निर्वाण और कर्म



ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने वाले संकीर्ण सिद्धांत की तरह केवल अक्षर पुरुष के साथ एक हो जाना ही नहीं, अपितु समग्र सत्ता के योग द्वारा जीव का पुरुषोत्तम के साथ एक हो जाना गीता की संपूर्ण शिक्षा है। यही कारण है कि ज्ञान औार कर्म का समन्वय साधने के पश्चात् गीता ने कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति की भावना का विकास करके बतलाया है कि जिस मार्ग के द्वारा उत्तम रहस्य तक पहुँचा जा सकता है उसकी सर्वोच्च भूमि यही है। यदि अक्षर पुरुष के साथ एक हो जाना ही एकमात्र रहस्य या परम रहस्य होता तो कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति का साधना संभव न होता, क्योंकि जब साधना में एक ऐसी अवस्था आ जाती जब प्रेम और भक्ति के लिये हमारा आंतरिक आधार कर्म के आंतरिक आधार के समान चूर-चूर होकर ढह जाता। केवल अक्षर पुरुष के साथ संपूर्ण और अन्य एकता का अर्थ होता है क्षर पुरुष के दृष्टिबिंदु को सर्वथा नष्ट कर देना। यह, सामान्य और हीनतर कर्म में क्षर पुरुष की सत्ता के दृष्टिबिंदु को नष्ट करना ही नहीं है, बल्कि स्वयं उसके मूल से, जो कुछ उसकी सत्ता को संभव बनाता है उस सबसे भी, इंकार करना है; यह केवल उसकी अज्ञानावस्था के कर्म से ही नहीं, प्रत्युत उसकी ज्ञानावस्था के कर्म से भी इंकार है।


इसका अर्थ है मानवजीवन की ओर भगवान् की चेतना तथा कर्मण्यता में जो भेद है, जिसके कारण क्षर भाव की लीला संभव होती है, उसे नष्ट कर देना; क्योंकि तब क्षर पुरुष का कर्म केवल अज्ञान का खेल रह जायेगा और उसके मूल में या उसके आधारस्वरूप कोई भागवत सद्वस्तु नहीं रहेगी। इसके विपरीत, योग के द्वारा पुरुषोत्तम के साथ एक होने का अर्थ होता है अपनी स्वतःस्थित सत्ता में उनके साथ एकत्व का ज्ञान और आस्वादन तथा अपनी क्रियाशील सत्ता में इनके साथ एक विशेष प्रकार के भेदभाव का ज्ञान और आस्वादन। दिव्य प्रेम की प्रेरक-शक्ति द्वारा परिचालित और संसिद्ध दिव्य प्रकृति द्वारा अनुष्ठित दिव्य कर्मों की लीला में सक्रिय सत्ता और पुरुषोत्तम के बीच उपर्युक्त विशेष प्रकार के भेदभाव का बना रहना तथा आत्मा के अंदर भगवान् की उपलब्धि के साथ-साथ जगत् में भगवान् का दर्शन, इन दो कारणों से ही मुक्त पुरुष के लिये कर्म और भक्ति करना संभव होता है, केवल संभव ही नहीं, बल्कि उसके सिद्ध स्वभाव के लिये अपरिहार्य होता है। परन्तु पुरुषोत्तम के साथ एकता स्थापित करने का सीधा रास्ता अक्षर ब्रह्म की सदृढ़ अनुभूति में से होकर ही है, और इस बात पर गीता ने बहुत जोर दिया है और कहा है कि यह जीव की पहली आवश्यकता है,-और इसे प्राप्त कर लेने के बाद ही कर्म और भक्ति अपने परम दिव्यायर्थ को प्राप्त होंगे-इसी कारण हम गीता के आशय को समझने में भूल कर जाते हैं।



यदि हम केवल उन्हीं श्लोकों को देखें जिनमें इस आवश्यकता पर जोरदार आग्रह किया गया है और गीता की विचारधारा के पूर्वापर का पूर्ण विचार न करें तो अनायास ही इस निर्णय पर पहुँचगें कि गीता वास्तव में यह शिक्षा देती है कि कर्महीन लय ही जीव की परम गति है और कर्म अविचल अक्षर पुरुष में जाकर शांत हो जाने के प्राथमिक साधन मात्र हैं। पांचवें अध्याय के अंत में और छठे अध्याय में सर्वत्र यही आग्रह अत्यंत प्रबल और व्यापक है। वहाँ एक ऐसे योग का वर्णन है जो पहली नजर में कर्म-मार्ग से विसंगत प्रतीत होता है और वहाँ योगी जिस पद को प्राप्त होता है उसे बार-बार ‘निर्वाण’ कहा गया है।


इस पद का लक्षण है निर्वाण की परम शांति, शांतिं, निर्वाणपर्माम, और शायद इस बात को स्पष्ट करने के लिये कि यह निर्वाण बौद्धों का शून्य में निर्वाण नहीं है बल्कि आंशिक सत्ता का पूर्ण सत्ता में वैदांतिक लय है, गीता ने सदा ‘ब्रह्म-निर्वाण’ शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ब्रह्म में विलीन होना। और यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द से अवश्य ही अभिप्राय है अक्षर ब्रह्म का, कम-से-कम मुख्यतः उस अंतःस्थ कालातीत आत्मा का जो बाह्य प्रकृति में व्यापक होते हुए भी सक्रिय रूप् से उसमें कोई भाग नहीं लेती। इसलिये हमें यह देखना होगा कि यहाँ गीता का आशय क्या है, विशेषकर यह कि यह शांति क्या पूर्ण नैष्कर्म्य की शांति ही है और क्या अक्षर ब्रह्म में निर्वाण होने का अभिप्राय क्षर के संपूर्ण ज्ञान और चैतन्य का तथा क्षर में होने वाले संपूर्ण कर्म का सर्वथा परिहार ही है? हमें कुछ ऐसा अभ्यास पड़ा हुआ है कि हम निर्वाण तथा किसी प्रकार के जगत्-जीवन और कर्म को एक-दूसरे से सर्वथा विसंगत मानते हैं और यहाँ तक कह डालना चाहते हैं कि ‘निर्वाण’ शब्द का प्रयोग स्वयं ही इस प्रश्न का निर्णय और पूर्ण उत्तर है।


परंतु यदि हम बौद्ध मत का ही सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो हमें यह संदेह होगा कि क्या यह विरोध बौद्धों के यहाँ भी यथार्थतः था; और यदि हम गीता को अच्छी तरह देखें तो दिखायी देगा कि यह विरोध वेदांत की परम शिक्षा के अंदर नहीं है। जो ब्रह्म की चेतना में ऊपर उठ चुका है ऐसे ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:, की पूर्ण समता की चर्चा करने के बाद उसके परवर्ती नौ श्लोंकों में गीता ने बह्मयोग और ब्रह्मनिर्वाण-संबंधी भावना को विस्तार के साथ कहा है। उसने अपना कथन यूं आरंभ किया है, ‘‘जब बाह्य पदार्थों में जीव की कोई आसक्ति नहीं रह जाती तब उस मनुष्य को वह सुख मिलता है जो आत्मा में है; ऐसा व्यक्ति अक्षय सुख भोग करता है, क्योंकि उसकी आत्मा ब्रह्म के साथ योग द्वारा युक्त हैं।” गीता कहती है कि अनासक्त होना अति आवश्यक है, इसलिये कि काम-क्रोध-लोभ-मोह से छुटकारा मिले, इस छुटकारे के बिना सच्चे सुख का मिलना संभव नहीं है।


यह सुख और यह समत्व, मनुष्य को शरीर में रहते हुए ही पूर्ण रूप से प्राप्त करने होंगे; निम्न विक्षुब्ध प्रकृति के जिस दासत्त्व के कारण वह यह समझता था कि पूर्ण मुक्ति शरीर को छोड़ने के बाद ही प्राप्त होगी, उस दासत्त्व का लेशमात्र भी उसके अंदर नहीं रह जाना चाहिये; इसी जगत् में, इसी मानव-जीवन में अथवा देह त्याग करने से पहले ही, पूर्ण आध्यात्मिक स्वातंत्र्य लाभ करना और भोगना होगा। इसके आगे गीता कहती है कि जो ‘‘अंतःसुख है, अंतराराम है और अंतज्योंति है वही योगी ब्रह्मीभूत होकर ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त होता है”।[1]यहाँ निवार्ण का अर्थ स्पष्ट ही उस परम आत्म-स्वरूप में अहंकार का लोप होना है जो सदा देशकालातीत, कार्यकारण-बंधनातीत तथा क्षरणशील जगत् के परिवर्तनों के अतीत हैं और जो सदा आत्मानंदमय, आत्मप्रकाशमय और शांतिमय है।


वह योगी अब अहंकारस्वरूप नहीं रह जाता, वह छोटा-सा व्यक्त्त्वि नहीं रह जाता जो मन और शरीर से सीमित रहता है; वह ब्रह्म हो जाता है, उसकी चेतना शाश्वत पुरुष उस अक्षर दिव्यता के साथ एक हो जाती है जो उसकी प्राकृत सत्ता में व्यापप्त है। परंतु क्या यह जगत्-चैतन्य से दूर, समाधि की किसी गंभीर निद्रा में सो जाना है अथवा क्या यह प्राकृत सत्ता तथा व्यष्टि पुरुष के किसी ऐसे निरपेक्ष ब्रह्म में लय हो जाने या मोक्ष पाने की तैयारी है जो सर्वथा और सदा प्रकृति और उसके कर्मों से परे है? क्या निर्वाण को प्राप्त होने के पहले विश्च-चैतन्य से अलग हो जाना आवश्यक है अथवा क्या निर्वाण, जैसा कि उस प्रकरण से मालूम होता है, एक ऐसी अवस्था है जो जगत-चैतन्य के साथ-साथ रह सकती और अपने ही तरीके से उसका अपने अंदर समावेश भी कर सकती है?


यह पिछले प्रकार की अवस्था ही स्पष्ट रूप से गीता को अभिप्रेत मालूम होती है, क्योंकि इसके बाद के ही श्लोक में गीता ने कहा है कि "वे ऋषि ब्रह्मनिर्वाण लाभ करते हैं जिनके पाप के सब दाग धुल गये हैं और जिनकी संशय- ग्रंथि का छेदन हो चुका है, जो अपने-आपको वश में कर चुके हैं और सब भूतों के कल्याण में रत हैं, सर्वभूतहिते रता:" । इसका तो प्रायः यही अभिप्राय मालूम होता है कि इस प्रकार का होना ही निर्वाण को प्राप्त होना है। परंतु इसके बाद का श्लोक बिलकुल स्पष्ट और निश्चयात्मक है, यती, (अर्थात् जो लोग योग और तप के द्वारा आत्मवशी होने का अभ्यास करते हैं) जो काम और क्रोध से मुक्त हो चुके हैं और जिन्होंने आत्मवशित्व लाभ कर लिया है उनके लिये ब्रह्मनिर्वाण उनके चारों ओर ही रहता है, वह उन्हें घेरे हुए रहता है, वे उसीमें रहते हैं, क्योंकि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है।"[3] अर्थात् आत्मा का ज्ञान होना और आत्मवान् होना ही निर्वाण में रहना है। यह स्पष्ट ही निर्वाण की भावना का एक व्यापक रूप है।


काम-क्रोधादि दोषों के दागों से सर्वथा मुक्त होना और यह मुक्ति जिस समत्व-बुद्धि के आत्मवशित्व पर अपना आधार रखती है उस आत्मवशित्व का होना, सब भूतों के प्रति समत्व का होना, सबके प्रति कल्याणकारी प्रेम का होना, अज्ञानजनित जो संशय और अंधकार, सर्वैक्यसाधक भगवान् से और हमारे अंदर और सबके अंदर जो ‘एक’ आत्मा है उसके ज्ञान से हमको अलग करके रखते हैं उनका सर्वदा नाश हो जाना, ये सब स्पष्ट ही निर्वाण की अवस्थाएं हैं जो गीता के इन श्लोकों में बतलायी गयी हैं, इन्हीं से निर्वाण -पद सिद्ध होता है और ये ही उसके आध्यात्मिक तत्त्व हैं। इस प्रकार निर्वाण स्पष्ट ही जगत्-चैतन्य और संसार के कर्मों के साथ विसंगत नहीं है। क्योंकि जो ऋषि निर्वाण को प्राप्त हैं वे इस क्षर जगत् में भगवान् को प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और कर्मों के द्वारा उनके साथ अति निकट संबंध बनाये रखते हैं; वे सब भूतों के कल्याण में लगे रहते हैं। क्षर पुरुष की अनुभूतियों को उन्होंने त्याग नहीं दिया है, बल्कि उन्हें दिव्य बना दिया है गीता कहती है कि क्षर पुरुष ही सर्वभूतानि है, और सब भूतों का कल्याण करना प्रकृति की क्षरता के अंदर एक भागवत कर्म है।


संसार में कर्म करना ब्राह्मी स्थिति से विसंगत नहीं है, बल्कि उस अवस्था की अपरिहार्य शर्त और ब्रह्म परिणाम है, क्योंकि जिस ब्रह्म में निर्वाण लाभ किया जाता है वह ब्रह्म, जिस आत्म-चैतन्य में हमारा पृथक् अहंभाव विलीन हो जाता है वह आत्म-चैतन्य केवल हमारे अंदर ही नहीं है, बल्कि इन सब भूत प्राणियों में भी है। वह इन सब जगत्-प्रपंचों से केवल पृथक् और इनके ऊपर ही नहीं है, बल्कि इन सबमें व्याप्त है; इन्हें धारण किये हुए है और इनमें प्रसारित है। इसलिये ब्रह्मनिर्वाण-पद का अर्थ उसी सीमित पृथक्कारी चेतना का नाश या निर्वाण समझाना होगा जो सारे भ्रम और भेदभव का कारण है और जो जीवन के बाह्य स्तर पर त्रिगुणात्मिका निम्नतर माया की एक रचनामात्र है। और इस निर्वाण-पद में प्रवेश उस एकत्वसाधक परम सच्चैतन्य की प्राप्ति का रास्ता है जो समस्त सृष्टि का हृदय और आधार है, और जो उसका सर्वसमाहारक, सर्वसहायक, समग्र मूल सनातन परम सत्य है। जब हम निर्वाण लाभ करते और उसमें प्रवेश करते हैं तब निर्वाण केवल हमारे अंदर ही नहीं रहता बल्कि हमारे चारों ओर भी रहता है, क्योंकि यह केवल यह ब्रह्म-चैतन्य नहीं है जो हमारे अंदर गुप्त रूप से रहता है, बल्कि यह वह ब्रह्म-चैतन्य है जिसमें हम सब रहते हैं।


यह वह आत्मा है जो हम अपने अंतःस्वरूप में हैं- हमारी व्यष्टि-सत्ता की परम आत्मा; पर वह आत्मा भी जो हम बाह्य रूप में हैं, यह समस्त विश्व-ब्रह्मांड की परम आत्मा है, सब भूतों की आत्मा है। इस आत्मा में रहते हुए हम सबके अंदर रहेते हैं, और अब केवल अपनी अहंभावापन पृथक् सत्ता में ही नहीं रहते; इस आत्मा के साथ एकत्व लाभ करने से जगत् में जो कुछ उसके साथ निरंतर एकत्व हमारी सत्ता का स्वभाव, हमारे क्रियाशील चैतन्य की मूल भूमिका और हमारे कर्मों का मूल-प्रेरक-भाव बन जाता है। परंतु इसके बाद ही फिर दो श्लोक ऐसे आते हैं जो इस निर्णय में बाधक से प्रतीत होते हैं। ‘‘बाह्य स्पर्शों को अपने अंदर से बाहर करके, भूमध्य में अपनी दृष्टि को स्थिर करके और नासभ्यंतरचारी प्राण तथा अपान को सम करके,इन्द्रिय, मन और बुद्धि को वश में रखने वाला मोक्ष-परायण मुनि, जिसके काम, क्रोध, भय दूर हो गये हैं, सदा ही मुक्त रहता है।” यहाँ इस योग-प्रणाली में एक दूसरी ही बात आती है जो कर्मयोग से भिन्न है और इस विशुद्ध ज्ञानयोग से भी भिन्न है जो विवेक और ध्यान से साधित होता है; इसके सब विशिष्ट लक्षण कायिक-मानसिक–तप साध्य राजयोग के लक्षण हैं। यह ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ प्राणायाम, प्रत्याहार आदि का ही वर्णन है। ये सब मन समाधि की ओर ले जाने वाली प्रक्रियाएं हैं, इन सबका लक्ष्य मोक्ष है और सामान्य व्यवहार की भाषा में मोक्ष कहते हैं। संपूर्ण कर्म-चैतन्य के त्याग को,परब्रह्म में अपनी सत्ता के संपूर्ण अस्तित्व का लय कर देने को, केवल पृथक्कारी अहं-चैतन्य के त्याग को नहीं, तब क्या हम यह समझें कि गीता ने यहाँ इसका विधान इस अभिप्राय से किया है कि इसी लय को मुक्ति का चरम उपाय मानकर ग्रहण किया जाये या इस अभिप्राय से कि यह बहिर्मुख मन को वश में करने का केवल एक उपाय या शक्तिशाली साधन मात्र है? क्या यही आखिरी बात, परम वचन या महाकाव्य है? हम इसे दोनों ही मान सकते हैं एक विशोष उपाय, एक विशिष्ट साधन भी और अंततः चरम गति का एक द्वार भी; अवश्य ही इस चरम गति का साधन लय हो जाना नहीं है, बल्कि विश्वातीत सत्ता में ऊपर उठ जाना है। क्योंकि यहाँ इस श्लोक में भी जो कुछ कहा गया है वह आखिरी बात नहीं है; महाकाव्य, आखिरी बात, परम वचन तो इसके बाद के श्लोक में आता है जो इस अध्याय का अंतिम श्लोक है। वह श्लोक है- अर्थात् ‘‘जब मनुष्य मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सब लोकों का महेश्वर, सब प्राणियों का सुहृद जानता है वह शांति को प्राप्त होता है।” यहाँ कर्मयोग की शक्ति ही फिर से आ जाती है; यहाँ इस बात पर आग्रह किया गया है कि ब्रह्मनिर्वाण की शांति के लिये यह आवश्यक है कि जीव को सक्रिय ब्रह्म का, विराट पुरुष का ज्ञान भी हो।


यहाँ गीता के परम प्रतिपाद्य विषय, पुरुषोत्तम की भावना की ओर वापिस आते है। यूं तो यह नाम गीता के उपसंहार के कुछ ही पहले आता है, तथापि गीता में आदि से अंत तक जहां-जहाँ श्रीकृष्ण ‘‘अहं”,‘‘माम्” इत्यादि पदों का प्रयोग करते हैं वहां-वहाँ उनका अभिप्राय उन्हीं भगवान् से है जो हमारी कालातीत अक्षर सत्ता में हमारे एकमेवाद्वितीय आत्मस्वरूप में हैं, जो जगत् में भी अवस्थित हैं, सब भूतों में, सब कर्मों में विद्यमान हैं, जो निश्चल-नीरवता और शांति के अधीश्वर हैं, जो शक्ति और कर्म के स्वामी हैं जो इस महायुद्ध में पार्थसारथीरूप से अवतीर्ण है, जो परात्पर पुरुष हैं। परमात्मा हैं, सर्वमिदं हैं, प्रत्येक जीव के ईश्वर है, वे सब यज्ञों और तपों के भोक्ता हैं, इसलिये मुक्ति-कामी पुरुष सब कर्मों को यज्ञ और तपरूप से करे; वे सर्वलोकमहेश्वर हैं, और इस प्रकृति तथा सब प्राणियों में प्रकट हैं, इसलिये मुक्त पुरुष होने पर भी, लोकसंग्रहार्थ कर्म करें, अर्थात् जगत् में लोगों का समुचित नियंत्रण करे और उन्हें सन्मार्ग दिखावे; ‘वे सबके सुहृद हैं’ इसलिये वही मुनि है जिसने अपने अंदर और अपने चारों ओर, निर्वाण लाभ किया है, फिर भी वह सदा सब भूतों के कल्याण में रत रहता है-जैसे बौद्धों के महायान पंथ में भी निर्वाण का परम लक्षण जगत् के सब प्राणियों के प्रति करुणामय कर्म ही समझा जाता है।


इसलिये अपने कालातीत अक्षर आत्मस्वरूप में भगवान् के साथ एक होने पर भी वह मनुष्य दिव्य प्रेम कर सकता है, क्योंकि उसके अंदर प्रकृति की क्रीड़ा के संबंध भी समाविष्ट है, और साथ ही वह भगवान् की भक्ति भी कर सकता है। छठे अध्याय के आशय की तह में पहुँचने पर यह बात और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि गीता के इन श्लोकों का यही तात्पर्य है। छठे अध्याय में पांचवें अध्याय के इन्हीं अंतिम श्लोकों के भाव का विशदीकरण और पूर्ण विकास किया गया है-और इससे यह पता चलता है कि गीता इन श्लोंको को कितना महत्त्व देती है। इसलिये अब हम इसी छठे अध्याय के सार-मर्म का अति संक्षिप्त रूप से पर्यवेक्षण करेंगें। सबसे पहले भगवान् गुरु अपनी बार-बार दोहरायी गयी संन्यास के मूल तत्त्व की घोषणा पर जोर देते और उस बात को फिर से कहते हैं कि असली संन्यास आंतरिक है, बाह्य नहीं, ‘‘जो कोई कर्मफल का आश्रय किये बिना कर्तव्य कर्म करता है वही संन्यासी है, वही योगी है, वह नहीं जो यज्ञ की अग्नि जलाता न हो और अक्रिय हो। जिसे लोग संन्यास कहते हैं उसे तू योग समझ; क्योंकि जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पो का त्याग नहीं किया वह योगी नहीं हो सकता।” कर्म करने होगें,पर किस उद्देश्य से, किस क्रम से?


पहले योग-पर्वत की चढ़ाई चढ़ते हुए करने होंगे, क्योंकि वहाँ कर्म ‘कारण’ हैं। कारण किसके? आत्मसंसिद्धि के, मुक्ति के, ब्रह्म-निर्वाण के; क्योंकि आंतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ कर्म करने से यह संसिद्धि, यह मुक्ति, वासनात्मक मन, अहंबुद्धि और निम्न प्रकृति पर यह विजय अनायास प्राप्त होती है। पर जब कोई चोटी पर पहुँच जाता है तब? तब कर्म कारण नहीं रह जाते, कर्म के द्वारा प्राप्त आत्मवशित्व और आत्मवत्ता की शांति कारण बन जाती है। लेकिन कारण किस चीज का? आत्मस्वरूप में, ब्रह्म-चैतन्य में स्थित बने रहने और उस पूर्ण समत्व को बनाये रखने का कारण बनती है जिसमें स्थित होकर मुक्त पुरुष दिव्य कर्म करता है। क्योंकि ‘‘जब कोई इन्द्रियों के अर्थों में और कर्मों में आसक्त नहीं होता और मन के सब वासनात्मक संकल्पों को त्याग चुकता है तो उसे योग-शिखर पर आरूढ़ कहते हैं।” हम यह जान चुके हैं कि, मुक्त पुरुष के सब कर्म इसी भाव के साथ होते हैं।


वह कामनारहित, आसक्तिरहित होकर कर्म करता है, उसमें कोई अहंभापन्नन व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती, वासना का जनक मनोत स्वार्थ नहीं होता। उसकी निम्नतर आत्मा उसके वश में होती है, वह उस परा शांति को पहुँचा हुआ होता है जहाँ उसकी परम आत्मा उसके सामने प्रकट रहती है-वह परम आत्मा जो सदा अपनी सत्ता में-‘समाहित’ है, समाधिस्थ है; केवल अपनी चेतना की अंतर्मुखीन अवस्था में ही नहीं, बल्कि सदा ही, मन की जागत् अवस्था में भी, जब वासना और अशांति के कारण मौजूद हों तब भी, शीतोष्ण, सुख-दुःख तथा मानापमानादि द्वन्द्वों के प्रत्यक्ष प्रसंगों में भी शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयो: समाहित रहती है। यह उच्चतर आत्मा कूटस्थ अक्षर पुरुष है जो प्रकृत पुरुष के सब प्रकार के परिवर्तनों और विक्षोभों के ऊपर रहती है; और योगी उसके साथ योगयुक्त तब कहा जाता है जब वह भी उसके समान कूटस्थ हो, जब वह सब प्रकार के बाह्य दृश्यों और परिवर्तनों के ऊपर उठ जाये, जब वह आत्मज्ञान से परितृप्त हो और जब वह पदार्थों, घटनाओं और व्यक्तियों के प्रति समचित्त हो जाये। परंतु इस योग को प्राप्त करना सुगम बात नहीं है, जैसा कि अर्जुन वास्तव में आगे चलकर सूचित करता है, क्योंकि यह चंचल मन सदा ही बाह्य पदार्थों के आक्रमणों के कारण इस उच्च अवस्था से खिंच आता है और फिर से शोक, आवेश और वैषम्य के जोरदार कब्जे में जा गिरता है।


इसीलिये, मालूम होता है कि, गीता में ज्ञान और कर्म की अपनी साधारण पद्धति के साथ-साथ राजयोग की विशिष्ट ध्यान-प्रकिृया भी बतायी गयी है जो एक शक्तिशाली अभ्यास है, मन और उसकी सब वृत्तियों के पूर्ण निरोध का एक बलवान् साधन है। इस प्रक्रिया में बतलाया गया है कि, योग आत्मा से युक्त रहने का सतत अभ्यास करे, ताकि अभ्यास करते-करते यह अवस्था उसकी साधारण चेतना बन जाये। उसे काम-क्रोधादि सब विकारों को मन से निकालकर सबसे अलग किसी एकांत स्थन में जाकर बैठ जाना होगा और अपनी समग्र सत्ता और चेतना पर आत्मवशित्व लाना होगा- ‘‘वह शुचि देश में अपना स्थिर आसन लगावें, आसन न बहुत ऊंचा हो न बहुत नीचा, वह कुशा का हो, उसपर मृग-चर्म और मृग-चर्म के ऊपर वस्त्र बिछा हो और ऐसे आसन पर बैठकर मन को एकाग्र तथा मन और इन्द्रियों की सब वृत्तियों को वश में कर आत्मविशुद्धि के लिये योगाभ्यास करे।”[1]वह ऐसा आसन जमावे कि उसका शरीर अचल और सीधा तना रहे जैसा कि राजयोग के अभ्यास में बताया गया है;।


उसकी दृष्टि एकाग्र हो जाये और भ्मध्य में स्थित रहे, ‘‘दिशओं की ओर दृष्टि न जाये।” मन को स्थिर और निर्भय रखे और ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करे; इस प्रकार संयत समग्र वित्तवृत्ति को भगवान् में ऐसे लगावे कि चैतन्य की निम्नतर क्रिया उच्चतर शांति में निमज्जित हो जाये। क्योंकि इस साधना का लक्ष्य निर्वाण की नीरव निश्चल शांति को प्राप्त होना है। ‘‘इस प्रकार नियत मानस होकर सतत योग में लगा हुआ योगी निर्वाण की उस परम शांति को प्राप्त होता है जिसकी नींव मेरे अंदर है शांतिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।[3]निर्वाण की यह परम शांति तब प्राप्त होती है जब चित्त पूर्णतया संयत और कामनामुक्त होकर आत्मा में स्थित रहता है, जब वह निर्वात स्थान में स्थित दीपशिखा के समान अचल होकर अपने चंचल कर्म करना बंद कर देता है, अपनी बहिर्मुख वृत्तियों से अंदर खिंचा हुआ रहता है और जब मन के निश्चल-नीरव हो जाने के कारण अंतर में आत्मा का दर्शन होने लगता है, मन में आत्मा का विकृत भान नहीं, बल्कि आत्मा में ही आत्मा का साक्षात्कार होता है, मन के द्वारा अयथार्थ या आशिंक रूप में नहीं, अहंकार में से प्रतिभात होने वाले रूप में नहीं, बल्कि स्वप्रकाश रूप में। तब जीव तृप्त होता और अपने वास्तविक परम सुख को अनुभव करता है, वह अशांत सुख नहीं जो मन और इन्द्रियों को प्राप्त है, बल्कि वह आंतरिक और प्रशांत आनद जिसमें मन का कोई विक्षोभ नहीं, जिसमें स्थित होने पर पुरुष अपनी सत्ता के आध्यात्मिक सत्य से कभी च्युत नहीं होता।


मानसिक दुःख का अति प्रचंड आक्रमण भी उसे विचलित नहीं कर सकता-क्योंकि मानसिक दुःख हमारे पास बाहर से आता है, वह बाह्य स्पर्शों की प्रतिक्रियाओं का ही फल होता है-यह उन लोगों का आंतरिक स्वतःसिद्ध आंनद है जो बाह्य स्पर्शों की चंचल मानसिक प्रतिक्रयाओं के दासत्त्व को अब और स्वीकार नहीं करते। यह दुःख के साथ संबंध विच्छेद करना है, मन का उसे तलाक देना है, दु:खसंयोग्वियोगम्‌। इसी अविच्छेद्य आध्यात्मिक आनंद की सुदृढ़ प्राप्ति का नाम योग, अर्थात् भगवान् से ऐक्य है; यही लाभों में सबसे बड़ा लाभ है, यह वह धन है जिसके सामने अन्य सब संपत्तियों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। इसलिये पूर्ण निश्चय के साथ, कठिनाई या विफलता जिस उत्साहहीनता को लाते हैं उसके अधीन हुए बिना, इस योग को तब तक किये जाना चाहिये जब तक मुक्ति न मिले, ब्रह्मनिर्वाण का आनंद सदा के लिये प्राप्त न हो जाये। यहाँ मुख्यतया भावनामय मन, काममूलक मन और इन्द्रियों के निरोध पर ही जोर है, क्योंकि ये बाह्य स्पर्शों को ग्रहण करते और हमारी अभ्यस्त भावावेगमयी प्रतिक्रियाओं के द्वारा उनका प्रत्युत्तर देते हैं; परंतु इसके साथ ही मानसिक विचार को भी स्वतःसिद्ध आत्मसत्ता की शांति में ले जाकर निश्चेष्ट करना होगा।


पहले सब कामनाओं को, जो कामनामूलक संकल्प से उठती हैं, एकदम त्याग देना होगा और मन के द्वारा इन्द्रियों को इतना वश में करना होगा कि वे अपनी हमेशा की अव्यवस्थित और चंचल आदत के कारण चारों ओर दौड़ती न फिरें; परंतु इसके बाद मन को ही बुद्धि से पकड़कर अंतर्मुख करना होगा। निश्चल बुद्धि के द्वारा मानस कर्म करना धीरे-धीरे बंद कर देना होगा और मन को आत्मा में स्थित करके किसी बारे में कुछ भी न सोचना होगा। जब-जब चंचल अस्थिर मन निकल भागे तब-तब उसका नियमन करके उसे पकड़कर आत्मा के अधीन लाना होगा। जब मन पूर्ण रूप से शांत हो जाये तो योगी को ब्रह्मभूत आत्मा का उच्चतम, निष्कलंक, निर्विकार परमानंद प्राप्त होता है। ‘‘इस प्रकार आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास और सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप आत्यंतिक आदंन को प्राप्त होता है।” फिर भी जब तक यह शरीर है तब तक इस अवस्था का फल निर्वाण नहीं है, क्योंकि निर्वाण संसार में कर्म करने की हर एक संभावना को, संसार के प्रणियों के साथ हर एक संबंध को दूर कर देता है। प्रथम दृष्टि में यही जान पड़ता है कि यह स्थिति निर्वाण ही होनी चाहिये। क्योंकि जब सब वासनाएं और सब विकार बंद हो गये, जब मन को विचार करने की इजाजत नहीं रही, जब इसी मौन और ऐकांतिक योग का अभ्यास ही नियम हो गया, तब कर्म करना, बाह्य संस्पर्शोंवाले इस जगत् और अनित्य संसार से किसी प्रकार का संबंध रखना संभव ही कहां?


मानसिक दुःख का अति प्रचंड आक्रमण भी उसे विचलित नहीं कर सकता-क्योंकि मानसिक दुःख हमारे पास बाहर से आता है, वह बाह्य स्पर्शों की प्रतिक्रियाओं का ही फल होता है-यह उन लोगों का आंतरिक स्वतःसिद्ध आंनद है जो बाह्य स्पर्शों की चंचल मानसिक प्रतिक्रयाओं के दासत्त्व को अब और स्वीकार नहीं करते। यह दुःख के साथ संबंध विच्छेद करना है, मन का उसे तलाक देना है, दु:खसंयोग्वियोगम्‌। इसी अविच्छेद्य आध्यात्मिक आनंद की सुदृढ़ प्राप्ति का नाम योग, अर्थात् भगवान् से ऐक्य है; यही लाभों में सबसे बड़ा लाभ है, यह वह धन है जिसके सामने अन्य सब संपत्तियों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। इसलिये पूर्ण निश्चय के साथ, कठिनाई या विफलता जिस उत्साहहीनता को लाते हैं उसके अधीन हुए बिना, इस योग को तब तक किये जाना चाहिये जब तक मुक्ति न मिले, ब्रह्मनिर्वाण का आनंद सदा के लिये प्राप्त न हो जाये। यहाँ मुख्यतया भावनामय मन, काममूलक मन और इन्द्रियों के निरोध पर ही जोर है, क्योंकि ये बाह्य स्पर्शों को ग्रहण करते और हमारी अभ्यस्त भावावेगमयी प्रतिक्रियाओं के द्वारा उनका प्रत्युत्तर देते हैं; परंतु इसके साथ ही मानसिक विचार को भी स्वतःसिद्ध आत्मसत्ता की शांति में ले जाकर निश्चेष्ट करना होगा।


पहले सब कामनाओं को, जो कामनामूलक संकल्प से उठती हैं, एकदम त्याग देना होगा और मन के द्वारा इन्द्रियों को इतना वश में करना होगा कि वे अपनी हमेशा की अव्यवस्थित और चंचल आदत के कारण चारों ओर दौड़ती न फिरें; परंतु इसके बाद मन को ही बुद्धि से पकड़कर अंतर्मुख करना होगा। निश्चल बुद्धि के द्वारा मानस कर्म करना धीरे-धीरे बंद कर देना होगा और मन को आत्मा में स्थित करके किसी बारे में कुछ भी न सोचना होगा। जब-जब चंचल अस्थिर मन निकल भागे तब-तब उसका नियमन करके उसे पकड़कर आत्मा के अधीन लाना होगा। जब मन पूर्ण रूप से शांत हो जाये तो योगी को ब्रह्मभूत आत्मा का उच्चतम, निष्कलंक, निर्विकार परमानंद प्राप्त होता है। ‘‘इस प्रकार आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास और सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप आत्यंतिक आदंन को प्राप्त होता है।” फिर भी जब तक यह शरीर है तब तक इस अवस्था का फल निर्वाण नहीं है, क्योंकि निर्वाण संसार में कर्म करने की हर एक संभावना को, संसार के प्रणियों के साथ हर एक संबंध को दूर कर देता है। प्रथम दृष्टि में यही जान पड़ता है कि यह स्थिति निर्वाण ही होनी चाहिये। क्योंकि जब सब वासनाएं और सब विकार बंद हो गये, जब मन को विचार करने की इजाजत नहीं रही, जब इसी मौन और ऐकांतिक योग का अभ्यास ही नियम हो गया, तब कर्म करना, बाह्य संस्पर्शोंवाले इस जगत् और अनित्य संसार से किसी प्रकार का संबंध रखना संभव ही कहां?


‘‘जिस पुरुष की आत्मा योगयुक्त है वह आत्मा को सब भूतों में देखता और सब भूतों को आत्मा में देखता है, वह सर्वत्र समदर्शी होता है।” वह जो कुछ देखता है वह उसके लिये आत्मा है, सब कुछ उसकी आत्मा है, सब भगवान् है। परंतु यदि वह क्षर की क्षरता में रहे तो क्या यह खतरा नहीं है कि वह इस कठिन योग के समस्त फलों को खो दे, आत्मा को खो दे और फिर से मन के अंदर जा गिरे, भगवान् उसको खो दे और वह जगत् का हो जाये, वह भगवान् वह भगवान् को खो दे और उनकी जगह फिर से अहंकार को तथा निम्न प्रकृतिति को पावे? गीता उत्तर देती है कि नहीं, “जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अंदर देखता है वह मेरे लिये नहीं खोता और न मैं उसके लिये खो जाता हूँ।”[2] क्योंकि निर्वाण की यह परम शांति यद्यपि अक्षर से प्राप्त होती है, पर है पुरुषोत्तम की सत्ता पर ही प्रतिष्ठित, मत्संस्थाम्, और यह सत्ता व्यापक है; भगवान्, ब्रह्म, प्राणियों के इस जगत् मैं भी पर्याप्त हैं और यद्यपि वे इस जगत् के अतीत हैं, किंतु वे अपनी अतीतावस्था से बंधे नहीं हैं।


मनुष्य को सब कुछ भगवद्रूप देखना होगा और इसी साक्षात्कार में निवास करना होगा और इसी भाव के साथ कर्म करना होगा; यही योग का परम फल है। पर कर्म क्यों करें? क्या यह अधिक निरापद नहीं है कि हम स्वयं एकांत में बैठकर इच्छा हो तो जगत् की ओर एक निगाह देख लें, उसे ब्रह्म में, भगवान् में देखें पर उसमें कोई भाग न लें, उसमें चलें-फिरें नहीं, उसमें रहें नहीं, उसमें कर्म न करें और साधारणतया अपनी आंतरिक समाधि में ही रहें? इस उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था का क्या यही धर्म, यही विधान, यही नियम नहीं होना चाहिये ? गीता फिर कहती है कि नहीं, मुक्त योगी के लिये एकमात्र धर्म, एकमात्र विधान, एकमात्र नियम तो बस यही है कि वह भगवान् में रहे, भगवान् से प्रेम करे और सब प्राणियों के साथ एक हो जाये; उसका जो स्वातंत्र्य है वह निरपेक्ष है, किसी दूसरे पर आश्रित नहीं, वह स्वतः सिद्ध है, किसी आचार, धर्म या मर्यादा से बंधा नहीं। योग की किसी साधना से अब उसका प्रयोजन नहीं, क्योंकि अब वह सतत योग में प्रतिष्ठित है। भगवान् कहते हैं, “जो योगी एकत्व में स्थित है और सब भूतों में मुझको भजता है, वह चाहे जैसे और सब प्रकार से रहता और कर्म करता हुआ भी मुझमें ही रहता है और कम करता है।”


संसार-प्रेम तब आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तित होकर इन्द्रियानुभाव से आत्मानुभव हो जाता है और वह ईश्वर-प्रेम की नींव पर प्रतिष्ठित रहता है और तब उस प्रेम में कोई भय, कोई देाष नहीं होता। निम्न प्रकृति से पीछे हटने के लिये संसार से भय और जुगुप्सा प्रायः आवश्यक हो सकते हैं, क्योंकि वास्तव में यह हमारा अपने अहंकार से भीत और जुगुप्सित होना है और अपने को जगत् में प्रतिबिंबित करना है। परंतु ईश्वर को जगत् में देखना निर्भय होना है, यह सब कुछ का ईश्वर की सत्ता में आलिंगन करना है; सब कुछ भगवद्रूप में देखने का अर्थ है किसी पदार्थ को नापसंद न करना या किसी से घृणा न करना, बल्कि जगत् में भगवान् से और भगवान् में जगत् से प्रेम करना। परंतु कम-से-कम निम्न प्रकृति के उन विषयों का तो परिहार करना और उनसे डरना ही होगा जिनसे ऊपर उठने के लिये योगी ने इतनी कड़ी साधना की थी? नहीं, यह भी नहीं; आत्मदर्शन की समता में सब कुछ का आलिंगन किया जाता है। भगवान् कहते हैं, ‘‘हे अर्जुन, जो कोई सब कुछ को आत्मा की तरह समभाव से देखता है चाहे वह दुःख हो या सुख, उसे मैं परम योगी मानता हूँ।” और, इससे यह अभिप्रेत नहीं है कि स्वयं योगी दूसरों के दुःख में ही क्यों न हो, अपने दुःखरहित आत्मानंद से गिर जायेगा और फिर से सांसारिक दुःख अनुभव करेगा, बल्कि यह कि दूसरों में उन द्वन्द्वों के खेल को देखकर, जिन्हें छोड़कर वह स्वयं ऊपर उठ चुका है।


वह सब कुछ आत्मवत् और सबमें अपनी आत्मा को, सबमें ईश्वर को देखेगा और इन चीजों के बाह्य रूपों या मुग्ध होकर केवल करुणा से उनकी मदद करने, उनका दुःख दूर करने, सब प्राणियों के कल्याण में अपने-आपको लगाने में, लोगों को आध्यात्मिक आनंद की ओर जाने में, जगत् को भगवान् की ओर अग्रसर करने के काम में प्रवृत्त होकर जितने दिन उसे इस जगत् में रहना है उतने दिन अपने जीवन को दिव्य जीवन बनाकर रहेगा। जो भगवतप्रेमी ऐसा कर सकता है, इस प्रकार सब कुछ का भगवान् के अदंर आलिंगन कर सकता है, निम्न प्रकृति और त्रिगुणात्मिका माया के सब कर्मों की ओर स्थिर होकर देख सकता और, बिना क्षुब्ध हुए तथा आध्यात्मिक ऐक्य की उचांई से मुग्ध या च्युत हुए बिना, भगवान् की अपनी दृष्टि की विशालता में स्वतंत्र भाव से रहते हुए, भागवत प्रकृति की शक्ति से मधुर, महान् और प्रकाशमय होकर उन कर्मों के अंदर और उन कर्मों पर क्रिया कर सकता है, उसको निःसंकोच परम योगी कहा जा सकता है। यथार्थ में उसीने सृष्टि को जीता है। गीता ने सर्वत्र वैसे ही यहाँ भी भक्ति को योग की पराकाष्ठा कहा है सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:। ”गीता की शिक्षा का यही संपूर्ण सार-सर्वस्व कहा जा सकता है-जो सबमें स्थित भगवान् से प्रेम करता है।


और जिसकी आत्मा भगवदैक्यभाव में प्रतिष्ठित है, वह चाहे कैसे भी रहता और कर्म करता हो, भगवान् में ही रहता और कर्म करता है। और, जब अर्जुन ने प्रश्न किया कि ऐसा कठिन काम, योग, मनुष्य के चंचल मन के लिये कैसे संभव हो सकता है तब भगवान् गुरु उसी बात पर विशेष जोर देने के लिये उसीका प्रसंग फिर से चलाते हैं और अंत में यही कहते हैं, ‘‘योगी तपस्वी से श्रेष्ठ है, ज्ञानी से श्रेष्ठ है; कर्मी से श्रेष्ठ है; इसलिये हे अर्जुन, तू योगी बन।” योगी वह है जो कर्म से, ज्ञान से, तप से अथवा चाहे जिस तरह से हो केवल आत्मज्ञान के लिये आत्मज्ञान, केवल शक्ति के लिये शक्ति या केवल किसी चीज के लिये कोई चीज नहीं चाहता, बल्कि केवल भगवान् के साथ ऐक्य ही ढूंढता और पाता है;।


उसी ऐक्य में सब कुछ आ जाता है तथा सब कुछ अपने रूप से ऊपर उठकर परम भागवत अर्थ को प्राप्त हो जाता है। परंतु योगियों में भक्त ही सबसे श्रेष्ठ होता है। ‘‘सब योगियों में वह योगी जो अपनी अंतरात्मा को मुझे सौंप देता है और श्रद्धा तथा प्रीति से मेरा भजन करता है, उसे मैं अपने साथ योग में सबसे अधिक युक्त समझता हूँ। ”गीता के प्रथम षट्क का यही अंतिम वचन है और इसीमें बाकी जो कुछ अभी नहीं कहा गया है और जो कहीं भी पूर्णतया नहीं कहा गया है उसका बीज मौजूद है। वह सदा कुछ-कुछ रहस्यमय और गुह्य ही रहता है-परम अध्यात्मिक रहस्य, भगवत रहस्य।


गीता के प्रथम छः अध्याय एक प्रकार से गीता की शिक्षा का प्रारंम्भिक खंड हैं। बाकी बारह अध्यायों में इस प्रथम षट्क में जो संकेत रूप से, अधूरे तौर पर कहा गया है उसीको विशद किया गया है, ये संकेत अपने-आपमें इतने अधिक महत्त्वपूर्ण हैं कि इनका खुलासा बाकी के दो षटकों में करना पड़ा है। गीता यदि एक ऐसा लिखित शास्त्र होती जिसे संपूर्ण करना आवश्यक होता, यदि यह ग्रंथ वास्तव में किसी शिष्य को दिया हुआ किसी ऐहिक गुरु का उपदेश होता, उपदेश को, शिष्य जब आगे के सत्य को ग्रहण करने के लिये तैयार हो जाये तब, यथासमय फिर से आरंभ किया जा सकता, तो यह धारणा बांधी जा सकती थी कि इस छठे अध्याय के अंत में गुरु रुक जाते और शिष्य से कहते, ‘‘पहले इसे अपने आचरण में ले आ, यहाँ तक जो कुछ कहा गया है। उसे अनुभव करने के लिये तुझे अभी बहुत कुछ करना है और तुझे इसके लिये अत्यंत विशाल आधार-क्षेत्र दे दिया गया है, आगे जैसे-जैसे कठिनाइयां उत्पन्न होंगी वे आप ही हल होती जायेंगी या में उन्हें तेरे लिये हल कर दूंगा। अभी तो मैंने जो कुछ कहा है इसीको अपने जीवन में ले आ; इसी भाव में स्थित होकर कर्म कर।” वास्तव में इसमें बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिन्हें आगे चलकर डाले गये प्रकाश की सहायता के बिना ठीक तरह नहीं समझा जा सकता। प्रथम षट्क में ही उपस्थित होने वाली कुछ शंकाओं का समाधान करने के लिये तथा संभावित भ्रमों को दूर करने के लिये, स्वयं मुझे भी बहुत-सी बातें पहले ही कह देनी पड़ी हैं, उदाहरणार्थ, पुरुषोत्तम-तत्त्व की भावना को पहले ही बार-बार कहना पड़ा है, क्योंकि इसके बिना आत्मा और कर्म और कर्म के अधीश्वर भगवान् के बारे में जो कुछ अस्पष्टता है वह दूर नहीं हो सकती। गीता ने इन बातों को जान-बूझकर ही प्रथम षट्क में विशद इसलिये नहीं किया है कि जो बातें मानव-शिष्य की वर्तमान बुद्धि के लिये बहुत बड़ी हैं उन्हें उसकी अपरिपक्व दशा में पहले ही कह देना उसकी प्राथमिक साधना की दृढता को विचलित कर सकता है।


गुरु यदि अपना उपदेश यहीं समाप्त कर देते तो स्वयं अर्जुन यह आपत्ति कर सकता था कि ‘आपने कामना और आसक्ति का नाश, समत्व, इन्द्रियों का दमन और मन का शमन, निष्काम निरहंकार कर्म, कर्म का यज्ञ-रूप से उत्सर्ग, बाह्य संन्यास से आंतर संन्यास का श्रेष्ठतव, इन सबके बारे में बहुत कुछ कहा, मैं इन सब बातों को विचार से तो समझता हूं, चाहे इन्हें आचरण में लाना कितना ही कठिन मालूम होता हो; परंतु आपने कर्म करते हुए गुणों से ऊपर उठने की बात भी कही है, और यह नहीं बताया कि गुण कैसे कार्य करते हैं, और जब तक मैं यह न जान लूं, तब तक गुणों का पता लगाना और उनसे ऊपर उठना मेरे लिये कठिन होगा। इसके अतिरिक्त आपने यह भी कहा है कि योग कैसे सबसे प्रधान अंग भक्ति है, फिर भी आपने कर्म और ज्ञान के बारे में तो बहुत कुछ कहा है, पर भक्ति के बारे में प्रायः कुछ भी नहीं कहा। और, फिर यह भक्ति, जो सबसे बड़ी चीज है, किसे अर्पण की जायेगी? अवश्य ही शांत निर्गुण ब्रह्म को नहीं बल्कि आपको, ईश्वर को। इसलिये अब आप मुझे यह बताइये कि आप क्या हैं, कौंन हैं, क्योंकि जैसे भक्ति आत्मज्ञान से भी बड़ी चीज है वैसे ही आप उस अक्षर ब्रह्म से बड़े हैं जो क्षर प्रकृति और कर्ममय संसार से उसी तरह बड़ा है जैसे ज्ञान कर्म से बड़ा है। इन तीनों वस्तुओं में परस्पर क्या संबंध है? कर्म, ज्ञान और भगवद्भक्ति में परस्पर क्या संबंध है? प्रकृतिस्थ पुरुष, अक्षर पुरुष और वह जो सबका अव्यय आत्मा होने के साथ-साथ समस्त ज्ञान, भक्ति और कर्म का प्रभु, परमेश्वर है, जो यहाँ इस महायुद्ध और भीषण रक्तपात में मेरे साथ है, इस घोर भयानक कर्म के रथ में मेरा सारथी है इन तीनों में परस्पर क्या संबंध है?” इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने के लिये गीता के शेष अध्याय लिखे गये हैं और विचार द्वारा पूर्ण मीमांसा प्रस्तुत करते समय इनका विचार और समाधान तुरंत करना जरूरी है। वास्तविक साधन क्षेत्र में क्रमशः आगे बढ़ना होता है और बहुत-सी बातों को, याहं तक कि बड़ी-बड़ी बातों को भी समय आने पर अपने-आप उठने और आध्यात्मिक अनुभव से आप ही सुलझने के लिये छोड़ रखना पड़ता है। एक हदतक गीता ने अनुभव की इस वर्तुल गति का अनुसरण किया है और पहले कर्म और ज्ञान की एक विशाल प्राथमिक भित्ति का निर्माण कर उसमें एक ऐसी चीज रख दी है जो भक्ति तक और महत्तर ज्ञान की ओर ले जाती है, पर अभी वहांतक पहुँची नहीं है। प्रथम छः अध्याय हमें इसी भित्ति पर ला छोड़ते हैं। अब हम जरा रुककर इस बात पर विचार करें कि जिस मूल प्रश्न को लेकर गीता का उपक्रम हुआ, उसका समाधन इन अध्यायों में कहाँ तक हुआ है। यहाँ फिर यह कह देना अच्छा रहेगा कि स्वयं उस प्रश्न में कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके लिये संपूर्ण विश्व के स्वरूप का और सामान्य जीवन के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन की प्रतिष्ठा का विचार आवश्यक होता। 


उपस्थित प्रश्न का विचार व्यावहारिक या नैतिक रूप से या बौद्धिक दृष्टि से अथवा आदर्शवाद की दृष्टि से या इन सब दृष्टियों से एक साथ ही किया जा सकता था; और यह वस्तुतः कठिनाई को हल करने की आधुनिक पद्धति होती। यहाँ यह अपने-आपमें सबसे पहले यही सवाल उपस्थित करता है कि अर्जुन किसी विधान के द्वारा अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्द्धारण करे? क्या वह इस नैतिक भावना के अनुसार चले और समझे कि जन-संहार तो पाप है अथवा सार्वजनिक और सामाजिक कर्तव्य की वैसी ही नैतिक भावना के अनुसार चले और न्याय की रक्षा करे जैसा कि सभी महान् स्वभाव वाले मनुष्यों से उनकी विवेक-बुद्धि आशा रखती है, अर्थात् अन्याय और अत्याचार का पक्ष लेने वाली सशस्त्र शक्तियों का विरोध करे? यही प्रश्न इस समय, इस घड़ी हमारे सामने भी उठा है और इसका समाधान हम अनेकानेक प्रकार से कर सकते हैं, और कर ही रहे हैं, किंतु ये सब समाधान हमारे साधारण जीवन और हमारे साधारण मानव मन के दृष्टि-बिन्दु से ही होंगे।


समाधान करते समय प्रश्न का यह रूप हो सकता है कि क्या यह विवेक-बुद्धि और समाज तथा राज्य के प्रति अपने कर्तव्य के बीच, स्थित आदर्श तथा व्यावहारिक नीति के बीच चुनाव का प्रश्न है; क्या हम आत्मबल पर विश्वास करें या इस कड़वी बात को मानें कि जीवन अभी संपूर्ण आत्मरूप नहीं हुआ है और न्याय का पक्ष लेकर भौतिक संघर्ष में अस्त्र धारण करना कभी-कभी अनिवार्य हो जाता है? जो भी हो, ये सब समाधान अपनी-अपनी बुद्धि, स्वभाव और हृदय के अनुरूप होंगें ये हमारे वैयक्तिक दृष्टिकोण पर निर्भर होंगे और इनका अधिक-से-अधिक यही लाभ होगा कि हम अपने ही तरीके से अपने सामने आयी हुई कठिनाई का मुकाबला करें, अपने ही तरीके से इसलिये कि ये हमारे स्वभाव के तथा हमारे नैतिक और बौद्धिक विकास की अवस्था के, हमें जो प्रकाश अभी प्राप्त हैं उसे हम अच्छे-से-अच्छे रूप में जो कुछ देख सकते और कर सकते हैं उसके अनुरूप होंगे; पर इससे अंतिम समाधान नहीं होगा।


इसका कारण यह है कि यह सब हमारे साधारण मन का ही समाधन होगा, उस मन का जो हमारी सत्ता की विविध वृत्तियों का गोरखधंधा है और जो इन विविध वृत्तियों मे से किसी-किसी को चुन लेता या उन सबको मिला-जुलाकर अपना काम चला भी लेता है; यह हमारी युक्ति, हमारी नैतिक सत्ता, हमारी सक्रिय प्रकृति की आवश्यकताओं, हमारी सहज प्राणवृत्तियों, हमारी भावावेगमयी सत्ता और उन विरली वृत्तियों में भी, जिन्हें हम अंतरात्मा की सहज-स्फुरणा या हृत्पुरुष की अभिरुचि कह सकते हैं, कामचलाऊ मेल बैठा सकता है। गीता की यह मान्यता है कि इस तरह से कोई परम निरपेक्ष समाधन नहीं, बल्कि तात्कालिक, व्यावहारिक समाधान ही हो सकता है।


अर्जुन के सामने उस काल के उच्चतम आदर्श के अनुसार ऐसा ही एक व्यावहारिक समाधान पेश किया गया, पर उसकी चित्त-वृत्ति उसे स्वीकार करने के अनुकूल नहीं थी और वास्तव में भगवान् भी नहीं चाहते थे कि वह उसे स्वीकार कर ले। अतः गीता इस प्रश्न का समाधान बिलकुल दूसरे ही दृष्टिकोण से करती है और इसका बिलकुल दूसरा ही हल निकालती है। गीता का समाधान यही है कि अपनी प्राकृत सत्ता और साधारण मनोभाव से उपर, अपने बौद्धिक और नैतिक भ्रमजालों के उपर उस चिद्भाव में उठो जहाँ का जीवन-विधान कुछ और ही है और इसलिये वहाँ कर्म का विचार भी एक और ही दृष्टि से किया जाता है; वहाँ कर्म के चालक वैयक्तिक कामना और भावावेग नहीं होते; द्वन्द्व दूर हो जाते हैं; कर्म हमारे अपने नहीं रह जाते; और इसलिये हम वैयक्तिक पाप और पुण्य को अतिक्रम कर जाते हैं। वहाँ विराट् नैव्र्यक्तिक भागवत सत्ता हमारे द्वारा जगत् में अपने हेतु को क्रियान्वित करती है; हम स्वयं एक दिव्य नवजन्म के द्वारा उसी सत् के सत्, उसी चित् के चित्, उसी आनंद के आनंद हो जाते हैं और तब हम अपनी इस निम्न प्रकृति में नहीं रहते, हमारे लिये कोई अपना कर्म नहीं रहता, कोई अपना वैयक्तिक हेतु नहीं रह जाता और यदि हम कर्म करते ही हैं- और यही तो एकमात्र वास्तविक समस्या और कठिनाई रह जाती है-तो वह केवल भागवत कर्म होता है।


जिसमें बाह्य प्रकृति कर्म का कारण या प्रेरक नहीं, केवल एक अबाध शांत उपकरण मात्र होती है, क्योंकि प्रेरक-शक्ति तो हमारे कर्मों के अधीश्वर की इच्छा में हमारे उपर रहती है। गीता ने इसीको सच्चे समाधान के रूप में सामने रखा है, क्योंकि यह हमें सत्ता के वास्तविक सत्य में ले जाता है और अपनी सत्ता के वास्तविक सत्य के अनुसार जीना ही स्पष्टतया जीवन के प्रश्नों का संपूर्णतः सर्वोत्कृष्ट और एकमात्र सत्य-समाधन है। हमारा मनोमय और प्राणमय व्यक्तित्व हमारे प्राकृत जीवन का सत्य है, पर यह सत्य अज्ञानगत सत्य है और जो कुछ उससे संबद्ध है वह उसी कोटि का सत्य है जो अज्ञानगत कर्मों के लिये व्यवहारतः मान्य है, पर जब हम अपनी सत्ता के यथार्थ सत्य में लौट आते हैं तब यह सत्य मान्य नहीं रहता। परंतु हमें इस बात का पूर्ण निश्चय कैसे हो कि यही सत्य है? पूर्ण निश्चय तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अपने मन के सामान्य अनुभवों से ही संतुष्ट हैं; कारण हमारे सामान्य मानस अनुभव सर्वथा निम्न प्रकृति के हैं जो अज्ञान से भरी पड़ी हैं। हम उस महत् सत्य को उसमें निवास करके अर्थात् योग के द्वारा मन-बुद्धि को पार करके आध्यात्मिक अनुभव में पहुँचने पर ही जान सकते हैं। कारण, आध्यात्मिक अनुभूति के बाह्य में तब तक निवास करना जब तक कि हम मानसभाव से छूटकर आत्मभाव में प्रतिष्ठित न हो जायें, तब तक अपनी वर्तमान प्रकृति के दोषों से मुक्त होकर अपनी यथार्थ और भागवत सत्ता में पूर्ण रूप से रहने न लग जायें, वह अंतिम भाव है जिसे हम योग कहते हैं।


हमारी सत्ता के केन्द्र का इस तरह ऊर्ध्व में उठना और परिणामतः संपूर्ण जीवन तथा चेतना का रूपांतरित होना और फल-स्वरूप कर्म के बाह्य रूपों के बहुधा वैसे ही बने रहने पर भी उसके सारे आंतरिक भाव और हेतु का परिवर्तित हो जाना ही गीता के कर्मयोग का सारतत्त्व है। अपनी सत्ता को रूपांतरित करो, आत्मस्वरूप में नया जन्म लो और उसी नवीन जन्म से उस कर्म में लगो जिसके लिये तुम्हारी अंतःस्थित आत्मा ने तुम्हें नियुक्त किया है, यही गीता के संदेश का मर्म कहा जा सकता है। अथवा दूसरी तरह से, अधिक गौर और अधिक आध्यात्मिक आशय के स्थान यूं कहें कि, जो कर्म तुम्हें यहाँ करना पड़ता है उसे अपने आंतर आध्यात्मिक नवजन्म का साधन बना लो, अपने दिव्य जन्म का साधना बना लो, और फिर दिव्य होकर, भगवान् के उपकरण बनकर लोकसंग्रह के लिये दिव्य कर्म करो। यहाँ दो बातें हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से सामने रखना और समझना होगा, एक है इस परिवर्तन का मार्ग, अपनी सत्ता के केन्द्र को ऊर्ध्व में उठा ले जाने का मार्ग, यह दिव्य जन्म-ग्रहण, और दूसरी बात है कर्म के बाह्य रूप का कोई महत्त्व नहीं और उसे बदलना जरूरी नहीं, यद्यपि उसके हेतु और परिधि बिलकुल बदल जायेंगे।


परंतु ये दोनों बातें कार्यतः एक ही हैं क्योंकि एक को समझने से दूसरी समझ में आ ही जाती है। हमारे कर्म के भाव का उदय हमारी सत्ता के स्वभाव तथा उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा से होता है; परंतु स्वयं यह स्वभाव भी हमारे कर्म की धारा और उसके आध्यात्मिक प्रभाव से प्रभावित होता है; कर्म के भाव में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारी सत्ता के स्वभाव में और उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा में परिर्तन लाता है; यह सचेतन शक्ति उस केन्द्र को बदल देता है जिससे हम कर्म करते हैं। यदि जीवन और कर्म केवल मिथ्या-माया होते, जैसा कि कुछ लोग कहा करते हैं, यदि आत्मा का कर्म या जीवन के साथ कोई सरोकार न होता तो यह बात न होती; पर हमारे अंदर जो देही जीव है वह जीवन और कर्मों से अपने-आपको विकसित किया करता है और स्वयं कर्म तो उतना नहीं, पर जीव की कर्म करने की अतःशक्ति की क्रिया का रूप ही उसकी आत्मसत्ता के साथ उसका संबंध निर्धारित किया करता है। यही आत्मज्ञान के व्यावहारिक साधन-स्वरूप कर्मयोग की सार्थकता है।


हम इस आधार को मानकर चलते हैं कि मनुष्य की वर्तमान आंतर जीवन जो लगभग पूरी तरह उसकी प्राण-प्रकृति और शरीर-प्रकृति पर निर्भर है और मानसी शक्ति की मर्यादित क्रीड़ा के सहारे कुछ ही ऊपर उठ रहता है, उसका संपूर्ण संभाव्य जीवन नहीं है, न यह उसके वर्तमान वास्तविक जीवन का ही सब कुछ है। उसके अंदर एक आत्मा छिपी हुई है और उसकी वर्तमान प्रकृति या तो उस आत्मा का केवल बाह्य रूप है या उसकी कर्म-शक्ति का एक आंशिक फल। गीता में सर्वत्र इस कर्म शक्ति की वास्तविकता की बात स्वीकृत है, कहीं भी ऐसा नहीं मालूम होता कि उसने चरमपंथी वेदांतियों का यह कठोर मत स्वीकार किया हो कि यह सत्ता केवल प्रतिभासिक है, यह मत तो सारे कर्म और क्रिया-शक्ति की जड़़ पर ही कुठारघात करता है। गीता ने अपनी दार्शनिक विवेचना में इस पहलू को जिस रूप में सामने रखा है ( यह दूसरे रूप में भी रखा जा सकता था) वह यही है कि उसने सांख्यों का प्रकृति-पुरुषभेद मान लिया है-पुरुष अर्थात् वह ज्ञान-शक्ति जो जानती,धारण करती और पदार्थ मात्र को अनुप्रमाणित करती है और प्रकृति अर्थात् वह क्रिया शक्ति जो कर्म करती और नानाविध उपकरणों, माध्यमों और प्रक्रियाओं को जुटाती रहती है।


फर्क इतना ही है कि गीता ने सांख्यों के मुक्त अक्षर पुरुष को ग्रहण तो किया है किंतु उसे वेदांत की भाषा में ‘एक’ अक्षर सर्वव्यापक आत्मा या ब्रह्म कहा है, और दूसरे प्रकृतिबद्ध पुरुष से उसका पार्थक्य दिखाया है। यह प्रकृति बद्ध पुरुष ही हमारा क्षर कर्मशील पुरुष है, यही भोगपुरुष है जो समस्त वस्तुओं में है और जो विभिन्नता और व्यक्तित्व का आधार है। परंतु तब प्रकृति का कर्म क्या है? यह प्रक्रिया-शक्ति है, इसीका नाम प्रकृति है और यह तीनों गुणों की एक-दूसरे पर क्रिया-रूप क्रीड़ा है। और, माध्यम क्या है? यह प्रकृति के उपकरणों के क्रम-विकास से सृष्ट जीवन की जटिल प्रणाली है और जैसे-जैसे ये उपकरण प्रकृति की क्रिया में जीव की अनुभूति के अंदर प्रतिभासित होते हैं वैसे-वैसे हम इन्हें यथाक्रम बुद्धि, अहंकार, मन, इंन्द्रियां और पंचमहाभूत कह सकते हैं, और ये पंचमहाभूत ही प्रकृति के रूपों के आधार हैं। ये सब यांत्रिक हैं, ये प्रकृति का एक ऐसा यंत्र हैं जिसके अनेकों कल-पुर्जे हैं और आधुनिक दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि ये सब-के-सब जड़ प्राकृतिक शक्ति में समाये हुए हैं और प्रकृतिस्थ जीवन जैसे-जैसे प्रत्येक यंत्र के ऊर्ध्वागामी विकास के द्वारा अपने-आपको जानता है वैसे-वैसे ये प्रकृति में प्रकट होते हैं, किंतु जिस क्रम से हम इन्हें ऊपर गिना आये हैं, उससे इनके प्रकटीकरण का क्रम उलटा होता है,


अर्थात् पहले जड़ सृष्टि प्रकट होती है, तब इन्द्रिय-समूह, उसके बाद क्रम से मन और बुद्धि और अंत में आत्म चैतन्य। बुद्धि जो पहले प्रकृति के कार्यों में ही लगी रहती है, पीछे इन कार्यों के यथार्थ स्वरूप को जान सकती है, यह देख सकती है कि यह केवल त्रिगुण का खेल है जिसमें जीव फंसा हुआ है वह जीव को तथा त्रिगुण के इन कार्यों को अलग-अलग देख सकती है; और ऐसा होने पर जीव को यह मौका मिलता है कि वह इस बंधन से अपने-आपको छुड़ा ले और अपने मूल मुक्त स्वरूप और अक्षर सत्ता में लौट आये। तब वेदांत की परिभाषा में जीव आत्मा को, सत्ता को देखता है; प्रकृति के उपकरणों और कार्यों से, उसके भूतभाव से अपना तादात्म्य बंद कर देता है; अपनी सदात्मा के साथ, अपने सत्स्वरूप के साथ तादात्म होता और अपनी स्वतःसिद्ध अक्षर आत्मसत्ता को फिर से पा लेता है। गीता के अनुसार इसी आत्मस्थिति से वह मुक्त भाव से तथा अपनी सत्ता के ईश्वर से अपने भूतभाव के कर्म का आश्रय बन सकता है।


केवल उन मनोवैज्ञानिक तत्त्वों को देखते हुए, जिनपर ये दार्शनिक प्रभेद प्रतिष्ठित हैं- और दर्शन शास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जो जीवन के मनोवैज्ञानिक तथा भौतिक तथ्यों के तथा परम सद्वस्तु के साथ इनका क्या संबंध है इसके सारमर्म को हमें बौद्धिक रूप में दिखा देता है-हम यह कह सकते हैं कि हम दो तरह के जीवन बिता सकते हैं, एक है अपनी सक्रिय प्रकृति कार्यों में लीन जीव का जीवन, जिसमें जीव अपने आंतरिक और बाह्य उपकरणों के साथ तदाकार, उनसे परिच्छिन्न, अपने व्यक्तित्व से बंधा, प्रकृति के अधीन होता है; और दूसरा है आत्मा का जीवन जो इन सब चीजों से श्रेष्ठ, विशाल, नैर्व्यक्तिक, विश्वव्यापी, मुक्त, अपरिच्छिन्न, अतिवर्ती है और अपने असीम समत्व से अपनी प्राकृत सत्ता और कर्म को धारण करता पर अपनी मुक्त स्थिति और अनंत सत्ता से इनके परे रहता है। हम चाहें तो अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता में या अपनी महत्तर आत्मसत्ता में रह सकते हैं। यही वह पहला महान प्रभेद है जिसपर गीता का कर्मयोग प्रतिष्ठित है। इसलिये अब सारा प्रश्न और उपाय यही है कि अतंरात्मा को अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता की परिच्छिन्नताओं से मुक्त किया जाये। हमारे प्राकृत जीवन में सर्वप्रधान बात है हमारे जड़ प्रकृति के रूपों में, पदार्थों के बाह्य स्पर्शों के अधीन होना। ये रूप, ये स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा हमारे प्राण के सामने आते हैं और प्राण तुरंत इन्द्रियों के द्वारा इन्हें पकड़ने के लिये दौड़ पड़ता और इनसे संबंध जोड़ता है, इनकी कामना करता, इनसे आसक्त होता और फल की इच्छा करता है। मन में होने वाली सब सुख-दुःख-वेदनाएं, उसकी सब प्रतिक्रियाएं और तरंगें, उसके ग्रहण चिंतन और अनुभव के अभ्यस्त तरीके सभी इन्द्रियों के कम का ही अनुगमन करते हैं; बुद्धि भी मन के प्रभाव में आकर अपने-आपको इन्द्रियों के इस जीवन को सौंप देती है।


जिस जीवन में आंतर सत्ता वस्तुओं के बाह्य रूपों मे ही फंसी रहती है और एक क्षण के लिये भी उनसे ऊपर नहीं उठ सकती, वह हमारे ऊपर होने वाले प्रकृति के संपूर्ण कार्य को अन्यान्य मनों, इच्छाओं और शरीरों पर होने वाले कार्यों से पृथक् बोध करती है; और हमारे लिये हमारा जीवन उतना-सा ही रह जाता है जितना हमारे अहंकार पर प्रकृति का असर पड़ता और हमारा अहंकार उसके स्पर्शों का प्रत्युत्तर देता है, इसके सिवाय हम और कुछ नहीं जानते, हमें लगता है कि हम और कुछ हैं ही नहीं। और ऐसा लगता है मानो आत्मा भी मन, इच्छा, भवावेगमय और स्नायवीय प्रतिग्रह और प्रतिक्रिया का ही कोई पृथक् स्तूप है। हम अपने अहंकार को विशाल बना सकते हैं, अपने-आपको कुल, जाति, वर्ग देश, राष्ट, मनुष्यजाति तक के साथ एक कर सकते है; परंतु फिर भी इन सब छभ्दारूपों में अहंकार ही हमारे सब कर्मों की जड़ बना रहता है, केवल बाह्य पदार्थों के साथ अपने इन उदार व्यवहारों से उसे अपनी पृथक् सत्ता का एक विशेष संतोष प्राप्त होता है। इस अवस्था में भी हमारे अंदर प्राकृत सत्ता की इच्छा ही काम करती है जो अपने व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों को तृप्त करने के लिये ही बाह्य जगत् के स्पर्शों को ग्रहण करती है, और इस प्रकार विषयों को ग्रहण करने वाला संकल्प सदा ही कर्म और कर्मफल के प्रति कामना, आवेश और आसक्तिमय होता है;।


यह हमारी प्रकृति की ही इच्छा होती है; इसे हम अपनी इच्छा कहते हैं, पर हमारा अहंभावापन्न व्यक्तित्व तो प्रकृति की ही एक रचना है, यह हमारी मुक्त आत्मा, हमारी स्वाधीन सत्ता नहीं है और न हो सकता है। यह सारा प्रकृति के गुणों का कर्म है। यह कर्म तामसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व जड़त्व, वस्तुओं की यांत्रिक धारा के वशवर्ती और उसीसे संतुष्ट, किसी अधिक स्वाधीन कर्म और प्रभुत्व का कोई प्रबल प्रयास करने में सर्वथ आसमर्थ होता है। अथवा यह कर्म राजसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व अशांत और कर्मप्रवण होता है, जो अपने-आपको प्रकृति पर लादना और उससे अपनी आवश्यकताएं और इच्छाएं पूरी करना चाहता है, पर यह नहीं देख पाता कि उसका यह प्रभुत्वाभास भी एक दासत्त्व ही है, क्योंकि उसकी आवश्यकताएं और इच्छाएं वे ही हैं जो प्रकृति की आवश्यकताएं और इच्छाएं हैं, और जब तक हम उनके वश में हैं तब तक हमें मुक्ति नहीं मिल सकती। अथवा यह कर्म सात्त्विक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व प्रबुद्ध होता है, जो बुद्धि के द्वारा अपना जीवन बिताने और किसी शुभ, सत्य या सुन्दर के ईप्सित आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है; पर अब भी यह बुद्धि प्रकृति के रूपों के ही वश में होती है और ये आदर्श हमारे अपने ही व्यष्टिस्वरूप के परिवर्तनशील भाव होत हैं जिनमें अंततोगत्वा कोई ध्रुव नियम नहीं मिलता, न सदा के लिये संतोष ही मिलता है।


यहाँ भी हम परिवर्तन के चक्कर पर ही घूमते रहते हैं और उस शक्ति के अधीन रहते हैं जो हमारे अंदर और इस सबके अंदर है और जो अहंकार के द्वारा इस तरह चक्कर लगवाती है, पर हम स्वयं वह शक्ति नहीं होते न उसके साथ हमारा योग या मेल ही होता है। यहाँ भी कोई मुक्तावस्था या यथार्थ प्रभुत्व नहीं होता। फिर भी मुक्तावस्था संभव है। उसके लिये पहले हमें अपनी इन्द्रियों पर होने वाली बाह्य संसार की क्रियाओं से अलग हटकर अपने-आपमें आना होगा; अर्थात् हमें अंतुर्मुख होकर रहना होगा और इन्द्रियां जो अपने बाह्य विषयों की ओर स्वभावतः दौड़ पड़ती है, उन्हें रोक रखने में समर्थ होना होगा। इन्द्रियों को अपने वश में रखना और इन्द्रियां जिन चीजों के लिये तरसा करती हैं उनके बिना सुखपूर्वक रहने में समर्थ होना, सच्चे आध्यात्मिक जीवन की पहली शर्त है; जब यह हो जाता है केवल तभी यह हम यह अनुभव करने लगते हैं कि हमारे अंदर कोई आत्मा है जो बाह्य स्पर्शों से उत्पन्न होने वाले मन के विकारों से सर्वथा भिन्न वस्तु है, वह आत्मा जो अपनी गंभीरतर सत्ता में स्वयंभू, अक्षर, शांत, आत्मवान, भव्य, स्थिर, गंभीर और महान् है, स्वयं ही अपना प्रभु है और बाह्य प्रकृति की व्यग्रताभरी दौड़-धूप से सर्वथा अलिप्त है। परंतु यह तब तक नहीं हो सकता जब तक हम काम के वश में है। क्योंकि कामना हमारे सारे बाह्य जीवन का मूल-तत्त्व है, इसे इन्द्रियगत जीवन से तृप्ति मिलती है और यह षडरिपुओं के खेल में ही मस्त रहता है। इसलिये हमें इस कामना से छुटकारा पाना होगा और प्राकृत सत्ता की इस प्रवृत्ति के नष्ट होने पर हमारे मनोविका, जो काम की तरंगो के परिणाम होते हैं, आप ही शांत हो जायेंगे; क्योंकि लाभ और हानि से, सफलता और विफलता से, प्रिय और अप्रिय के स्पर्शों से जो सुख-दुःख हुआ करते हैं, जो इन मनोविकारों का स्वागत और सत्कार करते हैं, हमारी आत्माओं के अंदर से निकल जायेंगे तब प्रशांत समता प्राप्त होगी और चूंकि हमें इस जगत् में रहना और कर्म करना है और हमारा स्वभाव कर्म के फल की आकांक्षा करने वाला है, अतः हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस स्वभाव को बदलें और फलासक्ति को छोड़कर कर्म करें, यदि ऐसा न करेंगे तो कामना और सारे परिणाम बने रहेंगे। परंतु हममें कर्म के कर्ता का जो स्वभाव है उसे कैसे बदल सकते हैं? बदल सकते हैं अहंकार और व्यक्तित्व से अपने कर्मों को अलग करके, विवेक बुद्धि से यह देखकर कि यह सब कुछ केवल प्रकृति के गुणों का ही खेल है, और अपनी आत्मा को इस खेल से अलग करके, सबसे पहले अपनी आत्मा प्रकृति के कर्मों का साक्षी बनाके तथा उन कार्यों को उस शक्ति के हवाले करके जो वास्तव में उनके पीछे है; यह शक्ति प्रकृति के अंदर रहने वाली वस्तु है हमसे बड़ी है, यह हमारा व्यक्तित्व नहीं बल्कि वह शक्ति है जो विश्व की स्वामिनी है। परंतु मन यह सब न होने देगा; क्योंकि उसका स्वभाव इन्द्रियों के पीछे भागना और बुद्धि और इच्छाशक्ति को अपने साथ घसीट ले जाना है। 


इसलिये हमें मन को स्थिर करना सीखना होगा। हमें वह निरपेक्ष शांति और स्थिरता प्राप्त करनी होगी जिसमें पहुँचकर हम उस अंतः स्थित स्थिर, अचल, आनंदमय आत्मा को जान सकें जो सदा बाह्य पदार्थों के स्पर्शों से अक्षत, अक्षुब्ध रहती है, जो अपने-आपमें पूर्ण रहती और चिरंतन तृप्ति लाभ करती है। यह आत्मा ही हमारा स्वतः सिद्ध स्वरूप है। यह हमारे वैयक्तिक जीवन से बद्ध नहीं है। यह सब भूतों में एक, सबमें व्यापाक, सबमें सम, अपनी अनंत सत्ता से अखिल विश्वकर्म को धारण करने वाली है, यह देशकाल की परिच्छिन्नता से परिच्छिन्न होने वाली नहीं है। प्रकृति और व्यष्टि के परिवर्तनों से परिवर्तित होने वाली नहीं है। जब हमें अपने अंदर इस आत्मा के दर्शन होते हैं, जब हमें इसकी शांति और नीरवता का अनुभव होता है, तब हम इसमें सवंर्द्धित हो सकते हैं; हमारा अंतःपुरुष जो अभी प्रकृति में निमज्जित होकर निम्नतर अवस्था में है उसे आत्मा में पुनः प्रतिष्ठित कर सकते हैं। हम यह उन वस्तुओं की शक्ति से कर सकते हैं जो हमें प्राप्त हुई हैं- स्थिरता, समता, निर्विकार नैर्व्यक्तिकता। क्योंकि ज्यों-ज्यों हम इन चीजों में विकसित होते हैं, उन्हें अपनी पूर्णता तक पहुँचाते हैं और अपनी सारी प्रकृति को इनके अधीन कर देते हैं,।


तयों-त्यों हम इस स्थिर सम निर्विकार, नैर्व्यक्तिक, सर्वव्यापक आत्मा के स्वरूप में विकसित होते जाते हैं। हमारी इन्द्रियां उसी नीरवता में जा पहुँचती हैं और जगत् के स्पर्शों को महती शांति के साथ ग्रहण करती हैं; हमारा मन उसी नीरवता को प्राप्त होकर शांत, विराट् साक्षी बन जाता है; और हमारा अहंकार इसी नैर्व्यक्तिक सत्ता में विलीन हो जाता है। तब हम सभी चीजें उसी आत्मा में देखते हैं जो हम स्वयं बन चुके हैं; और हम इस आत्मा को सबके अंदर देखते हैं; हम सब भूतों के साथ उनकी आत्मसत्ता में एकीभूत हो जाते हैं। इस अहंभावशून्य शांति और नैर्व्यक्तिक में रहते हुए हम जो कर्म करते हैं वे हमारे कर्म नहीं रह जाते, वे अब अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें किसी भी प्रकार से न तो बांध सकते हैं न कोई पीड़ा ही पहुँचा सकते हैं। प्रकृति और उसके गुण अब भी अपने कर्म का जाल बुना करते हैं, पर उनसे हमारी दुःखरहित स्वतःसिद्ध शांति भंग नहीं होती। सब कुछ उसी एक सम विराट् ब्रह्म में समर्पित होता है। परंतु यहाँ दो कठिनाइयां उपस्थित होती हैं। एक यह कि इस शांत अक्षर आत्मा और प्रकृति के कर्म में एक विरोध प्रतीत होता है। जब हम इस अक्षर आत्मसत्ता में एक बार प्रवेश कर चुके तब फिर कर्म का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है और वह जारी कैसे रह सकता है? उसमें कर्म करने की वह इच्छा ही कहाँ है जिससे हमारी प्रकृति का कर्म संभव हो सके?


यदि हम सांख्य मत के अनुसार यह कहें कि इच्छा प्रकृति में होती है, पुरुष में नहीं, तब भी प्रकृति में कर्म के पीछे कोई-न-कोई प्रेरकभाव तो होना ही चाहिये और उसमें वह शक्ति भी होनी चाहिये जिससे वह आत्मा को रस, अहंकार और आसक्ति के द्वारा अपने कर्मों में खींच सके, और जब इन चीजों का आत्मचैतन्य में प्रतिबिंबित होना ही बंद हो गया तो प्रकृति की वह शक्ति भी जाती रही, और उसके साथ-साथ कर्म करने का प्रेरकभाव भी जाता रहा। परंतु गीता इस मत को स्वीकार नहीं करती, जो एक विराट् पुरुष के बजाय अनेक पुरुषों का होना आवश्यक ठहराता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जाये तो यह बात समझ में न आ सकेगी कि किसी पुरुष की पृथक् आत्मानुभूति और मोक्ष कैसे संभव है जबकि अन्य लाखों-करोड़ों पुरुष बद्ध ही पड़े हैं। प्रकृति कोई पृथक् तत्त्व नहीं बल्कि परमेश्वर की ही शक्ति है जो विश्वरचना में प्रवृत्त होती है। परंतु परमेश्वर यदि केवल यही अक्षर पुरुष हैं और व्यष्टि-पुरुष केवल कोई ऐसी चीज है जो उसमें से निकलकर उस शक्ति के साथ इस सृष्टि में आया है, जो जिस क्षण व्यष्टि-पुरुष लौटकर आत्मा में स्थित होगा उसी क्षण सारी सृष्टिक्रिया बंद हो जायेगी और रह जायेगी केवल परम एकता और परम निस्तब्धता। दूसरी बात यह है कि यदि अब भी किसी अंचत्यि रूप से कर्म जारी रहे तो भी आत्मा जब सब पदार्थों के लिये सम है तब कर्म हों या न हों और हों तो चाहें जेसे हों, इसका कोई महत्त्व नहीं।


ऐसी अवस्था में यह भयंकर सत्यानासी कर्म क्यों, यह रथ, यह युद्ध, यह योद्धा, यह भगवान् सारथी किसलिये? गीता इसका उत्तर यह बतलाकर देती है कि परमेश्वर अक्षर पुरुष से भी महान् हैं, अधिक व्यापक हैं, वे साथ-साथ यह आत्मा भी हैं और प्रकृति में होने वाले कर्म के अधीश्वर भी। परंतु वे अक्षर ब्रह्म की सनातनी अचलता, समता, कर्म और व्यष्टिभाव से अतीत श्रेष्ठता में स्थित रहते हुए प्रकृति के कर्मों का संचालन करते हैं। हम कह सकते हैं कि यही उनकी सत्ता की वह स्थिति है, जिसमें से कर्म संचालन करते हैं, और जैसे-जैसे हम इस स्थिति में सवंर्धित होते हैं वेसे-वैसे हम उन्हींकी सत्ता और दिव्य कर्मों की स्थिति को प्राप्त होते हैं। इसी स्थिति से वे अपनी सत्ता की प्रकृतिगत इच्छा और शक्ति के रूप में निकल आते हैं, अपने-आपको सब भूतों में प्रकट करते हैं, जगत् में मनुष्यरूप से जन्म लेते हैं, सब मनुष्यों के हृदयों में निवास करते हैं, अवताररूप से अपने-आपको अभिव्यक्त करते हैं, (यही मनुष्य के अंदर उनका दिव्य जन्म है); और मनुष्य ज्यों-ज्यों उनकी सत्त में सवंर्धित होता है, त्यों-त्यों वह भी इस दिव्य जन्म को प्राप्त होता। इन्हीं प्रभु के लिये जो हमारे कर्मों के अधीश्वर हैं, यज्ञ के तौर पर कर्म करने होंगे और अपने-आपको आत्मस्वरूप में उन्नत करते हुए हमें अपनी सत्ता में उनके साथ एकत्व लाभ करना होगा और अपने व्यष्टिभाव को इस तरह देखना होगा कि यह उन्हींका प्रकृति में आंशिक प्राकट्य है।


सत्ता में उनके साथ ऐक्य लाभ करने से हम जगत् के सब प्राणियों के साथ एक हो जाते हैं और दिव्य कर्म करने लगते हैं, अपने कर्म के तौर पर नहीं बल्कि लोक-संरक्षण और लोकसग्रंह के लिये हमारे द्वारा होने वाली उन्हींकी क्रिया के तौर पर। असल में यही अतयंत आवश्यक बात है और इसे करते ही अर्जुन के आगे आने वाली सब कठिनाइयां लुप्त हो जायेगीं। पश्न तब हमारे वैयक्तिक कर्म का नहीं रह जाता, क्योंकि हमारा व्यक्तित्व जिससे बनता है यह तो केवल इस लौकिक जीवन से संबंध रखने वाली और इसलिये गौण चीज रह जाती है फिर जगत् में हमारे द्वारा भगवदच्छा के कार्यन्वित होने का प्रश्न ही रहा जाता है। उसे समझने के लिये हमें यह जानना होगा कि ये परमेश्वर स्वयं क्या हैं, प्रकृति के अंदर इनका क्या स्वरूप है, प्रकृति कर्म परंपरा क्या है और उसका लक्ष्य क्या है और प्रकृतिस्थ पुरुष और इन परमेश्वर के बीच आंतरिक संबंध कैसा है, इसे समझने के लिये ज्ञानयुक्त भक्ति ही आधार है। इन्हीं बातों का स्पष्टीकरण गीता के शेष अध्यायों का विषय है।





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