गीता-ध्यान

महात्मा गांधी 


ज्ञानेश्वर महाराज ने निवृत्तिनाथ के जीते हुए उनका ध्यान धरा हो तो भले ही धरा हो; लेकिन इतना होने पर भी मेरी पक्की राय है कि वह हमारे नकल करने लायक नहीं है। जिसका ध्यान करना है, वह पूर्णता को पाया हुआ व्यक्ति होना चाहिए। जीवित व्यक्ति के लिए इस तरह का ख्याल करना बिल्कुल बेजा और गैरज़रूरी है। किन्तु यह हो सकता है कि ज्ञानेश्वर महाराज ने शरीरधारी निवृत्तिनाथ का ध्यान किया हो। मगर हम इस झगड़े में कहाँ पड़ें? और जीवित मूर्ति का ध्यान करने का सवाल उठता है तब कल्पना की मूर्ति की गुंजाइश नहीं रहती और इसका उल्लेख करके जबाब दिया हो तो इस जबाब से बुद्धि भ्रष्ट होना संभव है।


पहले अध्याय में जो नाम दिये हैं, वे सब नाम मेरी राय में व्यक्तिवाचक होने के बजाय गुणवाचक ज्यादा हैं। दैवीय और आसुरी वृत्तियों के बीच की लड़ाई का बयान करते हुए कवि ने वृत्तियों को मूर्तिमान बनाया है। इस कल्पना में इस बात से इंकार नहीं किया गया है कि पाण्डवों और कौरवों के बीच हस्तिनापुर के पास सचमुच युद्ध हुआ होगा। मेरी ऐसी कल्पना है कि उस ज़माने का दृष्टान्त लेकर कवि ने इस महान ग्रंथ की रचना की है। इसमें भूल हो सकती है या ये सब नाम ऐतिहासिक हो तो ऐतिहासिक आरंभ के लिए ये नाम देना बेजा भी नहीं माना जा सकता। विषय-विचार के लिए पहला अध्याय जरूरी है, इसलिए गीता-पाठ के वक्त उसे पढ़ लेना भी जरूरी है।


'महादेवभाईनी डायरी',

पहला भाग, पृष्ठ 223

18 जून, 1932


वह दिन याद आता है जब मि. बेकर मुझे वेलिंग्टन कन्वेन्शन में ईसाई बनाने को ले गये। वे हमेशा मेरे साथ चर्चा करते थे। मैं उन्हें कहता कि आप मुझमें श्रद्धा जाग्रत कीजिए। जो भी अच्छा असर आप मुझ पर डालना चाहते हों, वह डालने देने के लिए मैं तैयार हूँ। इसलिए उन्होंने कहा कि वेलिंग्टन कन्वेन्शन में चलो। वहाँ समर्थ लोग आयंगे। आप उनसे मिलेंगे तो आपको विश्वास हुए बिना रहेगा ही नहीं।


सारे डिब्बे में गोरे बैठे थे और मैं अकेला ऊपर के बंक पर दबा हुआ बैठा था। वे लोग कहने लगे, ‘"देखिये, हिक्स नदी आई, भव्य प्रदेश है। देखिये, सूर्योदय के दर्शन तो कीजिये!’" मगर मैं उतरता ही न था। मैं तो 11 वें अध्याय का पाठ कर रहा था। बेकर ने मुझसे पूछा, ‘‘क्या पढ़ रहे है?’’ मैंने कहा, ‘‘भगवद्गीता।’’ उन्हें लगा होगा कि कैसा मूर्ख है कि बाइबिल नहीं पढ़ता! मगर क्या करते? उन्हें मुझ पर जबरदस्ती तो करनी न थी। कन्वेन्शन में मेरे लिए विशेष प्रार्थना भी हुई। मगर मैं कोरा-का-कोरा ही लौटा।


गीता पर आस्था 

फिर एक ‘विशाल बुद्धि’ पुरुष-गीता का प्रणेता उत्पन्न हुआ। उसने हिन्दू-समाज को गहरे तत्त्वज्ञान से भरा और साथ ही हिन्दू-धर्म का ऐसा दोहन अर्पित किया कि जो मुग्ध जिज्ञासु को सहज ही समझ में आ सकता है। हिन्दू-धर्म का अध्ययन करने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक हिन्दू के लिए यह एकमात्र सुलभ ग्रंथ है और यदि अन्य सभी धर्मशास्त्र जलकर भस्म हो जाये तब भी इस अमर ग्रंथ के सात सौ श्लोक यह बताने के लिए पर्याप्त होंगे कि हिन्दू-धर्म क्या है और उसे जीवन में किस प्रकार उतारा जाये। मैं सनातनी होने का दावा करता हूँ; क्योंकि चालीस वर्षो से उस ग्रंथ के उपदेशों को जीवन में अक्षरशः उतारने का मैं प्रयत्न करता आया हूँ। गीता के मुख्य सिद्धान्त के विपरीत जो कुछ भी हो, उसे मैं हिन्दू-धर्म का विरोधी मानकर अस्वीकार करता हूँ। गीता में किसी भी धर्म या धर्म-गुरु के प्रति द्वेष नहीं। मुझे यह कहते बड़ा आनंद होता है कि मैंने गीता के प्रति जितना पूज्य भाव रखा है, उतने ही पूज्य भाव से मैंने बाइविल, कुरान, जंदअवस्ता और संसार के अन्य धर्म-ग्रंथ पढ़े हैं। इस वाचन ने गीता के प्रति मेरी श्रद्धा को दृढ़ बनाया है। उससे मेरी दृष्टि और उससे मेरा हिन्दू धर्म विशाल हुआ है। जैसे कि जरथुस्त्र, ईसा और मुहम्मद के जीवन-चरित्र को मैंने समझा है, वैसे ही गीता के बहुत से वचनों पर मैंने प्रकाश डाला है। इससे इन सनातनी मित्रों ने मुझे जो ताना दिया है, वह मेरे लिए तो आश्वासन का कारण बन गया है। मैं अपने को हिन्दू कहने में गौरव मानता हूँ; क्योंकि मेरे मन में यह शब्द इतना विशाल है कि पृथ्वी के चारों कोनों के पैगंबरों के प्रति यह केवल सहिष्णुता ही नहीं रखता, वरन् उन्हें आत्मसात कर लेता है। इस जीवन-संहिता में कहीं भी अस्पृश्यता को स्थान हो, ऐसा मैं नहीं देखता। इसके विपरीत, लौहा-चुंबक के समान चित्त आकर्षक वाणी में मेरी बुद्वि को स्पर्श करके और इसके भी आगे मेरे हृदय को पूर्णतया स्पर्श करके मेरे मन में यह आस्था उत्पन्न करती है कि भूतमात्र एकरूप है, वे सभी ईश्वर में से निकले हैं और उसी में विलीन हो जानेवाले हैं। भगवद्गीता माता द्वारा उपदिष्ट सनातन धर्म के अनुसार जीवन का साफल्य बाह्य आचार और कर्मकांड में नहीं, वरन् सम्पूर्ण चित्त-शुद्धि में और शरीर, मन और आत्मासहित समग्र व्यक्तित्व को परब्रह्म के साथ एकाकार कर देने में है। गीता के इस संदेश को अपने जीवन में ओत-प्रोत करके मैं करोडों की मानव मेदिनी के पास गया हूँ और उन्होंने मेरी बातें सुनी हैं, सो मेरी राजनीतिज्ञता के कारण अथवा मेरी वाणी की छटा के कारण नहीं, बल्कि मेरा विश्वास है कि मुझे अपने धर्म का मानकर सुनी हैं। समय के साथ-साथ मेरी यह श्रद्धा अधिकाधिक दृढ़ होती गई कि मैं सनातन-धर्मी होने का दावा करूं; यह चीज गलत नहीं और यदि ईश्वर की इच्छा होगी तो वह मुझे इस दावे पर मेरी मृत्यु की मुहर लगा लेने देगा। ‘महादेवभाईनी डायरी,' भाग 2, पृष्ठ 435 4 नवम्बर,1932


गीता का अर्थ 

एक मित्र इस प्रकार प्रश्न करते हैं: ‘‘गीता का संदेश क्या है? मालूम होता है कि यह झगड़ा हमेशा ही चलता रहेगा। यह बात और है कि हम गीता में किस संदेश को देखना चाहते हैं और उसमें से कौन-सा संदेश निकालना चाहते हैं और यह दूसरी ही बात है कि उसको सीधे ही पढ़ने पर क्या छाप पड़ती है। जिसके दिल में यह बात जम गई है कि अहिंसा-तत्त्व ही जीवन-संदेश है, उसके लिए तो यह प्रश्न गौण है। वह तो यही कहेगा कि गीता में से अहिंसा निकलती हो तो मुझे वह ग्राह्य है। इतने भव्य ग्रंथ में से अहिंसा जैसा भव्य धार्मिक सिद्धान्त ही निकलना चाहिए; किन्तु यदि न निकलता हो तो गीता को भी रहने दीजिए। उसको आदर से पूजेंगे; लेकिन उसे प्रमाण ग्रंथ नहीं मानेंगे। ‘‘प्रथम अध्याय को पढ़ने पर यही प्रतीत होता है कि अहिंसा-वृत्ति से प्रेरित अर्जुन अशस्त्र होकर कौरवों के हाथों करने को तैयार है। हिंसा से होने वाले पाप और हानि उसकी निगाह में साफ़ नजर आते हैं। विषाद से वह कांप उठता है और कहता हैः ‘अहों बत् महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयम्।' इस पर श्रीकृष्ण उससे कहते हैं- ‘समझदार होकर भी यह क्या बोलते हो? कोई किसी को न मारता है, न कोई मरता ही है। आत्मा अमर है और शरीर का नाश तो होगा ही। इसलिए इस धर्म प्राप्त युद्ध को लड़ लो। जय क्या और पराजय क्या? केवल अपना कर्तव्य पूरा करो।' ‘‘ग्यारहवें अध्याय में भी उसे विश्वरूप दिखाकर भगवान श्रीकृष्ण यही कहते हैं: कालोस्मि लोकक्षयकृत्प्रबृद्धो लोकात्समाहर्तुमिहो प्रबृतः मया हतांस्‍त्‍वं जहि मा व्यथिप्ठा। ‘‘ईश्वर की दृष्टि में हिंसा और अहिंसा दोनों समान ही हैं; लेकिन मनुष्य के लिए ईश्वर का संदेश क्या हो सकता है?‘‘ ‘युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।‘ यह क्या? गीता का संदेश यदि अहिंसा हो तो 1 और 11 अध्याय सुसम्बद्ध नहीं मालूम होते। वे उसके पोषक तो हैं ही नहीं। ऐसी शंकाओं का समाधान कौन करे? ‘‘काम की भीड़ में से कुछ समय निकालकर आप इसका जवाब दें तो कितना अच्छा हो!‘‘ ऐसे प्रश्न तो हुआ ही करेंगे। जिसने कुछ अध्ययन किया है, उसे उनका यथाशक्ति जवाब भी देना होगा; किन्तु इनका समाधान करने पर भी आखिर मुझे यह तो कहना ही पड़ेगा कि मनुष्य वही करेगा, जो उसका हृदय उसे करने को कहेगा। प्रथम हृदय है और फिर बुद्धि; प्रथम सिद्धांत और फिर प्रमाण; प्रथम स्फुरण और फिर उसके अनुकूल तर्क; प्रथम कर्म और फिर बुद्धि, इसलिए बुद्धि कर्मानुसारिणी कही गयी है। मनुष्य जो कुछ भी करना है या करना चाहता है, उसका समर्थन करने के लिए प्रमाण भी ढूंढ निकालता है।


इसलिए मैं समझता हूँ कि मेरा गीता का अर्थ सबके अनुकूल न होगा। ऐसी स्थिति में यदि मैं इतना कहूँ कि गीता के मेरे अर्थ पर मैं किस तरह पहुँचा और धर्मशास्त्रियों के अर्थ निकालने में मैंने किन-किन सिद्धान्तों को मान्य रखा है तो यही बस होगा, परिणाम चाहिए। "जो शत्रु मरने योग्य हैं, वे तो स्वयं ही मरे हुए हैं। मुझे तो उनको मारने में मात्र निमित्‍त बनना है।" 1889 के साल में गीता जी से मेरा प्रथम परिचय हुआ। उस समय मेरी उम्र 20 साल की थी। मै अहिंसा-धर्म को बहुत ही थोड़ा समझता था। शत्रु को भी प्रेम से जीतना चाहिए, यह मैं गुजराती कवि शामल भट्ट के इस छप्पय से ‘‘पाणी आपे ने वाय भलुं भोजन तो दीजे‘‘ सीखा था। इसमें जो सत्य है, वह मेरे हृदय में अच्छी तरह बैठ गया था, किन्तु उस समय मुझे उसमें से जीव-दया की स्फुरणा नहीं हुई थी। इसके पहले मैं देश ही में मांसाहार कर चुका था। मैं मानता था कि सर्पादिका नाश करना धर्म है। मुझे याद आता है कि मैने खटमल इत्यादि जीव मारे हैं। मुझे याद आता है कि मैंने एक बिच्छू को भी मारा था। आज यह समझा हूँ कि ऐसे जहरीले जीवों को भी न मारना चाहिए। उस समय मैं यह मानता था कि हमें अंग्रेज़ों के साथ लड़ने के लिए तैयारी करनी होगी। 'अंग्रेज राज्य करते हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है' -इस आशय की एक कविता गुनगुनाया करता था मेरा मांसाहार इसी तैयारी का कारण था। विलायत जाने के पहले मेरे ऐसे विचार थे। मैं मांसाहार इत्यादि से बच गया, इसका कारण माता को दिये हुए वचनों को मरते दम तक पालन करने की मेरी वृत्ति ही थी। सत्य के प्रति मेरे प्रेम ने बहुत-सी आपत्तियों में से मेरी रक्षा की है। अब दो अंग्रेजों से प्रसंग पड़ने पर मुझे गीता पढ़नी पड़ी। ‘पढ़नी पड़ी‘ इसलिए कहता हूं, क्योंकि उसे पढ़ने की मुझे कोई खास इच्छा न थी; लेकिन जब इन दो भाइयों ने मुझे उनके साथ गीता पढ़ने को कहा तब मैं शर्मिन्दा हुआ। मुझे अपने धर्मशास्त्रों का कुछ भी ज्ञान नहीं है, इस ख्याल से मुझे बड़ा दुःख हुआ। मालूम होता है, इस दुःख का कारण अभिमान था। मेरा संस्कृत का अध्ययन ऐसा तो था ही नहीं कि गीता जी के सब श्लोकों का अर्थ मैं बिना किसी मदद के ठीक-ठीक समझ लूं। ये दोनों भाई तो कुछ भी न समझते थे। उन्होंने सर एडविन ऑरनाल्ड का गीता जी का उत्तमोत्तम काव्यानुवाद मेरे सामने रख दिया। मैंने तो फौरन ही उस पुस्तक को पढ़ डाला और उस पर मुग्ध हो गया।


तब से लेकर आज तक दूसरे अध्याय के अंतिम 19 श्लोक मेरे हृदय में अंकित हैं। मेरे लिए तो सब धर्म उन्हीं में आ जाता है। उसमें संपूर्ण ज्ञान है उसमें कहे हुए सिद्धांत अचल हैं। उसमें बुद्धि का भी संपूर्ण प्रयोग किया गया है; लेकिन यह बुद्धि संस्कारी बुद्धि है। उसमें अनुभव ज्ञान है। इस परिचय के बाद तो मैंने बहुत-से अनुवाद पढ़े, बहुत सी टीकाएं पढ़ी, बहुत-से तर्क किये और सुने, लेकिन उसे पढ़ने पर जो छाप मुझ पर पड़ी थी, वह दूर नहीं हुई। ये श्लोक गीता जी के अर्थ को समझने की कुंजी हैं। उससे विरोधी अर्थ वाले वचन यदि मिलें तो उन्हें त्याग करने की भी सलाह मैं दूंगा। नम्र और विनयी मनुष्य को त्याग करने की भी जरूरत नहीं है। वह तो सिर्फ यों ही कह दे कि दूसरे श्लोकों का आज इसके साथ मेल नहीं मिलता है तो यह मेरी बुद्धि का ही दोष है। समय बीतने पर इनका और इन उन्नीस श्लोकों में कहे गये सिद्धांतों का भी मेल बैठ जायगा। अपने मन से और दूसरों के यह कहकर वह शांत हो जायगा।' शास्त्र का अर्थ करने में संस्कार और अनुभव की आवश्‍यकता है। शूद्र को वेद का अभ्यास नहीं होता‘, यह वाक्य सर्वथा गलत नहीं है। शूद्र अर्थात असंस्कारी, मूर्ख, अज्ञान। वह वेदादि का अभ्‍यास करके उनका अनर्थ करेगा। बड़ी उम्र के भी सब लोग बीजगणित के कठिन प्रश्न अपने-आप समझने के अधिकारी नहीं हैं। उनको समझने के पहले उन्हें कुछ प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती है। व्यभिचारी के मुख से ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ क्या शोभा देगा? उसका वह क्या अर्थ या अनर्थ करेगा? अर्थात शास्त्र का अर्थ करने वाला यमादि का पालन करने वाला होना चाहिए। यमादि का शुप्क पालन जैसा कठिन है, वैसा ही निरर्थक भी है। शास्त्रों ने गुरु का होना आवश्यक माना है; लेकिन इस जमाने में गुरुओं का तो क़रीब-क़रीब लोप-सा हो गया है। ज्ञानी लोग इसीलिए भक्ति -प्रधान प्रकृति ग्रंथों का पठन-पाठन करने की शिक्षा देते है; किन्तु जिनमें भक्ति नहीं, श्रद्धा नहीं, वे शास्त्र का अर्थ करने के अधिकारी नहीं होते। विद्वान लोग विद्वत्‍तापूर्ण अर्थ उसमें से भले ही निकालें; लेकिन वह शास्त्रार्थ नहीं। शास्त्रार्थ तो अनुभवी ही कर सकता है। परंतु प्रकृति मनुष्यों के लिए भी कुछ सिद्धांत तो है ही। शास्त्रों के वे अर्थ, जो सत्य के विरोधी हैं, यही नहीं हो सकते। जिसे सत्य के सत्य होने के बारे में ही शंका है, उसके लिए शास्त्र हैं ही नहीं, अथवा यों कहिए कि उसके लिए सब शास्त्र अशास्त्र है। उसको कोई नहीं पहुँच सकता। जिसे शास्त्र में से अहिंसा प्राप्त नहीं हुई है, उसके लिए भय है, लेकिन यह बात नहीं कि उसका उद्धार न हो।


सत्य विध्यात्मक है, अहिंसा निषेधात्मक है। सत्य वस्तु का साक्षी है, अहिंसा वस्तु होने पर भी उसका निषेध करती है। सत्य है, असत्य नहीं है। हिंसा है, अहिंसा नहीं हैं। फिर भी अहिंसा ही होनी चाहिए। यही परम धर्म है। सत्य स्वयंसिद्ध है। अहिंसा उसका संपूर्ण फल है। सत्य में वह छिपी हुई ही है; किंतु वह सत्य की तरह व्यक्त नहीं है। इसलिए उसको मान्य किये बिना मनुष्य भले ही शास्त्र की शोध करे, उसका सत्य आखिर उसे अहिंसा ही सिखावेगा। सत्य का अर्थ तपश्चर्या तो है ही। सत्य का साक्षात्कार करने वाले तपस्वी ने चारों ओर फैली हुई हिंसा में से अहिंसा देवी को संसार के सामने प्रकट करके कहा- हिंसा मिथ्या है, माया है, अहिंसा ही सत्य वस्‍तु है। अहिंसा के बिना सत्य का साक्षात्कार असम्भावित है। ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह भी अहिंसा के अर्थ में है। ये अहिंसा को सिद्ध करने वाले है। अहिंसा के अर्थ में है। उसके बिना मनुष्य पशु है। सत्यार्थी अपनी शोध के लिए प्रयत्न करते हुए यह सब बड़ी जल्दी समझ लेगा और फिर उसे शास्त्र का अर्थ करने में कोई मुसीबत पेश नहीं आवेगी। शास्त्र का अर्थ करने में दूसरा नियम यह है कि उसके प्रत्येक अक्षर को न पकड़कर उसकी ध्वनि खोजनी चाहिए, उसका रहस्य समझना चाहिए। तुलसीदासजी की रामायण उत्‍तम ग्रंथ है; शूद्र, गंवार, ढोल, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी लिखा, इसलिए यदि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे तो उसकी अधोगति होगी। रामचंद्रजी ने सीताजी पर प्रहार नहीं किया। इतना ही नहीं, उन्हें कभी दुःख भी नहीं पहुँचाया। तुलसीदास जी ने केवल प्रचलित वाक्य को लिख दिया। उन्हें इस बात का ख्याल कभी न हुआ होगा कि इस वाक्य का अधार लेकर अपनी अर्धांगिनी का ताड़न करने वाले पशु भी कहीं निकल पड़ेंगे। यदि स्वयं तुलसीदास जी ने भी रिवाज के वशवर्ती होकर अपनी पत्नी का ताड़न किया हो तो भी क्या? यह ताड़न अवश्य ही दोष है। फिर भी रामायण पत्नी के ताड़न के लिए नहीं लिखी गई है। रामायण तो पूर्ण-पुरुष का दर्शन कराने के लिये सती-शिरोमणि सीता जी का परिचय कराने के लिए लिखी गई है। उसमें मिलने वाला दोषयुक्त रिवाजों का समर्थन त्याज्य है। तुलसीदास जी ने भूगोल सिखाने के लिए अपना अमूल्य ग्रंथ नहीं बनाया है, इसलिए उनके ग्रंथ में यदि गलत भूगोल पाया जाय तो उसका त्याग करना अपना धर्म है। अब गीता जी देखें। ब्रह्मज्ञान -प्राप्ति और उसके साधन, यही गीता जी के विषय हैं। दो सेनाओं के बीच युद्ध का होना निमित्‍त है। भले ही ऐसा कहें कि कवि स्वयं युद्धादि को निषिद्ध नहीं मानते थे और इसलिए उन्होंने युद्ध के प्रसंग का इस प्रकार उपयोग किया है। महाभारत पढ़ने के बाद तो मेरे ऊपर दूसरी ही छाप पड़ी है।


व्यास जी ने सुंदर ग्रंथ की रचना करके युद्ध के मिथ्यात्व का ही वर्णन किया है। कौरव हारे तो उससे क्या हुआ? और पांडव जीते तो भी उससे क्या हुआ? विजयी कितने बचे? उनका क्या हुआ? कुंती माता का क्या हाल हुआ? और आज यादव-कुल कहाँ है?


जहाँ विषय युद्ध-वर्णन और हिंसा का प्रतिपादन नहीं है, वहाँ उस पर जोर देना बिलकुल अनुचित ही माना जायगा और यदि कुछ श्लोकों का संबंध अहिंसा के साथ बैठाना मुश्किल मालूम होता है तो सारी गीता जी को हिंसा के चौखटे में मढ़ना तो उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है।


कवि जब किसी ग्रंथ की रचना करता है तो वह उसके सब अर्थों की कल्पना नहीं कर लेता है। काव्य की यही खूबी है कि वह कवि से भी बढ़ जाता है। जिस सत्य का वह अपनी तन्मयता में उच्चारण करता है, वही सत्य उसके जीवन में अक्सर नहीं पाया जाता इसलिए बहुतेरे कवियों का जीवन उसके काव्यों के साथ सुसंगत नहीं मालूम होता।


दूसरा अध्याय, जिससे विषय का आरंभ होता है और अठारहवां अध्याय, जिसमें उसकी पूर्णाहुति होती है, देखने से यही प्रतीत होगा कि गीता जी का सर्वाष तात्पर्य हिंसा नहीं, वरन् अहिंसा है। मध्य में देखोगे तो भी यही प्रतीत होगा। बिना क्रोध , राग या द्वेष के हिंसा का होना संभव नहीं और गीता तो क्रोधादि को पार करके गुणातीत की स्थिति में पहुँचाने का प्रयत्न करती है। गुणातीत में क्रोध का सर्वथा अभाव होता है। अर्जुन ने कान तक खींचकर जब-जब धनुष चढ़ाया, उस समय की उसकी लाल-लाल आंखें मैं आज भी देख सकता हूँ।


परन्तु अर्जुन ने कब अहिंसा के लिए युद्ध छोड़ने की हठ की थी? उसने तो बहुत से युद्ध किये थे। उसे तो एकाएक मोह हो गया था। वह तो अपने सगे-संबंधियों को नहीं मारना चहता था। अर्जुन ने दूसरों को, जिन्हें वह पापी समझता हो, न मारने की बात तो की न थी। श्रीकृष्ण तो अंतर्यामी है। वह अर्जुन का यह क्षणिक मोह समझ लेते हैं और इसलिए उससे कहते हैं; ‘‘तुम हिंसा तो कर चुके हो। अब इस प्रकार एकाएक समझदार बनने का दंभ करके तुम अहिंसा नहीं सीख सकोगे। इसलिए जिस काम को तुमने आरंभ किया है, उसे अब तुम्हें पूरा ही करना चाहिए।‘‘ घंटे मे चालीस मील के वेग से जाने वाली रेलगाड़ी में बैठा हुआ व्यक्ति एकाएक प्रवास से विरक्त हो कर यदि चलती हुई गाड़ी से ही कूद पड़े तो यही कहा जायगा कि उसने आत्म-हत्या की है। उससे उसने प्रवास या रेलगाड़ी में बैठने के मिथ्यात्व को कुछ नहीं सीखा है। अर्जुन का भी यही हाल था।


अहिंसक कृष्ण अर्जुन को दूसरी सलाह दे ही नहीं सकते थे; लेकिन उससे यह अर्थ नहीं निकाल सकते कि गीता जी में हिंसा ही का प्रतिपादन किया गया है। यह अर्थ निकालना उतना ही अनुचित है जितना कि यह कहना कि शरीर व्यापार के लिए कुछ हिंसा अनिवार्य है और इसलिए हिंसा ही धर्म है। सूक्ष्मदर्शी इस हिंसामय शरीर के अशरीरी होने का अर्थात मोक्ष का ही धर्म सिखाता है। लेकिन धृतराष्ट्र कौन थे? दुर्योधन, युधिष्ठिर और अर्जुन कौन थे? कृष्ण कौन थे? क्या ये सब ऐतिहासिक पुरुष थे? और क्या गीता जी में उनके स्‍थूल व्‍यवहार का ही वर्णन किया गया है। अकस्‍मात अर्जुन सवाल करता है और कृष्ण सारी गीता पढ़े जाते हैं। और अर्जुन यह कहकर भी कि उसका मोह नष्ट हो गया है, यही गीता फिर भूल जाता है और कृष्ण से दोबारा अनुगीता कहलवाता है! मै तो दुर्योधनादि को आसुरी और अर्जुनादि को दैवी वृति मानता हूँ। धर्मक्षेत्र यह शरीर ही है। उसमें द्वंद्व चलता ही रहता है और अनुभवी ऋषि कवि उसका तादृश वर्णन करते हैं। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं और हमेशा शुद्ध-चित्त में घड़ी की तरह टिक-टिक करते रहते हैं। यदि चित्त को शुद्धरूपी चाबी नहीं दी गई तो अंतर्यामी यद्यपि वहाँ रहते तो हैं, तथापि उनका टिक-टिकाना तो अवश्‍य ही बंद हो जता है। कहने का आशय यह नहीं कि इसमें स्‍थूल युद्ध के लिए अवकाश ही नहीं है। जिसे अहिंसा सूझी ही नहीं है, उसे यह धर्म नही सिखाया गया है कि कायर बनना चाहिए। जिसे भय लगता है, जो संग्रह करता है, जो विषय में रत है, वह अवश्‍य ही हिंसामय युद्ध करेगा; लेकिन उसका वह धर्म नहीं है। धर्म तो एक ही है। अहिंसा के मानी है मोक्ष और मोक्ष है सत्यनारायण का साक्षात्कार। इसमें पीठ दिखाने को तो कहीं अवकाश ही नहीं है। इस विचित्र संसार में हिंसा तो होती ही रहेगी। उससे बचने का मार्ग गीता दिखाती है; लेकिन साथ-ही-साथ गीता यह भी कहती है कि कायर होकर भागने से हिंसा से नहीं बच सकोगे। जो भागने का विचार करता है, वह तो मारेगा और मरेगा। प्रश्नकर्ता ने जिन श्लोकों का उल्लेख किया है, उनका अर्थ यदि अब भी उनकी समझ में न आवे तो मैं समझाने में असमर्थ हूँ। सर्वशक्तिमान् ईश्वर कर्ता, भर्त्ता और संहर्त्ता है और वह ऐसा ही होना चाहिए। इस विषय में कोई शंका तो ना होगी न? जो उत्पन्न करता है, वह उसका नाश करने का अधिकार भी रखता है। फिर भी वह किसी को नहीं मारता; क्योंकि वह उत्पन्न भी नहीं करता। नियम यह है कि जिसने जन्म लिया है, उसने मरने ही के लिए जन्म लिया है। ईश्वर भी इस नियम को नहीं तोड़ सकता। यही उसकी दया है। यदि ईश्वर ही स्वन्छंद और स्वेन्छाचारी बन जाय तो फिर हम सब कहाँ जावेंगे?


खिलाफ़त के लिए प्राण अर्पण करने की मेरी प्रतिज्ञा थी। परधर्मी के लिए जो मुछ भी हो सका, मैने किया। मैं मानता था और अब भी मानता हूँ कि मेरी इस सेवा से गोरक्षा होगी। आप पूछेंगे कि गोरक्षा हुई? गोरक्षण नहीं हुआ, इससे पर मुझे क्या! मैं तो प्रयत्न का अधिकारी था। फल के अधिकारी तो श्रीकृष्ण भगवान हैं। भगवान ने कहा कि मुहम्मद अली से मिल, शौकत अली से मिल, उसके साथ काम कर! मैंने वही किया। उन्हें जितनी मदद दी जा सकी, दी। इस काम के लिए मुझे जरा भी पछतावा नहीं है। फिर ऐसा प्रसंग आवे तो मैं यही करूंगा। गीता-भागवत आदि धर्म -ग्रंथ मुझे यही सिखलाते हैं। लोग मेरी निन्दा करें, मेरा अपमान करें, इसके उत्तर में मैं भी उनकी निन्दा और अपमान करने वाला नहीं। मैं तो वही करूंगा, जो करने का तुलसीदासजी ने उपदेश दिया है, यानी तपश्चर्या। मेरी प्रकृति ही ऐसी बनी है। मुझसे दूसरा क्या होगा? गीता जी ने कहा है न कि सब जीव अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलते है, निग्रह क्या करेगा? इसलिए मुझे तो तपश्चर्या करनी रही। जब मुसलमानों के दिल में खुदा बसेंगे और जब एक दिन ऐसा आवेगा कि हिन्दुओं के समान वे भी गोरक्षा करेंगे, मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि तब आप कहेंगें कि यह गोरक्षा पुराने जमाने के किसी गांधी नाम के पागल की आभारी है। मैं नहीं मानता कि आज के जैसी तबलीग या शुद्धि या धर्मपरिवर्तन करने की आज्ञा इस्लाम या हिन्दू धर्म या ईसाई धर्म में है। तब मै शुद्धि में किस प्रकार हाथ बंटा सकता हूं?


नित्य व्यवहार में गीता 

तुलसीदास और गीता तो मुझे सिखलाते हैं कि जब तुम्हारे ऊपर या तुम्हारे धर्म पर हमला हो तो तुम आत्मशुद्धि कर लेना और जो पिंड में है, वह ब्रह्मांड में। आत्मशुद्धि- तपश्चर्या करने का मेरा प्रयत्न चौबीसों घंटों चल रहा है। पार्वती के नसीब में अशुभ लक्षणों वाला पति था। ऐसे लक्षण होने पर भी शुभंकर तो शिव जी ही थे। पार्वती ने उन्हें तपोवल से पाया। संकट के समय में ऐसा ही तय हिंदू धर्म सिखलाता है। इस धर्म ज्ञान का साक्षी हिमालय है , वही हिमालय जिसके ऊपर हिंदू धर्म की रक्षा के लिए लाखों ऋषि-मुनियों ने अपने शरीर गला डाले हैं। वेद कुछ काग़ज पर लिखे अक्षर नहीं हैं। वेद तो अंतर्यामी हैं और अंतर्यामी ने मुझे बतलाया है कि यम-नियमादि का पालन कर और कृष्ण का नाम लें। मै विनय के साथ, परन्तु सत्यता से कहता हूँ कि हिंदू धर्म की सेवा, हिंदू धर्म की रक्षा के सिवा मेरी दूसरी प्रवृति नहीं। हां, उसे करने की मेरी रीति भले ही निराली हो।


भगवद्गीता अथवा अनासक्तियोग 

गीता पढ़ते, विचारते और उसका अनुसरण करते हुए अब मुझे चालीस साल से ज्यादा हो चुके हैं। मित्रों ने यह इच्छा प्रकट की थी कि मैं जनता को बताऊं कि मैंने गीता को किस रूप में समझा है। फलतः मैंने अनुवाद शुरू किया। विद्वान की दृष्टि से देखने बैठूँ तो अनुवाद करने की मेरी अपनी योग्यता कुछ भी नहीं ठहरती। हां, आचरण करने वाले की दृष्टि से ठीक-ठीक मानी जा सकती है। यह अनुवाद अब छपा है। बहुतेरी गीताओं के साथ संस्कृत भी होती है। इसमें जान-बूझकर संस्कृत नहीं रखी संस्कृत सब जाने, समझें तो मुझे अच्छा लगे; लेकिन सब संस्कृत कभी जानेंगे नहीं और संस्कृत के तो अनेक सस्ते संस्करण मिल सकते हैं। इसलिए संस्कृत छोड़कर आकार और कीमत बचाने का निश्चय किया। अतएव 18 सफों की प्रस्तावना और 191 सफों के अनुवाद वाला जेबी संस्करण छपवाया है। इसकी कीमत दो आना रखी है। मेरा लोभ तो यह है कि हर एक हिन्दी भाषा - भाषी इस गीता को पढ़े, विचारे और वैसा आचरण करे। इसके विचार का सरल उपाय यह है कि संस्कृत का ख्याल किये बिना ही इसके अर्थ को समझने का प्रयत्न किया जाये और फिर तदानुसार आचरण किया जाये। मसलन जो यह कहते हैं कि गीता तो अपने-पराये का भेद रखे बिना दुष्टों को संहार करने की शिक्षा देती है, उन्हें अपने दुष्ट मामा-पिता या अन्य प्रियजनों का संहार शुरू कर देना चाहिए। पर वे वैसा तो कर नहीं सकते तो फिर जहाँ संहार का जिक़्र आता है, वहाँ उसका कोई दूसरा अर्थ होना संभव है, यह बात पाठकों को सहज ही सूझेगी। अपने-पराये के बीच भेद न रखने की बात तो गीता के पन्ने-पन्ने में आती हैं। पर यह कैसे हो सकता है? यों सोचते-सोचते हम इस निश्चय पर पहुँचेंगे कि अनासक्तिपूर्वक सब काम करना ही गीता की प्रधान ध्वनि है; क्योंकि पहले ही अध्याय में अर्जुन के सामने अपने-पराये का झगड़ा खड़ा होता है। गीता के प्रत्येक अध्याय में यह बताया गया है कि ऐसा भेद मिथ्या और हानिकारक है। गीता को मैने ‘अनासक्तियोग‘ का नाम दिया है। यह क्या है, कैसे सिद्ध हो सकता है, अनासक्ति के लक्षण क्या हैं आदि तमाम बातों का जवाब इस पुस्तक में है। गीता का अनुसरण करते हुए मै इस युद्ध को प्रारंभ किये बिना न रह सका एक मित्र के शब्दों में, 'मेरे मन का यह युद्ध धर्मयुद्ध है' और ठीक इस आखिरी फैसले के मौके पर इस पुस्तक का प्रकाशित होना मेरे लिए शुभ शकुन है।


मेरा यह मत रहा है कि गीता का मुख्य विषय दूसरे अध्याय में बताया गया है। ऐसा कहने का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे अध्यायों की महिमा कम है। वास्तव में एक अध्याय का अपना महत्त्व अलग ही है। विनोबा ने गीता को ‘गीताई ‘ अर्थात ‘गीता-माता‘ कहकर पुकारा है। उन्होंने उसका बहुत ही सरल और ओजस्वी मराठी में पद्यानुवाद किया है। उसका छंद भी वही रखा है, जो मूल संस्कृत में है। हज़ारों के लिए गीता ही सच्ची माता है; क्योंकि वह कठिनाइयों में सान्त्वना-रूपी पौष्टिक दूध देती है। मैंने उसे अपना आध्यात्मिक कोश कहा है; क्योंकि दुःख में मैं उससे कभी निराश नहीं हुआ हूँ। इसके अतिरिक्त, यह ऐसी पुस्तक है जिसमें साम्प्रदायिकता और धार्मिक अधिकार का नाम भी नहीं है। यह मनुष्य-मात्र को प्रेरणा देती है। मैं गीता को क्लिष्ट पुस्तक नहीं मानता। निःसन्देह पंडितों के तो जो चीज भी हाथ पड़ जाये, उसी में वे गहनता देख लेते हैं; परन्तु मेरी सम्मति में साधारण बुद्धि के मनुष्य को भी गीता के सरल संदेश को समझ लेने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। उसकी संस्कृत तो अत्यंत सरल है। मैंने गीता के कई अंग्रेजी अनुवाद पढ़े हैं, परन्तु एडविन ऑरनाल्ड के छन्दानुवाद की तुलना का एक भी नहीं है। इसका नाम भी उन्होंने स्वर्गीय गीत बहुत सुन्दर और उपयुक्त रखा है।


गीता और रामायण बहुतेरे नौजवान कोशिश करते हुए भी पाप से बच नहीं पाते, जिससे वे हिम्मत खो बैठते हैं और फिर दिन-दिन पाप की गहराई में उतरते जाते हैं। बहुतेरे तो बाद में पाप ही को पुण्य भी मानने लगते हैं। ऐसों को मैं बहुत बार सलाह देता हूँ कि वे गीताजी और रामायण का बार-बार अध्ययन और मनन करें; लेकिन वे इस बात में दिलचस्पी नहीं लेते। इसी तरह के नौजवानों की दिलजमई के लिए, उन्हें धीरज बंधाने की गरज से, एक नौजवान के पत्र का कुछ हिस्सा, जो इस विषय से संबंध रखता है, नीचे देता हूं- ‘‘मन साधारणतः स्वस्थ है; किन्तु जब कुछ दिनों तक मन बिल्कुल स्वस्थ रह चुकता है और खुद इस बात का ख्याल हो आता है तो फिर से पछाड़ खानी ही पड़ती है। विकार इतने जबर्दस्त बन जाते हैं कि उनका विरोध करने में बुद्धिमानी नहीं मालूम पड़ती; लेकिन ऐसे समय प्रार्थना, गीता-पाठ और तुलसी-रामायण से बड़ी मदद मिलती है। रामायण को एक बार पढ़ चुका हूं, दुबारा सती की कथा तक आ पहुचा हूँ। एक समय था, जब रामायण का नाम सुनते ही जी घबराता था, लेकिन आज तो उसके पन्ने-पन्ने में रस पा रहा हूँ। एक ही पृष्ठ को पांच-पांच बार पढ़ता हूं, फिर भी दिल ऊबता नहीं। कागभुशुण्ड जी की जिस कोशिश के कारण मेरे दिल में तुलसी-रामायण के प्रति घृणा पैदा हो गई थी और वह बुरी लगती थी, वही आज सबसे अच्‍छी मालूम होती है उसमें मैं गीता के 11 वें अध्याय से भी ज्यादा काव्य देख रहा हूँ। दो-चार साल पहले आधे दिल से स्वच्छता पाने की कोशिश करने पर भी उसे न पाकर जो निराशा पैदा होती थी, आज उस निराशा का पता भी नहीं है; उल्टे मन में विचार आता है कि जो विकास अनंत काल बाद होने वाला है, उसे आज ही पा लेने का हठ करना मूर्खता है। सारे दिन में कातते समय और रामायण का अभ्यास करते समय आराम मिलता है।" इस पत्र के लेखक में जितनी निराशा और जितना अविश्वास था, शायद ही किसी दूसरे नौजवान में उतनी निराशा और उतना अविश्वास हो। दोनों ने उसके शरीर में घर कर लिया था; लेकिन आज उसमें जिस श्रद्धा का उदय हुआ है, उससे सब नवयुवकों में आशा का संचार होना चाहिए। जो लोग अपनी इंद्रियों को जीत सके हैं, उनके अनुभव पर भरोसा करके लगन के साथ रामायण आदि का अभ्यास करने वाले का दिल पिघले बिना रह ही नहीं सकता। मामूली विषयों के अभ्यास के लिए भी जब हमें अक्सर बरसों तक मेहनत करनी पड़ती है, कई तरकीबों से काम लेना पड़ता है, तो फिर जिस विषय में सारी जिंदगी की और उसके बाद की शान्ति का भी प्रश्न छिपा हुआ है, उस विषय के अभ्यास के लिए हममें कितनी लगन होनी चाहिए। 


जिसके हृदय में हर घड़ी राम का निवास हो, उस पर विकारों का हमला हो ही नहीं सकता। सच तो यह है कि जो शुद्ध बुद्धि से रामनाम का जप करता है, समय पाकर रामनाम उसके हृदय में घर कर लेता है। इस तरह हृदय-प्रवेश होने के बाद रामनाम उस मनुष्य के लिए एक अभेद्य किला बन जाता है। बुराई, बुराई का ख्याल करते रहने से नहीं मिटती। हां, अच्छाई का विचार करने से बुराई जरूर मिट जाती है। लेकिन बहुत बार देखा गया है कि लोग सच्ची नीयत से उल्टी तरकीबें काम में लाते हैं। ‘यह कैसे आई, कहाँ से आई?- वगैरहा विचार करने से बुराई का ध्यान बढ़ता जाता है। बुराई को मेटने का यह उपाय हिंसक कहा जा सकता है। इसका सच्चा उपाय तो बुराई से असहयोग करना है। जब बुराई हम पर आक्रमण करे तो उससे 'भाग जाना' कहने की कोई जरूरत नहीं। हमें तो यह समझ लेना चाहिए कि बुराई नाम की कोई चीज है ही नहीं और हमेशा स्वच्छता का, अच्छाई का, विचार करते रहना चाहिए। ‘भाग जा‘ कहने में डर का भाव है। उसका विचार तक न करने में निडरता है। हमें सदा यह विश्वास बढ़ाते रहना चाहिए कि बुराई मुझे छू तक नहीं सकती। अनुभव द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है।



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