अनासकति

संबंध- अर्जुन विजय आदि क्यों नहीं चाहते, इसका हेतु आगे के श्लोक में बताते हैं। येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।। 33 ।। अर्थ- जिनके लिए हमारी राज्य, भोग और सुख की इच्छा है, वे ही सब अपने प्राणों की और धन की आशा का त्याग करके युद्ध में खड़े हैं। व्याख्या- ‘येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च’- हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदि के लिए ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदि को सुख-आराम पहुँचें, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें- इसके लिए ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग- सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं। ‘त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च’- पर वे ही ये सब के सब अपने प्राणों की और धन की आशा को छोड़कर युद्ध करने के लिए हमारे सामने इस रणभूमि में खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणों का मोह है और न धन की तृष्णा है; हम मर बेशक जायँ, पर युद्ध से नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, हमें राज्य किसके लिए चाहिए? सुख किसके लिए चाहिए? धन किसके लिए चाहिए? अर्थात इन सबकी इच्छा हम किसके लिए करें? ‘प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च’ का तात्पर्य है कि वे प्रमाणों की और धन की आशा का त्याग करके खड़े हैं अर्थात हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा- इस इच्छा को छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उनमें प्राणों की और धन की इच्छा होती, तो वे मरने के लिए युद्ध में क्यों खड़े होते? अतः यहाँ प्राण और धन का त्याग करने का तात्पर्य उनकी आशा का त्याग करने में ही है


जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे लोग कौन हैं- इसका वर्णन अर्जुन आगे के दो श्लोकों में करते हैं। आचार्याः[1]पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहा:। मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।। 34 ।। एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्रतोऽपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं न महीकृते ।। 35 ।। अर्थ- आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी संबंधी हैं, मुझ पर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो मैं इनको मारूँ ही क्या? व्याख्या- [ भगवान आगे सोलहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। वास्तव में एक काम के ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि को महत्त्व देने से पैदा होते हैं। काम अर्थात कामना की दो तरह की क्रियाएँ होती हैं- इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति। इनमें से इष्ट की प्राप्ति भी दो तरह की होती है- संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रह की इच्छा का नाम ‘लोभ’ है और सुख भोग की इच्छा का नाम ‘काम’ है। अनिष्ट की निवृत्ति में बाधा पड़ने पर ‘क्रोध’ आता है अर्थात भोगों की, संग्रह की प्राप्ति में बाधा देने वालों पर अथवा हमारा अनिष्ट करने वालों पर, हमारे शरीर का नाश करने वालों पर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करने वालों का नाश करने की क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्ध में मनुष्य की दो तरह से ही प्रवृत्ति होती है- अनिष्ट की निवृत्ति के लिए अर्थात अपने ‘क्रोध’ को सफल बनाने के लिये और इष्ट की प्राप्ति के लिये अर्थात ‘लोभ’ की पूर्ति के लिये। परंतु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातों का निषेध कर रहे हैं। ] ‘आचार्याः पितरः..... किं नु महीकृते’- अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्ति के लिए क्रोध में आकर मेरे पर प्रहार करके मेरा वध भी करन चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्ति के लिए क्रोध में आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्ट प्राप्ति के लिए राज्य के लोभ में आकर मेरे को मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्ट- प्राप्ति के लिए लोभ में आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभ में आकर मेरे को नरकों का दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार ‘अपि’ पद का प्रयोग करने में अर्जुन का आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थ में बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि ‘पहले इसने हमारे स्वार्थ में बाधा दी है’ ऐसे विचार से ये मेरे शरीर का नाश करने में प्रवृत्त हो जायँ, तो भी[2] मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात, इनको मारने से मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी[3] मैं इनको मारना नहीं चाहता। ‘मधुसूदन’[4] संबोधन का तात्पर्य है कि आप तो दैत्यों को मारने वाले हैं, पर ये द्रोण आदि आचार्य और भीष्म आदि पितामह दैत्य थोड़े ही हैं, जिससे मैं इनको मारने की इच्छा करूँ? ये तो हमारे अत्यन्त नजदीक के खास संबंधी हैं।


‘आचार्याः’- इन कुटुम्बियों में जिन द्रोणाचार्य आदि से हमारा विद्या का, हित का संबंध है, ऐसे पूज्य आचार्यों की मेरे को सेवा करनी चाहिए कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिए? आचार्य के चरणों में तो अपने-आपको, अपने प्राणों को भी समर्पित कर देना चाहिए। यही हमारे लिए उचित है।

‘पितरः’- शरीर के संबंध को लेकर जो पिता लोग हैं, उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है। शरीर से उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभ में आकर अपने उन पिताओं को कैसे मारें?

‘पुत्राः’- हमारे और हमारे भाइयों को जो पुत्र हैं, वे तो सर्वथा पालन करने योग्य हैं। वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैंठें, तो भी उनका पालन करना ही हमारा धर्म है।

‘पितामहाः’- ऐसे ही जो पितामह हैं, वे जब हमारे पिताजी के भी पूज्य हैं, तब हमारे लिए तो परमपूज्य हैं ही। वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं, हमें मार भी सकते हैं। पर हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिए, जिससे उनको किसी तरह का दुःख न हो, कष्ट न हो, प्रत्युत उनको सुख हो, आराम हो, उनकी सेवा हो।

‘मातुलाः’- हमारे जो मामा लोग हैं, वे हमारा पालन पोषण करने वाली माताओं के ही भाई हैं। अतः वे माताओं के समान ही पूज्य होने चाहिए।

‘श्वशुराः’- ये जो हमारे ससुर हैं, ये मेरी और मेरे भाइयों की पत्नियों के पूज्य पिताजी हैं। अतः ये हमारे लिए भी पिता के ही तुल्य है। इनको मैं कैसे मारना चाहूँ?

‘पौत्राः’- हमारे पुत्रों के जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रों से भी अधिक पालन-पोषण करने योग्य हैं।

‘श्यालाः’- हमारे जो साले हैं, वे भी हम लोगों की पत्नियों के प्यारे भैया हैं। उनको भी कैसे मारा जाय !

‘संबंधिन:’- ये जितने संबंधी दीख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी संबंधी हैं, उनका पालन-पोषण, सेवा करनी चाहिए कि उनको मारना चाहिए? इनको मारने से अगर हमें त्रिलोकी का राज्य भी मिल जाय, तो भी क्या इनको मारना उचित है? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है।


पूर्वश्लोक में अर्जुन ने स्वजनों को न मारने में दो हेतु बताए। अब परिणाम की दृष्टि से भी स्वजनों को न मारना सिद्ध करते हैं।


निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।

पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।। 36 ।।

अर्थ- हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र संबंधियों को मारकर हम लोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा।


व्याख्या- ‘निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः... हत्वैता नाततायिनः’- धृतराष्ट्र के पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्त करने से हमें क्या प्रसन्नता होगी? अगर हम क्रोध अथवा लोभ के वेग में आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शांत होने पर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात क्रोध और लोभ में आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे- ऐसा पश्चात्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियों की याद आने पर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्त में उनकी मृत्यु का शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थिति में हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या? तात्पर्य है कि इनको मारने से हम इस लोक में जब तक जीते रहेंगे, तब तक हमारे चित्त में कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारने से हमें जो पाप लगेगा, वह परलोक में हमें भयंकर दुःख देने वाला होगा।

आततायी छः प्रकार के होते हैं- आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को तैयार हुआ, धन को हरने वाला, जमीन[1] धीनने वाला और स्त्री का हरण करने वाला।[2] दुर्योधन आदि में छहों ही लक्षण घटते थे। उन्होंने पांडवों को लाक्षागृह में आग लगाकर मारना चाहा था। भीमसेन को जहर खिलाकर जल में फेंक दिया। हाथ में शस्र लेकर वे पांडवों को मारने के लिये तैयार थे ही। द्यूतक्रीड़ा में छल- कपट करके उन्होंने पांडवों को धन और राज्य हर लिया था। द्रौपदी को भरी सभा में लाकर दुर्योधन ने ‘मैंने तेरे को जीत लिया है, तू मेरी दासी हो गयी है’ आदि शब्दों से बड़ा अपमान किया था और दुर्योधननादि की प्रेरणा से जयद्रथ द्रौपदी को हरकर ले गया था।

शास्त्रों के वचनों के अनुसार आततायी को मारने से मारने वाले को कुछ भी दोष[3]नहीं लगता- ‘नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कंचन’ [4]। परंतु आततायी को मारना उचित होते हुए भी मारने की क्रिया अच्छी नहीं है। शास्त्र भी कहता है कि मनुष्य को कभी किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए- ‘न हिंस्यात्सर्वा भूतानि’ हिंसा न करना परमधर्म है- ‘अहिंसा परमोधर्मः[5]।’ अतः क्रोध-लोभ के वशीभूत होकर कुटुम्बियों की हिंसा का कार्य हम क्यों करें?

आततायी होने से ये दुर्योधन आदि मारने के लायक हैं ही; परंतु अपने कुटुम्बी होने से इनको मारने से हमें पाप ही लगेगा; क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि जो अपने कुल का नाश करता है, वह अत्यंत पापी होता है- ‘स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम्।’ अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं, उन्हें कैसे मारा जाय? उनसे अपने संबंध-विच्छेद कर लेना, उनसे अलग हो जाना तो ठीक है, पर उन्हें मारना ठीक नहीं है। जैसे, अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना संबंध हटाया जा सकता है, पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है!


तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान् ।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। 37 ।।

अर्थ- इसलिए अपने बांधव इन धृतराष्ट्र संबंधियों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?


व्याख्या- ‘तस्मान्नर्हा वयं हन्तु धार्तराष्ट्रान् स्वबांधवान्’- अभी तक[1] मैंने कुटुम्बियों को न मारने में जितनी युक्तियाँ, दलीलें दी हैं, जितने विचार प्रकट किए हैं, उनके रहते हुए हम ऐसे अनर्थकारी कार्य में कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं? अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र संबंधियों को मारने का कार्य हमारे लिए सर्वथा ही अयोग्य है, अनुचित है। हम- जैसे अच्छे पुरुष ऐसा अनुचित कार्य कर ही कैसे सकते हैं?

‘स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव’- हे माधव! इन कुटुम्बियों के मरने की आशंका से ही बड़ा दुःख हो रहा है, संताप हो रहा है, तो फिर क्रोध तथा लोभ के वशीभूत होकर हम उनको मार दें तो कितना दुःख होगा ! उनको मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

यहाँ ‘ये हमारे घनिष्ठ संबंधी हैं’- इस ममताजनित मोह के कारण अपने क्षत्रियोचित कर्तव्य की तरफ अर्जुन की दृष्टि ही नहीं जा रही है। कारण कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्य का विवेक दब जाता है। विवेक दबने से मोह की प्रबलता हो जाती है। मोह के प्रबल होने से अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान नहीं होता।


प्रश्न- अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त हो गये, इसका क्या तात्पर्य है?


उत्तर- अर्जुन ने जब चारों ओर अपने उपर्युक्त स्वजन-समुदाय को देखा और यह सोचा कि इस युद्ध में इन सबका संहार हो जायगा, तब बन्धुस्नेह के कारण उनका हृदय काँप उठा और उसमें युद्ध के विपरीत एक प्रकार की करुणाजनित कायरता का भाव प्रबलरूप से जाग्रत् हो गया। यही ‘अत्यन्त करुणा’ है, जिसको संजय ने ‘परया कृपया’ कहा है और इस कायरता के आवेश से अर्जुन अपने क्षत्रियोचित वीर स्वभाव को भूलकर अत्यन्त मोहित हो गये, यही उनका उस ‘करुणा से युक्त हो जाना है।’


प्रश्न- ‘इदम्’ पद से अर्जुन के कौन-से वचन समझने चाहिये?


उत्तर- ‘इदम्’ पद का प्रयोग अगले श्लोक से लेकर छियालीसवें श्लोक तक अर्जुन ने जो-जो बातें कही हैं, उन सभी के लिये किया गया है।


प्रश्न- अर्जुन का गाण्डीव धनुष कैसा था? और वह उसे कैसे मिला था? उत्तर- अर्जुन का गाण्डीव धनुष दिव्य था, उसका आकार ताल के समान था। गाण्डीव का परिचय देते हुए बृहन्नला के रूप में स्वयं अर्जुन ने उत्तरकुमार से कहा था- ‘यह अर्जुन का जगत्प्रसिद्ध धनुष है। यह स्वर्ण से मढ़ा हुआ, सब शस्त्रों में उत्तम और लाख आयुधों के समान शक्तिमान् है। इसी धनुष से अर्जुन ने देवता और मनुष्यों पर विजय प्राप्त की है। इस विचित्र रंग-बिरंगे अद्भुत कोमल और विशाल धनुष का देवता, दानव और गन्धर्वों ने दीर्घकाल तक आराधन किया है, इस परमदिव्य धनुष को ब्रह्मा जी ने एक हजार वर्ष, प्रजापति ने पाँच सौ तीन वर्ष, इन्द्र ने पचासी वर्ष, चन्द्रमा ने पाँच सौ वर्ष और वरुणदेव ने सौ वर्ष तक रखा था।’ यह अर्जुन को खाण्डव-वन में जलाने के समय अग्निदेव ने वरुण से दिलाया था।


प्रश्न- मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ, इसका क्या भाव है?


उत्तर- किसी भी क्रिया के भावी परिणाम की सूचना देने वाले शकुनादि चिह्नों को लक्षण कहा जाता है, श्लोक में ‘निमित्तानि’ पद इन्हीं लक्षणों के लिये आया है। अर्जुन लक्षणों को विपरीत बतलाकर यह भाव दिखला रहे हैं कि असमय में ग्रहण होना, धरती का काँप उठना और आकाश से नक्षत्रों का गिरना आदि बुरे शकुनों से भी यही प्रतीत होता है कि इस युद्ध का परिणाम अच्छा नहीं होगा। इसलिये मेरी समझ से युद्ध न करना ही श्रेयस्कर है।


प्रश्न- युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता, इस कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- अर्जुन के कथन का भाव यह है कि युद्ध में अपने सगे-सम्बन्धियों के मारने से किसी प्रकार का भी हित होने की सम्भावना नहीं है; क्योंकि प्रथम तो आत्मीय स्वजनों के मारने से चित्त में पश्चात्तापजनित क्षोभ होगा, दूसरे उनके अभाव में जीवन दुःखमय हो जायगा और तीसरे उनके मारने से महान् पाप होगा। इन दृष्टियों से न इस लोक में हित होगा और न परलोक में ही। अतएव मेरे विचार से युद्ध करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।


अर्जुन अपने चित्त की स्थिति का चित्र खींचते हुए कहते हैं कि हे कृष्ण! इन आत्मीय स्वजनों को मारने पर जो विजय, राज्य और सुख मिलेंगे, मैं उन्हें जरा भी नहीं चाहता। मुझे तो यही प्रतीत होता है कि इनके मारने पर हमें इस लोक और परलोक में संताप ही होगा, फिर किसलिये युद्ध किया जाय और इन्हें मारा जाय? क्या होगा ऐसे राज्य और भोगों से? मेरी समझ से तो इन्हें मारकर जीने में भी कोई लाभ नहीं है।


अर्जुन यह कह रहे हैं कि मुझको अपने लिये तो राज्य, भोग और सुखादि की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूँ कि न तो इनमें स्थायी आनन्द ही है और न ये स्वयं ही नित्य हैं। मैं तो इन भाई-बन्धु आदि स्वजनों के लिये ही राज्यादि की इच्छा करता था, परंतु मैं देखता हूँ कि ये सब युद्ध में प्राण देने के लिये तैयार खड़े हैं। यदि इन सबकी मृत्यु हो गयी तो फिर राज्य, भोग और सुख आदि किस काम आवेंगे? इसलिये किसी प्रकार भी युद्ध करना उचित नहीं है।


गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं


प्रश्न- अर्जुन इस सम्बन्धियों के नाम लेकर क्या कहना चाहते हैं?


उत्तर- आचार्य, ताऊ, चाचे आदि सम्बन्धियों की बात तो संक्षेप में पहले कही जा चुकी है। यहाँ ‘श्यालाः’ शब्द से धृष्टद्युम्न, शिखण्डी और सुरथ आदि का तथा ‘सम्बन्धिनः’ से जयद्रथादि का स्मरण कराकर वे यह कहना चाहते हैं कि संसार में मनुष्य अपने प्यारे सम्बन्धियों के ही लिये तो भोगों का संग्रह किया करता है; जब ये ही सब मारे जायँगे, तब राज्य-भोगों की प्राप्ति से होगा ही क्या? ऐसे राज्य-भोग तो दुःख के ही कारण होंगे।


"हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है?" ।। अध्याय 1 श्लोक 35 ।।


प्रश्न- अर्जुन ने यह क्योंकर कहा कि मुझे मारने पर भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता; क्योंकि दोनों सेनाओं में स्थित सम्बन्धियों में से जो अर्जुन के पक्ष के थे, उनके द्वारा तो अर्जुन के मारे जाने की कोई कल्पना ही नहीं हो सकती?


उत्तर- इसीलिये अर्जुन ने ‘घ्नतः’ और ‘अपि’ शब्दों का प्रयोग किया है। उनका यह भाव है कि मेरे पक्ष वालों की तो कोई बात ही नहीं है; परंतु जो विपक्ष में स्थित सम्बन्धी हैं, वे भी जब मैं युद्ध से निवृत्त हो जाऊँगा, तब सम्भवतः मुझे मारने की इच्छा नहीं करेंगे; क्योंकि वे सब राज्य के लोभ से ही युद्ध करने को तैयार हुए हैं। जब हम लोग युद्ध से निवृत्त होकर राज्य की आकांक्षा ही छोड़ देंगे तब तो मारने का कोई कारण ही नहीं रह जायगा। परंतु कदाचित् इतने पर भी उनमें से कोई मारना चाहेंगे तो उन मुझे मारने की चेष्टा करने वालों को भी मैं नहीं मारूँगा।


प्रश्न- तीनों लोकों के राज्य के लिये भी नहीं, फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है? इस कथन का क्या तात्पर्य है?


उत्तर- इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि पृथ्वी के राज्य और सुखों की तो बात ही कौन-सी है, इनको मारने पर कहीं त्रिलाकी का निष्कण्टक राज्य मिलता हो तो उसके लिये भी मैं इन आचार्यादि आत्मीय स्वजनों को नहीं मारना चाहता।


धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।। 36 ।। प्रश्न- धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- अर्जुन कहते हैं कि विपक्ष में स्थित इन धृतराष्ट्रपुत्रों को और उनके साथियों को मारने से इस लोक और परलोक में हमारी कुछ भी इष्टसिद्धि नहीं होगी और जब इच्छित वस्तु ही नहीं मिलेगी तब प्रसन्नता तो होगी ही कैसे। अतएव किसी दृष्टि से भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। प्रश्न- स्मृतिकारों ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-   आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। ‘अपना अनिष्ट करने के लिये आते हुए आततायी को बिना विचारे ही मार डालना चाहिये। आततायी के मारने से मारने वाले को कुछ भी दोष नहीं होता।’


वसिष्ठस्मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैं-


 

अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः।

क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिनः।।


‘आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत, धन हरण करने वाला, जमीन छीनने वाला और स्त्री का हरण करने वाला- ये छहों आततायी हैं।’ दुर्योधनादि में आततायी के उपर्युक्त लक्षण पूरे पाये जाते हैं। लाक्षा-भवन में आग लगाकर उन्होंने पाण्डवों को जलाने की चेष्टा की थी, भीमसेन के भोजन में विष मिला दिया था, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को तैयार थे ही। जूए में छल करके पाण्डवों को समस्त धन और सम्पूर्ण राज्य हर लिया था, अन्यायपूर्वक द्रौपदी को सभा में लाकर उसका घोर अपमना किया था और जयद्रथ उन्हें हरकर ले गया था। इस अवस्था में अर्जुन ने यह कैसे कहा कि इन आततायियों को मारकर हमें पाप ही लगेगा?


उत्तर - इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्मृतिकारों के मत में आततायियों का वध करना दोष नहीं माना गया है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि दुर्योधनादि आततायी भी थे। परंतु कहीं स्मृतिकार ने एक विशेष बात यह कही है-


 स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात् कुलनाशनम्।


‘जो अपने कुल का नाश करता है, वह सबसे बढ़कर पापी है।’

इन वाक्यों को सामान्य आज्ञा की अपेक्षा कहीं बलवान् समझकर यहाँ अर्जुन यह कह रहे हैं कि ‘धृतराष्ट्र के पुत्र आततायी होने पर भी जब हमारे कुटुम्बी हैं, तब इनको मारने में तो हमें पाप ही होगा और लाभ तो किसी प्रकार भी नहीं है। ऐसी अवस्था में मैं इन्हें मारना नहीं चाहता।’ अर्जुन ने इस अध्याय के अन्त तक इसी बात का स्पष्टीकरण किया है।


अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?।। 37 ।।


प्रश्न- इस श्लोक का क्या भाव है?


उत्तर- इस श्लोक में ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके अर्जुन यह कह रहे हैं कि ‘मेरी जैसी स्थिति हो रही है और युद्ध न करने के पक्ष में मैंने अब तक जो कुछ कहा है तथा मेरे विचार में जो बातें आ रही हैं, उन सबसे यही निश्चय होता है कि दुर्योधनादि बन्धुओं को मारना हमारे लिये सर्वथा अनुचित है। कुटुम्ब को मारकर हमें इस लोक या परलोक में किसी तरह का भी कोई सुख मिले, ऐसी जरा भी सम्भावना नहीं है। अतएव मैं युद्ध नहीं करना चाहता।’


यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नही विचार करना चाहिए ।। 38-39 ।।


प्रश्न- इन दोनों श्लोकों का स्पष्ट भाव क्या है?


उत्तर- यहाँ अर्जुन के कथन का यह भाव है कि अवश्य ही दुर्योधनादि का यह कार्य अत्यन्त ही अनुचित है, परंतु उनके लिये ऐसा करना कोई बड़ी बात नहीं है; क्योंकि लोभ ने उनके अन्तःकरण के विवेक को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। इसलिये न तो वह ये देख पाते हैं कि कुल के नाश से कैसे-कैसे अनर्थ और दुष्परिणाम होते हैं और न उन्हें यही सूझ पड़ता है कि दोनों सेनाओं में एकत्रित बन्धु-बान्धवों और मित्रों का परस्पर वैर करके एक-दूसरे को मारना कितना भयंकर पाप है। पर हम लोग- जो उनकी भाँति लोभ से अन्धे नहीं हो रहे हैं और कुलनाश से होने वाले दोष को भली-भाँति जानते हैं- जान-बूझकर घोर पाप में क्यों प्रवृत्त हों? हमें तो विचार करके इससे हट ही जाना चाहिये।





आज का विषय

लोकप्रिय विषय