समत्व और ज्ञान



फिर गीता का यह वचन है कि, इसी अभिप्राय को व्यक्त करता है कि-जिसकी आत्मा सब भूतों की आत्मा हो गयी है वह कर्म करता है पर अपने कर्मों में लिप्त नहीं होता, उनमें फंसता नहीं, वह उनसे आत्मा को बंधन में डालने वाली प्रतिक्रिया ग्रहण नहीं करता। इस लिये तो गीता ने कहा है कि कर्मों के भौतिक संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग ही श्रेष्ठ है, कारण जहाँ संन्यास देहधारियों के लिये कठिन है-क्योंकि जब तक देह है तब तक उन्हें कर्म करना ही पड़ेगा-वहाँ कर्मयोग अभिष्ठसिद्धि के लिये सर्वथा प्रर्याप्त है और यह जीव को ब्रह्म के पास शीघ्रता और सरलता से ले जाता है। पहले कहा जा चुका है कि कर्मयोग, सम्पूर्ण कर्म का भगवान् को अर्पण करना है, जिसकी परिसमाप्ति ब्रह्य के प्रति कर्मों के ऐसे अर्पण में होती है जो आंतरिक होता है बाह्य नहीं, जो आध्यात्मिक होता है, भौतिक नहीं। कर्मों का जब इस प्रकार ब्रह्य में आधान हो जाता है तब उपरकण में से कर्ता का भाव जाता रहता है; वह कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता; क्योंकि उसने केवल कर्मफलों का ही अर्पण नहीं किया है, बल्कि स्वयं कर्म और उसकी प्रक्रिया भी भगवान् को दे दी है।तब, भगवान् उसके कर्मों के भर को अपने ऊपर ले लेते हैं; भगवान् स्वयं कर्ता, कर्म और फल बन जाते हैं। गीता जिस ज्ञान की बात कहती है वह मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है, गीता का ज्ञान है सत्यस्वरूप दिव्य सूर्य के प्रकाश के उद्भासन के द्वारा सत्ता की उच्चतम अवस्था में संवर्द्धन है। यह सत्य, यह सूर्य वही है और हमारे अज्ञान-अंधकार के भीतर छिपा हुआ है जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है, अक्षर ब्रह्म इस द्वन्द्वमय विक्षुब्ध निम्न प्रकृति के ऊपर आत्मा के व्योम में विराजमान है, निम्न प्रकृति के पास पाप-पुण्य उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारे धर्म-अधर्म की भावना को स्वीकार नहीं करता, इनके सुख और दुःख उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारी सफलता की खुशी और विफलता के शोक के प्रति उदासीन रहता है, वह सबका स्वामी है, प्रभु है, विभु है, स्थिर, समर्थ और शुद्ध है, सबके प्रति सम है। वह प्रकृति का मूल है, हमारे कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता नहीं बल्कि प्रकृति और उसके कर्मों का साक्षी है, वह हम पर कर्ता होने का भ्रम आरोपित नहीं करता, क्योंकि यह भ्रम तो निम्न प्रकृति के अज्ञान का परिणाम है। परंतु हम इस मुक्ति, प्रभुता और विशुद्धता को नहीं देख पाते; क्योंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अंदर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है। पर जो इस ज्ञान का लगातार अनुसंधान करते हैं उन्हें इसकी प्राप्ति होती है और यह ज्ञान उनके प्राकृतिक अज्ञान को दूर कर देता है; यह बहुत काल से छिपे हुए सूर्य की तरह उद्भाषित होता है और हमारी दृष्टि के सामने उस परम आत्मसत्ता को प्रकाशित कर देता है जो इस निम्न जीवन के द्वन्द्व के परे है।


आदित्यवत्‌ प्रकाशयति तत्परम्‌। दीर्घ एकनिष्ठ साधना से, अपनी समग्र सचेतन सत्ता को उसी आत्मतत्त्व की ओर लगाने से, उसीको अपना एकमात्र लक्ष्य बनाने से, उसीको अपनी विवेक-बुद्धि का विषय बनाने से और इस प्रकार उसको न केवल अपने अंदर बल्कि अखिल जगत् में देखने से, हम उसके साथ एक बुद्धि और एक-आत्मा हो जाते हैं, हमारी अघःसत्ता के कल्मष ज्ञान के जल[1] धुल जाते हैं। गीता कहती है कि इसका फल सब पदार्थों और सब प्राणियों के प्रति पूर्ण समत्व की सिद्धि है; और ऐसा समत्व सिद्ध होने पर ही हम अपने कर्मों का ‘ब्रह्म में’ पूर्ण समता हममें ‘आधान’ कर सकते हैं। कारण ब्रह्म सम है, समं ब्रह्म, और जब यह पूर्ण समता हममें आ जाती है तभी हम ‘‘विद्याविनयसंपन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी,श्वान और चाण्डाल को समदृष्टि से देखते हुए”[2] सबको एक ब्रह्म ही जानते हुए और उस एकत्व में स्थित रहते हए ब्रह्म के समान ही अपने कर्मों के प्रवाह को, आसक्ति, पाप या बंधन के भय से सर्वथा मुक्त होकर, प्रकृति से निकलता हुआ देख सकते हैं।


तब पाप और कलंक नहीं लग सकते; क्योंकि हमने उस सृष्टि को जीत लिया है, जो कामना और उसके कर्मों और उनकी प्रतिक्रियाओं से भरी हुई है और जो अज्ञान की है। और चूंकि अब हम दिव्य परा प्रकृति में रहने लगते हैं, इसलिये हमारे कर्म प्रमादरहित, दोष-रहित होते हैं, क्योंकि प्रमाद और दोष तो अज्ञानजनित विषमताओं की उपज हैं। सम ब्रह्म में कोई दोष नहीं, वह शुभ-अशुभ की द्वन्द्वमय भ्रांति के परे है, और ब्रह्म में निवास करते हुए हम भी शुभ-अशुभ से ऊपर उठ जाते हैं; और हम उस विशुद्ध स्थिति में रहते हुए निर्दोष रूप से, प्राणिमात्र का समान रूप से हित साधने के एकमात्र हेतु से कर्म करते हैं, हमारी अज्ञानावस्था में भी हमारे कर्मों के मूल हमारे हृद्देशस्थित ईश्वर ही हैं, पर उनकी यह क्रिया उनकी माया के द्वारा, हमारी निम्न प्रकृति के अहंकार के द्वारा होती है, ओर यह निम्न प्रकृति ही हमारे कर्मों के जटिल जाल को बुनकर तैयार करती है और बाद में इस जाल के फैलाव की जो प्रतिक्रियाएं होती हैं उनको हमारे अहंकार पर ला पटकती है, जिसका आंतरिक असर पाप-पुण्य के रूप में और बाह्य असर सुख-दुःख और सौभाग्य-दुभाग्य के रूप में होता है, और यही है कर्म की जबरदस्त सांकल। जब ज्ञान के द्वारा हम इससे मुक्त होते हैं तब भगवान्, जो अब हृदय में छिपे हुए नहीं बल्कि हमारे परम आत्मा के रूप में प्रकट हो गये हैं, हमारे कर्मों को अपने हाथों में ले लेते और जगत् के उद्धार-कार्य में हमारा निर्दोष यंत्रवत्, निमित्तमात्रम्‌ उपयोग करते हैं।


ज्ञान और समत्व में ऐसी ही घनिष्ठ एकता है, यहाँ बुद्धि के क्षेत्र में, ज्ञान स्वभाव के समत्व के रूप में प्रतिबिम्बित होता है और ऊपर, चेतना के उच्चतर क्षेत्र में, ज्ञान सत्ता का प्रकाश हो जाता है और समत्व प्रकृति का उपादान। ‘ज्ञान‘ शब्द भारतीय दर्शनशास्त्रों और योगशास्त्रों में सर्वत्र इसी परम आत्म-ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है। ज्ञान वह ज्योति है जिसके द्वारा हम अपनी सत्य सत्ता में सवंर्द्धित होते हैं, वह चीज नहीं जिससे हमारी जानकारी बढ़ती और हमारी बौद्धिक संपत्ति संचित होती है; यह भौतिक विज्ञान या मनोवैज्ञानिक अथवा दार्शनिक या नैतिक या रसंबंधी अथवा जागतिक और व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। ये सब भी निसंदेह हमारी उन्नति में मदद करते हैं, पर ये हमारी संभूति के विकास में सहायक होते हैं हमारी आंतरिक सत्ता के विकास में नहीं। यौगिक ज्ञान में इनका समावेश तब किया जा सकता है जब हम इनसे परमात्मा, आत्मा, भगवान को जानने में मदद लें।


भौतिक विज्ञान को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम उसकी प्रक्रियाओं और घटनाओं के पर्दे को भेद कर उस एकमात्र स्द्वस्तु को देख लें जिससे सब बातें स्पष्ट हो जाती हैं, मनोवैज्ञानकि विद्या को यौगिक ज्ञान तब बनाया जा सकता है। जब हम उससे अपने-आपको जानने और निम्न-उच्च का विवेक करने का काम ले सकें जिससे कि निम्न अवस्था को छोड़ हम उच्च अवस्था में सवंर्द्धित हो सकें; दार्शनिक विद्या को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते है जब हम इससे पाप और पुण्य के भेद को जनान जायें, पाप को दूर कर और पुण्य से ऊपर उठकर दिव्य प्रकृति की निर्मलता में पहुँच जायें; रसविद्या को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम इसके द्वारा भगवान् के सौन्दर्य को पा लें; जागतिक और व्यावहारिक विद्या को हम यौगिक तब बना सकते हैं जब हम उसके भीतर से यह देख पावें कि ईश्वर अपनी सृष्टि के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और फिर उस ज्ञान का उपयोग मनुष्य में रहने वाले भगवान् की सेवा के लिये करें। परंतु तभी ये विद्याएं सच्चे ज्ञान की सहायक भर होती हैं; वास्तविक ज्ञान तो वही है जो मन के लिये अगोचर है, मन जिसका आभासमात्र पाता है।


सच्चा ज्ञान तो आत्मा में ही होता है। यह ज्ञान कैसे प्राप्त होता है इसका वर्णन करते हुए गीता कहती है कि पहले इस ज्ञान की तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से दीक्षा लेनी होती है, उनसे नहीं जो तत्त्वज्ञान को केवल बुद्धि से जानते हैं बल्कि उन ज्ञानियों से जिन्होंने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है, ज्ञानिन: तत्त्वदर्शिन:; परंतु वास्तविक ज्ञान तो हमें अपने अंदर से मिलता है, ‘‘योग के द्वारा संसिद्धि को प्राप्त मनुष्य उसको अपने-आप ही यथासमय अपनी आत्मा में पता है,” अर्थात् यह ज्ञान उस मनुष्य में सवंर्द्धित होता रहता है और ज्यों-ज्यों वह मनुष्य निष्कामता, समता और भगवद्भक्ति में बढ़ता जाता है त्यों-त्यों ज्ञान में भी बढ़ता जाता है।


परंतु यह बात केवल परम ज्ञान के संबंध में ही पूर्ण रूप से कही जा सकती है, नहीं तो जो ज्ञान मुनष्य अपनी बुद्धि से बटोरता है, उसे तो यह इन्द्रियों और तर्कशक्ति के द्वारा परिश्रम करके बाहर से ही इकट्ठा करता है। स्वतःस्थित, सहजस्फुरित, स्वानुभूत, स्वप्रकाश परम ज्ञान की प्राप्ति के लिये हमें संयतेंद्रिय होना होता है, जिससे हम उनके मोहपाश में न बंध सकें, बल्कि हमारा मन और इन्द्रियां उस परम ज्ञान के निर्मल दर्पण बन जायें; हमें उस परम सद्वस्तु के सत्य में, जिसमें सब कुछ स्थित है, अपनी समग्र सचतेतन सत्ता को प्रतिष्ठित करना होगा, ताकि वह अपनी जयोतिर्मयी आत्म-सत्ता को हममें प्रकट कर सके। अंत में इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये हमारे अंदर ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये जिसे कोई भी बौद्धिक संदेह विचलित न कर सके, ‘‘जिस अज्ञानी में श्रद्धा नहीं है, जो संशयात्मा है वह नाश को प्राप्त होता है; संशयात्मा के लिये न तो यह लोक है न परलोक, और न सुख।”[1]वास्तव में यह बिलकुल सच है कि श्रद्धा-विश्वास के बिना इस जगत् में या परलोक की प्राप्ति में कोइ भी निश्चित स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती; और जब कोई मनुष्य किसी सुनिश्चित आधर और वास्तविक सहारे को पकड़ पाता है तभी किसी परिमाण में लौकिक या पारलौकिक सफलता, संतोष और सुख को प्राप्त कर सकता है; जो मन केवल संशयग्रस्त है वह अपने-आपको शून्य में खो देता है।


परंतु फिर भी निम्नतर ज्ञान में संदेह और अविश्वास होने का एक तात्कालिक उपयोग है; किंतु उच्चतर ज्ञान में ये रास्ते के रोड़े हैं, क्योंकि वहाँ का सारा रहस्य बौद्धिक भूमिका की तरह सत्य और भ्रांति का संतलुन करना नहीं है, वहाँ तो स्वतःप्रकाशमान सत्य की सतत-प्रगतिशील अनुभूति होती रहती है और इसलिये संदेह और अविश्वास का कोई स्थान नहीं है। बौद्धिक ज्ञान में सदा ही असत्य अथवा अपूर्णत्व का मिश्रण रहता है जिसे हटाने के लिये स्वयं सत्य की संशयात्मक छानबीन करनी पड़ती है; परंतु उच्चतर ज्ञान में असत्य नहीं घुस सकता और इस या उस मत पर आग्रह करके बुद्धि जो भ्रम ले आती है वह केवल तर्क के द्वारा दूर नहीं होता, पर वहाँ की अनुभूति में लगे रहने से वह अपने-आप दूर हो जाता है। जो ज्ञान प्राप्त हो चुका है उसमें जो कुछ अपूर्णता रह गयी हो उसे अवश्य दूर करना होगा, किंतु यह काम जो कुछ अनुभूति हो चुकी है उसके मूल पर संदेह करने से नहीं बल्कि अपने जीवन को आत्मा की अधिक गहराई, ऊचांई और विशालता में ले जाकर अब तक की प्राप्त अनुभूति से आगे की और भी पूर्णतर अनुभूति की ओर बढ़ने के द्वारा होगा। और जो कुछ अभी अनुभूत नहीं है उसके लिये श्रद्धा के हथियार से भूमि तैयार करनी होगी, यहाँ तर्क और शंका का काम नहीं; क्योंकि यह वह सत्य है जिसे बुद्धि नहीं दे सकती, तार्किक और यौक्तिक मन जिन विचारों में उलझा रहता है यह बहुधा उनसे विपरीत होता है।


इस सत्य को प्रमाणों के द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती, इसको अपने आंतरिक जीवन में उतारना होता है, यह वह महत्तर सद्वस्तु है जिसमें हमें सवंर्द्धित होना है। फिर भी यह सत्य अपने-आपमें स्थित है और यदि हम अपने आन के इन्द्रजाल में न फंसे होते तो यह स्वंसिद्ध होता। जो संशय और मोह हमें इस सत्य को स्वीकार करने और इसका अनुसरण करने से रोकते हैं, वे अज्ञान से, इनिद्रयविमोहित और मतवादविमूढ़ मन और हृदय से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इनकी स्थिति निम्न और बाह्य सत्य में है और इसलिये उच्चतर सद्वस्तु के विषय में इन्हें संशय होता है, जिनके सत्य को जानने से सब कुछ जाना जाता है, उन परमात्मा के साथ एकत्व में निवास कर, सतत योगस्थ होकर, अनुभवगम्य ज्ञान के द्वारा, इस संशय की ज्ञान की तलवार से काट डालना होगा ऐसा गीता कहती है।


हमें वहाँ जो उच्चतर ज्ञान प्राप्त होता है वह ब्रह्मवित् पुरुष के लिये पदार्थ-मात्र को देखने की वह स्थायी दृष्टि है जो उसे ब्रह्म में निर्बाध रूप से स्थित होने पर प्राप्त होती है, यह सब का बहिष्कार कर केवल ब्रह्म का दर्शन, या चेतना या ज्ञान नहीं है, बल्कि सब कुछ को ब्रह्म में आत्मवत् देखना है। यहाँ कहा गया है। कि जिस ज्ञान के द्वारा हम लोग उस स्थिति में पहुँचते हैं जहाँ से फिर इस मानसिक प्रकृति के मोहजाल में लौटना नहीं होता, वही वह ज्ञान है ‘‘जिसे तू सर्वभूतों को अशेष रूप से आत्मा के अंदर और फिर मेरे अंदर देखेगा।” इसी बात को गीता ने अन्यत्र और भी अधिक विस्तृत रूप से इस प्रकार कहा है कि, ‘‘सर्वत्र समदर्शी पुरुष सब भूतों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सब भूतों को देखता है। जो कोई मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अंदर देखता है वह कभी मुझे नहीं खोता, न मैं उसे खोता हूँ। जो एकत्व को प्राप्त योगी सब भूतों में स्थित मुझको भजता है वह चाहे जैसे रहे या करे पर मेरे ही अंदर रहता और कर्म करता है।


हे अर्जुन! जो कोई सुख में, दुःख में, सर्वत्र, सबको अपनी ही तरह समान रूप से देखता है उसीको मैं परम योगी मानता हूँ।” यही उपनिषद् का पुरातन वैदांतिक ज्ञान है जिसे गीता सतत हम लोगों के सामने रखती है; परंतु वेदांत-ज्ञान के जो निरूपण पीछे हुए उनकी अपेक्षा गीता की श्रेष्ठता इस विषय में यही है कि गीता ने इस ज्ञान को दिव्य जीवन का एक महान् व्यवहार-शास्त्र बना दिया है। इस एकत्व-ज्ञान और कर्मयोग के परस्पर-संबंध के विषय में गीता का विशेष आग्रह है और इसीलिये जगत् में मुक्त कम के आधार के रूप में एकत्व के ज्ञान पर जोर दिया गया है। जहां-जहाँ गीता ज्ञान की बात कहती है वहीं-वहीं ज्ञान की बात भी कहती है, जो ज्ञान का फल है।


जहां-जहाँ वह समता की बात कहती है वहीं-वहीं ज्ञान की बात कहती है जो समता आ आधार है। गीता जिस समता का उपदेश देती है उसका आरंभ और अंत जीव की स्थितिशील अवस्था में ही नहीं होता, यह अवस्था तो केवल आत्म-मुक्ति के लिये ही उपयोगी है। गीता की समता सदा कर्मों की आधरभूमि है। मुक्ति पुरुष में ब्रह्म की शांति नींव है और मुक्त प्रकृति में ईश्वर का विशाल, स्वतंत्र, सम और जगद्व्यापी कर्म उस शक्ति को संचारित करता है जो इस शांति से निःसृत होती है, और इन दोनों का एकीकारण दिव्य कर्म और दिव्य ज्ञान का समन्वय है। गीता की ये बातें अन्य दार्शनिक, नैतिक या धार्मिक जीवन-संबंधी शास्त्रों में भी हैं, किंतु हम तुरंत देख सकते हैं कि गीता में इनका अर्थ कितना गंभीर और व्यापक है। हम कह चुके हैं कि तितिक्षा, दार्शनिक उदासीनता और नति तीन प्रकार की समता की नींव हैं; परंतु गीता में जो ज्ञान का सत्य है वह इन तीनों को केवल एक साथ इकट्ठा ही नहीं करता, बल्कि इन्हें अत्यंत गंभीर, अपूर्व एवं उदार सार्थक्य प्रदान करता है। स्टोइक ज्ञान जीव में धैर्य के द्वारा आत्मसंयम से आता है; वह अपनी प्रकृति से युद्ध करके समता लाभ करता है, जिसको वह प्राकृत विद्रोही के संबंध में सतत सावधान रहकर और उन विद्रोहों को दबाकर बनाये रखता है।


इससे एक महान् शांति मिलती है, एक तापस सुख मिलता है; परंतु यह वह परम आनंद नहीं है जो मुक्त पुरुष को, किसी नियम के अधीन रहने से नहीं, बल्कि अपनी दिव्य सत्ता की विशुद्ध, सहज-स्वाभविक सिद्धस्थिति में रहने से प्राप्त होता है, यहाँ वह ‘‘चाहे जिस तरह रहे, चाहे जो करे भगवान् में ही रहता और कर्म करता है।” कारण यहाँ जो सिद्ध-स्थिति प्राप्त होती है वह केवल प्राप्त ही नहीं होती, स्वाधिकार से सदा अधिकृत भी रहती है, इसकी रक्षा के लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, क्योंकि वह जीव का स्वभाव बन जाती है। गीता निम्न प्रकृति के साथ हमारे युद्ध में सहनशक्ति और धैर्य को प्राथमिक साधना के तौर पर स्वीकार करती है; परंतु जहाँ अपने पुरुषार्थ से एक प्रकार वशित्व प्राप्त होता है वहाँ इस वशित्व की मुक्तावस्था भगवत्सायुज्य से ही अर्थात् व्यष्टिपुरुष के उन ‘एक‘ अद्वितीय भगवान् में निमज्जित या स्थित होने से और अपनी इच्छा को भगवान् की इच्छा में खो देने से ही प्राप्त होती है।


प्रकृति और उसके कर्मों के एक अधीश्वर हैं जो प्रकृति में रहते हुए भी उसके ऊपर हैं, वे ही हमारी सर्वोत्तम सत्ता और हमारी विश्वव्यापी आत्मा हैं; उनके साथ एक हो जाना अपने-आपको दिव्य बनाना है। भगवान् के साथ एकत्व लाभ करके हम परम स्वातंत्र्य और परम प्रभुत्व में प्रवेश पाते हैं। स्टोइक तितिक्षा-धर्म का आदर्श वह मुनि है जो आत्मवशी है, अपना राजा अपने-आप है, क्योंकि वह आत्म-अनुशासन के द्वारा बाह्य परिस्थितियों को अपने वश में कर लेता है। यह आदर्श बाह्मतः वेदांत के ‘स्वराट्’ और ‘सम्राट्’ से मिलता-जुलता है, पर है उससे निम्नतर स्तर का।


स्टोइक साम्राज्य की रक्षा अपने–आप पर और अपनी परिस्थिति पर एक प्रकार का बल प्रयोग करके ही की जाती है; परंतु योगी का पूर्ण मुक्त साम्राज्य दिव् प्रकृति की सनातन स्वराट्-सत्ता से स्वभावतः सिद्ध है, यह जीव का ईश्वर की अबोध विश्व-सत्ता के साथ योग है। योगी जिस यंत्रात्मक प्रकृति के द्वारा कर्म करता है उससे ऊपर उठकर अंत में बिना किसी बलात्कार के सहज ही अपनी उस ऊर्ध्व-सत्ता और श्रेष्ठता में ही निवास करता है। जगत् के सब पदार्थ उसके वश में होते हैं क्योंकि वह सब पदार्थ के साथ एकात्म हो जाता है। रोमन प्रथा का[1] उदाहरण लें तो स्टोइक स्वाधीनता लिबटर्स की स्वाधीनता है जो मुक्त किये जाने के बाद भी उस शक्ति के अधीन रहता है जिसका वह गुलाम था। उसे प्रकृति से पुरस्कार स्वरूप मुक्ति मिली है।


गीता की मुक्ति मुक्त पुरुष की सच्ची मुक्ति है, वह निम्न प्रकृति से निकलकर परा प्रकृति में जन्म लेने से प्राप्त मुक्ति है और वह अपनी दिव्यता में स्वतःस्थित रहती है। ऐसा मुक्त पुरुष जो कुछ करता है, चाहे जिस तरह रहता है, रहता है भगवान् में ही वह घर का लाड़ला लाल है, ‘बालवत्‘ है जिससे कोई भूल नहीं होती, जिसका कभी पतन नहीं होता, क्योंकि वह उन परम सिद्ध से, उन सर्वानन्दयम सर्वप्रेममय सर्वसौन्दर्यमय से भरा रहता है, वह जो कुछ करता है वह भी उन्हीं से परिपूर्ण होता है। जिस ‘राज्यं समृद्धं’ का वह उपभोग करता है वह वही मधुर सुखमय राज्य है जिसके विषय में यूनानी तत्त्ववेत्ता ने सारगर्भित शब्दों में कहा है ‘‘वह शिशु-राज्य है।”


दार्शनिक का ज्ञान ऐहिक जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है यानी जगत् के सब बाह्य पदार्थों की क्षणभंगुरता, जगत् के सारे भेद-प्रभेदों की निरर्थकता और आंतरिक स्थिरता, शांति, ज्योति और आत्म-निर्भरता की श्रेष्ठता का ज्ञान है। यह दार्शनिक उदासीनता से प्राप्त एक प्रकार की समता है; इससे एक बड़ी स्थिरता तो प्राप्त होती है, पर वह महान् आत्मानंद नहीं मिलता; यह संसार से अलग रहकर मिलने वाली मुक्तावस्था है, यह ज्ञान किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हुए अपनी महिमा में स्थित ल्यूक्रेशियन पुरुष का नीचे उस संसार-समुद्र की उद्दाम तरंगों से इधर-उधर झोंका खाने वाले दुःखी प्राणियों को दूर से देखना है जिसमें से वह स्वयं निकल आया है- यह भी संसार से अलग रहना और अंत में संसार के लिये व्यर्थ है।


उदासीनतारूपी दार्शनिक प्रेरक-भाव को गीता एक प्रारंभिक साधन के तौर पर स्वीकार करती है; परंतु उदासीनता का गीता में जो अंतिम रूप है- उसके लिये यदि इस अपर्याप्त शब्द का किसी तरह से व्यवहार किया भी जाये तो-उसमें दार्शनिक अलगाव का भाव नहीं है। वह ‘उदासीनवत्’ आसीन होना है सही, पर वैसे ही जैसे भगवान् ऊर्ध्व में आसीन हैं, जिन्हें इस जगत् में किसी चीज की जरूरत नहीं, फिर भी जो सतत कर्म करते और सर्वत्र वर्तमान रहकर प्राणियों के प्रयत्न के आश्रय, सहायक और परिचालक होते हैं। यह समता सब प्राणियों के साथ एकत्व पर प्रतिष्ठित है। दार्शनिक समता में जो कमी है वह इससे पूरी होती है; क्योंकि उसकी आत्मा शांति की आत्मा है और प्रेम की आत्मा भी। इस समता में भगवान् के अंदर बिना अपवाद सबके दर्शन होते हैं। यह सब प्राणियों के साथ एकात्मभूत हो जाना है और इसलिये इसमें सबके साथ परम सहानुभूति रहती है। इस सर्वव्यापक, संपूर्ण आत्मगत सहानुभूति और आध्यात्मिक एकता में सबका अशेषेण (बिना अपवाद) समावेश होता है, जो कुछ अच्छा है, सुन्दर है केवल उसीके साथ नहीं बल्कि इसके अंदर सब कुछ आ जाता है, फिर चाहे वह कितना ही नींच, पतित, पापी या घृणित प्रतीत होता है। केवल द्वेष, क्रोध या अनुदारता के लिये ही नहीं, बल्कि अलगाव, घृणा या किसी प्रकार के श्रेष्ठतारूपी क्षुद्र गर्व के लिये भी इसमें कोई स्थान नहीं है। इस समता में भागसमान, बाह्य मनुष्य के संघर्षरत मन की अज्ञानता के प्रति एक दिव्य करुणा होगी, उस पर समस्त प्रकाश और शक्ति और सुख की वर्षा करने के लिये एक दिव्य संकल्प होगा सही, पर उसके अंदर की आत्मा के प्रति इनसे भी कोई चीज होगी, उसके प्रति श्रद्धा और प्रेम। क्योंकि सबके भीतर से, जैसे साधु महात्माओं के अंदर से वैसे ही चोर, वेश्या और चाण्डाल के अंदर से भी वे ही प्रियतम ताका करते और पुकार कर कहते हैं “यह मैं हूँ।” सब भूतों में जो मुझको प्यार करता है”-दिव्य सार्वत्रिक प्रेम की परम प्रगाढ़ता और गंभीर्य को देने वाली इससे अधिक शक्तिशाली वाणी का प्रयोग संसार के और किस दर्शनशास्त्र या धर्म में हुआ है? 


एकता की संतुलित अवस्था में अंतःकरण के अंदर आत्म-समर्पण से प्राप्त पूर्ण और निरपेक्ष समता रहेगा, मन भागवत प्रकाश और शक्ति का निष्क्रिय स्त्रोतमार्ग हो जायेगा और हमारी सक्रिय सत्ता जगत् में दिव्य ज्योति और शक्ति के कार्य के लिये एक बलशाली अमोघ यंत्र हो जायेगी।


इस अवस्था में हमारे अंदर दूसरों के व्यवहार के प्रति भी समता रहेगी। उनके किसी व्यवहार से इस आंतरिक एकत्व, प्रेम और सहानुभूति में कोई अंतर न पड़ेगा, क्योंकि सबमें जो एक आत्मा है, समस्त प्राणियों में जो भगवान् हैं उनका प्रत्यक्ष अनुभव होने से ही ये भाव उदित हुए हैं। परंतु इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे लोग चाहे जेसा व्यवहार करें, उन्हें और उनके व्यवहारों को नत होकर सह या मान लिया जायेगा, स्वयं निष्क्रिय रहा जायेगा और उनका कोई प्रतिरोध न होगा; यह नहीं हो सकता, क्योंकि जगदीश्वर के जागतिक संकल्प का उपकरण होकर सतत उनकी आज्ञा का पालन करने का यही तो अभिप्राय है कि जगत् में विरोधी शक्तियों का जो संघर्ष चल रहा है उसमें उन वैयक्तिक कामनाओं से युद्ध करना होगा जो अहंकार की तुष्टि में प्रवृत्त हैं। इसीलिये अर्जुन को प्रतिरोध करने, लड़ने और जीतने का आदेश दिया गया है; पर साथ-साथ यह भी आदेश है कि लड़ना होगा द्वेष-रहित होकर, व्यक्तिगत काम-क्रोध को छोड़कर, शत्रुता का परित्याग करके, क्योंकि मुक्त पुरुष में ये मनोविकार नहीं होते।


निरंहकार होकर लोक-संग्रह के लिये कर्म करना, लोगों को भगवन्मार्ग पर कायम रखने और चलाने के लिये कर्म करना वह धर्म है जो भगवान् के साथ, विश्व-पुरुष के साथ अपनी अंतरात्मा की एकता से सवभावतः उत्पन्न होता है, क्योंकि विश्व के अखिल कर्म का संपूर्ण अभिप्राय और लक्ष्य यही है। इस कर्म का सब जीवों के साथ, यहाँ तक कि हमारे विरोधी और शत्रु बनकर आने वालों के साथ भी हमारी एकता से कोई विरोध नहीं। कारण भगवान् का जो लक्ष्य है वही उनका भी लक्ष्य है, क्योंकि वही सबका छिपा हुआ लक्ष्य है, उन जीवों का भी जिनके बहिर्मुख मन अज्ञान और अहंकार के मारे इस पथ से च्युत होकर भटका करते हैं और अपनी अंत:प्रेरणा का प्रतिरोध किया करते हैं। उनका विरोध करना और उन्हें हराना ही उनकी सबसे बड़ी बाहरी सेवा है।


इस दृष्टि के द्वारा गीता उस अपूर्ण सिद्धांत का निराकरण कर देती है जो समता की एक ऐसी शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसमें अव्यावहारिक रूप से समस्त संबंधों की अवहेलना की जाती है और जो उस दुर्बलकारी प्रेम की शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसके मूल में ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। परंतु, वह असली तत्त्व को अक्षुण्ण रखती है। वह अंतरात्मा के लिये सबके साथ एकत्व है, हृदय के लिये अचल विश्व-प्रेम, सहानुभूति और करुणा है; परन्तु हाथों के लिये नैर्व्यक्तिक रूप से हित-साधन करने का स्वातंत्र्य, ऐसा हित-साधन नहीं जो भगवान् की योजना का कोई विचार न करे या उसके विरुद्ध जाकर इस या उस व्यक्ति के सुख-साधन में लग जाये, बल्कि ऐसा हित-साधन जो सृष्टि के हेतु का सहायक हो, जिससे मनुष्यों को अधिकाधिक सुख और श्रेय प्राप्त हो,सब भूतों का संपूर्ण कल्याण हो।


भगवान् के साथ एकत्व, सब प्राणियों के साथ एकत्व, सर्वत्र सनातन भागवत एकता का अनुभव और इसी एकता की ओर मनुष्यों को आगे बढ़ा ले जाना, यही वह जीवन-विषयक धर्म है जो गीता की शिक्षा से उद्भूत होता है। इससे अधिक महान्, अधिक व्यापक, अधिक गंभीर और कोई धर्म नहीं हो सकता। स्वयं मुक्त होकर इस एकत्व में रहना और मानव-जाति को इसी रास्ते पर आगे बढ़ने में मदद देना तथा अपने सब कर्मों को भगवान् के लिये करते हुए, और मनुष्यों को जिसका जो कर्तव्य कर्म है उसे हर्ष और उत्साह के साथ करने में बढ़ावा देना, इससे अधिक महान् और उदार दिव्यकर्मविधान नहीं हो सकता। यह मुक्त स्थिति और यह एकत्व हमारी मानव-प्रकृति का गुप्त लक्ष्य है और यही मानव-जाति के जीवन में अंतर्निहित चरम इच्छा है। इसी की ओर मनुष्यजाति को उस सुख की प्राप्ति के लिये मुड़ना होगा जिसे वह अभी तक नहीं खोज पायी। पर यह तब होगा जब मनुष्यों की आखें खुलेंगी और वे अपनी इन आंखों और अपने इन हृदयों को ऊपर उठाकर अपने में, अपने चारों ओर, सब भूतों में, सर्वेषु भूतेषु, और ‘सर्वत्र’ भगवान् को देखने लगेंगे और यह जान लेंगे कि हम तब भगवान् में ही रहते हैं और हमारी यह भेदजनक निम्न प्रकृति केवल एक कैदखाने की दीवार है जिसे तोड़ डालना होगा, या फिर यह बच्चों के पढ़ने की एक पाठशाला है जिसकी पढ़ाई खतम करके आगे बढ़ना होगा जिससे हम प्रकृति में प्रौढ़ और आत्मा में मुक्त हो जायें। ऊर्ध्वस्थित भगवान् के साथ मनुष्य में और जगत मेंस्थित भगवान के साथ एकात्मभाव को प्राप्त होना ही मुक्ति का अभिप्राय और संसिद्धि का रहस्य है। 




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