कुल धर्म



जब से कुल आरंभ हुआ है, तभी से कुल के धर्म अर्थात कुल की पवित्र परंपराएँ, पवित्र रीतियाँ, मर्यादाएँ भी परंपरा से चलती आयी हैं। परंतु जब कुल का क्षय हो जाता है, तब सदा से कुल के साथ रहने वाले धर्म भी नष्ट हो जाते हैं अर्थात जन्म के समय, द्विजाति संस्कार के समय, विवाह के समय, मृत्यु के समय और मृत्यु के बाद किए जाने वाले जो-जो शास्त्रीय पवित्र रीति-रिवाज हैं, जो कि जीवित और मृतात्मा मनुष्यों के लिए इस लोक में और परलोक में कल्याण करने वाले हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। कारण कि जब कुल का ही नाश हो जाता है, तब कुल के आश्रित रहने वाले धर्म किसके आश्रित रहेंगे?

‘धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्रमधर्मोऽभिभवत्युत’- जब कुल की पवित्र मर्यादाएँ, पवित्र आचरण नष्ट हो जाते हैं, तब धर्म का पालन न करना और धर्म से विपरीत काम करना अर्थात करने लायक काम को न करना और न करने लायक काम को करना रूप अधर्म संपूर्ण कुल को दबा लेता है अर्थात संपूर्ण कुल में अधर्म छा जाता है।

अब यहाँ यह शंका होती है कि जब कुल नष्ट हो जायगा, कुल रहेगा ही नहीं, तब अधर्म किसको दबायेगा? इसका उत्तर यह है कि जो लड़ाई के योग्य पुरुष हैं, वे तो युद्ध में मारे जाते हैं; किंतु जो लड़ाई के योग्य नहीं है, ऐसे जो बालक और स्त्रियाँ पीछे बच जाती हैं, उनको अधर्म दबा लेता है। कारण कि जब युद्ध में शस्त्र, शास्त्र, व्यवहार आदि के जानकार और अनुभवी पुरुष मर जाते हैं, तब पीछे बचे लोगों को अच्छी शिक्षा देने वाले, उन पर शासन करने वाले नहीं रहते। इससे मर्यादा का, व्यवहार का ज्ञान न होने से वे मनमाना आचरण करने लग जाते हैं अर्थात वे करने लायक काम को तो करते नहीं और न करने लायक काम को करने लग जाते हैं। इसलिए उनमें अधर्म फैल जाता है।


‘अधर्माभिभवात्कृष्ण...... प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः’- धर्म का पालन करने से अंतःकरण शुद्ध हो जाता है। अंतःकरण शुद्ध होने से बुद्धि सात्त्विकी बन जाती है। सात्त्विकी बुद्धि में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए- इसका विवेक जाग्रत रहता है। परंतु जब कुल में अधर्म बढ़ जाता है, तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं, जिससे अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है। अंतःकरण अशुद्ध होने से बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होने से मनुष्य अकर्तव्य को कर्तव्य और कर्तव्य को अकर्तव्य मानने लग जाता है अर्थात उसमें शास्त्र-मर्यादा से उलटी बातें पैदा होने लग जाती है। इस विपरीत बुद्धि से कुल की स्त्रियाँ दूषित अर्थात व्यभिचारिणी हो जाती हैं।


युद्ध में कुल का क्षय होने से कुल के साथ चलते आये कुल धर्मों का भी नाश हो जाता है। कुल धर्मों के नाश से कुल में अधर्म की वृद्धि हो जाती है। अधर्म की वृद्धि से स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं। इस तरह इन वर्णसंकर पैदा करने वाले दोषों से कुल का नाश करने वालों के जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।

कुलधर्म और जातिधर्म क्या है? एक ही जाति में एक कुल की जो अपनी अलग-अलग परंपराएँ हैं, अलग-अलग मर्यादाएँ है, अलग-अलग आचरण हैं, वे सभी उस कुल के ‘कुलधर्म’ कहलाते हैं। एक ही जाति के संपूर्ण कुलों के समुदाय को लेकर जो धर्म कहे जाते हैं, वे सभी ‘जातिधर्म’ अर्थात ‘वर्णधर्म’ कहलाते हैं, जो कि सामान्य धर्म हैं और शास्त्रविधि से नियत हैं। इन कुलधर्मों का और जातिधर्मों का आचरण न होने से ये धर्म नष्ट हो जाते हैं।


‘उत्सन्नकुलधर्माणाम्......अनुशुश्रुम’- भगवान ने मनुष्य को विवेक दिया है, नया कर्म करने का अधिकार दिया है। अतः यह कर्म करने में अथवा न करने में, अच्छा करने में अथवा मंदा करने में स्वतंत्र है। इसलिए इसको सदा विवेक-विचारपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने चहिये।

परंतु मनुष्य सुख भोग आदि के लोभ में आकर अपने विवेक का निरादर कर देते हैं और राग-द्वेष के वशीभूत हो जाते हैं, जिससे उनके आचरण शास्त्र और कुल मर्यादा के विरुद्ध होने लगते हैं। परिणामस्वरूप इस लोक में उनकी निंदा, अपमान, तिरस्कार होता है और परलोक में दुर्गति, नरकों की प्राप्ति होती है। अपने पापों के कारण उनको बहुत समय तक नरकों का कष्ट भोगना पड़ता है। ऐसा हम परंपरा से बड़े-बूढ़े गुरुजनों से सुनते आये हैं।

‘मनुष्याणाम्’- पद में कुलघाती और उनके कुल के सभी मनुष्यों का समावेश किया गया है अर्थात कुलघातियों के पहले जो हो चुके हैं- उन का, अपना और आगे होने वाले का समावेश किया गया है।


यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं!


व्याख्या- ‘अहो बत..... स्वजनमुद्यताः’- ये दुर्योधन आदि दुष्ट हैं। इनकी धर्म पर द़ृष्टि नहीं है। इन पर लोभ सवार हो गया है। इसलिए ये युद्ध के लिए तैयार हो जायँ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परंतु हम लोग तो धर्म-अधर्म को, कर्तव्य-अकर्तव्य को, पुण्य-पाप को जानने वाले हैं। ऐसे जनकार होते हुए भी अनजान मनुष्यों की तरह हम लोगों ने बड़ा भारी पाप करने का निश्चय- विचार कर लिया है। इतना ही नहीं, युद्ध में अपने स्वजनों को मारने के लिए अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं! यह हम लोगों के लिए बड़े भारी आश्चर्य की और खेद की बात है अर्थात सर्वथा अनुचित बात है।


हमारी जो जानकारी है, हमने जो शास्त्रों से सुना है, गुरुजनों से शिक्षा पायी है, अपने जीवन को सुधारने का विचार किया है, उन सबका अनादर करके आज हमने युद्धरूपी पाप करने के लिए विचार कर लिया है- यह बड़ा भारी पाप है- ‘महत्पापम्’।


इस श्लोक में ‘अहो’ और ‘बत’- ये दो पद आए हैं। इनमें से ‘अहो’ पद आश्चर्य का वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्ध से होने वाली अनर्थ परंपरा को जानते हुए भी हम लोगों ने युद्धरूपी बड़ा भारी पाप करने का पक्का निश्चय कर लिया है। दूसरा ‘बत’ पद खेद का, दुःख का वाचक है। दुःख यही है कि थोड़े दिन रहने वाले राज्य और सुख के लोभ में आकर हम अपने कुटुम्बियों को मारने के लिए तैयार हो गये हैं।


पाप करने का निश्चय करने में और स्वजनों को मारने के लिए तैयार होने में केवल राज्य का सुख का लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्ध में हमारी विजय हो जायगी तो हमें राज्य, वैभव मिल जायगा, हमारा आदर सत्कार होगा, हमारी महत्ता बढ़ जायगी, पूरे राज्य पर हमारा प्रभाव रहेगा, सब जगह हमारा हुक्म चलेगा, हमारे पास धन होने से हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे, फिर खूब आराम करेंगे, सुख भोगेंगे- इस तरह हमारे पर राज्य और सुख का लोभ छा गया है, जो हमारे जैसे मनुष्यों के लिए सर्वथा अनुचित है।


इस श्लोक में अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्विचारों का, अपनी जानकारी का आदर करने से ही शास्त्र, गुरुजन आदि की आज्ञा मानी जा सकती है। परंतु जो मनुष्य अपने सद्विचारों का निरादर करता है, वह शास्त्रों की, गुरुजनों की और सिद्धांतों की अच्छी-अच्छी बातों को सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारों का बार-बार निरादर, तिरस्कार करने से सद्विचारों की सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्य को दुर्गुण-दुराचार से रोकने वाला है ही कौन? ऐसे ही हम भी अपनी जानकारी का आदर नहीं करेंगे, तो फिर हमें अनर्थ- परंपरा से कौन रोक सकता है? अर्थात कोई नहीं रोक सकता।


‘स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः’- स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाता है। पुरुष और स्त्री- दोनों अलग-अलग वर्ण के होने पर उनसे जो संतान पैदा होती है, वह ‘वर्णसंकर’ कहलाती है। अर्जुन यहाँ ‘कृष्ण’ संबोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप सबको खींचने वाले होने से ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, तो आप यह बतायें कि हमारे कुल को आप किस तरफ खींचेंगे अर्थात किधर ले जायँगे?


‘वार्ष्णेय’ संबोधन देने का भाव है कि आप वृष्णिवंश में अवतार लेने के कारण ‘'वार्ष्णेय’ कहलाते हैं। परंतु जब हमारे कुल का नाश हो जायगा, तब हमारे वंशज किस कुल के कहलायेंगे? अतः कुल का नाश करना उचित नहीं है।



कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।। 40 ।।


प्रश्न- ‘सनातन कुलधर्म’ किन धर्मों को कहते हैं- और कुल के नाश से उन धर्मों का नाश कैसे हो जाता है?


उत्तर- अपने-अपने कुल में परम्परा से चली आती हुई जो शुभ और श्रेष्ठ मर्यादाएँ हैं, जिनसे सदाचार सुरक्षित रहता है और कुल की स्त्री-पुरुषों में अधर्म का प्रवेश नहीं हो सकता, उन शुभ और श्रेष्ठ कुल-मर्यादाओं को ‘सनातन कुलधर्म’ कहते हैं। कुल के नाश से जब इन कुलधर्मों के जानने वाले और उनको बनाये रखने वाले बड़े-बूढ़े लोगों का अभाव हो जाता है, तब शेष बचे हुए बालकों और स्त्रियों में ये धर्म स्वाभाविक ही नहीं रह सकते।


प्रश्न- धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- पाँच हेतु ऐसे हैं, जिनके कारण मनुष्य अधर्म से बचता है और धर्म को सुरक्षित रखने में समर्थ होता है- ईश्वर का भय, शास्त्र का शासन, कुल-मर्यादाओं के टूटने का डर, राज्य का कानून और शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट की आशंका। इनमें ईश्वर और शास्त्र सर्वथा सत्य होने पर भी वे श्रद्धा पर निर्भर करते हैं, प्रत्यक्ष हेतु नहीं हैं। राज्य के कानून प्रजा के लिये ही प्रधानतया होते हैं; जिनके हाथों में अधिकार होता है, वे उन्हें प्रायः नहीं मानते। शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट की आशंका अधिकतर व्यक्तिगत-रूप में हुआ करती है। एक कुल-मर्यादा ही ऐसी वस्तु है, जिसका सम्बन्ध सारे कुटुम्ब के साथ रहता है। जिस समाज या कुल में परम्परा से चली आती हुई शुभ और श्रेष्ठ मर्यादाएँ नष्ट हो जाती हैं, वह समाज या कुल बिना लगाम के मतवाले घोड़ों के समान यथेच्छाचारी हो जाता है। यथेच्छाचार किसी भी नियम को सहन नहीं कर सकता, वह मनुष्य को सर्वथा उच्छृंखल बना देता है। जिस समाज के मनुष्यों में इस प्रकार की उच्छृंखलता आ जाती है, उस समाज या कुल में स्वाभाविक ही सर्वत्र पाप छा जाता है।

हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है ।।41।।


प्रश्न- इस श्लोक का क्या तात्पर्य है?


उत्तर- कुलधर्म के नाश हो जाने से जब कुल के स्त्री-पुरुष उच्छृंखल हो जाते हैं, तब उनकी प्रायः सभी क्रियाएँ अधर्मयुक्त होने लगती हैं, इससे पाप अत्यन्त बढ़कर सारे समाज में फैल जाता है, सर्वत्र पाप छा जाने से समाज के स्त्री-पुरुषों की दृष्टि में किसी भी मर्यादा को कुछ भी तुल्य नहीं रह जाता और उनका पालन करना तो दूर रहा, वे उनको जानने की भी चेष्टा नहीं करते और कोई उन्हें बतलाता है तो उसकी दिल्लगी उड़ाते हैं या उससे द्वेष करते हैं। ऐसी अवस्था में पवित्र सती-धर्म का, जो समाज-धर्म की रक्षा का आधार है, अभाव हो जाता है। सतीत्व का महत्त्व खोकर पवित्र कुल की स्त्रियाँ घृणित व्यभिचार-दोष से दूषित हो जाती हैं। उनका विभिन्न वर्णों के पर पुरुषों के साथ संयोग होता है। माता और पिता के भिन्न-भिन्न वर्णों के होने से जो सन्तान उत्पन्न होती है, वह वर्णसंकर होती है। इस प्रकार सहज ही कुल की परम्परागत पवित्रता बिलकुल नष्ट हो जाती है।


वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं ।। 42 ।।


प्रश्न- ‘कुलघाती’ किनको कहा गया है और इस श्लोक में ‘कुलस्य’ पद के साथ ‘च’ अव्यय का प्रयोग करके क्या सूचित किया गया है?


उत्तर- ‘कुलघाती’ उनको कहा गया है, जो युद्धादि में अपने कुल का संहार करते हैं और ‘कुलस्य’ पद के साथ ‘च’ अव्यय का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि वर्णसंकर सन्तान केवल उन कुलघातियों को ही नरक पहुँचाने में कारण नहीं बनती, वह उनके समस्त कुल को भी नरक में ले जाने वाली होती है।


प्रश्न- ‘लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले इनके पितरलोग भी अधोगति को प्राप्त हो जाते है’ इसका क्या भाव है?


उत्तर- श्राद्ध में जो पिण्डदान किया जाता है और पितरों के निमित ब्राह्मण-भोजनादि कराया जाता है वह ‘पिण्डक्रिया’ है और तर्पण में जो जलांजलि दी जाती है वह ‘उदकक्रिया’ है; इन दोनों के समाहार को पिण्डोदक क्रिया कहते हैं। इन्हीं का नाम श्राद्ध-तपर्ण है। शास्त्र और कुल-मर्यादा को जानने-माननेवाले लोग श्राद्ध-तर्पण किया करते हैं। परंतु कुलघातियों के कुल में धर्म के नष्ट हो जाने से जो वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं, वे अधर्म से उत्पन्न और अधर्माभिभूत होने से प्रथम तो श्राद्ध-तर्पणादि क्रियाओं को जानते ही नहीं, कोई बतलाता भी है तो श्रद्धा न रहने से करते नहीं और यदि कोई करते भी हैं तो शास्त्र-विधि के अनुसार उनका अधिकार न होने से वह पितरों को मिलती नहीं। इस प्रकार जब पितरों को सनतान के द्वारा पिण्ड और जल नहीं मिलता तब उनका पतन हो जाता है।


इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुल घातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।। 43 ।।


प्रश्न- ‘इन वर्णसंकरकारक दोषों’ से किन दोषों की बात कही गयी है?


उत्तर- उपर्युक्त पदों से उन दोषों की बात कही गयी है जो वर्णसंकर की उत्पत्ति में कारण हैं। वे दोष हैं- 1. कुल का नाश, 2. कुल के नाश से कुलधर्म का नाश तथा 3. पापों की वृद्धि और 4. पापों की वृद्धि से कुल-स्त्रियों का व्याभिचारादि दोषों से दूषित होना। इन्हीं चार दोषों से वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है।


प्रश्न- ‘सनातन कुलधर्म’ और ‘जातिधर्म’ में क्या अन्तर है तथा उपर्युक्त दोषों से इनका नाश कैसे होता है?


उत्तर- वंशपरम्परागत सदाचार की मर्यादाओं का नाम ‘सनातन कुलधर्म’ है। चालीसवें श्लोक में इनके साथ ‘सनातनाः’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। वेद-शास्त्रोक्त ‘वर्णधर्म’ का नाम ‘जातिधर्म’ है। कुल की श्रेष्ठ मर्यादाओं के जानने और चलाने वाले बड़े-बूढ़ों का अभाव होने से जब ‘कुलधर्म’ नष्ट हो जाते हैं और वर्णसंकरताकारक दोष बढ़ जाते हैं, तब ‘जातिधर्म’ भी नष्ट हो जाता है। क्योंकि वर्णेतर के संयोग से उत्पन्न संकर सन्तान में वर्ण-धर्म नहीं रह सकता। इसी प्रकार वर्णसंकरकारक दोषों से इन धर्मों का नाश होता है।

हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।। 44 ।।


प्रश्न- इस श्लोक का क्या भाव है?


उत्तर- यहाँ अर्जुन कहते हैं कि जिनके ‘कुलधर्म’ और ‘जातिधर्म’ नष्ट हो गये हैं, उन सर्वथा अधर्म में फँसे हुए लोगों को पापों के फलस्वरूप दीर्घकाल तक कुम्भीपाक और रौरव आदि नरकों में गिरकर भाँति-भाँति की भीषण यम-यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, ऐसा हम लोग परम्परा से सुनते आये हैं। अतएव कुलनाश की चेष्टा कभी नहीं करनी चाहिए।


हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गये हैं ।। 45 ।।

प्रश्न- हम लोग महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, इस वाक्य के साथ ‘अहो’ और ‘बत’ इन दोनों अव्यय-पदों का प्रयोग करने का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- ‘अहो’ अव्यय यहाँ आश्चर्य का द्योतक है और ‘बत’ पद महान् शोक का! इन दोनों का प्रयोग करके उपर्युक्त वाक्य के द्वारा अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि हम लोग जो धर्मात्मा और बुद्धिमान् माने जाते हैं और जिनके लिये ऐसे पापकर्म में प्रवृत्त होना किसी प्रकार भी उचित नहीं हो सकता, वे भी ऐसे महान् पाप का निश्चय कर चुके हैं। यह अत्यन्त ही आश्चर्य और शोक की बात है।


प्रश्न- जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिेय उद्यत हो गये हैं, इस कथन का क्या भाव है?


उत्तर- इससे अर्जुन ने यह भाव दिखाया है कि हम लोगों का राज्य और सुख के लोभ से इस प्रकार तैयार हो जाना बड़ी भारी गलती है।


यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ।। 46 ।।


प्रश्न- इस श्लोक का क्या भाव है?


उत्तर- अर्जुन यहाँ कह रहे हैं कि इस प्रकार युद्ध की घोषणा होने पर भी जब मैं शस्त्रों का त्याग कर दूँगा और उन लोगों की किसी भी क्रिया का प्रतिकार नहीं करूँगा, तब सम्भवतः वे भी युद्ध नहीं करेंगे और इस तरह समस्त आत्मीयजनों की रक्षा हो जायगी। परंतु यदि कदाचित् वे ऐसा न करके मुझे शस्त्रहीन और युद्ध से निवृत्त जानकर मार भी डालें तो वह मृत्यु भी मेरे लिये अत्यन्त कल्याणकारक होगी।


क्योंकि इससे एक तो मैं कुलघातरूप भयानक पाप से बच जाऊँगा; दूसरे, अपने सगे-सम्बन्धी और आत्मीयजनों की रक्षा हो जायगी और तीसरे कुलरक्षाजनित महान् पुण्य-कर्म से परमपद की प्राप्ति भी मेरे लिये आसान हो जायगी। अर्जुन अपने प्रतिकाररहित उपर्युक्त प्रकार के मरण से कुल की रक्षा और अपना कल्याण निश्चित मानते हैं, इसीलिये उन्होंने वैसे मरण को अत्यन्त कल्याणकारक (क्षेमतरम्) बतलाया है।


रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाला अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया ।। 47 ।। प्रश्न- इस श्लोक में संजय के कथन का क्या भाव है? उत्तर- यहाँ संजय कर रहे हैं कि विषादमग्न अर्जुन ने भगवान् से इतनी बातें कहकर बाणसहित गाण्डीव धनुष को उतारकर नीचे रख दिया और रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठकर वे नाना प्रकार की चिन्ताओं में डूब गये। उनके मन में कुलनाश और उससे होने वाले भयानक पाप और पापफलों के भीषण चित्र आने लगे। उनके मुखमण्डल पर विषाद छा गया और नेत्र शोकाकुल हो गये। 


अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है, उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरह से जी रहे हैं। परंतु जब वे वस्तुएँ हमें मिलने के बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओं का जो निरंतर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओँ का अभाव मानता है, उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है, बीच में प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अंत में उनका अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिए केवल परिश्रम ही परिश्रम पल्ले पड़ा, दु:ख-ही-दु:ख भोगना पड़ा।

बीच में वस्तुओं के संयोग से थोड़ा सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभ के कारण ही हुआ है। अगर भीतर में लोभ रूपी दोष न हो, तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता। लालच रूपी दोष न हो, तो संग्रह का सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसार का सुख किसी-न-किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता। परंतु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक-विचार को लुप्त कर देता है।


‘कथं न ज्ञेयमस्माभिः.....प्रपश्यद्भिर्जनार्दन’- अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुल क्षय से होने वाले दोष को और मित्र द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देखते, तो भी हम लोगों को कुल क्षय से होने वाली अनर्थ परंपरा को देखना ही चाहिए।

[जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोक से चौवालीसवें श्लोक तक करेंगे];

क्योंकि हम कुल क्षय से होने वाले दोषों को भी अच्छी तरह से जानते हैं और मित्रों के साथ द्रोह से होने वाले पाप को भी अच्छी तरह से जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिए अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःख से तो हमारे पूर्व पापों का ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परंतु हमारे मन में अगर द्रोह- वैरभाव होगा, तो वह मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म जन्मान्तर तक हमें पाप करने में प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करने वाले और मित्रों के साथ द्रोह पैदा करने वाले इस युद्ध रूपी पाप से बचने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए? अर्थात विचार करके हमें इस पाप से जरूर ही बचना चाहिए।

यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदि के लोभ की तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह में आबद्ध होकर बोल रहे हैं- इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जब तक दूसरों के दोष की तरफ रहती है, तब तक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी दूसरों का दोष देखना- यह दोष तो है ही। दूसरों का दोष देखना एवं अपने में अच्छाई का अभिमान करना- ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं। अर्जुन को भी दुर्योधन आदि में दोष दीख रहे हैं और अपने में अच्छाई का अभिमान हो रहा है, इसलिए उनको अपने में महरूपी दोष नहीं दीख रहा है।




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