गीता का संदर्भ

 



संसार में कितने ही सद्ग्रंथ हैं, वैदिक और अलौकिक भी, कितने ही आगम-निगम और स्मृति-पुराण हैं, कितने ही धर्म और दर्शन शास्त्र हैं, कितने ही मत, पंथ और संप्रदाय हैं। अधकचरे ज्ञानी अथवा सर्वथा अज्ञानी मनुष्यों के विविध मन इन सब में ऐसी अनन्य-बुद्धि और आवेश-से अपने-आपको बांधे हुए हैं कि जो कोई जिस ग्रंथ या मत को मानता है उसी को सब कुछ जानता है, यह देख भी नहीं पाता कि उसके परे और भी कुछ है। वह अपने चित्त में ऐसा हठ पकड़े रहता है कि बस यहीं या वही ग्रंथ भगवान का सनातन वचन है और बाकी सब ग्रंथ या तो केवल ढोंग हैं या यदि उनमें कहीं कोई भगवत्प्रेरणा या भाव है तो वह अधूरा है, और इसी तरह से ऐसा हठ कि हमारा अमुख दर्शन ही बुद्धि की पराकाष्ठा है- बाकी सब दर्शन या तो केवल भ्रम हैं अथवा उनमें यदि कहीं आंशिक सत्य है भी तो उतना ही है जो उनके एकमात्र सच्चे दार्शनिक संप्रदाय के अनुकूल है। भौतिक विज्ञान के आविष्कारों का भी एक संप्रदाय-सा बन गया है और उसके नाम पर धर्म और अध्यात्म को अज्ञान और अंधविश्वास तथा दर्शन-शास्त्र को कूडा-करकट और ख्याली पुलाव कहकर उड़ा दिया गया है। और, बड़े मजे की बात तो यह है कि बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी प्रायः इन पक्षपातपूर्ण आग्रहों और व्यर्थ के झगड़ों में पड़कर इन्हें पुष्टि देते रहे हैं, कोई तमोभाव ही उनके निर्मल सात्त्विक ज्ञान के प्रकाश में मिलकर, उसे बौद्धिक अहंकार या आध्यात्मिक अभिमान से ढककर उन्हें इस प्रकार भटकाता रहा है। 


अब अवश्य ही मनुष्य-जाति पहले की अपेक्षा कुछ अधिक विनयशील और समझदार होती हुई दीख पड़ती है; अब हम लोग अपने भाईयों को ईश्वरीय सत्य के नाम पर कत्ल नहीं करते, न इसलिये मार ही डालते हैं कि उनके अंतःकरणों की शिक्षा-दीक्षा हम लोगों की शिक्षा-दीक्षा से भिन्न है या उन अंतःकरणों का सांचा-ढांचा कुछ और ही प्रकार का है, अब हम लोग अपने पड़ोसियों को, अपनी राय से भिन्न राय रखने की हिमाक़त या जुर्रत करने पर, कोसते या भला-बुरा कहते कुछ सकुचाते हैं, अब तो हम लोग यह भी स्वीकार करने लगे हैं कि सत्य सर्वत्र है, केवल हम ही उसके ठेकेदार नहीं, अब हम दूसरे धर्मों और दर्शनों को भी देखने लगे हैं इसलिये नहीं कि उन्हें के झूठा साबित करके बदनाम करें, बल्कि इसलिये कि देखें उनमें कहाँ क्या सदुपदेश हैं और उससे हमें क्या सहायता मिल सकती है। परंतु फिर भी हमें यह कहने का अभ्यास अभी तक बना हुआ है कि हम जिसे सत्य कहते और मानते हैं वही वह परम ज्ञान है जो अन्य धर्मों या दर्शनों को नहीं मिला और यदि मिला भी है तो अंशमात्र अधूरे तौर पर, अर्थात उनमें सत्य केवल उन गौण और निम्नतर अंगों का ही निरूपण है जो कम विकसित लोगों के लिये ही उपयोगी हैं या उन्हें हमारी ऊंचाईयों तक उठाने कि लिये निम्न साधनमात्र हैं।


और, अभी तक हम लोगों की प्रवृत्ति ऐसी ही बनी हुई है कि जिस किसी सद्ग्रंथ या सदुपदेश का हम लोग आदर करते हैं उसी को सर्वांग रूप से सर्वथा ब्रह्मवाक्य मानते और सिर-आंखो पर रखते हैं तथा इसी रूप में उसे दूसरों पर भी जबर्दस्ती इस आग्रह के साथ लादना चाहते हैं कि यह सारे-का-सारा इसी रूप में स्वतः प्रमाण सनातन सत्य है, इसके एक अक्षर या मात्रा को भी इधर-से-उधर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये भी उसी एक अपरिमेय प्रेरणा के अंश हैं। 


इसलिये वेद, उपनिषद अथवा गीता जैसे प्राचीन सद्ग्रंथ का विचार करने में प्रवृत्त होते हुए, आरंभ में ही यह बतला देना बहुत अच्छा होगा कि हम किस विशिष्ट भाव से इस कार्य में लग रहे हैं और हमारी समझ में इससे मानव-जाति तथा उसकी भावी संतति का क्या वास्तविक लाभ होगा। सबसे पहली बात है कि हम निश्चय ही उस परम सत्य को ढूंढ रहे हैं जो एक और सनातन है, जिससे अन्य सब सत्य पैदा होते हैं, जिसके प्रकाश में ही अन्य परम ज्ञान की योजना में अपना ठीक स्थान, व्याख्या और संबंध पाते हैं। परंतु इसी कारण वह परम सत्य किसी एक पैने सूत्र के अंदर बंद नहीं किया जा सकता अर्थात यह संभव नहीं है कि वह परम सत्‍य पूरी तरह और पूर्ण रूप में किसी एक दर्शन-शास्त्र या किसी एक सद्ग्रंथ में प्राप्त हो जाये, न यही संभव है कि किसी एक गुरु, मनीषी, पैगंबर या अवतार के मुख से वह सदा के लिये सर्वांश में निकला हो और यदि परम सत्य कि विषय में हमारी कल्पना या भावना कुछ ऐसी हो जिससे अपने से इतर संप्रदायों के आधारभूत सत्यों के प्रति असहिष्णु होकर हमें उनका बहिष्कार करना पड़े तो यह समझना चाहिये कि हमें उस परम सत्य का पूरा पता नहीं चला; कारण जब हम इस प्रकार अंध आवेश में आकर किसी सिद्धांत का बहिष्कार करने पर तुल जाते हैं तब इसका मतलब केवल इतना ही होता है कि हम उसको समझने या समझाने के पात्र नहीं हैं। 


दूसरी बात यह है कि वह परम सत्य यद्यपि एक और सनातन है, पर वह अपने-आपको काल में और मनुष्य की मन-बुद्धि में से होकर प्रकट करता है, और इसलिये प्रत्येक सद्ग्रंथ में दो तरह की बातें हुआ करती हैं, एक सामयिक, नश्वर, देश-विशेष और काल-विशेष से संबंध रखने वाली, और दूसरी शाश्वत, अविनश्वर, सब कालों और देशों के लिये समान रूप से उपयोगी और व्यवहार्य। फिर यह भी बात है कि परम सत्‍य के विषय में जब जो कुछ कहा जाता है वह जिस रूप में, जिस विचार-पद्धति और अनुक्रम से, जिस आध्यात्मिक और बौद्धिक सांचे में ढालकर कहा जाता है, उसके लिये जिन विशेष शब्दों का प्रयोग किया जाता है वे सब अधिकांश काल की परिवर्तनशील गति के अधीन होते हैं और उनकी शक्ति सदा एक-सी नहीं रहती, क्योंकि मानव-बुद्धि सदा बदलती रहती है; यह सदा ही विविध तथ्यों को एक-दूसरे से पृथक करके देखती और फिर उन्हें एक साथ जुटाती हुई अपने विभाजन और समन्वयों का क्रम सदा बदला करती है।


वह सदा प्राचीन शब्द-प्रयोगों और संकेतों को पीछे छोड़ती और नये शब्द और संकेत गढ़ा करती है, यदि प्राचीन प्रयोगों का फिर से उपयोग करती भी है तो उनके अर्थ या कम-से-कम उनके गूढ़ आशय या संगति को बहुत कुछ बदल देती है। हम आज किसी प्राचीन सद्ग्रंथ को समझना चाहें तो पूर्ण निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि जिस समय यह ग्रंथ उस समय के लोगों में उसे जिस भाव से देखा या उससे जो अर्थ ग्रहण किया ठीक उसी भाव और अर्थ को हम भी ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये ऐसे सद्ग्रंथों में संपूर्ण रूप से चिरंतन महत्त्व का विषय वही है, जो सर्वदेशीय होने के अतिरिक्त अनुभव किया हुआ हो, जो अपने जीवन में आ गया हो और बुद्धि की अपेक्षा किसी परे की दृष्टि से देखा गया हो। यदि किसी प्रकार यह जानना संभव भी हो की गीता किस शास्त्रीय परिभाषा से उस समय के लोग कौन-सा अर्थ ग्रहण करते थे तो भी मेरे विचार में, इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है। आज तक जो भाष्य लिखे गये हैं और लिखे जा रहे हैं उनके परस्पर-मतभेद से स्पष्ट ही है कि यह जानना किसी तरह से संभव भी नहीं है; ये सब-के-सब एक दूसरे से भिन्न होने में ही एकमत हैं, प्रत्येक भाष्य को गीता में अपनी ही आध्यात्मिकता रीति और धार्मिक विचारधारा दिखायी देती है।


इस विषय मे चाहे कोई कितना ही अधिक प्रयास करे, कितना ही तटस्थ होकर देखे और भारतीय तत्त्वाधान के विकासक्रम के संबंध में चाहे जैसे उद्बोधक सिद्धांत स्थापित करने का प्रयत्न करे, पर यह विषय ही ऐसा है कि इसमें भूल होना अनिवार्य है। इसलिये गीता के विषय में हम यह कर सकते हैं, जिससे कुछ लाभ हो सकता है, कि इसके तत्त्वदर्शन से अलग जो प्रकृत जीते-जागते तथ्य हैं उन्हें ढूंढ़ें, हम गीता से वह चीज लें जो हमें या संसार को सहायता पहुँचा सके और जहाँ तक हो सके उसे ऐसी स्वाभाविक और जीती-जागती भाषा में प्रकट करें जो वर्तमान मानव-जाति की मनोवृत्ति के अनुकूल हो और जिससे उसकी परमार्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में मदद मिले। इस प्रयास में हो सकता है कि हम बहुत-सी ऐसी भूलों को मिला दें जो हमारे व्यक्तित्व और इस समय के विशिष्ट संस्कारों से उत्पन्न हुई हों, इससे हमसे बड़े हमारे पूर्वाचार्य भी नहीं बच पाये हैं; परंतु यदि हम इस महत् सद्ग्रथ के भाव में अपने-आपको तल्लीन कर दें, और सबसे बड़ी बात यह है कि यदि हम उस भाव को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हों, तो इसमें संदेह नहीं है कि हम इस सद्ग्रंथ में से उतनी सद्वस्‍तु तो ग्रहण कर ही सकेंगे जितनी के हम पात्र या अधिकारी हैं और साथ ही हमें इससे वह परामार्थिक प्रभाव और वास्तविक सहायता भी प्राप्त हो सकेगी जो व्यक्तिगत रूप से हम इससे प्राप्त करना चाहते थे। और, इसी को देने के लिये सद्ग्रंथों की रचना हुई थी; बाकी जो कुछ वह शास्त्रीय वाद-विवाद या धार्मिक मान्यता है।


केवल ऐसे हो सद्ग्रंथ, धर्मशास्त्र और दर्शन मनुष्य-जाति के काम के बने रहते हैं जो इस प्रकार नित नये होते रहे हों, पुनः-पुनः जीवन में चरितार्थ किये जाते हों, जिनका आधारभूत शाश्वत तत्त्व निरन्तर नया रूप लेता और विकसनशील मनुष्य-जाति की अंतर्विचारधारा और आध्यात्मिक अनूभूत से विकसित होता हो। इसके जो कुछ है वह भूतकाल का भव्य स्मारक तो है, पर उसमें भविष्य के लिये कोई यथार्थ शक्ति या सजीव प्रेरणा नहीं हैं। गीता में ऐसा विषय बहुत ही कम है जो केवल एकदेशीय और सामयिक हो और जो भी उसका आशय उतना उदार, गंभीर और व्यापक है कि उसे बिना किसी विशेष आयास के, और इसकी शिक्षा का जरा भी ह्रास या अतिक्रम किये बिना व्यापक रूप दिया जा सकता है; इतना ही नहीं बल्कि ऐसा व्यापक रूप देने से उसकी गहराई, उसके सत्य और शक्ति में वृद्धि होती है। स्वयं गीता में ही बारम्बार उस व्यापक रूप का संकेत दिया गया है जो इस प्रकार देशकाल मर्यादित भावना या संस्कार-विशेष का दिया जा सकता है। उदाहरण के लिये “यज्ञ“ संबंधी प्राचीन भारतीय विधि और भावना को गीता ने देवताओं और मनुष्यों का पारस्पकि आदान-प्रदान कहा है।


यज्ञ की यह विधि और भावना स्वयं भारतवर्ष में ही बहुत काल से लुप्तप्राय हो गयी है और सर्वसाधारण मानव-मन को इसमें कुछ भी तथ्य नहीं प्रतीत होता। परंतु गीता में यह “यज्ञ“ शब्द अलंकारिक, सांकेतिक और सूक्ष्म तत्त्व का परिचायक है तथा देवता-विषयक भावना देश काल मर्यादा और किंवदंती से इतनी मुक्त और इतने पूर्ण रूप से सार्वभौम और दार्शनिक है कि हम यज्ञ और देवता दोनों को मनोविज्ञान और प्रकृति के साधारण विधान के व्यावहारिक तथ्य के रूप में सहज ही ग्रहण कर सकते हैं और इन्हें, प्राणियों में परस्पर होने वाले आदान-प्रदान, एक-दूसरे के हितार्थ होने वाले बलिदान और आत्मदान के विषय में जो आधुनिक विचार हैं, उन पर, इस तरह घटा सकते हैं कि इनके अर्थ और भी उदार और गंभीर हो जायें, ये अधिक सच्चे आध्यात्मिक और गंभीरतर अत्यधिक विस्तीर्ण सत्य के प्रकाश से प्रकाशित हो जायें। इसी प्रकार शास़्त्र-विधान के अनुसार कर्म, चातुर्वण्य, विभिन्न वर्णों की स्थिति में तारतम्य, या अध्यात्म-विषय में शुद्रों और स्त्रियों के अनाधिकार, ये सब बातें पहली नजर में तो देश-विशेष या काल-विशेष से ही संबंध रखने वाली प्रतीत होती हैं और इनका एक मात्र शाब्दिक अर्थ ही लिया जाये तो गीता की शिक्षा उतने अंश में अनुदार ही हो जाती है और उससे गीता के उपदेश की व्यापकता और आध्‍यात्मिकता नष्‍ट हो जाती है फिर समस्‍त मनुष्‍य जाति के लिये उसका उतना उपयोग नहीं रह जाता। परंतु यदि इसके आंतरिक भाव और अर्थ को देखें, केवल देश-विशिष्ट नाम और काल-विशिष्ट रूप को नही, तो यह दिखायी देगा कि यहाँ भी अर्थ गूढ़, गंभीर और तथ्यपूर्ण और इसका आंतरिक भाव दार्शनिक, आध्यात्मिक और सार्वजनीन है।


मालूम होता है कि शास्त्र शब्द से गीता में उस विधान से मतलब है जिसे मनुष्य-जाति ने असंस्कृत प्राकृत मनुष्य के केवल अहंभाव से प्रेरित कर्म के स्थान पर अपने ऊपर लगाया है, इस विधान का हेतु अहंकार को हटाना है, और मनुष्य की जो स्वाभाविक प्रवृति है कि वह अपनी वासनाओं की तृप्ति को ही अपने जीवन का मानक और उद्देश्य बना लेना चाहता है, उस प्रवृत्ति का नियमन करना है। ऐसे ही चातुर्वण्य भी एक आध्यात्मिक तथ्य का ही एक स्थूल रूप है, जो स्वयं उस स्थूल रूप से स्वतंत्र है। उसका अभिप्राय यह है कि कर्म, कर्ता के स्वभाव के अनुसार सम्यक रूप से संपादित हो और वह स्वभाव सहज गुण और अपने-आपको प्रकट करने वाली वृत्ति के अनुसार उसके जीवन की धारा और क्षेत्र को निर्धारित करे। इसलिये जब गीता में आये हुए स्थानिक और सामयिक उदाहरण इसी गंभीर और उदार भाव से प्रयुक्त हुए हैं तो हमारा इसी सिद्धांत का अनुसरण करना और स्थानिक और सामयिक दीखने वाली बातों में छिपे गम्भीरतर सामान्य सत्य को ढूंढना समुचित ही होगा। कारण, यह बात पद-पद पर मिलेगी यह गभीरतर तथ्य और तत्त्व गीता की विवेचन-पद्धति में बीज-रूप से वहाँ भी छिपा है जहाँ वह स्पष्ट शब्दों में व्यक्त नहीं किया गया है। 


गीता में तत्कालीन दार्शनिक परिभाषाओं और धार्मिक संकेतों के प्रयुक्त होने से जो दार्शनिक सिद्धांत या धार्मिक मत आ गये हैं या किसी प्रकार संग हो लिये हैं उनका विवेचन भी हम इसी भाव से करेंगे। गीता में जहाँ सांख्य और योग की बात आती है वहाँ हम गीता के एक पुरुष का प्रतिपादन करने वाले वेदांत के सांचे में ढले हुए सांख्य का, प्रकृति और अनेक पुरुषों का प्रतिपादन करने वाले अनीश्वरवादी सांख्य के साथ उतना ही तुलनात्मक विवेचन करेंगे जितना कि हमारी व्याख्या के लिये आवश्यक होगा। इसी प्रकार गीता के बहुविध, सुसमृद्ध, सूक्ष्म और सरल स्वाभाविक योग के साथ पतंजलि योग के शास़्त्रीय, सूत्रबद्ध, और क्रमबद्ध मार्ग का भी उतना ही विवेचन करेंगे, उससे अधिक नहीं।


गीता में सांख्य और योग एक ही वेदांत के परम तात्पर्य की ओर ले जानेवाले दो मार्ग हैं, बल्कि यह कहिये कि वैदांतिक सत्य की सिद्धि की ओर जाने वाले दो परस्पर-सहकारी साधन हैं, एक दार्शनिक, बौद्धिक और वैश्लेषणिक और दूसरा अंतः स्फुरित, भक्तिभावमय, व्यावहारिक, नैतिक और समन्वयात्मक है, जो अनुभूति द्वारा ज्ञान तक पहुँचाता है। गीता की दृष्टि में इन दोनों शिक्षाओं में कोई वास्तविक भेद नहीं है। बहुत से लोग जो मानते हैं कि गीता किसी धार्मिक संप्रदाय या परंपरा-विशेष का फल है उसके बारे में विचार करने की भी हमें कोई आवश्यकता नहीं है। गीता का उपदेश सबके लिये है, उसका मूल भले ही कुछ भी रहा हो। गीता की दार्शनिक पद्धति, इसमें जो सत्य है उसका व्यवस्थापन क्रम इसके उपदेश का वह भाग नहीं हैं जो अत्यंत मुख और चिरस्थायी कहा जाये, किंतु इसकी रचना का अधिकांश विषय, इसके उद्बोधक और मर्मस्पर्शी प्रधान विचार जो इस ग्रंथ के जटिल सामंजस्य में पिरोये गये हैं उनका महत्त्व चिरंतन है, उनका मूल्य सदा बना रहेगा।


कारण, ये केवल दार्शनिक बुद्धि की कल्पना की चमक या चकित करने वाली युक्ति नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव के चिरस्थायी सत्य हैं, ये हमारी उच्चतम आध्यात्मिक संभावनाओं के प्रमाणयोग्य तथ्य है, और जो कोई इस जगत के रहस्य को तह तक पहुँचाना चाहता है वह इनकी उपेक्षा कदापि नहीं कर सकता। इसकी विवेचन-पद्धति कुछ भी हो, इसका हेतु खास दार्शनिक मत का समर्थन करना या किसी विशिष्ट योग की पुष्टि करना नहीं है, जैसा कि भाष्यकार प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं। गीता की भाषा, इसके विचारों की रचना, विविध भावनाओं का इसमें संयोग और उनका संतुलन ये सब बातें ऐसी हैं कि जो किसी सांप्रदायिक आचार्य के मिज़ाज में नहीं हुआ करतीं, न एक-एक पद को कसौटी पर कसकर देखने वाली न्याययिक बुद्धि में ही आया करती हैं, क्योंकि उसे तो सत्य के किसी एक पहलू को ग्रहण कर बाकी सबको छांटकर अलग कर देने की पड़ी रहती है। परंतु गीता की विचारधारा व्यापक है, उसकी गति तरंगों की तरह चढ़ाव-उतार वाली और नानाविध भावों का आलिंगन करने वाली है जो किसी विशाल समन्वयात्मक बुद्धि और सुसंपन्न समन्वयात्मक अनुभूति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह उन महान समन्वयों में से है जिनकी सृष्टि करने में भारत की अध्यात्मिकता उतनी ही समृद्ध है जितनी कि वह ज्ञान की अत्यंत प्रगाढ़ और अनन्य साधारण क्रियाओं तथा धार्मिक साक्षात्कारों की सृष्टि करने में समृद्ध है, जो किसी एक ही साधन सूत्र पर केंद्रित होते हैं और एक ही मार्ग की पराकाष्ठा तक पहुँचते हैं ।


गीता की यह विचारधारा एक दूसरे को अलग करने वाली और एक करने वाली है। गीता का सिद्धांत केवल अद्वैत नहीं है यद्यपि इसके मत से एक ही अव्यय, विशुद्ध, सनातन आत्मतत्त्व अखिल ब्रह्मांड की स्थिति का आश्रय है; गीता का सिद्धांत मायावाद भी नहीं है यद्यपि इसके मत से सृष्ट जगत में त्रिगुणात्मिका प्रकृति के माया सर्वत्र फैली हुई है; गीता का सिद्धांत विशिष्टाद्वैत भी नहीं है यद्यपि इसके मत से उसी पर एकमेवाद्वितीय परब्रह्म में लय नहीं, बल्कि निवास ही आध्यात्मिक चेतना की परा स्थिति है; गीता का सिद्धांत सांख्य भी नहीं यद्यपि इसके मत से यह सृष्टि जगत प्रकृति-पुरुष के संयोग से ही बना है; गीता का सिद्धांत वैष्णवों का ईश्वरवाद भी नहीं है यद्यपि पुराणों के प्रतिपाद्य श्रीविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही इसके परमाराध्य देवाधिदेव हैं और इनमें और अनिर्देश्य निर्विशेष ब्रह्म में कोई तात्विक भेद नहीं है, न ब्रह्म का दर्जा किसी प्रकार से भी इन प्राणिनां ईश्वरः से ऊंचा ही है। गीता के पूर्व उपनिषदों में जैसा समन्वय हुआ है जो आध्यात्मिक होने के साथ-साथ बौद्धिक भी है और इसलिये इसमें ऐसा अनुदार सिद्धांत नहीं आने पाता जो इसकी सार्वलौकिक व्यापकता में बाधक हो। वेदांत के सबसे अधिक प्रामाणिक तीन ग्रंथों में से एक होने के कारण वाद-विवाद भाष्यकारों ने इस ग्रंथ का उपयोग स्वमत के मंडन तथा अन्य मतों और सम्प्रदायों के खंडन में ढाल और तलवार के तौर पर किया है; परंतु गीता का हेतु यहाँ नहीं है; गीता का उद्देश्य ठीक इसके विपरीत है।


गीता तर्क की लड़ाई का हथियार नहीं है; वह महाद्वार है जिससे समस्त आध्यात्मिक सत्य और अनुभूति के जगत की झांकी मिलती है और इस झांकी में उस परम दिव्य धाम के सभी ठाम यथास्थान दीख पड़ते हैं। गीता में इन स्थानों का विभाग या वर्गीकरण तो है, पर कहीं भी एक स्थान दूसरे स्थान से विच्छित्र नहीं है न किसी चहारदीवारी या बड़े से घिरा है कि हमारी दृष्टि आर-पार कुछ न देख सके। भारतीय तत्त्वज्ञान के वृहद इतिहास में और भी अनेक समन्वय हुए हैं। सबसे पहले वैदिक समन्वय देखिये। वेद में मनुष्य का मनोमय पुरुष दिव्य पुरुष दिव्य ज्ञान, शक्ति, आनंद, जीवन और महिमा में ऊंची-से-ऊंची उड़ान लेता हुआ और विशालतम क्षेत्रों में विहार करता हुआ देवताओं की विश्वव्यापी स्थिति के साथ समन्वित हुआ है, इन देवताओं को उसने जड़ प्राकृतिक जगत के प्रतीकों को अनुसरण करते हुए उन श्रेष्ठतम लोकों में पाया है जो भौतिक इंद्रियों और स्थूल मन-बुद्धि से छिपे हुए हैं। इस समन्वय की चरित शोभा वैदिक ऋषियों के उस अनुभव में है जिसमें वे उस देवाधिदेव का, उस परात्पर पुरुष का, उस आंनदमय का साक्षात्कार करते हैं जिसकी एकता में मनुष्य की विकसित होती हुई आत्मा तथा विश्वव्यापी देवताओं की पूर्णता पूर्णतया मिलते और एक-दूसरे को चरितार्थ करते हैं। उपनिषद पूर्व ऋषियों की इस चरम अनुभूति को ग्रहण कर इससे आध्यात्मिक ज्ञान का एक महान और गंभीर समन्वय साधने का उपक्रम करती है; सनातन पुरुष से प्रेरणा पाने वाले मुक्त ज्ञानियों ने आध्यात्मिक अनुसंधान के दीर्घ और सफल काल में जो कुछ दर्शन और अनुभव किया उस सबको उपनिषदों ने एकत्र करके एक महान समन्वय के अंदर ला रखा। इस वेदांत-समन्वय से गीता का आरंभ होता है और इसके मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर गीता ने प्रेम, ज्ञान और कर्म, इन तीन महान साधनों और शक्तियों का एक समन्वय साधित किया है। इसके बाद तांत्रिक समन्वय है जो सूक्ष्मदर्शिता और आध्यात्मिकता गभीरता में किसी कदर कम होने पर भी साहसिकता और और बल में गीता का समन्वय से भी आगे बढ़ा हुआ है,--कारण, आध्‍यात्मिक जीवन में जो बाधाएं हैं उनको भी हाथ में पकड़ लिया जाता है और उसे और भी अधिक सुसमृद्ध आध्यात्मिक विजय के साधन का काम लिया जाता है; इससे सारे का सारा जीवन ही भगवान की लीला के रूप में हमारे लिये दिव्य जीवन की प्राप्ति कराने का क्षेत्र बन जाता है। कुछ बातों में यह समन्वय अधिक समृद्ध और फलदायी है, क्योंकि यह दिव्य कर्म और दिव्य प्रेमयुक्त सुसमृद्ध सरस भक्ति के साथ-साथ हठयोग और राजयोग के गुह्य रहस्यों को भी सामने ले आता है। वह दिव्य जीवन को उसके सभी क्षेत्रों में उद्घाटित कराने के लिये शरीर तथा मानस तप का उपयोग करता है, और यह बात गीता में केवल प्रासंगिक रूप से किसी कदर अन्यमनस्कता के साथ ही कही गयी है।


इसके अतिरिक्त इस समन्वय में मनुष्य के भागवत पूर्णता को प्राप्‍त कर सकने की उस भावना को अपनाने की चेष्टा की गयी है जिस पर वैदिक ऋषि तो आधिकार रखते थे पर पीछे से, मध्य काल में जिसकी उपेक्षा ही होती गयी। अब उत्तर काल में मानव, विचार, अनुभव और अभीप्सा का जो समन्वय होगा उसमें निश्चय ही इस भावना का बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्थान होगा। उत्तर काल के हम लोग उस विकासोन्नति के नवीन युग के पुराभाग में उपस्थित है जिसकी परिणिति इस प्रकार के नूतन और महत्तर समन्वय में होने वाली है। हमारा यह काम नहीं है कि वेदांत के तीन प्रधान संप्रदायों में से किसी एक संप्रदाय के या किसी एक तांत्रिक मत के कट्टर अनुयायी बनें या किसी प्राचीन आस्तिक संप्रदाय की लकीर-के-फकीर बनें अथवा गीता की शिक्षा ही चहारदीवारी के अंदर ही अपने-आपको बंद कर लें। ऐसा करना अपने-आपको एक सीमा में बांध लेना होगा, अपनी आत्मसत्ता और आत्मसंभावना के बदले दूसरों की, प्राचीन लोगों की सत्ता, ज्ञान में से अपना आध्यात्मिक जीवन निर्मित करने का प्रयास करना होगा। हम भावी सूर्य की संतान हैं, बीती हुई ऊषा की नहीं। नवीन साधन-सामग्री का एक पुंज हम लोगों के अंदर प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा है, हमें केवल भारतवर्ष के और समस्‍त संसार के महान आस्तिक संप्रदायों के प्रभाव को तथा बौद्ध-मत के पुनर्जीवित अभिप्राय को नहीं अपनाना होगा, बल्कि आधुनिक ज्ञान और अनुसंधान के फलस्वरूप जो कुछ, मर्यादित रूप में ही क्यों न हो पर विशेष क्षमता लिये हुए, प्रत्यक्ष हुआ है उसका भी पूरा ख्याल करना रखना होगा।


इसके अतिरिक्त सुदूर और तिथि-मिति-रहित भूतकाल, जो मृत जैसा दिखायी देता था, अब हमारे समीप आ रहा है और उसके साथ उन ज्यातिर्मय गुह्य रहस्यों का तीव्र प्रकाश है जो मनुष्य की चेतना से एक ज़माना हुआ, लुप्त हो गये थे, किंतु अब परदे को चीर कर फिर से बाहर निकल रहे हैं। यह बात भविष्य में होने वाले एक नवीन, सुसमृद्ध और अति महत समन्वय की ओर इशारा कर रही है; भविष्य की यह बौद्धिक और आध्यात्मिक आवश्यकता है कि हमारे इन सब प्राप्त अर्थों का फिर से एक नवीन और अति उदार, सबको समा लेने वाला सामंजस्य सिद्ध हो। पर जिस प्रकार पहले के समन्वयों का उपक्रम उससे भी पहले के समन्वयों से ही हुआ, उसी प्रकार भावी समन्वय का भी, वैसा ही स्थिर और सुप्रतिष्ठ होने के लिये, वहीं से आरंभ करना चाहिये जहाँ हमको आध्‍यात्मिक तत्त्‍वविचार और अनुभवों के वृहत ने लाकर छोड़ा है। ऐसे संस्थानों में गीता का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। अस्तु! गीता के इस अध्ययन में हमारा हेतु इसके विचारों का पांडित्यपूर्ण या शास्त्रीय आलोचना करना अथवा इसके दार्शनिक सिद्धांत को आध्यात्मिक अनुसंधान के इतिहास के अंदर ले आना न होगा, न हम इसके प्रतिपाद्य विषय को तर्क की कसौटी पर रखकर न्यायिक के ढंग से ही अध्ययन करेंगे। हम इसके पास सहाय और प्रकाश पाने के लिये आते हैं और इसलिये इसमें हमारा हेतु यही होना चाहिये कि हमें इसमें से इसका सच्चा अभिप्राय और जीता-जागता संदेश मिले, वह असली चीज मिले जिसे मनुष्य-जाति पूर्णता का और अपनी उच्चतम आध्यात्मिकता भवितव्यता का आधार बना सके।


संसार के अन्य सब महान धर्मग्रंथों के उपेक्षा गीता की यह विलक्षणता है कि वह अपने-आप में स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है; इसका निर्माण बुद्ध, ईसा या मुहम्मद जैसे किसी महापुरुष के आध्यात्मिक जीवन के फलस्वरूप नहीं हुआ है, न यह वेदों और उपनिषदों के समान किसी विशुद्ध आध्यात्मिक अनुसंधान के युग का फल है, बल्कि, यह जगत के राष्ट्र और उनके संग्रामों तथा मनुष्यों और उनके पराक्रमों के ऐतिहासिक महाकाव्य के अंदर एक उपाख्यान है जिसका प्रसंग इसके एक प्रमुख पात्र के जीवन में उपस्थित एक विकट-संकट से पैदा हुआ है। प्रसंग यह है कि सामने वह कर्म उपस्थित है जिससे अब तक सब कर्मों की परिपूर्णता होने वाली है; पर यह कर्म भयंकर, अति उग्र और खून-खराबी से भरा हुआ है और संधि की वह घड़ी उपस्थित हो गयी है जब उसे या तो इस कर्म से बिल्कुल हट जाना होगा या इसे इसके अवश्यम् भावी कठोर अंत तक पहुँचाना होगा। कई आधुनिक समालोचकों की यह धारणा है कि गीता महाभारत का अंग ही नहीं है, इसकी रचना पीछे हुई है और इसके रचयिता ने इसको महाभारत मे इसलिये मिला दिया है कि इसको भी महान राष्ट्रीय महाकाव्य की प्रामाणिकता और लोकप्रियता मिल जाये, किंतु यह बात ठीक है या नहीं, इससे कुछ आता-जाता नहीं।


मेरे विचार में तो यह धारणा गलत है, क्योंकि इसके विपक्ष में बड़े प्रबल प्रमाण हैं और पक्ष में भीतरी बाहरी जो कुछ प्रमाण है वह बहुत पोचा और स्वल्प है। परंतु यदि पुष्ट और यथेष्ट प्रमाण हो भी तो यह स्पष्ट ही है कि ग्रंथकार ने अपने इस ग्रंथ को महाभारत की बुनावट में बुनकर इस तरह मिला दिया है कि इसके ताने-बाने महाभारत से अलग नहीं किये जा सकते, यही नहीं, बल्कि गीता में ग्रंथकार ने बार-बार उस प्रसंग की याद दिलायी है कि जिस प्रसंग से यह गीतोपदेश किया गया, केवल उपसंहार में ही नहीं, अत्यंत गंभीर तत्त्वनिरूपण के बीच-बीच में भी उसका स्मरण कराया है। ग्रंथकार का यह आग्रह मानना ही होगा और इस गुरु शिष्य दोनों का ही जिस प्रसंग की ओर बारंबार ध्यान खिंचता है उसे उसका पूर्ण महत्त्व प्रदान करना ही होगा। इसलिये गीता को सर्वसाधारण अध्यात्मशास्त्र या नीतिशास्त्र का एक ग्रंथ मान लेने से ही काम न चलेगा, बल्कि नीतिशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र का मानव-जीवन में प्रत्यक्ष प्रयोग करते हुए ही व्यहार में जो कुछ संकट उपस्थित होता है उसे दृष्टि के सामने रखकर इस ग्रंथ का विचार करना होगा। वह संकट क्या है, कुरुक्षेत्र के युद्ध का आशय क्या है और अर्जुन की आंतरिक सत्ता पर उसका क्या असर होता है, इन बातों का हमें पहले से ही निश्चित कर लेना होगा, तब कहीं हम गीता के मतों और उपदेशों की केंद्रीय विचारधारा को पकड़ सकेंगे। यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट है कि कोई गहन गंभीर उपदेश किसी ऐसे सामान्य से प्रसंग के आधार पर नहीं खड़ा हो सकता जिसके बाह्य रूप के पीछे कोई वैसी ही गहरी भावना और भयंकर धर्म-संकट न हो और जिसका समाधान नित्य के सामान्य आचार-विचार के मानक से किया जा सकता हो।

   

गीता में सचमुच तीन बातें ऐसी हैं जो आध्यात्मिक दृष्टि से बड़े महत्त्व की हैं, प्रायः प्रतीकात्मक हैं और उनसे आध्यात्मिक जीवन और अस्तित्व के मूल में जो बहुत गहरे संबंध और समस्याएं हैं वे प्रत्यक्ष होती हैं। वे तीन बातें हैं- श्रीगुरु का भागवत व्यक्तित्त्व, उनका अपने शिष्य के साथ विशिष्ट प्रकार का संबंध और उनके उपदेश का प्रसंग। श्रीगुरु स्वयं भगवान हैं जो मानव-जाति में अवतरित हुए हैं; शिष्य अपने काल का श्रेष्ठ व्यक्तित्व है, जिसे हम आधुनिक भाषा में मनुष्य-जाति का प्रतिनिधि कह सकते हैं, और जो इस अवतार का अंतरंग सखा चुना हुआ यंत्र है वह एक विशाल कार्य और संग्राम में प्रमुख पात्र है जिसका रहस्यमय उद्देश्य उस रंग भूमि के पात्रों को ज्ञात नहीं, ज्ञात है केवल उन मनुष्य-शरीर-धारी भगवान को जो अपने ज्ञानमय अथाह मानस के पीछे छिपे हुए यह सारा कार्य चला रहे हैं और, प्रसंग है इस कार्य और संग्राम में उपस्थित अति विकट भीषण परिस्थिति की वह घड़ी जिसमें इसकी बाह्य गति का आतंक और धर्म संकट तथा अंध प्रचंडता इस आदर्श व्यक्ति के मानस पर प्रत्यक्ष होकर इसे सिर से पैर तक हिला देती है और वह सोचने लगता है कि आखिर इसका अभिप्राय क्या है, जगदीश्वर का इस जगत से क्या आशय है, इसका लक्ष्‍य क्‍या है, यह किधर जा रहा है और मानव-जीवन और कर्म का मतलब क्या है।


भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही बड़े दृढ़ विश्वास के साथ यह मान्यता चली आयी है कि भगवान वास्तव में अवतार लिया करते हैं, अरूप से रूप में अवतरित हुआ करते हैं, मनुष्य रूप में मनुष्यों के सामने प्रकट हुआ करते हैं। पश्चिमी देशों में यह विश्वास लोगों के मन पर कभी यथार्थ रूप से जमा ही नहीं, क्योंकि लौकिक ईसाई धर्म में इस भाव का एक ऐसे धार्मिक मत-विशेष के रूप में ही प्रतिपादन किया है जिसकी युक्ति, सर्वसाधारण चेतना और जीवन व्यवहार से मानो कोई मूलगत संबंध ही न हो। परंतु भारतवर्ष में वेदांत की शिक्षा के स्वाभाविक परिणामस्वरूप यह विश्वास बराबर बढ़ता गया और जमता गया और इस देश के लोगों की चेतना में जड़ पकड़ गया है। यह सारा चराचर जगत भगवान की ही अभिव्यक्ति है, कारण एकमात्र भगवान ही सत हैं, बाकी सब उन्हीं एकमात्र सत का सत या असत रूप हैं। इसलिये प्रत्येक जीवन किसी-न-किसी अंश में, किसी-न-किसी विधि से उसी एक अनंत का संत दीखने वाले नाम रूपात्मक जगत में अवतरण मात्र है। परंतु यह मानो परदे के पीछे अभिव्यक्ति है; और भगवान का जो परभाव है तथा सांत रूप में जीव की यह जो पूर्णतः अथवा अंशतः अविद्या में छिपी चेतना है, इन दोनों के बीच में चेतना का चढ़ता उतरता हुआ क्रम लगा है। देह में रहने वाली चिन्मयी आत्मा, जिसे देही कहते हैं, भगवदग्नि की चिनगारी है और मनुष्य के अंदर रहने वाली यह आत्मा जैसे-जैसे अपने अज्ञान से बाहर निकलकर आत्म स्वरूप में विकसित होने लगती है वैस-वैसे वह स्वात्म ज्ञान में बढ़ने लगती है।


भगवान भी इस विश्व-जीवन के नानाविध रूपों में अपने-आपको ढालते हुए, सामान्यतः, इसकी शक्तियों के फलने-फूलने में, इसके ज्ञान, प्रेम, आनंद और विभूति की तेजस्विता और विपुलता में, अपनी दिव्यता की कलाओं और रूपों में आविर्भूत हुआ करते हैं। परंतु जब भागवत चेतना और शक्ति मनुष्य के रूप तथा कर्म की मानव-प्रणाली को अपना लेती है, और इस पर केवल शक्ति और विपुलता द्वारा अथवा अपनी कलाओं और बाह्य रूपों द्वारा ही नहीं, बल्कि अपने शाश्वत ज्ञान के साथ अधिकार करती है, जब वह अजन्मा अपने-आपको जानते हुए मानव मन-प्राण-शरीर धारण, कर मानव-जन्म का जामा पहनकर कर्म करता है तब वह देश-काल के अंदर भगवान के प्रकट होने की पराकाष्ठा हैः वही भगवान का पूर्ण और चिन्मय अवतरण है, उसी को अवतार कहते हैं। वेदांत के वैष्णव संप्रदाय में इस सिद्धांत की बड़ी मान्यता है और वहाँ मनुष्यों में रहने वाले भगवान और भगवान में रहने वाले मनुष्य का जो परस्पर संबंध है वह नर-नारायण के द्विविध रूप से परिदर्शित किया गया है; इतिहास की दृष्टि से नर-नारायण एक ऐसे धर्म-संप्रदाय मे प्रवर्तक माने जाते हैं जिसके सिद्धांत और उपदेश गीता के सिद्धांतों और उपदेशों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। नर मानव-आत्मा है, भगवान का चिरंतन सखा है जो अपने स्वरूप को तभी प्राप्त होता है जब वह इस सखा-भाव में जागृत होता है, और वह उन भगवान में निवास करने लगता है। नारायण मानव-जाति में सदा वर्तमान भागवत आत्मा है, वह सर्वान्तर्यामी, मानव-जीव का सखा और सहायक है, यह वही है जिसके बारे में गीता में कहा है, ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशें तिष्ठति।


हृदय के इस गूढ़शय के ऊपर से जब आवरण हटा लिया जाता है और ईश्वर का साक्षात दर्शन करके मनुष्य उनसे प्रत्यक्ष संभाषण करता है, उनके दिव्य शब्द सुनाता है, उनकी दिव्य ज्योति ग्रहण करता है और उनकी दिव्य शक्ति से युक्त होकर कर्म करता है तब इस मनुष्य-शरीरधारी सचेतन जीव का परमोद्धार होकर उस अज-अविनाशी शाश्वत स्वरूप को प्राप्त होना संभव होता है। तब वह भगवान में निवास और सर्वभाव से भगवान में आत्म-समर्पण करने योग्य होता है जिसे गीता में उत्तमं रहस्यम् माना है। जब यह शाश्वत दिव्य चेतना जो मानव-प्राणिमात्र में सदा विद्यमान है अर्थात नर में विराजने वाले ये नारायण भगवान जब इस मानव-चैतन्य को अंशतः[1] या पूर्णतः अधिकृत कर ले और दृश्यमान मानव-रूप में जगद्गुरु, आचार्य या जगन्नेता होकर प्रकट होते हैं तब यह उनका प्रत्यक्ष अवतार कहा जाता है। यह उन आचार्यों या नेताओं की बात नहीं है जो सब प्रकार से हैं तो मनुष्य ही पर कुछ ऐसा अनुभव करते हैं कि दिव्य प्रज्ञा का बल या प्रकाश या प्रेम उनका पोषण कर रहा है और उनके द्वारा सब कार्य करा रहा है, बल्कि यह उन मानव तनुधारी की बात है जो साक्षात उस दिव्य प्रज्ञा से, सीधे उस केंद्रीय शक्ति और पूर्णता में से आते हैं।


मनुष्य के अंदर जो भगवान् हैं, वही नर में नारायण का सनातन अवतार हैं; और नर में जो अभिव्यक्ति है वही बहिर्जगत् में उनका चिह्र और विकास है। इस प्रकार जब अवतार-तत्त्व हमारी समझ में आ जाता है तब हम देखते हैं कि चाहे गीता की मूलगत शिक्षा-जिसको जानना ही हमारा प्रस्तुत विषय है- की दृष्टि से हो, या आम तौर पर आध्यात्मिक जीवन की दृष्टि से हो, इस ग्रंथ के बाह्य पहलू का महत्त्व गौण ही है। यूरोप में ईसा की ऐतिहासिकता पर जो वाद-विवाद चलता है वह अध्यात्मचेता भारतवर्ष के विचार में प्रायः समय का दुरुपयोग ही है; ऐसे वाद-विवाद चलता को वह ऐतिहासिक दृष्टि से तो महत्त्व देगा, पर उसकी दृष्टि में इसका कोई धार्मिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि ईसा कोई मनुष्य युसूफ नाम के किसी बढ़ई के पुत्र-रूप से नजरथ या बेथलहम में पैदा हुए, पढ़े और राजद्रोह के किसी सच्चे या बनावटी अपराध में मृत्यु दण्ड से दंडित हुए या नहीं, इन बातों में आखिर क्या आता-जाता है जबकि हम आध्यात्मिक अनुभव से अपने अंतःस्थित ईसा को जान सकते हैं और ऊर्ध्व चेतना में ऊपर उठकर उनकी शिक्षा की ज्योति मे निवास कर सकते हैं, ईसा का सूली पर चढ़ना भगवान् के साथ जिस ऐक्य का प्रतीक है उस ऐक्य के द्वारा प्रकृति विधान की दासता से मुक्त हो सकते हैं? ईसा अर्थात् ईश्वर का बनाया हुआ।


मनुष्य यदि हमारे अध्यात्म भाव में स्थित है तो इस बात का बहुत अधिक मूल्य नहीं दीखता कि मेरी के कोई पुत्र जोडिया मे शरीरतः थे या नहीं उन्होंने कष्ट झेले और अपने प्राणों को न्योछावर किया या नहीं। इसी प्रकार जिन श्रीकृष्ण का हमारे लिये महत्त्व है वे भगवान् के शाश्वत अवतार हैं, कोई ऐतिहासिक गुरु या मनुष्यों के नेता नहीं। इसलिये गीतोपदेश के सारतत्त्व को ग्रहण करने के लिये हमें महाभारत के उन मानव-रूप भगवान् श्रीकृष्ण के केवल आध्यात्मिक मर्म के साथ ही मतलब रखना चाहिये जो कुरुक्षेत्र की संग्राम भूमि में हमारे सामने अर्जुन के गुरु-रूप में अवस्थित हैं। ऐतिहासिक श्रीकृष्ण भी थे, इसमें कोई संदेह नहीं। छांदोग्य उपनिषद् में, पहले-पहल, यह नाम आता है और वहाँ इनके बारे में जो कुछ मालूम होता है वह इतना ही है कि आध्यात्मिक परंपरा में ब्रह्मवेत्ता के रूप में उनका नाम सुप्रसिद्ध था, उनका व्यक्त्वि और उनका इतिवृत्ति लोगों में इतना व्यापक था कि केवल देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण कहने से ही लोग जान जाते थे कि किसकी चर्चा हो रही है। इसी उपनिषद् में विचित्रवीर्य के पुत्र राजा धृतराष्ट्र का भी नामोल्लेख है। और, चूंकि यह परंपरा इन दोनों नामों को महाभारत-काल में भी इतने निकट संपर्क में चलाये चली है, कारण ये दोनों-के-दोनों ही महाभारत के प्रमुख व्यक्ति हैं, इसलिये हम इस निर्णय पर भली प्रकार पहुँच सकते हैं कि ये दोनों वास्तव में समकालीन थे और यह कि इस महाकाव्य में अधिकतर ऐतिहासिक व्यक्तियों की ही चर्चा हुई है और कुरुक्षेत्र के संबंध मे किसी ऐसी घटना का ही उल्लेख है जिसकी छाप इस जाति के स्मृति-पट पर अच्छी तरह पड़ी हुई थी।


यह बात भी ज्ञात है कि ईसा के जन्म होने से पहले की शताब्दियों में श्रीकृष्ण और अर्जुन पूजे जाते थे; और यह मान लेने का कुछ कारण है कि यह पूजा किसी ऐसी धार्मिक या दार्शनिक परंपरा के कारण ही होती होगी, जहाँ से गीता ने अपने बहुत-से तत्त्वों को, यहाँ तक कि ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय की भित्ति को भी लिया होगा, और शायद यह भी माना जा सकता है के ये मानव श्रीकृष्ण ही संप्रदाय के प्रवर्तक, पुनः संस्थापक या कम-से-कम कोई पूर्वाचार्य रहे होंगे। इसलिये गीता का बाह्य रूप चाहे कुछ भी बदला भी हो तो भी यह भारतीय विचारधारा के रूप में श्रीकृष्ण के ही उपदेश का फल है और इस उपदेश का ऐतिहासिक श्रीकृष्ण के साथ तथा अर्जुन और कुरुक्षेत्र के युद्ध के साथ संबंध केवल कवि की भी कल्पना ही नहीं है। महाभारत में श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अवतार भी; इनकी उपासना और अवतार होने की मान्यता देश में उस समय तक प्रस्थापित हो चुकी थी जब ईसा के पूर्व ( पांचवी और पहली शताब्दी के बीच में ) महाभारत की प्राचीन कहानी और कविता का महाकाव्य-परंपरा ने अपना वर्तमान रूप धारण किया। इस काव्य में अवतार की बाल-वृन्दावन-लीला की कथा या किंवदंती का भी संकेत है जिसे पुराणों ने इतने प्रबल और सतेज आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में वर्णित किया गया है कि उसका भारत के धार्मिक मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। 

हरिवंश ने भी श्रीकृष्ण की लीला का वर्णन किया है, इसमें स्पष्ट ही प्रायः उपाख्यान भरे हैं शायद सब पौराणिक वर्णन हैं ही इन्हीं के आधार पर। इतिहास की दृष्टि से इन सबका काफी महत्त्व है, फिर भी हमारे प्रस्तुत विषय के लिये इनका कुछ भी उपयोग नहीं है। यहाँ केवल भगवान् गुरु के उस रूप से मतलब है जिसको गीता ने हमारे सामने रखा है और मानव-जीवन को आध्यात्मिक प्रकाश देने वाली उस शक्ति से मतलब है जिसको देने के लिये गुरु आये हैं। गीता-मानव रूप में भगवान् के अवतार लेने के सिद्धांत को मानती है; क्योंकि भगवान्ज्ञ गीता में मानव-रूप में बारंबार युग-युग में प्रकट होने की बात कहते हैं[1]यह प्राकट्य तब होता है जबकि ये शाश्वत अजन्मा अपनी माया के द्वारा, अपनी अनंत चित् शक्ति से सांत रूपों का जामा पहन कर संभूति की अवस्थाओं को-जिन्हें हम जन्म कहते हैं-धारण करते हैं। परंतु गीता में भगवाना् के इस रूप पर नहीं, बल्कि परात्पर, विराट् और आंतरिक रूप से जोर दिया गया है, वे जो समस्त वस्तुओं के उद्गम हैं, सबके स्वामी हैं और मनुष्य के हृदय में वास करते हैं। इन्हीं अंतःस्थित भगवान् से वहाँ मतलब है जहाँ जहाँ गीता में उग्र आसुर तप के करने वालों के विषय में यह कहा गया है कि ये, अन्तःशरीरस्थं माम् मुझ भगवान् को कष्ट देते हैं या जहाँ यह कहा गया है कि ये असुर, मानुषीं तनुमाश्रितं माम्, मनुष्य शरीर में रहने वाले मुझसे द्वेष करने पाप करते हैं और वहाँ भी जहाँ यह कहा गया है कि इनके अज्ञान-तम को, प्रज्ज्वलित ज्ञानदीप के द्वारा मैं नष्ट कर देता हूँ।


अतएव, ये सनातन अवतार, मानव-जीवन में सदा वर्तमान रहने वाला यह चैतन्य, मनुष्य में रहने वाले भगवान् ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर गीता में मानव-आत्मा से बोल रहे हैं, जब वह जगत् में दुःखमय रहस्य के आमने-सामने खड़ी है। उसको जीवन के आशय का और भागवत कर्म के गुह्य तत्त्व का बोध दे रहे हैं, और दे रहे हैं भागवत ज्ञान और जगदीश्वर के आश्वासक और बलदायक शब्द तथा उसका पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं। यही वह चीज है जिसे भारत की धार्मिक चेतना अपने समीप ले जाने का प्रयत्न करती है, फिर चाहे उसका रूप कुछ भी क्‍यों न हो, चाहे वह रूप मंदिरों में स्थापित प्रतीकात्मक मानव-आकार की मूर्ति हो अथवा अवतारों की उपासना हो या उस एक जगद्गुरु की वाणी को सुनाने वाले गुरु की भक्ति हो। इन सब के द्वारा वह उस आंतरिेक वाणी के प्रति जागृत होने की चेष्टा करती है, उस अरूप के रूप को खोजती है और उस अभिव्यक्ति भागवत शक्ति, प्रेम और ज्ञान के आमने-सामने आ जाती है।


दूसरी बात यह है कि इन मानव श्रीकृष्ण का एक लाक्षणिक, प्रायः प्रतीकात्मक मर्म है, यही महाभारत के महान् कर्म के प्रवर्तक हैं, नायक-रूप से नहीं, बल्कि उसके गुप्त केन्द्र अज्ञात संचालक के रूप से। यह कर्म एक विराट् कर्म है जिसमें मनुष्यों और राष्ट्रों का सारे-का-सारा संसार सम्मिलित है, इनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल इस कर्म और इस परिणाम के सहायक होकर ही आये हैं जिससे उनका अपना कोई लाभ नहीं है, उनकी चालों को उलटाने वाले और उनका संहार करने वाले हैं; और कुछ लोग तो यहाँ तक समझते हैं कि इस सारे अनर्थ के मूल श्रीकृष्ण हैं, जो पुरानी व्यवस्था, सुपरिचित जगत् और पुण्य और धर्म की सुरक्षित परंपरा को मिटाये दे रहे हैं; इनमे फिर कुछ लोग ऐसे हैं जिनके द्वारा यह कर्म सिद्ध होने वाला है, श्रीकृष्ण उनके उपदेष्टा और सुहृद् हैं। जहाँ यह कर्म प्राकृतिक दृष्टि से हो रहा है और इस कर्म के करने वालों को उनके शत्रु से पीड़ पहुँचती है और उन्हें उन अग्नि-परीक्षाओं को पार करना पड़ता है जो उनको प्रभृत्व-लाभ करने के लिये तैयार करती हैं वहाँ अवतार अप्रकट हैं अथवा प्रसंग-विशेष पर आवश्यक सांत्वना और सहायता भर के लिये प्रकट होते हैं, किंतु प्रत्‍येक संकट में उनके सहायक हाथों का अनुभव होता है, फिर भी यह अनुभव इतना हल्का है कि इस विराट् कर्म के सभी कर्ता अपने-आपको ही कर्ता मानते हैं और अर्जुन भी, जो उनका अतिप्रिय सखा और उनके हाथ का मुख्य यंत्र या उपकरण है वह भी, यह अनुभव नहीं करता कि ‘मै उपकरण हूं’ और उसे यह बात अंत में स्वीकार करनी पड़ती है कि अब तक ‘मैंने अपने सखा सुहद् भगवान् को सचमुच जाना ही नहीं था।’


अर्जुन को उनके ज्ञान से बराबर मंत्रणा मिलती रही, उनकी शक्ति से सहायता भी मिलती रही, अर्जुन उन्हें प्यार करता रहा और उनसे प्यार पाता भी रहा, अवतार के भगवत्स्वरूप को जाने बिना अर्जुन उन्हें पूजता भी रहा। और, सब लोगों की तरह अर्जुन को भी अहंकार के द्वारा ही पथ-प्रदर्शन मिलता रहा और उसे जो मंत्रणा, सहायता और आदेश दिया गया वह अज्ञान की भाषा में ही दिया गया और अर्जुन ने भी उसे अज्ञान के विचारों द्वारा ही ग्रहण किया। और, यह उस समय तक चलता रहा जब तक कि कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संर्घष की भीषण अवस्था सामने नहीं आयी, और तब अवतार योद्धा बनकर नहीं, बल्कि युद्ध की भवितव्यता को वहन करने वाले रथ के ऊपर विराजमान सारथी बनकर सामने आये, उन्होंने अपने स्वरूप को अपने चुने हुए यंत्रों के आगे भी प्रकट नहीं किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण यहाँ मानों मनुष्यों के साथ भगवान् के व्यवहारों के प्रतीक बन जाते हैं। इस जगत् में हम लोगों के द्वारा जो सब कर्म कराया जाता है वह हम लोगों के अहंकार और अज्ञान के रास्ते से ही कराया जाता है और हम लोग यह समझते हैं कि हम ही अपने सब कर्मों के कर्ता हैं, और इनका जो कुछ फल होता है उसके हम ही असली कारण हैं।


ऐसा समझकर हम अपने-आप पर गर्व करते हैं, पर यथार्थ में जो चीज हमसे यह सब कराती हैं वह कुछ और ही है और उसे हम लोग यदा-कदा प्रसंगवश ही ज्ञान, अभीप्सा और शक्ति के किसी अस्पष्ट स्त्रोत के रूप में देख पाते हैं या किसी सिद्धांत या प्रकाश या सामर्थ्‍य के रूप में भी जानते और मानते हैं और उसके वास्तविक रूप को जाने बिना ही उसे पूजते भी हैं; वह चीज वास्वत में क्या है यह मुझे अब तक नहीं मालूम होता जब तक वह प्रसंग नहीं उपस्थित होता जो हमें बलात् रहस्य के सामने लाकर खड़ा कर दे। भगवान् श्रीकृष्ण मानव-जीवन के विशाल कर्म के अंदर क्रियाशील हैं, केवल उसके अभ्यान्तर जीवन में ही नहीं, बल्कि जगत् के सारे अज्ञान-अंधकारमय क्रम के अंदर भी, जिसका अनुमान हम अपनी बुद्धि के टिमटिमाते हुए प्रकाश से करते हैं जब वह हमारी अनिश्चित अग्रगति के आगे एक छोटे दायरे को अस्पष्ट रूप से दिखाता है। गीता की यही विशेषता है कि वास्तव में एक ऐसे कर्म की पराकाष्ठा से गीता के उपदेश का प्रादुर्भाव हुआ है और उसी से गीता के कर्म-सिद्धांत को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ और उसका इतना सुस्पष्ट और जोरदार प्रतिपादन हुआ है जितना अन्य किसी भारतीय धर्मग्रंथ का नहीं दीख पड़ता। केवल गीता में ही नहीं, महाभारत के अन्य स्थानों में भी श्रीकृष्ण ने कर्म की आवश्यकता की बड़े जोर के घोषणा की है, पर उसका रहस्य और हमारे कर्मों के पीछे हुई दिव्य सत्ता को गीता में ही प्रकट की गयी है।


अर्जुन और श्रीकृष्ण के अर्थात् मानव-आत्मा और भागवत आत्मा के सख्य का रूपक अन्य भारतीय ग्रंथों में भी आता है, जैसे एक स्थान में यह वर्णन है कि इन्द्र और कुत्स एक ही रथ पर बैठे हुए स्वर्ग की ओर यात्रा कर रहे हैं, जैसे उपनिषदों में दो पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हुए मिलते हैं, अथवा जैसे यह वर्णन आता है कि नर-नारायण ऋषि ज्ञानार्थ एक तपस्या कर रहे हैं, पर इन तीनों उदाहरणों में, जैसा कि गीता ने कहा है, वह ज्ञान ही लक्ष्य है जिसमें ’सारा कर्म अपनी पूर्णता प्राप्त करता है; परंतु गीता में वह कर्म लक्ष्य है जो उस ज्ञान को प्राप्त कराता है और जिसमें ज्ञाता भगवान् ही कर्म के कर्ता बनकर सामने आते हैं।


यहाँ अर्जुन और श्रीकृष्ण, अर्थात् मनुष्य और भगवान् ऋषि-मुनियों के समान किसी तापस आश्रम में ध्यान करके नहीं बैठे हैं, बल्कि रणभेरियों के तुमुल निनाद से आकुल समर-भूमि में शस्त्रों की खनखनाहट के बीच युद्ध के रथ पर रथी और सारथी के रूप में विद्यमान हैं। अतएव, गीता के उपदेष्टा गुरु केवल मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर ही नहीं हैं जो केवल ज्ञान के वक्ता के रूप में ही प्रकट होते हों, बल्कि मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर हैं जो सारे कर्म-जगत् के संचालक हैं, जिनसे और जिनके लिये समस्त मानव-जीवन यात्रा कर रहा है। वे सब कर्मों और यज्ञों के छिपे हुए स्वामी हैं और सबके सुहृद् हैं।


तो ऐसे हैं गीता के भगवद्-गुरु, सनातन अवतार, स्वयं श्री भगवान् जो मानव-चैतन्य में अवतीर्ण हुए हैं, ये वे महाप्रभु हैं जो प्राणिमात्र के हृदय में अवतीर्ण हुए हैं, ये वे हैं जो परदे की आड़ में रहकर हमारे समस्त चिंतन, कर्म और हृदय की खोज का भी उसी प्रकार संचालन करते हैं जैसे दृश्यमान और इंन्द्रिग्राह्य रूपों, शक्तियों और प्रवृत्तियों की ओट में रहकर इस जगत् के, जिसको उन्होंने अपनी सत्ता में अभिव्यक्त किया है,-महान् विश्वव्यापी कर्म का संचालन करते हैं। उन्नत होने की हमारी संपूर्ण चेष्टा और खोज शांत, तृप्त और परिपूर्ण हो जाती है यदि हम इस पर्दे को फाड़ सकें, और अपने इस बाह्य स्व के परे अपनी वास्तविक आत्मा को प्राप्त हों, अपनी सत्ता के इन सच्चे स्वामी के अंदर अपनी समग्र सत्ता को अनुभव कर सकें, अपना व्यक्तित्व इन एक वास्तविक पुरुष पर उत्सर्ग करके उनके होकर रहें, अपने मन की सदा छितरी हुई और सदा चक्कर काटने वाली कर्मण्यताओं को उनके पूर्ण प्रकाश में मिला दें, अपने प्रमादशील बेचैन संकल्प चेष्टाओं को उन्हीं के महत्, ज्योतिर्मय और अखंड दिव्य संकल्प की भेंट कर दें, अपनी नानाविध बर्हिमुखी वासनाओं और उमंगों को, उन्हीं के स्वतःसिद्ध, आनंद की परिपूर्णता में त्यागकर, तृप्त करें।


यही जगदगुरु हैं जिनके सनातन ज्ञान के ही बाकी सब उत्तमोत्तम उपदेश केवल विभिन्न प्रतिबिंब आंशिक शब्द मात्र यही वह ध्वनि है जिसे सुनने के लिये जीव को जागना होगा। अर्जुन जो इन गुरु का शिष्य है और जिसने युद्ध क्षेत्र में दीक्षा ली है- इस धारणा का पूरा भाग है; अर्जुन संघर्ष में पड़ी हुई उस मानव-आत्मा का नमूना है जिसे अभी तक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, पर जो मानव-जाति में विद्यमान उन श्रेष्ठतर तथा भागवत आत्मा के उत्तरोत्तर अधिकाधिक समीप रहने तथा उनके अंतरंग सखा होने के कारण इस ज्ञान को कर्म-जगत् में प्राप्त करने का अधिकारी हो गया है। गीता के प्रतिपादन की एक ऐसी पद्धति भी है जिससे केवल यह उपाख्या ही नहीं, बल्कि संपूर्ण महाभारत के मनुष्य के आंतरिक जीवन का एक रूपक मात्र बन जाता है, और फिर उसमें हमारे इस बाह्य जीवन और कर्म का कोई संबंध नहीं रहता, बल्कि इसका संबंध अंतरात्मा और हमारे अंदर स्वत्व के लिये लड़ने वाली शक्तियों के युद्ध से रह जाता है। इस प्रकार विचार की पुष्टि महाकाव्य के साधारण स्वरूप और इसकी यथार्थ भाषा से तो नहीं होती और यदि इस विचार पर बहुत अधिक जोर दिया जाये, तो गीता की सीधी-सादी दार्शनिक भाषा आदि से अंत तक क्लिष्ट, कुछ-कुछ निरर्थक दुर्बोधता में बदल जायेगी।


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