प्रयाण-साधना: सातत्ययोग

  36. शुभ संस्कारों का संचय 

1. मनुष्य का जीवन अनेक संस्कारों से भरा होता है। हमसे असंख्य क्रियाएं होती रहती हैं। यदि हम उनका हिसाब लगाने लगें, तो उनका अंत ही नहीं आ सकता। यदि मोटे तौर पर हम चौबीस घंटों की ही क्रियाओं को देखने लगें, तो उनकी गिनती भी बहुत अधिक होगी। खाना, पीना, सोना, चलना, फिरना, काम करना, लिखना, बोलना, पढ़ना- इनके अलावा नाना प्रकार के स्वप्न, राग-द्वेष, मानापमान, सुख-दुःख आदि अनंत प्रकार दिखायी देंगे। इन सबके संस्कार हमारे मन पर होते रहते हैं। अतः मुझसे यदि कोई पूछे कि जीवन किसे कहते हैं, तो मैं उसकी व्याख्या करूंगा- संस्कार-संचय। 


2. संस्कार अच्छे भी होते हैं, बुरे भी। दोनों का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर पड़ता रहता है। बचपन की क्रियाओं की तो हमें याद भी नहीं रहती। सारा बचपन इस तरह मिट जाता है, जैसे स्लेट पर लिखकर पोंछ दिया हो। पूर्वजन्म के संस्कार तो बिलकुल ही साफ पोंछ दिये जैसे हो जाते हैं- यहाँ तक कि इस बात की भी शंका उठ सकती है कि पूर्वजन्म था भी या नहीं। जब इस जन्म का ही बचपन याद नहीं आता, तो फिर पूर्वजन्म की तो बात ही क्या? पूर्वजन्म को जाने दीजिए, हम इसी जन्म का विचार करें। जितनी क्रियाएं हमें याद रहती हैं, उतनी ही होती हैं, सो बात नहीं। क्रियाएं अनेक होती हैं, और ज्ञान भी अनेक होते हैं; परन्तु ये क्रियाएं और ये ज्ञान मिटकर अंत में कुछ संस्कार ही बच जाते हैं। रात को सोते समय दिन की सब क्रियाओं को यदि हम याद करने लगें तो भी याद नहीं आतीं। कौन-क्रियाएं याद आती है? वे ही क्रियाएं हमारी आंखों के सामने आती हैं, जो बहुत स्पष्ट और प्रभावकारी होती हैं। यदि हमारा किसी से बहुत लड़ाई-झगड़ा हुआ हो, तो वह याद रहता है; क्योंकि उस दिन की वही मुख्य कमाई होती है। मुख्य और स्पष्ट क्रियाओं के संस्कार मन पर बड़े गहरे हो जाते हैं। मुख्य क्रिया याद रहती है, शेष सब फीकी पड़ जाती हैं। यदि हम रोजनामचा लिखने बैठें तो दो-चार ही महत्त्व की बातें लिखते हैं। यदि प्रतिदिन के ऐसे संस्कारों को लेकर एक हफ्ते का हिसाब लगाने लगें, तो और भी कई बातें उसमें से निकल जायेंगी और सप्ताह की मुख्य घटनाएं ही बच जायेंगी। पिछले महीने का हिसाब लगाने बैठें, तो उतनी ही बातें हमारे सामने आयेंगी, जो उस महीने में मुख्य रही होंगी। इसी तरह फिर छह महीना, साल, पांच साल का हिसाब लगायें, तो बहुत थोड़ी खास-खास बातें याद रहेंगी और उन्हीं के संस्कार बनेंगे। असंख्य क्रियाओं और अनंत ज्ञानों के होने पर भी अंत में मन के पास बहुत थोड़ी बचत रहती है। वे विभिन्न कर्म और ज्ञान आये और अपना काम करके समाप्त हो गये। उन सब कर्मों के पांच-दस दृढ़ संस्कार ही शेष रह जाते हैं। ये संस्कार ही हमारी पूंजी हैं। हम जीवनरूपी व्यापार करके सिर्फ संस्काररूपी संपत्ति कमाते हैं। जिस प्रकार व्यापारी रोज का, महीने का और साल भर का जमा-नाम करके अंत में लाभ या हानि का एक ही आंकड़ा निकालता है, ठीक वही हाल जीवन का होता है। अनेक संस्कारों का जमा-नाम होते-होते अंत में एक अत्यंत छोटी और सीमित पूंजी बच जाती है। जब जीवन की अंतिम घड़ी आती है, तब जीवन की यह बचत आत्मा याद करने लगता है। जन्म भर में क्या किया, इसकी याद आने पर उसे सारी कमाई दो-चार बातों में दीख पड़ती है। इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य सब कर्म और ज्ञान व्यर्थ चले गये। उनका काम पूरा हो गया। हजारों प्रकार के लेन-देन के बाद अंत में कुल पांच हजार का घाटा या दस हजार का नफा, इतना ही सार व्यापारी के हाथ लगता है। घाटा हुआ तो छाती बैठ जाती है, नफा हुआ तो दिल उछलने लगता है।


36. शुभ संस्कारों का संचय 

3. हमारा भी यही हाल है। मरने के समय यदि खाने की वासना हुई, तो जिंदगी भर भोजन का स्वाद लेने का ही अभ्यास करते रहे, यह सिद्ध होगा। भोजन या स्वाद की वासना, यही जिंदगी भर की कमाई। किस माता को, मरते समय यदि बेटे की याद हो आयी, तो उसका पुत्र संबंधी संस्कार ही बलवान मानना चाहिए। बाकी जो असंख्य कर्म किये, वे गौण हो गये। अंकगणित में अपूर्णांक के सवाल होते हैं। कितनी बड़ी-बड़ी संख्याएं! परन्तु संक्षेप करते-करते अंत में एक अथवा शून्य उत्तर आता है। इसी तरह जीवन में संस्कारों की अनेक संख्याएं बाद होकर अंत में एक बलवान संस्कार ही सार रूप में रह जाता है। जीवन रूपी प्रश्न का वह उत्तर है। अंतकालीन स्मरण ही सारे जीवन का फलित होता है। जीवन का यह अंतिम सार मधुर निकले, अंत की यह घड़ी मधुर हो, इसी दृष्टि से सारे जीवन के उद्योग होने चाहिए। जिसका अंत मधुर, उसका सब मधुर। उस अंतिम उत्तर पर ध्यान रखकर सारे जीवन का सवाल हल करना चाहिए। इस ध्येय को दृष्टि के सामने रखकर सारे जीवन की योजना बनाओ। गणित में जो विशिष्ट प्रश्न पूछा गया होगा, उसको सामने रखकर उत्तर निकालते हैं। उसी तरह की रीति से काम लेना पड़ता है। अतः मरने के समय जो संस्कार दृढ़ रखने की इच्छा हो, उसी के अनुसार ही सारे जीवन का प्रवाह मोड़ना चाहिए। दिन-रात उसी की तरफ झुकाव रहना चाहिए।


37. मरण का स्मरण रहे 

4. इस आठवें अध्याय में यह सिद्धान्त बताया गया है कि जो विचार मरते समय स्पष्टतः उभरता है, वही अगले जन्म में बलवत्तर सिद्ध होता है। इस पाथेय को साथ लेकर जीव आगे की यात्रा के लिए निकलता हैं आज के दिन की कमाई लेकर, नींद के बाद हम कल का दिन शुरू करते हैं। उसी तरह इस जन्म के पाथेय को लेकर मरणरूपी बड़ी नींद के बाद फिर हमारी यात्रा शुरू होती है। इस जन्म का जो अंत है, वही अगले जन्म का आरंभ है। अतः सदैव मरण का स्मरण रखकर चलो। 

5. मरण का स्मरण रखने की जरूरत इसलिए भी है कि मृत्यु की भयानकता का मुकाबला किया जा सके, उसका उपाय निकाला जा सके। एकनाथ महाराज की एक कहानी है। एक सज्जन ने उनसे पूछा- "महाराज, आपका जीवन कितना सादा, कितना निष्पाप है! हमारा जीवन ऐसा क्यों नहीं? आप कभी गुस्सा नहीं होते, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं, टंटा-बखेड़ा नहीं। कितने शांत, कितने प्रेमपूर्ण, कितने पवित्र हैं आप।" एकनाथ ने कहा- "अभी मेरी बात छोड़ो। तुम्हारे संबंध में मुझे एक बात मालूम हुई है। आज से सात दिन के भीतर मृत्यु हो जायेगी।" अब एकनाथ की कही बात को झूठ कौन मानता? सात दिन में मृत्यु! सिर्फ 168 ही घंटे बाकी रहे। हे भगवन्! वह मनुष्य जल्दी-जल्दी घर दौड़ गया। कुछ सूझ नहीं पड़ता था। सारा समेटने की बातें करने लगा। तैयारी करने लगा, वह बीमार हो गया। बिस्तर पर पड़ गया। छह दिन बीत गये। सातवें दिन एकनाथ उससे मिलने आये। उसने नमस्कार किया। एकनाथ ने पूछा- "कैसा है?" वह बोला- "जाता हूँ अब।" फिर एकनाथ ने पूछा, "इन छह दिनों में कितना पाप हुआ? पाप के कितने विचार मन में आये?" वह आसन्न-मरण व्यक्ति बोला- "नाथ जी पाप का विचार करने की तो फुरसत ही नहीं मिली। मौत सतत आंखों के सामने खड़ी थी।" नाथ जी ने कहा- "हमारा जीवन इतना निष्पाप क्यों है, इसका उत्तर अब मिल गया न?’’ मरणरूपी शेर सदैव सामने खड़ा रहे, तो फिर पाप सूझेगा कैसे? पाप करने के लिए भी निश्चिंतता चाहिए। मरण का सदैव स्मरण रखना पाप से मुक्त होने का उपाय है। यदि मौत सामने दीखती रहे, तो फिर मनुष्य किस बल पर पाप करेगा?


6. परंतु मनुष्य मरण का स्मरण टालता है। 'पास्कल' नाम का एक फ्रेंच दार्शनिक हो गया। उसकी एक पुस्तक है- ‘पांसे’। ‘पांसे’ का अर्थ है- ‘विचार’। उसने इस पुस्तक में भिन्न-भिन्न स्फुट विचार दिये हैं। उसमें वह एक जगह लिखता है- "मौत सदा पीछे खड़ी है; परन्तु मनुष्य का यह प्रयत्न सतत चल रहा है कि उसे भूले कैसे? किंतु वह यह बात अपने सामने नहीं रखता कि मृत्यु को याद रखकर कैसे चले?" मनुष्य को ‘मरण’ शब्द तक सहन नहीं होता। खाते समय यदि मृत्यु का नाम किसी ने ले लिया, तो कहते हैं- "क्या अशुभ बात मुंह से निकालते हो!" परंतु इतना होते हुए भी हमारा एक-एक कदम मृत्यु की ओर ही बढ़ रहा है। बंबई का टिकट कटाकर एक बार तुम रेल में बैठ गये, तो तुम भले ही बैठे रहो, परन्तु गाड़ी तुम्हें बंबई ले जाकर छोड़ ही देगी। जन्म होते ही हमने मृत्यु का टिकट कटा रखा है। अब आप बैठे रहिए या दौड़ते रहिए। बैठे रहेंगे तो भी मृत्यु आयेगी, दौड़ते रहेंगे तो भी। आप मृत्यु का विचार करें या न करें, वह आये बिना नहीं रहेगी। मरण निश्चित है, और बातें भले ही अनिश्चित हों। सूर्य अस्ताचल की ओर चला कि हमारी आयु का एक अंश उसने खाया। जीवन के टुकड़े यों कटते जा रहे हैं, जीवन छीज रहा है, एक-एक बूंद घट रहा है, तो भी मनुष्य को उसका कुछ खयाल नहीं। ज्ञानेश्वर कहते हैं- "बड़ा अजीब है!" उन्हें आश्चर्य होता है कि मनुष्य क्यों कर इतनी निश्चिंतता अनुभव करता है। मनुष्य को मरण का इतना भय लगता है कि उसे मरण का विचार तक सहन नहीं होता। वह सदा मरण के विचार को टालता रहता है। आंखों पर पर्दा डालकर बैठ जाता है। लड़ाई पर जाने वाले सैनिक मरण का विचार टालने के लिए खेलते हैं, नाचते-गाते हैं, सिगरेट पीते हैं, पास्कल लिखता है कि - "प्रत्यक्ष मरण सर्वत्र देखते हुए भी यह टामी, यह सिपाही, उसे भूलने के लिए खाने-पीने में और गान-तान में मस्त रहता है।" 


7. हम सब इसी टामी की तरह हैं। चेहरे को गोल हंसमुख बनाने का प्रयत्न करना, सूखा हो तो तेल, पोमेड लगाना; बाल सफेद हो गये हों, तो खिजाब लगाना- ऐसे प्रयत्न मनुष्य करता है। छाती पर मृत्यु नाच रही है, फिर भी हम टामी की तरह उसे भूलने का अखंड प्रयत्न कर रहे हैं। और चाहे कोई भी बातें करेंगे‚ पर "मौत की बात मत निकालो" कहेंगे। मैट्रिक पास लड़के से पूछो कि "अब आगे क्या इरादा है?" तो वह कहता है- "अभी मत पूछो, अभी तो फस्ट ईयर में हूँ।" दूसरे साल फिर पूछोगे तो कहेगा- "पहले इंटर तो हो जाने दो, फिर देखेंगे।" यही सिलसिला चलता है। जो आगे होने वाला है, उसका क्या पहले से विचार नहीं करना चाहिए? अगले कदम के बारे में पहले से सोच लेना चाहिए, नहीं तो वह गड़्ढे में गिर सकता है, परंतु विद्यार्थी इन सबको टालता है। बेचारे की शिक्षा ही इतनी अंधकारमय होती है कि उससे उस पार का भविष्य उसे दिखायी नही देता। अतः आगे क्या करना है, यह सवाल ही वह सामने नहीं आने देता, क्योंकि उसे चारों ओर अंधकार ही दिखायी देता है। परंतु भविष्य टाला नहीं जा सकता। वह तो गर्दन पर आकर सवार हो ही जाता है।


8. कॉलेज में प्रोफेसर तर्कशास्त्र पढ़ाता है- ‘‘मनुष्य मर्त्य है। सुकरात मनुष्य है, अतः सुकरात मरेगा।’’ यह अनुमान वह सिखाता है। वह सुकरात का उदाहरण देता है, खुद अपना क्यों नहीं देता? प्रोफेसर भी मर्त्य है। वह क्यों नहीं पढ़ाता कि "सब मनुष्य मर्त्य हैं, अतः मैं प्रोफेसर भी मर्त्य हूँ और तुम शिष्य भी मर्त्य हो!" वह उस मरण को सुकरात पर ढकेल देता है, क्योंकि सुकरात तो मर चुका है। वह झगड़ा करने के लिए हाजिर नहीं है। शिष्य और गुरु दोनों सुकरात को मरण सौंपकर अपने लिए ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप’ वाली गति करते हैं। मानो, वे यह समझ बैठे हैं कि हम तो बहुत सुरक्षित हैं। 


9. इस तरह मृत्यु को भूलने का यह प्रयत्न सर्वत्र रात-दिन जान-बूझकर हो रहा है। परंतु इससे मृत्यु कहीं टल सकती है? कल यदि मां मर जाये, तो मौत सामने आने ही वाली है। मनुष्य निर्भयतापूर्वक मरण का विचार करके यह हिम्मत ही नहीं करता कि उसमें से रास्ता कैसे निकाला जाये। मान लो कि कोई शेर हिरन के पीछे पड़ा है। वह हिरन खूब चौकड़ी भरता है, परंतु उसकी शक्ति कम पड़ती जाती है और अंत में वह थक जाता है। पीछे से वह शेर, यमदूत दौड़ा आ ही रहा है। उस समय उस हिरन की क्या दशा होती है? वह उस शेर की ओर देख भी नहीं सकता। वह मिट्टी में सींग और मुंह घुसाकर, आंख मूंदकर खड़ा हो जाता है, मानो निराधार होकर कहता है- "ले, आ और मुझे हड़प जा।" हम मृत्यु का सामना नहीं कर सकते। उससे बचने के लिए हम हजारों तरकीबें निकालें तो भी उसका जोर इतना होता है कि अंत में वह धर दबाती ही है।


10. और फिर जब मृत्यु आती है, तब मनुष्य अपने जीवन की रोकड़-बाकी देखने लगता है। परीक्षा में बैठा हुआ आलसी, मंद विद्यार्थी दवात में कलम डुबोता है, बाहर निकालता है, परंतु सफेद कागज को काला करने की हिम्मत नहीं करता। अरे भाई, कुछ लिखोगे भी या नहीं? सरस्वती आकर थोड़े ही लिख जायेगी! तीन घंटे समाप्त हो जाते हैं, वह कोरा कागज दे देता है या अंत में कुछ घसीट मारता है। सवाल हल करना है, जवाब लिखना है, यह उसे सूझता ही नहीं। वह इधर देखता है, उधर देखता है। ऐसा ही हमारा हाल है। अतः हमें चाहिए कि हम इस बात को याद रखकर कि जीवन का छोर मृत्यु की ओर गया हुआ है, अंतिम क्षण को पुण्यमय, अत्यंत पावन और मधुर बनाने का अभ्यास जीवन भर करते रहें। आज से ही इस बात का विचार करते रहना चाहिए कि मन पर उत्तम-से-उत्तम संस्कार कैसे पड़े। परंतु अच्छे संस्कारों के अभ्यास की पड़ी किसे है? इससे विपरीत, बुरी बातों का अभ्यास पग-पग पर होता रहता है। जीभ, आंख और कान को हम चटोरपन सिखा रहे हैं। चित्त को इससे भिन्न अभ्यास में लगाना चाहिए। अच्छी बातों की ओर चित्त लगाना चाहिए। उनमें उसे रंग देना चाहिए। जिस क्षण अपनी भूल प्रतीत हो जाये, उसी क्षण से उसे सुधारने में व्यस्त हो जाना चाहिए। भूल मालूम हो जाने पर भी क्या वही करते रहेंगे? जिस क्षण हमें अपनी भूल मालूम हुई, उसी क्षण हमारा पुनर्जन्म हुआ। उसे अपना नवीन बचपन, अपने जीवन का नव-प्रभात समझो। अब तुम सचमुच जगे हो। अब दिन-रात जीवन की जांच-पड़ताल करते रहो और सावधान रहो। ऐसा न करोगे तो फिर फिसलोगे, फिर बुरी बात का अभ्यास शुरू हो जायेगा। 


11. बहुत साल पहले मैं अपनी दादी से मिलने गया था। वह बहुत बूढ़ी हो गयी थी। वह मुझसे कहती- "विन्या, अब मुझे कुछ याद नहीं रहता। घी की बरनी लेने जाती हूँ और उसे बिना लिये ही लौट आती हूँ।" परंतु वह 50 साल पहले की गहनों की एक बात मुझसे कहा करती। पांच मिनट पहले की बात याद नहीं, मगर पचास साल पहले के बलवान संस्कार अंत तक सतेज हैं। इसका कारण क्या है? वह गहने वाली बात उसने हर एक से कही होगी। उस बात का सतत उच्चरण होता रहा। अतः वह जीवन से चिपककर बैठ गयी। जीवन के साथ एकरूप हो गयी। मैंने मन में कहा- "भगवान करे, दादी को मरते समय उन गहनों की याद न आये।"


38. सदा उसी में रंगा रह 

12. जिस बात का हम रात-दिन अभ्यास करते हैं, वह हमसे क्यों नहीं चिपकी रहेगी? अजामिल की वह कथा पढ़कर भ्रम में मत पड़ियेगा। वह ऊपर से पापी था; परंतु उसके जीवन के भीतर से पुण्य की धारा बह रही थी। वह पुण्य अंतिम क्षण में जाग उठा। सदा-सर्वदा पाप करके अंत में राम-नाम अचूक याद आ जायेगा, इस धोखे में मत रहिये। बचपन से ही मन लगाकर अभ्यास करिये। ऐसी सावधानी रखें कि हमेशा अच्छे ही संस्कार पड़ें। ऐसा न कहें कि इससे क्या होगा और उससे क्या होगा? चार बजे ही क्यों उठें? सात बजे उठें, तो उससे क्या बिगड़ेगा? ऐसा कहने से काम नहीं चलेगा। यदि मन को बराबर ऐसी आजादी देते जाओगे, तो अंत में फंस जाओगे। फिर अच्छे संस्कार अंकित नहीं होने पायेंगे। एक-एक कण बीनकर लक्ष्मी जुटानी पड़ती है। एक-एक क्षण व्यर्थ न जाने देते हुए विद्यार्जन में लगाना पड़ता है। इस बात का ध्यान रखों कि प्रतिक्षण अच्छा ही संस्कार पड़ रहा है न? बुरी बात बोले कि हुआ बुरा संस्कार। हमारी प्रत्येक कृति छेनी बनकर हमारा जीवनरूपी पत्थर गढ़ती है। दिन अच्छी तरह बीता, तो भी स्वप्न में बुरे विचार आ जाते हैं। दस-पांच दिन के विचार स्वप्न में आते हों, सो बात नहीं। कितने ही बुरे संस्कार असावधानी में पड़ जाते हैं। नहीं कह सकते कि वे कब जग पड़ेंगे। इसलिए छोटी-से-छोटी बातों में भी सजग रहना चाहिए। डूबते को तिनके का भी सहारा हो जाता है। हम संसार-सागर में डूब रहे हैं। यदि हम थोड़ा भी अच्छा बोलें, तो वह भी हमारे लिए आधार बन जाता है। भला किया व्यर्थ नहीं जाता। वह तुम्हें तार देगा। लेशमात्र भी बुरे संस्कार न होने चाहिए। सदा ऐसा ही उद्योग करो, जिससे आंखें पवित्र रहें, कान निंदा न सुनें, मुख से वाणी अच्छी निकले। यदि ऐसी सावधानी रखोगे, तो अंतिम क्षण में हुक्मी दांव पड़ेगा। हम अपने जीवन के और मरण के स्वामी बनेंगे। 


13. पवित्र संस्कार डालने के लिए उदात्त विचार मन में घोलने चाहिए। हाथ पवित्र कर्म करने में लगे रहें। भीतर ईश्वर का स्मरण और बाहर से स्वधर्माचरण। हाथों से सेवारूपी कर्म, मन में विकर्म- ऐसा नित्य करते रहना चाहिए। गांधी जी को देखो, रोज चरखा चलाते हैं। वे रोज कातने पर जोर देते हैं। रोज क्यों कातें? कपड़े के लिए कभी-कभी कात लिया करें, तो क्या काम नहीं चलेगा? परंतु यह तो हुआ व्यवहार। रोज कातने में आध्यात्मिकता है। देश के लिए मुझे कुछ-न-कुछ करना है, इस बात का वह चिंतन है। वह सूत हमें नित्य दरिद्र-नारायण से जोड़ता है। वह संस्कार दृढ़ होता है।


14. डॉक्टर ने रोज दवा पीने के लिए कहा, पर हम सारी दवा एक ही रोज पी लें, तो? तो वह बेतुकी बात होगी। औषधि का उद्देश्य सफल नहीं होगा। प्रतिदिन औषधि के संस्कार से प्रकृति की विकृति दूर करनी चाहिए। ऐसी ही बात जीवन की है। शिव जी पर धीरे-धीरे ही अभिषेक करना पड़ता है। मेरा यह प्रिय दृष्टांत है। बचपन मैं नित्य इस क्रिया को देखता था। चौबीस घंटों में कुल मिलाकर वह पानी दो बाल्टी होता होगा, तो फिर एक साथ दो बाल्टी पानी शिवजी पर क्यों न उंड़ेल दें? इसका उत्तर बचपन में ही मुझे मिल गया। पानी एकदम उंड़ेल देने से वह कर्म सफल नहीं हो सकता। एक-एक बूंद की सतत धार पड़ना ही उपासना है। समान संस्कारों की धारा सतत बहनी चाहिए। जो संस्कार सवेरे, वही दोपहर को, वही शाम को, वही दिन में, वही रात में, वही कल, वही आज और जो आज, वही कल, जो इस साल, वही अगले साल, जो इस जनम में, वही अगले जन्म में, जो जीवन में, वही मृत्यु में। ऐसी एक-एक सत्संस्कार की दिव्यधारा सारे जीवन में सतत बहती रहनी चाहिए। ऐसा प्रवाह अखंड चालू रहेगा, तभी हम अंत में जीत सकेंगे। तभी हम मुकाम पर अपना झंडा गाड़ सकेंगे। संस्कारों का प्रवाह एक ही दिशा में बहना चाहिए। पहाड़ पर गिरा पानी यदि दसों दिशाओं में बह जायेगा, तो फिर उससे नदी नहीं बन सकती। इसके विपरीत अगर सारा पानी एक ही दिशा में बहेगा, तो वह सोते से धारा, धारा से प्रवाह, प्रवाह से नदी, नदी से गंगा बनकर ठेठ समुद्र तक जा पहुँचेगा। एक दिशा में बहने वाला पानी समुद्र में मिलेगा, चारों दिशाओं में जाने वाला यों ही सूख जायेगा। यही बात संस्कारों की है। संस्कार यदि आते और मिटते गये, तो क्या फायदा? जब जीवन में संस्कारों का पवित्र प्रवाह सतत बहता रहेगा, तभी अंत में मरण महाआनंद का निधान मालूम पड़ेगा। जो यात्री रास्ते में ज्यादा न ठहरते हुए रास्ते के मोह और प्रलोभन से बचते हुए, कष्ट से कदम जमा-जमाकर, शिखर पर पहुँच गया और ऊपर पहुँचकर छाती पर के सारे बोझ और बंधन हटाकर, वहाँ की खुली हवा का अनुभव करने लगा, उसके आनंद की कल्पना क्या दूसरे लोग कर सकेंगे? पर जो प्रवासी रास्ते में रुक गया, उसके लिए सूर्य थोड़े ही रुकेगा?


39. रात-दिन युद्ध का प्रसंग 

15. सार यह है कि बाहर से सतत स्वधर्माचरण और भीतर से हरिस्मरणरूपी चित्त-शुद्धि की क्रिया, इस तरह जब ये अंतर्बाह्य-कर्म-विकर्म के प्रवाह काम करेंगे, तब मरण आनंददायी मालूम होगा। इसलिए भगवान कहते हैं- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च- ‘मेरा अखंड स्मरण करो और लड़ते रहो।’ सदा त्यांत चि रंगला- 'उसी में सदा रंगा रह।' सदा ईश्वर में लीन रहो। ईश्वरीय प्रेम से जब अंतर्बाह्य रंग जाओगे, जब वह रंग सारे जीवन में चढ़ जायेगा, तब पवित्र बातों में सदैव आनंद आने लगेगा। तब बुरी वृत्तियां सामने आकर खड़ी ही नहीं रहेंगी। सुंदर, बढ़िया मनोरथों के अंकुर मन में उगने लगेंगे। अच्छे कर्म सहज ही होने लगेंगे। 


16. यह तो ठीक है कि ईश्वर-स्मरण से अच्छे कर्म सहज भाव से होने लगेंगे; परंतु भगवान की आज्ञा है कि ‘लड़ते रहो’। तुकाराम महाराज कहते हैं- रात्री दिवस आम्हां युद्धाचा प्रसंग। अंतर्र्बाह्यजग आणि मन - 'हमारे लिए रात-दिन युद्ध का ही प्रसंग है। एक ओर है मन और दूसरी ओर हैं अंतर्बाह्य जगत्!’ भीतर और बाहर अनंत सृष्टि व्याप्त है। इस सृष्टि से मन का सतत झगड़ा जारी रहता है। इस झगड़े में हर बार जय ही होगी, ऐसा नहीं। जो अंत को साध लेगा, वही सच्चा विजयी। अंत में जो फैसला हो, वही सही। कभी सफलता मिलेगी, तो कभी असफलता। असफलता मिली, तो निराश होने का कोई कारण नहीं। मान लो कि पत्थर पर उन्नीस बार चोट लगने वे वह नहीं फूटा और बीसवीं बार की चोट से फूट गया, तो फिर क्या वे उन्नीस चोटें व्यर्थ ही गयीं? उस बीसवीं चोट की सफलता की तैयारी वे उन्नीस चोटें कर रही थीं। 


17. निराश होने का अर्थ है, नास्तिक होना। विश्वास रखो कि परमेश्वर हमारा रक्षक है। बच्चे की हिम्मत बढ़ाने के लिए मां उसे इधर-उधर जाने देती है; परंतु वह उसे गिरने नहीं देती। जहाँ वह गिरने लगा कि झट् आकर धीरे से उठा लेती है। ईश्वर भी तुम्हारी ओर देख रहा है। तुम्हारी जीवनरूपी पतंग की डोरी उसके हाथ में है। कभी वह डोर खींच लेता है, कभी ढीली छोड़ देता है; परंतु यह विश्वास रखो कि डोर है उसके हाथ में। गंगा के घाट पर तैरना सिखाते हैं। घाट पर के वृक्ष में सांकल या डोरी बंधी रहती है। उसे कमर से बांधकर आदमी को पानी में फेंक देते हैं। सिखाने वाले उस्ताद भी पानी में रहते ही हैं। नौसिखिया पहले दो-चार बार डुबकी खाता है, परंतु अंत में वह तैरने की कला सीख जाता है। इसी तरह परमेश्वर हमें जीवन की कला सिखा रहा है।


40. शुक्ल-कृष्ण गति 

18. परमेश्वर पर श्रद्धा रखकर यदि ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ दिन-रात लड़ते रहोगे, तो अंत की घड़ी अतिशय उत्तम होगी। उस समय सब देवता अनुकूल हो जायेंगे। यही बात इस अध्याय के अंत में एक रूपक द्वारा बतायी गयी है। इस रूपक को समझ लीजिए। जिसके मरण के समय आग जल रही है, सूर्य चमक रहा है, शुक्ल पक्ष का चंद्र बढ़ रहा है, उत्तरायण का निरभ्र और सुंदर आकाश फैला हुआ है, वह ब्रह्म में विलीन होता है और जिसकी मृत्यु के समय धुआं फैल रहा है, भीतर-बाहर अंधेरा हो रहा है, कृष्ण पक्ष का चंद्रमा क्षीण हो रहा है, दक्षिणायन का मलिन और अभ्राच्छादित आकाश फैला है, वह फिर से जन्म-मरण के फेरे में पड़ेगा। 


19. बहुत से लोग इस रूपक को पढ़कर चक्कर में पड़ जाते हैं। यदि पुण्यमरण की इच्छा हो, तो अग्नि, सूर्य, चंद्र, आकाश, इन देवताओं की कृपा रहनी चाहिए। अग्नि कर्म का चिह्न, यज्ञ का चिह्न है। जीवन के अंतिम क्षण में भी यज्ञ की ज्वाला जलती रहनी चाहिए। न्यायमूर्ति रानडे कहते थे- "सतत कर्तव्य करते हुए मौत आ जाये, तो वह धन्य है। कुछ-न-कुछ पढ़ रहे हैं, कोई काम कर रहे है- ऐसी हालत में मैं मरूं, तो भर पाया।" ‘ज्वाला जलती रहे’, इसका यह अर्थ है। मरण-समय में भी कर्म करते रहें।- यह अग्नि की कृपा है। सूर्य की कृपा का अर्थ है कि बुद्धि की प्रभा अंत तक चमकती रहनी चाहिए। चंद्र की कृपा का अर्थ यह है कि मृत्यु के समय पवित्र भावना बढ़ती जानी चाहिए। चंद्र मन का, भावना का- देवता है। शुक्ल पक्ष के चंद्र की तरह मन की भक्ति, प्रेम, उत्साह, परोपकार, दया आदि शुद्ध भावनाओं का पूर्ण विकास होना चाहिए। आकाश की कृपा यानि हृदयाकाश में आसक्तिरूपी बादल बिलकुल नहीं रहने चाहिए। एक बार गांधी जी ने कहा- "मैं दिन-रात चरखा-चरखा चिल्ला रहा हूँ। चरखे को बड़ी पवित्र वस्तु मानता हूँ। परंतु अंत-समय में उसकी भी वासना नहीं रहनी चाहिए। जिसने मुझे चरखे की प्रेरणा दी है, वह स्वयं चरखे की चिंता करने में सर्वथा समर्थ है। चरखा अब दूसरे भले-भले लोगों के हाथ में चला गया है। चरखे की चिंता छोड़कर मुझे परमात्मा से मिलने को तैयार रहना चाहिए।" सारांश यह कि उत्तरायण का अर्थ है, हृदय में आसक्ति रूपी बादल का न रहना। 


20. अंतिम सांस तक हाथ से कोई-न-कोई सेवा-कार्य हो रहा है, भावना की पूर्णिमा चमक रही है, हृदयाकाश में जरा भी आसक्ति नहीं है, बुद्धि सतेज है- इस तरह जिसकी मृत्यु होगी, वह परमात्मा में लीन हुआ समझो। ऐसा परम मंगलमय अंत लाने के लिए रात-दिन सावधान और दक्ष रहकर लड़ते रहना चाहिए। एक क्षण के लिए भी मन पर अशुभ संस्कार न पड़ने देना चाहिए। ऐसा बल मिलता रहे, इसके लिए परमात्मा से सतत प्रार्थना करते रहना चाहिए। नाम-स्मरण, तत्त्व-स्मरण पुनः-पुनः करते रहना चाहिए।



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