महावाक्य

  



अब हम गीता के योग के उस अंतरतम सारतत्त्व में आ गये हैं जो गीतोपदेश के समस्त जीवन और प्राण का श्वास-प्रयास केन्द्र है। अब हम बिलकुल स्पष्ट रूप से यह देख सकते हैं कि सीमित मानवजीव जब अहंकार और निम्न प्रकृति से हटकर स्थिर, शांत और अविकार्य अक्षर आत्मा में आ जाता है तब उसका आरोहण केवल एक प्रथम सोनान, एक प्राथमिक परिवर्तनमात्र होता है। और अब हम यह भी देख सकते हैं कि गीता में आरंभ से ही ईश्वर का, मानवरूप में परमेश्वर का क्यों इतना आग्रह किया गया है-उन परमेश्वर को जो अहं, माम् आदि पदों से अपने-आपको सूचित करते हैं और ऐसा मालूम होता है कि ये शब्द किसी महान् निगूढ़ और सर्वव्यापक उन परमात्मा का संकेत करते हैं जो सब लोकों के महैश्वर और मानवजीव के नाथ हैं और जो उस अक्षर आत्मसत्ता से भी महान् हैं जो सदा शांत और अचल रहती और प्राकृत विश्व के अंतर्बाह्य दृश्यों से निरंतर अलिप्त बनी रहती है। सारा योग भगवान् की खोज है, सनातन पुरुष के साथ मिलन की ओर प्रस्थान है। भगवान् और सनातन के संबंध में हमारी भावना जिस अंशतक पूर्ण होगी उसी अंशतक हमारी खोज का मार्ग तथा हमारा मिलन प्रगाढ़ और पूर्ण होगा और हमारा साक्षात्कार समग्र होगा। मनुष्य जो मानस-जीव है, अपने सीमित मन के रास्ते से असीम अनंत की ओर चलता है और इसलिये उसे अनंत की ओर इसी सीमित के समीप का कोई द्वार खोलना पड़ता है। वह कोई ऐसी भावना ढूंढ़ता है जिसे बुद्धि पकड़ सके, अपनी प्रकृति की किसी ऐसी शक्ति को चुन लेता है जो अपने ही निर्बाध उन्नतिसाधक बल से उस अनंत सत्य तक पहुँच जाये और उसे छू ले जो स्वयं उसकी बुद्धि की ग्रहणशक्ति के परे है। उस अनंत सत्य के तो असंख्य रूप, असंख्य वाचक शब्द और असंख्य आत्मसंकेत हैं। वह इन्हीं मे से किसी एक रूप को देखने का प्रयास करता है जिसमें उसीकी भक्ति करके प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा उस अप्रमेय सत्य को पा ले जिसका यह एक प्रतीक है। यह द्वार चाहै कितना ही तंग क्यों न हो, यदि यह उसे आकर्षित करने वाली विशालता को प्राप्त होने की कुछ भी आशा दिलाता है, यदि उसकी आत्मा को पुकारनेवाले ‘तत्’ की अथाह गंभीरता और अगम्य उच्चता के रास्ते पर उसे ला खड़ा करता है तो इतने से उसे संतोष हो जाता है। और वह जिस तरह उसकी ओर आगे बढ़ता है, उसी तरह वह उसे ग्रहण कर लेता है। दार्शनिक बुद्धि अपकर्षक निरपेक्ष तात्विक ज्ञान के द्वारा सनातन को प्राप्त होने का प्रयास करती है। ज्ञान का कर्म बुद्धि के द्वारा ग्रहण करना और सीमित बुद्धि के लिये इसका अर्थ होता है लक्षण करना और निर्धारित करना। परंतु अनिधार्य को निर्धारित करने का एकमात्र मार्ग किसी-न-किसी प्रकार का सार्वत्रिक निषेध अर्थात् ‘‘नेति नेति” ही होता है। इसलिये बुद्धि सनातन-संबंधी जो कोई कल्पना करती है उसमें से उन सब चीजों को हटाती चलती है जो इन्द्रियों और हृदय तथा बुद्धि द्वारा सीमित होने वाली प्रतीत होती है।


आत्मा और अनात्मा, नित्य अक्षर अलक्ष्य आत्मसत्ता और अन्य सब प्रकार के जीवन, इन दोनों के बीच-ब्रह्म और माया के बीच, अनिर्वचनीय सद्वस्तु और अनिर्वचन का निर्वचन करने का यत्न करने वाले पर निर्वचन न कर सकने वाले सब पदार्थों के बीच-कर्म और निर्वाण के बीच, विश्वप्रकति की कल्पना, उसकी निरंतर क्रियाशीलता के साथ ही उसकी चिंरतन क्षणभंगुरता और उसकी कल्पना और कर्म का एक ऐसा निरपेक्ष अनिर्वचनीय परम निषेध जो प्राण, मन और कर्म से सर्वथा रिक्त है, इन दोनों के बीच पूर्ण विरोध खड़ा किया जाता है। नित्य को पाने के लिये ज्ञान की बलवती प्रवृत्ति अनित्य पदार्थ मात्र से हटा ले जाती है। जीवन के मूल की ओर लौट चलने के लिये जीवन का निषेध करती है, हम जो कुछ समझते हैं कि हम उससे निकलकर जिनके नाम अपौरूषेय सत्तत्त्व को पाने के लिये ‘अभी जो कुछ है’-से मालूम होते हैं उसीका निषेध कर देती है। हृदय की कामनाएं, मन के कर्म और बुद्धि की कल्पनाएं हटा दी जाती हैं; अंत में ज्ञान तक का निषेध किया जाता और अभेद और अज्ञेय में उसीका अंत किया जाता है।


उत्तरोत्तर बढ़नेवाली निष्क्रिय शांति का यह मार्ग जिसका अंत निरपेक्ष नैष्कर्म्य में होता है, इस मायाकृत जीव को अथवा यह कहिये कि जिन सब संस्कारों की इस गठरी को हम अपना-आप कहते हैं, इसकी, आपेकी कल्पना को खत्म कर देता, जीवन-रूपी झूंठ का अंत करता है और स्वयं निर्वाण में समाप्त हो जाता है। परंतु स्व-निषेध का यह कठिन अपकर्षक निरपेक्ष मार्ग, कुछ लोकोत्तर प्रकृतिवाले व्यक्तियों को भले ही अपनी ओर आकर्षित करे, सर्वसामान्य देहधारी मनुष्यों के लिये सुखावह नहीं हो सकता, क्योंकि यह मार्ग मनुष्य की विविध प्रकार की प्रकृति की सब वृत्तियों को सनातन परम की ओर प्रवाहित होने का कोई रास्ता नहीं देता। मनुष्य की केवल निरपेक्ष विचारशीलबुद्धि ही नहीं बल्कि उसका लालसामय हृदय, कर्मप्रवण मन, किसी ऐसे सत्य का अनुसंधान करने वाली उसकी ग्रहणशील बुद्धि जिसमें उसका जीवन और सारे जगत् का जीवन एक बहुविध कुंजी का काम करते हैं, इन सबकी ही नित्य और अनंत की ओर अपनी एक विशेष प्रवृत्ति है और ये सभी उसमें अपना भगवदीय मूल और अपने जीवन तथा अपनी प्रकृति की चरितार्थता ढूढ़ने का यत्न करते हैं। इसी प्रयोजन से भक्ति और कर्म के पोषक धर्म उत्पन्न होते हैं, इनकी यह सामर्थ्य है कि ये हमारे मानव-भाव की अत्यंत कर्मशील और विकसित शक्तियों को संतुष्ट करते और भगवन् की ओर ले जाते हैं, क्योंकि, इन्हींसे प्रारंभ करने से ज्ञान सार्थक होता है।


बौद्ध धर्म जो इतना तपःप्रधान है और केवल जगनिमथ्यात्व को ही नहीं बल्कि अहं-मिथ्यात्व को भी इतनी कट्टरता के साथ मानने वाला है उसे भी अपनी मूल भित्ति लोकोत्तर कर्मानुष्ठान पर ही रखनी पड़ी और भक्ति के स्थान में जागतिक प्रेम और करुणा की एक विशेष आध्यात्मिक भावुकता को ग्रहण करना पड़ा, क्योंकि ऐसा करने से ही बौद्ध मानव जाति के लिये एक सार्थक मार्ग, एक सच्चा भक्तिप्रद धर्म बन सकता था। जगत को भ्रम मानने वाले मायावाद तक को, कर्म और मन की उपाधियों के संबंध में उसकी इतनी आत्यंतिक तर्कनिष्ठुर असहिष्णुता के होते हुए भी, मनुष्य और जगत् में स्थित ईश्वर की तात्कालिक और व्यावहारिक सत्ता इसीलिये मान लेनी पड़ी कि यह साधना का प्रथम सोपान और प्रस्थान का सुविधाजनक प्रारंभ-स्थान बन सकता है; जो बात मायावाद के सिद्धांतों में नहीं आती वही बात, मनुष्य की वृद्धावस्था और मुक्ति के लिये उसके प्रयास को किसी प्रकार वास्तविक करार देने के लिये, मान लेनी पड़ी है। परंतु कर्मप्रधान और भक्तिप्रधान धर्मों में यह दुर्बलता है कि वे किसी भागवत वयक्तित्व तथा सीमित भगवत्ता में बहुत अधिक आसक्त रहते हैं।


और जब वे असीम अनंत भगवान् की भावना करते भी हैं, तब भी उससे ज्ञान की पूर्ण तृप्ति नहीं होती क्योंकि वे उसकी चरम और परम स्थिति तक जाने का कोई प्रयास नहीं करते। ये धर्म सनानत में पूर्ण लय और तादात्म्य के द्वारा उसके साथ पूर्ण मिलन के बहुत ही इधर रह जाते हैं-यद्यपि उस तादात्म्य तक किसी अन्य मार्ग से ( भले ही निरपेक्ष दृष्टि को लेकर न सही, क्योंकि वहाँ सब प्रकार के एकीभाव का आधार है ) मनुष्य में स्थित आत्मा को किसी-न-किसी दिन पहुँचना ही होगा। इसके विपरीत बुद्धिप्रधान निष्क्रिय अध्यात्मवृत्ति में यह दुर्बलता है कि वह अति तात्विक निष्ठा के द्वारा इस परिणाम पर पहुँचती है और अंत में उस मानव जीव को ही न-कुछ अथवा एक अयथार्थ कल्पना मात्र बना डालती है जिसकी सारी अभीप्सा का लक्ष्य अपने साधनकाल में सतत रूप से इसी तादात्म्यरूप मिलन को प्राप्त होना रहा है; क्योंकि जीव और उसकी अभीप्सा के बिना मुक्ति और मिलन का कुछ अर्थ नहीं हो सकता। यह विचारमार्ग जीवसत्ता की अन्य शक्तियों को जो कुछ थोड़ी-सी मान्यता देता भी है उसे भी एक ऐसे कनिष्ठ प्रारंभिक कर्म की कोटि में डाल देता है जो सनातन और अनंत का किसी प्रकार पूर्ण या संतोषजनक रूप से साक्षात्कार करने में समर्थ नहीं। पर ये चीजें भी जिन्हें यह विचारमार्ग अनुचित रूप से रोके रखता है अर्थात् कार्यक्रम संकल्प, प्रेम की प्रबल उत्कंठा, प्रत्यक्ष प्रकाश और सचेतन मनोमय पुरुष का सबको समाविष्ट करने वाला अंतर्ज्ञान-ये सब चीजें-भगवान् से ही आती हैं, उन्हींकी स्वरूपगत शक्तियों को निरूपित करती हैं और इसलिये उन्हींमें-जो इनके मूल हैं-इनके होने का कोई-न कोई औचित्य, और उन्हींमें इनकी स्वपरिपूर्णता की प्राप्ति का कोई-न-कोई शक्तिशाली मार्ग भी होना चाहियें।


भगवत्संबंधी ज्ञान इनके निर्बाध अधिकार को अप्राप्त ही छोड़ देता है वह पूर्ण, सिद्ध और सर्वतः संतोषकारक नहीं हो सकता, न कोई ऐसा ज्ञान सर्वथा ज्ञानयुक्त हो सकता है जो आत्मानुसंधान की अपनी असहिष्णु संन्यासवृत्ति से भगवान् के इन विभिन्न मार्गों के पीछे रहे हुए आध्यात्मिक सतत्त्व का निषेध करता अथवा केवल ज्ञान के अभिमान से इन्हें समझता है। गीता के जिस केन्द्रस्थ विचार में उसके सब धागे एकत्र और एकीभूत होते हैं उसकी सारी महत्ता एक ऐसी भावना की समन्वय-साधकत्ता में है जिस भावना में जगत् के अंदर मानवजीव की समूची प्रकृति को मान्यता मिलती और एक विशाल और ज्ञानयुक्त एकीकरण द्वारा उसकी उस परम सत्य, शक्ति, प्रेम, सत्स्वरूप-संबंधिनी बहुविध आवश्यकता का औचित्य सिद्ध होता है जिसकी ओर हमारा मानव भाव संसिद्धि और अमृत्तत्त्व तथा उत्कृष्ट आनंद, शक्ति और शांति की खोज में मुड़ा करता है। ईश्वर, मनुष्य और जागतिक जीवन को एक अतिव्यापक दृष्टि से देखने का यह एक प्रबल और विशाल प्रयास है। अवश्य ही यह बात नहीं है कि गीता के इन अठारह अध्यायों में सब कुछ हो गया हो और एक भी बात छूटी न हो, कोई आध्यात्मिक समस्या अब भी ऐसी न बची हो जिसे हल करना बाकी हो; परंतु फिर भी इस ग्रंथ में ज्ञान की इतनी विस्तृत भूमिका बांधी जा चुकी है कि हम लोगों के लिये इतना ही काम बाकी है।


कि जो जगह इसमें ख़ाली हो उसे भर दें, जो बीजरूप में हो उसे विकसित करें, संशोधित करें, जहाँ अधिक जोर देना हो वहाँ अधिक जोर दें, इसमें से जो विचारणीय बातें निकल सकती हों उन्हें निकालें, जो बात संकेत मात्र से कही गयी हो उसका विस्तार करें और जो अस्पष्ट हो उसे विशद करें ताकि हमारी बुद्धि का और जो कुछ तकाजा हो, हमारे आत्मभाव के लिये और जो कुछ आवश्यक हो उसका कुछ पता चले। स्वयं गीता अपने पश्नों के अंदर से ही उनका कोई सर्वथा नया समाधान निकालकर सामने नहीं रखती जो व्यापकता उसका लक्ष्य है उसतक पहुँचने के लिये गीता को महान् दार्शनिक संप्रदायों के पीछे रहे हुए मूल औपनिषद वेदांत के समीप जाना पड़ता है; क्योंकि उपनिषदों में ही हमें आत्मा, मानव जीव तथा समष्टि-जगत् का अत्यंत व्यापक, गंभीर, जीवंत और समन्वित दर्शन होता है। परंतु उपनिषदों में जो कुछ अंतर्ज्ञानदृष्टि से प्राप्त ज्योतिर्मय मंत्ररूप और सांकेतिक भाषा से समाच्छन्न होने के कारण बुद्धि के सामने खुलकर नहीं आता उसे गीता तत्पश्चात्कालीन विचारणा और सुनिश्चित स्वानुभूति के प्रकाश से खोलकर सामने रखती है। गीता अपने समन्वय के ढांचे के अंदर उस तत्त्वानुसंधान को स्थान देती है जो ‘‘अनिर्देश्य अव्यक्त अक्षर” के ढूंढ़ने वाले उपासक किया करते हैं। इस अनुसंधान में लगने वाले भी माम् (मुझे) पुरुषोत्तम को-परमात्मा और परमेश्वर को-प्राप्त करते हैं। कारण उनका परम स्वतःसिद्ध स्वरूप अचिंत्य है, वे अचिन्त्यरूपम् हैं, वह रूप देशाकालाद्य परिच्छिन्न सर्ववस्तुस्वरूपों का कैवल्यस्वरूप है, बुद्धि के लिये सर्वथा अचिंतनीय।


निषेधस्वरूप निष्क्रियता, मौन वृत्ति, जीवन और कर्म के संन्यास का मार्ग जिससे लोग अनिर्देश्य परम स्वरूप के अनुसंधान में लगते हैं, गीता की दर्शनप्रणाली में स्वीकृत और समर्पित है, पर केवल एक गौण अनुज्ञा के रूप से। यह निषेधात्मक ज्ञानमार्ग सनातन ब्रह्म की ओर सत्य के एक पहलू को लिये चलता है और यह वह पहलू है जहां, दु:खं देहवद्भिरवाप्यते, प्रकृतिस्थ देहधारी जीवों के लिये पहुँचना अत्यंत कठिन है; यह मार्ग नियमादिकों से बहुत ही कसा हुआ और अनावश्यक रूप से दुर्गम बना हुआ है इसपर चलना क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया पर चलना है। सब संबंधों को त्यागकर नहीं बल्कि सब संबंधों द्वारा वे ‘अनंत’ भगवान् मनुष्य के लिये स्वाभाविक रूप से प्राप्य हैं और बहुत सुगमता के साथ, अत्यंत व्यापक और अत्यंत आत्मीय रूप में मनुष्य उन्हें पा सकता है। यह देखना कि परम तत्त्व “अवयवहार्य” है अर्थात् जगत् में स्थित मनुष्य के मनोमय, प्राणमय और अन्नमय जीवन से वह कोई ताल्लुक नहीं रखता, व्यापकता या परम सत्य नहीं है, न जिसे ‘‘व्यवहार” या अगत्प्रपंच कहते हैं वह पंरमार्थ के सर्वथ विपरीत ही है। अत्युत सहस्रों ऐसे संबंध हैं जिनके द्वारा सनातन परम पुरुष का हमारे मानवजीवन के साथ गुप्त संपर्क ओर एकीभाव है हमारी प्रकृति तथा जगत् की प्रकृति के जितने भी मूलभाव हैं उन सबके द्वारा, सर्वभावेन, वह संपर्क इन्द्रियगम्य हो सकता है और वह एकीभाव हमारे जीवचैतन्य, हृदय, मन, बुद्धि और आत्मचैतन्य को प्रत्यक्ष अनुभूत हो सकता है।


इसलिये यह दूसरा मार्ग मनुष्य के लिये स्वाभाविक और सुलभ है। भगवान् अपने-आपको हमारे लिये किसी प्रकार दुर्लभ नहीं बना रखते; केवल एक चीज की जरूरत है, एक ही मांग है जो पूरी करनी होगी, वह चीज यही है कि जीव को अपने अज्ञान का आवरण भेदने की अनन्य अदम्य लालसा हो और उसका मन, हृदय और प्राणों के द्वारा होने वाला सारा अनुसंधान निरंतर उसीके लिये हो जो सतत उसके समीप है, उसीके अंदर है, उसीके जीवन का जीवनतत्त्व, उसका आत्मतत्त्व, उसके वैयक्तिक और निर्वैक्तिक भाव का गुप्त तत्त्व, उसकी आत्मा और उसकी प्रकृति दोनों हैं। हमारी सारी कठिनाई इतनी ही है, बाकी हमारी सत्ता के स्वामी स्वयं देख लेंगे और उसे पूरा करेंगे-- अहं त्वा मोक्षयिष्यामि मा शुच:। गीतोपदेश के जिस मार्ग में गीता के समन्वय का रुख विशुद्ध ज्ञानपक्ष की और बहुत ही अधिक है उसी भाग में हम यह देख चुके हैं कि गीता अपने श्रोता को इस पूर्णतर सत्य और अधिक अर्थपूर्ण अनुभव के लिये बराबर तैयार कर रही है। स्वतःसिद्ध अक्षर ब्रह्म के साक्षत्कार का जैसा निरूपण गीता ने किया है उसीमें यह भाव निहित है। गीतानिरूपित वह अक्षर सर्वभूतांतरात्मा अवश्य ही प्रकृति के कर्मों में प्रत्यक्ष रूप से कोई दख़ल देता नजर नहीं आता; पर प्रकृति के साथ उसका कोई संबंध न हो और प्रकृति से वह सर्वथा दूर हो ऐसी भी बात नहीं है। क्योंकि वह हमारा द्रष्टा और भर्ता है; वह मौन और निर्वैयक्तिक अनुमति देता है; निष्क्रिय भोग तक वह भोगता है।


आत्मा की उस स्थिर शांत ब्राह्मी स्थिति में समवस्थित रहते हुए भी प्रकृति का बहुविध कर्म हो सकता है; कारण द्रष्टा आत्मा अक्षर पुरुष है और पुरुष का प्रकृति के साथ किसी-न-किसी प्रकार का संबंध सदा रहता ही है। पर अब निष्कर्म और सकर्म के इस द्विविध स्वरूप का कारण उसके पूर्ण आशय के साथ खोलकर बतला दिया गया, क्योंकि निष्क्रिय सर्वव्यापक ब्रह्म भगवान् के सत्स्वरूप का केवल एक अंग है। वही एक अविकार्य आत्मा जो जगत् में व्याप्त और प्रकृति के सब विकारों का आश्रय है, वही, समरूप से मनुष्य में स्थित ईश्वर, प्रत्येक प्राणी के हृदय में रहनेवाला प्रभु, हमारे संपूर्ण अंतःकरण तथा बाहर से अंदर लेने ओर अंदर से बाहर भेजने की उसकी सारी ब्रह्म एक क्रिया का सज्ञान कारण और स्वामी है। योगियों का ईश्वर और ज्ञानमार्गियों का ब्रह्म एक ही है, वही परमात्मा और जगात्मा है, वही परमेश्वर और जगदीश्वर है। यह ईश्वर वैसा सीमित व्यष्टिभूत ईश्वर नहीं है जैसा कुछ लौकिक संप्रदाय माना करते हैं; ईश्वर के वैसे व्यष्टिभूत रूप तो ईश्वर की समग्र सत्ता के इस अन्य पहलू के-जो सर्जन करता और संचालन करता है तथा जो व्यष्टिकरण का पहलू है, उसके केवल आंशिक और बाह्म विग्रहमात्र हैं। यह ईश्वर एकमेव परम पुरुष परमात्मा, परमेश्वर है, सब देवता जिसके विभिन्न रूप हैं, सारी पृथक्व्यष्टिभूत सत्ता इस विश्व-प्रकृति में जिसके आविर्भाव की एक परिमित मात्रा है।


यह ईश्वर भगवान् का कोई विशिष्ट नाम और रूप नहीं, वह इष्टदेवता नहीं जिसे उपासक की बुद्धि ने कल्पित किया हो अथवा उसकी कोई विशिष्ट अभीप्सा जिसमें मूर्त हुई हो। ऐसे सब नाम और रूप उन एक देव की केवल शक्तियां और मूर्तियां हैं जो सब उपासकों और संप्रदायों के जगदीश्वर हैं; ये देव-देव हैं। ये ईश्वर अपौरूषेय अलक्षणीय ब्रह्म का भ्रमात्मक माया के अंदर प्रतिबिम्ब नहीं हैं; क्योंकि सारे विश्व के परे से तथा विश्व के अंदर से भी वे इस लोकों और उनमें रहने वाले जीवों का शासन करते हैं तथा उनके प्रभु हैं वे वैसे परब्रह्म हैं जो परमेश्वर हैं क्योंकि वे ही परम पुरुष और परम आत्मा हैं, वे ही अपने परतम मूल स्वरूप से विश्व को उत्पन्न करते और उसका शासन करते हैं, माया के वश होकर नहीं बल्कि अपनी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता से। जगत् में उनकी भगवत प्रकृति का जो कार्य होता है वह भी उनकी या हमारी चेतना को कोई भ्रम नहीं है। भ्रम में डालने वाली माया तो केवल निम्न प्रकृति के अज्ञान की हुआ रकती है। यह निम्न प्रकृति एकमेव निरपेक्ष ब्रह्म की अगोचर सत्ता के आधार पर असत् पदार्थों की निर्माणकत्री नहीं है, बल्कि इसकी अंध भाराक्रांत परिच्छिन्न कार्यप्रणाली अहंकार का रूपक बांधकर तथा मन, प्राण और जड़ शरीर के अधूरे रूपकों द्वारा जीवन के महत्तर अभिप्राय को, जीवन के गंभीरतर सत्स्वरूप को मानवी बुद्धि के सामने कुछ-का-कुछ और ही भासित करती है। एक परा, भागवती प्रकृति है जो विश्वसृष्टि की वास्तविक कत्रीं है।


सब प्राणी और सब पदार्थ एक ही भागवत पुरुष के भूतभाव हैं; सारी प्राणशक्ति एक ही प्रभु की शक्ति का व्यापार है; सारी प्रकृति एक ही अनंत का आविर्भाव है। वे ही विश्व में स्थित ईश्वर हैं; जीव उन्हीं के आत्मस्वरूप का अंशरूप आत्मस्वरूप है। वे ही विश्व में स्थित विश्वेश्वर हैं; दिशा और काल में अवस्थित यह सारा विश्व उन्हींका प्राकृत आत्म-विस्तार है। जीवन और परम जीवन के इस व्यापक दर्शन की उद्घाटन-परंपरा में ही गीतोक्त योग का एकीभूत अर्थगांभीर्य और अनुपम श्रीसंवर्धन है। ये परम पुरुष परेमेश्वर एक ही सर्व-भूताधिवासी अविकार्य अक्षर पुरुष हैं; इसलिये इस अविकार्य अक्षर पुरुष के आत्मस्वरूप की ओर मनुष्य को जाग्रत् होकर उसके साथ अपने अंतःस्थ अवैयिक्तक स्वरूप को एक करना होता है। मनुष्य में वे ही परमेश्वर हैं जो उसकी सब क्रियाओं के उत्पादक और चालक हैं, इललिये मनुष्य को इन स्वांतःस्थ ईश्वर की ओर जागना, उसके अपने अंदर घर बनाकर रहनेवाले भगवतत्त्व को जानना, उसे ढांकने और छिपाने वाले सब आवरणादिकों से ऊपर उठ आना और आत्मा के इन अंतरतम आत्मा के साथ, अपने चैतन्य के इस बृहत्तर चैतन्य के साथ, अपने सारे मन-वचन-कर्म के इन गुप्त स्वामी के साथ, अपने अंदर के इस स्वरूप के साथ जो उसके सारे विभिन्न भूतभावों का मूल उद्गाम और परम गंतव्य स्थान है, एकीभूत होना होता है।


ये ही वे परमेश्वर हैं जिनकी वह भागवती प्रकृति, हम जो कुछ हैं उसका उद्गम है, पर निम्न प्रकृति के विकारों से ढंकी है; इसलिये मनुष्य को अपनी निम्न बाह्य प्रकृति से, जो त्रुटिपूर्ण और तर्त्य है, पीछे हटकर अपनी मूल अमृतस्वरूपा शुद्ध बुद्ध भागवती प्रकृति को प्राप्त होना होता है ये परमेश्वर सब पदार्थों के अंदर एक हैं, वह आत्मा है जो सबके अंदर रहती है और जिसके अंदर सब रहते और चलते-फिरते हैं; इसलिये मनुष्य को सब प्राणियों के साथ अपना अपना आत्मैक्य ढूंढ़ निकालना, सबको उस एक आत्मा के अंदर देखना और उस आत्मा को सबके अंदर देखना, सब पदार्थों और प्राणियों को, आत्मौपम्येन सर्वत्र, सर्वत्र आत्मवत् देखना और तदनुसार अपने मन, बुद्धि और प्राण के सब कर्मों में सोचना, अनुभव करना और कर्म करना होता है। ये ईश्वर यहाँ अथवा और कहीं जहाँ जो कुछ उसके मूल हैं और वे अपनी ही प्रकृति के द्वारा ये अंसख्य पदार्थ और प्राणी बने हैं, इसलिये मनुष्य को सब जड़ और चेतन पदार्थोें में उन्हींको देखना और पूजना होता है; सूर्य में, नक्षत्र में, फूल में, मनुष्य और प्रत्येक जीव में, प्रकृति के सब रूपों और वृत्तियों तथा गुणों और शक्तियों में वासुदेवः सर्वमितिः जानकर उन्हींके अविर्भाव का पूजन करना होता है।


भागवत सत्ता के अंतर्दर्शन और भागवत सहानुभूति के द्वारा और अंत में सुदृढ़ आंतरिक अभेद स्थिति के द्वारा उसे विश्व के साथ एकीभूत होकर विश्वमय बनना पड़ता हैं अक्रिय निरपेक्ष अभेद्-भाव में प्रेम और कर्म के लिये कोई स्थान नहीं रहता। पर यह अधिक विशाल और समृद्ध अभेदभाव कर्मों के द्वारा तथा विशुद्ध प्रेमभाव के द्वारा अपने-आपको परिपूर्ण करता है; हमारे सब कर्मों और भावों का मूल उद्गम-स्थान, आश्रय, सार, प्रेरक भाव और आलौकिक प्रयोजन बनता है। किस देवता को हम लोग अपना जीवन और अपने कर्म नैवेद्य के तौर पर भेंट करें? ये ही वे भगवान् हैं, वे प्रभु हैं, जो हमारे यजन के अधिकारी हैं। अक्रिय निरपेक्ष अभेद-भाव में पूजा और भक्तिभाव का कोई आनंद नहीं रहता; पर भक्ति तो इस अधिक समृद्ध; अधिक पूर्ण और अधिक घनिष्ट मिलन की साक्षात् आत्मा और हृदय और शिखर है। इन्हीं भगवान् में पिता, माता, प्रेमी, सखा, सर्वभूतों के अंतरात्मा के आश्रम-ये सभी संबंध अपनी पूर्ण परितृपप्ति लाभ करते हैं। ये ही एकमेवी परम और विश्वव्यापक देव, आत्मा, पुरुष, ब्रह्म, औपनिषद ईश्वर हैं। इन्होंने ही अपने अंदर इन सब विभिन्न रूपों में अपने ऐश्वर योग के द्वारा जगत् को प्रकट किया है; इसके अनेकानेक विविध भूतभाव इनके अंदर एक हैं और ये उन सबके अंदर विविध रूपों में एक हैं। एक साथ इन सब रूपों में उन्हें देखने के लिये मनुष्य का जाग उठना उसी ऐश्वर योग का मानवी पहलू है। भगवान् के उपदेश का यही परम और पूर्ण अर्थ है, यही समग्र ज्ञान है, जिसे प्रकट करने का भगवान् ने वचन दिया था, इस बात की पूर्णतया और असंदिग्ध रूप से स्पष्ट करने के लिये भागवत अवतार अबतक जो कुछ कहते रहे हैं उसीके निष्कर्ष को सारांश रूप से कहकर यह बतलाते हैं कि, यही, कोई अन्य नहीं, मेरा परमं वच:, परम वचन है। भूय एव श्रृणु मे परमं वच: --मेरे परम वचन को फिर से सुनो। ‘‘हम देखते हैं कि गीता का यह परम वचन, प्रथमतः यही स्पष्ट और असंदिग्ध घोषणा है कि भगवान् की परमा भक्ति और परम ज्ञान उन्हें इस रूप में जानना और पूजना है कि वे, जो कुछ हैं उसके परम और दिव्य मूल हैं और इस जगत् तथा इसके प्राणियों के सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं और जितने पदार्थ हैं सब उन्हींकी सत्ता के भूतभाव हैं। इस परम वचन में दूसरी फिर यह है कि एकीभूत ज्ञान और भक्ति को परम योग कहा गया है; यही सनातन पुरुष परमेश्वर के साथ मिलन लाभ करने का मनुष्य के लिये सुनिश्चित और स्वाभाविक मार्ग है। और मार्ग के इस निर्देश को और भी अर्थपूर्ण रूप से प्रकट करने के लिये, यह भक्ति जो ज्ञान पर प्रतिष्ठित और ज्ञान की ओर उन्मुख तथा भगवन्नियत कर्मों की भित्ति और चालक शक्ति है इसके अत्यधिक महत्त्व को हृदय में प्रकाशित करने के लिये यह बतलाया जाता है कि शिष्य अपने सर्वांतःकरण और हृदय से इस मार्ग को पहले ग्रहण कर ले, तभी वह आगे बढ़ सकता है और मानव यंत्र अर्जुन की तरह अंत में भगवन्मुख से कर्म का वह अंतिम आदेश सुनने का अधिकारी हो सकता है। 


भगवान् श्रीमुख से कहते हैं, “मैं अपनी इच्छा से तेरे हित के लिये वह परम वचन तुझसे कहूंगा, क्योंकि अब तेरा हृदय मेरे अंदर आनंद ले रहा है,” ते प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया। क्योंकि भगवान् में हृदय की यह प्रीति होना ही सच्ची भक्ति का संपूर्ण घटक और सारतत्त्व है। कहा है, ज्यों ही परम वचन सुनाया जाता है अर्जुन तुरंत उसे ग्रहण करता और यह पूछता है कि प्रकृति के इन सब पदार्थों में मैं भगवान् को कैसे देखूं, और उसी प्रश्न से तुरंत और स्वाभाविक रूप से विश्व के आत्मारूप भगवान् के दर्शन होते हैं और तब जगत्कर्म का वह भीषण आदेश आता है।[1]भगवान् के विषय में गीता का यह आग्रह है कि भगवान् इस सारे जगत् और जागतिक जीवन के संपूर्ण रहस्य के निगुढ़ मूल हैं, यह ज्ञान मोक्षदायक होने के साथ-साथ वह ज्ञान है जो काल के अंदर होने वाले इस सारे विश्वकर्म प्रवाह और कालातीत सनातन सत्स्वरूप के बीच दीख पड़नेवाली खाई को पाट देता है।


पर ऐसा करते हुए यह ज्ञान इन दोनों में से किसी को भी असत् नहीं ठहराता, न किसी के भी सत्स्वरूप से कोई चीज निकाल लेता है; प्रत्युत यह सारा विश्व ही ईश्वर है अथवा इस इस विश्व का कोई विश्वातीत ईश्वर है या जो कोई परम तत्त्व हमारे आध्यात्मिक ध्यान में या आत्मानुभूति में आते हैं, उन सब का इस ज्ञान में सामंजस्य हो जाता है। भगवान् अज अविनाशी अनतं आत्मा हैं जिनका कोई आदि नहीं; काई ऐसी चीज न है, न हो सकती है जिसमें से वे निकले हों, क्योंकि वे एक हैं, कालातीत हैं, निरपेक्ष हैं। “मेरा जन्म न देवता जानते हैं न महर्षि ही ..... जो मुझे अज अनादि जानता है” [2] इत्यादि इस परम वचन के उपोद्घात हैं, और यह परम वचन यह आश्वासन देता है कि यह ज्ञान सीमित करने वाला अथवा बौद्धिक ज्ञान नहीं है, क्योंकि उस परम पुरुष का रूप और स्वभाव, उसका स्वरूप,-यदि उसके लिये इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता हो,-मन के द्वारा चिंत्य नहीं हैं, बल्कि यह विशुद्ध आत्मानुभूत ज्ञान है और यह मर्त्य मनुष्य को अज्ञान के सारे असमंजस से तथा सब पाप, दुःख ओर बुराई के सारे बंधनों से मुक्त करता है- यो वेत्ति असंमूढ़: स मर्त्येषु सर्वपापे: प्रमुच्यते। जो मानव जीव इस परम आत्मज्ञान के प्रकाश में रह सकता है वह जगत् के काल्पनिक या इन्द्रियगोचर अर्थों के परे पहुँचता है। वह उस अद्वैत की अनिर्वचनीय शक्ति को प्राप्त होता है जो सबके अतीत होने पर भी सबका पूरण करने वाला है, जो सबके परे भी और यहाँ भी एकरस है।


सर्वातीत अनंत- विषयक यह आत्मानुभूति विश्व के ही सब पदार्थों को ईश्वर या देव मानने वाले सर्वेश्वरवाद की सब सीमाओं को तोड़ डालती है। विश्व- रूप ऐकेश्वरवाद में विश्व और ईश्वर एक हैं, उसमें अनंत की जो कल्पना है वह ईश्वर को उसके जगद्रूप आविर्भाव में कैद रखने का प्रयास करती और ईश्वर को जानने का एकमात्र उपाय इस विश्व को ही बतलाती है; परंतु यह आत्मानुभूति ज्ञान हमें मुक्त कर दिक्कालातीत सनातन स्वरूप में ला छोड़ता है। ‘‘तेरे आविर्भाव को न देवता जानते हैं न असुर ही ” यही अपने जवाब में अर्जुन कह उठता है। यह सारा जगत् अथवा ऐसे असंख्य जगत् भी उन्हें प्रकट नहीं कर सकते न उनके वर्णनातीत विलक्षण आलोक और असीम माहात्म्य को धारण कर सकते हैं। ईश्वरसंबंधी इससे कनिष्ठ कोटि के ज्ञान इन्हीं परम पुरुष परमेश्वर के चिराव्यक्त अनिर्वचनीय सत्स्वरूप पर आश्रित होने के कारण ही सत्य है। परंतु फिर भी यह परम पद विश्व का निषेधस्वरूप नहीं है, न कोई ऐसा निरपेक्ष स्वरूप है जिसका विश्व के साथ कोई संबंध न हो। यह परम वस्तुतत्त्व है, सब निरपेक्षों का निरपेक्ष है।


विश्वगत सारे संबंध इन्हीं परम से निकलते हैं; विश्व के सब पदार्थ और प्राणी इन्हींको लौट जाते हैं और केवल इन्हींमें अपना वास्तविक और अपरिमेय जीवन लाभ करते हैं। ‘‘सर्वशः मैं ही सब देवताओं और महर्षिओं का आदि हूँ।” देवता वे अमर शक्तियां और अमर व्यक्तित्व हैं जो विश्व की अंतर्बाह्य शक्तियों को सचेतन रूप से भीतर गढ़ते हैं तथा उने बनाने वाले, अध्यक्ष रूप से उन्हें चलाने वाले हैं। देवता सनातन और मूल देवाधिदेव के आध्यात्मिक रूप हैं और उन देवाधिदेव से निकलकर जगत् की नाना शक्तियों में उतर आते हैं। देवता अनेकविधि हैं, सार्वत्रिक हैं, वे आत्मसत्ता के मूलतत्त्वों, उसकी सहस्रों गुत्थियों से उस एक ही का यह विविधतापूर्ण जगत-जाल निर्मित करते हैं। उनकी अपनी सारी सत्ता, प्रकृति, शक्ति, कर्मपद्धति हर तरह से, अपने एक- एक तत्त्व और अपनी बनावट के एक- एक धागे में परम पुरुष परमेश्वर की सत्ता से ही निकलती है। यहाँ का कोई भी पदार्थ ये दैवी कार्यकर्ता स्वतः निर्मित नहीं करते, अपने से ही कोई कार्य नहीं करते; हर चीज का मूल कारण, उसके सत्- भाव और भूत-भाव का मूल आध्यात्मिक कारण स्वतःसिद्ध परम पुरुष परमेश्वर में ही होता है। जगत् किसी चीज क मूल कारण जगत् में नहीं है; सब कुछ परम सत् में प्रवृत्त होता है। महर्षि जो वेदों की तरह यहाँ भी जगत् के सप्त पुरातन कहे गये हैं, उस भागवत ज्ञान की धी-शक्तियां हैं जिसने अपनी ही स्वात्म- सचेतन अनंतता से, प्रज्ञा पुराणी से सब पदार्थों का विकास कराया है- अपने ही सत्तत्त्व के सात तत्त्वों की श्रेणियों को विकसित किया है।

ये ऋिषि वेदों की सर्वधारक, सर्वबोध, सर्वप्रकाशक के रूप हैं-उपनिषदें सब पदार्थों को सप्त सप्त अर्थात् सात-सात की पंक्ति में व्यव्यस्थित बतलाती हैं। इनके साथ ही चार शाश्वत मनु अर्थात् मनुष्य के मूलपुरुष हैं-क्योंकि परमेश्वर की कर्मप्रकृति चमुर्विध है और मानवजाति इस प्रकृति को अपने चतुर्विध चारित्र्य से प्रकट करती है। ये भी, जैसा कि उनके नाम से प्रकट है, मनोमय पुरुष हैं। इसे समूचे जीवन के, जिसकी क्रिया व्यक्त् या अव्यक्त मानस पर निर्भर करती है, ये स्रष्टा हैं, उन्हींसे जगत् के ये सब प्राणी उत्पन्न हुए हैं; सब उन्हींकी पूजा और संतति हैं। और ये महर्षि तथा ये मनु स्वयं भी परम पुरुष के चिरंतन मानस पुत्र हैं जो उनके आध्यात्मिक परम भाव से विश्व-प्रकृति के अंदर उत्पन्न हुए हैं। ये मूल पुरुष हैं और जगत् में जो-जो उत्पादक हैं उन सबके मूल भगवान् हैं।


सब आत्माओं की आत्मा, सब जीवों के जीव, अखिल मानस के मानस, अखिल जीवन के जीवन, सब रूपों के सारतत्त्व स्वरूप से स्वतःसिद्ध परम तत्त्व हैं, हम जो कुछ हैं उससे सर्वथा उल्टे नहीं, बल्कि इसके विपरीत हमारे और जगत् के संपूर्ण सद्रूप और प्राकृत रूप के सारे तत्त्वों और शक्तियों के स्वतःसिद्ध उत्पादक और प्रकाशक हैं। हमारे जीवन के ये परम मूल हमसे किसी ऐसी खाई द्वारा पृथक् नहीं हैं जिसे पाटा न जा सके और न वे इन प्राणियों को, जो उन्हीं से निकले हैं, अपनी संतान मानने से इंकार करते हैं न इन सबको वे भ्रम की सृष्टि ही बतलाते हैं। वे ही सदात्मा हैं और सब उन्हीं के भूतभाव हैं। वे शून्य में से, किसी अभाव में से या स्वप्न-रूप मिथ्यात्व में से कोई पदार्थ नहीं निर्मित करते। अपने-आपमें से निर्मित करते हैं, अपने अंदर ही वे उत्पन्न होते हैं; सब उन्हीं के सद्रूप में हैं, सब कुछ उन्हीं के सद्रूप से है। जगत के पदार्थों की ओर देखने की जो विश्वदेववाद की दृष्टि है उसका अंतर्भाव इस सिद्धांत में हो जाता है और फिर यह सिद्धांत उसके आगे बढ़ता है। वासुदेव ही सब हैं, क्योंकि जगत् में जो प्रकट नहीं है तथा वह सब भी जो कभी व्यक्त नहीं होता। उनका सत्स्वरूप किसी प्रकार भी उसके भूतभाव से सीमित नहीं है; इस सापेक्ष जगत् से वह किसी अंश से भी बंधे नहीं हैं। सर्वभूत होने में भी वे हैं सर्वातीत ही; सांत रूपों को धारण करते हुए भी वे हैं सदा वही अनंत ही।


प्रकृति अपने असली रूप में उन्हीं की आत्मशक्ति है; यह आत्मशक्ति भूतभाव के अनंत मौलिक गुणों को पदार्थों के आंतरिक रूपों में उत्पन्न करती और उन्हें बाह्य रूपों और कार्यों में परिणत करती है। इस आत्मशक्ति का जो असली, गूढ़ और भगवदीय व्यवस्था-क्रम है उसमें सबका और हर किसी का आध्यात्मिक मूल और आत्मस्वरूप ही सर्वप्रथम आता है, यह उसकी गभीर अभेद-स्थिति की एक चीज है; इसके बाद सबका गुण-और-प्रकृतिगत मानस सत्य अपने संपूर्ण सत्यांश के लिये इस आत्मस्वरूपगत अध्यात्मिक सत्य पर निर्भर है; क्योंकि उसके अंदर जो कुछ असली चीज है वह आत्मा से ही आयी है; न्यूनतम आवश्यक तथा सबसे अंत में उत्पन्न यह रूप और कार्य का विषयभूत सत्य प्रकृति के अंतर्गुण से आता और यहाँ इस बहिर्जगत् में जो विविध रूप दीख पड़ते हैं उनके लिये उसी पर निर्भर है। या दूसरे शब्दों में, यह सारा विषयभूत जगत जीवों के विभिन्न भावों के जोड़ का केवल एक व्यक्त रूप है और जीवों के जो विभिन्न भाव हैं वे सदा अपनी अभिव्यक्ति के मूल आध्यात्मिक कारण पर आश्रित रहते हैं।


यह सांत बाह्य भूतभाव भगवत अनंत को व्यक्त करने वाला एक प्राकृत भाव है। प्रकृति गौणतः निम्न प्रकृति है, यह अनंत की जो असंख्य संभावित स्थितियां हैं उनमें से कुछ चुने हुए संघातों का एक गौण है जिसे ‘स्वभाव’ कहते हैं उससे रूप और तेज, कर्म और गति के ये संघात उत्पन्न होते हैं और विश्वगत एकत्व के एक बहुत ही मर्यादित संबंध और पारस्परिक अनुभूति के लिये ही इनकी स्थिति होती है। और इस निम्न, बहिर्भूत और प्रतीयमान व्यवस्थाक्रम में प्रकृति, जो भगवान् के व्यक्त होने की एक शक्ति है, उसका यह रूप तमोवृत वैश्व अज्ञान से उत्पन्न होने वाले विकारों से विकृत हो जाता है और उसका जो कुछ भागवत माहात्म्य या महत्त्व है वह हमारी मानस और प्राणिक अनुभूति या प्रतीति की पार्थिव, पृथग्भूत और अहंभावापन्न यांत्रिक जड़ स्थिति में लुप्त हो जाता है। पर यहाँ इस हालत में भी जो कुछ है, चाहे जन्म या संभूति या प्रवृत्ति हो, सब परम पुरुष परमेश्वर से ही है, एक विकासक्रम है जो परम से निकली हुई प्रकृति के कर्म द्वारा होता रहता है। भगवान् कहते हैं, अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त:सर्व प्रवर्तते। अर्थात् ‘‘प्रत्येक पदार्थ का प्रभाव( उत्पत्ति, जन्म ) मैं हूँ और मुझसे ही सब कुछ कर्म और गतिरूप विकास में प्रवृत्त होता है।” यह बात केवल उतने ही के लिये सही नहीं है जो भला है या जिसकी हम लोग प्रशंसा करते हैं अथवा जिसे हम दिव्य कहते हैं, जो प्रकाशमय है, सात्त्विक है, धर्मयुक्त है, शांतिप्रद है, आत्मा को आनंद देने वाला है, जो बुद्धिः, ज्ञानम्, असंमोहः, क्षमा, सत्यम्, दमः, शमः, अहिंसा, समता, तुष्टिः, तपः, दानम्[2] इन शब्दों से सूचित होता है। बल्कि इनके विपरीत जो- जो भाव जिनसे मनुष्य का मर्त्य बन मोहित होता और अज्ञान और घबराहट में जा गिरता है।


जैसे सुखम् दु:खम, भव: अभाव: (जन्म और मृत्यु), भयम्, अभयम्, यश:, अयश:, तथा प्रकाश अंधकार की और जितनी भी परस्पर-क्रीड़ाएं और उनके जो असंख्य एक-दूसरे में बंधे हुए ताने-बाने हैं जो इती यंत्रणा के साथ कांपते रहते हैं और फिर भी प्राणगत मन और अज्ञानमय आंतरिक क्रियाओं के गोरखधंधे के द्वारा सतत उत्तेजित करते रहते हैं उन सबके विषय में भी यही एक बात सत्य है कि, ‘‘मैं ही सबका प्रभव हूँ और सब कुछ मुझसे ही प्रवृत्त होता है।” यहाँ के सब पदार्थ अपने पृथक्-पृथक् विभिन्न भावों और रूपों में एक ही महान प्रभव में अपनी विभिन्न सत्ताओं से आंतरिक (अहंपदावाच्य) भूतभाव हैं और उनका जन्म और जीवन उन्हीं परम से होता है जो उनके परे हैं। परम पुरुष इन पदार्थों को जानते और उत्पन्न करते हैं पर नानात्व के इस भेदभाव में जाल में मकड़ी की तरह अपने-आपको फंसा नहीं लेते, अपनी सृष्टि से आप ही पराभूत नहीं होते। यहाँ ‘भू’ धातु से ( जिसका अर्थ ‘होना’ है) निकले हुए भवन्ति, भावा:, भूतानि इन तीन शब्दों का एक साथ एक विशेष आग्रह के साथ आना ध्यान देने योग्य है। भूतानि अर्थात् सब भूत-सब प्राणी और पदार्थ-भगवान् का ही उस रूप में होना है। भावा: अर्थात् अंतःकरण की सारी अवस्थाएं और वृत्तियां उन्हीं की हैं, उन्हीं के सारे मानस-भाव हैं ये भी अर्थात् हमारे अतंःकरण की निम्न अवस्थाएं तथा उनके प्रकट दीखने वाले परिणाम, एवं, मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, ऊंची-से ऊंची आध्यात्मिक अवस्थाएं जिस प्रकार परम पुरुष से  उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार ये भी, उससे किसी परिणाम मं कम नहीं। जो कुछ स्वतःसिद्ध है ( अर्थात् आत्मा) और जो कुछ हुआ है ( अर्थात् भूत ) इन दोनों में जो भेद है वह गीता मानती है और उसकी ओर विशेष रूप से ध्यान दिलाती है पर इन दोनों में परस्पर-विरोध नहीं खड़ा करती। क्योंकि ऐसा करना विश्व के एकत्व को मिटा देना होगा। भगवान् अपनी परा स्थिति में एक हैं, पदार्थ मात्र को धारण करने वाले आत्मस्वरूप से एक हैं, अपनी विश्वप्रकृति के एकत्व में एक हैं। भगवान् की उस परा स्थिति में, उस एकमेवा-द्वितीय सत्ता में हमें, यदि हमें गीता के पीछे-पीछे चलना है तो, सब पदार्थों का परम निषेध या बाध नहीं बल्कि वह चीज ढूंढ़नी होंंगी जिससे उनके अस्तित्तव का रहस्य खुल जाये, उनकी सत्ता का वह रहस्य मालूम हो जाये जिससे सबकी संगति बैठे। 


परंतु अनंत सत्ता का एक और स्वरूप ऐसा जिसे जाने और माने बिना मुक्तिप्रद ज्ञान के साधन की पूर्णता नहीं होती। वह स्वरूप है जगत के भागवत शासन का-भगवान् अपनी परा स्थिति से अध्यक्षरूप से जगत् की ओर देखते हैं और साथ ही सबके अंदर निवास कर अंतर्यामी रूप से सबको चलाते भी हैं परम पुरुष भगवान् स्वयं सारी सृष्टि बनते हैं और फिर भी उसके अनंत परे रहते हैं; वे जगत् के आदि कारण हैं, ऐसे कारण नहीं हो अपनी सृष्टि के विषय में संकल्परहित और उससे अलग हों। वे ऐसे संकल्परहित स्रष्टा नहीं हैं जो अपनी जागतिक शक्ति के इन परिणामों की कोई जिम्मेदारी अपने ऊपर न लेते हों या जो उन्हें किसी अंध प्रकृति के यात्रिंक विधान पर अथवा किसी निम्न कोटि के ईश्वर पर अथवा दैव और आसुर तत्त्वों के संघर्ष पर छोड़े बैठे हों। वे कोई ऐसे सबसे अलग और लापरवाह साक्षी नहीं हैं जो इन सबके मिट जाने या अपने अचल मूल तत्त्व के लौट आने की ही केवल प्रतीक्षा करते हुए चुपचाप बैठे हों। वे सब भुवनों और उनके अधिवासियों के महाशक्तिशाली परमेश्वर ‘लोकमहैश्वर’ हैं और वे ही केवल अंदर से नहीं बल्कि ऊपर से, अपने परम पद से सबका शासन करते हैं। विश्व का शासन कोई ऐसी शक्ति नहीं कर सकती जो विश्व के परे न हो। ईश्वरी शासन के हाने का अर्थ ही यह है कि कोई ऐसा सर्वशक्तिमान् शासक है जिसका स्वामित्व अबाध है, वह शासन ( बिना चलानेवाले के ) कोई अपने-आप चलनेवाली शक्ति नहीं न विश्व के बाह्यतः दीखनेवाली प्रकृति द्वारा सीमित सृष्टि का कोई यांत्रिक विधान है। ईश्वरसत्तावादी जगत् में ईश्वर की ही सत्ता देखते हैं, जगत् के द्वन्द्वों से यह ईश्वरवाद भयविकंपित या सशंक नहीं होता बल्कि यह देखता है कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं, वे ही सबके एकमात्र मूल प्रभव हैं, वे ही यह जो कुछ हैं, अच्छा बुरा, सुख-दुःख, प्रकाश-अंधकार यह सब अनी सत्ता के ही अंश के रूप में अपने अंदर व्यक्त करते और जो कुछ व्यक्त करते हैं। उसका स्वयं ही शासन-नियमन करते हैं। 


द्वन्द्वों से अनभिभूत, अपनी सृष्टि से अबद्व, प्रकृति से अतीत और फिर भी उसके साथ आंतरिक रूप से संबद्ध और उसके प्राणियों के साथ आत्यंतिक रूप से अभिन्न, वे, उनके आत्मा, अंतरात्मा, परमात्मा, परमेश्वर, प्रेमी, सुहृत, आश्रय उन्हें उनके अंदर से और ऊपर से अज्ञान और दुःख, पाप और प्रमाद के इन मर्त्य दृश्यों के भीतर से ले जा रहे हैं, हर एक को अपनी-अपनी प्रकृति के और सभी को विश्व-प्रकृति के द्वारा ले जा रहे हैं किसी परा ज्योति, परम आनंद, परम अमृतत्त्व और परम पद की ओर। यही मुक्तिप्रद ज्ञान की पूर्णता है। यह ज्ञान है उन भगवान् का जो हमारे अंदर और जगत् के अंदर हैं और साथ ही परम अनंत-स्वरूप हैं। वे ही एकमात्र निरपेक्ष सत् हैं जो अपनी भागवती प्रकृति, आत्ममाया से यह सब कुछ हुए हैं और अपनी परा स्थिति में रहते हुए इस सबका शासन-नियमन करते हैं। वे प्रत्येक प्राणी के अंदर अंतरात्मरूप से अवस्थित हैं और समस्त विश्व-घटनाओं के कारण, नियंता और चालक हैं और फिर भी इतने महान् शक्तिमान् और अनंत हैं कि अपनी सृष्टि से किसी प्रकार सीमित नहीं होते। ज्ञान का यह स्वरूप भगवान् की प्रतिज्ञा के तीन पृथक्-पृथक् श्लोकों द्वारा विशद हुआ है।


भगवान् कहते हैं, ‘‘जो कोई मुझे अज अनादि और सब लोकों और प्रजाओं का महान् ईश्वर जानता है, वह इन मर्त्य लोकों में रहता हुआ अविमोहित रहता और सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो कोई मेरी इस विभूति को ( सर्वव्यापक ईश्वरत्व को ) और मेरे इस योग को ( इस ऐश्वर योग को जिसके द्वारा परम पुरुष परमेश्वर सब भूतों से अधिक होने पर भी सबके साथ एक हैं और सबमें निवास करते हुए सबको अपनी ही प्रकृति के प्रादुर्भाव के रूप में अपने अंदर रखते हैं ) तत्त्वतः ( उसके तत्त्वों के साथ ) जानता है वह अविचलित योग के द्वारा मेरे साथ एकीभूत होता है। .... बुधजन मुझे सबका प्रभव जानते और यह जानते हैं कि मुझे भजते हैं ...... और मैं उन्हें वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मेरे पास आते हैं और मैं उनके लिये उस तम का नाश करता हूँ जो अज्ञान से उत्पन्न होता है। ” ये परिणाम निकलते ही हैं उस ज्ञान के स्वभाव से और उस योग के स्वभाव जो उस ज्ञान को आध्यात्मिक संवर्द्धन और आध्यात्मिक अनुभवों में परिणत करता है। क्योंकि मनुष्य की बुद्धि और कर्म की सारी पेरशानी, उसकी बुद्धि की सारी लुढ़क-पुढ़क, सशंकता और क्लेश, उसके मन की इच्छाशक्ति, उसके हृदय का न्यायनीतिधर्म की ओर फिरना, उसके मन, इन्द्रियों और प्राण के तकाजे, इन सबका मूल उसके सम्मोह में अर्थात् उसके इन्द्रियाच्छादित देहबद्ध अंतःकरण की स्वभावसुलभ टटोलने की क्रिया और तमसाच्छादित विषय-वेदना और वासनावृत्ति में मिल सकता है। पर जब वह सब पदार्थों के भागवत मूल को देखता है,जब वह स्थिर होकर विश्वदृश्य से उसके परे जो सत्स्वरूप है उसे देखता है और उस सत्स्वरूप से इस दृश्य को देखता है तब वह बुद्धि, मन, हृदय, और इन्द्रियां के इस सम्मोह से मुक्त होता है।


द्वन्द्वों से अनभिभूत, अपनी सृष्टि से अबद्व, प्रकृति से अतीत और फिर भी उसके साथ आंतरिक रूप से संबद्ध और उसके प्राणियों के साथ आत्यंतिक रूप से अभिन्न, वे, उनके आत्मा, अंतरात्मा, परमात्मा, परमेश्वर, प्रेमी, सुहृत, आश्रय उन्हें उनके अंदर से और ऊपर से अज्ञान और दुःख, पाप और प्रमाद के इन मर्त्य दृश्यों के भीतर से ले जा रहे हैं, हर एक को अपनी-अपनी प्रकृति के और सभी को विश्व-प्रकृति के द्वारा ले जा रहे हैं किसी परा ज्योति, परम आनंद, परम अमृतत्त्व और परम पद की ओर। यही मुक्तिप्रद ज्ञान की पूर्णता है। यह ज्ञान है उन भगवान् का जो हमारे अंदर और जगत् के अंदर हैं और साथ ही परम अनंत-स्वरूप हैं। वे ही एकमात्र निरपेक्ष सत् हैं जो अपनी भागवती प्रकृति, आत्ममाया से यह सब कुछ हुए हैं और अपनी परा स्थिति में रहते हुए इस सबका शासन-नियमन करते हैं। वे प्रत्येक प्राणी के अंदर अंतरात्मरूप से अवस्थित हैं और समस्त विश्व-घटनाओं के कारण, नियंता और चालक हैं और फिर भी इतने महान् शक्तिमान् और अनंत हैं कि अपनी सृष्टि से किसी प्रकार सीमित नहीं होते। ज्ञान का यह स्वरूप भगवान् की प्रतिज्ञा के तीन पृथक्-पृथक् श्लोकों द्वारा विशद हुआ है।


भगवान् कहते हैं, ‘‘जो कोई मुझे अज अनादि और सब लोकों और प्रजाओं का महान् ईश्वर जानता है, वह इन मर्त्य लोकों में रहता हुआ अविमोहित रहता और सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो कोई मेरी इस विभूति को ( सर्वव्यापक ईश्वरत्व को ) और मेरे इस योग को ( इस ऐश्वर योग को जिसके द्वारा परम पुरुष परमेश्वर सब भूतों से अधिक होने पर भी सबके साथ एक हैं और सबमें निवास करते हुए सबको अपनी ही प्रकृति के प्रादुर्भाव के रूप में अपने अंदर रखते हैं ) तत्त्वतः ( उसके तत्त्वों के साथ ) जानता है वह अविचलित योग के द्वारा मेरे साथ एकीभूत होता है। .... बुधजन मुझे सबका प्रभव जानते और यह जानते हैं कि मुझे भजते हैं ...... और मैं उन्हें वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मेरे पास आते हैं और मैं उनके लिये उस तम का नाश करता हूँ जो अज्ञान से उत्पन्न होता है। ” ये परिणाम निकलते ही हैं उस ज्ञान के स्वभाव से और उस योग के स्वभाव जो उस ज्ञान को आध्यात्मिक संवर्द्धन और आध्यात्मिक अनुभवों में परिणत करता है। क्योंकि मनुष्य की बुद्धि और कर्म की सारी पेरशानी, उसकी बुद्धि की सारी लुढ़क-पुढ़क, सशंकता और क्लेश, उसके मन की इच्छाशक्ति, उसके हृदय का न्यायनीतिधर्म की ओर फिरना, उसके मन, इन्द्रियों और प्राण के तकाजे, इन सबका मूल उसके सम्मोह में अर्थात् उसके इन्द्रियाच्छादित देहबद्ध अंतःकरण की स्वभावसुलभ टटोलने की क्रिया और तमसाच्छादित विषय-वेदना और वासनावृत्ति में मिल सकता है। पर जब वह सब पदार्थों के भागवत मूल को देखता है,जब वह स्थिर होकर विश्वदृश्य से उसके परे जो सत्स्वरूप है उसे देखता है और उस सत्स्वरूप से इस दृश्य को देखता है तब वह बुद्धि, मन, हृदय, और इन्द्रियां के इस सम्मोह से मुक्त होता है।


असंमूढ़: स मर्त्येषु-- इस मृत्युलोक के मर्त्य जीवों के बीच वह शुद्ध बुद्ध मुक्त होकर विचरता है। हर चीज का मूल्य वह अब केवल उसके वर्तमान और प्रतीयमान रूप से नहीं बल्कि उसके परम और वास्तविक रूप से आंकता है और इस तरह वह यहाँ से वहाँ तक की श्रृंखला की छिपी हुई कड़ियां और परस्पर -संबंध ढूंढ़ निकालता है; वह सारे जीवन और कर्म को बोधपूर्वक उनके उच्चतम और असली उद्देश्य के साधन में लगाता और स्वांतःस्थ ईश्वर से प्राप्त होने वाले प्रकाश और शक्ति के द्वारा उनका नियमन करता है। इस प्रकार वह मिथ्या बौद्धिक ज्ञान, मिथ्या मानसिक और ऐच्छिक प्रतिक्रिया, मिथ्या इन्द्रियगत ग्राहकता और उत्तेजना से अर्थात् उन सब चीजों से जिनसे पाप, प्रमाद और दुःख उत्पन्न होते हैं, मुक्त हो जाता है। क्योंकि इस प्रकार विश्वातीत परम पद और विश्वगत विश्वेशपद में स्थित होकर वह अपने तथा दूसरे हर व्यष्टिरूप को असली महत्तर रूप में देखता और अपने पार्थक्यजनक और अहंभावपन्न मन के मिथ्यातत्त्व और अज्ञान से मुक्त होता है। आध्यात्मिक मुक्ति का सदा यही सारभूत अभिप्राय होता है। इस तरह, गीतोमुक्त मुक्त पुरुष का ज्ञान निरपेक्ष और संबंधरहित निर्व्यक्तिक अव्यक्त, क्रियाहीन मौनस्वरूप ब्रह्मज्ञान नहीं है। क्योंकि मुक्त पुरुष की बुद्धि, मन और हृदय सतत ही इस भाव में स्थित रहते और यही अनुभव करते हैं कि जगत् के स्वामी सर्वत्र अवस्थित हैं और सबको कर्म में प्रवृत्त और परिचालित कर रहे हैं, भगवान् की इस विभूति को ( सर्वव्यापक भागवत्ता को ) वह जानता है।


वह यह जानता है कि उसकी आत्मा इस अखिल विश्वप्रपंच के परे है, पर वह यह भी जानता है कि ऐश्वर योग से, वह उसके साथ एक है। और वह इन विश्वातीत, विश्वगत और व्यष्टिगत सत्ताओं के हर पहलू को परम सत्य के साथ उसके यथावत् संबंध से देखता जिससे सबके परस्पर-संबंध का कुछ भी पता नहीं चलता अथवा अनुभव करने वाली चेतना को उनके एक ही पहलू का ज्ञान होता है। न सब चीजों को एक साथ गड्ड-मड्ड ही देखता है-इस तरह देखता तो मिथ्या प्रकाश और अव्यस्थित कर्म को आमंत्रण देना है। वह परम पद में सुरक्षित रहता और विश्वप्रकृति के क्रियाक्लेशों से और काल और परिस्थिति की गड़बड़ी से प्रभावित नहीं होता। इन सब पदार्थों की सृष्टि और संहार के बीच में उसकी आत्मा सर्वथा अनुद्विग्न रहती और जो कुछ नित्य और आत्मस्वरूप है उसके साथ अडिग, अकंप और अचल योग में लगी रहती है। इसके द्वारा वह योगेश्वर के दिव्य अध्यवसाय को देखता रहता और प्रशांत विश्वव्यापक भाव तथा सब पदार्थों और प्राणियों के साथ अपने एकत्वभाव से कर्म करता है। और सब पदार्थों के साथ इस प्रकार अतिघनिष्ठ रूप से सम्बद्ध होने से किसी प्रकार उसके आत्मा और मन भेदोत्पादक निम्न प्रकृति में नहीं फंसते, क्योंकि आत्मानुभूति की उसकी आधारभूमि कोई निकृष्टि प्राकृत रूप और गति नहीं होती बल्कि अंतःस्थ समग्र और परम आत्मभाव होती है। वह भगवान् के स्वभाव और धर्म को प्राप्त होता है, मम साधर्म्यमागता:, विश्वभाव से युक्त होने पर भी विश्वातीत और मन-प्राण-शरीर के विशेष व्यष्टिरूप में रहकर भी विश्वभावयुक्त होता है।


यह योग जब एक बार सिद्ध हो जाता है तब ऐसे अव्यभिचारी सुस्थिर योग के द्वारा, वह प्रकृति के किसी भी भाव में तन्निष्ठ हो सकता है, किसी भी मानव अवस्था को धारण कर सकता है, चाहे जो जगत् कर्म कर सकता है, और यह सब करते हुए वह भगवदीय आत्स्वरूप के साथ अपने एकत्वभाव से च्युत नहीं होता, सर्वसत्ताधारी परमेश्वर के साथ निरंतर मिलन से किंचित् भी नियुक्त नहीं होता।[1] यह ज्ञान जब हृदय, मन और शरीर की सारी प्रकृति पर अपना पूरा प्रभाव डालकर भाव में परिणत होता है तब यही स्थिरा और भक्ति और प्रगाढ़ प्रेम बन जाता है उन आदिकारण परम पुरुष के प्रति जो हमारे ऊपर हैं, यहाँ सर्वत्र सदा सब पदार्थों के नियंता प्रभु के रूप से अवस्थित हैं, मनुष्य में हैं, प्रकृति में हैं। यह ज्ञान प्रथमतः बुद्धि का ज्ञान होता है; पर पीछे हृदय में भी इसका ‘भाव’ उदित होता है।[2] हृदय और बुद्धि का यह परिवर्तन समस्त प्रकृति के संपूर्ण परिवर्तन का आरंभ है। एक नया अंतर्जन्म और एक नयी स्मृति हमें अपने भक्ति-प्रेम के परमाराध्य के साथ एकत्वलाभ के लिये, तैयार करती है। इस भागवत पुरुष को, जो अब संसार में सर्वत्र और संसार के ऊपर दीख पड़ता है, महत्ता, सौन्दर्य तथा पूर्णता में वह प्रीति को, प्रेम के प्रगाढ़ आनंद को प्राप्त होता है।


वह प्रगाढ़ आनंद मन के इधर-उधर छितरे हुए बहिर्भूत जीवन-सुख का स्थान स्वयं ग्रहण कर लेता है; बल्कि यह कहिये कि वह परमानंद और सब सुखों को अपने अंदर खींच लेता और एक विलक्षण रसक्रिया के द्वारा मन-बुद्धि और हृदय के सब भावों और इन्द्रियों के सब व्यापारों को रूपांतरित कर डालता है। सारी चेतना ईश्वरवादी हो जाती और ईश्वर की प्रत्युत्तर देती चेतना से भर जाती है; सारा जीवन-प्रवाह आनंदानुभव के समुद्रों में जा मिलता है। ऐसे भक्तों के सब भाषण और चिंतन भगवान् के ही संबंध में परस्पर कथन और बोधन होते हैं। उस एक आनंद में पुरुष का सारा संतोष और प्रकृति की सारी क्रीड़ा और सुख केद्रीभूत हैं। चिंतन और स्मरण में वही मिलन क्षण-प्रतिक्षण सतत होता रहता है, आतम के अंदर अपने आत्मैक्य की अनुभूति निरंतर बनी रहती है। और जिस क्षण से इस आंतरिक स्थिति का आरंभ होता है उसी क्षण से, अपूर्णता की उस अवस्था में भी, भगवान् पूर्ण बुद्धियोग के द्वारा उसे दृढ़ करते हैं। हमारे अंदर में जो प्रज्जवलित ज्ञानदीप है उसे उठाकर वे दिखाते हैं और पृथग्भूत मन और बुद्धि का अज्ञान नष्ट कर मानव आत्मा के अंदर स्वयं प्रकट होते हैं। इस प्रकार कर्म और ज्ञान के ज्ञानदीप मिलन पर आश्रित बुद्धियोग के द्वारा जीव अधःस्थित त्रस्त मन की परंपरा से निकलकर कर्मकत्री प्रकृति के ऊपर साक्षी चैतन्य अक्षर शांति को प्राप्त हो चुका। पर अब इस महत्तर बुद्धियोग के द्वारा जिसका आधार भक्ति-प्रेम और समग्र ज्ञान-विज्ञान का ज्ञानदीप्त मिलन है, जीव एक बृहत् महाभाव में डूबकर उन परम पुरुष परमेश्वर को प्राप्त होता है जो एकमेवाद्वितीय हैं, सर्व हैं और सर्व के स्वयं प्रभव हैं। इस प्रकार सनातन पुरुष व्यष्टिपुरुष और व्यष्टिप्रकृति में भर जाते हैं ; व्यष्टिपुरुष काल के अंदर आवागमन से निकलकर सनातन के अनंत भावों को प्राप्त होता है।





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