कर्मफल का त्याग

 



त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।

कर्ण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।।4.20 ।।


जो कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित और सदा तृप्त है, वह कर्मों में अच्छी तरह से लगा हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।


 ‘त्यक्तवा कर्मफलासंगम्’- जब कर्म करते समय कर्ता का यह भाव रहता है कि शरीरादि कर्म सामग्री मेरी है, मैं कर्म करता हूँ, कर्म मेरा और मेरे लिये है तथा इसका मेरे को अमुक फल मिलेगा, तब वह कर्मफल का हेतु बन जाता है। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष को प्राकृत पदार्थों से सर्वथा संबंध विच्छेद का अनुभव हो जाता है, इसलिये कर्म करने की सामग्री में, कर्म में तथा कर्मफल में किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहने के कारण वह कर्मफल का हेतु नहीं बनता।


सेना विजय की इच्छा से युद्ध करती है। विजय होने पर विजय सेना की नहीं, प्रत्युत राजा की मानी जाती है; क्योंकि राजा ने ही सेना के जीवन निर्वाह का प्रबंध किया है; उसे युद्ध करने की सामग्री दी है और उसे युद्ध करने की प्रेरणा की है और सेना भी राजा के लिये ही युद्ध करती है। इसी प्रकार, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कर्म सामग्री के साथ संबंध जोड़ने से ही जीव उनके द्वारा किये गये कर्मों के फल का भागी होता है।


कर्म सामग्री के साथ किञ्चिन्मात्र भी संबंध न होने के कारण महापुरुष का कर्मफल के साथ कोई संबंध नहीं होता। वास्तव में कर्मफल के साथ स्वरूप का संबंध है ही नहीं। कारण कि स्वरूप, चेतन, अविनाशी और निर्विकार है; परंतु कर्म और कर्मफल- दोनों जड़ तथा विकारी हैं और उनका आरंभ तथा अंत होता है। सदा स्वरूप के साथ न तो कोई कर्म रहता है तथा न कोई फल ही रहता है। इस तरह यद्यपि कर्म और फल से स्वरूप का कोई संबंध नहीं है, तथापि जीव ने भूल से उनके साथ अपना संबंध मान लिया है। यह माना हुआ संबंध ही बंधन का कारण है। अगर यह माना हुआ संबंध मिट जाय, तो कर्म और फल से उसकी स्वतः सिद्ध निर्लिप्त का बोध हो जाता है।


‘निराश्रयः’- देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि का किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेना ही ‘निराश्रय’ अर्थात आश्रय से रहित होना है। कितना ही बड़ा धनी, राजा महाराजा क्यों न हो, उसको देश, काल आदि का आश्रय लेना ही पड़ता है। परंतु कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष देश, काल आदि का कोई आश्रय नहीं मानता। आश्रय मिले या न मिले- इसकी उसे किञ्चिन्मात्र भी परवाह नहीं होती। इसलिये वह निराश्रय होता है।


‘नित्यतृप्तः’- जीव परमात्मा का सनातन अंश होने से सत्-स्वरूप है। सत् का कभी अभाव नहीं होता- ‘नाभावो विद्यते सतः’। परंतु जब वह असत् के साथ अपना संबंध मान लेता है, तब उसे अपने में अभाव अर्थात कमी का अनुभव होने लगता है। उस कमी की पूर्ति करने के लिये वह सांसारिक वस्तुओं की कामना करने लगता है। इच्छित वस्तुओं के मिलने से एक तृप्ति होती है; परंतु वह तृप्ति ठहरती नहीं, वह क्षणिक होती है। कारण कि संसार की प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि प्रतिक्षण अभाव की ओर जा रही है; अतः उनेक आश्रित रहने वाली तृप्ति स्थायी कैसे रह सकती है? सत्- वस्तु की तृप्ति असत् वस्तु से हो ही कैसे सकती है? अतः जीव जब तक उत्पत्ति विनाशशील क्रियाओं और पदार्थों से अपना संबंध मानता है तथा उनके आश्रित रहता है, तब तक उसके स्वतः सिद्ध नित्य तृप्ति का अनुभव नहीं होता।


कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष निराश्रय अर्थात संसार के आश्रय से सर्वथा रहित होता है, इसलिये उसे स्वतः सिद्ध नित्य तृप्ति का अनुभव हो जाता है। तीसरे अध्याय के सत्रहवें श्लोक में ‘आत्मतृप्तः’ पद से भी इसी नित्यतृप्ति की बात आयी है।


‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’- ‘अभिवृत्तः’ पद का तात्पर्य है कि कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष के द्वारा होने वाले सब कर्म सांगोपांग रीति से होते हैं; क्योंकि कर्मफल में उसकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं होती। उसके संपूर्ण कर्म केवल संसार के हित के लिये होते हैं।


जिसकी कर्मफल में आसक्ति होती है, वह सांगोपांग रीति से कर्म नहीं कर सकता; क्योंकि फल के साथ संबंध होने से कर्म करते हुए बीच-बीच में फल का चिंतन होने से उसकी शक्ति व्यर्थ खर्च हो जाती है, जिससे उसकी शक्ति पूरी तरह कर्म करने में नहीं लगती।


‘अपि’ पद का तात्पर्य है कि सांगोपांग रीति से सब कर्म करते हुए भी वह वास्तव में किञ्चिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता; क्योंकि सर्वथा निर्लिप्त होने के कारण कर्म का स्पर्श ही नहीं होता। उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।


जब वह कुछ भी नहीं करता, तब वह कर्मफल से बँध ही कैसे सकता है? इसीलिये अठारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में भगवान ने कहा है कर्मफल का त्याग करने वाले कर्मयोगी को कर्मों का फल कहीं नहीं मिलता- ‘न तु संन्यासिनां कचित्।’


प्रकृति निरंतर क्रियाशील है। अतः जब तक प्रकृति के गुणों से संबंध है, तब तक कर्म न करते हुए भी मनुष्य का कर्मों के साथ संबंध हो जाता है। प्रकृति के गुणों से संबंध न रहने पर मनुष्य कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष का प्रकृतिजन्य गुणों से कोई संबंध नहीं रहता, इसलिये वह लोकहितार्थ सब कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करता।


निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।

शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। 4.21 ।।


अर्थ- जिसका शरीर और अंतःकरण अच्छी तरह से वश में किया हुआ है, जिसने सब प्रकार के संग्रह का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित कर्मयोगी केवल शरीर संबंधी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।


व्याख्या- ‘यतचित्तात्मा’- संसार में आशा या इच्छा रहने के कारण ही शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि वश में नहीं होते। इसी श्लोक में ‘निराशीः’ पद से बताया है कि कर्मयोगी में आशा या इच्छा नहीं रहती। अतः उसके शरीर, इंद्रियाँ और अंतःकरण स्वतः वश में रहते हैं। इनके वश में रहने से उसके द्वारा व्यर्थ की कोई क्रिया नहीं होती।


‘त्यक्तसर्वपरिग्रहः’- कर्मयोगी अगर संन्यासी है, तो वह सब प्रकार की भोग सामग्री के संग्रह का स्वरूप से त्याग कर देता है। अगर वह गृहस्थ है, तो वह भोग-बुद्धि से किसी भी सामग्री का संग्रह नहीं करता। उसके पास जो भी सामग्री है उसको वह अपनी और अपने लिये न मानकर संसार की और संसार के लिये ही मानता है तथा संसार के सुख में ही उस सामग्री को लगाता है। भोगबुद्धि से संग्रह का त्याग करना तो साधक मात्र के लिये आवश्यक है।


[ऐसा निवृत्तिपरक श्लोक गीता में और कहीं नहीं आया है। छठे अध्याय के दसवें श्लोक में ध्यानयोगी के लिये और अठारहवें अध्याय के तिरपवनवें श्लोक में ज्ञानयोगी के लिये परिग्रह का त्याग करने की बात आयी है। परंतु उनसे भी ऊँची श्रेणी के परिग्रह-त्याग की बात ‘त्यक्तसर्वपरिग्रहः’ पद से यहीं आयी है; क्योंकि ‘परिग्रह’ के साथ ‘सर्व’ शब्द केवल यहाँ आया है। बारहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में भक्तियोगी के लिये ‘अनिकेतः’ पद आया है, पर वहाँ इसका अर्थ निवास-स्थान में ममता-आसक्ति से रहित होना है।]


‘निराशीः’- कर्मयोगी में आशा, कामना, स्पृहा, वासना आदि नहीं रहते। वह बाहर से ही भोग- सामग्री के संग्रह का त्याग करता हो- इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत वह भीतर से भी भोग सामग्री की आशा या इच्छा का त्याग कर देता है। आशा या इच्छा का सर्वथा त्याग न हने पर भी उसका उद्देश्य इनके त्याग का ही रहता है।


‘शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्’- ‘शरीरम् कर्म’ के दो अर्थ होते हैं- एक तो शरीर से होने वाला कर्म और दूसरा शरीर निर्वाह के लिये किया जाने वाला कर्म। शरीर से होने वाले कर्म की बात पाँचवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भी आयी है, जिसका तात्पर्य है कि सभी कर्म केवल शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि के द्वारा ही हो रहे हैं, मेरा उनसे कुछ भी संबंध नहीं है, ऐसा मानकर कर्मयोगी अंतःकरण की शुद्धि के लिये कर्म करते हैं। परंतु यहाँ आया श्लोक निवृत्तिपरक है, इसलिये यहाँ उपर्युक्त पदों का अर्थ शरीर निर्वाहमात्र के लिये किये जाने वाले आवश्यक कर्म मानना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। निवृत्ति-परायण कर्मयोगी केवल उतने ही कर्म करता है, जितने से केवल शरीर-निर्वाह हो जाय।


‘नाप्नोति किल्बिषम्’- जो कर्म करने अथवा न करने से अपना किञ्चिन्मात्र भी संबंध रखता है, वह पाप को अर्थात जन्म मरण रूप बंधन को प्राप्त होता है। परंतु आशारहित कर्मयोगी कर्म करने अथवा न करने से अपना कुछ भी संबंध नहीं रखता, इसलिये वह पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।


निवृत्ति परायण होने पर भी कर्मयोगी कभी आलस्य प्रमाद नहीं करता। आलस्य प्रमाद का भी भोग होता है। एकान्त में यों ही पड़े रहने से आलस्य का भोग होता है और शास्त्र विरुद्ध तथा निरर्थक कर्म करने से प्रमाद का भोग होता है। इस प्रकार निवृत्ति में आलस्य के सुख का और प्रवृत्ति में प्रमाद के सुख का भोग हो सकता है। अतः आलस्य प्रमाद से मनुष्य पाप को प्राप्त होता है। परंतु बहुत कम कर्म करने पर भी निवृत्ति परायण कर्मयोगी में किञ्चिन्मात्र भी आलस्य प्रमाद नहीं आते। यदि उसमें किञ्चिन्मात्र भी आलस्य-प्रमाद आते, तो ‘यतचित्त’ है अर्थात उसके शरीर, इंद्रियाँ और अंतःकरण संयत हैं, इसलिये उसमें आलस्य प्रमाद आ ही नहीं सकते। शरीर, इंद्रियाँ तथा अंतःकरण के वश में होने से, भोग-सामग्री का त्याग करने से तथा आशा, कामना, ममता आदि से रहित होने से उसके द्वारा निषिद्ध क्रिया हो सकती ही नहीं।


यहाँ शंका हो सकती है कि जब उसके द्वारा पाप-क्रिया हो सकती ही नहीं, तब यह क्यों कहा गया कि वह पाप को प्राप्त नहीं होता? इसका समाधान यह है कि क्रियामात्र के आरंभ में अनिवार्य दोष पाये जाते हैं- ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः’। परंतु मूल में असत् के संग- कामना, ममता और आसक्ति होती ही नहीं अथवा उसका कामना, ममता और आसक्ति का उद्देश्य ही नहीं होता; इसलिये उसका कर्म करने से अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं होता। इसी कारण न तो उसे कर्मों में रहने वाला आनुषंगिक पाप लगता है और न उसे शास्त्रविहित कर्मों के त्याग का ही पाप लगता है।


दूसरी एक शंका यह हो सकती है कि तीसरे अध्याय में भगवान ने सिद्ध महापुरुष को भी लोकसंग्रह के लिये कर्म करने की प्रेरणा की है। अपने लिये भी भगवान ने कहा है कि त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य और प्राप्तव्य न होने पर भी मैं सावधानीपूर्वक कर्म करता हूँ। अतः शरीर निर्वाह मात्र के लिये कर्म करने वाले कर्मयोगी को क्या लोकसंग्रह के त्याग का दोष नहीं लगेगा? इसका समाधान यह है कि कामना, ममता आदि न रहने के कारण उसे कोई दोष नहीं लगता। यद्यपि सिद्ध महापुरुष में और भगवान में कामना, ममता आदि का सर्वथा अभाव होता है, तथापि वे जो लोकसंग्रह के लिये कर्म करते हैं, यह उनकी दया, कृपा ही है। वास्तव में वे लोकसंग्रह करें अथवा न करें, इसमें वे स्वतंत्र हैं, इसकी उन पर कोई जिम्मेवारी नहीं है। वास्तव में यह भी निवृत्तिपरायण साधकों के लिये एक लोकसंग्रह ही है। लोकसंग्रह किया नहीं जाता, प्रत्युत होता है।


तीसरी एक शंका यह भी हो सकती है कि तीसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक में भगवान ने केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले मनुष्य को पापी कहा है और यह कहते हैं कि शरीर निर्वाहमात्र के लिये कर्म करने वाला पाप को नहीं प्राप्त होता। दोनों का सामञ्जस्य कैसे हो? इसका समाधान यह है कि जब तक भोगबुद्धि है और कर्मों तथा पदार्थों में आसक्ति बनी हुई है, तब तक कर्म करने अथवा न करने से पाप लगता ही है, इसीलिये वहाँ ‘पचन्ति आत्मकारणात्’ पद आये हैं। परंतु उस कर्मयोगी में भोगबुद्धि नहीं है और कर्मों तथा पदार्थों में आसक्ति भी नहीं है; अतः सर्वथा निर्लिप्त होने से उसे कर्म करने अथवा न करने से किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं लगता।


प्रश्न- इस श्लोक को अगर सांख्ययोगी का मान लें तो क्या आपत्ति है; क्योंकि इसमें आये सब लक्षण सांख्य योगी में घटते हैं?


उत्तर- पहली बात तो यह है कि यहाँ कर्मयोग का प्रसंग है, इसलिये यह श्लोक मुख्य रूप से कर्मयोगी का ही है। दूसरी बात, सांख्ययोगी अपने को कर्ता मानता ही नहीं। उसमें ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ ऐसा स्पष्ट विवेक रहता है; फिर उसके लिये ‘कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता’- ऐसा कहना कैसे बन सकता है?


कर्मयोग के साधक में वैसा स्पष्ट विवेक जाग्रत न होने पर भी उसका यह निश्चय रहता है कि ‘मेरा कुछ नहीं है; मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये और मेरे लिये कुछ नहीं करना है।’ इन तीन बातों को दृढ़ निश्चय रहने के कारण वह कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है।


लोगों में प्रायः ऐसी मान्यता है कि कर्मयोगी गृहस्थ आश्रम में और ज्ञानयोगी संन्यास आश्रम में रहता है। परंतु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जिसे शरीर से अपनी अलग सत्ता का स्पष्ट विवेक है, वह ज्ञानयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ आश्रम में हो अथवा संन्यास आश्रम में। जिसमें इतना विवेक नहीं है, पर उपर्युक्त तीन बातों का निश्चय पक्का है, वह कर्मयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ आश्रम में हो अथवा संन्यास आश्रम में।


तीसरी एक शंका यह भी हो सकती है कि तीसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक में भगवान ने केवल अपने शरीर का पोषण करने वाले मनुष्य को पापी कहा है और यह कहते हैं कि शरीर निर्वाहमात्र के लिये कर्म करने वाला पाप को नहीं प्राप्त होता। दोनों का सामञ्जस्य कैसे हो? इसका समाधान यह है कि जब तक भोगबुद्धि है और कर्मों तथा पदार्थों में आसक्ति बनी हुई है, तब तक कर्म करने अथवा न करने से पाप लगता ही है, इसीलिये वहाँ ‘पचन्ति आत्मकारणात्’ पद आये हैं। परंतु उस कर्मयोगी में भोगबुद्धि नहीं है और कर्मों तथा पदार्थों में आसक्ति भी नहीं है; अतः सर्वथा निर्लिप्त होने से उसे कर्म करने अथवा न करने से किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं लगता।


प्रश्न- इस श्लोक को अगर सांख्ययोगी का मान लें तो क्या आपत्ति है; क्योंकि इसमें आये सब लक्षण सांख्य योगी में घटते हैं?


उत्तर- पहली बात तो यह है कि यहाँ कर्मयोग का प्रसंग है, इसलिये यह श्लोक मुख्य रूप से कर्मयोगी का ही है। दूसरी बात, सांख्ययोगी अपने को कर्ता मानता ही नहीं। उसमें ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ ऐसा स्पष्ट विवेक रहता है; फिर उसके लिये ‘कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता’- ऐसा कहना कैसे बन सकता है?


कर्मयोग के साधक में वैसा स्पष्ट विवेक जाग्रत न होने पर भी उसका यह निश्चय रहता है कि ‘मेरा कुछ नहीं है; मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये और मेरे लिये कुछ नहीं करना है।’ इन तीन बातों को दृढ़ निश्चय रहने के कारण वह कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है।


लोगों में प्रायः ऐसी मान्यता है कि कर्मयोगी गृहस्थ आश्रम में और ज्ञानयोगी संन्यास आश्रम में रहता है। परंतु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। जिसे शरीर से अपनी अलग सत्ता का स्पष्ट विवेक है, वह ज्ञानयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ आश्रम में हो अथवा संन्यास आश्रम में। जिसमें इतना विवेक नहीं है, पर उपर्युक्त तीन बातों का निश्चय पक्का है, वह कर्मयोगी ही है; चाहे वह गृहस्थ आश्रम में हो अथवा संन्यास आश्रम में।


द्वंद्व अनेक प्रकार के होते हैं; जैसे- भगवान का सगुण साकार रूप ठीक है या निर्गुण निराकार रूप ठीक है, अद्वैत सिद्धांत ठीक है या द्वैत सिद्धांत ठीक है, भगवान में मन लगा या नहीं लगा, एकान्त मिला या नहीं मिला, शांति मिल या नहीं मिली, सिद्धि मिली या नहीं मिली, इत्यादि। इन सब द्वंद्वों के साथ संबंध न होने से ही साधक निर्द्वंद्व होता है। जैसे तराजू किसी भी तरफ झुक जाय तो वह बराबर नहीं कहलाता, ऐसे ही साधक के अंतःकरण में किसी भी तरफ झुकाव हो जाय तो वह द्वंद्वातीत नहीं कहलाता।


कर्मयोगी सब प्रकार के द्वंद्वों से अतीत होता है, इसलिये वह सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।


‘समः सिद्धावसिद्धौ च’- किसी भी कर्तव्य कर्म का निर्विघ्न रूप से पूरा हो जाना सिद्धि है और किसी प्रकार के विघ्न, बाधा के कारण उसका पूरा न होना असिद्धि है। कर्म का फल मिल जाना सिद्धि है और न मिलना असिद्धि है। सिद्धि और असिद्धि में राग द्वेष, हर्ष शोक आदि विकारों का न होना ही सिद्धि असिद्धि में सम रहना है। दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें श्लोक में ‘सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा’ पदों में भी यही भाव आया है।


अपना कुछ भी नही है, अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है- ये तीनों बातें ठीक-ठीक अनुभव में आ जायँ, तभी सिद्धि और असिद्धि में पूर्णतः समता आयेगी।


‘कृत्वापि न निबध्यते’- यहाँ ‘कृत्वा अपि’ पदों का तात्पर्य है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए भी नहीं बँधता, फिर कर्म न करते हुए बँधने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। वह दोनों अवस्थाओं में निर्लिप्त रहता है। जैसे शरीर निर्वाह मात्र के लिये कर्म करने वाला कर्मयोगी कर्मों से नहीं बँधता, वैसे ही शास्त्रविहित संपूर्ण कर्मों को करने वाला कर्मयोगी भी कर्मों से नहीं बँधता।


वास्तव में देखा जाय तो कर्मयोग में कर्म करना, अधिक करना, कम करना अथवा न करना बंधन या मुक्ति का कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है, वही बंधन का कारण है और जो निर्लिप्तता है, वही मुक्ति का कारण है। जैसे नाटक में एक व्यक्ति लक्ष्मण का और दूसरा व्यक्ति मेघनाद का स्वांग धारण करता है और दोनों व्यक्ति अपने-अपने स्वांग को ठीक-ठीक निभाते हुए भी उससे निर्लिप्त रहते हैं अर्थात अपने को वास्तव में लक्ष्मण या मेघनाद नहीं मानते। ऐसे ही कर्मयोगी अपने वर्ण, आश्रम आदि के अनुसार कर्तव्य का पालन करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहता है अर्थात उनसे अपना कोई संबंध नहीं मानता। उसका संबंध नित्य निरंतर रहने वाले स्वरूप के साथ रहता है, प्रतिक्षण परिवर्तनशील प्रकृति के साथ नहीं। इसलिये उसकी स्थिति स्वाभाविक ही समता में रहती है। समता में स्थिति रहने से वह कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता।


यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वतः सिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि अनुकूल परिस्थिति में हम जो रहते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी हम वही रहते हैं। यदि हम वही (एक ही) न रहते, तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल) परिस्थितियों का ज्ञान किसे होता? इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियों में होता है और अपने स्वरूप में नहीं। इसलिये परिस्थितियों के बदलने पर भी स्वरूप से हम सम[2] ही रहती हैं। भूल यह होती है कि हम परिस्थितियों की ओर देखते हैं, पर स्वरूप की ओर नहीं देखते। अपने सम स्वरूप की ओर न देखने के कारण ही हम आने-जाने वाली परिस्थितियों से मिलकर सुखी-दुःखी होते हैं।


गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।। 4.23 ।।


जिसकी आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, ऐसे केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं।


[कर्मयोगी के संपूर्ण कर्मोंं के विलीन होने की बात गीता भर में केवल इसी श्लोक में आयी है, इसलिये यह कर्मयोग का मुख्य श्लोक है। इसी प्रकार चौथे अध्याय का छत्तीसवाँ श्लोक ज्ञानयोग का और अठारहवें अध्याय का छाछठवाँ श्लोक भक्तियोग का मुख्य श्लोक है।]


‘गतसंगस्य’- क्रियाओं का, पदार्थों का, घटनाओं का, परिस्थितियों का, व्यक्तियों का जो संग है, इनके साथ जो हृदय से लगाव है, वही वास्तव में बाँधने वाला अर्थात जन्म मरण देने वाला है। स्वार्थभाव को छोड़कर केवल लोगों के हित के लिये, लोकसंग्रहार्थ कर्म करते रहने से कर्मयोगी क्रियाओं, पदार्थों आदि से असंग हो जाता है अर्थात उसकी आसक्ति सर्वथा मिट जाती है।


वास्तव में मनुष्य स्वरूप से असंग ही है- ‘असंगो ह्ययं पुरुषः’। किंतु असंग होते हुए भी यह शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, परिस्थिति, व्यक्ति आदि से संबंध मानकर सुख की इच्छा से उनमें आबद्ध हो जाता है। मेरी मनचाही हो अर्थात जो मैं चाहता हूँ, वहीं हो और जो मैं नहीं चाहता, वह नहीं हो- ऐसा भाव जब तक रहता है, तब तक यह संग बढ़ता ही रहता है। वास्तव में होता वही है, जो होने वाला है। जो होने वाला है उसे चाहें या न चाहें, वह होगा ही; और जो नहीं होने वाला है, उसे चाहे या न चाहें, वह नहीं होगा। अतः अपनी मनचाही करके मनुष्य व्यर्थ में बिना कारण फंसता है और दुःख पाता है।


कर्मयोगी संसार से मिली हुई शरीरादि वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानकर उन्हें संसार की ही मानकर संसार की सेवा में अर्पण कर देता है। इससे वस्तुओं और क्रियाओं का प्रवाह संसार की ओर ही हो जाता है और अपना असंग स्वरूप ज्यों-का-त्यों रह जाता है।


कर्मयोगी की ‘अहम्’ भी सेवा में लग जाता है। तात्पर्य यह है कि उसके भीतर ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव भी नहीं रहता। यह भाव तो मनुष्य को सेवकपने के अभिमान से बाँध देता है। सेवकपने का अभिमान तभी होता है, जब सेवा सामग्री के साथ अपनापन होता है। सेवा की वस्तु उसी की थी, उसी को दे दी तो सेवा क्या हुई? हम तो उससे उऋण हुए। इसलिये सेवक न रहे, केवल सेवा रह जाय। यह भाव रहे कि सेवा के बदले में धन, मान, बड़ाई, पद, अधिकार आदि कुछ भी लेना नहीं है; क्योंकि उस पर हमारा हक नहीं लगता। उसे स्वीकार करना तो अनधिकार चेष्टा है। लोग मेरे को सेवक कहें- ऐसा भाव भी न रहे और यदि वे कहें तो उसमें राजी भी न हो। इस प्रकार संसार की वस्तुओं को संसार की सेवा में सर्वथा लगा देने से अंतःकरण में एक प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्नता का भी भोग न किया जाय तो स्वतः सिद्ध असंगता का अनुभव हो जाता है।


‘मुक्तस्य’- जो अपने स्वरूप से सर्वथा अलग हैं, उन क्रियाओं और शरीरादि पदार्थों से अपना संबंध न होते हुए भी कामना, ममता और आसक्तिपूर्वक उनसे अपना संबंध मान लेने से मनुष्य बँध जाता है अर्थात पराधीन हो जाता है। कर्मयोग का अनुष्ठान करने से जब माना हुआ कर्मयोग का अनुष्ठान करने से जब मान हुआ संबंध मिट जाता है, तब कर्मयोगी सर्वथा असंग हो जाता है। असंग होते ही वह सर्वथा मुक्त हो जाता है अर्थात स्वाधीन हो जाता है।


‘ज्ञानावस्थितचेतसः’- जिसकी बुद्धि में स्वरूप का ज्ञान नित्य-निरंतर जाग्रत रहता है, वह ‘ज्ञानावस्थित चेतसः’ है। स्वरूप ज्ञान होते ही उसकी स्वरूप में स्थिति हो जाती है, जो वास्तव में पहले से ही थी। वास्तव में ज्ञान संसार का ही होता है। स्वरूप का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि स्वरूप स्वतः ज्ञान स्वरूप है। क्रिया और पदार्थ ही संसार है। क्रिया और पदार्थ का विभाग अलग है तथा स्वरूप का विभाग अलग है अर्थात क्रिया और पदार्थ का स्वरूप के साथ किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं है। क्रिया और पदार्थ जड़ हैं तथा स्वरूप चेतन है। क्रिया और पदार्थ प्रकाश्य हैं तथा स्वरूप प्रकाशक है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थ की स्वरूप से भिन्नता का ठीक-ठीक ज्ञान होते ही क्रिया और पदार्थ रूप संसार से संबंध विच्छेद होकर स्वतः सिद्ध असंग स्वरूप में स्थिति का अनुभव हो जाता है।


‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’- ‘कर्म में अकर्म’ देखने का ही एक प्रकार है- ‘यज्ञार्थ कर्म’ अर्थात यज्ञ के लिये कर्म करना। निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना ‘यज्ञ’ है। जो यज्ञ के लिये ही संपूर्ण कर्म करता है, वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है और जो यज्ञ के लिये कर्म नहीं करता अर्थात अपने लिये कर्म करता है, वह कर्मों में बँध जाता है- ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः’।


प्रकृति का कार्य है- क्रिया और पदार्थ। इन दोनों में क्रिया का भी आदि और अंत होता है तथा पदार्थ का भी आदि और अंत होता है। क्रिया आरंभ होने से पहले भी नहीं थी और समाप्त होने के बाद भी नहीं रहेगी, इसलिये बीच में भी वह नहीं है- ऐसा सिद्ध हुआ। इसी प्रकार पदार्थ उत्पन्न होने से पहले भी नहीं था और नष्ट होने के बाद भी नहीं रहेगा, इसलिये बीच में भी वह नहीं है- यह सिद्ध हुआ; क्योंकि यह सिद्धांत है कि जो वस्तु आदि और अंत में नहीं होती, वह मध्य में भी नहीं होती। परंतु चेतन स्वरूप का आदि और अंत नहीं होता, वह सदा अक्रिय रूप से ज्यों-का-त्यों रहता है। वह चेतन तत्त्व क्रिया और पदार्थ- दोनों का प्रकाशक है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थ के साथ किञ्चिन्मात्र भी संबंध न होते हुए भी जब वह इनके साथ अपना संबंध मान लेता है, तब वह बँध जाता है। इस बंधन से छूटने का उपाय है- फलेच्छा का त्याग करके केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना।


संसार में अनेक प्रकार की क्रियाएँ हो रही हैं और अनेक प्रकार के पदार्थ विद्यमान हैं। परंतु मनुष्य जिन क्रियाओं और पदार्थों से आसक्ति, ममता और कामनापूर्वक अपना संबंध मानता है, उन्हीं क्रियाओं और पदार्थों से वह बँधता है। जब मनुष्य कामना, ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल दूसरों के हित के लिये संपूर्ण कर्म करता है और मिले हुए पदार्थों को दूसरों का ही मानकर उनकी सेवा में लगाता है, तब कर्मयोगी के संपूर्ण[4] कर्म विलीन हो जाते हैं अर्थात उसे कर्मों के साथ अपनी स्वतः सिद्ध असंगता का अनुभव हो जाता है।


सार-मर्म 


1. कर्ता, करण और कर्म- इन तीनों के मिलने से कर्मों का संचय होता है। यदि कर्तापन न रहे तो कर्मों का संग्रह नहीं होता; क्योंकि करण और कर्म- दोनों कर्ता के ही अधीन हैं। अतः कर्म संचय का मुख्य हेतु कर्तापन ही है।


विचारपूर्वक देखा जाय तो कुछ-न-कुछ पाने की इच्छा से ही करने की इच्छा उत्पन्न होती है, जिससे कर्तापन उत्पन्न होता है। कर्तापन से बंधन होता है। जब मनुष्य पाने की इच्छा से अपने लिये कर्म करता है, तब उसका कर्तापन दृढ़ हो जाता है। जब कर्मयोगी पाने की इच्छा का त्याग करके केवल यज्ञ के लिये अर्थात दूसरों के लिये हित के लिये कर्म करता है, तब उसका कर्तापन दूसरों के लिये होता है; इससे उसे अपनी असंगता का अनुभव हो जाता है। इसलिये उसके द्वारा होने वाले कर्मों का संचय नहीं होता। कारण कि जब आधार ही नहीं रहा। तब कर्म टिकेंगे ही कहाँ?


कर्मयोग में ‘ममता’ का त्याग और ज्ञान योग में ‘अहंता’ का त्याग मुख्य है। ममता का त्याग होने से अहंता का और अहंता का त्याग होने से ममता का त्याग स्वतः हो जाता है। इसलिये कर्मयोग में पहले ‘ममता’ मिटती है, फिर ‘अहंता’ स्वतः मिट जाती है, और ज्ञानयोग में पहले ‘अहंता’ मिटती है, फिर ‘ममता’ स्वतः मिट जाती है। अहंता और ममता के मिटने पर कर्तापन और भोक्तापन भी मिट जाते हैं।


कर्मयोगी अपने लिये कोई कर्म करता ही नहीं और कुछ चाहता ही नहीं; अतः वह कर्मों के फल का भोक्ता नहीं बनता। जैसे, एक व्यक्ति को, यहाँ कई दंड भोगने हैं। परंतु वह मर जाय तो यहाँ उसके सभी दंड समाप्त हो जाते हैं; क्योंकि जब भोगने वाला व्यक्ति ही नहीं रहा, तब दंड भोगेगा ही कौन? ऐसे ही जब कर्मयोगी का भोक्तापन मिट जाता है, तब उसके सभी कर्म समाप्त हो जाते हैं; क्योंकि जब भोक्ता ही नहीं रहा, तब कर्मों का फल भोगेगा ही कौन?


2. इसी अध्याय के नवें श्लोक में भगवान ने कहा कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह मेरे को प्राप्त होता है। जन्म तो केवल भगवान के ही दिव्य होते हैं, पर कर्म मनुष्य मात्र के भी[6] दिव्य हो सकते हैं। अतः इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान अपने कर्मों की दिव्यता का कारण बताते हैं कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते अर्थात मेरे कर्म अकर्म हो जाते हैं। इस प्रकार कर्मों का तत्त्व जानकर जो कर्म करता है, उसके भी कर्म अकर्म हो जाते हैं। फिर पंद्रहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि मुमुक्षुओं ने भी इसी प्रकार जानकर कर्म किये हैं। इसके बाद सोलहवें श्लोक में भगवान कर्मों का तत्त्व कहने की प्रतिज्ञा करते हैं, और सत्रहवें श्लोक में कहते हैं कि कर्म, विकर्म और अकर्म तीनों का तत्त्व जानना चाहिये। फिर अठारहवें श्लोक में भगवान ने मुख्यरूप से कर्मों का तत्त्व बतलाया।


कामना से ‘कर्म’ होते हैं, कामना के बढ़ने पर ‘विकर्म’ होते हैं और कामना का अत्यंत अभाव होने से ‘अकर्म’ होता है। मूल में इस प्रकरण का तात्पर्य ‘अकर्म’ का वर्णन करना ही है। इसीलिये भगवान ने कर्म और विकर्म- दोनों के मूल कारण ‘कामना’ के त्याग का तथा ‘अकर्म का’ वर्णन उन्नीसवें से तेइसवें श्लोक तक प्रत्येक श्लोक में किया है और अंत में बत्तीसवें श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार किया है।




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