आत्म संयम

 


सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । 

आत्म-संयम योगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।। 4.27 ।।


अन्य योगी लोग संपूर्ण इंद्रियों की क्रियाओं को और प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।

‘सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे’- इस श्लोक में समाधि को यज्ञ का रूप दिया गया है। कुछ योगी लोग दसों इंद्रियों की क्रियाओं का समाधि में हवन किया करते हैं। तात्पर्य यह है कि समाधि अवस्था में मन-बुद्धि सहित संपूर्ण इंद्रियों[1] की क्रियाएँ रुक जाती हैं। इंद्रियाँ सर्वथा निश्चल और शांत हो जाती हैं।


समाधिरूप यज्ञ में प्राणों की क्रियाओं का भी हवन हो जाता है अर्थात समाधिकाल में प्राणों की क्रियाएँ भी रुक जाती हैं। समाधि में प्राणों की गति रोकने के दो प्रकार हैं-


एक तो हठयोग की समाधि होती है, जिसमें प्राणों को रोकने के लिए कुंभक किया जाता है। कुंभक का अभ्यास बढ़ते-बढ़ते प्राण रुक जाते हैं, जो घंटों तक, दिनों तक रुके रह सकते हैं। इस प्राणायाम से आयु बढ़ती है; जैसे- वर्षा होने पर जल बहने लगता है तो जल के साथ-साथ बालू भी आ जाती है, उस बालू में मेढ़क दब जाता है। वर्षा बीतने पर जब बालू सूख जाती है, तब मेढ़क उस बालू में ही चुपचाप सूखे हुए की तरह पड़ा रहता है, उसके प्राण रुक जाते हैं। पुनः जब वर्षा आती है, तब वर्षा का जल ऊपर गिरने पर मेढक में पुनः प्राणों का संचार होता है जाता है और वह टर्राने लग जाता है।


दूसरे प्रकार में मन को एकाग्र किया जाता है। मन सर्वथा एकाग्र होने पर प्राणों की गति अपने आप रुक जाती है।


‘ज्ञानदीपिते’- समाधि और निद्रा- दोनों में कारण शरीर से संबंध रहता है, इसलिये बाहर से दोनों की समान अवस्था दिखायी देती है। यहाँ ‘ज्ञानदीपिते’ पद से समाधि और निद्रा में परस्पर भिन्नता सिद्ध हो गयी है। तात्पर्य यह कि बाहर से समान दिखायी देने पर भी समाधिकाल में ‘एक सच्चिदानंद परमात्मा ही सर्वत्र परिपूर्ण है’ ऐसा ज्ञान प्रकाशित रहता है और निद्राकाल में वृत्तियाँ अविद्या में लीन हो जाती है। समाधिकाल में प्राणों की गति रुक जाती है और निद्राकाल में प्राणों की गति चलती रहती है। इसलिये निद्रा आने से समाधि नहीं लगती।


‘आत्म-संयम योगाग्नौ जुह्वति’- चित्तवृत्ति निरोध रूप अर्थात समाधि रूप यज्ञ करने वाले योगी लोग इंद्रियों तथा प्राणों की क्रियाओं का समाधि योग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं अर्थात मन-बुद्धि सहित संपूर्ण इंद्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोककर समाधि में स्थित हो जाते हैं। समाधिकाल में संपूर्ण इंद्रियाँ और प्राण अपनी चंचलता खो देते हैं। एक सच्चिदानंदघन परमात्मा का ज्ञान ही जाग्रत रहता है।


द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। 4.28 ।।


दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करने वाले प्रयत्नशील साधक द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, और कितने ही तपो यज्ञ करने वाले हैं, और दूसरे कितन ही योग यज्ञ करने वाले हैं, तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।


‘यतयः संशितव्रताः’- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह[l ये पाँच ‘यम’ हैं,  जिन्हें ‘महाव्रत’ के नाम से कहा गया है। शास्त्रों में इन महाव्रतों की बहु प्रशंसा, महिमा है। इन व्रतों का पालन करने वाले साधकों के लिये यहाँ ‘संशितव्रताः’ पद आया है। इसके सिवाय इस श्लोक में आये चारों यज्ञों में जो जो पालनीय व्रत अर्थात नियम हैं, उन पर दृढ़ रहकर उनका पालन करने वाले भी सब ‘संशितव्रताः’ हैं। अपने-अपने यज्ञ के अनुष्ठान में प्रयत्नशील होने के कारण उन्हें ‘यतयः’ कहा गया है।


‘संशितव्रताः’ के साथ[4] ‘यज्ञाः’ पद नहीं दिया जाने के कारण इसे अलग यज्ञ नहीं माना गया है।


‘द्रव्ययज्ञाः’- मात्र संसार के हित के उद्देश्य से कुआँ, तालाब, मंदिर, धर्मशाला आदि बनवाना, अभावग्रस्त लोगों को अन्न, जल, वस्त्र, औषध, पुस्तक आदि देना, दान करना इत्यादि सब ‘द्रव्ययज्ञ’ है। द्रव्य को अपना और अपने लिये न मानकर निःस्वार्थ भाव से उन्हीं का मानकर उनकी सेवा में लगाने से द्रव्ययज्ञ सिद्ध हो जाता है।


शरीरादि जितनी वस्तुएँ हमारे पास हैं, उन्हीं से यज्ञ हो सकता है, अधिक की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य बालक से उतनीत ही आशा रखता है, जितना वह कर सकता है, फिर सर्वज्ञ भगवान तथा संसार हमसे हमारी क्षमता से अधिक की आशा कैसे रखेंगे?


‘तपोयज्ञाः’- अपने कर्तव्य के पालन में जो-जो प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ आयें, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है। लोकहितार्थ एकादशी आदि का व्रत रखना, मौन धारण करना आदि भी ‘तपोयज्ञ’ अर्थात तपस्या रूप यज्ञ हैं। परंतु प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति, घटना आने पर भी साधक प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता रहे- अपने कर्तव्य से थोड़ा भी विचलित न हो तो यह सबसे बड़ी तपस्या है, जो शीघ्र सिद्धि देने वाली होती है।


गाँव भर की जिंदगी, कूड़ा-करकट बाहर एक जगह इकट्ठा हो जाय, तो वह बुरा लगता है; परंतु वहीं कूड़ा करकट खेत में पड़ जाय, तो खेती के लिये खाद रूप से बढ़िया सामग्री बन जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूलता बुरी लगती है और उसे हम कूड़े करकट की तरह फेंक देते हैं अर्थात उसे महत्त्व नहीं देते; परंतु वही प्रतिकूलता अपना कर्तव्य पालन करने के लिये बढ़िया सामग्री है। इसलिये प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति को सहर्ष सहने के समान दूसरा कोई तप नहीं है। भोगों में आसक्ति रहने से अनुकूलता अच्छी और प्रतिकूलता बुरी लगती है। इसी कारण प्रतिकूलता का महत्त्व समझ में नहीं आता।


‘योगयज्ञास्तथापरे’- यहाँ योग नाम अंतःकरण की समता का है। समता का अर्थ है- कार्य की पूर्ति और अपूर्ति में, फल की प्राप्ति और अप्राप्ति में, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में, निंदा और स्तुति में, आदर और निरादर में सम रहना अर्थात अंतःकरण में हलचल, राग द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख का न होना। इस तरह सम रहना ही ‘योगयज्ञ’ है।


‘स्वाध्यायज्ञानयज्ञाः’- केवल लोकहित के लिये गीता, रामायण, भागवत आदि का तथा वेद, उपनिषद आदि का यथाधिकार मनन विचारपूर्वक पठन-पाठन करना, अपनी वृत्तियों का तथा जीवन का अध्ययन करना आदि सब स्वाध्याय रूप ‘ज्ञानयज्ञ’ है।


गीता के अंत में भगवान ने कहा है कि जो इस गीता शास्त्र का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊंगा- ऐसा मेरा मत है। तात्पर्य यह है कि गीता का स्वाध्याय ‘ज्ञानयज्ञ’ है। गीता के भावों में गहरे उतरकर विचार करना, उसके भावों को समझने की चेष्टा करना आदि सब स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ है।


अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणः ।। 4.29 ।।

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।। 4.30 ।।


अर्थ- दूसरे कितने ही प्राणायाम के परायण हुए योगी लोग अपान में प्राण का पूरक करके, प्राण और अपान की गति रोककर फिर प्राण में अपान का हवन करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणों का प्राणों में हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।


व्याख्या- ‘अपाने जुह्वति........प्राणायाम्परायणाः[1]’- प्राण का स्थान हृदय तथा अपना का स्थान गुदा है। श्वास को बाहर निकालते समय वायु की गति ऊपर की ओर तथा श्वास को भीतर ले जाते समय वायु की गति नीचे की ओर होती है। इसलिये श्वास को बाहर निकालना ‘प्राण’ का कार्य और श्वास को भीतर ले जाना ‘अपान’ का कार्य है। योगी लोग पहले बाहर की वायु को बायीं नासिका के द्वारा भीतर ले जाते हैं। वह वायु हृदय में स्थित प्राणवायु को साथ लेकर नाभि से होती हुई स्वाभाविक ही अपान में लीन हो जाती है। इसको ‘पूरक’ कहते हैं। फिर वे प्राण वायु और अपान वायु दोनों की गति रोक देते हैं। न तो श्वास बाहर जाता है और न श्वास भीतर ही आता है। इसको ‘कुम्भक’ कहते हैं। इसके बाद वे भीतर की वायु को दायीं नासिका के द्वारा बाहर निकालते हैं। वह वायु स्वाभाविक ही प्राणवायु को तथा उसके पीछे-पीछे अपान वायुक को साथ लेकर बाहर निकलती है। यही प्राण वायु में अपान वायु का हवन करना है। इसको ‘रेचक’ कहते हैं। चार भगवन्नाम से पूरक, सोलह भगवन्नाम से कुम्भक और आठ भगवन्नाम से रेचक किया जाता है।


इस प्रकार योगी लोग पहले चंद्रनाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और फिर सूर्यनाड़ी से रेचक करते हैं। इसके बाद सूर्यनाड़ी से पूरक, फिर कुम्भक और पिर चंद्रनाड़ी से रेचक करते हैं। इस तरह बार-बार पूरक-कुम्भक-रेचक करना प्राणायाम रूप यज्ञ है। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से निष्काम भावपूर्वक प्राणायाम के परायण होने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।


‘अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति’- नियमित आहार-विहार करने वाले साधक ही प्राणों को प्राणों में हवन कर सकते हैं। अधिक या बहुत कम भोजन करने वाला अथवा बिलकुल भोजन न करने वाला यह प्राणायाम नहीं कर सकता।


प्राणों का प्राणों में हवन करने का तात्पर्य है- प्राण का प्राण में और अपान का अपान में हवन करना अर्थात प्राण और अपान को अपने-अपने स्थानों पर रोक देना। न श्वास बाहर निकालना और न श्वास भीतर लेना। इसे ‘स्तम्भवृत्ति प्राणायाम’ भी कहते हैं। इस प्राणायाम से स्वाभाविक ही वृत्तियाँ शांत होती हैं और पापों का नाश हो जाता है। केवल परमात्माप्राप्ति का उद्देश्य रखकर प्राणायाम करने से अंतःकरण निर्मल हो जाता है और परमात्मप्राप्ति हो जाती है।


‘सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः’- चौबीसवें श्लोक से तीसवें श्लोक के पूर्वार्ध तक जिन यज्ञों का वर्णन हुआ है, उनका अनुष्ठान करने वाले साधकों के लिये यहाँ ‘सर्वेऽप्येते’ पद आया है। उन यज्ञों का अनुष्ठान करते रहने से उनके संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और अविनाशी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।





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