प्रकृति और नियति



कर्म और आत्मज्ञान की एकता सिद्ध होने पर हमारा निवास जब उच्चतर आत्मा में हो जाता है तो हम प्रकृति की निम्नस्तरीण कर्मपद्धति से ऊपर उठ जाते हैं। तब हम प्रकृति और उसके गुणों के गुलाम नहीं रहते, बल्कि उन ईश्वर के साथ एक हो जाते हैं जो हमारी प्रकृति के स्वामी हैं, तब हम प्रकृति का उपयोग अपने अंदर की भगवदिच्छा को सिद्ध करने के लिये कर्मबंधन की अधीनता में पड़े बिना ही कर सकते हैं; क्योंकि हमारे अंदर जो महत्तर आत्मा है वह यही है, वह प्रकृति के कर्मों का अधीश्वर है और प्रकृति की विक्षुब्ध प्रतिक्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं होता। इसके विपरीत, प्रकृति में बद्ध अज्ञानी जीव अपने उसी अज्ञान के कारण उसके गुणों में बंधता है, क्योंकि वहाँ वह सानंद अपने सत्य स्वरूप के साथ नहीं, प्रकृति के ऊपर अधिष्ठित जो भगवान् हैं उनके साथ ही नहीं, बल्कि मूर्खतावश और दुर्भाग्यवश अपनी अहंबुद्धि के साथ तदातकार हो जाता है। उसकी यह अहंबुद्धि कितना ही बड़ा स्वांग क्यों न रचे पर है प्रकृति के कार्य करने का एक छोटा सा अंग ही, एक मानसिक ग्रंथि मात्र, एक केन्द्र जिसे पकड़कर प्रकृति की कर्मधाराओं का खेल चलता रहता है।


इस ग्रंथि को तोड़ना, अपने कर्मों का केन्द्र और भोक्ता इस अहं को न बने रहने देना, बल्कि परम दिव्य महान् आत्मा से सब कुछ प्राप्त करना और सब कुछ उसीको निवेदन करना-यही प्रकृति के गुणों के चंचल विक्षोभ से ऊपर उठने का रास्ता है। कारण इस अवस्था का अर्थ त्रिगुण के विषम खेल में निवास करना नहीं जो ऐक्यहीन खोज और प्रयास है, एक विक्षोभ है, माया है बल्कि परम चेतना में निवास करना है, सम और एकीकृत दिव्य संकल्प एवं शक्ति के अंदर रहकर कर्म करना है, अहंबुद्धि जिसका अपकर्ष है। कुछ लोगों ने उन श्लोकों का, जिनमें गीता ने अहमात्मक जीव के प्रकृतिवश होने पर जोर दिया है, ऐसा अर्थ लगाया है मानो वहाँ ऐसे निरंकुश यांत्रिक नियतिवाद का निरूपण है जो इस जगत् में रहते किसी स्वाधीनता के लिये कोई गुंजायश नहीं छोड़ता।


निश्चय ही उन श्लोकों की भाषा बहुत जोरदार है, और सुनिश्चित मालूम होती है। परंतु अन्य स्थानों की तरह यहाँ भी, गीता के विचार को उसके समग्र रूप में ग्रहण करना चाहिये और किसी एक वाक्य को, अन्य वाक्य के साथ के संबंध से सर्वथा अलग करके, सब कुछ नहीं मान लेना चाहिये। क्योंकि वास्तव में प्रत्येक सत्य, वह अपने-आपमें कितना ही दुरूस्त क्यों न हो, अन्य सत्यों से, जो उसे मर्यादित करते हुए भी परिपूर्ण करते हैं, अलग कर दिया जाये, तो बुद्धि को फंसाने वाला जाल और मन को भरमाने वाला मत बन जाता है, क्योंकि यथार्थ में प्रत्येक सत्य संमिश्रित पट का एक तंतु है और कोई भी तंतु उस समग्र पट से अलग नहीं किया जा सकता। इसी तरह गीता में सब बातें एक-दूसरे से बुनी हुई हैं अतः उसकी हर बात को संपूर्ण कलेवर के साथ मिलाकर ही समझना चाहिये।

स्वयं गीता ने अर्थात संपूर्ण सत्य को न जानने वाले और खंड सत्यों को मानने वाले तथा अर्थात् समग्र सत्य का समन्वयात्मक ज्ञान रखने वाले योगी में भेद किया है। योगी से जिस शांत और पूर्ण ज्ञान की स्थिति में आरोहण करने के लिये कहा जाता है उसके लिये पहली आवश्यता यह है कि समस्त जीवन को धीरता से उसके समग्र रूप में देखा जाये तथा इसके परस्पर-विरोधी दीखने वाले सत्यों के कारण चित्त में कोई भ्रांति न आने दी जाये। हमारी संमिश्र सत्ता के एक छोर पर प्रकृति के साथ जीव के संबंध का एक ऐसा पहलू है जिसमें जीव एक प्रकार से पूर्ण सवतंत्र है; दूसरे छोर पर दूसरा पहलू है जिसमें एक प्रकार से प्रकृति का कठोर नियम है; इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता का एक आंशिक और दिखावटी, फलतः एक अवास्तविक आभास भी होता है जिसे जीव अपने विकासशील मन के अंदर इन दो विरोधी छोरों के विकृत प्रतिबिंब को ग्रहण करता है। हम स्वतंता के इस आभास को ही न्यूनाधिक भूल के साथ, स्वाधीन इच्छा कहा करते हैं; परंतु गीता पूर्ण मुक्ति और प्रभुत्व को छोड़कर और किसी चीज हो स्वाधीनता या स्वतंत्रता नहीं मानती।



गीता की शिक्षा के पीछे जीव और प्रकृति के विषय में जो दो महान् सिद्धांत हैं उन्हें सदा ध्यान में रखना चाहिये- एक है पुरुष-प्रकृतिविषयक सांख्य का सत्य जिसको गीता ने त्रिविध पुरुषरूपी वेदांत-सत्य के द्वारा संशोधित और परिपूर्ण कर दिया है, दूसरा है द्विविध प्रकृति,सच्ची अध्यात्म-प्रकृति। यही वह कुंजी है जो उन बातों का समन्वय और स्पष्टीकरण करती है, जिन्हें हम परस्पर विरुद्ध और विसंगत जानकर छोड़ देते। वास्तव में हमारे सचेतन जीवन के कई स्तर हैं, और एक स्तर पर जो बात व्यवहारतः सत्य मानी जाती है वह उससे ऊपर के स्तर पर जाते ही सत्य नहीं रह जाती, क्योंकि वहाँ उसका कुछ और ही रूप हो जाता है, क्योंकि वहाँ हम वस्तुओं को अलग-अलग नहीं बल्कि अधिकतर उनकी समग्रता में देखने लगते हैं।


हाल के वैज्ञानिक आविष्कार ने दिखाया है कि मनुष्य, पशु, वृक्ष और खनिज धातुओं तक में प्राणमयी प्रतिक्रियाएं सार रूप से एक-सी होती हैं, इसलिये यदि इनमें से प्रत्येक में एक ही प्रकार की ‘स्नायवीय चेतना’ है (अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में यही कहना होगा) तो, इनके यांत्रिक मनस्तत्त्व की आधारभूमि भी एक-सी होनी चाहिये। फिर भी इनमें से प्रत्येक यदि अपने-आपको अनुभव का मनोमय विवरण दे सके तो एक ही प्रकार की प्रतिक्रियाओं और एक से प्रकृति-तत्त्वों के चार ऐसे विवरण प्राप्त होगें जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न और बहुत हदतक एक-दूसरे से उलटे होगें, इसका कारण यह है कि जैसे-जैसे हम सचेतन सत्ता के ऊपर के स्तरों में उठते हैं वैसे-वैसे इनका अर्थ और मूल्य बदलता जाता है और वहाँ इन सबका विचार दूसरी ही दृष्टि से करना होता है।


मानव और अनय जीव के स्तरों की भी यही बात है। जिसे हम अपनी साधारण मनोवृत्ति के अनुसार स्वाधीन इच्छा कहते हैं, और एक हदतक यह कहना ठीक भी हो सकता है, वह उस योगी की दृष्टि में,जो ऊपर उठ चुका है और जिसके लिये हमारी रात तो दिन है और हमारा दिन रात, यह स्वाधीन इच्छा नहीं है बल्कि प्रकृति के गुणों की अधीनता है। वह भी उन्हीं तथ्यों को देखता है जिन्हें हम देखते हैं, किंतु वह कृत्स्नवित ( समग्र सत्य को जाननेवाले ) की उच्चतर दृष्टि से देखता है और हम देखते हैं अकृत्स्नवित् की दृष्टि से, जो बहुत ही मर्यादित होती है, जो अज्ञान ही है। हम जिस स्वाधीनता पर गर्व करते हैं वह उसके लिये बंधन है। निम्न प्रकृति के जाल में पड़े हुए हम अज्ञानवश मान बैठते हैं कि हम स्वाधीन है, इस अज्ञान का खंडन करने के लिये गीता ने बतलाया है कि अहमात्मक जीव इस स्तर पर पूरी तरह त्रिगुण के वश में होता है। ‘‘जबकि सब काम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा कराये जा रहे हैं, अहंकार-विमूढ़ आत्मा समझता है कि इन्हें करने वाला तो ‘मैं’ हूँ। परंतु जो गुणों और कर्मों के भेदों के सच्चे नियमों को जानता है वह देखता है कि प्रकृति के गुण परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया कर रहे हैं। और इसलिये वह आसक्त् होकर इनमें नहीं फसता जो इन गुणों के द्वारा विमूढ़ हो जाता है, जो अकृत्स्नवित् है उसकी मनोभावना को कृत्स्नवित् विचलित न करे। तू अपने सब कर्म मुझे समर्पित कर, निरीह, निर्मम और विगतज्वर होकर, युद्ध कर।” यहाँ चेतना के दो भिन्न स्तरों और कर्म के दो विभिन्न दृष्टिबिंदुओं में स्पष्ट भेद किया गया है। एक स्तर वह है जहाँ जीव अपनी अहमात्मक प्रकृति के जाल मे जकड़ा है और प्रकृति से प्रेरित होकर कर्म करता है पर समझता है कि मैं अपनी स्वाधीन इच्छा से कर रहा हूँ। दूसरा स्तर वह है जिसमें जीव अहंकार के साथ तादात्म्य से मुक्त, प्रकृति से ऊपर उठा हुआ और उसके कर्मों का द्रष्टा, अनुमंता और नियंता है। हम जीव को प्रकृति के अधीन कहते हैं, पर गीता, इसके विपरीत, पुरुष और प्रकृति के लक्षणों का विश्लेषण करते हुए बतलाती है कि प्रकृति कार्यकरी शक्ति है और पुरुष सदा ही ईश्वर है। यहाँ गीता ने बतलाया है कि यह पुरुष अहंकार से विमूढ़ हो जाता है, परंतु वेदांतियों का सदात्मा ब्रह्म, नित्यमुक्त, शुद्ध, बुद्ध है। तब यह जीव क्या है जो प्रकृति से विमूढ़ होता है, उसके अधीन रहता है? इसका उत्तर यह है कि यहाँ हम वस्तुओं के संबंध में अपनी निम्नतर या मानसिक दृष्टि की व्यावहारिक भाषा में बात कर रहे हैं, प्रतीयमान आत्मा या पुरुष की बात के अधीन होता है, और यह अपरिहार्य है, क्योंकि वह प्रकृति का ही अंग है, उसके कलपुर्जों की एक क्रिया है; परंतु जब मनश्वेता का आत्मबोध अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेता है तो वह निम्नतर आत्मा के, एक अहमात्मक स्व के आभास की सृष्टि करता है।



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