कर्म का उपदेश

हम जानते हैं कि गीता मे गुरु भगवान् हैं, और हम देखते हैं कि शिष्य मानव है; अब यह बाकी है कि हमें गीता की शिक्षा की स्‍पष्‍ट धारणा हो जाये। यह स्पष्ट धारणा ऐसी होनी चाहिये कि गीता की मुख्य शिक्षा, उसका सार मर्म हमारी समझ में आ जाये, क्योंकि गीता में बहुमूल्य और बहुमुखी विचार होने के कारण तथा इसमें आध्यात्मिक जीवन के नानाविध पहलुओं का समालिंगन होने और इसका प्रतिपादन वेग युक्त चक्राकार गति होने के कारण सहज ही ऐसा हो जाता है कि लोग इसकी शिक्षा का, अन्य सद्ग्रंथों की अपेक्षा भी अधिक मात्रा में, पक्षपातयुत युक्त  बुद्धि से पैदा हुआ एक पक्षीय भ्रांत निरूपण करने लगते हैं। किसी तथ्य, शब्द या भावना को ग्रंथ के अभिप्रेत तात्पर्य से, जाने-अनजाने अलग करके उससे अपने किसी पूर्वगृहीत विचार या शिक्षा अथवा अपनी पसंद का कोई सिद्धांत स्थापित करना भारतीय नैयायिकों की दृष्टि में हेत्वाभास का एक बड़ा ही सुगम प्रवंचक प्रकार है; और शायद यह एक ऐसा प्रकार है कि अत्यंत सावधान रहने वाले दार्शनिक के लिये भी इससे बच पाना बड़ा कठिन होता है।


कारण इस विषय में मनुष्य की बुद्धि अपना दोष आप ही ढूंढ़ निकालने की सावधानी सदा रख सकने में असमर्थ होती है; उसका स्वभाव ही किसी एकतरफा सिद्धांत, विचार या तत्त्व ग्रहण कर उसी का मंडन करने और उसी को संपूर्ण सत्य के पाने की कुंजी बना लेना होता है और इस स्वभाव में अपने-आपको बढ़ाने की वृत्ति होती है जिसका कोई अंत नहीं है। अर्थात् मनुष्य बुद्धि में यह स्वरूपगत और पालित-पोषित दोष है, अपने कार्य में इस दोष को ढूंढ़ निकालने से इसकी दृष्टि फिरी रहती है। गीता के संबंध में इस प्रकार की गलती सहज रूप से होती है, क्योंकि इसके किसी भी एक पहलू को लेकर उसी पर खास जोर देकर अथवा इसकी किसी खास जोरदार श्लोक को लेकर उसी को आगे बढ़ाकर अठारहों अध्यायों को पीछे धकेलकर या उन्हें गौण और सहायक रूप करार देकर गीता को अपने ही मत या सिद्धांत का पोषक बना लेना आसान है। इस प्रकार कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्म-योग का प्रतिपादन ही नहीं है, बल्कि वे इसकी शिक्षा को संसार और सब कर्मों के संन्यास के लिये तैयार करने वाली एक साधना मानते हैं; नियत कर्मों को अथवा जो कोई कर्म आमने सामने आ पड़े उसको उदासीन होकर करना ही साधन या साधना है; संसार और सब कर्मों का अंत में संन्यास ही एकमात्र साध्य है।


गीता से ही जहाँ-तहाँ के श्लोक लेकर और गीता की विचार पद्धति में जहाँ-तहाँ थोड़ी खींचतान करके इस बात को प्रमाणित करना सरल है और जब गीता में शब्द के विशेष प्रयोग की ओर से हम आंखें फेर लेते हैं तब तो यह काम और भी आसान हो जाता है। परंतु इस मत का आग्रह तब नहीं ठहर सकता जब कोई पक्षपात-रहित भक्त  देखता है कि ग्रंथ में अंत तक बार-बार यही कहा जा रहा है कि अकर्म की अपेक्षा कर्म ही श्रेष्ठ है और कर्म की श्रेष्ठता इस बात में है कि इसमें वास्तविक रूप से समत्व के द्वारा कामना का आंतरिक त्याग करके कर्म पुरुष  को अर्पण करना होता है। फिर कुछ लोग कहते हैं कि गीता का संपूर्ण अभिप्राय भक्ति-तत्त्व का प्रतिपादन है। ये लोग गीता के अद्वैत तत्त्वों की, और इसमें सबके एक आत्मा बह्म में शांत भाव से निवास करने की स्थिति को जो ऊंचा स्थान दिया गया है उसकी, अवहेलना करते हैं।


इसमें संदेह नहीं कि गीता में भक्ति पर बड़ा जोर दिया गया है, बारंबार इस बात को दुहराया गया है कि भगवान् ही ईश्वर और पुरुष हैं, रचना करने में काबिल हैं, और फिर गीता ने पुरुषोत्तम सिद्धांत स्थापित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि भगवान् पुरुषोत्तम हैं, उत्तम पुरुष हैं, अर्थात् क्षर पुरुष के परे और अक्षर पुरुष से भी श्रेष्ठ हैं,  और वही हैं जिन्हें जगत् के संबंध से हम ईश्वर कहते हैं, गीता की से बातें बड़ी मारने की हैं, मानो उसकी जान हैं। तथापि ये ईश्वर वह आत्मा हैं, जिनमें संपूर्ण ज्ञान की परिपूर्ति होती है, ये ही यज्ञ के प्रभु हैं, सब कर्म हमें इन्हीं के पास ले जाते हैं और ये ही प्रेममय स्वामी हैं जिसमें भक्त हृदय प्रवेश करता है।


गीता इन तीनों में संतुलन रखती है। कहीं ज्ञान पर जोर देती है, कहीं कर्म पर कहीं और कहीं भक्ति पर, परंतु यह जोर तात्कालिक विचार-प्रसंग से संबंध रखता है, इस मतलब से नहीं कि इनमें से कोई किसी से सर्वथा श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। जिन भगवान् में ये तीनों मिलकर एक हो जाते हैं वे ही परम पुरुष हैं, पुरुषोत्तम हैं। परंतु आज तक, अर्थात् जब से आधुनिकों ने गीता को मानना और उस पर कुछ विचार करना आरंभ किया है, तब से लोगों का झुकाव गीता के ज्ञानत्व और भक्ति तत्त्व को गौण मानकर, उसके कर्म-विषयक लगातार आग्रह का लाभ उठाकर उसे एक कर्मयोग-शास्त्र, कर्म-मार्ग में ले जाने वाला प्रकाश, कर्म विषयक सिद्धांत ही मानने की ओर दिखायी देता है।


इसमें संदेह नहीं कि गीता कर्मयोग-शास्त्र है, पर उन कर्मों का जो ज्ञान में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धि में और शांति में परिसमाप्त होते हैं, उन कर्मों का जो भक्ति प्रेरित हैं, अर्थात् यह वह ज्ञान युक्त सचेतन शरणागति है जिसमें भक्त कर्मी अपने-आप को पहले भगवान् के हाथों में सौंप दता है और फिर भगवान् की सत्ता में प्रवेश करता है, यह उन कर्मों का शास्त्र कभी भी नहीं है जिन्हें आधुनिक मन कर्म का मानकर बैठा है, उन कर्मों का बिल्कुल नहीं जो अहंकार और परोपकार के भाव से किये जाते हैं या जो वैयक्तिक, सामाजिक और भूतदया के विचारों, सिद्धांतों और आदर्शों से प्रेरित होते हैं। फिर भी गीता के आधुनिक टीकाकर यही दिखाना चाहते हैं कि गीता में कर्म का आधुनिक आर्दश ग्रहण किया गया है। कितने ही अधिकारी पुरुषों द्वारा लगातार यह कहा जाता है कि भारतीय विचार और आध्यात्मिकता की जो सामान्य प्रवृत्ति है कि मनुष्य को वैरागी और शांतिकामी निवृत्तिमार्गी बना दे, उसका गीता विरोध करती है, यह स्पष्ट शब्दों में कर्म के मानव सिद्धांत का, अर्थात् सामाजिक कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से करने के आदर्श का, इतना हीं नहीं, बल्कि समाज सेवा के सर्वथा आधुनिक आदर्श का भी प्रतिपादन करती है।


इन सब बातों का उत्तर मेरे पास इतना ही है कि गीता में, स्पष्ट ही, और केवल इसका ऊपरी अर्थ ग्रहण करते हुए भी, इस तरह की कोई बात नहीं है, यह केवल आधुनिकों की समझ का उलटफेर है, कुछ-न-कुछ समझ लेना है, यह एक प्राचीन ग्रंथ को अर्वाचीन बुद्धि समझने का फल है, सर्वथा पुरातन, प्राच्य और भारतीय शिक्षा को वर्तमान यूरोपीय या यूरोपीयकृत बुद्धि से जानने की व्यर्थ चेष्टा है। गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है वह मानव-कर्म नहीं बल्कि दिव्य कर्म है, सामाजिक कर्तव्यों का पालन नहीं बल्कि कर्तव्य और आचरण के अन्य सब पैमानों को त्यागकर अपने स्वभाव के द्वारा कर्म करने वाले भागवत-अधिकृत महापुरुषों का कर्म है जो नाहंकृत भाव से संसार के लिये नहीं उन भगवान् की प्रीतिपूजा के तौर पर यज्ञ-रूप से किया जाता है जो मनुष्य और प्रकृति के पीछे सदा विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र का ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि अपने आध्यात्मिक जीवन का और उसके वैकास का ग्रंथ है। आधुनिकों की बुद्धि वर्तमान समय में यूरोपीय बुद्धि है जो अपने मूल सूत्र-स्वरूप यूनानी-रूमी संस्कृति की परमोच्च अवस्था के दार्शनिक आदर्शवाद का ही नहीं, बल्कि मध्यकालीन युग के ईसाई भक्तिवाद का भी परित्याग करके ऐसी बन गयी है। दार्शनिक आर्दशवाद और भक्तिवाद के स्थान पर इसने व्यावहारिक आर्दशवाद और समाज सेवा, देशसेवा और मानव सेवा का भाव ला बैठाया है। ईश्वर से इसने छुटकारा पा लिया है अथवा यह कहिये कि ईश्वर को केवल रविवार की छुट्टी के लिये रख छोड़ा है और ईश्वर के स्थान पर देवरूप से मनुष्य को और प्रत्यक्ष पूज्य प्रतिमा रूप से समाज को प्रतिष्ठित किया है। अपनी सर्वोत्तम अवस्था में यह व्यवहार्य, नैतिक और सामाजिक है, इसमें कर्मनिष्ठा है, परोपकार की और मनुष्य जाति को सुखी करने की अभिलाषा है।


ये सब बातें बहुत अच्छी हैं, आजकल इनकी खास आवश्यकता भी है, और ये भगवत्‍संकल्प का ही अंश है, क्योंकि यदि ये भगवत्‍संकल्प के अंग न होतीं तो मनुष्य जाति में इन्हें इतनी प्रधानता प्राप्त न होती। और, इसका कोई कारण नहीं है कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्राह्यी-स्थिति की चिन्मयी अवस्था में तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें न हों, बल्कि यदि यही युगधर्म हो, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज न हो, कोई महत् आमूल परिवर्तन न होता हो तो ये सब बातें उसके कर्म अवश्य रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच अर्जुन से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे है, सामान्य मनुष्यों की तरह नहीं जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते हैं। परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकों की बुद्धि ने अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो चीजों को अर्थात् ईश्वर या सनातन ब्रह्म को और आध्यात्मिकता या परमात्म-स्थिति को निकाल बाहर कर दिया है वे ही गीता की सर्वोत्कृष्ट भावनाएं हैं। आधुनिकों की बुद्धि मानवता के दायरे के अंदर रहती है और गीता कहती है कि भगवान् में रहो; इसका जीना केवल इसके प्राण, हृदय और बुद्धि में है और गीता कहती है कि आत्मा मे जीयो; इसकी शिक्षा है क्षर पुरुष में, सर्वाणि भूताणि में रहने की और गीता की शिक्षा है अक्षर और परम पुरुष में भी रहने की; इसका कहना है सदा बदलने वाले काल-प्रवाह के साथ बहे चलो और गीता का आदेश है सनातन में निवास करो। गीता की इन उच्चतर बातों की ओर यदि आजकल कुछ-कुछ ख्याल दौड़ने भी लगा है तो वह केवल इसलिये कि मनुष्य और मनुष्य-समाज की इनसे कुछ सेवा करायी जाये। परंतु भगवान् और आध्यात्मिक जीवन का अस्तित्व उनकी अपनी वजह से ही है, किसी के महज अनुसरण कारक बनकर नहीं। और, व्यवहार में हमारे अंदर जो कुछ निम्न हैं उसको उच्‍च के लिये जीना सीखना होगा, ताकि हममें जो उच्च है वह भी निम्न के लिये सही रूप से विद्यमान रहे ताकि वह उसको अपनी उच्च भूमिका के अधिकाधिक समीप ले आवे। इसलिये आजकल की मनोवृत्ति के विचार से गीता का अर्थ करना और गीता से जर्बदस्ती यह शिक्षा दिलाना कि निःस्वार्थ होकर कर्तव्य का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसंपूर्ण धर्म है, बिलकुल गलत रास्ता है।


जिस प्रसंग से गीतोपदेश हुआ है उसका किंचिन्‍मात्र विचार करने से ही यह स्पष्ट हो जायेगा कि गीता का यह अभिप्राय हो ही नहीं सकता। कारण, जिस प्रसंग से गीता का आविर्भाव हुआ है और जिस कारण से शिष्य का गुरु शरण लेनी पड़ी उसका सारा मर्म तो कर्तव्य की परस्पर-संबद्ध विविध भावनाओं का विविध रूप से   उलझा हुआ वह संघर्ष है जो मानव-बुद्धि के द्वारा खड़ी की गयी सारी उपयोगी, बौद्धिक और नैतिक इमारत को गिरा देता है। मनुष्य-जीवन में किसी-न-किसी प्रकार का संघर्ष तो प्रायः उत्पन्न हुआ ही करता है, जैसे कभी गार्हस्थ्य-धर्म के साथ देश-धर्म या देश की पुकार का, कभी देश के दावे के साथ मानव-जाति की भलाई का या किसी बृहत्तर धार्मिक या नैतिक सिद्धांत का। एक आंतरिक  परिस्थिति भी खड़ी हो सकती है, जैसी कि गौतम बुद्ध के जीवन में हुई थी; इस परिस्थिति के आने पर अंतःस्थित भगवान् के आदेश का पालन करने के लिये सभी कर्तव्यों को त्याग देना, कुचल डालना और एक ओर फेंक देना पड़ता है। मैं नहीं समझता कि इस प्रकार की आंतरिक परिस्थिति का समाधान गीता कभी यों कर सकती है कि वह बुद्ध को फिर से अपनी पत्नी और पिता के पास भेज दे और उन्हें शाक्य राज्य की बागडोर हाथ में लेने के लिये कहे। न यह परमहंस रामकृष्ण से ही कह सकती है कि तुम किसी पाठशाला में जाकर पंडित होकर रहो, और छोटे-छोटे बच्चों को निष्काम होकर पाठ पढ़ाया करो, न विवेकानंद को ही मजबूर कर सकती है कि तुम जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करो और इसके लिये वीतराग होकर वकालत या डाक्टरी या अखबार-नवीसी का धंधा अपनाओ।


गीता निःस्वार्थ कर्तव्य-पालन की शिक्षा नहीं देती, बल्कि दिव्य जीवन बिताने की शिक्षा देती है, सब धर्मों का परित्याग सीखाती है, सर्वधर्मान् परित्यज्य, एक परमात्मा का ही आश्रय ग्रहण करने को ही कहती है; और बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानंद का भागवत कर्म गीता की इस शिक्षा के सर्वथा अनुकूल था। इतना ही नहीं, गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ बतलाते हुए भी कर्म-संन्यास का निषेद नहीं करती, बल्कि इसे भी भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक ही साधन स्वीकार करती है। यदि कर्म और जीवन और सब कर्तव्यों का त्याग करने से ही उसकी प्राप्ति होती हो और इस त्याग के लिये प्रबल आंतरिक पुकार हो तो सब कर्मों का स्वाहा करना ही होगा, इसमें किसी का कोई वश नहीं चल सकता। भगवान् की पुकार अलंघ्य है, दूसरे कोई भी विचार उसके सामने नहीं ठहर सकते। परंतु यहाँ एक और कठिनाई यह है कि जो कर्म अर्जुन को करना है वह ऐसा कर्म है जिससे उसकी नैतिक बुद्धि पीछे हटती है। आप कहते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, पर वह धर्म ही तो इस समय उसकी बुद्धि में भयंकर पाप हो गया है। तुम्हें निःस्वार्थ भाव से और विकार-रहित होकर कर्तव्य-पालन करना चाहिये, ऐसा कहने से उसकी क्या सहायता हो सकती है या उसकी कठिनाई कैसे हल हो सकती है?


वह यह जानना चाहेगा कि उसका कर्तव्य क्या है अथवा यह कि अपने परिजनों, जाति-भाइयों और देशवासियों का संहार करना और रक्त बहाना भला उसका कर्तव्य कैसे हो सकता है? उससे कहा जा रहा है कि न्याय, धर्म, सत्य तुम्हारे पक्ष में हैं, पर इससे उसको संतोष नहीं होता, संतोष हो ही नहीं सकता; कारण उसका कहना यही है कि हमारा पक्ष न्याय का है सही, पर उसके लिये राष्ट्र का भविष्य बिगाड़ने वाला निर्दय रक्तपात करना न्याय नहीं है। तो क्‍या अर्जुन से यह कहना होगा कि तुम्हें इन सब बातों से क्या मतलब, तुम सैनिक हो-सैनिक का काम करो, लड़ो-कटो, मरो-मारो, चाहे पाप हो या पुण्य, इसका कुछ भी फल हो, उसका विचार न करो, निर्विकार भाव से अपना कर्म किये जाओ? परंतु यह सीख किसी राज्य की ओर से हो सकती है, राजनीतिक, वकील, नैतिक धर्माधर्मविचारक ऐसा कह सकते हैं, पर कोई महान् धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ, जिसका उद्देश्य जीवन और कर्म के प्रश्न को जड़मूल से हल करना हो, ऐसी शिक्षा नहीं दे सकता। और, यदि नैतिक और अध्यात्म-विषयक ऐसे मार्मिक प्रश्न के विषय में गीता को यही बात कहनी हो तो इसे संसार के महान् धर्मग्रंथों की सूची से अलग करना होगा और फिर यदि इसे कहीं रखना ही हो तो राजनीतिशास्त्र और आचारशास्त्र के किसी पुस्तकालय में रख सकते हैं।


निश्चय ही गीता में, उपनिषदों की तरह उस ममता का उपदेश है जो पुण्य और पाप से ऊपर, अच्छे और बुरे के परे है, पर वह समता केवल ब्राह्मी चेतना का अंग और उसका उपदेश उसी के लिये है जो उस मार्ग पर हो और उस परम धर्म को चरितार्थ करने के लिये काफी आगे बढ़ चुका हो। यह मनुष्य के सामान्य जीवन के लिये अच्छे बुरे से उदासीन होने का उपदेश नहीं देतीं, जहाँ इस प्रकार की शिक्षा का बहुत ही हानिकारक परिणाम हो सकता है। वैसे जीवन के लिये तो गीता का निर्देश है कि बुरे कर्म करने वाले कभी ईश्वर को नहीं पा सकते। इसलिये यदि अर्जुन केवल मनुष्य-जीवन के सामान्य धर्म को ही सर्वोत्तम प्रकार से चरितार्थ करना चाहता हो तो जिस चीज को वह पाप समझता है, नरक की वस्तु समझता है उसी को निःस्वार्थ होकर करने से उसका कुछ भी भला न होगा, चाहे एक सैनिक के नाते वह पाप उसका कर्तव्य क्यों न हो।


उसकी विवेक बुद्धि जिस काम से घृणा कर रही है उससे उसे हटना ही होगा, चाहे उससे हजार कर्तव्य-कर्म धूल में मिल जायें। हमें याद रखना चाहिये कि कर्तव्य वह भावना है जो व्यवहार में सामाजिक धारणाओं पर निर्भर है, इस सामान्य अर्थ से हम इस शब्द को और अधिक व्यापक करके यह कह सकते हैं कि अमुक कर्म हमारा अपने प्रति कर्तव्य है अथवा इस व्याप्ति से भी आगे बढ़कर यह कह सकते हैं कि सर्वस्व का त्याग करना बुद्ध का कर्तव्य था या यह भी कह सकते हैं कि गुहा में स्थिर होकर बैठना यती का कर्तव्य है! पर यह सब, स्पष्ट ही, शब्दों का खेल है।


कर्तव्य आपेक्षिक शब्द है और दूसरों के साथ अपने संबंध पर इसका निर्भर है। पिता होने के नाते पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का लालन पालन करे और उन्हें सुनिश्चित करे; वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की पैरवी करने में पूरी कोशिश करे चाहे उसे यह ज्ञात भी हो कि मुवक्किल कसूरवार है और उसने जो जवाब दिया है वह झूठ है; सिपाही का कर्तव्य है कि वह लड़े, हुकुम पाते ही गोली मार दे चाहे उसका सामना करने वाला उसका नाती-परिजन या देश-भाई ही क्यों न हो; जज का यह कर्तव्य है कि वह अपराधी को जेल भेजे और खूनी को सूली पर चढ़वा दे। जब तक मनुष्य इन पदों पर रहना स्वीकार करता है तब तक उसका कर्तव्य स्पष्ट है, और जब इस कर्तव्य में उसकी मर्यादा और समता का सवाल न उठता हो तब भी उसके लिये अपने कर्तव्य का पालन करना एक व्यावहारिक बात हो जाती है और उसको कर्तव्य का पालन करते हुए निरपेक्ष धार्मिक और नैतिक विधान का उल्लंघन करना पड़ता है। परंतु यदि दृष्टि ही बदल जाये, यदि वकील की आंख खुल जाये और वह देखने लगे कि झूठ सदा पाप ही है, यदि जज को यह विश्वास हो जाये कि किसी मनुष्य को फांसी की सजा देना मानवता की दृष्टि में पाप करना है, समर भूमि में सिपाही का ही चित्त यदि आधुनिक युद्ध-विरोधियों का-सा हो जाये या टालस्टाय के समान उसके चित्त में यह आ जाये कि किसी भी मनुष्य की जान किसी भी हालत में लेना वैसा ही घृणित काम है जैसा कि मनुष्य का मांस भक्षण करना, तब क्या होगा?


ऐसे प्रसंग में अपने अंतःकरण का धर्म ही, जो सब आपेक्षिक धर्मों से ऊपर है, माना जायेगा, यह बात बिल्कुल साफ है; और यह धर्म कर्तव्य-विषयक सामाजिक संबंध या भावना पर निर्भर नहीं, बल्कि मनुष्य की, नैतिक मनुष्य की जागी हुई अंतःप्रतीत पर निर्भर है। संसार में वस्तुतः दो प्रकार के आचार-धर्म हैं, दोनों ही अपने-अपने स्थान पर आवश्यक और समुचित हैं, एक वह आचार-धर्म है जो मुख्यतः बाह्य अवस्था पर निर्भर है दूसरा वह है जो बाह्य पद-मर्यादा से सर्वथा स्वतंत्र और अपने ही सदद्विवेदक और विचार पर निर्भर करता है। गीता की शिक्षा यह नहीं कि श्रेष्ठ भूमिका के आचार-धर्म के अधीन कर दो, गीता यह नहीं कहती कि अपनी जागृति नैतिक चेतना को मारकर उसे सामाजिक मर्यादा पर निर्भर धर्म की वेदी पर बलि चढ़ा दो। गीता हमें ऊपर उठने के लिये कहती है, नीचे गिरने के लिये नही; दो क्षेत्रों के संघर्ष से, गीता हमें ऊपर चढ़ने का, उस परा स्थिति को प्राप्त करने का आदेश देती है जो केवल व्यावहारिक एवं केवल नैतिक चैतन्य से ऊपर है, जो ब्राह्मी स्थिति है। समाज-धर्म के स्थान में गीता यहाँ भगवान् के प्रति अपने कर्तव्य की भावना को प्रतिष्ठित करती है।


यहाँ बाह्य कर्म के अधीन होकर रहने की अवस्था दूर हो जाती है और इसके स्थान पर कर्म की गहन गति से मुक्त पुरुष का अपने कर्म को स्वतः निर्धारित करने का सिद्धांत स्थापित हो जाता है। और, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, यही ब्राह्मी चेतना, कर्म से पुरुष की मुक्ति और अंतःस्थित तथा ऊर्ध्वस्थित परमेश्वर के द्वारा स्वभाव में कर्मों का निर्धारण-यही कर्म के विषय में गीता की शिक्षा का मर्म है। गीता को समझना, और गीता जैसे किसी भी महान् ग्रंथ को समझना तभी संभव है जब उसका आदि से अंत तक और एक विकासात्मक शास्त्र के हिसाब से अध्ययन किया जाये। परंतु आधुनिक टीकाकरों ने, बंकिमचंद्र चटर्जी जैसे उच्च कोटि के लेखक से आरंभ कर जिन्होंने पहले-पहल गीता को आधुनिक अर्थ में कर्तव्य का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र बताया, सभी टीकाकरों ने गीता के पहले तीन-चार अध्यायों पर ही प्रायः सारा जोर दिया है, और उनमें भी समत्व की भावना और “कर्तव्य कर्म“ पर, और “कर्तव्‍य“ से इनका अभिप्राय वही है जो आधुनिक दृष्टि में गृहित है; कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ( कर्म में ही तेरा अधिकार है, कर्म फल में जरा भी नहीं )- इसी वचन को ये लोग गीता का महाकाव्य कहकर आम तौर पर उद्धृत करते हैं और बाकी के अध्याय और उनमें भरा हुआ उच्च तत्त्वज्ञान इनकी दृष्टि में गौण है; हां, ग्यारहवें अध्याय के विश्वरूप-दर्शन की मान्यता इनके यहाँ अवश्य है। आधुनिक मन-बुद्धि के लिये यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि तात्विक गूढ़ बातों और अतिदूरवर्ती आध्यात्मिक अनुसंधान की चेष्टाओं से यह बुद्धि घबरायी हुई है या अभी कल तक घबराती रही है और अर्जुन के समान कर्म का ही कोई काम में लाने योग्य विधान, कोई धर्म ढूंढ़ रही है। पर गीता जैसे ग्रंथ के निरूपण का यह गलत रास्ता है।


गीता जिस समता का उपदेश देती है वह उदासीनता नहीं है- गीता के उपदेश की आधार शिला जब रखी जा चुकी और उस पर उपदेश का प्रधान मंदिर जब निर्मित हो चुका, तब अर्जुन को जो महान् आदेश दिया गया है कि, “उठ, शत्रुओं का संहार कर और समृद्ध राज्य का भोग कर“, उसमें कोरे परोपकारवाद की या किसी विशुद्ध विकार-रहित सर्वत्याग के भाव की ध्वनि नहीं है; गीता की समता एक आंतरिक संतुलन और विशालता की स्थिति है, जो आध्यत्मिक मुक्ति की आधारशिला है। इस संतुलन के साथ और इस प्रकार की मुक्ति की अवस्था में हमें उस कर्म का सम्यक् आचरण करने का आदेश मिलता है जो “कार्य कर्म“ है-कार्यं कर्म समाचर, गीता की यह शब्द योजना अत्यंत व्यापक है, इसमें सर्वकर्माणि, सब कर्मों का समावेश है, यद्यपि सामाजिक कर्तव्य या नैतिक कर्तव्य भी इसमें आ जाते हैं, पर इतने से ही इसकी इति नहीं होती, “कार्य कर्म “ इन सबका समावेश करता हुआ भी इन सबका अतिक्रम करके बहुत दूर तक विस्तृत होता है।


वह “कर्म कार्य “ क्या है, यह किसी व्यक्ति की अपनी पसंद से निश्चित नहीं होता; और न कर्म में अधिकार और कर्मफल का त्याग ही गीता का महाकाव्य है, बल्कि यह एक प्राथमिक उपदेश है जो योग पर्वत पर चढ़ना आरंभ करनेवाले शिष्य की प्राथमिकता और मानसिक अवस्था पर लागू होता है। आगे चलकर इससे बड़ा उपदेश प्राप्‍त होता है। क्‍योंकि बाद में गीता बड़े जोर के साथ बतलाती है कि मनुष्‍य कर्म का कर्ता नहीं है; कर्त्री प्रकृति है, त्रिगुणमयी शक्ति ही उसके द्वारा कर्म करती है और शिष्य को यह साफ-साफ देख लेना सीखना होगा कि कर्म का कर्ता वह नहीं है। इसलिये, कर्मण्येवाधिकारः की भावना तभी तक के लिये है जब तक हम इस भ्रम में हैं कि हम कर्ता हैं; ज्यों ही हमें अपनी चेतना के अंदर यह अनुभव होता है कि हम अपने कर्मों के कर्ता नहीं हैं, त्यों ही कर्मफलाधिकार के समान ही कर्माधिकार भी मन-बुद्धि से तिरोहित हो जाता है। तब कर्म-विषयक सारे अहंकार, फलाधिकार के संबंध में कहिये या कर्माधिकार के संबंध में, समाप्त हो जाते हैं। परंतु प्रकृति का नियतिवाद भी गीता का अंतिम वचन नहीं हैं। मन, हृदय और बुद्धि के साथ भगवत्-चैतन्य में प्रवेश करने और उसमें रहने के लिये बुद्धि की समता और फल का त्याग, केवल साधन हैं और गीता ने इस बात को स्पष्ट रूप से कहा है कि इनसे तब तक काम लेना होगा जब तक साधक इस योग्य नहीं हो जाता कि वह इस भगवच्चैतन्य में रह सके कम-से-कम अभ्यास के द्वारा इस उच्चतर अवस्था को अपने में क्रमशः विकसित न कर ले। अच्छा तो यह भगवान् कौन है जिनके बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह मैं ही हूं? ये पुरुषोत्तम हैं, जो अकर्ता पुरुष के परे हैं, जो कत्री प्रकृति के परे हैं, जो एक आधार हैं और दूसरे के स्वामी, ये वे प्रभु हैं जिनका यह सारा प्राकट्य है, जो हमारी वर्तमान मायावशता की अवस्था में भी अपने जीवों के हृदय में विराज रहे हैं और प्रकृति के कर्मों के नियामक हैं, ये वे हैं जिनके द्वारा कुरुक्षेत्र की समरभूमि की सेनाएं जीवित होती हुई भी मारी जा चुकी हैं और जो अर्जुन को इस भीषण संहारकर्म का केवल यंत्र या निमित्त मात्र बनाये हुए हैं। प्रकृति केवल उनकी कार्यकारिणी शक्ति है। साधक को इस प्रकृति-शक्ति और इसके त्रिविध गुणों से ऊपर उठना होगा, उसको त्रिगुणातीत होना होगा। उसे अपने कर्म प्रकृति को नहीं समर्पित करने होंगे, जिन पर अब उसका कुछ भी दावा या अधिकार नहीं है, बल्कि उसे अपने कर्म उन परम पुरुष की सत्ता में समर्पित करने होंगे। अपना मन, अपनी बुद्धि, अपना हृदय, अपना संकल्प उन्हीं में रखकर, आत्म-ज्ञान के साथ, भगवद्-ज्ञान के साथ, जगत्-संबंधी ज्ञान के साथ, पूर्ण समता, अनन्य भक्ति और पूर्ण आत्म दान के साथ उसे अपने कर्म उन प्रभु के भेंट-स्वरूप करने होंगे जो सारे तपों और समस्त यज्ञों के स्वामी हैं। 


उनके संकल्प के साथ अपने संकल्प का तादात्म्य कर लेना होगा, उनकी चेतना से सचेतन होना होगा और उन्हीं को अपने कर्म का निर्णय और आंरभ करने देना होगा। भगवान् गुरु अपने शिष्य की शंकाओं का जो समाधान करते हैं वह यही है। गीता का परम वचन, गीता का महाकाव्य क्या है सो ढूंढ़कर नहीं निकालना है; गीता स्वयं ही अपने अंतिम श्लोकों में उस महान् संगीता का परम स्वर घोषित करती हैः-


तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

 

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया ।.....

सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।।......

 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। 

मामेवैष्यसि सत्यं प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।


“अपने हृद्देशस्थित भगवान् की, सर्वभाव से, शरण ले; उन्हीं के प्रसाद से तू पराशांति और शाश्वत पद को लाभ करेगा। मैंने तुझे गुह्य से ज्ञान बताया है। अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूँ। मेरे मन वाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिये यज्ञ कर, और मेरा नमन-पूजन कर; तू निश्चय ही मेरे पास आयेगा, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। सब धर्मों का पत्यिाग करके मुझ एक की ही शरण ले। मैं तुझे अपने पापों से मुक्त करूंगा; शोक मत कर।“ गीता का प्रतिपादन अपने-आपको तीन सोपानों में बांट लेता है, जिन पर चढ़कर कर्म मानव-स्तर से ऊपर उठकर दिव्य स्तर मैं पहुँच जाता है और वह उच्चतर धर्म की मुक्तावस्था के लिये नीचे के धर्म बंधनों को नीचे ही छोड़ जाता है। पहले सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ-रूप से कर्म करेगा, यज्ञ यह वह उन भगवान् के लिये करेगा जो परम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अपनी सत्ता में अनुभव नहीं किया है। यह आरंभिक सोपान है। दूसरा सोपान है केवल फलेच्छा का त्याग नहीं, बल्कि कर्ता होने के भाव का भी त्याग और अनुभूति की आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्त्व है और सब कर्म विश्व शक्ति के, प्रकृति के हैं जो विषम, कर्त्री और क्षर शक्ति है। अंतिम सोपान है परम आत्मा को वह परम पुरुष जान लेना जो प्रकृति के नियामक हैं, प्रकृतिगत जीव उन्हीं की आंशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्पर स्थिति में रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं।


प्रेम, भजन, पूजन और कर्मों का यजन सब उन्हीं को अर्पित करना होगा; अपनी सारी सत्ता उन्हीं को समर्पित करनी होगी और अपनी सारी चेतना को ऊपर उठाकर इस भागवत चैतन्य में निवास करना होगा जिसमें मानव-जीव भगवान् की प्रकृति और कर्मों से परे जो दिव्य परात्परता है उसमें भागी हो सके और पूर्ण आध्यात्मिक मुक्ति की अवस्था में रहते हुए कर्म कर सके। प्रथम सोपान है कर्मयोग, भगवत्प्रीति के लिये निष्काम कर्मों का यज्ञ; और यहाँ गीता का जोर कर्म पर है। द्वितीय सोपान है ज्ञानयोग, आत्म -उपलब्धि, आत्मा और जगत् के सत्स्वरूप का ज्ञान; यहाँ उसका ज्ञान पर जोर है, पर साथ-साथ निष्काम कर्म भी चलता रहता है, यहाँ कर्म मार्ग ज्ञान मार्ग के साथ एक हो जाता है पर उसमें घुल-मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खोता। तृतीय सोपान है भक्तियोग, परमात्मा की भगवान् के रूप में उपासना और खोज; यहाँ भक्ति पर जोर है, पर ज्ञान भी गौण नहीं है, वह केवल उन्नत हो जाता है, उसमें एक जान आ जाती है और वह कृतार्थ हो जाता है, और फिर भी कर्मों का यज्ञ जारी रहता है; द्विविध मार्ग यहाँ ज्ञान, कर्म और भक्ति त्रिविध मार्ग हो जाता है। और, यज्ञ का फल, एक मात्र साधक फल जो साधक के सामने ध्येय-रूप से अभी तक रखा हुआ है, प्राप्त हो जाता है, अर्थात् भगवान् के साथ योग और परा भगवती प्रकृति के साथ एकत्व प्राप्त हो जाता है।


अब गीता के उपदेशक गुरु के इस विशाल सोपान-क्रम का अनुसरण करते हुए हम आगे बढ़ें और मनुष्य के इस त्रिविध मार्ग का उन्होंने जिस प्रकार अंकन किया है उसका निरीक्षण करें। यह वही मार्ग है जिस पर चलने वाले मनुष्य के मन में, हृदय और बुद्धि उन्नत होकर उन परम को प्राप्त होते और उनकी सत्ता में निवास करते हैं जो समस्त कर्म, भक्ति और ज्ञान के परम ध्येय हैं। परंतु इसके पूर्व फिर एक बार उस परिस्थिति का विचार करना होगा जिसके कारण गीता प्रादुर्भाव हुआ और इस बार इसे इसके अत्यंत व्यापक रूप में अर्थात् इसे मनुष्य जीवन का और समस्त संसार का भी प्रतीक मानकर होगा। यद्यपि अर्जुन केवल अपनी ही परिस्थिति से, अपने ही आंतरिक संघर्ष और कर्म-विधान से मतलब है, तथापि जैसा कि हम लोग देख चुके हैं, जो विशेष प्रश्न अर्जुन ने उठाया है और जिस ढंग से उसे उठाया है उससे वास्तव में मनुष्य जीवन और कर्म का सारा ही सवाल उपस्थित होता है यह संसार क्‍या है और क्यों है और यह जैसा है उसमें इस सांसारिक जीवन का आत्म जीवन के साथ कैसे मेल बैठे? इस गहरे, कठिन विषय को श्रीगुरु हल करना चाहते हैं, क्योंकि उसी की बुनियाद पर वे उस कर्म का आदेश देते हैं जिसे सत्ता की एक नवीन संतुलन अवस्था से मोक्षप्रद ज्ञान के प्रकाश में भरना होगा।


तब फिर कौन-सी चीज है जो उस मनुष्य के लिये कठिनाई उपस्थित करती है जिसे इस संसार को, जैसा यह है, स्वीकार करना है और इसमें कर्म करना है और साथ ही अपने अंदर सत्ता में, आध्यत्मिक जीवन में निवास करना है। संसार का वह कौन-सा पहलू है जो उसके जागृत मन को व्याकुल कर देता है और उसकी ऐसी अवस्था हो जाती है जिसके कारण गीता के प्रथम अध्याय का नाम सार्थक शब्दों में ’अर्जुन-विषाद योगद’ पड़ा- वह विषाद और निरुत्साह जो मानव जीवन को तब अनुभूत होता है जब यह संसार जैसा है ठीक वैसा ही, अपने असली रूप में उसके सामने आता है, और उसे उसका सामना करना पड़ता है, जब न्याय-नीति और नेकी के भ्रम का परदा उसकी आंखों के सामने से, और किसी बड़ी चीज के साथ मेल होने से पहले ही, फट जाता है? यह वही पहलू है जिसने बाह्यतः कुरुक्षेत्र के नर-संहार और रक्तपात के रूप में आकार ग्रहण किया है और अध्यात्मतः समस्त वस्तुओं के स्वामी के काल रूप-दर्शन में जो अपने सृष्ट प्राणियों को निगलने, चबा जाने और नष्ट करने के लिये प्रकट हुए हैं। यह दर्शन अखिल विश्व के उन प्रभु का दर्शन है जो विश्व के स्रष्टा हैं, पर साथ ही विश्‍व के संहारकर्ता भी, जिनका वर्णन प्राचीन शास्त्रकारों ने बड़े ही कठोर रूपक में यूं किया है कि, “ऋषि-मुनि और रथी-महारथी इनके भोज्य हैं और मृत्यु इनके जेवनार का मसाला है।“ दोनों एक ही सत्य के रूप हैं, वही सत्य पहले जीवन के तथ्यों में अप्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से देखा गया जो अपने-आपको जीवन में व्यक्त किया करता है।


इसका बाह्य पहलू जगत्-जीवन और मानव जीवन है जो लड़ते-भिड़ते और मारते-काटते हुए आगे बढ़ते हैं अंतरंग पहलू है विराट पुरुष जो विराट् सर्जन और विराट् संहार के द्वारा अपने-आपको पूर्ण करते हैं। जीवन एक युद्ध है, संहार-क्षेत्र है, यही कुरुक्षेत्र है; ये भगवान् महारुद्र हैं, यही दर्शन अर्जुन को उस समरभूमि में हुआ था। हेराक्लिटस का कहना है कि, युद्ध सब वस्तुओं का जनक है, युद्ध सबका राजा है। इस ग्रीक तत्त्ववेत्ता के अन्य सूत्र-वचनों के समान यह सूत्र-वचन भी एक बड़े गंभीर सत्य का सूचक है। जड़-प्राकृतिक या अन्य शक्तियों के संघर्ष के द्वारा ही इस जगत् की प्रत्येक वस्तु जनमती हुई प्रतीत होती है; शक्तियों, प्रवृत्तियों, सिद्धांतों और प्राणियों के परस्पर-संघर्ष ये यह जगत् आगे बढ़ता दीखता है, सदा नये पदार्थ उत्पन्न करते हुए और पुराने नष्ट करते हुए यह आगे बढ़ा चला जा रहा है- किधर जा रहा है, किसी को ठीक पता नहीं; कोई कहते हैं यह अपने संपूर्ण नाश की ओर जा रहा है; और कोई कहते हैं यह व्यर्थ के चक्कर काट रहा है और इन चक्करों का कोई अंत नहीं; आशावाद का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि ये चक्कर प्रगतिशील है और हर चक्कर के साथ जगत् अधिकाधिक उन्नति को प्राप्त होता है, रास्तें में वह चाहे जो कष्ट और गड़बड़ दीख पड़े, पर यह जगत् बराबर किसी दिव्य अभीष्ट-सिद्धि कि अधिकाधिक समीप जा रहा है। यह चाहे जैसा हो, पर इसमें संदेह नहीं कि यहाँ संहार के बिना कोई निर्माण-कार्य नहीं होता, अनेकविध वास्तव और संभावित बेसुरेपन को जीतकर परस्पर-विरोधी शक्तियों का संतुलन किये बिना कोई सामंजस्य नहीं होता; इतान ही नहीं, बल्कि जब तक हम निरन्तर हम अपने आपको ही न खाते रहें और दूसरों के जीवन को न निगलते रहें तब तक इस जीवन का निरवच्छिन्न अस्तित्व भी नहीं रहता। हमारा शारिरीक जीवन भी ऐसा ही है जिसमें हमें बराबर मरना और मरकर जीना पड़ता है, हमारा अपना शरीर भी फौजों से घिरे हुए एक नगर जैसा है, आक्रमणकारी फौजें इस पर आक्रमण करती और संरक्षणकारी इसका संरक्षण करती हैं और इन फौजों का काम एक-दूसरे को खा जाना है और यह तो हमारे सारे जीवन का केवल एक नमूना ही है। सृष्टि के आरंभ से ही मानो यह आदेश चला आया है कि, “तू तब तक विजयी नहीं हो सकता जब तक अपने साथियों से और अपनी परिस्थिति से युद्ध न करेगा; बिना युद्ध किये, बिना संघर्ष किये और बिना दूसरों के अपने अंदर हजम किये तू जी भी नहीं सकता। इस जगत् का जो पहला नियम मैंने बनाया वह संहार के द्वारा ही सर्जन और संरक्षण का नियम है।“ प्राचीन शास्त्रकारों ने जगत् का सूक्ष्म निरीक्षण कर जो कुछ देखा उसके फलस्वरूप उन्होंने इस आरंभिक विचार को स्वीकार किया। अति प्राचीन उपनिषदों ने इस बात को बहुत ही स्पष्ट रूप से देखा और इसका बड़े साफ और जोरदार शब्दों में वर्णन किया। ये उपनिषदें सत्य के संबंध में किसी चिकनी-चुपड़ी बात को या किसी आशावादी मतमतांतर को सुनना भी नहीं पसंद करतीं।


उपनिषदों ने कहा, भूख जो मृत्यु है, वही इस जगत् का स्रष्टा स्वामी है, और प्राणमय जीवन को इन्होंने अन्न कहा है, इनका कहना है कि हम इसे अन्न के लिये इसलिये कहते हैं कि यह स्वयं खाया जाता है और साथ ही प्राणियों को निगल जाता है। भक्षण भक्षण कर भक्ष्य होता है, यही इस जड़ प्रकृति जगत् का मूल सूत्र है, और डारविन-मतवादियों ने इसी बात का फिर से आविष्कार किया जब उन्होंने कहा कि जीवन-संग्राम विकसनशील सृष्टि का विधान है। आधुनिक सायंस ने उन्हीं सत्यों को केवल नवीन शब्दों में ढालकर प्रकट किया है जो उपनिषदों के वर्णित रूपकों में या हिराक्लिटस के वचनों में बहुत अधिक जोरदार, व्यापक और ठीक-ठीक अर्थ देने वाले सूत्रों के रूप में बहुत पहले ही कहे जा चुके थे। नीत्शे का आग्रह पूर्वक कहना है कि युद्ध जीवन का एक पहलू है और आर्दश मनुष्य वही है जो योद्धा है।


आरंभ में वह ऊंट-प्रकृति वाला हो सकता है और उसके बाद शिशु-प्रकृति वाला बन सकता है, पर यदि पूर्णत्व प्राप्त करना है, तो मध्य में सिंह प्रकृति वाला मनुष्य होना पड़ेगा। नीत्शे ने अपने इन मतों से लोकाचार और व्यवहार के लिये जो सिद्धांत निकाले उनसे हमारा मतभेद चाहे जितना क्यों न हो, पर उसके लोकनिंदित मतों में कोई ऐसा तथ्य भी है जो अस्वीकार नहीं किया जा सकता, बल्कि उससे एक ऐसे सत्य का स्मरण होता है जिसे हम लोग सामान्यतः अपनी दृष्टि की ओर देखना पसंद करते हैं। यह अच्छा है कि हम लोगों को उस सत्य की याद दिलायी जाय; क्योंकि एक तो, प्रत्येक बलवान् आत्मा पर इसको देख लेने का बड़ा बलपूर्वक परिणाम होता है; खूब मीठी-मीठी दार्शनिक, धार्मिक या नैतिक भावुकताओं के कारण हम पर जो सुस्ती छा जाती है उससे हम बच जाते हैं; इस प्रकार की भावुकता का परिणाम होता है कि लोग प्रकृति को प्रेम, सौन्दर्य और कल्याण-स्वरूप देखना पसंद करते हैं और उसके कराल-काल रूप से भागते है; ईश्वर को शिव रूप से तो पूजते हैं, पर उसके रुद्र रूप की पूजा करने से इंकार करते हैं; दूसरे यह कि जीवन कैसा है उसको वैसा ही देखने की सच्चाई और साहस यदि हम में न हो तो इसमें जो विविध द्वंद्व और परस्प-विरोध हैं।


उनका समाधान करने वाला कोई अमोघ उपाय हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकता। पहले हमें यह देखना होगा कि यह जीवन क्या है और जगत क्‍या है; तब इस बात को ढूंढ़ने चलना अधिक अच्‍छा होगा कि इस जीवन और जगत् को, जैसे ये होने चाहिये उस रूप में रूपांतरित करने का ठीक रास्ता कौन-सा है। यदि संसार के इस अप्रिय लगने वाले पहलू में कोई ऐसा रहस्य हो जो इसके अंतिम सामंजस्य को ले आने वाला हो, तो इसकी उपेक्षा या अवहेलना करने से हम उस रहस्य को नहीं पा सकेंगे और इस प्रश्न को हल करने के हमारे सारे प्रयास, प्रश्न के वास्तविक तत्त्वों की मनमानी उपेक्षा करने के दोष के कारण, विफल हो जायेंगे।


इसके विपरीत, यदि वह ऐसा शत्रु हो जिसे मारना, कुचल डालना, जड़ से उखाढ़ फेंकना या नष्ट करना जरूरी हो तो जीवन पर उसका जो प्रभाव या दख़ल है उसे एक मामूली-सी बात समझने अथवा इस बात को देखने से इंकार करने से कि प्रभावकारी भूतकाल में तथा जीवन के यथार्थतः कार्यकारी सिद्धांतों में इसकी जड़ें कितनी मजबूती के साथ जमीं हुई हैं, हमें कुछ भी लाभ नहीं है। युद्ध और संहार का विश्वव्यापी सिद्धांत हमारे इस ऐहिक जीवन के निरे स्थूल पहलू से ही नहीं, बल्कि हमारे मानसिक और नैतिक जीवन से भी संबंध रखता है। यह तो स्वतः सिद्ध है कि मनुष्य का जो वास्तविक जीवन है, चाहे वह बौद्धिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या नैतिक, उसमें बिना संघर्ष के-अर्थात् जो कुछ है और जो कुछ होना चाहता है इन दोनों के बीच तथा इन दोनों के पीछे के तत्त्वों में जब तक परस्पर-युद्ध न हो तब तक- हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। जब तक मनुष्य और संसार वर्तमान अवस्था में हैं, कम-से-कम तब तक के लिये तो आगे बढ़ना, उन्नत होना और पूर्णावस्था को प्राप्त करना और साथ ही हमारे सामने जिस अहिंसा के सिद्धांत को मनुष्य का उच्चतम और सर्वोत्तम धर्म कहकर उपस्थित किया जाता है, उसका यथार्थतः और संपूर्णतः पालन करना असंभव है।


केवल आत्मबल का प्रयोग करेंगे, युद्ध करके या भौतिक बल प्रयोग से अपनी रक्षा का उपाय करके हम किसी का नाश नहीं करेंगें? अच्छी बात है, और जब तक आत्म बल अमोघ न उठे तब तक मनुष्यों और राष्ट्रों में जो असुरी बल है वह चाहें हमें रौंदता रहे, हमारे टुकड़े-टुकड़े करता रहे, हमें जबह करता रहे, हमें जलाता रहे, भ्रष्ट करता रहे, जैसा करते हुए आज हम उसे देख रहे हैं, तब तो वह इस काम को और भी मौज से और बिना किसी बाधा-विघ्न के करेगा। और, आपने अपने अप्रतीकार के द्वारा उतनी ही जानें गवाईं होतीं जितनी की दूसरे हिंसा का सहारा लेकर गंवाते; फिर भी आपने एक ऐसा आदर्श तो रखा है जो कभी अच्छी दशा भी ला सकता है या कम-से-कम जिसे अच्छी लानी चाहिये। परंतु आत्म बल भी, जब वह अमोघ हो उठता है तब, नाश करता है। जिन्होंने आंखे खोलकर आत्मबल का प्रयोग किया है वही जानते हैं कि यह तलवार और तोप-बंदूक से कितना अधिक भयंकर और नाशकारी होता है। और, जो अपनी दृष्टि को किसी विशिष्ट कर्म और उसके सद्यः फल तक ही सीमित नहीं रखते वे ही यह भी देख सकते हैं कि आत्म बल के प्रयोग के बाद उसके परिणाम कितने प्रचंड होते हैं, उनसे कितना नाश होता है और जो जीवन उस विनष्ट क्षेत्र पर आश्रित रहता था या पलता था उसकी भी कितनी बरबादी होती है।


बुराई अकेले नहीं मरती, उसके साथ वे सब चीजें भी विनाश को प्राप्त होती हैं जो उससे पलती हैं; चाहे हम हिंसा के सनसनीदार कर्म की पीड़ा से बच जायें, पर इससे नाश का परिणाम कुछ कम नहीं होता। फिर, जब-जब हम आत्मबल का प्रयोग करते हैं तब-तब हम अपने शत्रु के विरुद्ध एक ऐसी प्रचंड कर्मशक्ति खड़ी कर देते हैं, जिसके बाद की क्रिया को अपने बस में रखना हमारे सामर्थ्‍य के बाहर होता है। विश्वामित्र के क्षात्र बल के मुकाबले वसिष्ठ आत्मबल का प्रयोग करते हैं और परिणाम यह होता है कि हूण, शक और पल्लव सेनाएं आक्रामक पर घबराकर टूट पड़ती हैं। आक्रमण और हिंसा की अवस्था में आध्यात्मिक पुरुष का शांत और निष्क्रिय रहना संसार की प्रचंड शक्तियों को बदला लेने के लिये जगा देता है। जो अशुभ और दुष्टता के प्रतिनिधि हैं उन्हें यदि रौंदने और कुचलने के लिये छोड़ दिया जाये तो वे अपने ऊपर इतनी बड़ी तबाही बुला लेंगे जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अतः उन्हें रोकना और इसके लिये बल प्रयोग करना भी दया का काम होगा। हमारे अपने हाथ पाक और साफ रहें, हमारी आत्मा में कोई दाग न लगे, इतने-से ही संसार से संघर्ष और विनाश का विधान मिट नहीं जाता; इसकी जो जड़ है उसे पहले मानव जाति में से उखड़ जाना चाहिये।


केवल हाथ-पर-हाथ धर के बैठे रहने से या जड़तावश बुराई प्रतीकार करने की अनिच्छा या अक्षमता से यह विधान नष्ट नहीं होगा; वास्तव में संघर्ष करने की राजसिक वृत्ति से उतनी हानि नहीं होती जितनी जड़ता और तमस् से होती है, क्योंकि राजसिक संघर्ष जितना नाश करता है उससे अधिक सर्जन करता है। इसलिये वैयक्तिक कर्म की मीमांसा का जहाँ तक संबंध है, व्‍यक्ति संघर्ष एवं संग्राम से तथा उसके फलस्वरूप होने वाले नाश से स्थूल और भौतिक रूप में बचने के लिये अपने नैतिक भाव की सहायता तो कर सकता है, पर इससे प्राणियों का संहारक ज्यों-का-त्यों बना रहता है। बाकी लिये मानव इतिहास साक्षी है कि संहार-तत्त्व जगत् में निर्मम प्राण शक्ति के साथ लगातार अस्तित्व रखता आया है। यह हमारे लिये स्वाभाविक ही है कि हम इसकी उग्रता को ढांकने और दूसरे पहलुओं पर जोर देने का प्रयास करते हैं। युद्ध और विनाश ही सब कुछ नहीं है, विच्छेद और परस्पर-संघर्ष की संहारक शक्ति की तरह परस्पर-संघ और साहाय्य ही संरक्षक शक्ति भी है। प्रेम की शक्ति अपनी धाक जमाने वाली अहंकारभरी शक्ति से कम नहीं है। दूसरों के लिये अपनी बलि चढ़ाने के आवेग की तरह अपने लिये दूसरों की बलि चढ़ाने का आवेग भी होता है। यदि हम यह देखें कि इन्होंने किस तरह काम किया है तो इनके विरोधी तत्त्वों की ताकत पर मुलम्मा चढ़ाने या उनकी उपेक्षा करने के लिये ही नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ रक्षण और आक्रमण के लिये भी हुआ है। इस जीवन संग्राम में जो कोई हमारे ऊपर आक्रमण करता या हमारा प्रतिरोध करता है उसके विरुद्ध अपने-आपको बलवान् बनाने में भी इसका उपयोग हुआ है।


संघशक्ति स्वयं युद्ध की, अहंकार की, एक प्राणी के द्वारा दूसरे पर स्वत्व स्थापित करने वाली वृत्ति की दासी रही है। स्वयं प्रेम सदा मृत्यु की शक्ति रहा है। विशेषतः शुभ के प्रेम को और भगवान् के प्रेम को मानव-अहंकार ने जिस रूप में गले लगाया उसके कारण बहुत-सी लड़ाई-भिड़ाई, मार-काट और तबाही हुई है। आत्म बलिदान बहुत बड़ी और उदात्त चीज है, पर बड़े-से-बड़े आत्म बलिदान का यही अर्थ होता है कि हम मृत्यु के द्वारा जीवन के सिद्धांत को ही सकारते हैं और इस भेंट को हम अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये उस शक्ति की वेदी पर चढ़ाते हैं जो बलि चाहती है। चिडि़या अपने बच्चों की रक्षा के लिये घातक पशु का सामना करती है, देशभक्त अपने देश की स्वतंत्रता के लिये अपने शरीर की आहुति देता है, धर्मात्मा अपने को धर्म पर न्योछावर करता है और भावुक अपनी भावना पर, ये सब प्राणी-जीवन की नीची से लेकर ऊंची श्रेणियों तक में, आत्म-बलिदान के सर्वोत्कृष्ट दृष्टांत हैं, और यह स्पष्ट है कि ये किस बात के साक्षी हैं। लेकिन अगर हम आने वाले परिणामों को देखें तो सहज-आशावाद और भी कम संभव रह जाता है।


देशभक्त को देश की स्वाधीनता के लिये मरते हुए देखिये। और जब कर्म का अधिष्ठाता रक्त और कष्टों का मूल्य चुका दे तो उसके कुछ ही दशकों के बाद उस देश को देखिये। वह अपनी बारी में अत्याचारी, शोषक और उपनिवेशों और अधीन देशों का विजेता बन जाता है और आक्रामक रूप में जीने और सफल होने के लिये दूसरों को हड़पता है। ईसाई शहीद साम्राज्य-शक्ति के मुकाबले आत्मशक्ति को लगाकर हजारों की संख्या में मर मिटे, ताकि ईसा की जय हो, ईसाई-धर्म की धाक जमे। आत्मबल विजयी हुआ, ईसाई-धर्म की धाक जमी, पर ईसा की नहीं; विजयी धर्म लड़ाकू और हुकूमत करने वाला संप्रदाय बन गया, जिस मत और संप्रदाय को हटाकर इसने अपना प्रभुत्व जमाया था उससे भी अधिक यह आततायी और अत्याचारी बन बैठा।


धर्म भी आपस में लड़ने वाली शक्तियों में संगठित हो जाते हैं और संसार में रहने, बढ़ने और उस पर अपनी धाक जमाने के लिये परस्पर भीषण संग्राम करते हैं। इन सब बातों से यही प्रकट होता है कि इस जगत् के जीवन में कोई ऐसा तत्त्व है, कदाचित् वह आदितत्त्व ही हो, जिस पर विजय प्राप्त करने का ढंग हम नहीं जानते और इसका कारण या तो यह है कि वह जीता ही नहीं जा सकता अथवा यह कि हमने उसे ऐसी बलवान् और पक्षपातरहित दृष्टि से देखा ही नहीं कि शान्त-स्थिर और निष्पक्ष होकर उसे पहचान सकें और यह जान लें कि वह क्या चीज है। यदि वास्तविक समाधान पाना हमारा उद्देश्य है, वह समाधान चाहे जैसा भी क्यों न हो, तो हमें जीवन का पूरी तरह सामना करना होगा और जीवन का सामना करने का अर्थ है भगवान् का सामना करना क्योंकि दोनों को एक-दूसरे-से अलग नहीं किया जा सकता और जिसने जगत्-जीवन को बनाया है, और जो उसमें व्याप्त है उससे जगत् के विधानों की जिम्मेदारी को हटाया नहीं जा सकता।


इस संबंध में भी हम वास्विकता को मृदु, मधुर और भ्रामक रूप देकर दिखाना पसंद करते हैं। हम प्रेम और दया के ईश्वर को गढ़ लेते हैं जो हमारी धारणा के अनुसार शुभ, न्याय, सदगुण और सदाचार का देवता, न्यायकर्ता, सद्गुण और सदाचारी है, और बाकी जो कुछ है उसके संबंध में हम झट कह देते हैं कि वह ईश्वर नहीं है न ईश्वर का उससे कुछ वास्ता है, वह किसी शैतान की सृष्टि है जिसे किसी कारणवश ईश्वर ने उसकी दुष्ट इच्छा पूरी करने दी अथवा वह अंधकार के स्वामी अहिर्मन की सृष्टि है जो शिवस्वरूप अहुर्मज्द की मंगलमयी कृति को धूल में मिलाना चाहता है, अथवा यह स्वार्थी और पापी मनुष्य का ही काम है कि उसने इस ईश्वर की मूल निर्दोष सृष्टि को बिगाड़ डाला। मानों प्राणि जगत् में मृत्यु निगलने का विधान मनुष्य का बनाया हुआ हो और यहाँ जो भीषण प्रक्रिया कर रही है जिसके द्वारा प्रकृति सृष्टि करती है, मनुष्य की रची हुई हो। संसार में कुछ ही धर्म ऐसे हैं जिन्होंने भारत के आर्य-धर्म के समान निःसंकोच यह यह कहने का साहस दिया कि यह रहस्यमय विश्व-शक्ति एक ही भगवत्व है, एक ही त्रिमूर्ति है; यही धर्म यह कह सका है कि जो शक्ति इस जगत् कर्म में व्याप्त है वह केवल परोपकारी दुर्गा ही नहीं बल्कि रक्तरंजित संहार-नृत्य करने वाली, करालवदना काली भी है और ’यह भी माता हैं; इन्हें भी परमेश्वरी जानो और सामर्थ्‍य हो तो इनका पूजन करो।’ यह बड़े मार्के की बात है कि जिस धर्म में ऐसी अचल सत्यनिष्ठा और प्रचंड साहस था वही ऐसी गंभीर और व्यापक आध्यात्मिकता का निर्माण कर सका, जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। क्योंकि सत्य ही वास्तविक आध्यात्मिकता का आधार है और साहस उसकी आत्मा। तस्यै सत्यमायतनम् । इन सब बातों का यह अभिप्राय नहीं कि संग्राम और विनाश ही जीवन का अथ और इति है या सामंजस्य संग्राम से बड़ी चीज नहीं है और प्रेम मृत्यु की अपेक्षा भगवान् का अधिक अभिव्यक्त रूप नहीं है, फूट स्थान एकत्व को, निगलने का स्थान प्रेम को, अहंभाव का स्थान विश्व को, मृत्यु का स्थान अमर जीवन को नहीं देना चाहिये। भगवान् केवल संहार कर्ता नहीं बल्कि सब प्राणियों के सुहृद् हैं; केवल विश्व के त्रिवेद ही नहीं बल्कि परात्पर पुरुष है; करालवदना काली स्नेहमयी मंगलकारिणी माता भी हैं; कुरुक्षेत्र के स्वामी दिव्य सखा और सारथी हैं; सब प्राणियों के मनमोहन हैं, अवतार श्रीकृष्ण हैं। वे इस संग्राम, संघर्ष और विश्व श्रृंखला में से होकर हमें चाहें जहाँ ले जा रहे हों, इसमें संदेह नहीं कि वे हमें उन सब पहलुओं के परे ले जा रहे हैं जिन पर हम दृढ़ता के साथ आग्रह कर रहे थे। पर कहां, कैसे, किस प्रकार की तत्परता से, किन साधनों से- यह हमें ढूंढ़ने के लिये पहली आवश्यक बात यह है कि हम इस जगत् को जैसा यह है वैसा देखें, और उनकी क्रिया आरंभ में और अब जैसे-जैसे दिखायी देती जाये वैसे-वैसे उसको देखते जायें और उसका ठीक-ठीक मूल्य आंकते जायें, इसके बाद, उनका मार्ग और लक्ष्य स्वयं प्रत्यक्ष हो जायेंगे।


इस प्रकार, जब हम गीता की शिक्षा को उसके व्यापक, उदार रूप में समझते हैं तब हमें जगत् के व्यक्त रूप और कर्म के संबंध में बौद्धिक स्तर पर गीता के आधार बिंदु और साहस पूर्ण दृष्टि को स्वीकार करना होगा। कुरुक्षेत्र के सारथी भगवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरु हैं, दूसरी ओर संहारक काल हैं जो यहाँ इन सब लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं- लोकान् समाहर्त्‍तुमिह प्रवृत्तः। गीता ने उदार हिंदू धर्म के सार भाव का ही अनुसरण करके इस काल-रूप को भी भगवान् कहा हैं; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती। और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़ प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिका क्रिया मात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीड़ा मात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होने वाला केवल एक अभ्यास है या अलिप्त, अचर, अक्षर परब्रह्म के ऊपरी तल के चैतन्य में होने वाला मिथ्या दुःस्वप्न मात्र या स्वप्न का ही क्रम-विकास है और स्वयं परब्रह्म उससे विचलित नहीं होता।उसमें वस्तुतः उसका कोई हाथ ही है, अर्थात् इस बात को हम जरा भी मानते हैं, जैसा की गीता मानती है कि, भगवान् हैं और वे सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं और भी सबके परे रहने वाले परम पुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं।


जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत् परिकल्पना या योजना का बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते- यदि हम ऐसा मानते हैं- तब आरंभ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा। मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहाँ ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहाँ का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों को मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि, “तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा न छोड़ूँगा।“




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