ज्ञानविज्ञान योग

 


इस अध्‍याय में वह समझाना आरंभ किया गया है कि ईश्वरत्त्व और ईश्वर भक्ति क्‍या है।

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्‍तमना: पार्थ योगं युञ्जन्‍मदाश्रय:।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्‍यति तच्‍छृणु।।1।।


श्रीभगवान बोले-


हे पार्थ! मेरे में मन पिरोकर और मेरा आश्रय लेकर योग साधता हुआ तू निश्‍चयपूर्वक और संपूर्ण रूप से मुझे किस तरह पहचान सकता है सो सुन।


ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्‍याम्‍यशेषत:।

यज्‍ज्ञात्‍वा नेह भूयोऽन्‍यज्‍ज्ञातव्‍यमवशिष्‍यते।।2।।


अनुभवयुक्‍त यह ज्ञान में तुझे पूर्णरूप से कहूंगा। इसे जानने के बाद इस लोक में अधिक कुछ जानने को नहीं रह जाता।


मनुष्‍याणां सहस्‍त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्‍मां वेत्ति तत्त्वत:।।3।।


हजारों मनुष्‍यों में से कोई ही सिद्धि के लिए प्रयत्‍न करता है। प्रयत्‍न करने वाले सिद्धों में से भी कोई ही मुझे वास्‍तविक रूप से पहचानता है।


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं में भिन्‍ना प्रकृतिरष्‍टधा।।4।।


पृथ्‍वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंभाव- यह आठ प्रकार की मेरी प्रकृति है।


टिप्‍पणी- इन आठ तत्‍वों वाला स्‍वरूप क्षेत्र या क्षर पुरुष है।


अपरेयमितस्‍त्‍वन्‍यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। 

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।5।। 

यह अपरा प्रकृति हुई। इससे भी ऊँची परा प्रकृति है, जो जीवरूप है। हे महाबाहो! यह जगत उसके आधार पर निभ रहा है। 

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्‍युपधारय। 

अहं कृत्‍सन्‍स्‍य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।।6।। 

भूतमात्र की उत्‍पत्ति का कारण तू इन दोनों को जान। समूचे जगत की उत्‍पत्ति और लय का कारण मैं हूँ। 

मत्त: परतरं नान्‍यत्किंचिदस्ति धनंजय। 

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7।। 

हे धनंजय! मुझसे उच्‍च दूसरा कुछ नहीं है। जैसे धागे में मनके पिरोये हुए रहते हैं वैसे यह मुझमें पिरोया हुआ है। 

रसोऽहमप्‍सु कौन्‍तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:। 

प्रणव: सर्ववेदेषु शब्‍द: खे पौरूषं नृषु।।8।। 

है कौंतेय! जल में रस मैं हूं, सूर्य-चंद्र में तेज मै हूं; सब वेदों में ओंकार मैं हूं, आकाश में शब्‍द मैं हूँ और पुरुषों का पराक्रम मैं हूँ।


पुण्‍यो गन्‍ध: पृथिव्यां च तेजश्‍चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्‍चास्मि तपस्विषु।।9।।


पृथ्‍वी में सुगंध मैं हूं, अग्नि में तेज मैं हूं, प्राणीमात्र का जीवन मैं हूं, तपस्‍वी का तप मैं हूँ।


बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्‍तेजस्विनामहम् ।।10।।


हे पार्थ! समस्‍त जीवों का सनातन बीज मुझे जान। बुद्धिमान की बुद्धि मैं हूं, तेजस्‍वी का तेज मै हूँ।


बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।11।।


बलवान काम और रागरहित बल मैं हूँ और हे भरतर्षम ! प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम मैं हूँ।


ये चैव सत्त्विका भावा राजसास्‍तामसाश्‍च ये।

मत्त एवेति तान्विद्धि त्‍वहं तेषु ते मयि।।12।।


जो-जो सात्त्विक, राजसी और तामसी भाव हैं, उन्‍हें मुझसे उत्‍पन्‍न हुआ जान। परंतु मैं उनमें हूं, ऐसा नहीं है; वे मुझमें हैं।


टिप्‍पणी- इन भावों पर परमात्मा निर्भर नहीं है, बल्कि वे भाव उस पर निर्भर हैं। उसके आधार पर हैं, रहते हैं और उसके वश में है।


त्रिभिर्गुणमयैभविरैभि: सर्वमिदं जगत्।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्‍य: परमव्‍ययम्।।13।।


इन त्रिगुणी भावों से सारा संसार मोहित हो रहा है और इसलिए उसने उच्‍च और भिन्‍न ऐसे मुझको, अविनाशी को वह नहीं पहचानता।


दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्‍यया।

मामेव ये प्रपद्यन्‍ते मायामेतां तरन्ति ते।।14।।


इस मेरी तीन गुणों वाली दैवी माया का तरना कठिन है; पर जो मेरी ही शरण लेते हैं वे इस माया को तर जाते हैं।


न मां दुष्‍कुतिनो मूढ़ा: प्रपद्यन्‍ते नराधमा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:।।15।।


दुराचारी, मूढ़, अधम मनुष्‍य मेरी शरण नहीं आते। वे आसुरी भाव वाले होते हैं और माया द्वारा उनका ज्ञान हरा हुआ होता है।


चतुर्विधा भजन्‍ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थो ज्ञानी च भरतर्षभ।।16।।


हे अर्जुन! चार प्रकार के सदाचारी मनुष्‍य मुझे भजते हैं- दुखी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्ति की इच्‍छा वाले और ज्ञानी।



तेषां ज्ञानी नित्‍ययुक्‍त एकभक्सिविंशिष्‍यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्‍यर्थमहं स च मम प्रिय:।।17।।


उनमें जो नित्‍य समभावी एक को ही भजने वाला है, वह ज्ञानी श्रेष्‍ठ है। मैं ज्ञानी को अत्‍यन्‍त प्रिय हूँ और ज्ञानी मुझे प्रिय है।


उदारा: सर्व एवैते   ज्ञानी त्‍वात्‍मैव से मतम्।

आस्थित: स हि युक्‍तात्‍मा  मामेवानुत्तमां गतिम्।।18।।


ये सभी भक्त अच्‍छे हैं, पर ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है, ऐसा मेरा मत है; क्‍योंकि मुझे पाने के सिवा दूसरी अधिक उत्तम गति है ही नहीं, यह जानता हुआ वह योगी मेरा ही आश्रय लेता है।


बहूनां जन्‍मनामन्‍ते ज्ञानवान्‍मां प्रपद्यते।

वासुदेव: सर्वमिति स महात्‍मा सुदुर्लभ:।।19।।


बहुत जन्‍मों के अंत में ज्ञानी मुझे पाता है। सब वासुदेवमय है, यों जानने वाला महात्‍मा बहुत दुर्लभ है।


कामैस्‍तैस्‍तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्‍तेऽन्‍यदेवता :।

तं तं नियममास्‍थाम प्रकृत्‍या नियता: स्‍वया।।20।।


अनेक कामनाओं से जिन लोगों का ज्ञान हरा गया है, वे अपनी प्रकृति के अनुसार भिन्‍न-भिन्‍न विधि का आश्रय लेकर दूसरे देवताओं की शरण जाते हैं।


यो यो यां यां तनुं भक्‍त: श्रद्धयाचिंतुमिच्‍छति।

तस्‍य तस्‍याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्‍यहम्।।21।।


जो-जो मनुष्‍य जिस-जिस स्‍वरूप की भक्ति श्रद्धापूर्वक करना चाहता है, उस-उस स्‍वरूप में उसकी श्रद्धा को मैं दृढ़ करता हूँ।


स तथा श्रद्धया युक्‍तस्‍तस्‍याराधनमीहते।

लभते च तत: कामान्यैव विहितान्हि तान्।।22।।


श्रद्धापूर्वक उस-उस स्‍वरूप की वह आराधना करता है और उसके द्वारा मेरी निर्मित की हुई और अपनी इच्छित कामनाएं पूरी करता है।


अन्‍तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्‍यल्‍पमेधसाम्।

देवान्‍देवयजो शान्ति मद्भक्‍ता यान्ति मामपि।।23।।


उन अल्‍प बुद्धिवालों को जो फल मिलता है वह नाशवान होता है। देवताओं को भजने वाले देवताओं को पाते हैं, मुझे भजने वाले मुझे पाते हैं।


अव्‍यक्‍तं व्‍यक्तिमापन्‍नं मन्‍यन्‍ते मामबुद्धय:।

परं भावमजानन्‍तो ममाव्‍ययमनुत्तमम्।।24।।


मेरे परम अविनाशी और अनुपम स्‍वरूप को न जानने वाले बुद्धिहीन लोग इंद्रियों से अतीत मुझको इंद्रियगम्‍य मानते हैं।


नाहं प्रकाश: सर्वस्‍य योगमायासमावृत:।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्‍ययम्।।25।।


अपनी योगमाया से ढका हुआ मैं सबके लिए प्रकट नहीं हूँ। यह मूढ़ जगत मुझ अजन्‍मा और अव्‍यय को भलीभाँति नहीं पहचानता।


टिप्‍पणी- इस दृश्‍य जगत को उत्‍पन्‍न करने का सामर्थ्‍य होते हुए भी अलिप्‍त होने के कारण परमात्मा के अदृश्‍य रहने का जो भाव है वह उसकी योगमाया है।


वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।

भविष्‍याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्‍चन।।26।।


हे अर्जुन! जो हो चुके हैं, जो हैं और होने वाले सभी भूतों को मैं जानता हूं, पर मुझे कोई नहीं जानता।


इच्‍छाद्वेषसमुत्‍थेन द्वनद्वमोहेन भारत।

सर्वभू‍तानि समोहं सर्गे यान्ति परतप।।27।।


हे भारत! हे परंतप! इच्‍छा और द्वेष से उत्‍पन्‍न होने वाले सुख-दु:खादि द्वंद्व के मोह से प्राणी मात्र इस जगत में मोह-ग्रस्‍त रहते हैं।


येषां त्‍वन्‍तगतं पापं जानानां पुण्‍यकर्मणा्म।

तेद्वन्‍द्वमोहनिर्मुक्‍ता भजन्‍ते मां दृढव्रता:।।28।।


पर जिन सदाचारी लोगों के पापों का अंत हो चुका है और जो द्वंद्व के मोह से युक्‍त हो गये हैं वे अटल व्रत वाले मुझे भजते हैं।


जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्‍य यतन्ति ये।

ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्‍स्‍न्‍मध्‍यात्‍मं कर्म चाखिलम्।।29।।


जो मेरा आश्रय लेकर जरा और मरण से मुक्‍त होने का प्रयत्‍न करते है वे पूर्णब्रह्म को, अध्‍यात्‍म को और अखिल कर्म को जानते हैं।


साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्‍तचेतस:।।30।।


अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ युक्‍त मुझे जिन्‍होंने पहचाना है, वे समत्‍व को पाये हुए मुझे मृत्‍यु के समय भी पहचानते हैं।


टिप्‍पणी- अधिभूतादि का अर्थ आठवें अध्‍याय में आता है। इस श्‍लोक का तात्‍पर्य यह है कि इस संसार में ईश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं है और समस्‍त कर्मों का कर्ता-भोक्‍ता वह है, ऐसा समझकर जो मृत्‍यु के समय शांत रहकर ईश्वर में ही तन्‍मय रहता है तथा कोई वासना उस समय जिसे नहीं होती, उसने ईश्वर को पहचाना है और उसने मोक्ष पाई है।



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