कर्म योग

 





स्थितप्रज्ञ के लक्षण सुनकर अर्जुन को ऐसा लगा कि मनुष्‍य को शांत होकर बैठ रहना चाहिए। उसके लक्षणों में कर्म का तो नाम तक भी उसने नहीं सुना। इसलिए भगवान से पूछा,ʻʻआपके वचनों से तो लगता है कि कर्म से ज्ञान बढ़कर है। इससे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। यदि ज्ञान अच्‍छा हो तो फिर मुझे घोर कर्म में क्‍यो उतार रहे हैं ? मुझे साफ कहिए कि मेरा भला किसमें है?" तब भगवान ने उत्तर दिया: ʻʻहे पापरहित अर्जुन ! आरंभ से ही इस जगत में दो मार्ग चलते आये हैं: एक में ज्ञान की प्रधानता है और दूसरे में कर्म की। पर तू स्‍वयं देख ले कि कर्म के बिना मनुष्‍य अकर्मी नहीं हो सकता, बिना कर्म के ज्ञान आता ही नहीं, सब छोड़कर बैठ जाने वाला मनुष्‍य सिद्ध पुरुष नहीं कहला सकता। तू देखता है कि प्रत्‍येक मनुष्‍य कुछ-न-कुछ तो करता ही है। उसका स्‍वभाव ही उससे कुछ करावेगा। जगत का यह नियम होने पर भी जो मनुष्‍य हाथ-पांव ढीले करके बैठा रहता है और मन में तरह-तरह के मनसूबे करता रहता है, उसे मूर्ख कहेंगे और वह मिथ्‍याचारी भी गिना जायगा। क्‍या इससे यह अच्‍छा नहीं है कि इंद्रियों को वश में रखकर, राग-द्वेष छोड़कर, शोर-गुल के बिना आसक्ति के बिना अर्थात अनासक्‍त भाव से, मनुष्‍य हाथ-पांवों से कुछ कर्म करे, कर्मयोग का आचरण करे? नियत कर्म - तेरे हिस्‍से में आया हुआ सेवा-कार्य - तू इंद्रियों को वश में रखकर करता रह। आलसी की भाँति बैठे रहने से यह कहीं अच्‍छा है। आलसी होकर बैठे रहने वाले के शरीर का अंत में पतन हो जाता है। पर कर्म करते हुए इतना याद रखना चाहिए कि यज्ञ-कार्य के सिवा सारे कर्म लोगों को बंधन में रखते हैं। यज्ञ के मानी हैं, अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे के लिए, परोपकार के लिए, किया हुआ श्रम अर्थात संक्षेप में, ʻसेवाʼ, और जहाँ सेवा के निमित्त ही सेवा की जायगी, वहाँ आसक्ति, राग-द्वेष नहीं होगा। ऐसा यज्ञ, ऐसी सेवा, तू करता रहा। ब्रह्मा ने जगत उपजाने के साथ-ही-साथ यज्ञ भी उपजाया, मानो हमारे कान में यह मंत्र फूंका कि पृथ्वी पर जाओ, एक-दूसरे की सेवा करो और फूलो-फलो, जीवमात्र को देवता रूप जानो, इन देवों की सेवा करके तुम उन्‍हें प्रसन्‍न रखो, वे तुम्‍हें प्रसन्‍न रखेंगे। प्रसन्‍न हुए देव तुम्‍हें बिना मांगे मनोवांछित फल देंगे।


इसलिए यह समझना चाहिए कि लोक-सेवा किये बिना, उनका हिस्‍सा उन्‍हें पहले दिये बिना, जो खाता है, वह चोर है और जो लोगों का, जीवमात्र का भाग उन्‍हें पहुँचाने के बाद खाता है या कुछ भोगता है, उसे वह भोगने का अधिकार है अर्थात वह पापमुक्‍त हो जाता है। इससे उलटा, जो अपने लिए ही कमाता है - मजदूरी करता है - वह पापी है और पाप का अन्‍न खाता है। सृष्टि का नियम ही यह है कि अन्‍न से जीवों का निर्वाह होता हे। अन्‍न वर्षा से पैदा होता है और वर्षा यज्ञ से अर्थात जीवमात्र की मेहनत से उत्‍पन्‍न होती है। जहाँ जीव नहीं है, वहाँ वर्षा नहीं पाई जाती; जहाँ जीव हैं वहाँ वर्षा अवश्‍य है। जीव मात्र श्रमजीवी हैं। कोई पड़े-पड़े खा नहीं सकता और मूढ़ जीवों के लिए जब यह सत्‍य है तो मनुष्‍य के लिए यह कितने अधिक अंश में लागू होना चाहिए? इससे भगवान ने कहा, कर्म को ब्रह्म ने पैदा किया। ब्रह्म की उत्‍पत्ति अक्षर-ब्रह्म से हुई, इसलिए यह समझना चाहिए कि यज्ञ मात्र में - सेवामात्‍व में - अक्षरब्रह्म, परमेश्‍वर, विराजता है। ऐसी इस प्रणाली का जो मनुष्‍य अनुसरण नहीं करता, वह पापी है और व्‍यर्थ जीता है। मंगल प्रभात यह कह सकते हैं कि जो मनुष्‍य आंतरिक शांति भोगता है और संतुष्‍ट रहता है, उसे कोई कर्त्तव्‍य नहीं है, उसे कर्म करने से कोई फायदा नहीं, न करने से हानि नहीं है। किसी के संबंध में कोई स्‍वार्थ उसे न होने पर भी यज्ञ-कार्य को वह छोड़ नहीं सकता। इससे तू तो कर्तव्‍य-कर्म नित्‍य करता रह, पर उसमें राग-द्वेष न रख, उसमें आसक्ति न रख। जो अनासक्तिपूर्वक कर्म का आचरण करता है, वह ईश्‍वर-साक्षात्‍कार करता है। फिर जनक-जैसे नि:स्‍पृही राजा भी कर्म करते-करते सिद्धि को प्राप्‍त हुए, क्‍योंकि वे लोकहित के लिए कर्म करते थे। तो तू कैसे इससे विपरीत बर्ताव कर सकता है ? नियम ही यह है कि जैसा अच्‍छे और बड़े माने जाने वाले मनुष्‍य आचरण करते हैं, उसका अनुकरण साधारण लोग करते हैं। मुझे देख। मुझे काम करके क्‍या स्‍वार्थ साधना था? पर मैं चौबीसों घंटे, बिना थके, कर्म करता ही रहता हूँ और इससे लोग भी उसके अनुसार अल्‍पाधिक प्रमाण में बरतते हैं। पर यदि मैं आलस्‍य कर जाऊं तो जगत का क्‍या हो? तू समझ सकता है कि सूर्य, चंद्र तारे इत्‍यादि स्थिर हो जायं तो जगत का नाश हो जाय और इन सबको गति देने वाला, नियम में रखने वाला, तो मैं ही ठहरा। किंतु लोगों में और मुझमें इतना फर्क जरूर है कि मुझे आसक्ति नहीं है, लोग आसक्‍त हैं, वे स्‍वार्थ में पड़े भाग‍ते रहते हैं।

यदि तुझ-जैसा बुद्धिमान कर्म छोड़े तो लोग भी वही करेंगे और बुद्धि-भ्रष्‍ट हो जायंगे। तुझे तो आसक्तिरहित होकर कर्त्तव्‍य करना चाहिए, जिससे लोग कर्म-भ्रष्‍ट न हों और धीरे-धीरे अनासक्‍त होना सीखें। मनुष्‍य अपने में मौजूद स्‍वाभाविक गुणों के वश होकर काम तो करता ही रहेगा। जो मूर्ख होता है वही मानता है कि ʻमैं करता हूँ। ʼ सांस लेना, यह जीव मात्र की प्रकृति है, स्‍वभाव है। आंख पर किसी मक्‍खी आदि के बैठते ही तुरंत मनुष्‍य स्‍वभावत: ही पलकें हिलाता है। उस समय नहीं कहता कि मैं सांस लेता हूं, मैं पलक हिलाता हूँ। इस तरह जितने कर्म किये जायें सब स्‍वाभाविक रीति के गुण के अनुसार क्‍यों न किये जायें? उनके लिए अहंकार क्‍या? और यों ममत्‍व रहित सहज कर्म करने का सुवर्ण मार्ग है, सब कर्म मुझे अर्पण करना और महत्‍व हटाकर मेरे निमित्त करना। ऐसा करते-करते जब मनुष्‍य में से, अहंकार-वृत्ति का, स्‍वार्थ का, नाश हो जाता है, तब उसके सारे कर्म स्‍वाभाविक और निर्दोष हो जाते हैं। वह बहुत जंजाल में से छूट जाता है। उसके लिए फिर कर्म-बंधन जैसा कुछ नहीं है और जहाँ स्‍वभाव के अनुसार कर्म हों, वहाँ बलात्‍कार से न करने का दावा करने में ही अहंकार समाया हुआ है। ऐसा बलात्‍कार करने वाला, बाहर से चाहे कर्म न करता जान पड़े, पर भीतर-भीतर तो उसका मन प्रपंच रचता ही रहता है। बाहरी कर्म की अपेक्षा यह बुरा है, अधिक बंधन-कारक है। तो वास्‍तव में तो इंद्रियों का अपने-अपने विषयों में राग-द्वेष विद्यमान ही है। कानों को यह सुनना रूचता है, वह सुनना नहीं; नाक को गुलाब के फूल की सुगंधि भाती है, मल वगैरह की दुर्गन्धि नहीं। सभी इंद्रियों के संबंध में यही बात है। इसलिए मनुष्‍य को इन राग-द्वेष रूपी दो ठगों से बचना चाहिए और इन्‍हें मार भगाना हो तो कर्मों की श्रृंखला में न पड़ें। आज यह किया, कल दूसरा काम हाथ में लिया, परसों तीसरा, यों भटकता न फिरे, बल्कि अपने हिस्‍से में जो सेवा आ जाय, उसे ईश्वर प्रीत्‍यार्थ करने को तैयार रहे। तब यह भावना उत्‍पन्‍न होगी कि हम जो करते हैं, वह ईश्वर ही कराता है। यह ज्ञान उत्‍पन्‍न होगा और अहं भाव चला जायगा। इसे स्‍वधर्म कहते हैं। स्‍वधर्म से चिपटे रहना चाहिए, क्‍योंकि अपने लिए तो वही अच्‍छा है। देखने में परधर्म अच्‍छा दिखाई दे तो भी उसे भयानक समझना चाहिए। स्‍वधर्म पर चलते हुए मृत्यु होने में मोक्ष है। भगवान के राग-द्वेषरहित होकर किये जाने वाले कर्म को यज्ञ रूप बतलाने पर अर्जुन ने पूछा, ʻʻमनुष्‍य किसी की प्रेरणा से पाप कर्म करता है? अक्‍सर तो ऐसा लगता है कि पाप कर्म की ओर कोई उसे जबर्दस्‍ती ढकेल ले जाता है।


धुंधला हो जाता है, या अग्नि धुएं के कारण ठीक नहीं जल पाती और गर्भ झिल्ली में पड़े रहने तक घुटता रहता है, उसी प्रकार काम-क्रोध ज्ञानी के ज्ञान को प्रज्वलित नहीं होने देते, फीका कर देते हैं, या दबा देते हैं। काम अग्नि के समान विकराल है और इंद्रिय, मन, बुद्धि सब पर अपना काबू करके मनुष्य को पछाड़ देता है। इसलिए तू इंद्रियों से पहले निपट, फिर मन को जीत, तो बुद्धि तेरे अधीन रहेगी, क्योंकि इंद्रियां, मन और बुद्धि यद्यपि क्रमश: एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर हैं, तथापि आत्मा उन सबसे बहुत बढ़ा-चढ़ा है। मनुष्य को आत्मा की अपनी शक्ति का पता नहीं है, इसीलिए वह मानता है कि इंद्रियां वश में नही रहती, मन वश में नहीं रहता या बुद्धि काम नहीं करती। आत्मा की शक्ति का विश्वास होते ही बाकी सब आसान हो जाता है। इंद्रियों को, मन और बुद्धि को ठिकाने रखने वाले का काम, क्रोध या उनकी असंख्य सेना कुछ नहीं कर सकती। इस अध्याय को मैंने गीता समझने की कुंजी कहा है। एक वाक्य में उसका सार यह जान पड़ता है कि जीवन सेवा के लिए है, भोग ने लिए नहीं है। अत: हमें जीवन को यज्ञमय बना डालना उचित है, पर इतना जान लेने भर से वैसा हो जाना संभव नहीं हो जाता। जानकर आचरण करने पर हम उत्तरोत्तर शुद्ध होते जायेंगे। पर सच्ची सेवा क्या है, यह जानने को इंद्रिय-दमन आवश्यक है। इस प्रकार उत्तरोत्तर हम सत्य रूपी परमात्मा के निकट होते जाते हैं। युग-युग में हमें सत्य की अधिक झांकी होती है। स्वार्थ-दृष्टि से होने वाला सेवा कार्य यज्ञ नहीं रह जाता। अत: अनासक्ति की बड़ी आवश्ययकता है। इतना जानने पर हमें इधर-उधर के वाद-विवादों में नहीं उलझना पड़ता। भगवान ने अर्जुन को क्या सचमुच ही स्वजनों को मारने को शिक्षा दी? क्या उसमें धर्म था? ऐसे प्रश्न आते रहते हैं। अनासक्ति आने पर यों ही हमारे हाथ में किसी को मारने को छुरी हो तो वह भी छूट जाती है, पर अनासक्ति का ढोंग करने से वह नहीं आती। हमारे प्रयत्न पर वह आज आ सकती है अथवा, संभव है, हजारों वर्ष तक प्रयत्न करते रहने पर भी न आवे। इसका भी फिकर छोड़ देना चाहिए। प्रयत्न में ही सफलता है। यह हमें सूक्ष्मता से जांचते रहना चाहिए कि प्रयत्न वास्तव में हो रहा है या नहीं। इसमें आत्मा को धोखा नहीं देना चाहिए और इतना ध्यान रखना तो सभी के लिए संभव है।


... महात्मा गांधी 



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