मानव-सेवारूपी राजविद्या। समर्पणयोग

 

41. प्रत्यक्ष अनुभव की विद्या 

1. आज मेरे गले में दर्द है। मुझे संदेह है कि मेरी आवाज आप तक पहुँच सकेगी या नहीं। इस समय साधुचरित बड़े माधवराव पेशवा के अंत समय की बात स्मरण आ रही है। यह महापुरुष मरणशय्या पर पड़ा था। कफ बहुत बढ़ गया था। कफ का अतिसार में पर्यवसान किया जा सकता है। अतः माधवराव ने वैद्य से कहा- "ऐसा करिए कि मेरा कफ हट जाये और उसकी जगह अतिसार हो जाये। उससे राम-नाम लेने का मुंह खुल जायेगा।" मैं भी आज परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था। भगवान ने कहा- "जैसा गला चले, वैसा ही बोलता रह।" मैं जो यहाँ गीता सुना रहा हूं, वह किसी को उपदेश देने के लिए नहीं। जो उससे लाभ उठाना हैं, उन्हें अवश्य उससे लाभ होगा; परंतु मैं तो गीता राम-नाम समझकर सुना रहा हूँ। गीता का प्रवचन करते समय मेरी भावना ‘हरि-नाम’ की रहती है। 


2. मैं जो यह कर रहा हूं, उसका आज के अध्याय से संबंध है। इस अध्याय में हरि-नाम की अपूर्व महिमा बतायी गयी है। यह अध्याय गीता के मध्य भाग में खड़ा है। सारे महाभारत के मध्य गीता और गीता के मध्य यह नौवां अध्याय! अनेक कारणों से इस अध्याय को पावनता प्राप्त हुई है। कहते हैं। कि ज्ञानदेव ने जब समाधि ली, तो उन्होंने इस अध्याय का जप करते हुए प्राण छोड़ा था। इस अध्याय के स्मरण मात्र से मेरी आंखें छलछलाने लगती हैं और दिल भर आता है। व्यासदेव का यह कितना बड़ा उपकार है! केवल भारतवर्ष पर ही नहीं, सारी मनुष्य-जाति पर उनका यह उपकार है। जो अपूर्व बात भगवान ने अर्जुन को बतायी, वह शब्दों द्वारा प्रकट करने योग्य नहीं थी। परंतु दया भाव से प्रेरित होकर व्यास जी ने इसे संस्कृत भाषा द्वारा प्रकट कर दिया। गूढ़ वस्तु को वाणी रूप दिया।


3. इस अध्याय के आरंभ में ही भगवान कहते हैं- राजविद्या राजगृह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। यह जो राज-विद्या है, यह जो अपूर्व वस्तु है, यह प्रत्यक्ष अनुभव करने की है। भगवान उसे ‘प्रत्यक्षावगम’ कहते हैं। शब्दों में न समाने वाली, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव की कसौटी पर कसी हुई यह बात इस अध्याय में बतायी गयी है। इससे यह बहुत मधुर हो गया है। तुलसीदास जी ने कहा है- को जानैको जैहै जमपुर, को सुरपुर पर-धामको। तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन राम-गुलामको॥ मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग और उसकी कथाओं से यहाँ क्या काम? कौन कह सकता है कि स्वर्ग कौन जायेगा, यमपुर कौन? यदि संसार में चार दिन रहना है, तो राम का गुलाम बनकर रहने में ही मुझे आनंद है- ऐसा तुलसीदास जी कहते हैं। राम का गुलाम होकर रहने की मिठास इन अध्याय में है। प्रत्यक्ष इसी देह में, आंखों से अनुभूत होने वाला फल, जीते-जी अनुभव की जानेवाली बातें इस अध्याय में बतायी गयी हैं, तो उसकी मिठास प्रत्यक्ष मालूम होती है। उसी तरह राम का गुलाम होकर रहने की मिठास यहाँ है। इस मृत्युलोक के जीवन का माधुर्य प्रत्यक्ष चखाने वाली यह राज-विद्या इस अध्याय में कही गयी है। वैसे वह गूढ़ है, परंतु भगवान उसे सबके लिए सुलभ करके और खोलकर रख रहे हैं।


42. सरल मार्ग

4. गीता जिस धर्म का सार है, उस धर्म को ‘वैदिक धर्म’ कहते हैं। वैदिक धर्म का अर्थ है, वेदों से निकला हुआ धर्म। इस जगतीतल पर जितने अति प्राचीन लेख हैं, उनमें वेद सबसे पहले लेख माने जाते हैं। भक्त लोग उन्हें अनादि मानते है। इसी से वेद पूज्य माने जाते हैं। यदि इतिहास की दृष्टि देखा जाये, तो भी वेद हमारे समाज की प्राचीन भावनाओं के प्राचीनतम चिह्न हैं। ताम्रपट, शिलालेख, सिक्के, बर्तन, प्राणियों के अवशेष आदि की अपेक्षा ये लिखित साधन बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। संसार में पहला ऐतिहासिक प्रमाण यदि कोई है, तो वह वेद है। इन वेदों में जो धर्म बीजरूप में था, उसका वृक्ष होते-होते अंत में उसमें गीता रूपी दिव्य मधुर फल लगा। फल के सिवा पेड़ का हम खायें भी क्या? जब वृक्ष में फल लगते हैं, तभी हमारे खाने की चीज उसमें हमें मिल सकी है। गीता वेदधर्म सार का भी सार है। 


5. यह जो वेद-धर्म प्राचीन काल से रूढ़ था, उसमें नाना यज्ञयाग, क्रियाकलाप, विविध तमश्चर्या, अनेक साधनाएं बतलायी गयी हैं। यह जो सारा कर्मकांड है, यद्यपि वह निरुपयोगी नहीं है, तो भी उसके लिए अधिकर चाहिए। वह कर्मकांड सबके लिए सुलभ नहीं था। ऊंचे नारियल के पेड़ पर चढ़कर फल कौन तोड़े, कौन छीले और कौन फोड़े? मैं चाहे कितना ही भूखा होऊं, पर ऊंचे पेड का वह नारियल मुझे मिले कैसे? मैं नीचे से उसकी ओर देखता हूं, ऊपर से नारियल मुझे देखता है। परंतु इससे पेट की ज्वाला कैसे बुझेगी जब तक वह नारियल मेरे हाथ में न पड़े, तब तक सब व्यर्थ है। वेदों की इन नाना क्रियाओं में बड़े बारीक विचार रहते हैं। जन-साधारण को उनका ज्ञान कैसे हो? वेद-मार्ग के सिवा मोक्ष नहीं, परंतु वेदों का तो अधिकार नहीं। तब दूसरों का काम कैसे चले?


6. अतः कृपासागर संत लोग आगे बढ़कर बोले- "आओ, हम इन वेदों का रस निकाल लें। वेदों का सार थोड़े में निकालकर संसार को दें।" इसलिए तुकाराम महाराज कहते हैं- वेद अनंत बोलिला। अर्थ इतुकाचि साधिला- ‘वेदों ने अनंत बातें कहीं हैं, परंतु उनमें से केवल इतना ही सार रूप अर्थ निकला है’।’ वह अर्थ क्या है? तो हरि-नाम। हरि-नाम वेदों का सार है। राम-नाम से मोक्ष निश्चित हुआ। स्त्रियां, बच्चे, शूद्र, वैश्य, गंवार, दीन, दुर्बल, रोगी, पंगु सबके लिए मोक्ष सुलभ हो गया। वेदों की अलमारी में बंद मोक्ष को भगवान ने राजमार्ग पर लाकर रख दिया। मोक्ष की यह कितनी सीधी-सादी, सरल तरकीब! जिनका जैसा भी सीधा-सादा जीवन है, जो कुछ स्वधर्म-कर्म है, सेवा-कर्म है, उसी को यज्ञमय क्यों न बना दें? फिर दूसरे यज्ञ-याग की जरूरत ही क्या है? अपने नित्य के सीधे-सादे सेवा-कर्म को ही यज्ञ समझकर करो। 


7. यही राज-मार्ग है। यानास्थाय नरो राजन्! न प्रमाद्येत कहिंचित्। धावत्रिमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥ इस मार्ग पर यदि आंखें मूंदकर दौड़ते चले जाओ, तो भी गिरने या ठोकर खाने का भय नही। दूसरा मार्ग है, क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया। तलवार की धार भी शायद थोड़ी भोथरी पड़ेगी, ऐसा विकट यह वैदिक मार्ग है। राम का गुलाम होकर रहने का मार्ग अधिक सुलभ है। इंजीनियर रास्ते की ऊंचाई धीरे-धीरे बढ़ाता हुआ ऊपर ले जाता है और हमें ऊंचे शिखर पर ला बिठाता है। हमें पता भी नहीं लगता कि इतने ऊंचे चढ़ रहे हैं। इंजीनियर की इस खूबी की तरह ही इस राजमार्ग की खूबी है। मनुष्य जिस जगह कर्म करते हुए खड़ा है; वहीं उस सादे कर्म द्वारा वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता है- ऐसा यह मार्ग है।


8.परमेश्वर क्या कहीं छिपकर बैठा है? किसी खोह में, किसी घाटी मे, किसी नदी में या किसी स्वर्ग में वह लुककर बैठ गया है? लाल, नीलम, चांदी-सोना पृथ्वी के पेट में छिपा रहता है। मोती-मूंगा रत्नाकर समुद्र में छिपे रहते हैं। वैसा वह परमेश्वररूपी 'लाल रतन' क्या कहीं छिपा हुआ है? भगवान को कहीं से खोदकर निकालना है? यह सामने और सर्वत्र भगवान ही खड़ा है। ये सभी लोग परमात्मा की ही तो मूर्तियां हैं। भगवान कहते हैं-: "इस मानव रूप में प्रकटित हरि-मूर्ति का अपमान मत करो भाई!" ईश्वर ही सारे चराचर में प्रकट हो रहा है। उसे खोजने के लिए कृत्रिम उपायों की क्या जरूरत? उपाय तो सीधा सरल है। तुम जो कुछ सेवा-कार्य करो, उस सब का संबंध भगवान से जोड़ दो; बस, काम बन गया। तुम राम के गुलाम हो जाओ। वह कठिन वेद-मार्ग, वह यज्ञ, वह स्वाहा, वह स्वधा, वह श्राद्ध, वह तर्पण सब मोक्ष की ओर ले जायेंगे। परंतु उसमें अधिकारी और अनधिकारी का झमेला खड़ा होता है। हमें उनकी जरूरत ही नहीं। इतना ही करो कि जो कुछ करते हो, वह ईश्वरार्पण कर दो। अपनी प्रत्येक कृति का संबंध ईश्वर से जोड़ दो। इस नौवें अध्याय की यही शिक्षा है। इसलिए यह भक्तों को बहुत प्रिय है।


43. अधिकार-भेद की झंझट नहीं 

9. कृष्ण के सारे जीवन में उसका बचपन बहुत ही मधुर है। बालकृष्ण की ही विशेष उपसना की जाती है। वह ग्वाल-बालों के साथ गायें चराने जाता है, उनके साथ खाता-पीता और हंसता-खेलता। इंद्र की पूजा करने के लिए जब ग्वाल-बाल निकले, तो उसने उनसे कहा- "इंद्र को किसने देखा है? उसके उपकार ही क्या है? पर यह गोवर्धन पर्वत हमें प्रत्यक्ष दिखायी देता है। यहाँ गायें चरती हैं। इसमें पानी के सोते बहते हैं। अतः इसी की पूजा करो।" ऐसी बातें वह उन्हें सिखाया करता। जिन ग्वालों में खेला, जिन गोपियों से हंसा-बोला, जिन गाय-बछड़ों में रमा, उन सबके लिए उसने मोक्ष का द्वार खोल दिया। कृष्ण परमात्मा ने अपने अनुभव से यह सरल मार्ग बताया है। बचपन में उसका गाय-बछड़ों से संबंध रहा। बड़े होने पर घोड़ों से। मुरली की ध्वनि सुनते ही गायें गद्गद् हो जातीं और कृष्ण के हाथ फेरते ही घोड़े फुरफुराने लगते। वे गाय-बछड़े और वे रथ के घोड़े केवल कृष्णमय हो जाते। ‘पापयोनि’ माने गये उन पशुओं को भी मानों मोक्ष मिल जाता था। मोक्ष पर केवल मनुष्य का ही अधिकार नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों का भी है- यह बात श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दी है। अपने जीवन में उन्होंने इस बात का अनुभव किया था। 


10. जो अनुभव भगवान को हुआ, वही व्यास जी को भी हुआ। कृष्ण और व्यास, दोनों एकरूप ही हैं। दोनों के जीवन का सार भी एक ही है। मोक्ष न विद्वत्ता पर अवलंबित है, न कर्म-कलाप पर। उसके लिए तो सीधी-सादी भक्ति ही पर्याप्त है। ‘मैं’ ‘मैं’ कहने वाले ज्ञानी पीछे ही रह गये और भोली-भावुक स्त्रियां उनसे आगे बढ़ गयीं। यदि मन पवित्र हो और सीधा-भोला पवित्र भाव हो, तो फिर मोक्ष कठिन नहीं है। महाभारत में ‘जनक-सुलभा-संवाद; नामक प्रकरण है। उसमें व्यास जी ने एक ऐसे प्रसंग की रचना की है, जिसमें राजा जनक ज्ञान प्राप्ति के लिए स्त्री के पास गये हैं। आप लोग भले ही बहस करते रहें कि स्त्रियों को वेदों का अधिकार है या नहीं, परंतु सुलभा तो यहाँ प्रत्यक्ष जनक राजा को ब्रह्मविद्या सिखा रही है। वह एम मामूली स्त्री और जनक कितना बड़ा सम्राट! कितनी विद्याओं से संपन्न! पर उस महाज्ञानी जनक के पास मोक्ष नहीं था। इसलिए व्यासदेव ने उसे सुलभा के चरणों में झुकाया। ऐसी ही बात उस तुलाधार वैश्य की है। जाजलि ब्राह्मण उसके पास ज्ञान पाने के लिए जाता है। तुलाधार कहता है- "तराजू की डंडी सीधी रखने में ही मेरा सारा ज्ञान समाया हुआ है!" वैसी ही कथा व्याध की है। व्याध ठहरा कसाई। पशुओं को मारकर वह समाज की सेवा करता था। एक अहंकारी तपस्वी ब्राह्मण को उसके गुरु ने व्याध के पास जाने के लिए कहा। ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ कि यह कसाई मुझे क्या ज्ञान देगा? ब्राह्मण व्याध के पास गया। व्याध क्या कर रहा था? मांस काट रहा था, मांस धो रहा था और साफ करके उसे बिक्री के लिए रख रहा था। उसने ब्राह्मण से कहा- "देखो, मेरा यह कर्म जितना धर्ममय किया जा सकता है, उतना मैं करता हूँ। अपनी आत्मा जितनी इस कर्म में उंड़ेली जा सकती है, उतनी उंड़ेलकर मैं यह कर्म करता हूँ और अपने मां-बाप की सेवा करता हूँ।" ऐसे इस व्याध के रूप में व्यास देव ने आदर्श मूर्ति खड़ी की है। 


43. अधिकार-भेद की झंझट नहीं 

11. महाभारत में ये जो स्त्री, शूद्र, वैश्य आदि की कथाएं आती हैं, उनका उद्देश्य यही है कि सबको यह साफ-साफ दीख जाये कि मोक्ष का द्वार सबके लिए खुला है। इन कथाओं का तत्त्व इस नौवें अध्याय में बतलाया गया है। इन कथाओं पर इस अध्याय में मुहर लगायी गयी है। राम का गुलाम होकर रहने में जो मिठास है, वही व्याध के जीवन में है। संत तुकाराम अहिंसक थे, परंतु उन्होंने बड़े चाव से यह वर्णन किया है कि सजन कसाई ने कसाई का काम करके मोक्ष प्राप्त कर लिया। तुकाराम ने एक जगह कहा है- "भगवन, पशुओं का वध करने वालों की क्या गति होगी!" परंतु- सजन कसाया विकूं लागे मांस- ‘सजन कसाई के साथ मांस बेचता है’- यह चरण लिखकर उन्होंने कहा कि भगवान सजन कसाई की मदद करते हैं। नरसी मेहता की हुंडी सकारने वाला, एकनाथ के यहाँ कांवर भरकर लानेवाला, दामाजी के लिए महार बनने वाला, महाराष्ट्र की प्रिय जनाबाई को कूटने-पीसने में मदद करने वाला भगवान सजन कसाई की भी उतने ही प्रेम से मदद करता है, ऐसा तुकाराम कहते हैं। सारांश यह कि अपने कृत्यों का संबंध परमेश्वर से जोड़ना चाहिए। कर्म यदि शुद्ध भावना से पूर्ण और सेवामय हो, तो वह यज्ञरूप ही है।


44. कर्मफल भगवान को अर्पण 

12. नौवें अध्याय में यही विशेष बात कही गयी है। इसमें कर्म-योग और भक्ति-योग का मधुर-मिलाप है। कर्म तो करना, परंतु फल का त्याग कर देना। कर्म ऐसी खूबी से करो कि फल की वासना चित्त न छुए। यह अखरोट के पेड़ लगाने जैसा है। अखरोट के वृक्ष में पच्चीस वर्ष में फल लगते हैं। लगाने वाले को अपने जीवन में शायद ही उसके फल चखने को मिलें। फिर भी पेड़ लगाना और उसे बहुत प्रेम से पानी पिलाना है। कर्म-योग का अर्थ है- पेड़ लगाना और फल की अपेक्षा न रखना। और भक्ति-योग किसे कहते हैं? भावपूर्वक ईश्वर के साथ जुड़ जाने का अर्थ है- भक्ति-योग। राज-योग में कर्म-योग और भक्ति-योग दोनों इकट्ठे हो जाते हैं। राजयोग की कई लोगों ने कई व्याख्याएं की हैं, परंतु राजयोग यानि कर्म-योग और भक्ति-योग का मधुर- मिश्रण, ऐसी थोड़े में मेरी व्याख्या है। कर्म तो करना है, पर फल फेंकना नहीं, प्रभु को अर्पण कर देना है। फल फेंक देने का अर्थ होता है फल का निषेध, किंतु अर्पण में ऐसा नहीं होता। बहुत सुंदर व्यवस्था है यह! बड़ी मिठास है इसमें। फल छोड़ने का यह अर्थ नहीं कि फल कोई लेगा ही नहीं। कोई-न-कोई तो फल लेगा ही। किसी-न-किसी को तो वह मिलेगा ही। फिर ऐसे तर्क खड़े हो सकते हैं कि जो इस फल को पायेगा। वह इसका अधिकारी भी है या नहीं? कोई भिखारी घर आ जाता है, तो हम झट् कहते हैं- "अरे, तू खासा मोटा-ताजा है। भीख मांगना तुझे शोभा नहीं देता। चला जा।’’ हम यह देखते हैं कि उसका भीख मांगना उचित है या नहीं। भिखारी बेचारा शर्मिंदा होकर चला जाता है। हममें सहानुभूति का पूर्ण अभाव होगा तो भीख मांगने वाले की योग्यता हम जानेंगे कैसे? 


13. बचपन में मैंने एक बार अपनी मां से भिखारियों के बारे में ऐसी ही शंका की थी। उसने जो उत्तर दिया, वह अभी तक मेरे कानों में गूंज रहा है। मैंने उससे कहा- "यह भिखारी तो हट्टा-कट्टा दीखता है। इसको भिक्षा देने से तो व्यसन और आलस्य ही बढ़ेंगे।" गीता का देशे काले च पात्रे च............ यह श्लोक भी मैंने उसे सुनाया। वह बोली- "जो भिखारी आया था, वह परमेश्वर ही था- अब पात्रापात्रता का कर विचार। भगवान क्या अपात्र हैं? पात्रापात्रता का विचार करने का तुझे और मुझे क्या अधिकार है? अधिक विचार करने की मुझे जरूरत नहीं मालूम होती। मेरे लिए वह भगवान ही है।" मां के इस उत्तर का कोई जवाब अभी तक मुझे नहीं सूझा है। दूसरों को भोजन कराते समय में उसकी पात्रापात्रता का विचार करता हूं; परंतु अपने पेट में रोटी डालते समय मुझे यह ख्याल तक नहीं आता कि मुझे भी इसका कोई अधिकार है या नहीं? जो हमारे दरवाजे आ जाता है, उसे अभद्र भिखारी ही क्यों समझा जाये? जिसे हम देते हैं, वह भगवान ही है, ऐसा हम क्यों न समझें?


14. राजयोग कहता है "तुम्हारे कर्म का फल किसी-न-किसी को तो मिलेगा ही न? तो उसे भगवान को ही दे डालो। उसी को अर्पण कर दो।" राजयोग उचित स्थान बता रहा है। यहाँ फलत्यागरूपी निषेधात्मक कर्म भी नहीं है और सब कुछ भगवान को ही अर्पण करना है, इसलिए पात्रापात्रता का प्रश्न भी हल हो जाता है। भगवान को जो दान दिया गया है, वह सदा-सर्वदा शुद्ध ही है। तुम्हारे कर्म में यदि दोष भी रहा, तो उसके हाथों में पड़ते ही वह पवित्र हो जायेगा। हम दोष दूर करने का कितना ही उपाय करें, तो भी दोष बाकी रहता ही है। फिर भी हम जितने शुद्ध होकर कर्म कर सकें, करें। बुद्धि ईश्वर की देन है। उसका जितना शुद्धता से उपयोग किया जा सकता है, करना हमारा कर्तव्य ही है। ऐसा न करना अपराध होगा। अतः पात्रापात्र-विवेक तो करना ही चाहिए; किंतु भगवद्भाव रखने से वह सुलभ हो जाता है। 


15. फल का विनियोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिए। जो काम जैसा हो जाये, वैसा ही भगवान को अर्पण कर दो। प्रत्यक्ष क्रिया जैसे-जैसे होती जाये वैसे-वैसे उसे भगवान को अर्पण करके मन की पुष्टि प्राप्त करते रहना चाहिए। फल को छोड़ना नहीं हैं, उसे भगवान को अर्पण कर देना है। यह तो क्या, मन में उत्पन्न होने वाली वासनाएं और काम-क्रोधादि विकार भी परमेश्वर को अपर्ण करके छुट्टी पाना है। काम-क्रोध आम्हीं वाहिले विठ्ठलीं- ‘काम-क्रोध मैंने प्रभु के चरणों में अर्पण कर दिये हैं।’ यहाँ न तो संयमाग्नि में जलना है, न झुलसना। चट् अर्पण किया और छूटे। न किसी को दबाना, न मारना! रोग जाय दुधें साखरें। तरी निंब कां पियावा- ‘जो गुड़ दीन्हें ही मरै, माहुर काहे देय?’ 


16. इंद्रियां भी साधन हैं। उन्हें ईश्वरार्पण कर दो। कहते हैं- "कान हमारी नहीं सुनते", तो फिर क्या सुनना ही बंद कर दें? नहीं, सुनो जरूर, पर हरिकथा ही सुनो। न सुनना बड़ा कठिन है। परंतु हरिकथारूपी श्रवण का विषय देकर कान का उपयोग करना अधिक सुलभ, मधुर और हितकर है। अपने कान तुम राम को दे दो। मुख से राम-नाम लेते रहो। इंद्रियां शत्रु नहीं हैं। वे अच्छी हैं। उनमें बड़ा सार्मथ्य है। अतः ईश्वरार्पण- बुद्धि से प्रत्येक इंद्रिय से काम लेना- यही राज-मार्ग है। इसी को ‘राजयोग’ करते हैं।


45. विशिष्ट क्रिया का आग्रह नहीं 

17. ऐसा नहीं कि कोई विशेष क्रिया ही भगवान को अर्पण करनी है। कर्ममात्र उसे सौंप दो। शबरी के वे बेर! राम ने उन्हें कितने प्रेम से स्वीकार किया। परमेश्वर की पूजा करने के लिए गुफा में जाकर बैठने की जरूरत नहीं है। तुम जहां, जो भी कर्म करो, वह परमेश्वर को अर्पण करो। मां बच्चे को संभालती है, मानो भगवान को ही संभालती है। बच्चे को नहलाती क्या है, परमेश्वर पर रुद्राभिषेक ही करती है। बालक परमेश्वरीय कृपा देन है, ऐसा मानकर मां को चाहिए कि वह परमेश्वर-भावना से बच्चे का लालन-पालन करे। कौशल्या राम की और यशोदा कृष्ण की चिंता कितने दुलार से करती थी। उसका वर्णन करते हुए शुक, वाल्मीकि, तुलसीदास ने अपने को धन्य माना। उस क्रिया में उन्हें अपार कौतुक मालूम होता है। माता की वह सेवासंगोपन-क्रिया अत्यंत उच्च है। वह बालक यानि परमेश्वर की मूर्ति! उस मूर्ति की सेवा से बढ़कर भाग्य क्या हो सकता है? यदि एक-दूसरे की सेवा करते समय हम ऐसी ही भावना रखें, तो हमारे कर्मों में कितना परिवर्तन हो जायेगा! जिसको जो सेवा मिल गयी, वह ईश्वर की ही सेवा है, ऐसी भावना करते रहना चाहिए। 


18. किसान बैल की सेवा करता है। क्या वह बैल तुच्छ है? नहीं, वेदों में वामदेव ने शक्तिरूप से विश्व में व्याप्त जिस बैल का वर्णन किया है, वही उस किसान के बैल में भी है- चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादाः द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश॥ - ‘जिसके चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ हैं, जो तीन जगह बंधा हुआ है, जो महान तेजस्वी होकर सब मर्त्य वस्तुओं में व्याप्त है, उसी गर्जना करने वाले विश्वव्यापी बैल की पूजा किसान करता है।’ टीकाकारों ने इस एक ऋचा के पांच-सात भिन्न-भिन्न अर्थ दिये हैं। यह बैल है भी विचित्र! आकाश में गर्जना करके जो बैल पानी बरसाता है, वही मल-मूत्र की वृष्टि करके खेत में फसल पैदा करने वाले इस किसान के बैल में मौजूद है। यदि किसान इस उच्च भावना से अपने बैलों की सेवा करेगा, तो उसकी यह मामूली सेवा भी ईश्वर को अर्पण हो जायेगी। 


19. इसी तरह हमारे घर की गृह-लक्ष्मी, जो चौका लगाकर रसोईघर को साफ सुथरा रखती है, चूल्हा जलाती है, स्वच्छ और सात्त्विक भोजन बनाती है और यह इच्छा रखती है कि यह रसोई मेरे घर के सब लोगों को पुष्टि-तृष्टिदायक हो, तो उसका यह सारा कर्म यज्ञरूप ही है। चूल्हा क्या, मानो उस माता ने एक छोटा सा यज्ञकुंड ही जलाया है। परमेश्वर को तृप्त करने की भावना मन में रखकर जो भोजन तैयार किया जायेगा, वह कितना स्वच्छ और पवित्र होगा, जरा इसकी कल्पना तो कीजिए। यदि उस गृहलक्ष्मी के मन में ऐसी उच्च भावना हो, तो उसे फिर भागवत की ऋषि-पत्नियों के ही समतोल रखना होगा। ऐसी कितनी ही माताएं सेवा करके तर गयी होंगी और ‘मैं-मैं’ करने वाले पंडित और ज्ञानी कोने में ही पड़े रहे होंगे।


46. सारा जीवन हरिमय हो सकता है 

20. हमारा दैनिक क्षण-क्षण का जीवन मामूली दिखायी देता हो, तो भी वह वास्तव में वैसा नहीं होता। उसमें बड़ा अर्थ भरा है। सारा जीवन एक महान यज्ञकर्म ही है। आपकी निद्रा क्या, एक समाधि है। सब प्रकार के भोगों को यदि हम ईश्वरार्पण करके निद्रा लेंगे, तो वह समाधि नहीं तो क्या होगी? हम लोगों में स्नान करते समय पुरुषसूक्त के पाठ करने की रूढ़ि चली आ रही है। अब सोचो कि इस स्नान की क्रिया से इस पुरुषसूक्त का क्या संबंध? देखना चाहोगे तो संबंध जरूर दिखेगा। जिस विराट पुरुष के हजार हाथ और हजार आंखें हैं, उसका मेरे इस स्नान से क्या संबंध। संबंध यह कि तुम जो लोटा भर जल सिर डालते हो, उसमें हजारों बूंदे हैं। वे बूंदें तुम्हारा मस्तक धो रही हैं- तुम्हें निष्पाप बना रही हैं। मानो तुम्हारे मस्तक पर ईश्वर का आशीर्वाद बरस रहा है। परमेश्वर के सहस्र हाथों से सहस्रधारा ही मानो तुम पर बरस रही है। इन बूंदों के रूप में मानो परमेश्वर ही तुम्हारे सिर के अंदर का मैल धो रहा है। ऐसी दिव्य भावना उस स्नान में उंड़ेलो, तो वह स्नान कुछ निराला ही हो जायेगा, उस स्नान में अनंत शक्ति आ जायेगी। 


21. कोई भी कर्म जब इस भावना से किया जाता है कि वह परमेश्वर का है तो मामूली होने पर भी पवित्र हो जाता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। मन में जरा यह भावना करके देखो तो कि जो व्यक्ति हमारे घर आया है वह ईश्वररूप है। मामूली तौर पर कोई बड़ा आदमी भी जब हमारे घर आता है, तो हम कितनी सफाई रखते हैं और कैसा बढ़िया भोजन बनाते हैं। फिर यदि यह भावना करें कि यह परमेश्वर है, तो भला बताओ, हमारी उस क्रिया में कितना फर्क पड़ जायेगा? कबीर कपड़े बुनता था। उसी में निमग्न होकर वह गाता- झीनी झीनी बीनी चदरिया। वह गाता हुआ झूमता जाता, मानो परमेश्वर को ओढ़ाने के लिए वह चादर बुन रहा हो। ऋग्वेद का ऋषि कहता है- वस्त्रेव भद्रा सुकृता वसूयुः। "मैं अपना यह स्तोत्र सुंदर हाथों से बुने हुए वस्त्र की तरह ईश्वर को पहनाता हूँ।" कवि स्तोत्र बनाता है ईश्वर के लिए। बुनकर जो वस्त्र बनाता है, सो भी ईश्वर के लिए ही। कैसी हृदयंगम कल्पना! कितना चित्त को विशुद्ध बनाने वाला और हृदय को हिलोर देने वाला विचार! यह भावना यदि जीवन में एक बार जाये, तो फिर जीवन कितना निर्मल हो जोयगा! अंधेरे में बिजली चमकती है, तो वह अंधेरा एक क्षण में प्रकाश बन जाता है। वह अंधकार क्या धीरे-धीरे प्रकाश बनता है? नहीं, एक क्षण में ही सारा भीतर-बाहर परिवर्तन हो जाता है। उसी तरह प्रत्येक क्रिया को ईश्वर से जोड़ देते ही जीवन में एकदम अद्भुत शक्ति आती है। प्रत्येक क्रिया विशुद्ध होने लगती है। जीवन में उत्साह का संचार होता है। आज हमारे जीवन में उत्साह है कहां? हम जी रहे हैं, क्योंकि मरते नहीं। उत्साह का चारों ओर अकाल है। कलाहीन रोता जीवन! परंतु जरा यह भाव मन में लाओ कि हमें अपनी सब क्रियाएं ईश्वर के साथ जोड़नी हैं। फिर देखोगे कि तुम्हारा जीवन कितना रमणीय और नमनीय हो जाती है।


22. इसमें शक नहीं कि परमेश्वर के एक नाम मात्र से झट् परिवर्तन हो जाता है। यह मत करो कि राम करने से क्या होता है! जरा कहकर तो देखो! कल्पना करो कि संध्या समय किसान काम करके घर लौट रहा है। रास्ते में उसे कोई यात्री मिल जाता है। वह उससे कहता है- चाल घरा उभा राहे नारायणा। ‘हे पदयात्री नारायण, जरा ठहरो। अब रात हो आयी। भगवन, मेरे घर चलो।’ उस किसान के मुंह से ऐसे शब्द निकलने तो दो, फिर देखो, उस यात्री का रूप बदलता है या नहीं। वह यात्री यदि डाकू और लुटेरा होगा, तो भी पवित्र हो जायेगा। यह फर्क भावना के कारण होता है। भावना में ही सब कुछ भरा है। जीवन भावनामय है। बीस साल का एक पराया लड़का घर आता है, पिता उसे अपनी कन्या देता है। वह लड़का है तो सिर्फ बीस साल का, परंतु पचास साल का श्वशुर उसके पैर छूता है, यह क्या बात है? कन्या अर्पण करने का वह कार्य ही कितना पवित्र है! वह जिसे दी जाती है, वह परमेश्वर ही मालूम होता है। यह जो भावना दामाद के प्रति, वर के प्रति रखी जाती है, उसी को और ऊपर ले जाओ, और आगे बढ़ाओ।


23. कोई कहेगा कि आखिर ऐसी झूठी कल्पना करने से लाभ क्या? मैं कहता हूँ कि पहले से ही सच्चा-झूठा मत कहो। पहले अभ्यास करो, अनुभव लो, तब तुम्हें सच-झूठ मालूम हो जायेगा। उस कन्यादान में कोरी शाब्दिक नहीं, किंतु यह सच्ची भावना करो कि वह जमाई सचमुच ही परमात्मा है, तो फिर देखोगे कि कितना फर्क पड़ जाता है। इस पवित्र भावना के प्रभाव से वस्तु के पूर्वरूप और उत्तर रूप में आकाश-पाताल का अंतर पड़ जायेगा। कुपात्र सुपात्र बन जायेगा। दुष्ट सुष्ट बन जायेगा। वाल्या भील का कायापलट इसी तरह हुआ न? वीणा पर उंगलियां नाच रही हैं, मुख से नारायण नाम का जप चल रहा है और मारने के लिए दौड़ने पर भी शांति डिगती नहीं, बल्कि उसकी और प्रेमपूर्ण दृष्टि से निहारता है- वाल्या ने ऐसा दृश्य ही इससे पहले कभी नहीं देखा था। उसने अभी तक दो ही प्रकार के प्राणी देखे थे- एक तो उसकी कुल्हाड़ी देखकर भाग जाने वाले या उलटकर उस पर हमला करने वाले। परंतु नारद उसे देखकर न तो भागे, न हमला ही किया, बल्कि शांत भाव से खड़े रहे। वाल्या की कुल्हाड़ी रुक गयी। नारद की न भौहें हिलीं, न आंखें झपकीं, मधुर भजन ज्यों-का-त्यों जारी रहा। नारद ने वाल्या से पूछा- "तुम्हारी कुल्हाड़ी क्यों रुक गयी?" वाल्या ने कहा- "आपके शांत भाव को देखकर।" नारद ने वाल्या का रूपांतर कर दिया। वह रूपांतर झूठ था या सच?


24, सचमुच संसार में कोई दुष्ट है या नहीं, इसका निर्णय आखिर कौन करे? कोई असली दुष्ट आ जाये तो भी ऐसी भावना करो कि यह परमात्मा है। वह दुष्ट हो भी, तो संत बन जायेगा। तो क्या झूठ-मूठ यह भावना करें? मैं कहता हूं, किसको पता है कि वह दुष्ट ही है? कुछ लोग कहते हैं कि सज्जन लोग खुद अच्छे होते हैं, इसलिए उन्हें सब कुछ अच्छा दिखायी पड़ता है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता। तो फिर तुम्हें जैसा दिखायी देता है, उसी को सच मान लें? सृष्टि का सम्यक् ज्ञान होने का साधन मानो अकेले दृष्टों के ही पास है। यह क्यों न कहें कि सृष्टि तो अच्छी है, पर तुम दुष्ट हो, इसलिए वह तुम्हें दुष्ट दिखायी देती है। देखो, सृष्टि तो आईना है। तुम जैसे होगे, वैसा ही सामने की सृष्टि में तुम्हारा प्रतिबिंब दिखायी देगा। जैसी तुम्हारी दृष्टि, वैसा ही सृष्टि का रूप? इसलिए ऐसी कल्पना करो कि यह सृष्टि अच्छी है, पवित्र है। अपनी मामूली क्रिया में भी ऐसी भावना का संचार करो। फिर देखो कि क्या चमत्कार होता है। भगवान यही बात समझा देना चाहते हैं- यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौंतेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥ -‘तुम जो कुछ करो, सब ज्यों-का-त्यों भगवान को अर्पण कर दो।’ 


25. मेरी मां बचपन में एक कहानी सुनाया करती थी। बात मजेदार है, परंतु उसका रहस्य बहुत मूल्यवान है। एक स्त्री थी। उसका यह निश्चय था कि जो कुछ करूंगी, कृष्णार्पण कर दूंगी। चौका लीपने के बाद बची हुई गोबर-मिट्टी का गोला बनाकर बाहर फेंकती और कह देती- ‘कृष्णार्पणमस्तु।’ होता क्या था कि वह गोबर का गोला वहाँ से उठता और मंदिर में भगवान की मूर्ति के मुंह पर जा चिपकता। पुजारी बेचारा मूर्ति को धो-धोकर थक गया, पर करे क्या? अंत में मालूम हुआ कि यह करामात उस स्त्री की थी। जब तक वह स्त्री जीवित है, तब तक मूर्ति कभी साफ रह ही नहीं सकती। एक दिन वह स्त्री बीमार पड़ गयी। मरण की अंतिम घड़ी निकट आ गयी। उसने मरण को भी कृष्णार्पण कर दिया। उसी समय मंदिर की मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े हो गये। मूर्ति टूटकर गिर पड़ी। स्वर्ग से विमान आया स्त्री को लेने के लिए। विमान को भी कृष्णार्पण कर दिया। विमान जाकर मंदिर से टकराया और वह भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। स्वर्ग श्रीकृष्ण के ध्यान के सामने व्यर्थ है।


26. सारांश यह कि जो कुछ भले-बुरे कर्म हमसे बन पड़े, उन सबको ईश्वरार्पण कर देने से उनमें कुछ और ही सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है। ज्वार का दाना यों कुछ पीलापन और लाली लिये हुए होता है। पर उसी को भूनने से कितनी बढ़िया फूली बन जाती है। साफ सफेद, अठपहलू व्यवस्थित और शानदार वह फूली उस दाने के पास रखकर तो देखो! कितना अंतर है! मगर वह फूली है, उस दाने की ही, इसमें संदेह नहीं। यह अंतर केवल अग्नि के कारण हो गया। इसी तरह उस कड़े दाने को चक्की में डालकर पीसो, तो उसका मुलायम आटा बन जायेगा। अग्नि संपर्क से फूली बन गयी, चक्की में डालने से मुलायम आटा बन गया। इसी तरह हमारी किसी छोटी-सी क्रिया पर हरिस्मरणरूपी संस्कार करने से वह अपूर्व हो जायेगी। भावना से मोल बढ़ जाता है। वह गुड़हल का मामूली-सा फूल, बेल की पंत्तियां, तुलसी की मंजरी और दूब के तिनके, इन्हें तुच्छ मत मानो- तुका म्हणे चवी आलें। जें कां मिश्रित विठ्ठलें- ‘तुका कहता है कि जो भी राम-मिश्रित हो जाता है, उसमें स्वाद आ जाता है।’ प्रत्येक बात में भगवान को मिला दो और फिर अनुभव करो, इस रामरूपी मसाले के बराबर दूसरा कोई मसाला है क्या? इस दिव्य मसाले से बढ़कर तुम दूसरा कौन-सा मसाला लाओगे? यही ईश्वर रूपी मसाला अपनी प्रत्येक क्रिया में मिला दो, फिर सब कुछ सुंदर और रुचिकर हो जायेगा। 


27. रात को आठ बजे, जब मंदिर में आरती हो रही हो, धूप की सुगंघ फैल रही हो, दीप जलाये जा रहे हों, आरती उतारी जा रही हो, ऐसे समय सचमुम यह भावना होती है कि हम परमात्मा के दर्शन कर रहे हैं। भगवान दिन भर जागे अब उनके सोने का समय हुआ। भक्त गाते हैं- सुख निंदिया अब सोओ गोपाल। पर शंकाशील पूछता है- "भला, भगवान भी कहीं सोता है?" अरे भगवान क्या नहीं करता! भले आदमी, अगर भगवान सोता नहीं, जागता नहीं तो क्या पत्थर सोयेगा, जागेगा? भाई, भगवान ही सोता है, भगवान ही जागता है, और भगवान ही खाता-पीता है। तुलसीदास जी प्रातः काल के समय भगवान को जगातो हैं, विनय करते हैं- जागिये रघुनाथ कुंवर पंछी बन बोले। अपने भाई-बहनों को, स्त्री-पुरुषों को रामचंद्र की मूर्ति मानकर वे कहते हैं- "मेरे रामचंद्रों, अब उठो।" कितना सुंदर विचार है! नहीं तो किसी बोर्डिंग को देखो वहाँ लड़कों को उठाते समय डांटकर कहते हैं- "अरे, उठते हो कि नहीं?" प्रातः काल की मंगल-वेला! ऐसे समय कठोर वाणी अच्छी लगती है? विश्वामित्र के आश्रम में रामचंद्र जी सो रहे हैं। विश्वामित्र उन्हें उठा रहे हैं। वाल्मीकि-रामायण में उसका वर्णन है- रामेति मधुरां वाणीं विश्वामित्रोऽभ्यभाषत। उत्तिष्ठ नरशार्दूल पूर्वा संध्या प्रवर्तते॥ "बेटा राम, उठो अब।" ऐसी मीठी वाणी से विश्वामित्र उन्हें उठा रहे हैं। कितना मधुर है यह कर्म। बोर्डिंग का वह जगाना कितना कर्कश! उस सोते हुए लड़के को ऐसा मालूम होता है, मानो कोई सात जन्म का वैरी ही जगाने आया है। पहले धीरे-धीरे पुकारो, फिर कुछ जोर से पुकारो। परंतु पुकारने में कर्कशता, कठोरता बिलकुल न हो। यदि न जगे, तो फिर दस मिनट के बाद जगाओ। आशा रखो कि आज नहीं तो कल (जल्दी) उठेगा। उसे जगाने के लिए मीठे-मीठे भजन, प्रभाती, स्तोत्र आदि सुनाओ। जगाने की क्रिया मामूली है परंतु उसे कितना काव्यमय, सहृदय और सुंदर बना सकते हैं! मानो भगवान को ही उठाना है। परमेश्वर की मूर्ति को ही धीरे से जगाना है। नींद से कैसे जगाना, इसका भी एक शास्त्र है।


28. अपने सब व्यवहारों में इस कल्पना को लाओ। शिक्षाशास्त्र में तो इस कल्पना की बड़ी ही आवश्यकता है। लड़के क्या है, प्रभु की मूर्तियां हैं। गुरु की यह भावना होनी चाहिए कि मैं इन देवताओं की ही सेवा कर रहा हूँ। तब वह लड़कों को ऐसे नहीं झिड़केगा- "चला जा अपने घर! खड़ा रह घंटे भर। हाथ आगे कर। कैसे मैले कपड़े हैं! नाक से कितनी रेंट बह रही है!" बल्कि हल्के हाथ से नाक साफ कर देगा, मैले कपड़े धो देगा और फटे कपड़े सी देगा। यदि शिक्षक ऐसा करे, तो इसका कितना अच्छा परिणाम होगा! मार-पीटकर कहीं अच्छा नतीजा निकाला जा सकता है? लड़कों को भी चाहिए कि वे इसी दिव्य भावना से गुरु को देखें। गुरु शिष्यों को हरिमूर्ति और शिष्य गुरु को हरिमूर्ति मानें। परस्पर ऐसी भावना रखकर यदि दोनों व्यवहार करें, तो विद्या तेजस्वी होगी। लड़के भी भगवान और गुरु भी भगवान! यदि छात्र यह मान लें कि ये गुरु नहीं, भगवान शंकर की मूर्ति हैं, हम इनसे बोधामृत पा रहे हैं, इनकी सेवा करके ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, तो फिर सोच लीजिए कि वे गुरु के साथ कैसा व्यवहार करेंगे?


47 पाप का भय नहीं 

29. सब जगह प्रभु विराजमान हैं, ऐसी भावना चित्त में जम जाये, तो फिर एक - दूसरे के साथ हम कैसा व्यवहार करें, यह नीति-शास्त्र हमारे अंतः करण में अपने-आप स्फुरित होने लगेगा। शास्त्र पढ़ने की जरूरत ही नहीं रहेगी। तब सब दोष दूर हो जायेंगे, पाप भाग जायेंगे, दुरितों का तिमिर हट जायेगा। तुकाराम ने कहा है- चाल केलासी मोकळा। बोल विठ्ठल वेळोवेळां। तज पाप चि नाहीं ऐसें। नाम घेतां जवळीं वसे॥ -‘चल तुझे छुट्टी देता हूँ हर श्वास पर विठ्ठल का नाम ले। तेरा ऐसा एक भी पाप नहीं है‚ जो नाम लेने पर भी तेरे पास बना रहे। अच्छा चलो तुम्हें पाप करने की छुट्टीǃ मैं देखता हूँ कि तुम पाप करने से थकते हो या हरिनाम पाप जलाने से थकता है। ऐसा कौन-सा जबर्दस्त और मगरूर पाप है, जो हरि-नाम के सामने टिक सकता है ? करीं तुजसी करवती- ‘करो चाहे जितने पाप।’ तुमसे जितने पाप बन सकें, करो। तुम्हें खुली छूट है। होने दो हरि-नाम की और तुम्हारे पापों की कुश्ती! अरे, इस हरि-नाम में इस जन्म के ही नहीं, अनंत जन्मों के पाप पल भर में भस्म कर डालने का सामर्थ्य है। गुफा में अनंत युग का अंधकार भरा हो, तो भी एक दियासलाई जलाते ही वह भाग जाता है। वह अंधकार प्रकाश बन जाता है। पाप जितने पुराने, उतने ही जल्दी वे नष्ट होते हैं, क्योंकि वे करने को ही होते हैं। पुरानी लकड़ियों को राख होते देर नहीं लगती। 


30. राम-नाम के नजदीक पाप ठहर ही नहीं सकता। बच्चे कहते हैं कि राम कहते ही भूत भागता है। हम बचपन में रात को श्मशान हो आते थे। श्मशान में जाकर मेख ठोंक कर आने की शर्त लगाया करते। रात को सांप भी रहते, कांटे भी रहते, बाहर चारों ओर अंधकार रहता, फिर भी कुछ नहीं लगता। भूत-कभी दिखायी नहीं दिया। कल्पना के ही तो भूत! फिर दीखने क्यों लगें? दस वर्ष के बच्चे में रात को श्मशान में जा आने का सामर्थ्य कहाँ से आ गया? राम-नाम से। वह सामर्थ्य सत्यरूप परमात्मा का था। यदि यह भावना हो कि पमात्मा मेरे पास है, तो सारी दुनिया उलट पड़े, तो भी हरि का दास भयभीत नहीं होगा। उसे कौन सा राक्षस खा सकता है? भले ही राक्षस उसका शरीर खाकर पचा डाले, पर उसे सत्य पचने वाला नहीं। सत्य को पचा लेने की शक्ति संसार में कहीं नहीं। ईश्वर नाम के सामने पाप टिक नहीं सकता। इसलिए ईश्वर से जी लगाओ। उसकी कृपा प्राप्त कर लो। सब कर्म उसे अर्पण कर दो। उसी के हो जाओ। अपने सब कर्मों का नैवेद्य प्रभु को अर्पण करना है हम भावना को उत्तरोत्तर अधिक उत्कृष्ट बनाते चले जाओगे तो क्षुद्र जीवन दिव्य बन जायेगा, मलिन जीवन सुंदर बन जायेगा।


48. थोड़ा भी मधुर 

31. पत्रं पुष्पं फलं तोयम्- कुछ भी हो, उसके साथ भक्ति-भाव हो तो पर्याप्त है। कितना दिया, कितना चढ़ाया, यह भी मुद्दा नहीं, किस भावना से दिया, यह मुद्दा है। एक बार एक प्रोफेसर के साथ मेरी बात चल रही थी! वह शिक्षण शास्त्र संबंधी थी। हम दोनों के विचार मिलते नहीं थे। अंत में प्रोफेसर ने कहा- "भाई, मैं अठारह साल से काम कर रहा हूँ।" प्रोफेसर को चाहिए था कि वे मुझे कायल करते; परंतु ऐसा न करते हुए जब उन्होंने मुझे कहा कि मैं इतने साल से शिक्षा का कार्य कर रहा हूं, तो मैंने उनसे मजाक में कहा- "अठारह साल तक बैल यदि यंत्र के साथ घूमता रहे, तो क्या वह यंत्र-शास्त्रज्ञ हो जायेगा?" यंत्रशास्त्रज्ञ और है, आंख मूंदकर चक्कर काटने वाला बैल और। शिक्षा-शास्त्रज्ञ और है और शिक्षा का बोझ ढोने वाला और। जो शास्त्रज्ञ होगा, वह छह महीने में ही ऐसा अनुभव प्राप्त कर लेगा कि जो अठारह साल तक बोझा ढोनेवाला मजदूर समझ भी नहीं सकेगा। सारांश यह कि उस प्रोफेसर ने मुझे अपनी दाढ़ी दिखायी कि मैंने इतने साल काम किया है, किंतु दाढ़ी से सत्य सिद्ध नहीं हो सकता। इसी तरह परमेश्वर के सामने कितना ढेर लगा दिया, इसका महत्त्व नहीं है। मुद्दा नाप का, आकार का, कीमत का नही है; मुद्दा भावना का है। कितना, क्या अर्पण किया, इससे मतलब नहीं; बल्कि कैसे किया, यह मुद्दा है। गीता में सात सौ ही श्लोक हैं। पर ऐसे भी ग्रंथ हैं, जिनमें दस-दस हजार श्लोक हैं। किंतु वस्तु का आकार बड़ा होने से उसका उपयोग भी अधिक होगा, ऐसा नहीं कर सकते। देखने की बात यह है कि वस्तु में तेज कितना है, सामर्थ्य कितना है। जीवन में कितनी क्रिया की है इसका महत्त्व नहीं। ईश्वरार्पण-बुद्धि से याद एक भी क्रिया की हो, तो वही हमें पूरा अनुभव करा देगी। कभी-कभी एक ही पवित्र क्षण में हमें ऐसा अनुभव होता है, जैसा बारह-बारह वर्षों में भी नहीं हो पाता। 32. आशय यह कि जीवन के सादे कर्मो को, सादी क्रियाओं को परमेश्वर को अर्पण कर दो, तो इससे जीवन में सामर्थ्य आ जायेगा। मोक्ष हाथ लग जायेगा। कर्म करके और उसका फल न छोड़कर उसे ईश्वर को अर्पण कर देना- ऐसा यह राज-योग, कर्म-योग से भी एक कदम बढ़कर है। कर्म-योग कहता है कि "कर्म करो, फल छोड़ो। फल की आशा मत रखो।" यहाँ कर्म-योग समाप्त हो गया। राज-योग कहता है, "कर्म-फलों को छोड़ो मत, बल्कि सब कर्म ईश्वर को अर्पण कर दो। वे फूल हैं, तुम्हें आगे ले जाने वाले साधन हैं, उन्हें उस मूर्ति पर चढ़ा दो।" एक ओर से कर्म और दूसरी ओर से भक्ति जोड़कर जीवन को सुंदर बनाते चलो। फलों को त्यागो मत। उन्हें फेंकना नहीं, बल्कि भगवान से जोड़ देना है। कर्म-योग में जो फल तोड़ दिया, उसे राज-योग में जोड़ दिया जाता है। बोने और फेंक देने में फर्क है। बोया हुआ थोड़ा भी अनंतगुना होकर मिलता है। फेंका हुआ यों ही नष्ट हो जाता है। जो कर्म ईश्वर को अर्पण किया गया है, उसे बोया हुआ समझो। उससे जीवन में अपार आनंद भर जायेगा, अपार पवित्रता आ जायेगी।



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