संसार-प्रवाह

 


(22.1) मनः कर्म-मयं नृणां इंद्रियैः पंचभिर् युतम् । लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ॥

मरने के बाद मनुष्य एक लोक से दूसरे लोक में जाता है। लोकात् लोकं प्रयाति – एक लोक को छोड़कर अन्य लोक में प्रयाण करता है, यानि चला जाता है। प्रयाति यानि प्रयाण करना। मन अकेला नहीं जाता। अपने साथ और भी कुछ लेकर जाता है। कह रहे हैं कि मन कर्म को लेकर जाता है और पाँच इन्द्रियों को लेकर जाता है। कोई कहेगा : ‘मरने के बाद इन्द्रियाँ तो जैसी-की-तैसी देह के साथ जुड़ी रहती हैं। देह के साथ ही आँख, कान, नाक – सारी इन्द्रियाँ चलायी जाती हैं। मन के साथ तो इन्द्रियाँ जाती नहीं!’ लेकिन बात ऐसी नहीं है। हम इन्द्रियों को नहीं जलाते। हम जलाते हैं, देह को। मरने के बाद आँखें तो रहती हैं, पर दर्शन-शक्ति नहीं रहती, दर्शन की वासना नहीं रहती। कान हैं, लेकिन कान की शक्ति नहीं, श्रवण की वासना नहीं। मन के कारण वासना रहती है और प्राण के कारण शक्ति। सुनने और देखने की वासना लेकर मन जाता है। फिर कर्म क्या चीज है? कर्म का फल भोगना पड़ेगा। यह संसार-प्रवाह का अध्याय है। संसार यानि बहाव। संसार सतत बह रहा है। संसरण्म् यानि बहाव। कर्म और इन्द्रियों के साथ मन कहाँ-से-कहा जाता है? तो कहते हैं : लोकात् लोकम्। आत्मा क्या करता है? आत्मा बिलकुल अलग है – अन्यः। आत्मा तदनुवर्तते – आत्मा मन के पीछे-पीछे जाता है। आत्मा यानि जीवात्मा। ‘कुरान’ में इसे ‘रूह’ कहा है। मुहम्मद पैगम्बर से पूछा गया : ‘क्या तुम रूह जानते हो?’ तो उन्होंने उत्तर दिया : ‘यदि मैं जानता, तो कुल दुनिया पर मेरी सत्ता चलती।’ इसका अर्थ है कि जीव-विषय हमारे हाथ में नहीं। यह बात सही है। 


(22.2) नित्यदा ह्यंग! भूतानि भवन्ति न भवन्ति च । कालेनालक्ष्य-वेगेन सूक्ष्मत्वात् तन्न दृश्यते॥

 अंग संबोधन जैसा दीखता है, लेकिन यह संबोधन नहीं, अव्यय है। अरे! ये प्राणी सतत प्रकट होते और लुप्त हो जाते हैं – भूतानि भवन्ति न भवन्ति च। अभी हम यहाँ बैठे हैं। घण्टे भर बैठे ही रहेंगे यानि हम कायम रहेंगे। लेकिन भागवत कहती है कि ऐसी बात नहीं। मनुष्य प्रतिक्षण मरता और पैदा होता है। मरने और पैदा होने की यह क्रिया अतिशय वेग से चल रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जिसे हम निद्रा कहते हैं, उसमें भी एक क्षण निद्रा रहती है और दूसरे क्षण जागृति। इसी तरह जिसे जागृति कहते हैं, उसमें एक क्षण जागृति तो दूसरे क्षण निद्रा रहती है। निद्रा में निद्रा के क्षण अधिक होते हैं, इसलिए उसे ‘निद्रा’ कहते हैं और जागृति में अधिक क्षण जागृति रहती है, इसलिए उसे ‘जागृति’ कहते हैं। इसी तरह भागवत कहती है कि प्रत्येक वाणी प्रतिक्षण मरता और जन्म पाता है। पर यह क्रिया समझ में नहीं आती, क्योंकि यह सूक्ष्म है और काल का वेग है तीव्र – कालेन अलक्ष्य-वेगेन सूक्ष्मत्वात्। इसलिए हमें भास नहीं होता कि प्राणि प्रतिक्षण मरता और पैदा होता है। इसी का अधिक स्पष्टीकरण आगे के श्लोक में किया जाता है:

(22.3) सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्धत् स्रोतसां तदिदं जलम् । सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर् धीर् मृषायुषाम् ॥

हमें भास होता है कि वही दीप जल रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है। पुराना जाता है और नया आता है। अर्चषाम् यानि ज्वालाएँ। ज्वालाएँ जल रही हैं, उनमें हमें सातत्य का भास होता है। वे सतत जलती हैं। हमें लगता है कि दीपक जल रहा है। गंगा का पानी बह रहा है, लेकिन वही पानी नहीं बहता। पुराना पानी जाता और नया आता है, लेकिन हमें भास होता है कि वही पानी बह रहा है। इसी तरह ‘यह वही आदमी है’ ऐसा मिथ्याभास हमें होता है। आदमी वही पुराना नहीं है, वह बदल गया है। अभी एक, दूसरे क्षण में दूसरा, तीसरे क्षण में तीसरा, ऐसा सतत बदलता है। इसलिए कभी किसी से गुस्सा नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने अपराध किया, वह तो खतम हो गया। दूसरे क्षण वह रहा ही नहीं। रवीन्द्रनाथ ने कहा है : नूतन करे नूतन प्राते – हर प्रातःकाल नया व्यवहार करो। यहाँ रवीन्द्रनाथ एक दिन की ही बात कहते हैं। लेकिन भागवत प्रतिक्षण की बात करती है। मनुष्य को प्रतिक्षण बदल रहा है। प्रायः होता क्या है? राम ने अपराध किया, गोविन्द पर मुकदमा चलाया, कृष्ण को सजा दी और हरि को फाँसी चढ़ाया। जिसने अपराध किया, वह दूसरे क्षण रहा ही नहीं। जिसने अपराध किया, वह पुराना हो गया। यदि यह बात ध्यान में रखें, तो पुरानी बातें चित्त से चिपकी नहीं रहेंगी। पुरानी चीजें ध्यान में रखनी ही नहीं चाहिए। अब सवाल पूछा जायेगा कि मनुष्य का अखण्ड अनुसन्धान न हो, तो कर्मफल का क्या होगा? व्यवहार भी खतम होगा। एक आदमी था, वह एक होटल में भोजन के लिए गया। अच्छा भोजन कर लिया। भोजन का पैसा देना था। वह मैनेजर के पास गया और कहने लगा कि ‘संसार का चक्र तो चलता ही रहेगा। आदमी मरता है और फिर जन्म पाता है। इसलिए मैं आगे आने वाला हूँ, तब तुम्हारे पैसे दूँगा।’ मैनेजर ने कहा : ‘आप कहते हैं, वह बात तो ठीक है। लेकिन इसके पहले आप जो खाये थे, उसका पैसा तो दे दीजिये, उसे लिये बगैर मैं आपको छोड़ूँगा नहीं।’ समझना चाहिए कि भागवत का अक्षरशः अर्थ करेंगे, तो व्यवहार ही नहीं चलेगा। यहाँ जो कहा है, वह दर्शन के तौर पर नहीं। उसका अर्थ यह है कि मनुष्य में परिवर्तन हुआ होगा, वह जानने की वृत्ति होनी चाहिए। ‘वही यह मनुष्य है’ – यह भाषा, वाणी - गीर् और यह बुद्धि - धीर् व्यर्थ ही है। कहा गया है कि सात साल में शरीर का खून बदल जाता है। पहले जमाने में तपस्या बारह साल की मानी जाती थी यानि उस अवधि में मनुष्य पूरा बदल जाता है, ऐसा माना जाता था। भागवत में जो ‘प्रतिक्षण बदल’ की बात कही गयी, वह उत्कट भावना के कारण है। यदि यह बात ध्यान में आ जाए, तो दुनिया के सारे झगड़े ही खतम हो जायेंगे। फिर पुराने बुरे भाव ध्यान में क्यों रखे जायेंगे? मनुष्य प्रतिक्षण बदलता है, यह मानने में दार्शनिक प्रश्न खड़े होंगे। लेकिन दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि करेंगे। भागवत के सामने तो जीवन-दृष्टि का ही प्रश्न है। मनुष्य का शरीर तो बदलता ही है। बच्चा घर से चला गया और बारह साल बाद घर आया, तो माँ ने पहचाना नहीं – ऐसी कहानियाँ सुनते ही हैं। जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे शरीर जीर्ण होता है। बचपन में मैं जैसा था, वैसा अभी नहीं हूँ। पहले रोज दस-बारह मील चलता था, लेकिन अब दिनभर में दो बार मिलकर डेढ़ मील चलता हूँ। मन को तो सवाल ही नहीं। फिर दिनभर में तीन गुणों का चक्कर तो चलता ही है। रात में तमोगुण आता है, दिन में रजोगुण काम करता है। सुबह-शाम तो सत्त्वगुण होता है। गुण भी बदलते रहते हैं। पूछा जायेगा कि मनुष्य बदलता है, तो कर्म-फल कौन भोगेगा? समझने की बात है कि कर्म-फल से हम तुरन्त मुक्त हो सकते हैं, यदि अहंकार से मुक्त हो जाएँ। लेकिन मनुष्य अपने अहंकार से चिपका रहता है। अहंकार छूट जाता है, तो पुराने पाप खतम हो जाते हैं। लेकिन अहं कहाँ छूटता है? ‘यह मैंने किया, वह मैंने किया’ – इस तरह का अहंकार मनुष्य को रहता ही है। इसलिए उसे पाप-पुण्य का फल भोगना ही पड़ता है। अहंकार को तोड़ सकें, तो सबसे मुक्त हो सकते हैं। अतः अहंकार-मुक्ति ही मुख्य बात है।


(22.4) निषेक-गर्भ-जन्मानि बाल्य-कौमार-यौवनम् । वयोमध्यं जरा मृत्युर् इत्यवस्थास् तनोर् नव ॥

यहाँ मनुष्य की नौ अवस्था बतायी गयी हैं। वीर्य-बिन्दु से लेकर मृत्यु तक नौ अवस्थाएँ। शेक्सपीयर ने ‘सेवन स्टेजेज़ ऑफ मैन’ (मनुष्य की सात अवस्थाएँ) लिखा है। मनुष्य नाटक कर रहा है और वह सात अवस्थाओं में प्रकट होता है। पर भागवत नौ अवस्थाएँ बता रही है। भावार्थ यही है कि बचपन से मरने तक वही शरीर नहीं रहता और मन भी वह नहीं रहता। लेकिन इतना होते हुए भी आत्मा सत्य है। परिणाम क्या होता है? कहते हैं :

(22.5) प्रकृतेरेवमात्मानं अविविच्याबुधः पुमान् । तत्त्वेन स्पर्श-संमूढः संसारं प्रतिपद्यते ॥

प्रकृति का, मन का प्रवाह बह रहा है, लेकिन आत्मा अखण्ड कायम है। नदियों का पानी बहता ही रहता है। पुराना जाता और नया आता है, लेकिन नदी कायम है। उसका मूल कायम है। ठीक इसी तरह आत्मा प्रकृति से अलग है, मन से भी अलग है। फिर भी हम आत्मा को प्रकृति से अलग नहीं करते : अविविच्य – अविवेक के कारण। धान का छिलका हटाने पर ही हमें चावल मिलता है। छिलका हटाना ही पड़ता है। लेकिन मूर्ख मनुष्य प्रकृति से, मन से आत्मा को अलग नहीं समझता। अतएव वह स्पर्श-संमूढ बनता है, यानि स्पर्श के मोह में पड़कर फँसता है। इसी कारण उसके पीछे संसार लग जाता है। यहाँ विषयासक्त को ‘स्पर्श-संमूढ’ कहा है। जो स्पर्श के मोह में पड़ता है, वह मरे हुए मनुष्य को भी पकड़ता है, विवेक नहीं करता। विवेक के अभाव में ही मनुष्य स्पर्श-संमूढ बनता है। फिर संसार प्राप्त करता है। संसार यानि बहना। इसलिए तत्त्वेन – तत्त्वज्ञान से, प्रकृतेः – प्रकृति से, आत्मानम् – आत्मा को, अलग कर लेना चाहिए। अविविच्य – अविवेक के कारण मनुष्य ऐसा न करके। अबुधः – मूढ़ बनता है। आखिर में भगवान उद्धव को आज्ञा दे रहे हैं। उद्धव भगवान का बड़ा प्यारा था। भगवान के दो प्रिय मित्र थे – अर्जुन और उद्धव। अर्जुन को उन्होंने ‘गीता’ में उपदेश दिया है। तो उद्धव को ‘भागवत’ में। अर्जुन से कृष्ण सोलह साल बड़े थे, लेकिन उद्धव तो कृष्ण के बालमित्र थे, बालपन के साथी! इसीलिए बड़े प्यार से उसे कह रहे हैं : 

(22.6) तस्मादुद्धव ! मा भुंक्ष्व विषयान् असदिंद्रियैः । आत्माग्रहण-निर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम् ॥

हे उद्धव! मा भुंक्ष्व विषयान् – तू (इन्द्रियों द्वारा) विषय-भोग में मत पड़े। ये इन्द्रियाँ असत हैं – असत्-इंद्रियैः। ये तुझे ठगेंगी। तू इनके वश में मत जा और पश्य – देख, वैकल्पिकं भ्रमम् – काल्पनिक, भ्रम, जो आत्माग्रहण-निर्भातम् – आत्मतत्त्व के अग्रहण के कारण भासित हो रहा है, क्या भासित होता है? कल्पना, विकल्पों का भ्रम। यहाँ भगवान् ने उद्धव को आज्ञा की है। शास्त्र में आज्ञा या आदेश का बहुत महत्त्व माना जाता है। सारा बोध देने के बाद अन्त में भगवान आदेश दे रहे हैं : पश्य यानि देख! आत्मा के अग्रहण से भासित हुआ वैकल्पिक भ्रम है, यह देख। समझने की बात है कि मन ही आया-जाया करता है। वह एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और उसके पीछे-पीछे आत्मा भी जाता है। यह प्रतिक्षण होता रहता है। लेकिन काल-चक्र अत्यन्त वेग से चलायमान होने के कारण स्थिरता का भास होता है। नदी बह रही है, दीप जल रहा है, मनुष्य भी बदल रहा है। इसलिए अपने को परिवर्तनशील, बदलने वाली देह से अलग कर। यह कपड़ा फटने वाला है। इस फटने वाले कपड़े से अलग न होने के कारण ही मनुष्य स्पर्श-संमूढ़ होता है। इसलिए उद्धव! तू विषयों को छू मत!


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