गुणत्रयविभागयोग

गुणमयी प्रकृति का थोड़ा परिचय कराने के बाद स्‍वभावत: तीनों गुणों का वर्णन इस अध्‍याय में आता है और यह करते हुए गुणातीत के लक्षण भगवान गिनाते हैं। दूसरे अध्‍याय में जो लक्षण स्थितप्रज्ञ के दिखाई देते हैं, बारहवें में जो भक्‍त के दिखाई देते हैं, वैसे इसमें गुणातीत के हैं।



श्रीभगवानुवाच

परं भूय: प्रवक्ष्‍यामि ज्ञनानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्‍ज्ञात्‍वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता:।।1।।


श्रीभगवान बोले-


ज्ञानों में जिस उत्तम ज्ञान का अनुभव करके सब मुनियों ने यह शरीर छोड़ने पर परम गति पाई है वह मैं तुझसे फिर कहूंगा।



इदं ज्ञानमुपाश्रित्‍य मम साधर्म्‍यमागता:।

सर्गेऽपि नोपजायन्‍ते प्रलये न व्‍यथन्ति च।।2।।


इस ज्ञान का आश्रय लेकर जिन्‍होंने मेरे भाव को प्राप्‍त किया है उन्‍हें उत्‍पत्ति काल में जन्‍मना नहीं पड़ता और प्रलयकाल में व्‍यथा भोगनी नहीं पड़ती।



मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्‍गर्भ दधाम्‍यहम्।

संभव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।3।।


हे भारत! महद्ब्रह्म अर्थात प्रकृति मेरी योनि है। उसमें मैं गर्भाधान करता हूँ और उससे प्राणी मात्र की उत्‍पत्ति होती है।



सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।4।।


हे कौंतेय! सब योनियों में जिन-जिन प्राणियों की उत्‍पत्ति होती है उनकी उत्‍पत्ति का स्‍थान प्रकृति है और उसमें बीजारोपण करने वाला पिता- पुरुष- मैं हूँ।


सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसंभवा:।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।5।।


हे महाबाहो? सत्‍व, रजस और तमस प्रकृति से उत्‍पन्‍न होने वाले गुण हैं। वे अविनाशी देहधारी- जीव–को देह के संबंध में बांधते हैं।


तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।

सुखसङ्ग़ेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।6।।


इनमें सत्‍वगुण निर्मल होने के कारण प्रकाशक और आरोग्‍यकर है, और हे अनघ! वह देही को सुख के और ज्ञान के संबंध में बांधता है।


रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङगसमुद्भवम्।

तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।7।।


हे कौंतेय! रजोगुण राग, रुप होने से तृष्‍णा और आसक्ति का मूल है, वह देहधारी को कर्मपाश में बांधता है।


तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।8।।


हे भारत! तमोगुण अज्ञान मूलक है। वह देहधारी मात्र को मोह में डालता है और वह देही को असावधानी, आलस्‍य तथा निद्रा के पाश में बांधता है।


सत्त्वं सुखे संजयति रज: कर्मणि भारत।

ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे संजयत्युत।।9।।


हे भारत! सत्‍व आत्मा को शांति सुख का संग कराता है, रजस कर्म और तमस ज्ञान को ढककर प्रमाद का संग कराता है।


रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।

रज: सत्त्वं तमश्चैव तम: सत्त्वं रजस्तथा।।10।।


हे भारत! जब रजस और तमस दबते हैं तब सत्‍व ऊपर आता है, जब सत्‍व और तमस दबते हैं तब रजस और जब सत्‍व तथा रजस दबते हैं तब तमस उभरता है।


सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।।11।।


सब इंद्रियों द्वारा इस देह में जब प्रकाश और ज्ञान का उद्भव होता है तब सत्‍वगुण की वृद्धि हुई है, ऐसा जानना चाहिए।


लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा।

रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।12।।


हे भरतर्षभ! जब रजोगुण की वृद्धि होती है तब लोभ प्रवृत्ति, कर्मों का आरंभ, अशांति और इच्‍छा का उदय होता है।


अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।।13।।


हे कुरुनंदन! जब तमोगुण की वृद्धि होती है तब अज्ञान, मंदता, असावधानी और मोह उत्‍पन्न होता है।


यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।14।।


सत्‍वगुण की वृद्धि हुई होने पर देहधारी मरता है तो वह उत्तम ज्ञानियों के निर्मल लोक को पाता है।


रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते।।15।।


रजोगुण में मृत्‍यु होने पर देहधारी कर्मसंगी के लोक में जन्‍मता है और तमोगुण में मृत्‍यु पाने वाला मूढ़ योनि में जन्‍मता है।


टिप्‍पणी- कर्मसंगी से तात्‍पर्य है मनुष्‍य लोक और मूढ़ योनि से तात्‍पर्य है पशु इत्‍यादि लोक।


कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दु:खमज्ञानं तमस: फलम्।।16।।


सत्‍कर्म का फल सात्त्विक और निर्मल होता है। राजसी कर्म का फल दु:ख होता है और तामसी कर्म का फल अज्ञान होता है।


टिप्‍पणी- जिसे हम लोग सुख- दु:ख मानते हैं यहाँ उस सुख- दु:ख का उल्‍लेख नहीं समझना चाहिए। सुख से मतलब है आत्‍मानंद, आत्‍मप्रकाश। इससे जो उलटा है वह दु:ख है। 17 वें श्‍लोक में यह स्‍पष्‍ट हो जाता है।


सत्त्वातसंजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥17॥


सत्‍वगुण में जो ज्ञान उत्‍पन्‍न होता है। रजोगुण में से लोभ और तमोगुण में से असावधानी, मोह और अज्ञान उत्‍पन्‍न होता है।


ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा: ।

जघन्यगुणवृत्तिस्थाअधो गच्छन्ति तामसा: ॥18॥


सात्त्विक मनुष्‍य ऊंचे चढ़ते हैं, राजसी मध्‍य में रहते हैं और अंतिम गुण वाले तामसी अधोगति पाते हैं।


नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति ।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मदूभावं सोऽधिगच्छति ॥19॥


ज्ञानी जब ऐसा देखता है कि गुणों के सिवा और कोई कर्ता नहीं है और जो गुणों से परे है उसे जानता है तब वह मेरे भाव को पाता है।


टिप्‍पणी- गुणों को कर्ता मानने वाले को अहंभाव होता ही नहीं। इससे उसके सब काम स्‍वाभाविक और शरीर-यात्रा भर के लिए होते हैं। और शरीर-यात्रा परमार्थ के लिए ही होती है, इसलिए उसके सारे कामों में निरंतर त्‍याग और वैराग्‍य होना चाहिए। ऐसा ज्ञानी स्‍वभावत: गुणों से परे निर्गुण ईश्वर की भावना करता है और उसे भजता है।


गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।

जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥20॥


देह के संग से उत्‍पन्‍न होने वाले इन तीन गुणों को पार करके देहधारी जन्‍म, मृत्‍यु और जरा के दु:ख से छूट जाता है और मोक्ष पाता है।




श्री भगवान बोले - जिस उत्तम ज्ञान को पाकर ऋषि- मुनियों ने परम सिद्धि पाई है, वह मैं तुझसे फिर कहता हूँ। उस ज्ञान के पाने और उसके अनुसार धर्म का आचरण करने से लोग जन्‍म-मरण के चक्‍कर से बच जाते हैं। हे अर्जुन, यह समझ कि मैं जीवमात्र का माता-पिता हूँ।


प्रकृति-जन्‍य तीन गुण-तत्‍व, रजस और तमस - देही को बांधने वाले हैं। इन गुणों को उत्तम, मध्‍यम और कनिष्‍ठ भी कह सकते हैं। इसमें सत्‍व गुण निर्मल और निर्दोष है, प्रकाश देने वाला है और इससे उसका संग सुखद होता है। रजस राग से, तृष्‍णा से पैदा होता है और वह मनुष्‍य को गड़बड़ में डालता है। तमस का मूल अज्ञान है, मोह है और इससे मनुष्‍य प्रसादी और आलसी बनता है। अत: संक्षेप में कहा जाय तो सत्त्व में से सुख, रजस में से तृष्‍णादि और तमस में से आलस्‍य पैदा होता है। रजस और तमस को दबाकर सत्त्व जय प्राप्‍त करता है और सत्त्व और रजस को दबा कर तमस जय पाता है। देह के सब कामों में जब ज्ञान का अनुभव देखने में आवे तब यह जानना कि अब तत्‍वगुण प्रधान रूप से काम कर रहा है।



जब लोभ, गड़बड़, अशांति, प्रतिद्वंद्विता दिखाई दे तब रजस की बुद्धि जानो और जब अज्ञान, आलस्‍य, मोह का अनुभव हो तब समझो कि तमस का राज्‍य है। जिसके जीवन में सत्‍व गुण प्रधान होता है, वह मृत्यु के अंत में ज्ञानमय निर्दोष लोक में जन्‍म पाता है, रजस-प्रधान जो होता है वह धांधली लोक में जाता है और तमस-प्रधान मूढ़ योनि में जन्‍मता है। सात्त्विक कर्म का फल निर्मल, राजस का दु:खमय और तामस का अज्ञानमय होता है। सात्त्विक लोक की उच्‍चगति, राजस की मध्‍यम और तामस की अधोगति होती है। मनुष्‍य जब गुणों के सिवा दूसरे को कर्त्ता नहीं समझता और गुणों से परे जो मैं हूं, उसे जानता है तब वह मेरे भाव को पाता है। देह जन्‍म, जरा और मृत्‍यु के दु:खों से छूटकर अमृतमय मोक्ष को प्राप्‍त होता है।


गति होती है तो बतलाइये कि इसके लक्षण कैसे हैं, इसका आचरण कैसा है और तीनों गुणों को किस प्रकार पार किया जाय? भगवान उत्तर देते हैं - जो मनुष्‍य पर जो आ पड़े, फिर भले ही प्रकाश हो या प्रवृत्ति हो, या मोह हो, ज्ञान हो, गड़बड़ हो या अज्ञान, उसका अतिशय दु:ख या सुख न माने या इच्‍छा न करे; जो गुणों के बार में तटस्‍थ रहकर विचलित नहीं होता, गुण अपने गुणानुसार बरतते हैं, यह समझकर जो स्थिर रहता है; जो सुख-दु:ख को सम मानता है; जिसे लोहा, पत्‍थर को सोना समान है; जिसे प्रिय-अप्रिय की बात नहीं है; जिस पर अपनी स्‍तुति या निंदा कोई प्रभाव नहीं डाल सकती, जिसे मान-अपमान समान है; जो शत्रु-मित्र के प्रति समभाव रखता है; जिसने सब आरंभों का त्‍याग किया है, वह गुणातीत कहलाता है। मेरे बताये इन लक्षणों से भड़कने की जरूरत नहीं है, न आलसी होकर सिर पर हाथ रखकर बैठ जाने की। मैंने तो सिद्ध की दशा बतलाई है। उसे पहुँचने का मार्ग यह है - व्‍यभिचार रहित भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा कर। तुझे बताया है कि कर्म बिना, प्रवृत्ति बिना कोई सांस तक नहीं ले सकता, अत: कर्म तो देह मात्र को लगे हुए हैं। जो गुणों को पार कर जाना चाहता है, वह साधक सब कर्म मुझे अर्पण करे और फल की इच्‍छा तक भी न करे। ऐसा करने में उसके कर्म उसे विघ्‍न रूप नहीं होंगे; क्‍योंकि ब्रह्म मैं हूं, मोक्ष मैं हूं, सनतान धर्म मैं हूं, अनंत सुख मैं हूं, जो कहो, वह मैं हूँ। मनुष्‍य शून्‍यवत, हो जाय तो मुझे ही सर्वत्र देखे, इसे गुणातीत कहेंगे।


25-1-32


संसार का वृक्ष 

श्री भगवान बोले - इस संसार को दो तरह देखा जा सकता है -


एक इस तरह: जिसकी जड़ ऊपर है, जिसकी शाखा नीचे है और जिसके वेद रूपी पत्ते हैं; ऐसे पीपल के रूप में जो संसार को देखता है, वह वेद को जानने वाला ज्ञानी है।

दूसरी रीति यह है: संसार रूपी वृक्ष की शाखाएं ऊपर-नीचे फैली हुई हैं। उसके तीन गुणों से बढ़े हुए विषय-रूपी अंकुर हैं और वे विषय जीव को मनुष्‍य-लोक में कर्म के बंधन में डालते हैं। इस वृक्ष का स्‍वरूप नहीं जाना जा सकता, उसका आरंभ नहीं है, न अंत है, न कोई ठिकाना।


वह दूसरे प्रकार का संसार-वृक्ष है। उसने यद्यपि जड़ गहरी पकड़ी है, तथापि उसे असहकार रूपी शास्‍त्र से काटना चाहिए कि जिससे आत्‍मा को वह लोक-प्राप्‍त हो सके, जहाँ से उसे वापस चक्‍कर न करना पड़े। ऐसा करने के लिए वह निरंतर उस आदि- पुरुष को भजे कि जिसकी माया से यह पुरानी प्रवृत्ति पसरी हुई है। जिन्‍होंने मान-मोह को छोड़ दिया है, जिन्‍होंने संग-दोष को जीत लिया, जो आत्‍मा में लीन हैं, जो विषयों से अलग हो गये हैं, जिन्‍हें सुख-दु:ख समान है, वह ज्ञानी उस अव्‍यय पद को पाते हैं।


इस जगह सूर्य की या चंद्र को या अग्नि को तेज पहुँचाने की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ जाने के बाद लौटना नहीं रह जाता, वह मेरा परमधाम है।


जीव लोक में मेरा सनातन अंश जीव रूप में, प्रकृति में विद्यमान मन सहित छ: इंद्रियों को, आकर्षित करता है। जब जीव देह धारण करता है और तजता है तब, जैसे वायु अपने स्‍थल से गंधों को साथ लिये चलता है, यह जीव भी इंद्रियों को साथ लिये हुए विचरता है। कान, आंख, त्‍वचा, जीभ और नाक तथा मन इतनों का सहारा लेकर जीव विषयों का सेवन करता है। गति करते हुए, स्थिर, रहते, हुए या भोग हुए गुणों- वाले इस जीव को मोह में पड़े हुए अज्ञानी पहचानते नहीं, ज्ञानी पहचानते हैं। यत्‍न करने वाले योगी अपने में विद्यमान उस जीव को पहचानते हैं, पर समभाव रूपी योग को नहीं साधा है, वह यत्‍न करता हुआ भी उसे पहचानता नहीं है।


सूर्य का जो तेज जगत को प्रकाशित करता है, जो चन्द्रमा में है, जो अग्नि में है, उन सारे तेजों को मेरा तेज जान। अपनी शक्ति द्वारा शरीर में प्रवेश करके मैं जीवों का धारण करता हूँ। रस उत्‍पन्‍न करने वाला सोम बनकर औषधि मात्र का पोषण करता हूँ। प्राणियों की देह में रह करके जठराग्नि बनकर प्राण, अपान वायु को समान करके, चार प्रकार का अन्‍न पचाता हूँ। सबके हृदय के भीतर विद्यमान हूँ। मेरे द्वारा ही स्मृति है, ज्ञान है, उसका अभाव है, सब वेदों के द्वारा जानने योग्‍य जो है, वह मैं हूँ। वेदान्‍त भी मैं हूं, वेदान्‍त को जानने वाला भी मैं हूँ।


इस लोक में कहा जाता है कि दो पुरुष हैं - क्षर और अक्षर अथवा नाशवान और नाशरहित। इसमें जीव क्षर कहलाते हैं, उनमें स्थिर हुआ मैं अक्षर हूँ और उससे भी परे जो उत्तम पुरुष है, वह परमात्‍मा कहलाता है। वह अव्‍यय ईश्‍वर तीनों लोकों में प्रवेश करके उसका पालन करता है, वह भी मैं हूं; इससे मैं क्षर और अक्षर से भी उत्तम हूं, और लोकों में, वेद में, पुरुषोत्तम- रूप से प्रसिद्ध हूँ। इस प्रकार जो ज्ञानी मुझे पुरुषोत्तम रूप से पहचानता है, वह सब जानता है और मुझे सब भावों द्वारा भजता है।

हे निष्‍पाप अर्जुन, यह अति गुह्य शास्‍त्र मैंने तुझे कहा है। इसे जानकर मनुष्‍य बुद्धिमान बनता है और अपने ध्‍येय को पहुँचता है।



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