गीता से प्रथम परिचय

महात्मा गांधी 

विलायत में रहते हुए कोई एक साल हुआ होगा, इस बीच दो थियोसॉफिस्ट मित्रों से मुलाकात हुई। दोनों सगे भाई थे और अविवाहित थे। उन्होंने मुझसे गीता की बात चलाई। उन दिनों ये एडविन आरनॉल्ड-कृत गीता के अंग्रेजी अनुवाद को पढ़ रहे थे, पर मुझे उन्होंने अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए कहा। मैं लज्जित हुआ, क्योंकि मैंने तो गीता संस्कृत भाषा में नहीं पढ़ी थी। मुझे उनसे यह बात झेंपते हुए कहनी पड़ी; पर साथ यह भी कहा कि मैं आपके साथ पढ़ने के लिए तैयार हूँ। यों तो मेरा संस्कृत-ज्ञान नहीं के बराबर है, फिर भी मैं इतना समझ सकूंगा कि अनुवाद कहीं गड़बड़ होगा तो वह बता सकूं। इस तरह इन भाइयों के साथ मेरा गीता-वाचन आरंभ हुआ। दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों में: 

ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते। 

सगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ 

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:। 

स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

इन श्लोकों का मेरे दिल पर गहरा असर हुआ। बस कानों में उनकी ध्वनि दिन-रात गूँजा करती। तब मुझे प्रतीत हुआ कि भगवद्गीता तो अमूल्य ग्रंथ है। यह धारणा दिन-दिन अधिक दृढ़ होती गई और अब तो तत्त्व ज्ञान के लिए मैं उसे सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ। निराशा के समय इस ग्रंथ ने मेरी अमूल्य सहायता की है। यों इसके लगभग तमाम अंग्रेजी अनुवाद मैं पढ़ गया हूं; परन्तु एडविन आरनॉल्ड का अनुवाद सबमें श्रेष्ठ मालूम होता है। उन्होंने मूल ग्रंथ के भावों की अच्छी रक्षा की है और तिस पर भी वह अनुवाद जैसा नहीं मालूम होता। फिर भी यह नहीं कह सकते कि इस समय मैंने भगवद्गीता का अच्छा अध्ययन कर लिया है। उसका रोजमर्रा पाठ तो वर्षों बाद शुरू हुआ।


गीता का अध्ययन शुरू किया। एक छोटा-सा ‘जिज्ञासु-मंडल‘ भी बनाया गया और नियमपूर्वक अध्ययन आरंभ हुआ। गीता जी के प्रति मेरा प्रेम और श्रद्धा तो पहले ही से थी। अब उसका गहराई के साथ रहस्य समझने की आवश्यकता दिखाई दी। मेरे पास एक-दो अनुवाद रखे थे, उनकी सहायता से मूल संस्कृत समझने का प्रयत्न किया और नित्य एक या दो श्लोक कंठ करने का निश्चय किया। सुबह का दतौन और स्नान के समय मैं गीताजी कंठ करने में लगाता। दातौन में 15 और स्नान में 20 मिनट लगते। दातौन अंग्रेजी रिवाज के मुताबिक खड़े-खड़े करता। सामने दीवार पर गीता जी के श्लोक लिखकर चिपका देता और उन्हें देख-देखकर रटता रहता। इस तरह रटे हुए श्लोक स्नान करने तक पक्के हो जाते। बीच में पिछले श्लोकों को भी दुहरा जाता। इस प्रकार मुझे याद पड़ता है कि 13 अध्याय तक गीता कंठ कर ली थी, पर बाद में काम की झंझटें बढ़ गईं। सत्याग्रह का जन्म हो गया और उस बालक की परिवरिश का भार मुझ पर आ पड़ा, जिससे विचार करने का समय भी उसके लालन-पालन में बीता और कह सकते हैं कि अब भी बीत रहा है। गीता-पाठ का असर मेरे सहाध्यायियों पर तो कुछ पड़ा हो, वह वही बता सकते हैं, किन्तु मेरे लिए तो गीता आचार की एक प्रौढ़ मार्गदर्शिका बन गई है। वह मेरा धार्मिक कोश हो गई है। अपरिचित अंग्रेजी शब्द के हिज्जे या अर्थ को देखने के लिए जिस तरह मैं अंग्रेजी कोश को खोलता, उसी तरह आचार-संबंधी कठिनाइयों और उसकी अटपटी गुत्थियों को गीता जी के द्वारा सुलझाता। उसके अपरिग्रह, समभाव इत्यादि शब्दों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। यही धुन रहने लगी कि समभाव कैसे प्राप्त करूँ, कैसे उसका पालन करूँ? जो अधिकारी हमारा अपमान करे, जो रिश्वतखोर हैं, रास्ते चलते जो विरोध करते हैं जो कल के साथी हैं, उनमें और उन सज्जनों में, जिन्होंने हम पर भारी उपकार किया है, क्या कुछ भेद नहीं है? अपरिग्रह का पालन किस स्त्री-पुरुष आदि यदि परिग्रह नहीं तो फिर क्या है? क्या पुस्तकों से भरी इन अलमारियों में आग लगा दूं? पर यह तो घर जलाकर तीर्थ करना हुआ। अन्दर से तुरंत उत्तर मिला, ‘‘हां, घरबार को खाक किये बिना तीर्थ नहीं किया जा सकता।’’ इसमें अंग्रेजी क़ानून के अध्ययन ने मेरी सहायता की। स्नेल-रचित क़ानून के सिद्धान्तों की चर्चा याद आई।


ट्रस्टी शब्द का अर्थ, गीता जी के अध्ययन की बदौलत अच्छी तरह समझ में आया। कानून शास्त्र के प्रति मन में आदर बढ़ा, उसके अंदर भी मुझे धर्म का तत्त्व दिखाई पड़ा। ट्रस्टी यों करोड़ों की संपत्ति रखते हैं, फिर भी उसकी एक पाई पर उनका अधिकार नहीं होता। इसी तरह मुझको अपना आचरण रखना चाहिए, यह पाठ मैंने गीता जी से सीखा। अपरिग्रही होने के लिए, समभाव रखने के लिए, हेतु का और हृदय का परिवर्तन आवश्यक है, यह बात मुझे दीपक की तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी। बस, तुरंत रेवाशंकर भाई को लिखा की बीमे की पालिसी बंद कर दीजिए। कुछ रूपया वापस मिल जाय तो ठीक, नही तो खैर। बाल-बच्चों और गृहिणी की रक्षा वह ईश्वर करेगा, जिसने उनको और हमको पैदा किया है। यह आशय मेरे उस पत्र का था। पिता के समान अपने बड़े भाई को लिखा, ‘‘आज तक मैं जो कुछ बचाता रहा, आपके अर्पण करता रहा। अब मेरी आशा छोड़ दीजिए। अब जो कुछ बच रहेगा, वह यहीं के सार्वजनिक कामों में लगेगा।’’

कल्पना का चित्र कुछ भी खींचा हो और उसका ध्यान किया हो तो इसमें दोष नहीं देखता। लेकिन गीतामाता के ध्यान से संतोष होता हो तो और क्या चाहिए? गीता का ध्यान दो तरह से हो सकता है: एक तो उसे माता के रूप माना है। इसीलिए सामने माता की तस्वीर की जरूरत रहती हो तो या तो अपनी माँ में ही, यदि वह मर गई हो तो, कामधेनु का आरोपण करके गीता के रूप में मानकर उसका ध्यान करना चाहिए, या कोई भी काल्पनिक चित्र मन में खींच लिया जाये। उसे गो-माता का रूप दिया हो तो भी काम चल सकता है। दूसरी तरह हो सके तो इसे मैं ज्यादा अच्छा समझता हूँ। हम हमेशा जो अध्याय बोलते हैं, उसमें से या किसी भी अध्याय के किसी भी श्लोक या किसी शब्द का ध्यान धरना ही उसका चिन्तवन करना है। गीता में जितने शब्द हैं, उतने ही उसके आभूषण हैं, और प्रियजनों के आभूषण का ध्यान करना भी उन्हीं का ध्यान धरने के बराबर है। यही बात गीता की है। लेकिन इसके सिवा किसी को और कोई ढंग मिल जाये तो भले ही वह उस ढंग से ध्यान धरे। जितने दिमाग, उतनी ही विविधता होती है। कोई दो व्यक्ति एक ही तरीके से एक ही चीज का ध्यान नहीं करते। दोनों के वर्णन और कल्पना में कुछ-न-कुछ फर्क तो रहेगा ही। छठे अध्याय के अनुसार जरा-सी भी की हुई साधना बेकार नहीं जाती, और जहाँ से रह गई हो, वहाँ से दूसरे जन्म में आगे चलती है। इसी तरह जिसमें कल्याण मार्ग की तरह मुड़ने की इच्छा तो जरूर हो, मगर अमल करने की शक्ति न हो, उसे ऐसा मौका जरूर मिलेगा, जिससे दूसरे जन्म में उसकी यह इच्छा दृढ़ हो। इस बारे में भी मेरे मन में कोई शंका नहीं है। मगर इसका यह अर्थ न किया जाये कि तब तो हम इस जन्म में शिथिल रहें, तो भी काम चलेगा। ऐसी इच्छा इच्छा नहीं है, या वह बौद्धिक है, मगर हार्दिक नहीं है। बौद्धिक इच्छा के लिए कोई स्थान ही नहीं है। वह मरने के बाद नहीं रहती; पर जो इच्छा दिल में पैठ जाती है, उसके पीछे प्रयत्न तो होना ही चाहिए। मगर कई कारणों से और शरीर की कमज़ोरी से संभव है कि यह इच्छा इस जन्म में पूरी न हो और इस तरह का अनुभव हमें रोज होता है। मगर इस इच्छा को लेकर जीव देह को छोड़ता है और दूसरे जन्म में इस जन्म की उपाधियां कम होकर यह इच्छा फलती है या ज्यादा मजबूत तो होती ही है। इस तरह कल्याणकृत लगातार आगे बढ़ता ही रहता है।



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