विषाद योग

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।

सेनयोरुभोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।। 21 ।।

यावदेतान्निरीक्षऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।

कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।। 22 ।।


अर्थ- अर्जुन बोले- हे अच्युत ! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को आप तब तक खड़ा कीजिये, जब तक मैं युद्धक्षेत्र में खड़े हुये इन युद्ध की इच्छा वालों को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।


व्याख्या- ‘अच्युत सेनायोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय’- दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थी, वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि येक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफ से मध्य था-

1. सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाई का मध्यभाग और

2. दोनों सेनाओं का मध्यभाग, जहाँ से कौरव सेना जितनी दूरी पर खड़ी थी, उतनी ही दूरी पर पांडव सेना खड़ी थी। ऐसे मध्य भाग में खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके।

‘सेनयोरुभयोर्मध्ये’ पद गीता में तीन बार आया है- यहाँ[1], इसी अध्याय के चौबीसवें श्लोक में और दूसरे अध्याय में दसवें श्लोक में। तीन बार आने का तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरता के साथ अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने की आज्ञा देते हैं[2], फिर भगवान दोनों सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा करके कुरुवशियों को देखने के लिये कहते हैं।[3] और अंत में दोनों सेनाओं के बीच में ही विषादमग्र अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं।[4] इस प्रकार पहले अर्जुन में शूरवीरता थी, बीच में कुटुम्बियों को देखने से मोह के कारण उनकी युद्ध से उपरति हो गयी और अंत में उनको भगवान गीता का महान उपदेश प्राप्त हुआ, जिससे उनका मोह दूर हो गया। इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ-कहीं और जिस-किसी परिस्थिति में स्थित है, वहीं रहकर वह प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। कारण कि परमात्मा संपूर्ण परिस्थितियों में सदा येक रूप से रहते हैं।

‘यावदेतान्निरीक्षेऽहं.......रणसमुद्यमे’- दोनों सेनाओं के बीच में रथ कब तक खड़ा करें? इस पर अर्जुन कहते हैं कि युद्ध की इच्छा को लेकर कौरव-सेना में आये हुये सेना सहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जब तक मैं देख न लूँ, तब तक आप रथ को वहीं खड़ा रखिये। इस युद्ध के उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरे से कम बलवाले हैं? और कौन मेरे से अधिक बलवाले हैं? उन सबको मैं जरा देख लूँ।

यहाँ ‘योद्धुकामान्’ पद से अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो संधि की बात ही सोची थी, पर उन्होंने संधि की बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मन में युद्ध करने की ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बल को लेकर वे युद्ध करने की इच्छा रखते हैं।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।। 23 ।।


अर्थ- दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छा वाले जो ये राजा लोग इस सेना में आये हुए हैं, युद्ध करने को उतावले हुए इन सबको मैं देख लूँ।



'व्याख्या'- ‘धार्तराष्ट्रस्य[1] दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’- यहाँ दुर्योधन को दुष्ट बुद्धि कहकर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधन ने हमारा नाश करने के लिए आज तक कई तरह के षड्यंत्र रचे हैं। हमें अपमानित करने के ले कई तरह के उद्योग किए हैं। नियम के अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्य के अधिकारी हैं, पर उसको भी यह हड़पना चाहता है, देना नहीं चाहता। ऐसी तो इसकी दुष्टबुद्धि है; और यहाँ आये हुए राजा लोग युद्ध में इसका प्रिय करना चाहते हैं ! वास्तव में तो मित्रों का यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें, ऐसी बात बताएं, जिससे अपने मित्र का लोक-परलोक में हित हो। परंतु ये राजा लोग दुर्योधन की दुष्टबुद्धि को शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते है और दुर्योधन से युद्ध कराकर, युद्ध में उसकी सहायता करके उसका पतन ही करना चाहते हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन का हित किस बात में है; उसको राज्य भी किस बात से मिलेगा और उसका परलोक भी किस बात से सुधरेगा- इन बातों का वे विचार ही नहीं कर रहे हैं। अगर ये राजा लोग उसको यह सलाह देते कि भाई, कम से कम आधा राज्य तुम रखो और पांडवों का आधा राज्य पांडवों को दे दो तो इससे दुर्योधन का आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता।

‘योत्स्यमानानवेक्षऽहं य एतेऽत्र समागताः’- इन युद्ध के लिए उतावले होने वालों को जरा देख तो लूँ! इन्होंने अधर्म का, अन्याय का पक्ष लिया है, इसलिए ये हमारे सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्ट हो जाएंगे।

‘योत्स्यमानान्’ कहने का तात्पर्य है कि इनके मन में युद्ध की ज्यादा आ रही है; अतः देखूँ तो सही कि ये हैं कौन?


संबंध- अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान ने क्या किया- इसको संजय आगे के दो श्लोक में कहते हैं।


एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रतोत्तमम् ।। 24 ।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।

उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ।। 25 ।।

अर्थ- संजय बोले- हे भरtवंशी राजन् ! निद्राविजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य भाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथ को खड़ा करके इस तरह कहा कि ‘हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख।’


व्याख्या- ‘गुडाकेशेन’- ‘गुडाकेश’ शब्द के दो अर्थ होते हैं-


‘गुडा’ नाम मुड़े हुए का है और ‘केश’ नाम बालों का है। जिसके सिर के बाल मुड़े हुए अर्थात घुँघराले हैं, उसका नाम ‘गुडाकेश’ है।

‘गुडाका’ नाम निद्रा का है और ‘ईश’ नाम स्वामी का है। जो निद्रा का स्वामी है अर्थात निद्रा ले चाहे न ले- ऐसा जिसका निद्रा पर अधिकार है, उसका नाम ‘गुडाकेश’ है। अर्जुन के केश घुँघराले थे और उनका निद्रा पर आधिपत्य था; अतः उनको ‘गुडाकेश’ कहा गया है।

‘एवमुक्तः’- जो निद्रा- आलस्य के सुख का गुलाम नहीं होता और जो विषय- भोगों का दास नहीं होता, केवल भगवान का ही दास[1] होता है, उस भक्त की बात भगवान सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञा का पालन भी करते हैं। इसलिए अपने सखा भक्त अर्जुन के द्वारा आज्ञा देने पर अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में अर्जुन का रथ खड़ा कर दिया।

‘हृषीकेशः’- इंद्रियों का नाम ‘हृषीक’ है। जो इंद्रियों के ईश अर्थात स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोक में और यहाँ ‘हृषीकेश’ कहने का तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि सब के प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देने वाले हैं, वे ही अंतर्यामी भगवान यहाँ अर्जुन की आज्ञा का पालन करने वाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुन पर कितनी अधिक कृपा है!

‘सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्’- दोनों सेनाओं के बीच में जहाँ ख़ाली जगह थी, वहाँ भगवान ने अर्जुन के श्रेष्ठ रथ को खड़ा कर दिया।

‘भीष्मद्रोणमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्’- उस रथ को भी भगवान ने विलक्षण चतुराई से ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँ से अर्जुन को कौटुम्बिक संबंध वाले पितामह भीष्म, विद्या के संबंध वाले आचार्य द्रोण एवं कौरव सेना के मुख्य-मुख्य राजा लोग सामने दिखायी दे सकें।

‘उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति’- ‘कुरु’ पद में धृतराष्ट्र के पुत्र और पांडु के पुत्र- ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख- ऐसा कहने का तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर यह बाव पैदा हो जाए कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्ष के हों, चाहे उस पक्ष के हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों, चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी।


इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत हो जाए और मोह जाग्रत होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाए, जिससे अर्जुन को निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवों के कल्याण के लिए गीता का महान उपदेश दिया जा सके- इसी भाव से भगवान ने यहाँ ‘पश्यैतान् समवेतान् कुरुन्’ कहा है। नहीं तो भगवान् ‘पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति’- ऐसा भी कह सकते थे; परंतु ऐसा कहने से अर्जुन के भीतर युद्ध करने का जोश आता; जिससे गीता के प्राकट्य का अवसर ही नहीं आता! और अर्जुन के भीतर का प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकाने की चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जाग्रत करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान अर्जुन के भीतर छिपे हुए मोह को ‘कुरून् पश्य’ कहकर जाग्रत कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे।

अर्जुन कहा था कि ‘इनको मैं देख लूँ’- ‘निरीक्षे’[1]‘अवेक्षे’[2]; अतः यहाँ भगवान को ‘पश्य’[3]- ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं थी। भगवान को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिए था। परंतु भगवान ने रथ खड़ा करके अर्जुन के मोह को जाग्रत करने के लिए ही ‘कुरून् पश्य’[4]- ऐसा कहा है।

कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम- इन दोनों में बहुत अंतर है। कुटुम्ब में ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्ब के अवगुणों की तरफ खयाल जाता ही नहीं; किंतु ‘ये मेरे हैं- ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान का भक्त में विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्त के अवगुणों की तरफ भगवान का खयाल जाता ही नहीं; किंतु ‘यह मेरा ही है’- ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में क्रिया तथा पदार्थ[5] की और भगवत्प्रेम में भाव की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में मूढ़ता[6]की और भगवत्प्रेम में आत्मीयता की मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेह में अंधेरा और भगवत्प्रेम में प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेम में तल्लीनता के कारण कर्तव्य-पालन में विस्मृति तो हो सकती है, पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेह में कुटुम्बियों की और भगवत्प्रेम में भगवान की प्रधानता होती है।’


पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन से कुरुवंशियों को देखने के लिए कहा। उसके बाद क्या हुआ- इसका वर्णन संजय आगे के श्लोकों में करते हैं।


तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान्।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सरवींस्तथा।। 26 ।।

श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।

अर्थ- उसके बाद पृथानंदन अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित पिताओं को, पितामहों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।


व्याख्या- ‘तत्रापश्यत्....... सेनयोरुभयोरपि’- जब भगवान ने अर्जुन से कहा कि इस रणभूमि में इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख, तब अर्जुन की दृष्टि दोनों सेनाओं में स्थित अपने कुटुम्बियों पर गयी। उन्होंने देखा कि उन सेनाओं में युद्ध के लिए अपने-अपने स्थान पर भूरिश्रवा आदि पिता के भाई खड़े हैं, जो कि मेरे लिए पिता के समान हैं। भीष्म, सोमदत्त आदि पितामह खड़े हैं। द्रोण, कृप आदि आचार्य[1] खड़े हैं। पुरुजित, कुंतिभोज, शल्य, शकुनि आदि मामा खड़े हैं। भीम, दुर्योधन आदि भाई खड़े हैं। अभिमन्यु, घटोत्कच, लक्ष्मण[2] आदि मेरे और मेरे भाईयों के पुत्र खड़े हैं। लक्ष्मण आदि के पुत्र खड़े हैं, जो कि मेरे पौत्र हैं। दुर्योधन के अश्वत्थामा आदि मित्र खड़े हैं और ऐसे ही अपने पक्ष के मित्र भी खड़े हैं। द्रुपद, शैव्य आदि ससुर खड़े हैं। बिना किसी हेतु के अपने-अपने पक्ष का हित चाहने वाले सात्यकि, कृतवर्मा आदि सुहृद भी खड़े हैं।


संबंधी- अपने सब कुटुम्बियों को देखने के बाद अर्जुन ने क्या किया- इसको आगे के श्लोक में कहते हैं।


तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।। 27 ।।

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

अर्थ- अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन संपूर्ण बांधवों को देखकर वे कुंतीनंदन अर्जुन अत्यंत कायरता से युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले।


व्याख्या- ‘तान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य’- पूर्वश्लोक के अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुन ने बाह्लीक आदि प्रपितामह; धृष्टद्युम्र, शिखंडी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई संबंधियों को दोनों सेनाओं में स्थित देखा। ‘स कौन्तेयः कृपया परयाविष्टः’- इन पदों में ‘स' कौन्तेयः’ कहने का तात्पर्य है कि माता कुंती ने जिनको युद्ध करने के लिए संदेश भेजा था और जिन्होंने शूरवीरता में आकर ‘मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं?’- ऐसे मुख्य-मुख्य योद्धाओं को देखने के लिए भगवान श्रीकृष्ण को दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने की आज्ञा दी थी, वे ही कुंतीनंदन अर्जुन अत्यंत कायरता से युक्त हो जाते हैं!

दोनों ही सेनाओं में जन्म के और विद्या के संबंधी-ही-संबंधी देखने से अर्जुन के मन में यह विचार आया कि युद्ध में चाहे इस पक्ष के लोग मरें, चाहे उस पक्ष के लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा नष्ट होगा, संबंधी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आने से अर्जुन की युद्ध की इच्छा तो मिट गयी और भीतर में कायरता आ गयी। इस कायरता को भगवान ने आगे[1] ‘कशमलम्’ तथा ‘हृदयदौर्बल्यम्’ कहा है, और अर्जुन ने [2] ‘कर्पण्यदोषोपहतस्वभावः’ कहकर इसको स्वीकार भी किया है।

अर्जुन कायरता से आविष्ट हुए हैं- ‘कृपयाविष्टः’ इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी, प्रत्युत अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होने से यह ठहरेगी नहीं। परंतु शूरवीरता अर्जुन में स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही। अत्यंत कायरता क्या है? बिना किसी कारण निंदा, तिरस्कार, अपमान करने वाले, दुःख देने वाले, वैरभाव रखने वाले, नाश करने की चेष्टा करने वाले दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि आदि को अपने सामने युद्ध करने के लिये खड़े देखकर भी उनको मारने का विचार न होना, उनका नाश करने का उद्योग न करना- यह अत्यंत कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुन को कायरता रूप दोष ने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदि का अनिष्ट चाहने वाले और समय-समय पर अनिष्ट करने का उद्योग करने वाले हैं, उन अधर्मियों- पापियों पर भी अर्जुन को करुणा आ रही है[3] और वे क्षत्रिय के कर्तव्यरूप अपने धर्म से च्युत हो रहे हैं।

‘विषीदन्निदमब्रवीत्’- युद्ध के परिणाम में कुटुम्बकी, कुलकी, देश की क्या दशा होगी- इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्था में वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगे के श्लोकों में किया गया है।


अर्जुन उवाच दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।। 28 ।। सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।। 29 ।। गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।। 30 ।। अर्थ- अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इस कुटुम्ब- समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही हैं एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ में गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल भी रही है मेरा मन। भ्रमित- सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। व्याख्या- ‘दृष्द्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्’- अर्जुन को ‘कृष्ण’ नाम बहुत प्रिय था। यह संबोधन गीता में नौ बार आया है। भगवान श्रीकृष्ण के लिए दूसरा कोई संबोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान को अर्जुन का ‘पार्थ’ नाम बहुत प्यारा था। इसलिए भगवान और अर्जुन आपस की बोलचाल में ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगों में भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टि से संजय ने गीता के अंत में ‘कृष्ण’ और ‘पार्थ’ नाम का उल्लेख किया है- ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः’[1]। धृतराष्ट्र ने पहले ‘समवेता युयुत्सवः’ कहा था और यहाँ अर्जुन ने भी ‘युयुत्सुं समुपस्थितम्’ कहा है; परंतु दोनों की दृष्टियों में बड़ा अंतर है। धृतराष्ट्र की दृष्टि में तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पांडु के पुत्र हैं- ऐसा भेद हैं; अतः धृतराष्ट्र ने वहाँ ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ कहा है। परंतु अर्जुन की दृष्टि में यह भेद नहीं है; अतः अर्जुन ने यहाँ ‘स्वजनम्’ कहा है, जिसमें दोनों पक्ष के लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र को तो युद्ध में अपने पुत्रों के मरने की आशंका से भय है, शोक है; परंतु अर्जुन को दोनों ओर के कुटुम्बियों के मरने की आशंका से शोक हो रहा है कि किसी भी तरफ का कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अब तक ‘दृष्द्वा’ पद तीन बार आया है- ‘दृष्द्वा तु पांडवानीकम्’[2], ‘व्यवस्थितान्द्वष्द्वा धार्तराष्ट्रान्’[3]और यहाँ ‘दृष्द्वेमं स्वजनम्’[4]। इन तीनों का तात्पर्य है कि दुर्योधन का देखना तो एक तरह का ही रहा अर्थात दुर्योधन का तो युद्ध का ही एक भाव रहा; परंतु अर्जुन का देखना दो तरह का हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर वीरता में आकर युद्ध के लिए धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनों को देखकर कायरता से आविष्ट हो रहे हैं, युद्ध से उपरत हो रहे हैं और उनके हाथ से धनुष गिर रहा है। ‘सीदन्ति मम गात्राणि...... भ्रमतीव च मे मनः’- अर्जुन के मन में युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिंता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिंता, दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अंग[5] शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात सारा शरीर रोमांचित हो रहा है! जिस गांडीव धनुष की प्रत्यश्चा की टंकार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गांडीव धनुष आज मेरे हाथ से गिर रहा है! त्वचा में- सारे शरीर में जलन हो रही है।[6] मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात मेरे को क्या करना चाहिए- यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्ध भूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थ कारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।

संबंध- पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टि से युद्ध करने का अनौचित्य बताते हैं।


निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।। 31 ।।

अर्थ- हे केशव! मैं लक्षणों- शकुनों को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजनों को मारकर श्रेय[1] भी नहीं देख रहा हूँ।


व्याख्या- ‘निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव’- हे केशव! मैं शकुनों को[2] भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्य के आरंभ में मन में जितना अधिक उत्साह[3] होता है, वह उत्साह उस कार्य को उतना ही सिद्ध करने वाला होता है। परंतु अगर कार्य के आरंभ में ही उत्साह भंग हो जाता है, मन में संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भाव से अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीर में अवयवों का शिथिल होना, कम्प होना, मुख का सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं, ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं[4]

इसके सिवाय आकाश से उल्कापात होना, असमय में ग्रहण लगना, भूकम्प होना, पशु-पक्षियों का भयंकर बोली बोलना, चंद्रमा के काले चिह्न का मिट-सा जाना, बादलों से रक्त की वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं, वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभी के और पहले के- इन दोनों शकुनों की ओर देखता हूँ, तो मेरे को ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात भावी अनिष्ट के सूचक दीखते हैं।

‘न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे’- युद्ध में अपने कुटुम्बियों को मारने से हमें कोई लाभ होगा- ऐसी बात भी नहीं है। इस युद्ध के परिणाम में हमारे लिए लोक और परलोक-र दोनों ही हितकारक नहीं दीखते। कारण कि जो अपने कुल का नाश करता है, वह अत्यंत पापी होता है। अतः कुल का नाश करने से हमें पाप ही लगेगा, जिससे नरकों की प्राप्ति होगी।

इस श्लोक में ‘निमित्तानि पश्यामि’ और ‘श्रेयः अनुपश्यामि’[5]- इन दोनों वाक्यों से अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शकुनों को देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ, दोनों ही रीति से युद्ध का आरंभ और उसका परिणाम हमारे लिए और संसार मात्र के लिए हितकारक नहीं दीखता।


संबंध- जिसमें न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दीखता है, ऐसी अनिष्टकारक विजय को प्राप्त करने की अनिच्छा अर्जुन आगे के श्लोक में प्रकट करते हैं।


न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ।। 32 ।।

अर्थ- हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविंद ! हम लोगों को राज्य से क्या लाभ? भोगों से क्या लाभ? अथवा जीने से भी क्या लाभ?


व्याख्या- ‘न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च’- मान लें कि युद्ध में हमारी विजय हो जाए, तो विजय होने से पूरी पृथ्वी पर हमारा राज्य हो जायगा, अधिकार हो जायगा। पृथ्वी का राज्य मिलने से हमें अनेक प्रकार के सुख मिलेंगे। परंतु इनमें से मैं कुछ भी नहीं चाहता अर्थात मेरे मन में विजय, राज्य एवं सुखों की कामना नहीं है।

‘किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा’- जब हमारे मन में किसी प्रकार की[1] कामना ही नहीं, तो फिर कितना ही बड़ा राज्य क्यों न मिल जाय, पर उससे हमें क्या लाभ? कितने ही सुंदर-सुंदर भोग मिल जायँ, पर उनमें हमें क्या लाभ? अथवा कुटुम्बियों को मारकर हम राज्य के सुख भोगते हुए कितने ही वर्ष जीते रहें, पर उससे भी हमें क्या लाभ? तात्पर्य है कि ये विजय, राज्य और भोग तभी सुख दे सकते हैं, जब भीतर में इनकी कामना हो, प्रियता हो, महत्त्व हो।

परंतु हमारे भीतर तो इनकी कामना ही नहीं है। अतः ये हमें क्या सुख दे सकते हैं? इन कुटुम्बियों को मारकर हमारी जीने की भी इच्छा नहीं है; क्योंकि जब हमारे कुटुम्बी मर जायँगे, तब ये राज्य और भोग किसके काम आयेंगे? राज्य, भोग आदि तो कुटुम्ब के लिए होते हैं, पर जब ये ही मर जायँगे, तब इनको कौन भोगेगा? भोगने की बात तो दूर रही, उलटे हमें और अधिक चिंता, शोक होंगे!




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