चित्तवृत्ति-निरोध

 

25. आत्मोद्धार की आकांक्षा 

1. पांचवें अध्याय में हम कल्पना और विचार के द्वारा देख सके कि मनुष्य की ऊंची-से-ऊंची उड़ान कहाँ तक जा सकती है। कर्म, विकर्म, अकर्म मिलकर सारी साधना पूर्ण होती है। कर्म स्थूल वस्तु है। जो-जो स्वधर्म-कर्म हम करें, उसमें हमारे मन का सहयोग होना चाहिए। मानसिक शिक्षण के लिए जो कर्म करना पड़ता है, वह विकर्म, विशेष कर्म अथवा सूक्ष्म कर्म है। आवश्यकता कर्म और विकर्म, दोनों की है। इन दोनों का प्रयोग करते-करते अकर्म की भूमिका तैयार होती है। हमने पिछले अध्याय में देख लिया कि इस भूमिका में कर्म और संन्यास, दोनों एकरूप ही हो जाते हैं। अब छठे अध्याय के आरम्भ में फिर कहा है कि कर्मयोगी की भूमिका संन्यास की भूमिका से अलग दिखायी देने पर भी अक्षरशः एकरूप है। केवल दृष्टि का अंतर है। पांचवें अध्याय में जिस अवस्था का वर्णन किया गया है, उसके साधन खोजना, यह बाद के अध्यायों का विषय है। 


2. कई लोगों की ऐसी एक भ्रामक कल्पना है कि परमार्थ, गीता आदि ग्रन्थ साधुओं के लिए ही हैं। एक गृहस्थ ने कहा- "मैं कोई साधु नहीं हूँ।" इसका अर्थ यह हुआ कि ‘साधु’ नाम के कोई प्राणी हैं, जिनमें से वे नहीं है। जैसे घोड़े, सिंह, भालू, गाय आदि प्राणी हैं, वैसे ही साधु नाम के भी कोई प्राणी हैं और परमार्थ की कल्पना केवल उन्हीं के लिए है। शेष जो व्यावहारिक जगत् में रहते हैं, वे मानो किसी और जाति के हैं उनके विचार अलग, आचार अलग। इस कल्पना ने साधु-संत और व्यावहारिक लोग, ऐसी दो अलग-अलग जातियां बना दी हैं। ‘गीता-रहस्य’ में तिलक महाराज ने इस बात की ओर ध्यान खींचा है। गीता ग्रन्थ सर्वसाधारण व्यावहारिक लोगों के लिए है। यह उनका कथन मैं अक्षरशः सही मानता हूँ। भगवद्गीता सारे संसार के लिए है। परमार्थ-विषयक समस्त साधन प्रत्येक व्यावहारिक मनुष्य के लिए है। परमार्थ सिखाता है कि अपना व्यवहार शुद्ध और निर्मल रखकर मन का समाधान और शांति कैसे प्राप्त की जाये। व्यवहार शुद्ध कैसे किया जाये, यह सिखाने के लिए गीता है। जहां-जहाँ आप व्यवहार करते हैं, वहां-वहाँ गीता आती है। परन्तु वह आपको वहां-की-वहाँ रखना नहीं चाहती। आपका हाथ पकड़कर वह अंतिम मंजिल तक आपको ले जायेगी। एक प्रसिद्ध कहावत है कि पर्वत यदि मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद पर्वत के पास जायेगा। मुहम्मद को यह चिंता है कि मेरा जड़ पर्वत तक भी पहुँचे। पर्वत जड़ है, इसलिए मुहम्मद उसके आने की बाट नहीं जोहता रहेगा। यही बात गीता-ग्रन्थ की है। कैसा ही दीन-दुर्बल हो, गंवार-से गंवार हो, गीता उसके पास पहुँच जायेगी। परन्तु इसलिए नहीं कि उसे यथास्थान रहने दे, बल्कि इसलिए कि उसे हाथ पकड़कर आगे ले जाये, ऊपर उठाये। गीता चाहती है कि मनुष्य अपना व्यवहार शुद्ध करके परमोच्च स्थिति को प्राप्त करे। इसी के लिए गीता है।


3. अतएव ‘मैं जड हूं, व्यवहारी हूं, सांसारिक जीव हूं’- ऐसा कहकर अपने आसपास बाड़ मत लगाओ। मत करो कि ‘मेरे हाथों से क्या होगा? इस साढ़े तीन हाथ के शरीर में ही मेरा सार-सर्वस्व है।’ ऐसी बंधनों की या कारागृह जैसी दीवारें अपने आसपास खड़ी करके पशुवत व्यवहार मत करो। तुम तो आगे बढ़ने की, ऊपर चढ़ने की हिम्मत रखो- उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। ऐसी हिम्मत रखो कि मैं अपने को अवश्य ऊपर ले जाऊंगा। यह मानकर कि मैं क्षुद्र सांसारिक जीव हूं, मन की शक्ति को मार मत डालो। कल्पना के पंख काटो मत। अपनी कल्पना को विशाल बनाओ। चंडूल का उदाहरण अपने सामने रखो। प्रातः काल सूर्य को देखकर चंडूल कहता है कि मैं सूर्य तक उड़ जाऊंगा। वैसा ही हमें बनना चाहिए। अपने दुर्बल पंखों से चंडूल बेचारा कितना ही ऊंचा उड़े, तो भी वह सूर्य तक कैसे पहुँचेगा? परन्तु अपनी कल्पना-शक्ति द्वारा वह सूर्य को अवश्य पा सकता है। हमारा आचरण उससे उलटा होता है। हम जितने ऊंचे जा सकते थे, उतने भी न जाकर अपनी कल्पना और भावनाओं पर प्रतिबंध लगाकर अपने-आपको नीचे गिरा लेते हैं। अपने पास जो शक्ति है, उसे भी हम हीनभावना के कारण नष्ट कर डालते हैं। जहाँ कल्पना के ही पांव टूट गये, वहाँ फिर नीचे गिरने के सिवा क्या गति होगी? अतः कल्पना का रुख हमेशा ऊपर की ओर होना चाहिए। कल्पना की सहायता से मनुष्य आगे बढ़ता है, अतः कल्पना को सिकोड़ मत डालो। धोपट मार्गा सोडुं नको। संसारामधिं ऐस आपुला उगा च भटकत फिरूं नको- ‘घिसे-पिटे मार्ग को मत छोड़ो। संसार में अपनी जगह चुपचाप पड़े रहो। इधर-उधर व्यर्थ भटका मत करो’- ऐसा रोना मत रोते रहो। आत्मा का अपमान मत कर लो। साधक के पास यदि विशाल कल्पना होगी, आत्मविश्वास होगा, तभी वह टिक सकेगा। इसी से उद्धार होगा। परन्तु "धर्म तो साधु-संतों के लिए ही है, साधु-संतों के पास गये भी तो 'तुम जिस भूमिका में हो, उसमें यही व्यवहार उचित है' ऐसा उनसे प्रशस्ति-पत्र लेने के लिए"- ऐसी कल्पना छोड़ दो। ऐसी भेदात्मक कल्पानाएं करके अपने को बंधन में मत डालो। यदि उच्च आकांक्षा नहीं रखोगे, तो कभी भी एक कदम आगे नहीं बढ़ सकोगे। यह दृष्टि, यह आकांक्षा, यह महान भावना यदि हो, तब तो साधनों की उठा-पटक आवश्यक है; नहीं तो फिर सारा किस्सा ही समाप्त। बाह्य कर्म की सहायता के लिए मानसिक साधनरूपी विकर्म बताया है। कर्म की सहायता के लिए विकर्म निरंतर चाहिए। इन दोनों की सहायता से अकर्म की जो दिव्य स्थिति प्राप्त होती है, वह और उसके प्रकार पांचवें अध्याय में देखें। इस छठे अध्याय से विकर्म के प्रकार बताये गये हैं। मानसिक साधना बतायी गयी है। इस मानसिक साधना को समझाने से पहले गीता कहती है- ‘"हे मेरे जीव, तुम देव हो सकते हो। तु यह दिव्य आकांक्षा रखो, मन को मुक्त रखकर उसके पंखों को सुदृढ़ बनाओ।" साधना के - विकर्म के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। भक्तियोग, ध्यान, ज्ञान-विज्ञान, गुण-विकास, आत्मानात्म -विवेक आदि नाना प्रकार हैं। छठे अध्याय में ‘ध्यान-योग’ नामक साधना का प्रकार बताया गया है।


26. चित्त की एकाग्रता 

4.ध्यान-योग में तीन बातें मुख्य हैं- चित्त की एकाग्रता चित्त की एकाग्रता के लिए उपयुक्त जीवन की परमितता और साम्यदशा या सम-दृष्टि। इस सब बातों के बिना सच्ची साधना नहीं हो सकती। चित्त की एकाग्रता का अर्थ है, चित्त की चंचलता पर अंकुश। जीवन की परिमितता का अर्थ है, सब क्रियाओं का नपा-तुला होना। सम-दृष्टि का अर्थ है, विश्व की ओर देखने की उदार दृष्टि। इन तीन बातों से ध्यान-योग बनता है। इस त्रिविध साधना के भी साधन हैं। वे हैं- अभ्यास और वैराग्य। इन पांचों बातों की थोड़ी सी चर्चा हम यहाँ करें। 


5. पहले चित्त की एकाग्रता को लीजिए। किसी भी काम में चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। व्यावहारिक बातों में भी चित्त की एकाग्रता चाहिए। यह बात नहीं कि व्यवहार में अलग गुणों की जरूरत है और परमार्थ में अलग। व्यवहार को शुद्ध करने का ही अर्थ है, परमार्थ। कैसा भी व्यहार हो, उसकी सफलता और असफलता आपकी एकाग्रता पर अवलंबित है। व्यापार, व्यवहार, शास्त्र-शोधन, राजनीति, कूटनीति- किसी को भी ले लीजिए, इनमें जो कुछ सफलता मिलेगी। वह उन-उन पुरुषों के चित्त की एकाग्रता के अनुसार मिलेगी। नेपोलियन के लिए कहा जाता है कि जहाँ वह युद्ध की व्यवस्था एक बार ठीक-ठाक लगा देता कि फिर समर-भूमि में गणित के सिद्धान्त हल किया करता था। डेरों-तंबुओं पर गोले बरसते, सैनिक मरते, परन्तु नेपोलियन का चित्त अपने गणित में ही मग्न रहता। मैं यही नहीं कहता कि नेपोलियन की एकाग्रता बहुत बड़ी थी। उससे भी ऊंचे दर्जे की एकाग्रता के उदाहरण दिये जा सकेंगे। खलीफा उमर की भी ऐसी ही बात कही जाती है। बीच लड़ाई में जब नमाज का वक्त हो जाता, तो वे वहीं समर-भूमि में चित्त एकाग्र करके घुटने टेककर नमाज पढ़ने लगते और उनका चित्त इतना एकाग्र हो जाता कि उन्हें यह होश भी न रहता कि किसके आदमी कट रहे हैं। पहले के मुसलमानों की इस परमेश्वर-निष्ठा के ही कारण, इस एकाग्रता के ही कारण, इसलाम धर्म फैल पाया। 


6. उस दिन मैंने एक कहानी सुनी। एक फकीर था। उसके शरीर में तीर घुस गया। इससे उसे बड़ी वेदना हो रही थी। तीर खींचने की चेष्टा करने जाये, तो हाथ लगाते ही वेदना और बढ़ जाती थी। इससे वह तीर भी नहीं खींचा जा सकता था। आज की तरह क्लोरोफार्म जैसी बेहोश करने की दवा उस समय थी नहीं। बड़ी समस्या खड़ी हो गयी। कुछ लोग उस फकीर को जानते थे। वे आगे आकर बोले- "तीर अभी मत निकालो। यह फकीर नमाज पढ़ने बैठेगा, तब निकाल लेंगे।" शाम की नमाज का वक्त हुआ। फकीर नमाज पढ़ने लगा। पल भर में ही उसका चित्त इतना एकाग्र हो गया कि तीर उसके बदन से निकला लिया गया, तो भी उसे पता नहीं लगा। कैसी जबर्दस्त है यह एकाग्रता!


7. सारांश यह कि व्यवहार हो या परमार्थ, चित्त की एकाग्रता के बिना उसमें सफलता मिलना कठिन है। यदि चित्त एकाग्र रहेगा, तो फिर सामर्थ्य की कभी कमी न पड़ेगी। साठ वर्ष के बूढ़े होने पर भी किसी नौजवान की तरह आपमें उत्साह और सामर्थ्य दीख पड़ेगा। मनुष्य ज्यों-ज्यों बुढ़ापे की तरफ बढ़े, त्यों-त्यों उसका मन अधिक मजबूत होता जाना चाहिए। फल को ही देखिए न! पहले वह हरा होता है, फिर पकता है, फिर सड़ता है, गलता है और मिट जाता है; परन्तु उसका भीतर का बीज उत्तरोत्तर कड़ा होता जाता है। यह बाहरी शरीर सड़ जायेगा। गिर जायेगा परन्तु बाहरी शरीर फल का सार-सर्वस्व नहीं है। उसका सार-सर्वस्व, उसकी आत्मा तो है बीज। यही बात शरीर की है। शरीर भले ही बूढ़ा होता चला जाये, परन्तु स्मरण-शक्ति तो बढ़ती ही रहनी चाहिए। बुद्धि तेजस्वी होनी चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं। मनुष्य कहता है- "आजकल मेरी स्मरण-शक्ति कम हो गयी है।" "क्यों?" "अब बुढ़ापा आ गया है!" तुम्हारा जो ज्ञान, विद्या या स्मृति है, वह तुम्हारा बीज है। शरीर बूढ़ा होने से ज्यों-ज्यों ढीला पड़ता जाये, त्यों-त्यों आत्मा बलवान होती जानी चाहिए। इसके लिए एकाग्रता आवश्यक है।


27. एकाग्रता कैसे साधें? 

8. अब एकाग्रता तो चाहिए, पर वह हो कैसे? उसके लिए क्या करना चाहिए? भगवान कहते हैं, आत्मा में मन को स्थिर करके न किंचिदपि चिंतयेत्- दूसरा कुछ भी चिंतन न करें। परन्तु यह सधे कैसे? मन को बिलकुल शांत करना बडे महत्त्व की बात है। विचारों के चक्र को जोर से रोके बिना एकाग्रता होगी कैसे? बाहरी चक्र तो किसी तरह रोक भी लिया जाये, परन्तु भीतरी चक्र तो चलता ही रहता है। चित्त की एकाग्रता के लिए ये बाहरी साधन जैसे-जैसे काम में लाते हैं, वैसे-वैसे भीतर का चक्र अधिक वेग से चलने लगता है। आप आसन जमाकर तनकर बैठ जाइए, आंखें स्थिर कर लीजिए। परन्तु इतने से मन एकाग्र नहीं हो सकेगा। मुख्य बात है कि मन का चक्र बंद करना सधना चाहिए। 


9. बात यह है कि बाहर का यह अपरंपार संसार, जो हमारे मन में भरा रहता है, उसको बंद किये बिना एकाग्रता का सधना अशक्य है। अपनी आत्मा की आपार ज्ञान-शक्ति हम बाह्य क्षुद्र वस्तुओं में खर्च कर डालते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस तरह दूसरे को न लूटते हुए स्वयं अपने प्रयत्न से धनी बनने वाला पुरुष आवश्कता के बिना खर्च नहीं करता, उसी तरह हमें भी अपनी आत्मा की ज्ञानशक्ति क्षुद्र बातों के चिंतन में खर्च नहीं करनी चाहिए। यह ज्ञानशक्ति हमारी अमूल्य थाती है, परन्तु हम उसे स्थूल विषयों में खर्च कर डालते हैं। यह साग अच्छा नहीं बना, इसमें नमक कम पड़ा! अरे भाई, कितनी रत्ती नमक कम पड़ा? नमक तनिक-सा कम पड़ा, इस महान विचार में ही हमारा ज्ञान खर्च हो जाता है! बच्चों को पाठशाला की चहारदीवारी के अंदर ही पढ़ाते हैं। कहते हैं कि यदि पेड़ के नीचे पढ़ायेंगे, तो कौए, कोयल और चिडियां देखकर उनका मन एकाग्र नहीं होगा। बच्चे ही जो ठहरे! कौए-चिड़ियां नहीं दिखीं, तो हो गयी उनकी एकाग्रता! परन्तु हम हो गये हैं घोड़े! हमारे अब सींग निकल आये हैं। हमें सात-सात दीवालों के भीतर भी किसी ने बंदकर रखा, तो भी हमारे मन की एकाग्रता नहीं हो सकती। क्योंकि, दुनिया की फालतू बातों की चर्चा हम करेंगे। जो ज्ञान परमेश्वर की प्राप्ति करा सकता है, उसे हम साग-सब्जी के जायके की चर्चा करने में ही खो देते हैं और उसमें कृतार्थता मानते हैं।


10. दिन-रात ऐसा भयानक संसार हमारे चारों ओर, भीतर-बाहर धू-धू करता रहता है। प्रार्थना अथवा भजन करने में भी हमारा हेतु बाहरी ही रहता है। परमेश्वर से तन्मय होकर एक क्षण के लिए तो संसार को भुला दें। लेकिन यह भावना ही नहीं रहती। प्रार्थना भी एक दिखावा होता है। जहाँ मन की ऐसी स्थिति है, वहाँ आसन जमाकर बैठना और आंख मूंदना, सब व्यर्थ है। मन की दौड़ निरन्तर बाहर की ओर रहने से मनुष्य का सारा सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। किसी भी प्रकार की व्यवस्था, नियंत्रण-शक्ति मनुष्य में नहीं रहती। इसका अनुभव आज हमारे देश में पग-पग पर हो रहा है। वास्तव में भारतवर्ष तो परमार्थ-भूमि है। यहाँ के लोग पहले से ही ऊंची हवा में उड़ने वाले समझे जाते हैं, पर ऐसे देश में हमारी-आपकी क्या दशा है? छोटी-छोटी बातों की इतनी बारीकी से चर्चा करते हैं कि जिसे देखकर दुःख होता है। क्षुद्र विषयों में ही हमारा चित्त डूबा रहता है। कथा पुराण ऐकतां। झोपें नाडिलें तत्त्वतां॥ खाटेवरि पड़तां। व्यापी चिंता तळमळ॥ ऐसी गहन कर्मगति। काय तयासी रडती॥ -‘कथा-पुराण श्रवण करने जाते हैं, तो निद्रा सताती है और बिस्तर पर लेटते है तो चिंता और बेचैनी रहती है। ऐसी कर्म की गहन गति है। क्या किया जाये?’ कथा-पुराण सुनने के लिए जाते हैं, तो वहाँ नींद आ घेरती है और नींद लेने जाते हैं, तो वहाँ चिंता और विचार-चक्र शुरू हो जाता है। एक ओर शून्याग्रता, तो दूसरी ओर अनेकाग्रता। एकाग्रता का कहीं पता नहीं। मनुष्य इंद्रियों का इतना गुलाम है। एक बार किसी ने पूछा- "आंखें अर्धोन्मीलित रखनी चाहिए, ऐसा क्यों कहा गया है?" मैंने कहा- "सीधा-सादा उत्तर देता हूँ। आंखें पूरी मूंद लें, तो नींद आ जाती हैं खुली रखें, तो चारों ओर दृष्टि जाकर एकाग्रता नहीं होती। आखें मूंदने से नींद लग जाती है, यह तमोगुण हुआ। खुली रखने से दृष्टि सब जगह जाती है, यह रजोगुण हुआ। इसलिए बीच की स्थिति कही है।" तात्पर्य यह है कि मन की बैठक बदले बिना एकाग्रता नहीं हो सकती। मन की स्थिति शुद्ध होनी चाहिए। केवल आसन जमाकर बैठने से वह प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिए हमारे सब व्यवहार शुद्ध होने चाहिए। व्यवहार शुद्ध करने के लिए उसका उद्देश्य बदलना चाहिए। व्यवहार व्यक्तिगत लाभ के लिए, वासना-तृप्ति के लिए अथवा बाहरी बातों के लिए नहीं करना चाहिए।


11. व्यवहार तो हम दिन भर करते रहते हैं। आखिर दिन भर की इस खटपट का हेतु क्या है? याजसाठीं केला होता अट्टहास। शेवटचा दिस गोड व्हावा- ‘यह सारा परिश्रम इसीलिए तो किया था कि अंत की घड़ी मीठी हो।’ सारी खटपट, सारी दौड़-धूप इसीलिए न कि हमारा अंतिम दिवस मधुर हो जाये? जिंदगी भर कडुआ विष क्यों पचाते हैं? इसीलिए कि अंतिम घड़ी, वह मरण, पवित्र हो। दिन की अंतिम घड़ी शाम को आती है। आज के दिन का सारा काम यदि पवित्र भाव से किया होगा, तो रात की प्रार्थना मधुर होगी। वह दिन का अंतिम क्षण यदि मधुर हो गया, तो दिन का सारा काम सफल हुआ समझो। तब मन एकाग्र हो जायेगा। एकाग्रता के लिए ऐसी जीवन-शुद्धि आवश्यक है। बाह्य वस्तुओं का चिंतन छूटना चाहिए। मनुष्य की आयु बहुत नहीं है। परन्तु इस थोड़ी-सी आयु में भी परमेश्वरीय सुख का अनुभव लेने का सामर्थ्य है। दो मनुष्य बिलकुल एक ही सांचे में ढले, एक-सी छाप लगे हुए, दो आंखे, उनके बीच एक नाक और उस नाक में दो नासा-पुट। इस तरह बिलकुल एक से होकर भी एक मनुष्य देव-तुल्य होता है तो दूसरा पशु-तुल्य। ऐसा क्यों होता है? एक ही परमेश्वर के बाल-बच्चे हैं, अवघी एकाची च वीण! ‘सब एक ही खानिके’। तो फिर यह फर्क क्यों पड़ता है? इन दो व्यक्तियों की जाति एक है, ऐसा विश्वास नहीं होता। एक नर का नारायण है, तो दूसरा नर का वानर! 


12. मनुष्य कितना ऊंचा उठ सकता है, इसका नमूना दिखाने वाले लोग पहले भी हो गये हैं आज भी हमारे बीच हैं। यह अनुभव की बात है। इस नर-देह में कितनी शक्ति है, इसको दिखाने वाले संत पहले हो गये हैं और आज भी हैं। इस देह में रहकर यदि मनुष्य ऐसी महान करनी कर सकता है, तो फिर भला मैं क्यों न कर सकूंगा? मैं अपनी कल्पना को मर्यादा में क्यों बांध लूं? जिस नर-देह में रहकर दूसरे नर-वीर हो गये, वही नर-देह मुझे भी मिली है, फिर मैं ऐसा क्यों? कहीं-न-कहीं मुझसे भूल हो रही है। मेरा यह चित्त सदैव बाहर जाता रहता है। दूसरे के गुण-दोष देखने में वह बहुत आगे बढ़ गया है। परन्तु मुझे दूसरे के गुण-दोष देखने की जरूरत क्या है? कासया गुणदोष पाहों आणिकांचे। मज काय त्यांचें उणें असे- ‘दूसरों के गुण-दोष क्यों देखूं? मुझमें क्या उनकी कमी है? ‘खुद मुझमें क्या दोष कम हैं? यदि मैं सदैव दूसरों की छोटी-छोटी बातें देखने में तल्लीन रहा, तो फिर मेरे चित्त की एकाग्रता सधेगी कैसे? उस दशा में मेरी स्थिति दो ही प्रकार की हो सकती है। एक तो शून्य अवस्था अर्थात नींद, और दूसरी अनेकाग्रता। तमोगुण और रजोगुण में ही मैं उलझा रहूंगा। भगवान ने, चित्त की एकाग्रता के लिए इस तरह बैठो, इस तरह आंखें रखो, इस तरह आसन जमाओ आदि सूचनाएं नहीं दीं, ऐसी बात नहीं। परन्तु इस सबसे लाभ तभी होगा, जब पहले चित्त की एकाग्रता के हम कायल हों। मनुष्य के चित्त में पहले यह जम जाये कि चित्त की एकाग्रता आवश्यक है, फिर तो मनुष्य खुद ही उसकी साधना और मार्ग ढूंढ़ निकालेगा।


28. जीवन की परिमितता 

13. चित्त की एकाग्रता में सहायक दूसरी बात है- जीवन की परिमितता। हमारा सब काम नपा-तुला होना चाहिए। गणित-शास्त्र का यह रहस्य हमारी सब क्रियाओं में आ जाना चाहिए। औषधि जैसे नाप-तौल कर ली जाती है, वैसे ही आहार-निद्रा भी नपी-तुली होनी चाहिए। सब जगह नाप-तौल चाहिए। प्रत्येक इंद्रिय पर पहरा बैठाना चाहिए। मैं ज्यादा तो नहीं खाता, अधिक तो नहीं सोता, जरूरत से ज्यादा तो नहीं देखता- इस प्रकार सतत बारीकी से जांच करते रहना चाहिए। 


14. एक भाई किसी व्यक्ति के बारे में कह रहे थे कि वे किसी के कमरे में जाते, तो एक मिनट में उनकी निगाह में आ जाता था कि कमरे में कहाँ क्या रखा है। मैंने मन में कहा- "भगवन, यह महिमा मुझे न प्राप्त हो" क्या मैं उसका सचिव हूं, जो पांच-पचीस चीजों की सूची मन में रखूं? क्या मुझे चोरी करनी है? साबुन यहाँ था, घडी वहाँ थी, इससे मुझे क्या करना है? इस ज्ञान की मुझे क्या जरूरत? आंखों का यह वाहियातपन मुझे छोड़ देना चाहिए। यही बात कान की है। कान पर भी पहरा रखो। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ‘यदि कुत्तों की तरह हमारे कान होते, तो कितना अच्छा होता! जिधर चाहते, उधर एक क्षण में उन्हें हिला सकते! मनुष्य के कान में परमात्मा ने यह कसर ही रख दी! परन्तु कान का यह वाहियातपन हमें नही चाहिए। वैसे ही यह मन भी जबर्दस्त है। जरा कहीं खटका हुआ, आहट हुई कि गया उधर ध्यान। 


15. अतः जीवन में नियमन और परिमितता लायें। खराब चीज न देखें। खराब किताब न पढें। निंदा-स्तुति न सुनें। सदोष वस्तु तो दूर, निर्दोष वस्तुओं का भी आवश्यता से अधिक सेवन न करें। लोलुपता किसी भी प्रकार की नहीं होनी चाहिए। शराब, पकौड़ी, रसगुल्ले तो होने ही नहीं चाहिए। परन्तु संतरे, केले, मोसंबी भी बहुत नहीं चाहिए। फलाहार यों शुद्ध आहार है, परन्तु वह भी मनमाना नहीं होना चाहिए। जीभ का स्वेच्छाचार भीतरी मालिक को सहन नहीं करना चाहिए। इंद्रियों को यह भय रहे कि यदि हम ऊटपटांग बरतेंगे तो भीतर का मालिक हमें जरूर सजा देगा। नियमित आचरण को ही ‘जीवनकी परिमितता’ कहते हैं।


29. मंगल-दृष्टि 

16. तीसरी बात है, समदृष्टि होना। समदृष्टि का अर्थ ही है-शुभदृष्टि। शुभदृष्टि प्राप्त हुए बिना चित्त एकाग्र नहीं हो सकता। सिंह इतना बड़ा वनराज है, परन्तु चार कदम चलकर पीछे देखता है। हिंसक सिंह को एकाग्रता कैसे प्राप्त होगी? शेर, कौए, बिल्ली, इनकी आंखें हमेशा घूमती रहती हैं। उनकी निगाह चौकन्नी, घबरायी हुई होती है। हिंस्त्र प्राणियों का ऐसा ही हाल रहेगा। साम्यदृष्टि आनी चाहिए। यह सारी सृष्टि मंगलमय लगनी चाहिए। जैसे मुझे खुद अपने पर विश्वास है, वैसा ही सारी सृष्टि पर मेरा विश्वास होना चाहिए। 


17. यहाँ डरने की बात ही क्या है? सब कुछ शुद्ध और पवित्र है। विश्वं तद् भद्रं यद्वन्ति देवाः - यह विश्व मंगलमय है, क्योंकि परमेश्वर उसकी सार-संभाल करता है। अंग्रेज कवि ब्राउनिंग ने भी ऐसा ही कहा है- "ईश्वर आकाश में विराजमान है और सारा विश्व ठीक ही चल रहा है।" विश्व में कुछ भी बिगाड़ नहीं है। अगर बिगाड़ कहीं है, तो वह मेरी दृष्टि में है। जैसी मेरी दृष्टि, वैसी सृष्टि। यदि मैं लाल रंग का चश्मा चढ़ा लूंगा, तो सारी सृष्टि लाल-ही-लाल दिखायी देगी, जलती हुई दिखायी देगी। 18. रामदास रामायण लिखते जाते और शिष्यों को पढ़कर सुनाते जाते थे। हनुमान भी गुप्त रूप से उसे सुनने के लिए आकर बैठते थे। समर्थ रामदास ने लिखा था- "हनुमान अशोक वन में गये। वहाँ उन्होंने सफेद फूल देखे।" यह सुनते ही वहाँ झट से हनुमान प्रकट हो गये और बोले- "मैंने सफेद फूल बिलकुल नहीं देखे, लाल देखे थे। आपने गलत लिखा है। उसे सुधार लीजिए।" समर्थ ने कहा- "मैंने ठीक लिखा है। आपने सफेद ही फूल देखे थे।" हनुमान ने कहा- "मैं खुद वहाँ गया था और मैं ही झूठा?" अंत में झगड़ा रामचंद्र जी के पास गया। उन्होंने कहा - "फूल तो सफेद ही थे; परन्तु हनुमान की आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, इसलिए शुभ्र फूल उन्हें लाल दिखायी दिये।" इस मधुर कथा का आशय यही है कि संसार की ओर देखने की जैसी हमारी दृष्टि होगी, संसार भी हमें वैसा ही दिखायी देगा। 


19. यदि हमारे मन को इस बात का निश्चय न हो कि यह सृष्टि शुभ है, तो चित्त की एकाग्रता नहीं हो सकती। जब तक मैं यह समझता रहूंगा कि सृष्टि बिगड़ी हुई है, तब तक मैं संशक दृष्टि से चारों ओर देखता रहूंगा। कवि पक्षियों की स्वतंत्रता के गीत गाते हैं। उनसे कहना चाहिए कि जरा एक बार पक्षी होकर देखो तो। फिर उनकी आजादी की सही कीमत मालूम हो जायेगी। पक्षियों की गर्दन बराबर आगे-पीछे सतत नाचती रहती है। उन्हें सतत दूसरों का भय लगा रहता है। चिड़िया को आसन पर ला बिठाओ। क्या वह एकाग्र हो जायेगी? मेरे जरा निकट जाते ही वह फुर्र से उड़ जायेगी। वह डरेगी कि कहीं यह मुझे मारने तो नहीं आ रहा है! जिनके दिमाग में ऐसी भयानक कल्पना है कि यह सारी दुनिया भक्षक है, संहारक है, उन्हें शांति कहां? जब तक यह खयाल दिमाग से नहीं निकलेगा कि अपना रक्षक मैं अकेला ही हूं, बाकी सब भक्षक हैं, तब तक एकाग्रता नहीं सध सकती। समदृष्टि की भावना करना, यही एकाग्रता का उत्तम मार्ग है। आप सर्वत्र मांगल्य देखने लग जाइए, चित्त अपने-आप शांत हो जायेगा।


20. किसी दुःखी मनुष्य को कल-कल बहने वाली नदी के किनारे ले जाइए। उसके स्वच्छ-शांत प्रवाह को देखकर उसकी बेचैनी कम हो जायेगी। वह अपना दुःख भूल जायेगा। उस झरने में, उस प्रवाह में इतनी शक्ति कहाँ से आयी? परमेश्वर की शुभ शक्ति उसमें प्रकट हुई है। वेदों में झरने का बड़ा ही सुंदर वर्णन है- अतिष्ठन्तीनां अनिवेशनानाम्। ऐसे ये झरने हैं झरना अखंड बहता है। उसका अपना कोई घरबार नहीं। वह संन्यासी है। ऐसा पवित्र झरना एक क्षण में मेरे मन को एकाग्र बना देता है। ऐसे सुंदर झरने को देखकर प्रेम का, ज्ञान का झरना मेरे मन में मैं क्यों न निर्माण करूं? 


21. यह बाहर का जड़ पानी भी यदि मेरे मन को शांति प्रदान कर सकता है, तो फिर मेरी मानस-दरी में यदि भक्ति और ज्ञान का चिन्मय झरना बहने लगे, तो कितनी शांति प्राप्त होगी! मेरे एक मित्र हिमालय में, कश्मीर में, घूम रहे थे, वहाँ के पवित्र पर्वतों के, सुंदर जल-प्रवाहों के वर्णन वे लिख-लिखकर मुझे भेजते थे। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि जो जल-स्त्रोत, जो पर्वत-माला, जो शुभ समीर तुम्हें वहाँ अनुपम आनंद देते हैं, उन सबका अनुभव मैं अपने हृदय में करता हूँ। अपनी अंतः सृष्टि में मैं नित्य उन सब रमणीय दृश्यों को देखता हूँ। अतः तुम्हारे बुलाने पर भी मैं अपने हृदय के इस भव्य-दिव्य हिमालय को छोड़कर नहीं आऊंगा। स्थावराणां हिमालयः। जिस स्थिरता-मूर्ति हिमालय की उपासना स्थिरता लाने के लिए करनी है, उसका वर्णन सुनकर यदि मैंने अपना कर्तव्य छोड़ दिया तो उससे क्या लाभ! 


22. सारांश, चित्त को जरा शांत कीजिए। सृष्टि की ओर मंगल दृष्टि से देखिए, तो फिर आपके हृदय में अनंत झरने बहने लगेंगे। कल्पनाओं के दिव्य तारे हृदयाकाश में चमकने लगेंगे। पत्थर और मिट्टी की शुभ वस्तु देखकर यदि चित्त शांत हो जाता है, तो फिर अंतः सृष्टि के दृश्य देखकर वह शांत क्यों न होगा? एक बार मैं त्रावणकोर गया था। एक दिन समुद्र-किनारे बैठा था। वह अपार समुद्र, उसकी धू-धू गर्जना, सायंकाल का समय। मैं स्तब्ध, निश्चेष्ट बैठा था। मेरे मित्र ने वहीं समुद्र किनारे कुछ फल वगैरह खाने के लिए ला दिये। उस समय वह सात्त्विक आहार भी मुझे विष की तरह लगा। समुद्र की वह ॐ ॐ गर्जना, मुझे मामनुस्मर युध्य च- इस गीता-वचन की याद दिला रही थी। समुद्र सतत स्मरण कर रहा था और कर्म भी कर रहा था। एक लहर आयी, वह गयी और दूसरी आयी। उसे एक क्षण के लिए विश्रांति नहीं। यह दृश्य देखकर मेरी भूख-प्यास उड़ गयी थी। आखिर उस समुद्र में ऐसा क्या था? उस खारे पानी की लहरों को उछलते हुए देखकर यदि मेरा हृदय उछलने लगता है, तो फिर ज्ञान और प्रेम का अथाह सागर हृदय में हिलोरें मारने लगे तो मैं कितना नाचूंगा? वैदिक ऋषि के हृदय में ऐसा ही समुद्र हिलोरें मारता था- अंतः समुद्रे हृदि अंतरायुषि..... घृतस्य धारा अभि चाकशीमि.... समुद्रादूर्मिर्मधुमानुदारत्.... इस दिव्य भाषा पर भाष्य लिखते हुए बेचारे भाष्यकारों की फजीहत होने की नौबत आ गयी। कौन-सी वह घृत की धारा! कौन-सी वह मधु की धारा! मेरे अंतः समुद्र में क्या खारी लहरें उठेंगी? नही, नही, मेरे हृदय में तो दूध-घी और मधु की लहरें हिलोरें मार रही हैं।


30. बालक गुरु 

23. हृदय के इस समुद्र को निहारना सीखिए। बाहर के निरभ्र नील आकाश को देखकर चित्त को भी निर्लेप और निर्मल बनाइए। सच पूछो, तो चित्त की एकाग्रता एक खेल है। चित्त की व्यग्रता ही अस्वाभाविक और अनैसर्गिक है। छोटे बच्चों की आंखों की ओर एकटक होकर देखो। छोटा बच्चा टकटकी लगाकर देखता है, लेकिन आप दस बार पलक गिरायेंगे। बच्चों का मन तुरंत एकाग्र हो जाता है। चार-पांच महीने के बच्चे को बाहर की हरी-भरी सृष्टि दिखलाओ वह सतत देखता रहेगा। स्त्रियों की तो ऐसी मान्यता है कि बाहर की हरियाली को देखकर उसकी विष्ठा भी हरे रंग की हो जाती है। मानो सब इंद्रियों की आंखें बनाकर वह देखता है। छोटे बच्चे के मन पर किसी भी घटना का बड़ा प्रभाव पड़ता है। शिक्षाशास्त्री कहते हैं- "शुरू के दो-चार सालों में जो शिक्षा बालकों को मिल जाती है, वही वास्तविक शिक्षा है।" आप कितने ही विद्यापीठ, पाठशालाएं, संघ-संस्थाएं कायम कीजिए, शुरू में जो शिक्षा मिलती है, वैसी फिर आगे नहीं मिल सकती। शिक्षा विषय से मेरा संबंध है। दिन-ब-दिन मेरा यह निश्चय होता जा रहा है कि इस बाहरी शिक्षा का परिणाम शून्यवत है। आरंभिक संस्कार वज्रलेप हो जाते हैं। बाद के शिक्षण को बाहरी रंग, ऊपरी झिल्ली समझो। साबुन लगाने से ऊपर का दाग, मैल निकल जाता है; परन्तु चमड़ी का काला रंग जायेगा क्या? उसी तरह शुरू में जो संस्कार पड़ जाता है, उसका मिटना अत्यंत कठिन हो जाता है। तो ये शुरू के संस्कार बलवान क्यों? बाद के संस्कार कमज़ोर क्यों? इसलिए कि बचपन में चित्त की एकाग्रता नैसर्गिक रहती है। एकाग्रता होने के कारण जो संस्कार पड़ते हैं, वे फिर नहीं मिटते। चित्त की एकाग्रता की ऐसी महिमा है। जिसे यह एकाग्रता प्राप्त हो गयी, उसके लिए क्या अशक्य है? 24. हमारा सारा जीवन आज कृत्रिम हो गया है। हमारी बालवृत्ति मर गयी है, नष्ट हो गयी है। जीवन में वास्तविक सरसता नहीं। वह शुष्क हो गया है। हम ऊटपटांग, जैसे-तैसे चल रहे हैं। डार्विन साहब नहीं, बल्कि हम खुद अपनी कृति से यह सिद्ध कर रहे हैं कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे। छोटे बच्चों में विश्वास होता है। मां जो कहे, वह उनके लिए प्रमाण। जो कहानियां उनसे कही जाती हैं, वे असत्य नहीं मालूम होतीं। कौआ बोला, चिड़िया बोली, यह सब उन्हें सच मालूम होता है। बच्चों की इस मंगल-वृत्ति के कारण उनकी एकाग्रता जल्दी होती है।


31. अभ्यास, वैराग्य और श्रद्धा 

25.तात्पर्य यह है कि ध्यानयोग के लिए चित्त की एकाग्रता, जीवन की परिमितता और शुभ-साम्य-दृष्टि की जरूरत है। इसके सिवा और भी दो साधन बताये हैं- वैराग्य और अभ्यास। एक है विध्वंसक और दूसरा है विधायक। खेत से घास उखाड़कर फेंकना विध्वंसक काम हुआ। इसी को ‘वैराग्य’ कहते हैं। उसमें बीज बोना विधायक काम है। मन में सद्विचारों का पुनः पुनः चिंतन करना ‘अभ्यास’ कहलाता है। वैराग्य विध्वंसक क्रिया है, अभ्यास विधायक क्रिया। 


26. अब वैराग्य आये कैसे? हम कहते हैं- ‘आम मीठा है’, परन्तु क्या यह मिठास निरे आम में है? नहीं, निरे आम में नहीं है। हम अपनी आत्मा की मिठास वस्तु में डालते हैं और फिर वह वस्तु मीठी लगती है। अतः भीतरी मिठास को चखना सीखो। केवल बाह्य वस्तु में मधुरता नहीं है, बल्कि वह रसानां रसतमः माधुर्य- सागर आत्मा मेरे पास है, उसी की बदौलत मीठी वस्तुओं को मिठास मिली है, ऐसी भावना करते रहने से मन में वैराग्य का संचार होता है। सीता माता ने हनुमान को मोतियों का हार दिया। हनुमान मोतियों को चबाता, देखता और फेंक देता। उनमें उसे कहीं ‘राम’ दिखायी नहीं देता था। राम तो था उसके हृदय में उन मोतियों के लिए मूर्ख लोग लाख रूपये दे देते। 


27. इस ध्यान-योग का वर्णन करते हुए भगवान ने एक बहुत ही महत्त्व की बात शुरू में ही बता दी है। वह यह कि मनुष्य को ऐसा दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि ‘मुझे खुद अपना उद्धार करना है। मैं आगे बढूंगा। मैं ऊंची उड़ान भरूंगा। इस नर-देह में मैं ज्यों-का-त्यों पड़ा नहीं रहूंगा। परमेश्वर के पास जाने का हिम्मत के साथ प्रयत्न करूंगा।’ यह सब सुनते-सुनते अर्जुन के मन में शंका उठी कि ‘‘भगवन, अब तो हमारी उम्र बीत गयी। कुछ दिनों में हम मर जायेंगे, तो फिर यह साधना किस काम आयेगी? भगवान ने कहा- "मृत्यु का अर्थ तो है लंबी नींद।" रोज का काम करके हम सात-आठ घंटे सोते हैं। इस नींद से कोई डरता है? बल्कि नींद न आये, तो फ़िक्र पड़ जाती है। जैसे नींद जरूरी, वैसे ही मौत भी जरूरी है। जैसे नींद से उठकर फिर हम अपना काम प्रारंभ कर देते हैं, वैसे ही मरण के बाद भी पहले की यह सारी साधना हमारे काम आयेगी।


28. ज्ञानदेव ने ‘ज्ञानेश्वरी’ में इस प्रसंग पर लिखी ओवियों में मानों अपना आत्मचरित्र ही लिख दिया है! बालपणीं च सर्वज्ञता। वरी तयातें। सकळ शास्त्रें स्वयंभें। निघतीं मुखें॥ -‘शैशव में ही उन्हें सर्वज्ञता वरण करती है। सारे शास्त्र स्वयं ही मुख से निकलते हैं’ आदि वचनों में यह बात दीख पड़ती है। पूर्वजन्म का अभ्यास आपको खींच लेता है। किसी-किसी का चित्त विषयों की ओर जाता ही नहीं। वह जानता ही नहीं कि मोह कैसे होता है; क्योंकि पूर्वजन्म में वह उसकी साधना कर चुका है। भगवान ने आश्वासन दिया है - न हि कल्याणकृत्कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति- जो मनुष्य कल्याण-मार्ग पर चलता है, उसका जरा भी श्रम व्यर्थ नहीं जाता। अंत में इस तरह की श्रद्धा बतायी है। जो कुछ अपूर्ण है, वह अंत में पूरा होकर रहेगा। भगवान के इस उपदेश का स्वारस्य ग्रहण करिये और अपने जीवन को सार्थक कीजिये।



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