्मरण करते हुए यदि रास्ते में विश्राम करने लग जाओगे, तो उस अंतिम विश्राम स्थान से दूर रह जाओगे। मुझे तो चलने का ही प्रयत्न करना चाहिए। उसी से घर एकदम सामने आयेगा। मोक्ष के आलसी स्मरण से मेरे प्रयत्न में, मेरी साधना में शिथिलता आयेगी और मोक्ष मुझसे दूर चला जायेगा। मोक्ष की उपेक्षा करके सतत साधनारत रहना ही मोक्ष को पास बुलाने का उपाय है।

 

अकर्म-स्थिति, विश्रांति की लालसा मत रखो। साधना का ही प्रेम रखो, तो मोक्ष मिलकर रहेगा। उत्तर-उत्तर चिल्लाने से प्रश्न का उत्तर नही मिलता। उसे हल करने की जो रीति मुझे आती है, उसी से क्रमानुसार उत्तर मिलेगा। वह रीति जहाँ समाप्त होती है, वहीं उसका उत्तर रखा है। समाप्ति के पहले समाप्ति कैसे होगी? रीति से पहले उत्तर कैसे मिलेगा? साधकावस्था में सिद्धावस्था कैसे प्राप्त होगी? पानी में डुबकियां खाते हुए परले पार के मौज-मजे में ध्यान रहेगा, तो कैसे काम चलेगा? उस समय तो एक-एक हाथ मारकर आगे जाने में ही सारा ध्यान और सारी शक्ति लगानी चाहिए। पहले साधना पूरी करो, समुद्र लांघो, मोक्ष अपने-आप मिल जायेगा।

 

107. सिद्ध पुरुष की तिहरी भूमिका

23. ज्ञानी पुरुष की अंतिम अवस्था में सब क्रियाएं लुप्त हो जाती हैं, शून्य रूप हो जाती हैं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि अंतिम स्थिति में क्रिया होगी ही नहीं। उसके द्वारा क्रिया होगी भी और नहीं भी होगी। अंतिम स्थिति अत्यंत रमणीय और उदात्त है। इस अवस्था में जो भी कुछ होगा, उसकी उसे चिंता नहीं होती। जो भी होगा, वह शुभ और सुंदर ही होगा। साधना की पराकाष्ठा की दशा पर वह खड़ा है। वहाँ सब कर्म करने पर भी वह कुछ नहीं करेगा। संहार करने पर भी संहार नहीं करेगा। कल्याण करने पर भी कल्याण नहीं करेगा।

 

24. यह अंतिम मोक्षावस्था ही साधक की साधना की पराकाष्ठा है। साधना की पराकाष्ठा का अर्थ है- साधना की सहजावस्था। वहाँ इस बात की कल्पना भी नहीं रहती कि मैं कुछ कर रहा हूँ अथवा इस दशा को मैं साधक की, साधना की ‘अनैतिकता कहूंगा। सिद्धावस्था नैतिक अवस्था नहीं है। छोटा बच्चा सच बोलता है, पर वह नैतिक नहीं है; क्योंकि झूठ क्या है, इसकी तो उसे कल्पना ही नहीं है। असत्य की कल्पना होने पर सत्य बोलना नैतिक कर्म है। सिद्धावस्था में असत्य है ही नहीं। वहाँ तो सत्य ही है। इसलिए वहाँ नीति नहीं। निषिद्ध वस्तु वहाँ फटकती ही नहीं। जो नहीं सुनना चाहिए वह कान के अंदर जाता ही नहीं, जो वस्तु नहीं देखनी चाहिए वह आंखें देखती ही नहीं, जो होना चाहिए वही हाथों से होता है, उसका प्रयत्न नहीं करना पड़ता, जिसे टालना चाहिए उसे टालना नहीं पड़ता, वह अपने-आप ही टल जाता है- ऐसी यह नीतिशून्य अवस्था है। यह जो साधना की पराकाष्ठा है, इसे साधना की सहजावस्था, अनैतिकता या अतिनैतिकता कहो, इस अतिनैतिकता में ही नीति का परम उत्कर्ष है। ‘अतिनैतिकता शब्द मुझे अच्छा सूझा अथवा इस दशा को ‘सात्त्विक साधना की निःसत्त्वता भी कह सकते हैं।

 

25. इस दशा का किस प्रकार वर्णन करें? जिस तरह ग्रहण के पहले वेध लगता है, उसी तरह शरीरांत हो जाने पर आनेवाली मोक्ष दशा की छाया देह गिरने के पहले ही पड़ने लग जाती है। देहावस्था में ही भावी मोक्ष स्थिति का अनुभव होने लगता है। इस स्थिति का वर्णन करने में वाणी लड़खड़ाती है। वह कितनी भी हिंसा करें, फिर भी कुछ नहीं करना। उसकी क्रिया अब किस नाप से नापी जाये? जो कुछ उसके द्वारा होगा, वह सब सात्त्विक कर्म ही होगा। सभी क्रियाओं के क्षय हो जाने पर भी संपूर्ण विश्व का वह लोक-संग्रह करेगा। इसके लिए किस भाषा का प्रयोग करें, यह समझ में नहीं आता।

26. इस अंतिम अवस्था में तीन भाव रहते हैं- एक है वामदेव की दशा। उनका वह प्रसिद्ध उद्गार है न- ‘इस विश्व में जो कुछ भी है, वह मैं हूँ। ज्ञानी पुरुष निरहंकार हो जाता है। उसका देहाभिमान नष्ट हो जाता है, क्रियामात्र समाप्त हो जाती है। इस समय उसे एक भावावस्था प्राप्त होती है। वह अवस्था एक देह में समा नहीं सकती। भावावस्था क्रियावस्था नहीं है। भावावस्था का अर्थ है- भावना की उत्कटता की अवस्था। अल्प मात्रा में इस भावावस्था का अनुभव हम सबको हो सकता है। बालक के दोष से माता दोषी होती है। गुणों से गुणी होती है। उसके दुःख से दुःखी और सुख से सुखी होती है। मां की यह भावावस्था संतान तक सीमित है। संतान के दोषों को खुद न करके भी वह अपने दोष मान लेती है। ज्ञानी पुरुष भी भावना की उत्कटता से सारे संसार के दोष अपने मान लेता है। वह त्रिभुवन के पाप-पुण्य से पुण्यवान बनता है और ऐसा होने पर भी त्रिभुवन के पाप-पुण्य से वह लेशमात्र भी स्पर्शित नहीं होता।

 

27. रुद्र-सूक्त में ऋषि कहते हैं- यवाश्च में तिलाश्च में गोधूमाश्च मे- मुझे जौ दे, तिल दे, गेहूँ दे। इस तरह मांगते ही रहने वाले ऋषि का पेट आखिर कितना बड़ा होगा? लेकिन वह मांगने वाला साढ़े तीन हाथ के शरीर का नहीं है। उसकी आत्मा विश्वाकार होकर बोलती है। इसे मैं ‘वैदिक विश्वात्म भाव कहता हूँ। वेदों में इस भावना का परमोत्कर्ष दिखायी देता है।

 

28. गुजराती संत नरसी मेहता कीर्तन करते हुए कहते हैं- बापजी पाप में कवण कीधां हशे, नाम लेतां तारूं निद्रा आवे- ‘हे ईश्वर, मैंने ऐसे कौन से पाप किये हैं, जो कीर्तन के समय मुझे नींद आती है!‘ नींद क्या नरसी मेहता को आ रही थी? नींद तो श्रोताओं को आ रही थी। परंतु श्रोताओं से एकरूप होकर नरसी मेहता पूछ रहे हैं। यह उनकी भावावस्था है। ज्ञानी पुरुष की ऐसी यह भावावस्था होती है। इस भावावस्था में सभी पाप-पुण्य उसके द्वारा होते हुए आपको दिखायी देंगे। वह स्वयं भी यही कहेगा। वह ऋषि कहता है न- ‘न करने योग्य कितने ही कार्य मैंने किये हैं, करता हूँ और करूंगा। यह भावावस्था प्राप्त होने पर आत्मा पक्षी की तरह उड़ने लगता है। वह पार्थिवता के परे चला जाता है।

 

29. इस भावावस्था की ही तरह ज्ञानी पुरुष की एक क्रियावस्था भी होती है। ज्ञानी पुरुषः स्वभावतः क्या करेगा? वह जो कुछ करेगा, सात्त्विक ही होगा। यद्यपि मनुष्य-देह की मर्यादा अभी उसके साथ लगी है, तब भी उसका सारा शरीर, उसकी सारी इंद्रियां सात्त्विक बन गयी हैं, जिससे उसकी सारी क्रियाएं सात्त्विक ही होंगी। व्यावहारिक दृष्टि से देखेंगे, तो सात्त्विकता चरम सीमा उसके व्यवहार में दिखायी देगी। विश्वात्मा भाव की दृष्टि से देखेंगे, तो मानो त्रिभुवन के पाप-पुण्य वह करता है और इतने पर भी वह अलिप्त रहता है; क्योंकि इस चिपके हुए शरीर को तो उसके उतारकर फेंक दिया होता है। क्षुद्र देह को उतारकर फेंकने पर ही तो वह विश्व-रूप होगा।

30. भावावस्था और क्रियावस्था के अतिरिक्त एक तीसरी स्थिति भी ज्ञानी पुरुष की है और वह है, ज्ञानावस्था। इस अवस्था में न वह पाप सहन करता है, न पुण्य। सभी झटककर फेंक देता है। इस अखिल विश्व को सलाई लगाकर जला डालने के लिए वह तैयार हो जाता है। एक भी कर्म की जिम्मेदारी लेने को वह तैयार नहीं होता। उसका स्पर्श ही उसे सहन नहीं होता। ज्ञानी पुरुष की मोक्ष दशा में- साधना की पराकाष्ठा की दशा में- ये तीन स्थितियां संभव हैं।

 

31.यह अक्रियावस्था, अंतिम दशा कैसे प्राप्त हो? हम जो-जो भी कर्म करते हैं, उनका कर्तव्य अपने सिर पर लेने का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा मनन करो किमैं तो निमित्तमात्र हूं, कर्म का कर्तव्य मुझ पर नहीं है।पहले इस अकर्तृत्ववाद की भूमिका नम्रता से ग्रहण करो। किंतु इसी से संपूर्ण कर्तृत्व चला जायेगा, सो नहीं। धीरे-धीरे इस भावना का विकास होता जायेगा। पहले तो ऐसा अनुभव होने दो कि मैं अति तुच्छ हूं, उसके हाथ का खिलौना-कठपुतली हूं, वह मुझे नचाता है। इसके बाद यह मानने का प्रयत्न करों कि यह जो कुछ भी किया जाता है, वह शरीरजात है; मेरा उससे स्पर्श तक नहीं। ये सब क्रियाएं इस शव की हैं, परन्तु मैं शव नहीं हूँ।मैं शव नहीं, शिव हूंऐसी भावना करते रहो।

देह के लेप से लेशमात्र भी लिप्त हों। ऐसा हो जाने पर फिर मानो देह से कोई संबंध नहीं है, ऐसी ज्ञानी की अवस्था प्राप्त हो जायेगी। उस अवस्था में फिर ऊपर बतायी तीन अवस्थाएं होंगी। एक उसकी क्रियावस्था, जिसमें उसके द्वारा अत्यंत निर्मल और आदर्श क्रिया होगी। दूसरी भावावस्था, जिसमें त्रिभुवन के पाप-पुण्य मैं करता हूं, ऐसा उसे अनुभव होगा, परंतु उनका लेशमात्र भी स्पर्श नहीं होगा; और तीसरी उसकी ज्ञानावस्था, जिसमें वह लेशमात्र भी कर्म अपने पास नहीं रहने देगा। सब कर्म भस्मसात कर देगा। इन तीनों अवस्थाओं के द्वारा ज्ञानी पुरुष का वर्णन किया जा सकता है।

 

108. ‘तुही.........तुही............तुही

32. इतना सब कहने के बाद भगवान अर्जुन से कहते हैं- ‘अर्जुन, मैंने तुझे यह जो सब कहा, वह सब ध्यान से सुना है न? अब पूर्ण विचार करके जो तुझे उचित लगे, वह कर।' इस तरह भगवान ने बड़ी उदारता से अर्जुन को स्वतंत्रता दे दी। भगवद्गीता की यही विशेषता है। परंतु भगवान को फिर दया आ गयी। दिये हुए इच्छा-स्वातंत्रय को उन्होंने फिर वापस ले लिया। कहा- ‘अर्जुन, तू अपनी इच्छा, अपनी साधना, सब कुछ छोड़ दे और मेरी शरण में आ जा। इस तरह अपनी शरण में आने की प्रेरणा देकर भगवान ने दिया हुआ इच्छा-स्वातंत्रय वापस ले लिया है। इसका अर्थ यही है कि ‘तुम अपने मन में कोई स्वतंत्र इच्छा ही न उठने दो। अपनी इच्छा नहीं, उसी की इच्छा चलने दो। मुझे स्वतंत्ररूप से यही अनुभव हो कि यह स्वतंत्रता मुझे नहीं चाहिए। मैं नहीं, सब कुछ तू ही है, ऐसा हो। वह बकरी जीवित दशा में- ‘में में में करती है यानि ‘मैं मैं मैं कहती है, लेकिन मरने पर उसकी तांत बनाकर तीजन में लगायी जाती है, तब दादू कहता है- तुही, तुही, तुही- ‘तू ही, तू ही, तू ही, ‘ऐसा वह कहती है। अब तो सब ‘तू ही, तू ही, तू ही।'

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