यज्ञ-रहस्य



इन श्लोकों के बाद ही गीता ने यज्ञ के अर्थ की विशद व्याख्या की है और वहीं जिस भाषा का प्रयोग किया गया है उससे इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता कि यहाँ यज्ञ संबंधी वर्णन रूपकात्मक है और इस शिक्षा के द्वारा जिस यज्ञ को करने के लिये कहा गया है वह यज्ञ आंतिरिक है। प्राचीन वेदिक पद्धति में सदा ही दो तरह का अर्थ रहा है, एक भौतिक और दूसरा मनोवैज्ञानिक, एक बाह्म और दूसरा रूपकात्मक, एक यज्ञ बाह्य अनुष्ठान और दूसरा उसकी सब विधियों का आंतरिक आशय। परंतु प्राचीन वैदिक योगियों की गूढ़ रहस्यमयी रूपकात्मक भाषा को जो सर्वथा यथावत्, अदभुत, कवित्वमय और मनोवैज्ञानिक थी, इस समय तक लोग भूल चुके थे, इसलिये गीता में उसी के स्थान पर वेदांत और पश्वत्कालीन योग के भाव को लेकर व्यापक, सर्वसामान्य और दार्शनिक भाषा का प्रयोग किया गया है। यज्ञ की अग्नि भौतिक अग्नि नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मग्नि अथवा ब्रह्म की और जानेवाली ऊर्जा, आभ्यंतर अग्नि, यज्ञपुरोहित-स्वरूप अंतःशक्ति है जिसमें आहुति दी जाती है। अग्नि है आत्म-संयम या विशुद्धि इन्द्रिय-क्रिया अथवा राजयोग और हठयोग में समान रूप से प्रयुक्त प्राणयाम-साधन की प्राणशक्ति, अथवा अग्नि है आत्म-ज्ञानाग्नि, आत्मार्पणरूप यज्ञ की अग्निशिखा। यहाँ बताया गया है कि यज्ञ शिष्ट (यज्ञ से बचा हुआ भाग) जो भक्ष किया जाता है वही अमृत है; हम देखते हैं कि यहाँ भी कुछ-कुछ वेदों की रूपकात्मक भाषा है, जिसमें सोमरस को अमृत का भौतिक प्रतीक कहा जाता था। अमृत स्वयं वह दिव्य और अमरत्व देने वाला आनंद है जो यज्ञ से प्राप्त होता, देवताओं को चढ़ाया जाता और मनुष्यों द्वारा पान किया जाता है। इस यज्ञ में मनुष्य के (भौतिक या मनोवैज्ञानिक किसी भी शक्ति का कोई भी कर्म हव्य है जो उसके ) द्वारा शरीरिक अथवा मानसिक क्रिया के रूप में देवताओं के लिये, अथवा देवातिदेव के लिये, आत्मा के लिये विश्वसंचालक शक्तियों के लिये अपनी ही उच्चतर सत्ता के लिये अथवा मानवजाति और सर्वभूतों की अंतरात्मा के लिये उत्सर्ग की गयी हर क्रिया हव्य है। यज्ञ का यह विस्तृत विवरण ही यज्ञ की एक ऐसी विशाल और व्यापक व्याख्या देता हुआ चलता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से घोषणा की गयी है कि यज्ञ की क्रिया, यज्ञ की अग्नि, यज्ञ की हवि, यज्ञ का होता और भोक्ता, यज्ञ का ध्येय और यज्ञ का उद्देश्य, सब कुछ ब्रह्म ही है। अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म के द्वारा ब्रह्माग्नि में ही अर्पित है, बह्मकर्म में समाधि के द्वारा ब्रह्म ही वह है जिसे पाना है। तो यह वही ज्ञान है जिससे युक्त होकर मुक्त पुरुष को यज्ञकर्म करना होता है। ब्रह्म और पुरुषः प्राचीन काल में इन महान् वेदांत-वाक्यों में इसी ज्ञान की घोषणा हुई थी। यह समग्र एकत्व का ज्ञान है; यह वह एक है जो कर्ता, कर्म और कर्मोद्देश्य के रूप से तथा ज्ञाता, ज्ञान और श्रेय के रूप से प्रकट होता है। 


जिस विश्वशक्ति में कर्म की आहुति दी जाती है वह स्वयं भगवान् हैं; आहुति की उत्सर्ग की हुई शक्ति भगवान् हैं; यज्ञ के द्वारा गंतव्य स्थान भी भगवान् ही हैं। जिस मनुष्य को यह ज्ञान है और जो इसी ज्ञान में रहता और कर्म करता है उसके लिये कोई कर्म बंधन नहीं बन सकता, उसका कोई कर्म वैयाक्तिक और अहंकार-प्रयुक्त नहीं होता। दिव्य पुरुष ही अपनी दिव्य प्रकृति के द्वारा अपनी सत्ता में कर्म करता है वह अपनी आत्म-चेतन विश्व-शक्ति की अग्नि में प्रत्येक पदार्थ की आहुति देता है; और इस भगवत्-परिचालित गति और कर्म का लक्ष्य है जीव का, भगवान् के साथ एक होकर, भगवान् की स्थिति और चेतना के ज्ञान को प्राप्त करना और उन पर स्वत्व रखना। इस तत्त्व को जानना, इसी एकत्व-साधक चेतना में रहना और कर्म करना ही मुक्त होना है। किंतु सभी योगी इस ज्ञान तक नहीं पहुँचते। “कुछ योगी देव यज्ञ ( देवताओं के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले यज्ञ ) करते हैं; कुछ और यज्ञ को यज्ञ के द्वारा ही ब्रह्माग्नि में हवन करते हैं।”


देव यज्ञ करने वाले भगवान् की कल्पना, उनके रूपों और शक्तियों में करते हैं और विधि साधनों या धर्मों के द्वारा, अर्थात् कर्म संबंधी सुनिश्चित विधि-विधान, आत्म-संयम और उत्सृष्ट कर्म के द्वारा उन्हे ढूंडते हैं; और जो ब्रह्माग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करने वाले ज्ञानी हैं उनके लिये, यज्ञ का भाव है कि कुछ कर्म करें उसे सीधा भगवान् को अपर्ण करना, अपनी सारी वृत्तियों और इन्द्रिय-व्यापारों को एकीभूत भागवत चैतन्य और शक्ति में निक्षिप्त कर देना ही एकमात्र साधन है, एकमात्र धर्म है। यज्ञ के साधन विविध हैं, हवन भी नानाविध हैं। एक आत्म-नियंत्रण और आत्म-संयमरूप आंतरिक यज्ञ है जिससे उच्चतर आत्मवशित्व और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। “कुछ अपनी इन्द्रियों को संयमाग्नि में हवन करते हैं, कुछ दूसरे इन्द्रियाग्नि में विषयों का हवन करते हैं, कुछ समस्त इन्द्रियाकर्मों और प्राण- कर्मों का ज्ञानदीप्त आत्म-संयम योगरूपी अग्नि में हवन अग्नि में हवन करते हैं।” तात्पर्य, एक साधना यह है कि इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण तो किया जाता है, पर उस इन्द्रिय-व्यापार से मन को कोई क्षोभ नहीं होने दिया जाता, मन पर उसका कोई असर नहीं पड़ने दिया जाता, इन्द्रियां स्वयं ही विशु़द्ध यज्ञाग्नि बन जाती है। फिर यह भी एक साधना है जिसमें इन्द्रियों को इतना स्तब्ध कर दिया जाता है कि अंतरात्मा अपने विशुद्ध, स्थिर और शांति रूप में मन क्रिया के परदे के भीतर से निकलकर प्रकट हो जाता है। एक साधना यह है जिससे, आत्मरूप का बोध होने पर, सब इन्द्रियकर्म और प्राणकर्म उस एक स्थिर प्रशांत आत्मा में ही ले लिये जाते हैं।


सिद्धि का साधक योगी इस प्रकार जो यज्ञ करता है उसमें दी जाने वाली आहुति द्रव्यमय हो सकती है, जैसे भक्त लोग अपने इष्ट देव को पूजा चढ़ाते हैं; अथवा यह यज्ञ तपोमय से भी हो सकता है, अर्थात् आत्म -संयम का वह तप जो किसी महत्तर उद्देश्य की सिद्धि के लिये किया जाये; अथवा राजयोगियों और हठयोगियों के प्राणायाम जैसा कोई योग भी हो सकता है। अथवा अन्य किसी भी प्रकार का योग-यज्ञ हो सकता है। इन सबका फल साधक के आधार की शुद्धि है; सब यज्ञ परम की प्राप्ति के साधन हैं। इन विविध साधनों में मुख्य बात, जिसके होने से ही ये सब साधन बनते हैं, यह है कि निम्न प्रकृति की क्रियाओं को अपने अधीन करके, कामना के प्रभुत्व को घटाकर उसके स्थान पर किसी महती शक्ति को प्रतिष्ठित करके अहमात्मक भोग को त्यागकर उस दिव्य आनंद का आस्वादन किया जाये जो यज्ञ से, आत्मोत्सर्ग से, आत्म–प्रभुत्व से, अपने निम्न आवेगों को किसी महत्तर ध्येय पर न्योछावर करने से प्राप्त होता है।


जो यज्ञाविशष्ट अमृत भोग करते हैं वे ही सनातन ब्रह्म को लाभ करते हैं, यह ही विश्व का विधान है, यज्ञ के बिना कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, न इस लोक में प्रभुत्व प्राप्त हो सकता है, न परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है–“जो यज्ञ नहीं करता उसके लिये यह लोक भी नहीं है, परलोक की तो बात ही क्या, इसलिये ये सब यज्ञ और अन्य अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख में विस्तृत हुए हैं-उस अग्नि के मुख में जो सब हव्यों को ग्रहण करता है। ये सब कर्म में प्रतिष्ठित उसी एक महान् सत् के साधन और रूप हैं, जिन साधनों के द्वारा मानव-जीव का कर्म उसी तत्त्व को समर्पित होता है। मानव-जीव का बाह्म जीवन भी उसी तत् का एक अंश है और उसकी अंतरतम सत्ता उसके साथ एक है। ये सब साधन या यज्ञ ‘कर्मज’ हैं, सब भगवान् की उसी एक विशाल शक्ति से निकले, उसी एक शक्ति द्वारा निर्दिष्ट हुए हैं जो विश्वकर्म में अपने -आपको अभिव्यक्त करती और इस विश्व के समस्त कर्म को उसी एक परमात्मा परमेश्वर का क्रमशः बढ़ता हुआ नैवेद्य बनाती है जिसकी चरम अवस्था, मानव-प्राणी के लिये आत्म-ज्ञान की या भागवत चेतना की या ब्राह्मी चेतना की प्राप्ति है। “ऐसा जानकर तू मुक्त होगा” -परंतु यज्ञ के इन विभन्न रूपों में उतरती-चढ़ती श्रेणियां हैं, जिनमें सबसे नीची श्रेणी है द्रव्यमय यज्ञ और सबसे ऊंची श्रेणी है ज्ञानमय यज्ञ।


ज्ञान वह चीज है जिसमें वह सारा कर्म परिसमाप्त होता है। ज्ञान से यहाँ किसी निम्न कोटि का ज्ञान अभिप्रेत नहीं है, बल्कि यहाँ अभिप्रेत है परम ज्ञान, आत्म-ज्ञान, भगवत्-ज्ञान, वह ज्ञान जिसे हम उन्हीं लोगों से प्राप्त कर सकते हैं जो सृष्टि के मूल-तत्त्व को जानते हैं। यह वह ज्ञान है जिसके प्राप्त होने पर मनुष्य मन के अज्ञानमय मोह में तथा केवल इन्द्रिय-ज्ञान की और वासनाओं और तृष्णाओं की निम्नतर क्रियाओं में फिर नहीं फंसता। यह वह ज्ञान है जिसमें सब कुछ परिसमाप्त होता है। उसके प्राप्त होने पर “तू सब भूतों को अशेषतः आत्मा के अंदर और तब मेरे अंदर देखेगा।” क्योंकि आत्मा वही एक, अक्षर, सर्वगत, सर्वाधार, स्वतः सिद्ध सद्वस्तु या ब्रह्म है जो हमारे मनोमय पुरुष के पीछे छिपा हुआ है और जिसमें चेतना अंहभाव से मुक्त होने पर विशालता को प्राप्त होती है और तब हम जीवन सी एक सत् के अंदर भूत रूप में देख पाते हैं। परंतु यह आत्मतत्त्व या अक्षर ब्रह्म हमारी वास्तविक अंतश्चेतना के सामने उन परम पुरुष के रूप में भी प्रकट होता है जो हमारी सत्ता के उद्गम-स्थान हैं और क्षर या अक्षर जिनका प्राकट्य है।


वह ही हैं ईश्वर, भगवान्, पुरुषोत्तम। उन्हीं को हम हर एक चीज यज्ञ रूप से समर्पित करते हैं, उन्हीं के हाथों में हम अपने सब कर्म सौंप देते हैं; उन्हीं की सत्ता मे हम जीते और चलते-फिरते हैं; अपने स्वभाव में उनके साथ एक होकर और उनके अंदर जो सृष्टि है उसके साथ एक होकर, हम उनके साथ और प्राणिमात्र के साथ एक जीव, सत्ता की एक शक्ति हो जाते हैं; हम अपनी आत्म-सत्ता को उनकी परम सत्ता के साथ तद्‌रूप और एक कर लेते हैं। कामवर्जित यज्ञार्थ कर्मों के करने से हमें ज्ञान होता है और आत्मा अपने-आपको पा लेती है; आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान में स्थित होकर कर्म करने से हम मुक्त हो जाते और भागवत सत्ता की एकता, शांति और आनंद में प्रवेश करते हैं।


गीता का संपूर्ण कर्म-सिद्धांत उसकी यज्ञसंबंधी भावना पर अवलंबित है और ईश्वर, जगत् और कर्म के बीच सनातन संयोजक सत्य इसमें समाया हुआ है। मानव-मन साधारणतया जीवन के बहुमुखी सनातन सत्य की केवल आंशिक धारणाओं और दृष्टिकोणों को पकड़ पाता है और उन्हीं के आधार पर जीवन, सदाचार और धर्मसंबंधी नाना प्रकार के सिद्धांतों को गढ़ डालता है, तथा उनके इस या उस प्रकार या रूप पर जोर देने लगता है। लेकिन मन जब महान् प्रकाश के युग में अपने जगत्-ज्ञान के साथ भागवत ज्ञान और आत्मज्ञान के पूर्ण और समन्वयात्मक संबंध की और लौटता है तो उसे हमेशा किसी पूणता की और पुनर्जागृत होना चाहिये। गीता की शिक्षा वेदान्त के इस मूल सत्य पर आश्रित है कि सारी आत्मसत्ता एक ब्रह्मसत्ता ही है और सारी भूतसत्ता उसी ब्रह्म का चक्र है; एक ऐसी दिव्य संसृति है जिसकी प्रवृति भगवान् से होती और भगवान् में ही जिसकी निवृत्ति होती है।


सब प्रकृति का ही प्राकट्य-कर्म है और प्रकृति भगवान् की वह शक्ति है जो अपने कर्मों के स्वामी और अपने रूपों के अंतर्यामी भागवत पुरुष की चेतना और इच्छा को ही कार्य में परिणत किया करती है। उसी अतंर्यामी की प्रसन्नता के लिये वह नामरूप की लीला में और प्राण तथा मन के कर्मों मे अवतीर्ण होती है और फिर मन-बुद्धि और आत्म-ज्ञान के द्वारा वह उस आत्मा को सचेतन रूप से पुनः कर प्राप्त लेती है जो उसके अंदर निवास करती है। पहले आत्मा, जो कुछ भी वह है तथा नामरूपात्मक विकास से उसका जो कुछ भी अभिप्राय है वह सब, प्रकृति में समा जाता है; इसके बाद आत्मा का विकास होता है, अर्थात् वह जो कुछ है, उसका जो अभिप्राय है, और जो छिपा हुआ है, पर नामरूपात्मक सृष्टि जिसकी सूचना करती है, वह सब प्रकट होता है।


प्रकृति का यह चक्र कभी संभव न होता यदि पुरुष अपनी तीन शाश्वत अवस्थाओं को एक साथ धारण करके बनाये न रखता, क्योंकि प्रत्येक अवस्था इस कर्म की समग्रता के लिये आवश्यक है। पुरुष का क्षररूप में अपने-आपको प्रकट करना अपरिहार्य है, और हम दीखते हैं कि क्षर-रूप में पुरुष परिच्छिन्न है, अनेक है, सर्वभूतानि है। अब हम उसे अनंत वैचित्र्य और नानाविध संबंधों से युक्त असंख्य प्राणियों के परिच्छिन्न व्यक्तित्व के रूप में देखते हैं, फिर हमें वह इन सब प्रणियों के पीछे होने वाले देवताओं की क्रियाओं के मूलतत्त्व और उनकी शक्ति के रूप में दिखायी देता है-अर्थात् भगवान् की उन विश्वशक्तियों और गुणों के रूप में जिनके द्वारा जगत्-जीवन संचालित होता है और जहाँ हमें वह एक सत्ता अपने विविध विश्वरूपों में दिखायी देती है, अथवा हो सकता है कि एक ही परम पुरुष की विभूति के ये विविध आत्म-आविर्भाव हो।


फिर, इन सब रूपों और सत्ताओं के पीछे और इनके अंदर हमें यह भी प्रतीत होती है कि एक गूढ़, अक्षर, अनंत, देशकालातीत, नैर्व्यक्तिक, अव्यय सत् विद्यमान है, जो सारे अस्तित्व का एक अखंड आत्मभाव है, जिसमें सृष्टि के सब बहुभाव यथार्थ में एक हो जाते हैं। अतएव उस एक पुरुष-भाव में लौट आने पर व्यष्टिगत पुरुष का सक्रिय शांत व्यक्तित्व यह देखता है इस अखंड अनंत से जो कुछ निःसृत होता और उसके द्वारा जो कुछ धारित होता है वह उसके अक्षर और अलिप्त ऐक्य की शांति और समस्थिति में तथा विश्वव्यापकता की प्रशांत विशालता में मुक्त हो सकता है। अथवा चाहे तो इसमें जाकर वह व्यष्टिसत्ता से भी छुटकारा पा सकता है परंतु सबसे परम गुह्म उत्तमं रहस्य है पुरुषोत्ततत्त्व। पुरुषोत्तम परब्रह्म परमेश्वर हैं, जो अनंत और सांत दोनों अवस्थाओं को अपने अदंर धारण किये हुए है और जिनमें व्यक्ति और निर्वाक्ति, एक ब्रह्म और अनेक भूत, आत्मसत्ता और भूत-भाव, संसार-कर्म और विश्वातीत शांति, प्रवृत्ति और निवृत्ति, ये सब-के-सब मिलकर एकत्व को प्राप्त होते हैं, एक साथ और अलग-अलग भी धारणा किये जाते हैं।


परमेश्वर के अंदर ही सब वस्तुओं का गुह्म सत्य और निरक्षेप समन्वय होता है। कर्मों का सारा सत्य सत्ता के सत्य पर ही निर्भर होता है। सारा सक्रिय जीवन अपने अंतरतम सत्स्वरूप में प्रकृति का पुरुष के प्रति कर्म-यज्ञ के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। यह प्रकृति का अपने अंदर रहने वाले संत बहुपरूष की कामना को एक परम और अंत पुरुष के चरणों में भेंट चढ़ाना है। जीवन एक यज्ञवेदी है जिस पर प्रकृति अपने सब कर्मों और कर्मफलों को लाती और उन्हें भगवान् के उस रूप के सामने रखती है जिस रूप तक उसकी चेतना उस समय पहुँच पायी हो। इस यज्ञ से उसी फल की कामना की जाती है जिसे शरीर-मन-प्राण में रहने वाला जीव अपना तात्कालिक या परम श्रेय मानता हो।


प्रकृतिस्थ पुरुष अपनी चेतना और आत्मसत्ता के जिस स्तर तक पहुँचता है उसी के अनुसार उस ईश्वर का वह रूपस्वरूप होता है किसे वह पूजता है, आनंद का वह स्वरूप होता है जिसे वह ढ़ूढ़ता है और वह आशा होती है जिसके लिये वह यज्ञ करता है। प्रकृतिगत क्षर पुरुष की प्रवृत्ति में सारा व्यवहार पारस्परिक आदान-प्रदान है। क्योंकि सारा जीवन एक है और इसके विभाजन स्वभावतः परस्पर अबलंबन के किसी ऐसे विधान पर स्थापित हो सकते हैं जिसमें प्रत्येक विभाग दूसरे के सहारे बढ़ता और सबके सहारे जीता हो। जहाँ यज्ञ में स्वेच्छा से आहुति नहीं दी जाती वहाँ प्रकृति जबरदस्ती वसूलन करती है और इस प्रकार अपने जीवन-विधान रक्षा करती है।


पारस्परिक आदान-प्रदान जीवन का नियम है जिसके बिना वह एक क्षण के लिये भी नहीं टिक सकता और यह तथ्य संसार पर उस भगवान् के सर्जनशील संकल्प की छाप है जिसने संसार को अपनी सत्ता में अभिव्यक्त किया है। और यह इस बात का प्रमाण है कि यज्ञ के साथ, यज्ञ को सदा के लिये प्रजाओं का साथी बनाकर प्रजापति ने सृष्टि की थी। यज्ञ का यह विश्वव्यापक विधान इस बात का सुस्पष्ट चिह्न है कि यह संसार ईश्वर का है और ईश्वर का ही इस पर अधिकार है। जीवन उसी का राज्य और अर्चना-मंदिर है, किसी स्वतंत्र अहंकार की आत्मतुष्टि का साधन-क्षेत्र नहीं। अहंकार की पुष्टि हम लोगों के स्थूल और असंस्कृत जीवन का आरंभमात्र है, जीवन का परम हेतु तो भगवान् की प्राप्ति, अनंत देवेश की पूजा और खोज है, इसका साधन निरंतर बढ़ते रहने वाला वह यज्ञ है जिसकी परिपूर्णता पूर्ण आत्मान पर प्रतिष्ठित पूर्ण आत्मदान में होती है।जीवन में जो अनुभव प्राप्त होते हैं उनका हेतु अंत में भगवान् की और ले जाना ही है। परंतु व्यक्तिभूत जीव का जीवन अज्ञान के साथ शुरू होता है और बहुत काल तक अज्ञान में ही रहता है। अपने-आप पर ही दृष्टि रहने के कारण वह भगवान् को नहीं, बल्कि अहंकार को ही जीवन का मूल कारण और एकमात्र अर्थ समझता है। वह अपने कर्मों का कर्ता अपने-आपको ही जानता है और यह नहीं देख पाता कि जगत् के सारे कर्म जिनमें उसके अपने आंतर और बाह्म सब कर्म ही शामिल हैं, एक ही विश्व-प्रकृति द्वारा होने वाले कर्म हैं, और कुछ भी नहीं। वह अपने-आपको ही सब कर्मों का भोक्ता समझता है और यह कल्पना करता है कि सब कुछ उसके भोग के लिये है और इसलिये यही चाहता है कि प्रकृति उसकी व्यष्टिगत इच्छाओं को माने और तृप्त करे; उसे यह नहीं सूझता कि उसकी इच्छाओं को तृप्त करने से प्रकति का कुछ भी वास्ता नहीं है। उसकी इच्छाओं को जानने की उसे परवा भी नहीं, प्रकृति एक उच्चतर संकल्प की आज्ञा का पालन करती है और उस देव को तृप्त उसकी अपनी नहीं, बल्कि प्रकृति की है और प्रकृति इन सब चीजों का प्रतिक्षण उन भगवान् को यज्ञ-रूप से अर्पण किया करती है जिनके हेतु को सिद्ध करने के लिये वह इन सब चीजों को अज्ञात, अप्रकट साधनमात्र बनाया करती है। इस अज्ञान के कारण ही, जिसकी मुहर-छाप अहंकार है, जीव यज्ञ के विधान की उपेक्षा करता है और संसार में सब कुछ अपने लिये ही बटौरना चाहता है और केवल उतना ही देता है जितना प्रकृति अपनी भीतरी और बाहरी दबाव से दिलवाती है। यथार्थ में वह उससे अधिक कुछ नहीं ले सकता, जितना प्रकृति उसे लेने देती है, जितना प्रकृति में स्थित ईश्वरी शक्तियां उसकी कामना पूरी करने के लिेय देती हैं।


यज्ञमय संसार में अहंकारविमूढ़ जीव मानों ऐसा है जैसे कोई चोर या लुटेरा हो इन देवी शक्तियों का दिया हुआ सब कुछ लेता तो है, पर बदले में कुछ देने की नीयत नहीं रखता। वह जीवन के वास्तविक अभिप्राय से वंचित रह जाता है और चूंकि वह अपने जीवन तथा कर्मों का उपयोग यज्ञ के द्वारा अपनी सत्ता को उदार, विशाल और उन्नत बनाने में नहीं करता, इसलिये वह व्यर्थ ही जीता है। जब व्यष्टिभूत जीव अपने सब व्यवहारों में दूसरों में स्थित आत्मा के महत्त्व को उतना ही अनुभव करने और मानने लगता है जितना कि वह अपने अहंकार की ताकत और आवश्यकताओं को मानता है, जब वह अपने सब कार्यों के पीछे विश्व-प्रकृति को अनुभव करने लगता और विश्वदेवताओं के रूप में उस अखंड अनंत एक की झलक पाता है, तब वह अहंजन्य अपनी सीमा को पार करने और अपने आत्म-स्वरूप को पा लेने के रास्ते पर आ जाता है।


वह एक ऐसे धर्म को, एक ऐसे विधान को जानने लगता है जो उसकी कामनाओं के विधान से भिन्न होता है, उसकी कामनाओं को उस विधान के ही अधिकाधिक अधीन और अनुगत होना चाहिये। अब तक जहाँ उसकी सत्ता मे केवल अहंकार ही अहंकार दिखाई देता था, वहाँ अब समझ और नैतिकता विकसित हो जाती है। वह अपने अहंकार की मांग की अपेक्षा दूसरों की आत्माओं की मांग को अधिक महत्त्व देने लगता है; अब अहंकार और परोपकार के बीच के संघर्ष को स्वीकार करता और अपनी परोपकारवृत्ति को बढ़ाकर अपनी चेतना और सत्ता का विस्तार करता है। वह प्रकृति और प्रकृति में स्थित दैवी शक्तियों को अनुभव करने लगता और यह मानता है कि मुझे इनका भजन-पूजन करना चाहिये, इनकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिये, क्योंकि इन्हीं के द्वारा और इन्हीं की उपस्थिति और महत्ता को अपने विचार, संकल्प और प्राण में संवर्धित करने से में अपनी शक्ति, ज्ञान और सत्कर्म को तथा इनसे प्राप्त होने वाले तुष्टि-पुष्टि को बढा़ सकता हूँ।


इस प्रकार वह जीवन-विषयक अपने जड़ प्राकृतिक और अहमात्मक भाव में धार्मिक और अतिभौतिक भाव को जोड़ देता और सांत से होकर अनंत में ऊपर उठ जाने के लिये तैयारी करता है। परंतु यह केवल एक बीच की और बहुत दिनों तक रहने वाली अवस्था है। यह अवस्था अभी भी कामना के विधान और उसके अहंकार की आवश्यकता और धारणा की प्रधानता के तथा उसकी सत्ता और कर्मों पर उसकी प्रकृति के नियंत्रण के अधीन है, यद्यपि यह कामना संयत और नियत्रित है, यह अहंकार परिमार्जित है और यह प्रकृति के सवत्वगुण के द्वारा अधिकाधिक मात्रा में सूक्ष्मीभूत और प्रकाशमान है। पर यह सब क्षर, सांत व्यष्टि बुद्धि के क्षेत्र में, अवश्य ही उसके बहुत अधिक व्यापक क्षेत्र में, होता है। वास्तविक आत्मज्ञान और फलतः सच्चा कर्ममार्ग इसके परे है; क्योंकि ज्ञानयुक्त होकर किया जाने वाला यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ है और वही आदर्श कर्म को लाता है।


यह अवस्था तभी आ सकती है जबकि मनुष्य यह अनुभव करे कि मेरे अंदर और दूसरों के अंदर जो आत्मा है, वह एक ही सयत है और यह आत्मा अहंकार से ऊची चीज है, यह अनंत है, नैर्व्यक्तिक है, विश्वक्तिक है, विश्वव्यापी सत्य है जिसमें सब प्राणी चलते-फिरते और जीते-जागते हैं, जब वह यह अनुभव करता है कि समस्त विश्व देवा, जिनके लिये वह इन सब यज्ञों को करता है, एक ही अनंत परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं और वह उस एक परमेश्वर-संबधी अपनी मर्यादित करने वाली धारणाओं का परित्याग करके उन्हें एक अनिर्वचनीय परमदेव जानता है जो एक ही साथ सांत और अनंतम है, जो एक पुरुष है साथ ही साथ अनेक भी, प्रकृति के परे होकर भी प्रकृति के द्वारा अपने-आपको प्रकट करता है, जो त्रिगुण के बंधनों के परे होकर भी अपने अनंत गुणो के द्वारा अपनी सत्ता की शक्ति को नामरूपान्वित किया करता है। वही पुरुषोत्तम है जिन्हें यज्ञमात्र समर्पित करना होता है, किसी क्षणिक वैयक्तिक कर्मफल के लिये नहीं, बल्कि भगवान् को प्राप्त करने के लिये ताकि भगवान् के साथ समस्वरता और एकता में रहा जा सके। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की मक्ति और सिद्धि का मार्ग उत्तरोत्तर बढ़ने वाली नैर्व्यक्तिकता के द्वारा ही मिलता है।


मनुष्य का यह पुरातन और सतत अनुभव है। वह नैर्व्यक्तिक और अनंत पुरुष की और-जो विशुद्ध, ऊर्ध्व और सब वस्तुओं में और सत्ताओं में एक और सम है, जो प्रकृति में नैर्व्यक्त्कि और अनंत है, जो जीवन में नैर्व्यक्तिक और अनंत है, जो उसकी अंतरंगता में नैर्व्यक्ति और अनंत है-जितना अधिक खुलता है उतना ही अहंकार तथा सांत के दायरे से कम बंधता है, और उतना ही बंधक विशालता, शांति और निर्मल आनंद का अनुभव करता है, जो अमोद, सुख और चैन उसे सांत से ही मिल जाता है या उसका अहंकार अपने ही अधिकार से प्राप्त कर सकता है, वह क्षणिक, क्षुब्द और आरक्षित होता है। अहंभाव में और उसकी संकुचित धारणाओं, शक्तियों और सुखों में ही डूबे रहना इस संसार को सदा के लिये अनित्यं असुखं बना लेना है; सांत जीवन सदा ही व्यर्थता के भाव से व्यथित रहता है और इसका मूल कारण यह है कि सांतता जीवन का समर्ग या उच्चतम सत्य नहीं है; जीवन तब तक पूर्णतया यथार्थ नहीं होता जब तक वह अनंत की भावना की ओर नहीं खुलता। यही कारण है कि गीता ने अपनी कर्मयोग की शिक्षा के आरंभ में ही ब्राह्मी स्थिति पर, नैर्व्यक्तिक जीवन पर इतना जोर दिया है, जो प्राचीन मुनियों की साधना का महान् लक्ष्य था। क्योंकि जिस नैर्व्यक्ति अनंत एक में विश्व की चिरंतन, परिवर्तनशील, नानाविध कर्मण्यताओं को स्थायित्व, सरंक्षण और शांति प्राप्त होती है वही अचल अविनाशी आत्मा, अक्षर, ब्रह्म ही है, जो उन सबके ऊपर है।


यदि इस बात को हम समझ लें तो यह भी समझ लेगें अपनी चेतना और आत्मस्थिति को सीमाबद्ध व्यष्टिगत भाव से निकालकर इस अनंत नैवर्यक्तिक ब्रह्म में ऊपर ले जाना सबसे पहली आध्यामिक आवश्यकता है। इस एक आत्मा के अंदर सब सत्ताओं को अनुभव करना ही वह ज्ञान है जो जीव को अहंभावजनित अज्ञान और उसके कर्मों तथा कर्मफलों से ऊपर उठा देता है; इस ज्ञान में रहना ही शांति लाभ करना और दृढ़ आध्यात्मिक नींव की प्रतिष्ठा करना है। इस महान् रूपान्तर का मार्ग द्विविध है; एक है ज्ञानमार्ग और दूसरा कर्म-मार्ग। गीता इन दोनों का सुदृढ़ समन्वय करती है। ज्ञानमार्ग है बुद्धि को मन और इन्द्रियों के व्यापार में रत होने वाली निम्न वृत्ति से फेरना और उसे एक आत्मा, पुरुष या ब्रह्म की ओर ऊर्ध्वमुखी कर देना, उसे सदा एक पुरुष की एक ही भावना में रखना और मन की अनेक शाखा-प्रशाखाओं वाली धारणाओं और कामनाओं के नानाविध प्रवाहों से बाहर निकालना। यदि इनता ही लिया जाये तो ऐसा लगेगा कि यह पूर्ण कर्मसंन्यास, निश्चल निश्चेष्टता और प्रकृति-पुरुष के विच्छेद का मार्ग है। परंतु यथार्थ में इस प्रकार का निरपेक्ष कर्मसंन्यास, निश्चेष्टता और प्रकृति-पुरुष-विच्छेद संभव नहीं है।


पुरुष और प्रकृति सत्ता के युगल तत्त्व हैं जो एक-दूसरे से अलग नहीं किये जो सकते, और जब तक हम प्रकृति में निवास करते हैं तब तक प्रकृति में हमारा कर्म भी होता ही रहेगा, चाहे आज्ञानी जिस प्रकार कर्म करता है उससे ज्ञानी का कर्म अपने प्रकार और अर्थ में भिन्न ही क्यों न हो। संन्यास तो करना ही होगा, पर वास्तविक संन्यास कर्म से भागना नहीं, बल्कि अहंकार और कामना का वध करना है और इसका मार्ग कर्म करते हुए भी कर्मफल की आसक्ति का त्याग और प्रकृति को कर्म की कन्नीं जानकर उसे अपने कर्म करने देना तथा साक्षी और भर्तारूप से पुरुष के अंदर वास करकर प्रकृति के कर्मों को देखना और संभालना पर उन कर्मों का उनके फलों से आसक्त न होना, इससे अहंकार अर्थात् सीमाबद्ध विक्षुब्द व्यष्टिभाव शांत होता और एक नैर्व्यक्तिक आत्मा के चैतन्य में निमज्जित हो जाता है। हमारी दृष्टि के आगे प्रकृति के कर्म जीते-जागते, चलते-फिरते और कर्मरत दिखायी देने वाले इन सब भूत प्राणियों के द्वारा सर्वथा प्रकृति की ही प्रेरणा से उस एक अनंत आत्मसत्ता में होते रहते हैं; हमारा अपना सांत जीवन भी इन्ही भूतसत्ताओं में से एक है, ऐसा दीख पड़ता और अनुभव होता है। इसके द्वारा होने वाले कर्म उस सदात्मा के कर्म नहीं लगते जो सदा निश्चल-नीरव नैवर्यक्त्कि एकत्व है, बल्कि ऐसे दिखायी देते और अनुभूत होते हैं कि वे प्रकृति के ही हैं। पहले अहंकार यह दावा करता था कि ये उसके कर्म हैं और इसलिये इन कर्मों को हम अपने कर्म समझते थे; पर अब अहंकार तो मर गया इसलिये कर्म भी हमारे नही रहे बल्कि प्रकृति के हो गये।


अहंकार का वध करके हमने अपनी सत्ता और चेतना में नैर्व्यक्तित्व को सिद्ध किया; और कामना का संन्यास करके अपनी ही प्रकृति के कर्मो में नैर्व्यक्तिक लाभ किया। अब हम मुक्त हैं केवल अकर्म में ही नहीं, बल्कि कर्म में भी, हमारी मुक्ति शरीर और मन की निश्चलता और शून्यता पर निर्भर नहीं है, न कर्म करते ही हम अपनी मुक्ति से च्युत होते हैं। स्वभाविक कर्म के पूर्ण प्रवाह में भी हमारी नैव्यक्तिक आत्मा स्थिर, शांत और मुक्त रहती है। इस पूर्ण नैर्व्यक्तिकता से प्राप्त होने वाली मुक्ति सच्ची, पूरी और अनिवार्य होती है; परंतु क्या यही सब कुछ है, क्या यह इस विषय की अंतिम इति है? हम कह चुके हैं कि सारा जीवन, सारे जगत का अस्तित्व एक यज्ञ है जो प्रकृति उस पुरुष के प्रीत्यर्थ किया करती है जो प्रकृति के अंदर सब का एक गूढा़तरात्मा है, जिसके अंदर प्रकृति के सब कर्म होते हैं; परंतु यज्ञ के इस वास्तविक स्वरूप को हमारा अहंकार, हमारी कामना, सीमित सक्रिय बहुभावपत्र व्यक्तित्व छिपा देता है। अब हम अहंकार, कामना और सीमित व्यक्तित्व से ऊपर उठ चुके हैं और इस अवस्था का संशोधन करने वाली जो नैव्यक्तिकता है उससे हमने नैर्व्यक्तिक ब्रह्म को पा लिया है; हमने अपनी सत्ता को उस आत्मा और पुरुष में मिला दिया है जिसमें सबका अस्तित्व है। कर्मों का यज्ञ जारी है, पर इसके करने वाले अब हम नहीं, बल्कि प्रकृति है जो हमारी अनंत सत्ता में उसके सांत भाग अर्थात् मन-बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा कर्म करती है। परंतु तब इस यज्ञ को किसके अर्पण किया जाता है और किस उद्देश्य से? क्योंकि नैव्यक्तिक ब्रह्म में कोई कर्तृत्व नहीं, कोई कामना-वासना नहीं, कोई प्राप्तवय नहीं; प्राणियों के इस जगत् में किसी चीज पर उसकी निर्भरता नहीं; वह अपने लिये, अपने ही आनंद में अपनी ही अक्षर अविनाशी अव्यय सत्ता में रहता है। इस नैर्व्यक्तिक आत्मस्थिति और आत्मरति तक पहुँचने के लिये साधना के तौर पर निष्काम कर्म आवश्यक हो सकता है, पर इस अवस्था में पहंचने पर कर्म का ध्येय पूरा हो जाता है; फिर यज्ञ की क्या आवश्यकता? कर्म तब भी हो सकते हैं, क्योंकि प्रकृति मौजूद है और उसके कर्म हो रहे हैं; परंतु फिर इन कर्मों का ध्येय कुछ नहीं रहता। अर्थात् मुक्ति के बाद हमारे कर्म करते रहने का एकमात्र कारण केवल अभावात्मक है; यह हमारी सत्ता के सान्त भागों, मन, प्राण और शरीर पर प्रकृति की जबरदस्ती है। परंतु यदि यही सब कुछ हो तो पहली बात यह है कि कर्मों की संख्या घटाकर कम-से-कम की जा सकती है, उतने ही काम किये जायें जितने प्रकृति हमारे शरीर से जबरदस्ती कराती है; दूसरी बात यह है कि कर्मों को चाहे कम-से-कम न भी किया जाये-क्योंकि कर्म का कुछ महत्त्व नहीं है न अकर्म ही ध्येय है-तो भी कर्म के स्वरूप का कोई महत्त्व नहीं है। 


अर्जुन ज्ञान प्राप्त करके अपने पुराने क्षत्रिय-स्वभाव के अनुसार कुरुक्षेत्र की लडा़ई लड़ सकता है अथवा उसे छोड़कर अपनी नवीन निवृत्तिमूलक प्रेरणा के अनुसार संन्यासी का जीवन अपना सकता है। इन दोनों में से वह कुछ भी करे, उसका महत्त्व नहीं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि युद्ध की अपेक्षा संन्यासी का जीवन ही अधिक अच्छा है, क्योंकि इससे उसके पूर्व कर्मों की प्रवृति के कारण मन पर प्रकृति की जिन प्रेरणाओं का दख़ल जमा हुआ है वे शीघ्र क्षीण हो जायेंगी और वह शरीर छूटने पर निविघ्न रूप से अनंत नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में चला जायेगा, उसे इस दुःखमय प्रमादमय जीवन में लौटने की कोई आवश्यकता न रहेगी। यदि यही होता तो गीता का कोइ मतलब ही न रह जाता; क्योंकि इस बात से गीता का प्रथम और प्रधान उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। परंतु गीता इस बात पर जोर देती है कि कर्म का स्वरूप भी महत्त्वपूर्ण है और कर्म को जारी रखने के लिये एक निश्चयात्मक आदेश है और सर्वथा अभावात्मक और यांत्रिक कारण यानी प्रकृति की उद्देश्यहीन जबरदस्ती ही काफी नहीं है।


अहंकार को जीत लेने के बाद भी यज्ञ के भोक्ता भगवान् तो रहते ही हैं, इसलिये यज्ञ का उद्देश्य फिर भी रहता है। नैर्व्यक्तिक ब्रह्म ही अंतिम वचन या हमारी सत्ता का सर्वोत्तम रहस्य नहीं है; क्योंकि नैव्यक्तिक और सव्यक्तिक, सांत और अनंत उसी भगवत सत्ता के दो विपरीत पर सहवर्ती पहलू हैं जो इन भेदों से सीमित नहीं है और एक साथ दोनों हैं। परमेश्वर एक, चिर-अव्यक्त अनंत है और वे अपने-आपको सांत में अभिव्यक्ति करने के लिये सदा स्वतः प्रेरित है; वे वह महान् नैव्द्धर्यक्त्कि पुरुष हैं जिनके सब व्यक्त्त्वि आशिंक रूप हैं; वे वह भगवान् हैं जो मानव-प्राणी में अपने-आपको प्रकट करते हैं, वे प्रभु हैं जो मनुष्य के हृदेश में निवास करते हैं। ज्ञान हमें उन्हीके एक नैर्व्यक्तिक ब्रह्म मे सब प्राणियों को देखने की शिक्षा देता है, क्योंकि इस तरह हम पृथग्भूत अहंभाव से मुक्त होते हैं और तब मुक्तिदायक नैर्व्यक्तितत्त्व के द्वारा उनको इन प्रभु के अंदर देखते हैं, आत्मा के अंदर और तब मेरे अंदर। हमारा अहंकार, हमारे बंधनकारक व्यष्टिभाव ही उन प्रभु को पहचानने का रास्ता रोके रहते हैं जो सबके अंदर हैं और सब जिनके अंदर है; क्योंकि व्यष्टिभाव के अधीन होने के कारण हम उनके ऐसे खंड-खंड स्वरूपों को देख पाते हैं जिन्हें वस्तुओं के सात रूप देखने दें। हमें उनके पास अपने निम्न व्यष्टिभाव के द्वारा नहीं, बल्कि अपनी सत्ता के उच्च, अनंत और नैर्व्यक्तिक अंश के द्वारा पहुँचना होगा; और वह हम आत्मा बनकर ही, जो सबके अंदर एक है और जिसकी सत्ता में सारा जगत् अवस्थित है, उन प्रभू को पा सकते हैं।


यह अनंत जो सब सांत रूपों को विलग नहीं कराता, बल्कि उन्हें अपने मन में समाये हुये है, यह नैर्व्यक्तिक जो समस्त व्यष्टित्वों और व्यक्तित्वों का त्याग नहीं करता, बल्कि उन्हें अपने अन्दर लिये हुये हैं, यह अक्षर जो प्रकृति की सारी हलचल से अलग नहीं है, बल्कि उसका पोषण करता है, उसमें व्याप्त है और उसे धारण किये हुए है, यह वह स्वच्छ दर्पण है जिसमें भगवान् अपनी सत्ता को प्रकट करेंगे। इसलिये पहले नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की प्राप्ति करनी होगी; विश्वदेवताओं के द्वारा, सांत के विभिन्न अंगों के द्वारा भगवान् का पूर्ण ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। पर जैसी एक धारणा है कि शांत, अचल, नैर्व्यक्तिक ब्रह्म अपने-आपमें बंद है और जिनका वह पोषण और धारण करता है तथा जिनमें व्याप्त रहता है उनसे उनका कोई वास्ता नहीं है, उनसे उनसे सर्वथा अलग है,-ऐसे नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की नीरव अचलता भी भगवान् का सर्वप्रकाशक और पूर्ण संतोषप्रद सत्य नहीं है। उसके लिये हमें इस नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की अचल शांति को प्राप्त होकर उन पुरुषोत्म को देखना होगा जो अपनी भागवत महिमा के अंदर अक्षर और क्षर दोनों को धारण किये हुए है। अचलता में वे स्थित हैं, पर विश्वप्रकृति की सारी प्रवृत्ति और कर्म में वे अपने-आपको अभिव्यक्त करते हैं मुक्त होने के बाद भी प्रकृति में होने वाले कर्मों के द्वारा उनका यजन बराबर होता रहता है।


इसलिये भगवान् पुरुषोत्तम के साथ जीती-जागती और स्वतः परिपूरक एकता ही योग का वास्तविक लक्ष्य है, केवल अक्षर ब्रह्म में अपने-आपको मिटा देने वाला लय नहीं। अपने सारे जीवन को उन्हीं में ऊपर उठाना, उन्हीं में निवास करना, उनके साथ एक हो जाना, उनकी चेतना के साथ अपनी चेतना को एक कर देना, अपनी खंड प्रकृति को उनकी पूर्ण प्रकृति का प्रतिबिंम्ब बना देना, अपने विचार और इन्द्रियों को संपूर्ण रूप से भागवत ज्ञान के द्वारा अनुप्राणित करना, अपने संकल्प और कर्म को सर्वथा और निर्दोष रूप से भागवत संकल्प के द्वारा प्रवृत्त करना, उन्हीं के प्रेमानंद में अपनी कामना-वासना को खो देना-यही मनुष्य की पूर्णता है, इसी को गीता ने गुह्मतम रहस्य कहा है। मनुष्य-जीवन का यही वास्तविक लक्ष्य है, यही उसके जीवन की चरितार्थता है और यह हमारे प्रगतिशील कर्म-यज्ञ की सबसे ऊंची सीढ़ी है। कारण वे ही अंत तक कर्मों के प्रभु और यज्ञ अंतरात्मा बने रहते हैं।


सो गीता की यज्ञविषयक शिक्षा का अभिप्राय यही है। इसका पूर्ण मार्ग पुरुषोत्तम-तत्त्व की भावना पर निर्भर है, जिसका विवेचन अभी तक अच्छी तरह नहीं हुआ है। गीता के 18 अध्यायों के शेष भाग में ही इस तत्त्व का वर्णन स्पष्ट रूप से आया है-और इसीलिये हमें गीता की प्रगतिशील वर्णन-शैली की मर्यादा का अतिक्रम करके भी इस केन्द्रीभूत शिक्षा की चर्चा पहले सी ही करनी पड़ी। अभी भगवान् गुरु ने पुरुषोत्तम की परम सत्ता का अक्षर ब्रह्म के साथ-जिनमें ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर पूर्ण शांति और समता की अवस्था में अपने-आपको स्थिर करना पहला काम है और हमारी अति आवश्यक आध्यात्मिक मांग है-क्या संबंध है इसका एक संकेतमात्र दिया है, एक हल्की-सी झलक भर दिखायी है। अभी वे पुरुषोत्तम-भाव की स्पष्ट भाषा में नहीं बोल रहे, बल्कि “मैं” कृष्ण, नारायण, अवतार-रूप से बोल रहे हैं-वह अवतार, जो नर में नारायण हैं, इस विश्व में भी परम प्रभु हैं और कुरुक्षेत्र के सारथी के रूप में अवतरित हुए हैं। पहले आत्मा में पीछे मुझमें, वे यहाँ यही सूत्र बतलाते हैं जिसका अभिप्राय यह है कि व्यष्टिबद्ध पुरुष-भाव को स्वतः स्थित नैर्व्यक्तिक भ्रम-भाव का ही एक ‘भूत भाव‘ जानकर इस व्यष्टिबंधन से मुक्त होकर इसके परे पहुँचना इन गुह्मतम नैर्व्यक्तिक परम पुरुष को प्राप्त होने का एक साधनमात्र है जो निश्चल, स्थिर और प्रकृति के परे, नैवर्यक्तिक ब्रह्म में आसीन हैं, पर इसके साथ ही इन असंख्य भूतभावों की प्रकृति में भी विद्यमान और क्रियाशील हैं। अपने निम्नतर व्यष्टिबद्ध पुरुष -भाव का नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में लय करके हम अंत में उन परम पुरुष के साथ एकत्व लाभ करते हैं जो पृथक व्यक्ति या व्यष्टिभाव न होते हुए भी सब व्यष्टियों का अभिनय करते हैं। त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति को पार कर अंतरात्मा को त्रिगुणातीत अक्षर पुरुष में स्थित करके हम अंत में उन अनंत परमेश्वर की परा प्रकृति में पहुँच सकते हैं जो प्रकृति द्वारा कर्म करते हुए भी त्रिगुंण में आबद्ध नहीं होते। शांत पुरुष के आंतर नैष्कर्म्य को प्राप्त होकर और प्रकृति को अपना काम करने के लिये स्वतत्र छोड़कर हम कर्मो के परे उस परम पद को, उस दिव्य प्रभुत्व को प्राप्व्त कर सकते हैं जिसमें सब कर्म किये जा सकते हैं पर बंधन किसी का नहीं होता। इसलिये पुरुषोत्तम की भावना ही, जो पुरुषोत्तम यहाँ अवतीर्ण नारायण, कृष्ण रूप में दिखाई देते हैं। इसकी कुंजी हैं। इस कुंजी के बिना निम्न प्रकृति से निवृत्त हाकेर ब्राह्मी स्थिति में चले जाने का अर्थ होगा मुक्त पुरुष का निष्क्रिय, और जगत् के कर्मों से उदासीन हो जाना; और इस कुंजी के होने से यही अलग होना, यही निवृत्ति एक ऐसी प्रगति हो जाती है। जिससे जगत् के कर्म भगवान् के स्वभाव के साथ, भगवान् की स्वतत्र सत्ता में, आत्मा के अदंर ले लिये जाते हैं।




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