भागवत-धर्म

 

मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्। 

उद्विग्नबुद्धेर् असदात्मभावात् विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः।।

 मन्ये- मानता हूँ। अत्र- इस दुनिया में। नित्यम्- सदैव के लिए। अच्युतस्य पादांबुजोपासनम्- भगवान् के चरण-कमलों की सेवा। अकुतश्चित् भयम्- कहीं से कोई भयप्रद नहीं। वह सर्वथा निर्भय है। 

भागवत में भगवान भगवद्-भक्ति का विशेष वर्णन कर रहे हैं। जो भगवान के चरणों की सेवा करेगा, वह इस दुनिया में किसी प्रकार किसी से कभी नहीं डरेगा। उसे कभी किसी प्रकार का भय हो ही नहीं सकता। फिर भी आश्चर्य की बात है कि हिंदुस्तान में भगवान की भक्ति अधिक देखी जाती है और डरने वाले लोगों की संख्या भी अधिक है। प्रश्न होगा : हम भगवान की भक्ति करें और चित्त में डर भी रखें, ऐसा क्यों होता है? इसीलिए कि उस भक्ति में जड़ता है। वह भक्ति जड़ श्रद्धा के रूप में है, जीवित-जागृत भक्ति नहीं। माँ पर बच्चे की जीवित श्रद्धा होती है। वह माँ की गोद में होगा, तो कभी नहीं डरेगा। माँ कोई बड़ी ताकत नहीं रखती, फिर भी बच्चा समझता है कि वह मेरा हर प्रकार से बचाव करने वाली है। घर को आग लगी हो, तो भी बच्चा कुछ हलचल नहीं करेगा। माँ उसे उठा ले जाए तो ठीक, नहीं तो वहीं पड़ा रहेगा। माँ के प्रति बच्चे की जैसी दृढ़ श्रद्धा है, क्या भगवान के प्रति हमारी वैसी श्रद्धा है? हम अनुभव ही नहीं करते कि ‘भगवान की भक्ति करते हैं, उनका नाम लेते हैं तो हर हालत में वे हमें बचाएंगे, हम निर्भय हैं।’ हमने अपने माता-पिता से सुना कि ‘कोई भगवान हैं’, इसीलिए हम भी कहते हैं कि ‘भगवान हैं।’ किंतु वह कोई जीवित श्रद्धा नहीं। यदि जीवित श्रद्धा हो तो किसी प्रकार का भय ही नहीं रहेगा। संसार में अत्यंत निर्भर करने वाली कोई वस्तु है तो वह भगवान की भक्ति ही है। भय कैसे पैदा होता है और कैसे निवृत्त होता है, तो कहते हैं : 

उद्विग्नबुद्धेः असद्-आत्मभावात् विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः। 

असद्-आत्मभावात्- देहात्मभाव से, अर्थात् आत्मा के बारे में ‘देह ही आत्मा है’ ऐसी मिथ्या कल्पना होने के कारण। उद्विग्नबुद्धेः- जिसकी बुद्धि उद्विग्न होती है, यानि असद् आत्मभाव से बुद्धि भयग्रस्त होती है। किंतु अच्युत की चरण-सेवा से विश्वात्मता यानि ‘सारा विश्व मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना होती है, जिससे निवर्तते भीः- भय निवृत्त हो जाता है। 


सारांश देहबुद्धि या देहभावना यानि ‘मैं देह हूँ’ यह भावना दृढ़ होने के कारण भय पैदा होता है। पर भय निवृत्त कैसे होता है? भागवत-धर्म के परिणामस्वरूप। भगवद्-भक्ति से, अच्युत की चरण-सेवा से मनुष्य विश्वात्मा बनता है। देहभाव की जगह विश्वात्मभाव पैदा होता है। ‘सारे विश्व में मेरा ही रूप है’ ऐसी व्यापक भावना पैदा होती है और उससे भय निवृत्त हो जाता है। देहभाव होने से मानव भयभीत होता है तो भगवद्-भक्ति से विश्वव्यापक भाव बनता और भय खतम होता है। भगवद् भक्ति मनुष्य को अपनी देह से अलग करके सारे विश्व के साथ जोड़ देती है। देह की भावना अपने को विश्व से अलग करती है- ‘मैं अकेला एक बाजू और कुल दुनिया दूसरी बाजू! मैं अलग और ये सब अलग!’ इसी को संस्कृत में ‘स्व-पर-भेद’ कहते हैं। देहबुद्धि के कारण ऐसे दो टुकड़े हो जाते हैं, पर विश्वात्म-भावना से वे टुकड़े जुड़ जाते हैं। सार यह कि भगवान विश्वेश्वर की भक्ति के कारण विश्वात्म भावना आती है, इसलिए भय निवृत्त होता है। ‘कुरान’ में बार-बार इसी विश्वात्म-भाव पर जो दिया है : रब्बुल अल् अमीन। भगवान कैसे हैं? सब दुनिया के प्रभु हैं। केवल मेरे नहीं, सबके प्रभु! इससे बुद्धि व्यापक बनती है कि हम सब एक प्रभु की संतानें हैं। ‘यह एक विश्व और वही हम’ यानि विश्व और हममें कोई फ़रक ही नहीं, यह भावना होती है। इस तरह स्पष्ट है कि मनुष्य भगवद् भक्ति से विश्वात्मा बनता है और विश्वात्मा बनने पर उसकी भय-निवृत्ति होती है। 


ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्म-लब्धये। अंजः पुंसां-अविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्।।इसे भागवत-धर्म क्यों नाम दिया गया? तो समझा रहे हैं : ये वै भगवता प्रोक्ताः उपायाः। ये- जो। वै- ही। भगवता- भगवान द्वारा। प्रोक्ताः- कहे गये। उपायाः- उपाय हैं। अर्थात भगवान् ने भगवत- प्राप्ति के ये उपाय बताए, इसीलिए इनका नाम ‘भागवत-धर्म’ है। किसलिए बताये? आत्मलब्धये यानि अपनी लब्धि (प्राप्ति) के लिए। दुनिया में हमें सब कुछ हासिल है। पैसा, घर, तरह-तरह के पदार्थ, बहुत कुछ हमने हासिल कर लिया है, लेकिन एक चीज हमारी खो गयी है- खुद को ही खो बैठे हैं। बाकी सब प्राप्तियाँ हैं। विद्या पढ़ी, तो विद्या-प्राप्ति है। धन कमाया, तो धन-प्राप्ति है, लेकिन हमें अपनी ही प्राप्ति, आत्म-प्राप्ति नहीं हुई। महाराष्ट्र में संत रामदास स्वामी हो गये हैं। परमात्म-प्रसाद का अनुभव होने पर उन्होंने लिखा है : बहुता दिसा आपुली भेट झाली- बहुत दिनों बाद मेरी खुद अपने से मुलाकात हुई, जो अब तक हो नहीं पायी थी। तो, भगवान ने ये जो ‘अपनी’ प्राप्ति के उपाय बताये, उन्हीं का नाम है भागवत धर्म। ‘कैसे हैं ये उपाय?’ तो कहते हैं :

अंजः पुंसां-अविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्।

अंजः- सादे, सरल। पुंसां-अविदुषाम्- मूढ़ जनों के लिए। विद्धि- (कहे गये) समझो। भागवतान् हि तान्- उनको भागवत धर्म ही (समझो)।

मूढ़ जनों के काम आने वाले, सीधे-सादे, सरल उपाय भगवान ने बताये हैं। वैसे केवल विद्वानों के काम आने वाले दूसरे भी उपाय हैं, और भी मार्ग हैं, जिनमें एक है कर्म वाला वैदिक मार्ग- सतत कर्मनिष्ठा। इसका व्यावहारिक रूप कहा जा सकता है : ‘आराम हराम है!’ लेकिन साधारण मनुष्य इससे घबड़ा जाता है, भले ही पं. नेहरू जी जैसे असाधारण व्यक्ति रात में पाँच घंटे निद्रा और दिन में एक घंटा आराम- इस तरह लगातार 17-18 घंटे काम करके इस मार्ग का शान से अनुसरण कर दिखाते रहे हों। दूसरा मार्ग है, उपनिषद् का ध्यान-मार्ग, जिसका व्यावहारिक सूत्र कहा जा सकता है : ‘लब (जबान) बंद चश्म (आँख) बंद, गोश (कान) बंद!’ पर ऐसा ध्यान करना, आत्मा को आत्मा में लीन करना- ब्रह्मविद्या का यह मार्ग भी बड़ा कठिन है। वैसे बाबा का ‘गोश’ तो बंद हो ही गया। आँख चली जाय तो दूसरा भी बंद हो जाएगा। फिर गूंगा बन जाऊँ तो तीसरा भी आसानी से बंद हो जाय। मतलब यह कि मार्ग भी बड़ा ही कठिन है। उपनिषद् ने कहा है : क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुरगं पथः तत् कवयो वदन्ति। अर्थात सत्य का मार्ग कैसा है, तो क्रांतदर्शी लोग बताते हैं कि वह उस्तरे की धार जैसा बड़ा कठिन, बड़ा दुर्गम मार्ग है। किंतु ये दोनों मार्ग भागवत धर्म नहीं। भागवत धर्म तो प्रेमवाला मार्ग है और अविदुषां पुंसाम्- अज्ञानी लोगों के लिए बताया हुआ अंजः- सरल मार्ग है। वह मार्ग और कैसा है? तो कहते हैं :

यानास्थाय नरो राजन्! न प्रमाद्येत कर्हिचित्।

धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह।।[1]


यान् आस्थाय- जिन धर्मों का आश्रय लेकर।

न प्रमाद्येत कर्हिचित्- कभी प्रमाद होगा ही नहीं।

धावन् निमील्य वा नेत्रे- चाहे दौड़े चले जाओ या आँखें बंद कर।

न स्खलेत् न पतेत्- न ठेस लगेगी, न गिरेगा।

यह ऐसा मार्ग है कि आँखें बंद रखकर दौड़े चले जाएँ, तो भी ठेस नहीं लगेगी, गिरेगे नही। ‘धाव’ यानि दौड़ना। संस्कृत के इस धातु पर से मराठी में ‘धावणें’ क्रियापद बना है। संस्कृत में दूसरा एक धातु है ‘द्रु’। उस पर से हिंदी में ‘दौड़ना’ क्रियापद बना है। इन धर्मों का आश्रय लेकर चलें तो कभी प्रमाद होगा ही नहीं। गलती होगी ही नहीं, क्योंकि गलती करेंगे तो उसे भी भगवान को अर्पण करने के लिए कहा गया है। फिर गलती का डर ही क्या रहा? गलतियाँ करने की आपको पूरी इज़ाजत है। यह मार्ग ही ऐसा है, जो कुछ भी करें, सारा भगवान को अर्पण कर देने के लिए कहता है।


कायेन वाचा मनसेंद्रियैर् वा

बुद्धध्याऽऽत्मना वाऽनुसृतस्वभवात्।

करोति यद् यत् सकलं परस्मै

नारायणायेति समर्पयेत् तत्।।


कायेन वाचा मनसा- शरीर, वचन या मन से।

इंद्रियैः बुद्धध्या आत्मना वा- अथवा इंद्रियों से, बुद्धि से या आत्मा से।

अनुसृतस्वभावात् (प्रकृतिस्वभावात्) वा- जो कुछ अपना स्वभाव हो, तदनुसार।

करोति यद् यत् सकलम्- आप जो कुछ भी करें सब।

परस्मै नारायणाय इति तत् समर्पयेत्- वह परमात्मा नारायण को समर्पण है; ऐसी भावना करके करें।

‘गीता प्रवचन’ के नवें अध्याय में एक कहानी है- कृष्णार्पण की। वह कहानी हमारी माँ ने हमें बचपन में सुनायी थी। एक बहन सब कुछ कृष्णार्पण किया करती थी। गाँव में एक कृष्ण- मंदिर था। तो, वह जो भी कृष्णार्पण करती, सारा वहाँ की मूर्ति पर आ गिरता। उसने हाथ धोया और कह दिया : ‘कृष्णार्पण’, तो पानी मूर्ति पर पड़ा। घर लीपकर गोबर फेंका और कहा : ‘कृष्णार्पण’, तो गोबर मूर्ति पर लग गया। जब वह बहन मरी और भगवान के दूत विमान (हवाई जहाज) लेकर उसे ले जाने के लिए आये, तो वह बोली : ‘कृष्णार्पण’। तो, वह विमान एकदम उस मूर्ति पर टूट पड़ा और मूर्ति खंडित हो गयी। लोगों ने पूछा : ‘यह क्या हुआ?’ तो पुजारी जी बोले : ‘एक स्त्री है, जो हर बात कृष्णार्पण करती है। उसी का यह सारा तमाशा है।’


सार यह कि जो भी करें, उसे भगवान को अर्पण करें। अपने कर्मों का नियमन करने की जरूरत नहीं। शरीर, मन, वाणी, इंद्रियों या बुद्धि से जो भी कर्म करें, सकलं परस्मै नारायणाय! यह भागवत धर्म की चतुराई है, क्योंकि जहाँ मनुष्य भगवान को अर्पण करने का ख्याल करेगा, वहाँ उससे गलत काम होना संभव ही नहीं। जान बूझकर कोई खराब काम करने जाएगा, तो भगवान को अर्पण करने की बुद्धि ही उसे पैदा नहीं होगी। भगवान को अर्पण करने की बात याद आते ही गलत काम रुक जाएगा। यह खूबी है इसमें! यह हो सकता है कि यह बुरा काम है, इसकी पहचान ही न हो, और उसे कर ले। लेकिन जान-बूझकर जिसे वह खुद बुरा मानता है, उसे करते चला जाए और कहे कि ‘मैं भगवान को अर्पण करता हूँ’ तो वह हो नहीं सकता। मतलब यह कि भगवत-स्मरण के साथ बुरा काम टल जाता और अच्छा काम सहज बनता है। उसमें कठिनाई नहीं रहती।


यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है। बहुत के कंठ में होता है, लेकिन थोड़ा फ़रक करके बोलते हैं-


करोमि यद् यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि।

इस तरह ‘करोति’ के बदले ‘करोमि’ बोलते हैं। व्यक्तिगत समर्पण करना है, इसलिए प्रथम पुरुष कर लेते हैं। गीता में भी यह विषय आया है-


 यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदर्पणम्।।


एक ही चीज है, लेकिन इसे उन्होंने नाम दिया है- भागवत धर्म, भगवान की भक्ति का सरल मार्ग।


भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्

ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः।

तन्माययाऽतो बुध आभजेत् तं

भक्तयैकयेशं गुरुदेवतात्मा।।


इस श्लोक में भय की मीमांसा (विचार) की है। भय कैसे पैदा होता है, तो कहते हैं : द्वितीयाभिनिवेशतः भयं स्यात्- अर्थात ‘द्वितीय भावना से भय होता है।’ हमसे भिन्न कोई दूसरा है, हम एक और वह दूसरा, ऐसी भावना से भय होता है। बच्चे अपनी परछाई से डरते हैं, क्योंकि उनकी भावना होती है कि वह छाया कोई दूसरी चीज है। उसे देखकर वे समझते हैं कि हमारे पीछे कोई लगा है। यही ‘द्वितीयाभिनिवेश’ है। भागवतकार कहना चाहते हैं कि ‘दुनिया में हमसे भिन्न कोई है ही नहीं, यह पहचानें तो भय रहेगा ही नहीं।’



‘दुनिया में हम ही हम हैं, दूसरा कोई नहीं’- ऐसी भावना होना तो बड़ा कठिन है। यह तो अद्वैत हो गया। अद्वैत सिद्ध होने पर भय समाप्त हो जाएगा, यह तो स्पष्ट ही है। फिर भी उसके लिए उपाय बताया जाए। पर वह उपाय भय-निवारण से भी कठिन हो तो किस काम का? इसलिए मेरा सुझाव है कि ‘द्वितीय’- भावना छोड़ नहीं सकते, तो जो दूसरे हैं, उनसे प्रेम करना सीखो। ‘द्वितीय’- भावना से भय पैदा होता है, पर यदि वह ‘द्वितीय’ हमारा प्रेमी हो, तो भय न होगा। उसे हम अपना प्रेमी बनायें, तो भी भय मिट जाएगा।



‘द्वितीय’- भावना किसे होती है? ईशाद् अपेतस्य- जो अपने को परमेश्वर से विमुख मानता है। जिसे मालूम है कि परमेश्वर के साथ मेरा संबंध जुड़ा हुआ है, वह शेर है। जिसे परमेश्वर से अलगाव मालमू होता है, जो परमेश्वर से दूर हो गया है, उसे विपर्ययः अस्मृतिः- विपरीत भावना और अस्मृति होती है। उसे आत्मा का भान नहीं रहता, वह अपना भान भूल जाता है। मनुष्य जब तक अपना भान रखेगा, उसकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी। उसके कारण वह नीतिमार्ग पर चलेगा। लेकिन जहाँ मनुष्य अपना भान भूल जाता है, वहाँ क्या होगा? शराब पिये आदमी का क्या होता है? शराब पीने में मुख्य शराबी यही है कि उसमें आदमी अपने को भूल जाता है। उसे यह भी याद नहीं रहता कि यह मेरी बहन है या पत्नी है। इस तरह जिससे स्मरण-शक्ति पर ही प्रहार हो, उसे बहुत ही बुरा व्यसन मानना चाहिए। तो, जिसे आत्मा की स्मृति नहीं, वह प्रतिष्ठा खोयेगा। फिर उसे विपरीत भावना होगी, भय पैदा होगा।


भागवतकार आगे बताते हैः तन्मायया- भगवान की माया सर्वदा छायी हुई है। उसी के कारण यह सारा फंदा बनता है और उसमें आदमी फँस जाता है। इसलिए क्या करना चाहिए, तो कहते हैं: ‘बुद्धः ऐकया भक्त्या तम् ईशं आभजेत्’- बुधजनों को एकाग्र भक्ति से उस परमात्मा को भजना चाहिए।


कैसे भजेंगे, तो कहते हैं : गुरुदेवतात्मा- अपनी आत्मा, परमात्मा और गुरु- तीनों को एक समझकर। कहना यह चाहते हैं कि भगवान के विषय में आत्मीय भावना और गुरु भावना करनी चाहिए। भगवान तो हमारा स्वरूप ही हैं और हमारे गुरु भी हैं।


ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने।

परमात्मा ने अपने को तीन मूर्तियों में बाँटा है। ‘त्रिमूर्ति’ कहने पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश याद आते हैं, लेकिन यह दूसरी त्रिमूर्ति है- ईश्वरो गुरुरात्मेति। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तो ऊपर हैं। ब्रह्मा उत्पन्न करेगा, विष्णु पालन करेगा, तो रुद्र संहार। दुनिया में तीन शक्तियाँ काम कर रही हैं : उत्पादन-शक्ति, पालन-शक्ति और संहार-शक्ति। उनके अंश माने हुए ये तीन देवता हैं। पर यह त्रिमूर्ति अलग है। अभी हम जिस त्रिमूर्ति की बात करते हैं, वह है गुरु, परमात्मा और हम! तीनों एक हो जाएं। यहाँ एक सवाल पैदा होता है। हम स्वयं को तो जानते हैं। परमेश्वर को भी कल्पना से जान सकते हैं। लेकिन गुरु न मिले तो क्या करें? गुरु तो अनुभवी होता है। गुरु यानि जिसे अनुभव हो। यदि वैसा अनुभवी गुरु न मिले तो क्या करें? गोरखनाथ को गुरु मिले मच्छीन्द्रनाथ। विवेकानंद को गुरु मिले रामकृष्ण परमहंस। लेकिन गुरु मिलें ही नहीं, तो क्या करेंगे? इसके लिए सिखों ने एक उपाय, एक युक्ति खोज निकाली। भक्तों का पुराना ग्रंथ हो, तो उसी को गुरु मानें। ईसा मसीह को ही लीजिए। जिन्होंने उन्हें देखा, उनके वे गुरु हुए। पर हमें देखने को नहीं मिले तो क्या किया जाए? ईसा मसीह की ‘बाइबिल’ को ही गुरु मान लें। भगवान कृष्ण हमें मिलने वाले नहीं, तो ‘गीता’ को ही गुरु मान लिया जाए। ‘ग्रंथ को ही गुरु मानो’- कहकर सिखों ने यह मार्ग खोल दिया। फिर सवाल आएगा कि ग्रंथ को पढ़े बिना गुरु कैसे मानें? यह तो अजीब बात होगी, इसलिए पहले ग्रंथ पढ़ना चाहिए। फिर उस ग्रंथ में ऐसी कोई बात हो, जो विचार और विवेक को पसंद न पड़े तो क्या किया जाए? इसलिए हमने युक्ति निकाली कि ग्रंथ का सार निकाल लो। भागवत इतना बड़ा ग्रंथ और उसमें अनेक प्रकार की चीजें पड़ी है। वह सारा बोझ सिर पर कौन उठाएगा? इसलिए उसमें से सार निकालो। इसमें भी यह सवाल आएगा कि ग्रंथ का सार जिसने निकाला, वह अक्लवाला है या बेवकूफ? यदि कोई श्रद्धेय व्यक्ति हो और वह उसका सार निकाले तो उसे गुरु मानो। लेकिन इससे भी बढ़िया एक युक्ति है, जो सबसे बढ़कर है। वह यह कि जहाँ कोई गुण दीखे, उसे उतने गुण के लिए गुरु मानो, और बातों के लिए नहीं। जैसे विषय-विशेष का प्रोफेसर उस विषय के लिए गुरु होता है, वैसे ही जिस मनुष्य में जो गुण हो, उस गुण के लिए उसे गुरु मानो। इसी का नाम है ‘गुण-गुरु’। इस प्रकार की आदत पड़ जाए तो हर मनुष्य में कोई न कोई गुण मिलेगा। वह गुण देखें और गुरु भावना रखें। गुण ही गुण देंखें, दोष नहीं। यह कला हाथ में आ जाए, तो जगह-जगह हमें एक-एक गुण के लिए एक-एक गुरु मिल जाएगा। सारांश जो ईश्वर से अलग है, उसे भय होता है। ‘द्वितीय’- भावना होती है, स्मरण हानि होती है। इसलिए हमें भक्ति सीखनी चाहिए। हम गुरु, परमात्मा और आत्मा को एक मानकर परमात्मा की भक्ति करें। उस भक्ति से स्मरण शक्ति तीव्र होगी, दुनिया के साथ प्रेम बनेगा और भय का निवारण होगा। 


अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयो ध्यातुर् धिया स्वप्नमनोरथौ यथा।

तत् कर्म-संकल्प-विकल्पकं मनो बुधो निरुंध्यात् अभयं ततः स्यात्।।

अविद्यमानः- वह नहीं है। अपि- फिर भी। अवभाति- भासित होता है। द्योः- द्वैत। वास्तव में द्वैत है ही नहीं, फिर भी वह भासमान होता है। द्वैत है नहीं, लेकिन ‘अपने से अलग दूसरा कोई है ही नहीं’- यह बात कोई नहीं मानता। फिर भी यदि इतना स्वीकार करें कि हमारा हित किसी के हित के विरुद्ध नहीं है, तो भी भागवत की पकड़ में आ जाएंगे, उसके जाल में फँस जाएंगे। यदि इतना मानेंगे कि हम सबका हित एक दूसरे के हित में है, दूसरे के हित के विरुद्ध नहीं है, तो शोषण (एक्सप्लायटेशन) खतम हो जाएगा। यही उद्देश्य है। एक का हित दूसरे के हित के अविरुद्ध मानना कठिन नहीं। एक परिवार में अनेक लोग होते हैं। कई व्यक्तियों को मताधिकार होता है और हर एक का अलग-अलग मत रहता है। बिहार में तो हमने बड़ा मजा देखा। बड़े-बड़े परिवार होते हैं और एक ही परिवार में एक लड़का कांग्रेसी, दूसरा कम्युनिस्ट, तीसरा सोशलिस्ट, चौथा जनसंघी, तो पाँचवाँ सर्वोदय वाला होता है। यद्यपि घर वालों में इस प्रकार मतभेद होते हैं, लोग भिन्न-भिन्न पार्टियों के होते हैं, फिर भी घर में सब इकट्ठे रहते हैं। वे मानते हैं कि हमारे बीच किसी का हित किसी के विरोध में नहीं है, हमारा घर एक ही है। जिस प्रकार घरवाले समझते हैं कि हमारा सम्मिलित हित है, हित-विरोध नहीं है, उस प्रकार भी हम समझ सकें तो बहुत हो जाएगा। हम ग्रामदान वगैरह विचार समझाते समय यही बताते हैं कि अपना सारा गाँव एक परिवार समझो और एक दूसरे के हित को अच्छी तरह सुरक्षित रखो, तो तुम्हारा भला होगा। ‘मुझसे भिन्न कोई है ही नहीं’- यह भावना पैदा होना तो बहुत बड़ी बात है। वह भी होगी, किंतु प्रथम सम्मिलित हित की भवना बने। उसके बाद धीरे-धीरे वह भी बन जाएगी। यह भासमान द्वैत कैसा है? यह बतलाते हैं। ध्यातुः धिया- कल्पना करने वाले की बुद्धि से। स्वप्नमनोरथौ यथा- जैसे स्वप्न और मनोरथ होते हैं। स्वप्न में अनेक प्रकार के भेद हुआ करते हैं, पर वे सही नहीं होते। जाग जाने पर पता चलता है कि वह सब मिथ्या था, कुछ था ही नहीं। मनोरथों के भी अनेक प्रकार होते हैं। तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं, लेकिन उनके समाप्त होते ही पता चलता है कि वह सारा कल्पना मात्र था। वैसे ही हमने जो भेद मान रखे हैं, द्वैत मान रखा है, वह वस्तुतः है ही नहीं। भेद है ही नहीं, इसका प्रमाण चाहते हो, तो श्मशान में मिलेगा। वैसे तो लोग श्मशान भी अलग-अलग बनाते हैं- हिंदुओं का अलग, सिखों का अलग, पारसियों का अलग। इस तरह भले ही अलग-अलग श्मशान बनाओ, लेकिन इतना पक्का समझ लो कि आख़िर सब ख़ाक ही बनता है। ख़ाक में कोई भेद है नहीं। आप पहचान न सकेंगे कि यह बाबा की ख़ाक है या व्यास जी की, बिलकुल अद्वैत है। वहाँ एकता सिद्ध हो जाती है। हम कितना भी भेद मानें, आखिर सब ख़ाक होने वाला है, इसमें शक नहीं। इसलिए सारे भेद मिटा देने चाहिए।


इसके लिए हमें क्या करना होगा, तो कहते हैं :

तत्- इसलिए।

कर्म-संकल्प-विकल्पकं मनः- जिसके संकल्प-विकल्प के कारण कर्म होते हैं, उस मन का।

बुधो निरुंध्यात्- बुधजन निरोध करें।

मन में अनेक प्रकार के संकल्प और विकल्प आते हैं। उन भले-बुरे संकल्प-विकल्पों के वश होकर मनुष्य भले-बुरे काम कर बैठता है। तो, जिस मन में ये सारी चीजें आती हैं, उसी का निरोध करें। यह मन ही अनेक प्रकार के भेद पैदा करता है। इसलिए मन को ही काबू में रख लें।


प्रायः लोग कहते हैं कि हम अपने मन के मुताबिक काम करेंगे। एक मित्र दूसरे मित्र से कहा करता है कि ‘मैं तेरी नहीं मानूँगा, अपने मन के अनुसार चलूँगा।’ यानि अपने मित्र की नहीं, अपने गुलाम मन की बात मानने को राजी है। मन तो आपका गुलाम है और आप हैं उसके मालिक। यह तो यही हुआ कि एक मालिक कहे कि ‘मैं अपने नौकर की मानूँगा।’ वास्तव में नौकर को तो अपने हाथ में रखना चाहिए, पर लोग नौकर के ही गुलाम बनते हैं। इसलिए जो कहते हैं कि हम स्वातंत्र्यवादी हैं, वे असल में स्वातंत्र्यवादी नहीं, मन के गुलाम हैं। जब वे मन से अलग होकर सोचेंगे, तभी स्वतंत्र होंगे। ये सारे भेद कौन पैदा करता है? मन ही न? अतः बुद्धिमान मनुष्य का काम है कि वह अपने मन पर काबू रखे, मन का निग्रह करे।


अभयं ततः स्यात्- फिर वह निर्भय हो जाएगा। यह बात तो आरंभ में ही बता दी है :


मन्येऽकुतश्चित् भयमच्युतस्य पादांबुजोपासनमत्र नित्यम्।


उसे दुनिया में कोई भय ही नहीं रहेगा। दुनिया से सारा विरोध मिट जाएगा। कोई किसी से विरोध नहीं करेगा।


हम कई दफा दो मिसालें दिया करते हैं। हमारे अलग-अलग अवयव हैं- मुँह है, हाथ हैं, पेट है। ये सब कितने परोपकारी हैं! मेरे हाथ में लड्डू है। यदि हाथ स्वार्थी बने और कहे कि ‘मैं लड्डू मुँह को नहीं दूँगा’ तो क्या होगा? लेकिन हाथ लड्डू मुँह में डाल देता है। मुँह भी चबा-चबाकर उसे पेट में डाल देता है। वहाँ से उसका खून बनकर सारे अवयवों को पोषण मिलता है। पेट यह नहीं कहता कि ‘मैं लड्डू का खून नहीं होने दूँगा और अपने पास ही रखूँगा।’ वह ऐसा कहेगा, तो उससे उसे तकलीफ ही होगी। इसी तरह सब एक-दूसरे के लिए त्याग करते हैं, तब शरीर चलता है।


दूसरी मिसाल है फुटबाल के खेल की। खेल में हम क्या करते हैं? गेंद जैसे ही मेरे पास आयी कि मैं उसे दूसरे के पास भेज देता हूँ। इसीलिए खेल चलता है। यदि मैं गेंद को अपने पास ही रख लूँ तो खेल ही खतम हो जाय। समाज में भी ऐसा ही होना चाहिए। अपने पास कोई चीज आयी, तो तत्काल दूसरे के पास पहुँचा दी जाए। इस तरह समाज में जब संचलन (सरक्युलेशन) जारी रहेगा, तभी समाज सुंदर रहेगा। बजाय इसके यदि हम अपने घर में संग्रह कर लेंगे, तो विरोध खड़ा होगा। तो, निर्भयता के लिए यह मंत्र दिया कि ‘अपने मन का विरोध करो और सबके हित में मेरा हित है, किसी के हित के साथ मेरे हित का विरोध नहीं, यह समझ लो।’


 



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