इस अध्याय में योग साधन के, समत्व प्राप्त करने के, कितने ही साधन बतलाये गये हैं।
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रित: कर्मफलं कार्य कर्म करोति य:।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:।।1।।
श्री भगवान बोले- कर्मफल का आश्रय लिये बिना जो मनुष्य विहित कर्म करता है वह संन्यासी है, वह योगी है। जो अग्नि का और समस्त क्रियाओं का त्याग करके बैठ जाता है वह नहीं।
टिप्पणी- अग्नि से तात्पर्य है साधन मात्र। जब अग्नि के द्वारा होम होते थे तब अग्नि की आवश्यकता थी। इस युग में यदि चरखे को सेवा का साधन मानें तो उसका त्याग करने से संन्यासी नहीं हुआ जा सकता।
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्य्रस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।2।।
हे पांडव! जिसे संन्यास कहते हैं उसे तू योग जान। जिसने मन के संकल्पों को त्यागा नहीं वह कभी योगी नहीं हो सकता।
आरुरुक्षोर्मुनेयोंगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते।।3।।
योग साधने वाले का कर्म साधन है, जिसने उसे साधा है उसे शांति साधन है।
टिप्पणी- जिसकी आत्मशुद्धि हो गई है, जिसने समत्व सिद्ध कर लिया है, उसे आत्मदर्शन सहज है। इसका यह अर्थ नहीं है कि योगारूढ़ को लोक-संग्रह के लिए भी कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती। लोक-संग्रह के बिना तो वह जी ही नहीं सकता। अत: सेवा-कर्म करना भी उसके लिए सहज हो जाता है। वह दिखावे के लिए कुछ नहीं करता।
यदा हि नन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।4।।
जब मनुष्य इंद्रियों के विषयों में या कर्म में आसक्त नहीं होता और संकल्प तज देता है तब वह योगारूढ़ कहलाता है।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयते।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।5।।
आत्मा से मनुष्य आत्मा का उद्धार करे, उसकी अधोगति न करे। आत्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6।।
उसी का आत्मा बन्धु है जिसने अपने बल से मन को जीता है। जिसने मन को जीता नहीं वह अपने ही साथ शत्रु का-सा बर्ताव करता है।
जितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो:।।7।।
जिसने अपना मन जीता है और जो संपूर्ण रूप से शांत हो गया है उसकी आत्मा सरदी-गरमी, दु:ख-सुख और मान-अपमान में समान रहती है।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन:।।8।।
जो ज्ञान और अनुभव से तृप्त हो गया है, जो अविचल है, जिसने इंद्रियों को जीत लिया है और जिसे मिट्टी, पत्थर और सोना समान है, ऐसा ईश्वरपरायण मनुष्य योगी कहलाता है।
सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिविंशिष्यकते।।9।।
हितेच्छु, मित्र, शत्रु, निष्पक्षपाती, दोनों को भला चाहने-वाला द्वेषी, बन्धु और साधु तथा पापी इन सब में जो समान भाव रखता है वह श्रेष्ठ है।
योगी युंजीत सततमातमानं रहसि स्थित:।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह:।।10।।
चित्त स्थिर करके, वासना और संग्रह का त्याग करके, अकेला एकांत में रहकर योगी निरंतर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़े।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।11।।
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यततचित्तेन्द्रियक्रिय:।
उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।12।।
पवित्र स्थान में, न बहुत नीचा, न बहुत ऊंचा, ऐसा कुश, मृगचर्म और वस्त्र एक-पर-एक बिछाकर स्थिर आसन अपने लिए करके, वहाँ एकाग्र मन से बैठकर चित्त और इंद्रियों को वश करके आत्म-शुद्धि के लिए योग साधे।
समं कार्यशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दशश्चानवलोकयन्।।13।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्र ह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्य मच्चितों युक्त आसीत मत्पर:।।14।।
धड़, गर्दन और सिर एक सीध में अचल रखकर, स्थिर रहकर-इधर-उधर न देखता हुआ, अपने नासिकाग्र पर निगाह टिकाकार पूर्ण शांति से, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहकर, मन को मारकर, मुझमें परायण हुआ योगी मेरा ध्यान धरता हुआ बैठे।
टिप्पणी- नासिकाग्र से मतलब है भृकुटी के बीच का भाग।[1] ब्रह्मचारी व्रत का अर्थ केवल वीर्य-संग्रह ही नहीं है, बल्कि ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए आवश्यक अहिंसादि सभी व्रत हैं।
युजंन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।15।।
इस प्रकार जिसका मन नियम में है ऐसा योगी आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ता है और मेरी प्राप्ति में मिलने वाली मोक्षरूपी परमशान्ति प्राप्त करता है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।16।।
हे अर्जुन! यदि समत्वरूप योग न तो प्राप्त होता है ठूसंकर खाने वाले को, न उपवासी को, वैसी ही, वह बहुत सोने वाले या बहुत जागने वाले को प्राप्त नहीं होता।
समं कार्यशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दशश्चानवलोकयन्।।13।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्र ह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्य मच्चितों युक्त आसीत मत्पर:।।14।।
धड़, गर्दन और सिर एक सीध में अचल रखकर, स्थिर रहकर-इधर-उधर न देखता हुआ, अपने नासिकाग्र पर निगाह टिकाकार पूर्ण शांति से, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहकर, मन को मारकर, मुझमें परायण हुआ योगी मेरा ध्यान धरता हुआ बैठे।
टिप्पणी- नासिकाग्र से मतलब है भृकुटी के बीच का भाग।[1] ब्रह्मचारी व्रत का अर्थ केवल वीर्य-संग्रह ही नहीं है, बल्कि ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए आवश्यक अहिंसादि सभी व्रत हैं।
युजंन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:।
शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।15।।
इस प्रकार जिसका मन नियम में है ऐसा योगी आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ता है और मेरी प्राप्ति में मिलने वाली मोक्षरूपी परमशान्ति प्राप्त करता है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।16।।
हे अर्जुन! यदि समत्वरूप योग न तो प्राप्त होता है ठूसंकर खाने वाले को, न उपवासी को, वैसी ही, वह बहुत सोने वाले या बहुत जागने वाले को प्राप्त नहीं होता।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।17।।
जो मनुष्य आहार-विहार में, दूसरे कर्मों में, सोने-जागने में परिमित रहता है, उसका योग दु:खभंजन हो जाता है।
यदा विनियतं चित्तमातमन्येवाबतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।18।।
भली-भाँति नियमबद्ध मन जब आत्मा में स्थिर होता है और मनुष्य सारी कामनाओं से निस्पृह हो बैठता है तब वह योगी कहलाता है।
यथा दीपो निदातस्थो नेडते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मन:।।19।।
आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का प्रयत्न करने वाले स्थिर चित्त योगी की स्थिति वायु-रहित स्थान में अचल रहने वाले दीपक की-सी कही गई है।
यत्रोपरमते चितं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।20।।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:।।21।।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते।।22।।
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विष्णचेतसा।।23।।
योग के सेवन से अंकुश में आया हुआ मन जहाँ शांति पाता है, आत्मा से ही आत्मा को पहचानकर आत्मा में जहाँ मनुष्य संतोष पाता है और इंद्रियों से परे और बुद्धि से ग्रहण करने योग्य अनंत सुख का जहाँ अनुभव होता है, जहाँ रहकर मनुष्य मूल-वस्तु से चलायमान नहीं होता और जिसे पाने पर दूसरे किसी लाभ को वह उससे अधिक नहीं मानता और जिसमें स्थिर हुआ महादु:ख से भी डगमगाता नहीं, उस दु:ख के प्रसंग से रहित स्थिति को नामयोग की स्थिति समझना चाहिए। यह योग ऊबे बिना दृढ़तापूर्वक साधन योग्य है।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानिशेषत:।
मनसेवन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:।।24।।
शनै: शनैरूपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचदपि चिन्तयेत्।।25।।
संकल्प से उत्पन्न होने वाली सारी कामनाओं का पूर्ण रूप से त्याग करके, मन से ही इंद्रिय-समूह को सब ओर से भली-भाँति नियम में लाकर अचल बुद्धि से योगी धीरे-धीरे शांत होता जाये और मन को आत्मा में पिरोकर, दूसरी बात का विचार न करे।
यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्येतदात्मन्येव वशं नयेत्।।26।।
जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भागे, वहाँ-वहाँ से योगी उसे नियम में लाकर अपने वश में लावे।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।27।।
जिसका मन भली-भाँति शांत हुआ है, जिसके विकार शांत हो गए हैं, ऐसा ब्रह्ममय हुआ निष्पाप योगी अवश्य उत्तम सुख प्राप्त करता है।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।28।।
आत्मा के साथ निरन्तर अनुसंधान करते हुए पाप-रहित हुआ यह योगी सरलता से ब्रह्मप्राप्ति-रूप अनंत सुख का अनुभव करता है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूता न चात्मनि।
इक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:।।29।।
सर्वत्र समभाव रखने वाला योगी अपने को सब भूतों में और सब भूतों को अपने में देखता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।30।।
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, वह मेरी दृष्टि से ओझल नहीं होता और मै उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होता।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।31।।
मुझमें लीन हुआ जो योगी भूत मात्र में रहने वाले मुझको भजता रहता है, वह चाहे जिस तरह बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है।
टिप्पणी- ʻआप̕ जब तक है तब तक तो परमात्मा ʻपर̕ है, ʻआप̕ मिट जाने पर, शून्य होने पर ही एक परमात्मा को सर्वत्र देखता है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:ख स योगी परमो मत:।।32।।
हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने जैसा सबको देखता है और सुख हो या दु:ख, दोनों को समान समझता है, वह योगी श्रेष्ठ गिना जाता है।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।33।।
अर्जुन बोले-
हे मधुसूदन ! यह[1] योग जो आपने कहा, उसकी स्थिरता मैं चंचलता के कारण नहीं देख पाता।
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदृष्करम्।।34।।
क्योंकि, हे कृष्ण! मन चंचल ही है, मनुष्य को मथ डालता है और बड़ा बलवान है। जैसे वायु का दबाना बहुत कठिन है वैसे मन का वश करना भी मैं कठिन मानता हूँ।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहों मनो दुनिंग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहृते।।35।।
श्रीभगवान बोले-
हे महाबाहो! सच है कि मन चंचल होने के कारण वश में करना कठिन है। पर हे कौंतेय! अभ्यास और वैराग्य से वह वश में किया जा सकता है।
असंयातात्मना योगो दुष्प्राप इति मेमति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:।।36।।
मेरा मत है कि जिसका मन अपने वश में नहीं है, उसके लिए योग साधना बड़ा कठिन है; पर जिसका मन अपने वश में है और जो यत्नवान है वह उपाय द्वारा साध सकता है।
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कांगति कृष्ण गच्छति।।37।।
अर्जुन बोले-
हे कृष्ण! जो श्रद्धावान तो है पर यत्न में मंद होने के कारण योग-भ्रष्ट हो जाता है, वह सफलता न पाने पर कौन-सी गति पाता है?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढ़ो ब्रह्मण: पथि।।38।।
हे महाबाहो! योग से भ्रष्ट हुआ, ब्रह्ममार्ग में भटका हुआ वह भिन्न भिन्न बादलों की भाँति उभयभ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेतुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्य पुपद्यते।।39।।
हे कृष्ण! मेरा यह संशय दूर करने में आप समर्थ हैं। आपके सिवा दूसरा कोई इस संशय को दूर करने वाला नहीं मिल सकता।
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गति तात गच्छति।।40।।
श्रीभगवान बोले-
हे पार्थ! ऐसे मनुष्यों का नाश न तो इस लोक में होता है, न परलोक में। हे तात! कल्याण मार्ग में जाने वाले की कभी दुर्गति होती ही नहीं।
प्राप्य पुण्कृतां लोका-
नुषित्वा शाश्वती: समा:।
शूचीनां श्रीमतां गेहे
योगभ्रष्टोऽभिजायते।।41।।
पुण्यशाली लोगों को मिलने वाले स्थान को पाकर और वहां बहुत समय तक रहकर योग-भ्रष्ट मनुष्य पवित्र और साधन- वाले के घर जन्म लेता है।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।42।।
या ज्ञानवान योगी के ही कुल में वह जन्म लेता है। संसार में ऐसा जन्म अवश्य बहुत दुर्लभ है।
तत्र तं बुद्धियोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन।।43।।
हे कुरुनन्दन! वहाँ उसे पूर्व-जन्म के बुद्धि-संस्कार मिलते हैं और वहाँ से वह मोक्ष के लिए आगे बढ़ता है।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मतिवर्तते।।44।।
उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश्य योग की ओर खिंचता है। योग का जिज्ञासु तक सकाम वैदिक कर्म करने वाले की स्थिति को पार कर सकता है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विष:।
अनेकजन्मसंसिद्ध स्ततो यति परां गतिम्।।45।।
लगन से प्रयत्न करता हुआ योगी पाप से छूटकर अनेक जन्मों से विशुद्ध होता हुआ परमगति को पाता है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी
ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक:।
कमिंभ्यश्चाधिको योगी
तस्माद्योगी भवार्जुन।।46।।
तपस्वी से योगी अधिक है, ज्ञानी से भी वह अधिक माना जाता है, वैसे ही कर्मकांडी से वह अधिक है, इसलिए हे अर्जुन! तू योगी बन।
टिप्पणी- यहाँ तपस्वी की तपस्या फलेच्छायुक्त है। ज्ञानी से मतलब अनुभव ज्ञानी से नहीं है।
योगिनामपि सर्वेषां मद् गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:।।47।।
सारे योगियों में भी उसे मैं सर्वश्रेष्ठ योगी मानता हूँ जो मुझमें मन पिरोकर मुझे श्रद्धापूर्वक भजता है।