मंगल प्रभात

 



श्री भगवान कहते हैं - कर्म-फल त्‍यागकर कर्त्तव्‍य-कर्म करने वाला मनुष्‍य संन्‍यासी कहलाता है और योगी भी कहलाता है। जो क्रिया मात्र का त्‍याग कर बैठता है, वह आलसी है। असली बात तो है मन के घोड़े दौड़ाना छोड़ने की। जो योग अर्थात समत्‍व को साधना चाहता है उसकी कर्म बिना गुजर ही नहीं। जिसे समत्‍व प्राप्‍त हो गया है, वह शांत दिखाई देता है। तात्‍पर्य, उसके विचार मात्र में कर्म का बल आ गया रहता है। जब मनुष्‍य इंद्रिय के विषयों में या कर्म में आसक्‍त न हो और मन की सारी तरंगों को छोड़ दे तब कहना चाहिए कि उसने योग साधा है, वह योगारूढ़ हुआ है।


आत्मा का उद्धार आत्‍मा से ही होता है। तब कह सकते हैं कि आत्‍मा स्‍वयं ही अपना शत्रु बनता है और मित्र बनता है। जिसने मन को जीता है, उसका आत्‍मा मित्र है, जिसने नहीं जीता है, उसका आत्‍मा शत्रु है। मन को जीतने वाले की पहचान है कि उसके लिए सरदी-गरमी, सुख-दु:ख, मान-अपमान सब एक समान होते हैं।


योगी उसका नाम है, जिसे ज्ञान है, अनुभव है, जो अविचल हैं। जिसने इंद्रियों पर विजय पाई है, और जिसके लिए सोना, मिट्टी या पत्‍थर समान है। वह शत्रु-मित्र, साधु- असाधु इत्‍यादि के प्रति समभाव रखता है। ऐसी स्थिति को पहुँचने के लिए मन स्थिर करना, वासनाएं त्‍यागना और एकांत में बैठकर परमात्‍मा का ध्‍यान करना चाहिए। केवल आसन आदि ही बस नहीं हैं। समत्‍व–प्राप्ति के इच्‍छुकों को ब्रह्मचर्यादि महाव्रतों का भली प्रकार पालन करना चाहिए। यों आसनबद्ध हुए यम-नियमों का पालन करने-वाले मनुष्‍य को अपना मन परमात्‍मा में स्थिर करने से परम शांति प्राप्‍त होती है।


यह समत्‍व ठूंस-ठूंसकर खाने वाला तो नहीं पा सकता, पर कोरे उपवास से भी नहीं मिलता, न बहुत सोने वाले को मिलता है, वैसे ही बहुत जागने से भी हाथ नहीं आता। समत्‍व-प्राप्ति के इच्‍छुक को तो सब में - खाने में, पीने में, सोने-जागने में भी मर्यादा की रक्षा करनी चाहिए। एक दिन खूब खाया और दूसरे दिन उपवास; एक दिन खूब सोये और दूसरे दिन जागरण; एक दिन खूब काम करना और दूसरे दिन अलसाना, यह योग की निशानी नहीं है। योगी तो सदैव स्थिरचित्त होता है और कामना मात्र का वह अनायास त्‍याग किये रहता है। ऐसी योगी की स्थिति निर्वात स्‍थान में दीपक की भाँति स्थिर रहती है। उसे जग के खेल अथवा अपने मन में उठने वाले विचारों की लहरें डावांडोल नहीं कर सकतीं। धीरे-धीरे किंतु दृढ़तापूर्वक प्रयत्‍न करने से यह योग सध सकता है। मन चंचल है, इससे इधर-उधर दौड़ता है, उसे धीरे-धीरे स्थिर करना चाहिए।


उसके स्थिर होने से ही शांति मिलती है, या मन की स्थिरता के लिए निरंतर आत्‍मचिंतन आवश्‍यक है। ऐसा मनुष्‍य सब जीवों को अपने में और अपने को सबमें देखता है, क्‍योंकि वह मुझे सबमें और सबको मुझमें देखता है। जो मुझमें लीन है, मुझे सर्वत्र देखता है, वह स्‍वयं नहीं रह गया है, इसलिए चाहे जो करता हुआ भी मुझी में पिरोया हुआ रहता है। उसके हाथ से कभी कुछ अकरणीय नहीं हो सकता।


अर्जुन को यह योग कठिन लगा। वह बोला, ʻʻयह आत्‍म- स्थिरता कैसे प्राप्‍त हो? मन तो बंदर के समान है। मन का रोकना हवा रोकने के समान है। ऐसा मन कब और कैसे वश में आता है?ʼʼ


भगवान ने उत्तर दिया, ʻʻतेरा कहना सच है। पर राग-द्वेष को जीतने और प्रयत्‍न करने से कठिन को आसान किया जा सकता है। ʻनिस्‍संदेहʼ मन को जीते बिना योग का साधन नहीं बन सकता।ʼʼ


तब फिर अर्जुन पूछता है, ʻʻमान लीजिये कि मनुष्‍य में श्रद्धा है, पर उसका प्रयत्‍न मंद होने से यह सफल नहीं होता। ऐसे मनुष्‍य की क्‍या गति होती है? व‍ह बिखरे बादल की तरह नष्‍ट तो नहीं हो जाता है?ʼʼ


भगवान बोले, ʻʻऐसे श्रद्धालु का नाश तो होता ही नहीं। कल्‍याण-मार्गी की अवगति नहीं होती। ऐसा मनुष्‍य मरने पर कर्मानुसार पुण्‍यलोक में बसने के बाद पृथ्वी पर लौट आता है और पवित्र घर में जन्‍म लेता है। ऐसा जन्‍म लोकों में दुर्लभ है। ऐसे घर में उसके पूर्व-संस्‍कार उदय होते हैं। अब प्रयत्‍न में तेजी आती है और अंत में उसे सिद्धि मिलती है। यों प्रयत्‍न करते- करते कोई जल्‍दी और कोई अनेक जन्‍मों के बाद अपनी श्रद्धा और प्रयत्‍न के बल के अनुसार समत्‍व को पाता है। तप, ज्ञान, कर्मकांड संबंधी कर्म - इन सबसे समत्‍व विशेष है, क्‍योंकि तपादि का अंतिम परिणाम भी समता ही होना चाहिए। इसलिए तू समत्‍व लाभ कर और योगी हो। अपना सर्वस्‍व मुझे अर्पण कर और श्रद्धापूर्वक मेरी ही अराधना करने वालों को श्रेष्‍ठ समझ।ʼʼ


इस अध्‍याय में प्राणायाम-आसन आदि की स्‍तुति है। पर स्‍मरण रक्‍खें कि भगवान ने उसी के साथ ब्रह्मचर्य का अर्थात ब्रह्म-प्राप्ति के यम-नियमादि पालन की आवश्‍यकता बतलाई है। यह समझ लेना आवश्‍यक है कि अकेली आसनादि किया से कभी समत्‍व नहीं प्राप्‍त हो सकता। यदि उस हेतु से वे क्रियाएं हों तो आसन-प्राणायामादि मन को स्थिर करने में, एकाग्र करने में, थोड़ी-सी मदद करते हैं, अन्‍यथा उन्‍हें अन्‍य शारीरिक व्‍यायामों की श्रेणी में समझकर उतनी ही - शरीर-सुधार भर ही - कीमत माननी चाहिए। शारीरिक व्‍यायाम रूप में सात्त्विक है। शारीरिक दृष्टि से इसका साधन उचित है, पर उससे सिद्धियां पाने और चमत्‍कार देखने को ये क्रियाएं करने में मैंने लाभ के बजाय हानि होते देखी है। यह अध्‍याय तीसरे, चौथे और पांचवें अध्‍याय का उपसंहार- रूप समझना चाहिए। यह प्रयत्‍नशील को आश्‍वासन देता है। हमें समता प्राप्‍त करने का प्रयत्‍न हारकर कभी नहीं छोड़ना चाहिए।


भगवान बोले, ʻʻहे पार्थ, अब मैं तुम्‍हें बतलाऊंगा कि मुझ में चित्त पिरोकर और मेरा आश्रय लेकर कर्मयोग का आचरण करता हुआ मनुष्‍य निश्‍चयपूर्वक मुझे सम्‍पूर्ण रीति से कैसे पहचान सकता है। इस अनुभव-युक्‍त ज्ञान के बाद फिर और कुछ जानने को बाकी नहीं रहेगा। हजारों में कोई-कोई ही उसकी प्राप्ति का प्रयत्‍न करता है और प्रयत्‍न करने वालों में कोई ही सफल होता है।


पृथ्वी, जल, आकाश, तेज और वायु तथा मन, बुद्धि और अहंकारवाली आठ प्रकार की एक मेरी प्रकृति है। उसे ʻअपराʼ प्रकृति और दूसरे को ʻपराʼ प्रकृति कहते हैं, जो जीवरूप है। इन दो प्रकृतियों से अर्थात देह और जीव के संबंध से सारा जगत है। जैसे माला के आधार पर उसके मणिये रहते हैं, वैसे जगत मेरे आधार पर विद्यमान है। तात्‍पर्य, जल में रस मैं हूं, सूर्य- चंद्र का तेज मैं हूं, वेदों का ʼॐकार मैं हूं, आकाश शब्‍द मैं हूं, पुरुषों का पराक्रम मैं हूं, मिट्टी में सुगंध मैं हूँ ,अग्नि का तेज मैं हूं, प्राणीमात्र का जीवन मैं हूं, तपस्‍वी का तप मैं हूं, बुद्धिमान की बुद्धि मैं हूं, बलवान का शुद्धिबल मैं हूं, जीवनमात्र में विद्यमान धर्म की अवरोधी कामना मैं हूं, संक्षेप में सत्‍व, रजस् और तमस् से उत्‍पन्‍न होने वाले सब भावों को मुझसे उत्‍पन्‍न हुआ जान, उनकी स्थिति मेरे आधार पर ही है। मेरी त्रिगुणी माया के कारण इन तीन भावों या गुणों में रचे-पचे लोग मुझ अविनाशी को पहचान नहीं सकते। उसे तर जाना कठिन है, पर मेरी शरण लेने वाले इस माया की अर्थात तीन गुणों को लांघ सकते हैं।


पर ऐसे मूढ़ लोग मेरी शरण कैसे ले सकते हैं, जिनके आचार-विचार का कोई ठिकाना नहीं है? वे तो माया में पड़े अंधकार में ही चक्‍कर काटा करते हैं और ज्ञान से वंचित रहते हैं, पर श्रेष्‍ठ आचार वाले मुझे भजते हैं। इनमें कोई अपना दु:ख दूर करने को मुझे भजता है, कोई मुझे पहचानने को इच्‍छा से भजता है और कोई कर्त्तव्‍य समझकर ज्ञानपूर्वक मुझे भजता है। मुझे भजने का अर्थ है मेरे जगत की सेवा करना। उसमें कोई दु:ख के मारे, कोई कुछ लाभ-प्राप्ति की इच्‍छा से, कोई इस खयाल से कि चलो, देखा जाय, क्‍या होता है और कोई समझ- बूझकर इसलिए कि उसके बिना उनसे रहा ही नहीं जाता, सेवा- परायण रहते हैं। ये अंतिम मेरे ज्ञानी भक्‍त हैं और मैं कहूंगा कि मुझे ये सबसे अधिक प्‍यारे हैं, या यह समझो कि वे मुझे अधिक- से-अधिक पहचानते हैं और मेरे निकट-से-निकट हैं।

अनेक जन्‍मों के बाद ही मनुष्‍य ऐसा ज्ञान पाता है और उसे पाने पर इस जगत में मुझ वासुदेव के सिवा और कुछ नहीं देखता। पर कामना वाले मनुष्‍य तो भिन्‍न–भिन्‍न देवताओं को भजते हैं और जिसकी जैसी भक्ति, उसको वैसा फल देने वाला तो मैं ही हूँ।



उन ओछी समझवालों को मिलने वाला फल भी वैसा ही ओछा होता है और उतने से ही उनको संतोष भी रहता है। वे अपनी कमअक्‍ली से मानते हैं कि मुझे वे इंद्रियों द्वारा पहचान सकते हैं। वे नहीं समझते कि मेरा अविनाशी और अनुपम स्‍वरूप इंद्रियों से परे है तथा हाथ, कान, नाक आंख इत्‍यादि द्वारा पहचाना नहीं जा सकता। इसे मेरी योगमाया समझ कि इस प्रकार सारी चीजों का विधाता होने पर भी अज्ञानी लोग मुझे पहचान नहीं सकते।


राग-द्वेष के द्वारा सुख-दुख होते ही रहते हैं और उसके कारण जगत मोहग्रस्‍त रहता है, पर जो उसमें से छूट गये हैं और जिनके आचार-विचार निर्मल हो गये हैं, वे तो अपने व्रत में निश्‍चल रहकर निरंतर मुझे ही भजते हैं। वे पूर्ण ब्रह्मरूप से सब प्राणियों में भिन्‍न-भिन्‍न प्रतीत होने वाले जीवरूप में रहे हुए मुझे और मेरे कर्म को जानते हैं। यों जो मुझे अभिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ रूप से पहचानते हैं और इससे जिन्‍होंने समत्‍व प्राप्‍त किया है, वे मृत्यु के अनंतर जन्‍म–मरण के बंधन से मुक्‍त हो जाते हैं; क्योंकि इतना जान लेने पर उसका मन अन्‍यत्र नहीं भटकता और सारे जगत को ईश्‍वरमय देखते हुए वे ईश्वर में ही समा जाते हैं।ʼʼ






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