आत्मतत्त्व

 

द्वितीय अध्याय में शरणागत अर्जुन द्वारा अपने शोक की निवृत्तिका ऐकान्तिक उपाय पूछे जाने पर पहले-पहल भगवान् तीसवें श्लोक तक आत्मतत्त्व का वर्णन किया है। सांख्ययोग के साधन में आत्मतत्त्व का श्रवण, मनन और निदिध्यासन ही मुख्य है। यद्यपि इस अध्याय में तीसवें श्लोक के बाद स्वधर्म वर्णन करके कर्मयोग का स्वरूप भी समझाया गया है, परंतु उपदेश का आरम्भ सांख्ययोग से ही हुआ है और आत्म्तत्त्व का वर्णन अन्य अध्यायों की अपेक्षा इसमें अधिक विस्तारपूर्वक हुआ है इस कारण इस अध्याय का नाम ‘सांख्ययोग’ रखा गया है।

 

इस अध्याय के पहले श्लोक में संजय ने अर्जुन के विषाद वर्णन किया है तथा दूसरे और तीसरे में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मोह और कायरतायुक्त विषाद की निन्दा करते हुए उन्हें युद्ध के लिये उत्साहित किया है। चौथे और पाँचवें में अर्जुन ने भीष्म-द्रोण आदि पूज्य गुरुजनों को मारने की अपेक्षा भिक्षान्न के द्वारा निर्वाह करना श्रेष्ठ बतलाया है। छठे में युद्ध करने या न करने के विषय में संशय करके तथा सातवें में मोह और कायरता के दोष का वर्णन करते हुए भगवान् के शरण होकर उनसे कल्याणप्रद उपदेश करने के लिये प्रार्थना की है और आठवें में त्रिलोकी के निष्कण्टक राज्य को भी शोक-निवृत्ति में कारण न मानकर वैराग्य का भाव प्रदर्शित किया है। उसके बाद नवें और दसवें में संजय ने अर्जुन के युद्ध न करने के लिये कहकर चुप हो रहने और उस पर भगवान् के मुसकराकर बोलने की बात कही है।


तदनन्तर ग्यारहवें से भगवान् ने उपदेश का आरम्भ करके बारहवें और तेरहवें में आत्मा की नित्यता और निर्विकारता का निरूपण करते हुए चौदहवें में समस्त भोगों को अनित्य बतलाकर सुख-दुःखादि द्वन्द्वों को सहन करने के लिये कहा है और पन्द्रहवें में उस सहनशीलता को मोक्षप्राप्ति में हेतु बतलाया है। सोलहवें में सत् और असत् का लक्षण कहकर सत्रहवें में ‘सत’ और अठारहवें में ‘असत्’ वस्तु का स्वरूप बतलाते हुए अर्जुन को युद्ध करने की आज्ञा दी है। उन्नीसवें में आत्मा को मरने या मारने वाला समझने वालों को अज्ञानी बतलाकर बीसवें में जन्मादि छः विकारों से रहित आत्मस्वरूप का निरूपण करते हुए इक्कीसवें में यह सिद्ध किया है कि आत्मतत्त्व का ज्ञाता किसी को भी मारने या मरवाने वाला नहीं बनता। तदनन्तर बाईसवें में मनुष्य के कपड़े बदलने का उदाहरण देते हुए शरीरान्तरप्राप्ति का तत्त्व समझाकर तेईसवें से पचीसवें तक आत्मतत्त्व को अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अषोष्य तथा नित्य, सर्वगत, स्थाणु, अचल, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया है।


छब्बीसवें और सत्ताईसवें में आत्मा को जन्म ने-मरने वाला मानने पर भी और अट्ठाईसवें में शरीरों की अनित्यता के कारण भी शोक करना अनुचित बतलाया है। उनतीसवें में आत्मतत्त्व के द्रष्टा, वक्ता और श्रोता की दुर्लभता का प्रतिपाद करते हुए तीसवें में आत्मतत्त्व सर्वथा होने के कारण किसी भी प्राणी के लिये शोक करने को अनुचित सिद्ध किया है। इकतीसवें से छत्तीसवें श्लोक तक क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध को अर्जुन का स्वधर्म बतलाकर उसका त्याग करना सब प्रकार से अनुचित सिद्ध करते हुए सैंतीसवें में युद्ध को इस लोक और परलोक दोनों लाभप्रद बतलाकर अर्जुन को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा दी है। अड़तीसवें में समत्व को युद्धादि कर्मों में पाप से निर्लिप्त रहने का उपाय बतलाकर उनतालीसवें में कर्मबन्धन को काटने वाली कर्मयोग विषयक बुद्धि का वर्णन करने की प्रस्तावना की है। चालीसवें में कर्मयोग की महिमा बतलाकर इकतालीसवें में निश्चयात्मिका बुद्धि का और अव्यवसायी सकाम पुरुषों की बुद्धियों का भेद निरुपण करते हुए बयालीसवें सें चौवालीसवें तक स्वर्गपरायण सकाम मनुष्यों के स्वभाव का वर्णन किया है। पैंतालीसवें में अर्जुन को निष्काम, निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, योगक्षेम को न चाहने वाला और आत्मसंयमी होने के लिये कहकर छियालीसवें में ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण के लिये वेदोक्त कर्मफलरूप सुखभोग को अप्रयोजनीय बतलाकर सैंतालीसवें में सूत्ररूप से कर्मयोग का स्वरूप बतलाया है।


अड़तालीसवें में योग की परिभाषा समत्व बतलाकर उनचासवें में समबुद्धि की अपेक्षा सकाम कर्मों को अत्यन्त तुच्छ और फल चाहने वालों को अत्यन्त दीन बतलाया है। पचासवें और इक्यावनवें में समबुद्धियुक्त कर्मयोगी की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में लग जाने की आज्ञा दी है और समभाव का फल अनामय पद की प्राप्ति बतलाया है। उसके बाद बावनवें और तिरपनवें में भगवान् ने वैराग्यपूर्वक बुद्धि के शुद्ध, स्वच्छ और निश्चल हो जाने पर परमात्मा की प्राप्ति बतलायी है। चौवनवें में अर्जुन ने स्थिर बुद्धि पुरुष के विषय में चार प्रश्न किये हैं तथा पचपनवें में पहले प्रश्न का, छप्पनवें तथा सत्तावनवें में दूसरे का तथा अट्ठावनवें में तीसरे प्रश्न का सूत्ररूप से उत्तर देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने पचपनवें से अट्ठावनवें तक समस्त कामनाओं का अभाव, बाह्य साधनों की अपेक्षा न रखकर अन्तरात्मा में ही सदा सन्तुष्ट रहना, दुःखों से उद्विग्न न होना, सुखों में स्पृहा न करना, राग, भय और क्रोध का सर्वथा अभाव, शुभाशुभ की प्राप्ति में हर्ष-शोक और राग-द्वेष का न होना तथा समस्त इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अपने वश में रखना आदि, स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षणों का वर्णन किया है। उनसठवें में इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण न करने से विषयों की निवृत्ति हो जाने पर भी राग की निवृत्ति नहीं होती, उसी निवृत्ति तो परमात्मदर्शन से होती है- यह बात कहकर, साठवें में इन्द्रियों की प्रबलता का निरूपण किया है। इकसठवें में मन और इन्द्रियों के संयमपूर्वक भगवत्परायण होने के लिये कहकर इन्द्रियविजयी पुरुष की प्रशंसा की है।


बासठवें और तिरसठवें में विषयचिन्तन से पतन का बतलाकर चौंसठवें और पैंसठवें में राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने वाले को प्रसाद की प्राप्ति, उससे समस्त दुःखों का नाश और शीघ्र ही उसकी बुद्धि स्थिर हो जाने की बात कही है। तदनन्तर छाछठवें में अयुक्त पुरुष के लिये श्रेष्ठ बुद्धि, भगवच्चिन्तन, शान्ति और सुख का अभाव दिखलाकर सड़सठवें में वायु और नौका के दृष्टान्त से मन के संयोग से इन्द्रिय को बुद्धि का हरण करने वाली बतलाते हुए अड़सठवें में यह बात सिद्ध की है कि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं वही वास्तव में स्थिरबुद्धि है। उसके बाद उनहत्तरवें में साधारण मनुष्यों के लिये ब्रह्मानन्द को रात्रि के समान और तत्त्व को जानने वाले योगी के लिये विषयसुख को रात्रि के समान बतलाकर सत्तरवें में समुद्र के दृष्टान्त से ज्ञानी महापुरुष की महिमा की गयी है और इकहत्तरवें में समस्त कामना, स्पृहा, ममता और अहंकार रहित होकर विचरने वाले पुरुष को परमशान्ति की प्राप्ति बतलाकर बहत्तरवें श्लोक में उस ब्राह्मी स्थिति का माहात्म्य वर्णन करते हुए अध्याय का उपसंहार किया है।


सम्बन्ध- पहले अध्याय में गीतोक्त उपदेश की प्रस्तावना के रूप में दोनों सेनाओं के महारथियों और उनकी शंख ध्वनि का वर्णन करके अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने की बात की गयी; उसके बाद दोनों सेनाओं में स्थित स्वजनसमुदाय को देखकर शोक और मोह के कारण युद्ध से अर्जुन के निवृत्त हो जाने की और शस्त्र-अस्त्रों को छोड़कर विषाद करते हुए बैठ जाने की बात कहकर उस अध्याय की समाप्ति की गयी। ऐसी स्थिति में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से क्या बात कही और किस प्रकार उसे युद्ध के लिये पुनः तैयार किया; यह सब बतलाने की आवश्यकता होने पर संजय अर्जुन की स्थिति का वर्णन करते हुए दूसरे अध्याय का आरम्भ करते हैं-



दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से दोनों सेनाओं की बात कही, पर द्रोणाचार्य कुछ भी बोले नहीं। इसमें दुर्योधन दुःखी हो गया। तब दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए भीष्म जी ने जोर से शंख बजाया। भीष्मजी का शंक बजने के बाद कौरव और पांडवसेना के बाजे बजे। इसके बाद[1] श्रीकृष्णार्जुन संवाद आरंभ हुआ।

अर्जुन ने भगवान से अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने के लिए कहा। भगवान ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म, द्रोण आदि के सामने रथ को खड़ा करके अर्जुन से कुरुवंशियों को देखने के लिए कहा। दोनों सेनाओं में अपने ही स्वजनों- संबंधियों को देखकर अर्जुन में कौटुम्बिक मोह जाग्रत हुआ, जिसके परिणाम में अर्जुन युद्ध करना छोड़कर बाणसहित धनुष का त्याग करके रथ के मध्य भाग में बैठ गये।

इसके बाद विषादमग्न अर्जुन के प्रति भगवान ने क्या कहा- यह बात धृतराष्ट्र को सुनाने के लिए संजय दूसरे अध्याय का विषय आरंभ करते हैं।


अर्जुन रथ में सारथि रूप में बैठे हुए भगवान को यह आज्ञा देते है कि हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए, जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्ध में मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं? अर्थात मेरे जैसे शूरवीर के साथ कौन-कौन से योद्धा साहस करके लड़ने आए हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे साथ लड़ने की उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुन में युद्ध के लिए इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओं में अपने कुटुम्बियों को देखकर उनके मरने की आशंका से मोहग्रस्त होकर इनते शोकाकुल हो गए हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीर में कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथ से धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहने की भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुन का यह स्वभाव कि ‘न दैत्यं न पलायनम्’ और कहाँ अर्जुन का कायरता के दोष से शोकाविष्ट होकर रथ के मध्यभाग में बैठ जाना! बड़े आश्चर्य के साथ संजय यही भाव उपर्युक्त पदों से प्रकट कर रहे हैं।

पहले अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में भी संजय ने अर्जुन के लिए ‘कृपया परयाविष्टः’ पदों का प्रयोग किया है।

‘अश्रुपूर्णाकुलेक्षम्’- अर्जुन-जैसे महान शूरवीर के भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रों में आँसू भर आए! आँसू भी इतने ज्यादा भर आए कि नेत्रों से पूरी तरह तरह देख भी नहीं सकते।

‘विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः’- इस प्रकार कायरता के कारण विषाद करते हुए अर्जुन से भगवान मधुसूदन ने ये[2] वचन कहे।

यहाँ ‘विषीदन्तमुवाच’ कहने से ही काम चल लकता था, ‘इदं वाक्यम्’ कहने की जरूरत ही नहीं थी; क्योंकि ‘उवाच’ क्रिया के अंतर्गत ही ‘वाक्यम्’ पद आ जाता है। फिर भी ‘वाक्यम्’ पद कहने का तात्पर्य है कि भगवान का यह वचन, यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुन में धर्म का बाना पहनकर जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी, उस पर यह भगवद्वाणी सीधा आघात पहुँचाने वाली है। अर्जुन का युद्ध से उपराम होने का जो निर्णय था, उसमें खलबली मचा देने वाली है। अर्जुन को अपने दोष का ज्ञान कराकर अपने कल्याण की जिज्ञासा जाग्रत करा देने वाली है। इस गंभीर अर्थ वाली वाणी के प्रभाव से ही अर्जुन भगवान का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं[3]।

संजय के द्वारा ‘मधुसूदनः’ पद कहने का तात्पर्य है कि भगवान श्रीकृष्ण ‘मधुसूदनः’ पद कहना का तात्पर्य है कि भगवान श्रीकृष्ण ‘मधु नामक’ दैत्य को मारने वाले अर्थात दुष्ट स्वभाव वालों का संहार करने वाले हैं। इसलिए वे दुष्ट स्वभाव वाले दुर्योधनादि का नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं।


‘कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्’- भगवान आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुन से कहते हैं कि ऐसे युद्ध के मौके पर तो तुम्हारे में शूरवीरता, उत्साह आना चाहिए था, पर इस बेमौके पर तुम्हारे में यह कायरता कहाँ से आ गयी!

आश्चर्य दो तरह से होता है- अपने न जानने के कारण और दूसरे को चेताने के लिए। भगवान का यहाँ जो आश्चर्य पूर्वक बोलना है, वह केवल अर्जुन को चेताने के लिए ही है, जिससे अर्जुन का ध्यान अपने कर्तव्य पर चला जाए।

‘कुतः’ कहने का तात्पर्य यह है कि मूल में यह कायरतारूपी दोष तुम्हारे में[2] नहीं है। यह तो आगन्तुक दोष है, जो सदा रहने वाला नहीं है।

‘समुपस्थितम्’ कहने का तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावों में वचनों में नहीं आयी है; किंतु तुम्हारी क्रियाओं में भी आ गयी है। यह तुम्हारे पर अच्छी तरह से छा गयी है, जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथ के मध्य भाग में बैठ गये हो।

‘अनार्यजुष्टम्’[3]- समझदार श्रेष्ठ मनुष्यों में जो भाव पैदा होते हैं, वे अपने कल्याण के उद्देश्य को लेकर ही होते हैं। इसलिए श्लोक के उत्तरार्ध में भगवान सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारे में जो कायरता आयी है, उस कायरता को श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते। कारण कि तुम्हारी इस कायरता में अपने कल्याण की बात बिल्कुल नहीं है। कल्याण चाहने वाले श्रेष्ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में अपने कल्याण का ही उद्देश्य रखते हैं। उनमें अपने कर्तव्य के प्रति कायरता उत्पन्न नहीं होती। परिस्थिति के अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्त हो जाता है, उसको वे कल्याण प्राप्ति के उद्देश्य से उत्साह और तात्परतापूर्वक सांगोपांग करते हैं। वे तुम्हारे जैसे- कायर होकर युद्ध से या अन्य किसी कर्तव्य-कर्म से उपरत नहीं होते। अतः युद्ध रूप से प्राप्त कर्तव्य-कर्म से उपरत होना तुम्हारे लिए कल्याणकारक नहीं है।


‘अस्वर्ग्यम्’- कल्याण की बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्टि से भी देखा जाय, तो संसार में स्वर्ग लोक ऊँचा है। परंतु तुम्हारी यह कायरता स्वर्ग को देने वाली भी नहीं है। अर्थात कायरतापूर्वक युद्ध से निवृत्त होने का फल स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं हो सकता।

‘अकीर्तिकरम्’- अगर स्वर्ग प्राप्ति का भी लक्ष्य न हो, तो अच्छा माना जाने वाला पुरुष वही काम करता है, जिससे संसार में कीर्ति हो। परंतु तुम्हारी यह जो कायरता है, यह लोक में भी कीर्ति[1] देने वाली नहीं है, प्रत्युत अपकीर्ति[2] कायरता का आना सर्वथा ही अनुचित है।

भगवान ने यहाँ ‘अनार्यजुष्टम्’ ‘अस्वर्ग्यम्’ और ‘अकीर्तिकरम्’- ऐसा क्रम देकर तीन प्रकार के मनुष्य बताये हैं-


जो विचारशील मनुष्य होते हैं, वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं। उनका ध्येय, उद्देश्य केवल कल्याण का ही होता है।

जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं, वे शुभ- कर्मों के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं। वे स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानकर उसकी प्राप्ति का ही उद्देश्य रखते हैं।

जो साधारण मनुष्य होते हैं, वे संसार को ही आदर देते हैं। इसलिए वे संसार में अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्ति को ही अपना ध्येय मानते हैं।

उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान अर्जुन को सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करने का निश्चय है, यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्यों के ध्येय- कल्याण और स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला भी नहीं है, तथा साधारण मनुष्यों के ध्येय- कीर्ति को प्राप्त कराने वाला भी नहीं है।

अतः मोह के कारण तुम्हारा युद्ध न करने का निश्चय बहुत ही तुच्छ है, जो कि तुम्हारा पतन करने वाला, तुम्हें नरकों में ले जाने वाला और तुम्हारी अपकीर्ति करने वाला होगा।


‘क्लैब्यं मा स्म गमः’- अर्जुन कायरता के कारण युद्ध करने में अधर्म और युद्ध न करने में धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुन को चेताने के लिए भगवान कहते हैं कि युद्ध न करना धर्म की बात नहीं है, यह तो नपुंसकता[4] है। इसलिए तुम इस नपुंसकता को छोड़ दो।

‘नैतत्त्वय्युपपद्यते’- तुम्हारे में यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिए था; क्योंकि तुम कुंती- जैसी वीर क्षत्राणी माता के पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो। तात्पर्य है कि जन्म से और अपनी प्रकृति से भी यह नपुंसकता तुम्हारे में सर्वथा अनुचित है।

‘परंतप’- तुम स्वयं ‘परंतप’ हो अर्थात शत्रुओं को तपाने वाले, भगाने वाले हो, तो क्या तुम इस समय युद्ध से विमुख होकर अपने शत्रुओं को हर्षित करोगे?

‘क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ’- यहाँ ‘क्षुद्रम्’ पद के दो अर्थ होते हैं-


यह हृदय की दुर्बलता तुच्छता को प्राप्त कराने वाली है अर्थात मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्ति देने वाली नहीं है अर्थात मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्ति को देने वाली नहीं है। अगर तुम इस तुच्छता का त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे, और

यह हृदय की दुर्बलता तुच्छ चीज है। तुम्हारे जैसे शूरवीर के लिए ऐसी तुच्छ चीज का त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है।

तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता, तो यह तुम्हारे हृदय की दुर्बलता है, कमज़ोरी है। इसका त्याग करके तुम युद्ध के लिए खड़े हो जाओ अर्थात अपने प्राप्त कर्तव्य का पालन करो।


यहाँ अर्जुन के सामने युद्ध रूप कर्तव्य-कर्म है। इसलिए भगवान कहते हैं कि ‘उठो, खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्य का पालन करो।’ भगवान के मन में अर्जुन के कर्तव्य के विषय में जरा सा भी संदेह नहीं है। वे जानते हैं कि सभी दृष्टियों से अर्जुन के लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है। अतः अर्जुन की थोथी युक्तियों की परवाह न करके उनको अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारी के साथ युद्ध करने के लिए खड़े हो जाओ।


‘मधुसूदन’ और ‘अरिसूदन’- ये दो संबोधन देने का तात्पर्य है कि आप दैत्यों को और शत्रुओं को मारने वाले हैं अर्थात जो दुष्ट स्वभाव वाले, अधर्ममय आचरण करने वाले और दुनिया को कष्ट देने वाले मधु-कैटभ आदि दैत्य हैं, उनको भी आपने मारा है; और जो बिना कारण द्वेष रखते हैं, अनिष्ट करते हैं, ऐसे शत्रुओं को भी आपने मारा है। परंतु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं, जो आचरणों में सर्वथा श्रेष्ठ हैं, मेरे पर अत्यधिक स्नेह रखने वाले हैं और प्यारपूर्वक मेरे को शिक्षा देने वाले हैं। ऐसे मेरे परम हितैषी दादाजी और विद्यागुरु को मैं कैसे मारूँ?

‘कथं[2] भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च’- मैं कायरता के कारण युद्ध से विमुख नहीं हो रहा हूँ, प्रत्युत धर्म को देखकर युद्ध से विमुख हो रहा हूँ; परंतु आप कह रहे हैं कि यह कायरता, यह नपुंसकता तुम्हारे में कहाँ से आ गयी! आप जरा सोचें कि मैं पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के साथ बाणों से युद्ध कैसे करूँ? महाराज! यह मेरी कायरता नहीं है। कायरता तो तब कहीं जाय, जब मैं मरने से डरूँ। मैं मरने से नहीं डर रहा हूँ, प्रत्युत मारने से डर रहा हूँ।

संसार में दो ही तरह के संबंध मुख्य हैं- जन्म संबंध और विद्या संबंध। जन्म के संबंध से तो पितामह भीष्म हमारे पूजनीय हैं। बचपन से ही मैं उनकी गोद में पला हूँ। बचपन में जब मैं उनको ‘पिताजी-पिताजी’ कहता, तब वे प्यार से कहते हैं कि ‘मैं तो तेरे पिता का भी पिता हूँ!’ इस तरह वे मेरे पर बड़ा ही प्यार, स्नेह रखते आये हैं। विद्या के संबंध से आचार्य द्रोण हमारे पूजनीय हैं। वे मेरे विद्या गुरु हैं। उनका मेरे पर इतना स्नेह है कि उन्होंने खास अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी मेरे समान नहीं पढ़ाया।

उन्होंने ब्रह्मास्त्र को चलाना तो दोनों को सिखाया पर ब्रह्मास्त्र का उपसंहार करना मेरे को ही सिखाया, अपने पुत्र को नहीं। उन्होंने मेरे को यह वरदान भी दिया है कि ‘मेरे शिष्यों में अस्त्र-शस्त्र-कला में तुम्हारे से बढ़कर दूसरा कोई नहीं होगा।’ ऐसे पूजनीय पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने ते वाणी से ‘रे’, ‘तू’- ऐसा कहना भी उनकी हत्या करने के समान पाप है, फिर मारने की इच्छा से उनके साथ बाणों से युद्ध करना कितने भारी पाप की बात है! ‘इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हो’- संबंध में बड़े होने के नाते पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण- ये दोनों ही आदरणीय और पूजनीय है। इनका मेरे पर पूरा अधिकार है। अतः ये तो मेरे पर प्रहार कर सकते हैं, पर मैं उन पर बाणों से कैसे प्रहार करूँ? उनका प्रतिद्वंद्वी होकर युद्ध करना तो मेरे लिए बड़े पाप की बात है! क्योंकि ये दोनों ही मेरे द्वारा सेवा करने योग्य हैं और सेवा से भी बढ़कर पूजा करने योग्य है। ऐसे पूज्यजनों को मैं बाणों से कैसे मारूँ?


अर्जुन के मन में यह विचार आ रहा है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनों को मारना धर्मयुक्त नहीं है- ऐसा जानते हुए भी भगवान मुझे बिना किसी संदेह के युद्ध के लिए आज्ञा दे रहे हैं, तो कहीं-न-कहीं मेरी समझ में ही गलती है! इसलिए अर्जुन अब पूर्व श्लोक की तरह उत्तेजित होकर नहीं बोलते, प्रत्युत कुछ ढिलाई से बोलते हैं।] ‘गुरुनहत्वा..... भैक्ष्यमपीह लोके’- अब अर्जुन पहले अपने पक्ष को सामने रखते हुए कहते हैं कि अगर मैं भीष्म, द्रोण आदि पूज्यजनों के साथ युद्ध नहीं करूँगा, तो दुर्योधन भी अकेला मेरे साथ युद्ध नहीं करेगा। इस तरह युद्ध न होने से मेरे को राज्य नहीं मिलेगा, जिससे मेरे को दुःख पाना पड़ेगा। मेरा जीवन-निर्वाह भी कठिनता से होगा। यहाँ तक कि क्षत्रिय के लिए निषिद्ध जो भिक्षावृत्ति है, उसको ही जीवन-निर्वाह के लिए ग्रहण करना पड़ सकता है। परंतु गुरुजनों को मारने की अपेक्षा मैं उस कष्टदायक भिक्षा वृत्ति को भी ग्रहण करना श्रेष्ठ मानता हूँ। ‘इह लोके’ कहने का तात्पर्य है कि यद्यपि भिक्षा माँगकर खाने से इस संसार में मेरा अपमान-तिरस्कार होगा, लोग मेरी निंदा करेंगे, तथापि गुरुजनों को मारने की अपेक्षा भिक्षा मांगना श्रेष्ठ है। ‘अपि’ कहने का तात्पर्य है कि मेरे लिए गुरुजनों को मारना भी निषिद्ध है और भिक्षा मांगना भी निषिद्ध है; परंतु इन दोनों में भी गुरुजनों को मारना मुझे अधिक निषिद्ध दीखता है। ‘हत्वार्थकामांस्तु......रुधिरप्रदिग्धान्’- अब अर्जुन भगवान के वचनों की तरफ दृष्टि करते हुए कहते हैं कि अगर मैं आपकी आज्ञा के अनुसार युद्ध करूँ, तो युद्ध में गुरुजनों की हत्या के परिणाम में उनके खून से सने हुए और जिनमें धन आदि की कामना ही मुख्य है, ऐसे भोगों को ही तो भोगूँगा। मेरे को भोग ही तो मिलेंगे। उन भोगों के मिलने से मुक्ति थोड़े ही होगी! शांति थोड़े ही मिलेगी! यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन धन के द्वारा ही कौरवों से बंधें थे; अतः यहाँ ‘अर्थकामान्’ पद को ‘गुरुन्’ पद का विशेषण मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है? इसका उत्तर यह है कि ‘अर्थ की कामना वाले गुरुजन’- ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। कारण कि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण आदि गुरुजन धन की कामना वाले नहीं थे। वे तो दुर्योधन के वृत्तिभोगी थे, उन्होंने दुर्योधन का अन्न खाया था। अतः युद्ध के समय दुर्योधन का साथ छोड़ना कर्तव्य न समझकर ही वे कौरवों के पक्ष में खड़े हुए थे। दूसरी बात, अर्जुन ने भीष्म, द्रोण आदि के लिए ‘महानुभावान्’ पद का प्रयोग किया है. अतः ऐसे श्रेष्ठ भाव वालों को अर्थ की कामना वाले कैसे कहा जा सकता है! तात्पर्य है कि जो महानुभाव है, वे अर्थ की कामना वाले नहीं हो सकते; और जो अर्थ की कामना वाले हैं, वे महानुभाव नहीं हो सकते। अतः यहाँ ‘अर्थकामान्’ पद ‘भोगान्’ पद का ही विशेषण हो सकता है।



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