प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता

 32. भक्ति का भव्य दर्शन 

1. भाइयो, अर्जुन के सामने जब स्वधर्म-पालन का प्रश्न उपस्थित हुआ, तो उसके मन में स्वकीय और परकीय का मोह उत्पन्न हो गया और वह स्वधर्माचरण को टालने की चेष्टा करने लगा। उसका यह वृथा मोह पहले अध्याय में दिखाया गया। इस मोह को मिटाने के लिए दूसरा अध्याय शुरू हुआ। उसमें ये तीन सिद्धान्त बताये गये- अमर आत्मा सर्वत्र व्याप्त है, देह नाशवान है और स्वधर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए। साथ ही कर्मफल-त्यागरूपी वह युक्ति भी बतलायी, जिससे इन सिद्धान्तों पर अमल किया जा सके। इस कर्मयोग का विवरण देते हुए उसमें से कर्म, विकर्म और अकर्म, ये तीन वस्तुएं उत्पन्न हुई। कर्म-विकर्म के संगम से उत्पन्न होने वाले दो प्रकार के अकर्म पांचवें अध्याय में हमने देख लिये। छठे अध्याय से भिन्न-भिन्न विकर्म बताने की शुरूआत की गयी है। छठे अध्याय में साधना के लिए आवश्यक एकाग्रता बतायी गयी। आज सातवां अध्याय है। इस अध्याय में विकर्म का एक नया ही भव्य कक्ष खोल दिया गया है। सृष्टि-देवी के मंदिर में, किसी विशाल वन में, हम जिस तरह नाना प्रकार के मनोहर दृश्य देखते जाते हैं, वैसा ही अनुभव गीता ग्रन्थ में होता है। छठे अध्याय में एकाग्रता का कक्ष देखा। अब हम जरा दूसरे कक्ष में प्रवेश करें। 


2. उस कक्ष का द्वार खोलने से पहले ही भगवान ने इस मोहकारिणी जगत् रचना का रहस्य समझा दिया है। एक ही प्रकार के कागज पर एक ही कूंची से चित्रकार नानविध चित्र अंकित करता है। कोई सितारिया सात स्वरों से ही अनेक राग निकालता है। वाङ्मय के बावन अक्षरों की सहायता से हम नाना प्रकार के विचार और भाव प्रकट करते हैं। वैसा ही इस सृष्टि में भी है। सृष्टि में अनंत वस्तुएं और अनंत वृत्तियां दिखायी देती हैं। परन्तु यह सारी अंतर्बाह्य सृष्टि एक ही अखंड आत्मा और एक ही अष्टधा प्रकृति के दुहरे मसाले से बनी हुई है। क्रोधी मनुष्य का क्रोध, प्रेमी मनुष्य का प्रेम, दुःखी का क्रंदन, आनंदी का हर्ष, आलसी का नींद की ओर झुकाव, उद्योगी का कर्मस्फुरण; ये सब एक ही चैतन्य-शक्ति के खेल हैं। इन परस्पर-विरुद्ध भावों के मूल में एक ही चैतन्य भरा हुआ है। भीतरी चैतन्य एक ही है। उसी तरह बाह्य आवरण का भी स्वरूप एक ही है। चैतन्यमय आत्मा और जड़ प्रकृति, इस दुहरे मसाले से सारी सृष्टि बनी है, जनमी है, यह आरंभ में ही भगवान बता रहे हैं।


32. भक्ति का भव्य दर्शन 

3. आत्मा और देह, परा और अपरा प्रकृति, सर्वत्र एक ही है, फिर भी मनुष्य मोह में क्यों पड़ जाता है? भेद क्यों दिखायी देता है? प्रेमी मनुष्य का चेहरा मधुर मालूम होता है, तो किसी दूसरे को देखकर तबीयत हटती है। एक से मिलने की और दूसरे को टालने की तबीयत क्यों होती है? एक ही पेंसिल, एक ही कागज, एक ही चित्रकार, परन्तु नाना चित्रों से नाना भाव प्रकट होते हैं। इसी में तो चित्रकार की कुशलता है। चित्रकार की, सितारिये की उंगलियों में ऐसी कुशलता है कि वे हमें रुला देते हैं, हंसा देते हैं। यह सारी खूबी उनकी उन उंगलियों में है। यह निकट रहे, वह दूर रहे; यह मेरा, वह पराया- ऐसे जो विचार मन में आते हैं और जिनके चलते मनुष्य मौके पर कर्तव्य से कतराने लगता है, उसका कारण मोह है। इस मोह से बचना हो तो उस सृष्टि-निर्माता की उंगली की करामात का रहस्य समझ लेना चाहिए। बृहदारण्यक उपनिषद में नगाड़े का दृष्टांत दिया है। एक ही नगाड़े से भिन्न-भिन्न नाद निकलते हैं कुछ नादों से मैं डर जाता हूं, कुछ को सुनकर नाच उठता हूँ। उन सब भावों को यदि जीत लेना है, तो नगाड़ा बजाने वाले को पकड़ लेना चाहिए। उसके पकड़ में आते ही सारे नाद पकड़ में आ जाते हैं। भगवान एक ही वाक्य में कहते हैं- "जो माया को तर जाना चाहते हैं वे मेरी शरण आयें।" येथ एकचि लीला तरले। जे सर्व भावें मज भजले। तयां ऐलीच थडी सर लें। मायाजळ॥ -‘यहाँ वही व्यक्ति लीला को तरते है, जो सर्वभाव से मेरा भजन करते हैं। उनके लिए इसी किनारे मायाजाल सूख गया है।’ तो यह माया क्या है ? माया कहते है परमेश्वर की शक्ति को, उसकी कला को, उसकी कुशलता को। आत्मा और प्रकृति- अथवा जैन परिभाषा में कहें, तो जीव और अजीवरूपी इस मसाले से जिसने यह अनंत रंगोंवाली सृष्टि रची है, उसकी शक्ति अथवा कला ही ‘माया’ है। जेलखाने में जैसे एक ही अनाज की वह रोटी और वही एक सर्वरसी दाल होती है, वैसे ही एक अखंड आत्मा और एक ही अष्टधा शरीर समझो। इससे परमेश्वर तरह-तरह की चीजें बनाता रहता है। हम इन चीजों को देखकर अनेक विरोधी, अच्छे-बुरे भावों का अनुभव करते हैं। इसके परे जाकर यदि हम सच्ची शांति पाना चाहते हैं, तो इन वस्तुओं के निर्माता को पकड़ना चाहिए, उससे परिचय कर लेना चाहिए। उससे जान-पहचान होने पर ही यह भेद-मूलक, आसक्ति-जन्य मोह टाला जा सकेगा।


4. उस परमेश्वर को समझ लेने का एक महान साधन, एक महान विकर्म, बताने के लिए सातवें अध्याय में भक्ति का भव्य दालान खोल दिया है। चित्त-शुद्धि के लिए यज्ञ-दान, जप-तप, ध्यान-धारणा आदि अनेक विकर्म बताये जाते हैं; परंतु इन साधनों को मैं सोडा, साबुन और अरीठा की उपमा दूंगा। लेकिन भक्ति को पानी कहूंगा। सोडा, साबुन अरीठा सफाई करते हैं, परंतु पानी के बिना उनका काम नहीं चल सकता। पानी न हो, तो उनसे क्या लाभ? सोडा, साबुन, अरीठा न हो, केवल पानी हो, तो भी वह निर्मलता ला सकता है। उस पानी के साथ यदि ये पदार्थ भी हों, तो अधिकस्य अधिकं फलम् हो जायेगा। कहेंगे कि दूध में शक्कर पड़ी है। यज्ञ-याग, ध्यान, तप, इन सबमें यदि हार्दिकता न हो, तो फिर चित्त-शुद्धि होगी कैसे? हार्दिकता का ही अर्थ है - भक्ति। सब प्रकार के साधनों को भक्ति की जरूरत है। भक्ति सार्वभौम उपाय है। सेवा शास्त्र सीखकर, उपचारों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर कोई मनुष्य रोगी की सेवा-शुश्रूषा के लिए जाता है, पर यदि उसके मन में सेवा की भावना न हो तो बताओ‚ सच्ची सेवा कैसे बनेगी? बैल भले ही खूब मोटा-ताजा हो, पर यदि गाड़ी खींचने की इच्छा ही उसे न हो, तो वह कंधा डालकर बैठ जायेगा और संभव है कि गाड़ी को किसी खड्डे में भी गिरा दे। जिस कार्य में हार्दिकता नहीं है, उससे न तृष्टि मिल सकती है, न पुष्टि।


33. भक्ति से विशुद्ध आनंद का लाभ 

5. यह भक्ति होगी, तो उस महान चित्रकार की कला हम देख सकेंगे। उसके हाथ की वह कलम हम देख सकेंगे। जहाँ एक बार उस उद्गम के झरने को और वहाँ के अपूर्व मधुर रस को चखा कि और सब रस तुच्छ और नीरस मालूम होंगे। जिसने वास्तविक केले खाये हैं, वह लकड़ी के रंगीन केले एक क्षण के लिए हाथ में लेगा और ‘बड़े सुंदर हैं’, कहकर एक ओर रख देगा। असली केलों का स्वाद मिल जाने के कारण उसे इन नकली केलों में खास उत्साह नहीं रहता। इसी तरह जिसने असली झरने की मिठास चख ली, वह बाहर के गुलाब-शर्बत पर लट्टू नहीं होगा। 


6. एक तत्त्वज्ञानी से लोगों ने कहा- "महाराज, चलिए शहर में आज बड़ी आराइश की गयी है।" तत्त्वज्ञानी बोला- "आराइश क्या है? एक दीपक, इसके बाद दूसरा, फिर तीसरा, इस तरह लाख, दस लाख, करोड़ जितने चाहे समझ लो। समझ गया तुम्हारी आराइश।" गणित श्रेणी में होता है, 1 + 2 + 3 इस तरह अनंत तक। संख्याओं में जो अंतर रखना है, वह यदि मालूम हो जाये, तो फिर सारी संख्या लिखने की जरूरत नहीं रहती। उसी तरह वे दीपक एक के बाद एक रख दिये समझो। इनमें इतना मशगूल होने जैसी क्या बात है? परन्तु मनुष्य को ऐसे आनंद प्रिय होते हैं। वह नीबू लायेगा, शक्कर लायेगा, पानी में घोलेगा और फिर बड़ा स्वाद लेकर कहेगा-"वाह, क्या बढ़िया शिकंजी बनी है।" जीभ को जायका लेने के सिवा और धंधा ही क्या है? यह उसमें मिलाओ, वह इसमें मिलाओ। ऐसी मिलावट की चाट खाने में ही सारा मजा! बचपन में एक बार मैं सिनेमा देखने गया था। साथ में एक टाट का टुकड़ा ले गया था, ताकि नींद आने लगे, तो सो जाऊं। परदे पर आंखों को चौंधिया देने वाली वह आग मैं देखने लगा। दो ही चार मिनट में उन अग्निचित्रों को देखकर मेरी आंखें थक गयीं। मैं अपने टाट पर सो गया और कहा कि खेल जब खतम हो जाये, तो जगा लेना। रात को बाहर खुली हवा में आकाश के चांद-तारे देखना छोड़कर, शांत सृष्टि का वह पवित्र आनंद छोड़कर उस हवाबंद थियेटर में आग की पुतलियों को नाचते देखकर लोग तालियां पीटते हैं! यह सारा मेरी तो समझ में ही नहीं आता।


7. मनुष्य इतना निरानंद कैसे? उन निर्जीव पुतलियों को देखकर आखिर बेचारा किसी तरह थोड़ा आनंद पा लेता है। जीवन में आनंद नहीं है, तो कृत्रिम आनंद खोजते हैं। एक बार हमारे पड़ोस में ‘ढमढम’ बजना शुरू हुआ। मैंने पूछा- "यह बाजा क्यों?" तो कहा गया - "लड़का हुआ है!" दुनिया में क्या एक तेरे ही लड़का हुआ है, जो ‘ढमढम’ बजाकर दुनिया से कहते हो कि मेरे लड़का हुआ है? लड़का होने की बात कहकर नाचता, कूदता और गाता है। यह सब लड़कपन नहीं तो क्या है? मानों आनंद का अकाल ही पड़ गया है। अकाल के दिनों में जैसे कहीं अनाज का दाना दीखते ही लोग टूट पड़ते हैं, उसी तरह जहाँ लड़का हुआ, सरकस आया, सिनेमा आया कि ये आनंद के भूखे-प्यासे लोग फुदकने लगते हैं। क्या यह सच्चा आनंद है? संगीत की लहरें कानों में घुसकर दिमाग को धक्का देती हैं। रूप आंखों में घुसकर दिमाग को धक्का देता है। इन धक्कों में ही बेचारों का आनंद समाया रहता है। कोई तंबाकू कूटकर उसे नाक में घुसेड़ता है, कोई उसकी बीड़ी बनाकर मुंह में खोंसता है। उस सुंघनी का या उस धुएं का धक्का लगा, तो मानों उन्हें आनंद की गठरी मिल गयी। बीड़ी का ठूंठ मिलते ही उनके आनंद की सीमा नही रहती। टॉल्सटॉय लिखते हैं- "उस बीड़ी की खुमारी में मनुष्य किसी का खून भी कर सकता है!" एक प्रकार का नशा ही तो है वह! ऐसे आनंद में मनुष्य क्यों मस्त हो जाता है? क्योंकि उसे वास्तविक आनंद का पता नहीं है। मनुष्य परछाई में ही भूला है। आज वह पांच ज्ञानेंद्रियों का ही आनंद ले रहा है। यदि आंख की इंद्रिय न होती, तो वह मानता कि संसार में इंद्रियों के चार ही आनंद हैं। कल यदि मंगल ग्रह से कोई छह इंद्रियों वाला मनुष्य नीचे उतर आये तो ये बेचारे पांच इंद्रियों वाले खिन्न होंगे और रोते-रोते कहेंगे कि "इसके मुकाबले हम कितने दीन-हीन हैं।" सृष्टि का संपूर्ण अर्थ इन पांच ज्ञानेंद्रियों को कैसे मालूम होगा? इन पांच विषयों में भी फिर मनुष्य चुनाव करता है और उसमें रमता रहता है बेचारा। गधे का रेंकना उसके कानों में जाता है, तो कहता है कि कहाँ से यह अशुभ आवाज आ गयी? तो क्या तुम्हारा दर्शन होने से उस गधे का कुछ अशुभ नहीं होगा? तुम्हीं को दूसरे से नुकसान होता है, क्या दूसरों का तुमसे कुछ नहीं बिगड़ता? पर मान लिया है कि गधे का रेंकना अशुभ है। एक बार बड़ौदा कॉलेज में मेरे रहते समय कुछ यूरोपियन गायक आये। थे तो वे उत्तम गवैये, अपनी तरफ से कमाल कर रहे थे; परन्तु मैं सोच रहा था कि कब यहाँ से छूटूंगा, क्योंकि मुझे वैसा गाना सुनने की आदत नहीं थी। मैंने उन्हें फेल कर दिया। हमारी तरफ के गवैये यदि उधर जायें, तो शायद वे भी वहाँ फेल समझे जायेंगे। संगीत से एक को आनंद होता है, तो दूसरे को नहीं। मतलब यह कि वह सच्चा आनंद नहीं है, मायावी आनंद है। जब तक वास्तविक आनंद का दर्शन नहीं होगा, तब तक इस मायावी आनंद में ही झूलते रहेंगे। जब तक असली दूध नहीं मिला था, तब तक आटा घोलकर बनाया दूध ही अश्वत्थामा दूध मानकर पीता था। इसलिए जब आप सच्चा स्वरूप समझ लेंगे, उसका आनंद चख लेंगे, तो फिर दूसरी सब चीजें फीकी लगेंगी।


8. इस आनंद का पता लगाने के लिए उत्कृष्ट मार्ग है- भक्ति। इस रास्ते चलते-चलते परमेश्वरीय कुशलता मालूम हो जायेगी। उस दिव्य कल्पना के आते ही दूसरी सब कल्पनाएं अपने-आप विलीन हो जायेंगी। फिर क्षुद्र आकर्षण नहीं रह जायेगा। फिर संसार में एक आनंद ही भरा हुआ दिखायी देगा। मिठाई की दुकानें भले ही सैकड़ों हों, परंतु मिठाइयों का प्रकार एक-सा होता है। जब तक असली चीज हाथ नहीं लगेगी, तब तक हम चंचल चिड़िया की तरह एक चीज यहाँ की खायेंगे, एक वहाँ की। सुबह मैं तुलसी-रामायण पढ़ रहा था। दीपक के पास कीड़े जमा हो रहे थे। इतने में वहाँ एक छिपकली आयी। उसे मेरी रामायण से क्या लेना-देना था। कीड़े देखकर उसे बड़ा आनंद हो रहा था। वह कीड़ों पर झपटने वाली थी कि मैंने जरा हाथ हिलाया, वह भाग गयी। परन्तु उसका ध्यान एक-सा लगा था कीड़े की ओर। मैंने अपने मन से पूछा- "तू खायेगा इस कीड़े को? तेरी जीभ से लार टपकती है?" मेरी जीभ से लार नहीं टपकी। जिस रस का आनंद मैं लूट रहा था, उसका उस बेचारी छिपकली को क्या पता? वह रामायण का रस नहीं चख सकती थी। इस छिपकली की तरह हमारी दशा है। हम नाना रसों में मस्त हैं। परंतु यदि सच्चा रस मिल जाये, तो कैसी बहार आये! भगवान भक्तिरूपी एक साधन दिखा रहे हैं, जिससे हम उस असली रस को चख सकें।


34. सकाम भक्तिका भी मूल्य है 

9. भगवान ने भक्त के तीन प्रकार बतलाये हैं- सकाम भक्ति करने वाला निष्काम परन्तु एकांगी भक्ति करने वाला और ज्ञानी अर्थात संपूर्ण भक्ति करने वाला। निष्काम परंतु एकांगी भक्ति करने वालें के भी तीन प्रकार हैं- आर्त जिज्ञासु अर्थार्थी। भक्तिवृक्ष की ये शाखा-प्रशाखाएं हैं। सकाम भक्ति करने वाला यानि क्या? कुछ इच्छा मन में रखकर भगवान के पास जाने वाला। मैं उसकी यह कहकर निंदा नहीं करूंगा कि यह भक्ति निकृष्ट प्रकार की है। बहुत लोग सार्वजनिक सेवा-क्षेत्र में इसीलिए कूदते हैं कि मान-सम्मान मिले। इसमें हर्ज क्या है? आप उन्हें खूब मान दीजिए। मान देने से कुछ बिगड़ेगा नहीं। ऐसा मान मिलते रहने से आगे सार्वजनिक सेवा में वे सुस्थिर हो जायेंगे। फिर उसी काम में उन्हें आनंद मालूम होने लगेगा। मान पाने की जो इच्छा होती है, उसका भी अर्थ आखिर क्या है? यही कि उस सम्मान से हमें विश्वास हो जाता है कि जो काम हम करते हैं, वह उत्तम हैं। मेरी सेवा अच्छी है या बुरी, यह समझने के लिए जिसके पास कोई आंतरिक साधन नहीं है, वह इस बाह्य साधन का सहारा लेता है। मां ने बच्चे की पीठ ठोंककर कहा ‘शाबाश’, तो उसकी तबीयत होती है कि मां का और काम करूं। यही बात सकाम भक्त की है। सकाम भक्त सीधा परमेश्वर के पास जाकर कहेगा - "दो।" सब कुछ परमेश्वर से मांगना कोई मामूली बात नहीं। यह असाधारण बात है। ज्ञानदेव ने नामदेव से पूछा- "तीर्थयात्रा के लिए चलते हो?" नामदेव ने कहा- "यात्रा किसलिए?" ज्ञानदेव ने जवाब दिया- "साधु-संतों का समागम होगा।" नामदेव ने कहा- "तो भगवान से पूछ आता हूँ।" नामदेव मंदिर में जाकर भगवान के सामने खड़े हो गये। उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। भगवान के उन समचरणों की ओर वे देखते रहे। अतं में रोते-रोते उन्होंने पूछा- "प्रभो, क्या मैं जाऊं", ज्ञानदेव पास ही थे। इस नामदेव को क्या आप पागल कहेंगे? ऐसे लोग बहुत हैं, जो घर में स्त्री न होने से रोते हैं। परन्तु परमेश्वर के पास जाकर रोने वाला भक्त सकाम भले ही हो, असाधारण है। अब यह उसका अज्ञान समझना चाहिए कि जो वस्तु सचमुच मांगने योग्य है, उसे वहीं नहीं मांगता। परन्तु इसलिए उसकी सकाम भक्ति त्याज्य नहीं मानी जा सकती।


10. स्त्रियां सुबह उठकर नाना प्रकार के व्रत आदि करती हैं, काकड़ा आरती करती हैं, तुलसी की परिक्रमा करती है। किसलिए? मरने के बाद परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो। उनके मन की ये भोली धारणाएं हो सकती हैं। परन्तु उनके लिए वे व्रत, जप, उपवास आदि अनुष्ठान करती हैं। ऐसे व्रतशील परिवार में महापुरुषों का जन्म होता है। तुलसीदास के कुल में रामतीर्थ उत्पन्न हुए। रामतीर्थ फारसी भाषा के पंडित थे। किसी ने कह दिया- "तुलसीदास के कुल में जनमे हो और तुम संस्कृत नहीं जानते!" रामतीर्थ को यह बात चुभ गयी। कुल स्मृति का यह कितना सामर्थ्य है। इससे प्रेरित होकर वे संस्कृत के अध्ययन में जुट गये। स्त्रियां जो भक्तिभाव रखती हैं, उसकी दिल्लगी नहीं उड़ानी चाहिए। जहाँ भक्ति का ऐसा एक-एक कण संचित होता है, वहाँ तेजस्वी संतति उत्पन्न होती है। इसीलिए भगवान कहते हैं- "मेरा भक्त सकाम होगा, तो भी उसकी भक्ति दृढ़ करूंगा। उसके मन में उलझन नहीं होने दूंगा। यदि वह मुझसे सच्चे हृदय से प्रार्थना करेगा कि मेरा रोग दूर कर दो, तो मैं उसके आरोग्य की भावना को पुष्ट करके उसका रोग दूर कर दूंगा। किसी भी निमित्त से क्यों न हो, वह मेरे पास आयेगा तो मैं उसकी पीठ पर हाथ फेरकर उसकी कद्र ही करूंगा।" ध्रुव को ही देखो। पिता की गोद में नहीं बैठ पाया, तो उसकी मां ने कहा, "ईश्वर से स्थान मांग।" वह उपासना में जुट पड़ा। भगवान ने उसे अचल स्थान दे दिया। मन निष्काम न हो, तो भी क्या? महत्त्व की बात तो यह है कि मनुष्य जाता किसके पास है, मांगता किससे है? दुनिया के सामने हाथ पसारकर ईश्वर से मांगने की वृत्ति बड़े महत्त्व की है। 


11. निमित्त कुछ भी हो, एक बार आप भक्ति-मंदिर में जाओ तो सही। पहले यदि कामना लेकर भी जाओगे, तो भी आगे चलकर निष्काम हो जाओगे। प्रदर्शनियां की जाती हैं। उनके संचालक कहते हैं- "अजी, आप आकर देखिए, कैसी, बढ़िया, रंगीन, महीन खादी बनने लगी है। जरा नये-नये नमूने तो देखिए।" मनुष्य आता है और प्रभावित होता है। यही बात भक्ति की है। भक्ति मंदिर में एक बार प्रवेश तो करो, फिर वहाँ का सौंदर्य और सामर्थ्य अपने-आप मालूम हो जायेगा। स्वर्ग जाते हुए धर्मराज के साथ अंत में एक कुत्ता ही रह गया। भीम, अर्जुन सब रास्ते में गल गये। स्वर्ग-द्वार के पास धर्मराज से कहा गया- "तुम आ सकते हो, परन्तु कुत्ते को मनाही है।" धर्मराज ने कहा- "अगर मेरा कुत्ता नहीं आ सकता तो मैं भी नहीं आ सकता।" अनन्य सेवा करने वाला कुत्ता भी क्यों न हो, दूसरे ‘मैं-मैं’ करने वालों से तो वह श्रेष्ठ ही है। वह कुत्ता भीम-अर्जुन से भी श्रेष्ठ साबित हुआ। परमेश्वर की ओर जाने वाला कीड़ा ही क्यों न हो, वह परमेश्वर की ओर न जाने वाले बड़े-से-बड़े व्यक्ति से श्रेष्ठ और महान है। मंदिर में कछुए और नंदी की मूर्तियां रहती हैं, परन्तु उस नंदी बैल को सब नमस्कार करते हैं; क्योंकि वह साधारण बैल नहीं है। वह भगवान के सामने रहता है। बैल होने पर भी यह नहीं भूल सकते कि वह परमेश्वर का है। बड़े-बड़े बुद्धिमानों की अपेक्षा वह श्रेष्ठ है। भगवान का स्मरण करने वाला बावला जीव भी विश्ववंद्य हो जाता है।


12. एक बार मैं रेल में जा रहा था। यमुना के पुल पर गाड़ी आयी। पास बैठे एक आदमी ने बड़े पुलकित हृदय से उसमें एक धेला डाल दिया। पड़ोस में एक आलोचक महाशय बैठे थे। कहने लगे- "पहले ही देश कंगाल है और ये लोग यों व्यर्थ पैसा फेंकते हैं!" मैंने कहा- "आपने उसके हेतु को पहचाना नहीं। जिस भावना से हमने धेला- पैसा फेंका‚ उसकी कीमत दो-चार पैसे होगी या नहीं? यदि दूसरे सत्कार्य के लिए पैसे दिये होते, तो यह दान और भी अच्छा होता। किन्तु इस बात का विचार पीछे करेंगे। परन्तु उस भावनाशील मनुष्य ने तो इस भावना से प्रेरित होकर यह त्याग किया है कि यह नदी यानि ईश्वर की करुणा ही बह रही है। इस भावना के लिए आपके अर्थशास्त्र में कोई स्थान है क्या? देश की एक नदी को देखकर उसका अंतःकरण द्रवित हो उठा। यदि इस भावना की आप कद्र कर सकें, तो मैं आपकी देश-भक्ति को परखूंगा।" देश-भक्ति का अर्थ क्या रोटी है? देश की महान नदी को देखकर यदि यह भावना मन में जगती है कि अपनी सारी संपत्ति इसमें डुबो दूं, इसके चरणों में अर्पण कर दूं, तो यह कितनी बड़ी देश-भक्ति है! वह सारी धन-दौलत, वे सब सफेद, लाल, पीले पत्थर, कीड़ों की विष्ठा से बने मोती, मूंगा- इन सबकी कीमत पानी में डुबो देने लायक ही है। परमेश्वर के चरणों के आगे यह सारी धूल तुच्छ समझो। आप कहेंगे कि नदी का और परमेश्वर के चरणों का क्या संबंध? आपकी सृष्टि में परमात्मा का कुछ संबंध है भी? नदी है, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन। सूर्य है, गैस की बत्ती का एक बड़ा-सा नमूना। उसे नमस्कार क्या करें! नमस्कार करना होगा सिर्फ आपकी रोटी को! फिर उस रोटी में भला क्या है? वह भी तो आखिर एक सफेद मिट्टी ही है। उसके लिए क्यों इतनी लार टपकाते हो? इतना बड़ा यह सूर्य उगा है, ऐसी यह सुंदर नदी बह रही है- इनमें यदि पमेश्वर का अनुभव न होगा, तो फिर होगा कहां? अंग्रेज कवि वर्डस्वर्थ बड़े दुःख से कहता है- "पहले जब मैं इंद्र-धनुष देखता था, तो नाच उठता था। हृदय हिलोरें मारने लगता था। पर आज मैं क्यों नहीं नाच उठता? पहले की जीवन-माधुरी खोकर कहा मैं पत्थर तो नहीं बन गया?" सारांश यह कि सकाम भक्ति अथवा गंवार मनुष्य की भावना का भी बड़ा महत्त्व है। अंत में इससे महान सामर्थ्य पैदा होता है। जीवधारी कोई भी और कैसा ही हो, वह जब एक बार, परमेश्वर के दरबार में आ जाता है, तो फिर मान्य हो जाता है। आग में किसी भी लकड़ी को डालिए, वह जल ही उठेगी। परमेश्वर की भक्ति एक अपूर्व साधना है। परमेश्वर सकाम भक्ति का भी केंद्र करेगा। बाद में वह भक्ति निष्कामता और पूर्णता की ओर जायेगी।


35. निष्काम भक्ति के प्रकार और पूर्णता 

13. सकाम भक्त हमने देखा। अब निष्काम भक्त देखें। उनमें दो प्रकार हैं- एकांगी और पूर्ण। एकांगी के भी तीन प्रकार। उनमें पहला प्रकार है आर्त भक्तों का। आर्त होता है आर्द्रता ढूंढने वाला, भगवान के लिए रोने-छटपटानेवाला; जैसे नामदेव। वह इस बात के लिए उत्सुक, व्याकुल रहता है कि कब भगवान का प्रेम पाऊंगा, कब उसके गले लगूंगा; कब उसके चरणें में अपने को डालूंगा! प्रत्येक कार्य में वह यह देखेगा कि उसमें हार्दिकता है या नहीं, प्रेम है या नहीं। 


14. दूसरा प्रकार है, जिज्ञासुओं का। आजकल अपने देश में इस श्रेणी के भक्त बहुत नहीं है। इस कोटि के भक्तों में कोई गौरीशंकर पर बार-बार चढ़ेंगे और मरेंगे। कोई उत्तर ध्रुव की खोज में निकलेंगे और अपनी खोज के फल कागज पर लिखकर उन्हें बोतल में बंद करके पानी में छोड़कर मर जायेंगे। कोई ज्वालामुखी के गर्भ में उतरेंगे। अभी तो हिंदुस्तानियों के लिए मौत एक हौआ बन बैठी है। परिवार के भरण-पोषण से बढ़कर कोई पुरुषार्थ ही नहीं रहा है। जिज्ञासु भक्त के पास अदम्य जिज्ञासा होती है। वह प्रत्येक वस्तु के गुण-धर्म की खोज करता है। मनुष्य जैसे नदी-मुख से अंत में सागर को पा लेता है, उसी तरह यह जिज्ञासु भी अंत में परमेश्वर को प्राप्त कर लेगा। 


15. तीसरा प्रकार है, अर्थार्थियों का। अर्थार्थी का अर्थ है, प्रत्येक बात में अर्थ देखने वाला। ‘अर्थ’ का मतलब पैसा नहीं; बल्कि हित, कल्याण है। किसी भी बात की जांच करते समय वह उसे इस कसौटी पर कसेगा कि इसके द्वारा समाज का क्या कल्याण होगा। वह देखेगा कि मैं जो कुछ कहता, लिखता, करता हूं, उससे संसार का मंगल होगा या नहीं? निरूपयोगी, अहितकर क्रिया उसे पसंद नहीं आयेगी। संसार के हित की चिंता करने वाला कितना बड़ा महात्मा है। वह! जगत् का कल्याण ही उसका आनंद हैं। जो प्रेम की दृष्टि से समस्त क्रियाओं को देखता है, वह आर्त; ज्ञान की दृष्टि से देखता है, वह जिज्ञासु और सबके कल्याण की दृष्टि से देखता है, वह अर्थार्थी।


35. निष्काम भक्ति के प्रकार और पूर्णता 

16. ये तीनों भक्त हैं तो निष्काम, परन्तु एकांकी हैं। एक कर्म के द्वारा, दूसरा हृदय के द्वारा, तीसरा बुद्धि के द्वारा ईश्वर के पास पहुँचता है। अब रहा पूर्ण भक्त का प्रकार। इसी को ज्ञानी भक्त कहना चाहिए। इस भक्त को जो कुछ दीखता है सो सब परमेश्वर का ही रूप है। कुरुप-सुरूप, राव-रंक, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सर्वत्र परमात्मा के ही पावन दर्शन। नर-नारी बाळे अवघा नारायण। ऐसें माझें मन करीं देवा- ‘नर, नारी, बालक सभी नारायण हैं। ऐसा मेरा मन बना दो, हे प्रभु!’ संत तुकाराम की ऐसी प्रार्थना है। हिन्दू-धर्म में जैसे नाग-पूजा, हाथी की सूंड वाले देवता की पूजा, पेड़ों की पूजा आदि पागलपन के नमूने हैं, उनसे भी अधिक पागलपन का कमाल, ज्ञानी भक्तों में दीखता है। उनसे कोई भी क्यों न मिले, उन्हें चींटी से लेकर चंद्र-सूर्य तक सर्वत्र एक ही परमात्मा दीखता है और उनका हृदय आनंद से हिलोरें मारने लगता है। मग तया सुखा अंत नाहीं पार। आनंदें सागर हेलावती- ‘फिर उसे अपार सुख मिलता है। आनंद से उसका हृदय-सागर हिलोरें मारने लगता है।’ ऐसा जो यह दिव्य और भव्य दर्शन है, उसे भले ही आप भ्रम कहें; परंतु यह भ्रम सौख्यकी राशि है, आनंद की निधि है। गंभीर सागर में उसे परमेश्वर का विलास दिखायी देता है, गौ-माता में उसे ईश्वर का वात्सल्य नजर आता है, पृथ्वी में उसकी क्षमता दीख पड़ती है, निरभ्र आकाश में उसकी निर्मलता, रवि-चंद्र-तारों में उसका तेज और भव्यता दीख पड़ती है। फूल में उसकी कोमलता और दुर्जनों में अपनी कसौटी करने वाला परमेश्वर दीखता है। इस तरह ‘एक ही परमात्मा सर्वत्र रम रहा है’ यह देखने का अभ्यास ज्ञानी भक्त किया करते हैं। ऐसा करते-करते वह ज्ञानी भक्त एक दिन ईश्वर में ही मिल जाता है।



आज का विषय

लोकप्रिय विषय