भक्तों के प्रकारभेद

  


इस (तीसरे) अध्याय के पहले तीन श्लोक ही खास महत्त्व रखते हैं। यहाँ भक्तों के तीन दर्जे किए गए हैं। इस तरह से भक्तों के दर्जे और कहीं किए गए नहीं दीखते।

'

(3.1) सर्व-भूतेषु यः पश्येत् भगवद्भावमात्मनः।

भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः।।


पहला वर्ग है सर्वोत्तम भक्त का। भागवतोत्तमः का अर्थ है उत्तम भक्त। उत्तम भक्त कौन होगा? यः सर्वभूतेषु भगवद्भावम् आत्मनः पश्येत्- जो सब भूतों में भगवान को देखेगा और अपने को भी देखेगा। यहाँ दुगुना विचार कहा गया है 

सब भूतों में भगवान की भावना और अपनी भी भावना करना।


मित्र- मंडली में अपनी भावना करना सरल है, किंतु सब भूतों में अपने को देखना थोड़ा कठिन है। पर यहाँ कहा गया है कि सब भूतों में अपना ही दर्शन होना चाहिए। प्रथम अपना दर्शन और फिर भगवान का दर्शन।


सोचने की बात है कि सब भूतों में अपने को देखना सरल है या भगवान को देखना? भगवान को देखना सरल लगता है, लेकिन यदि किसी की भगवान पर श्रद्धा न हो तो उसके लिए सब भूतों में अपने को देखना ही एक तरीका होगा। वैसे तो यह बात कठिन अवश्य है। माँ अपने बच्चे में अपने को देखती है, लेकिन दूसरे के बच्चों के लिए उसकी वह भावना नहीं रहती। इसलिए भगवान की ज्योति सबमें है, यह मानना आसान लगता है। फिर भी उसके लिए ईश्वर पर श्रद्धा चाहिए। वैसी श्रद्धा न हो तो सबमें अपनी भावना करना अधिक सरल होगा। यह नास्तिकों के लिए सहूलियत है।


फिर दूसरी बात बतायी : भूतानि भगवति आत्मनि एषः पश्येत्- भक्त सब भूतों को भगवान में, अपने में भी देखता है। यानि सब ओतप्रोत है। मतलब यह कि भगवान में प्राणिमात्र हैं और प्राणिमात्र में भगवान है। हममें सब भूत हैं और सब भूतों में हम हैं- ये चार बातें समझा दीं।


वैसे देखा जाय तो दुनिया में अनेक भेद हैं, लेकिन जड़, चेतन और परमात्मा, ये प्रमुख भेद हैं। उनमें भी अवान्तर भेद हैं। जड़ यानि सारी अचेतन सृष्टि। सृष्टि में पत्थर, पानी, पेड़, पहाड़, ये सारे भेद पड़े हैं। घड़ी, कुर्सी, चश्मा, ये भेद भी हैं। एक का काम दूसरी वस्तु नहीं कर पाती। इसी तरह चेतन-चेतन में भी भेद हैं। मनुष्य अलग और गदहा अलग। यही क्यों, मनुष्य-मनुष्य में भी भेद हैं। जैसे परमेश्वर और जड़ में भेद होता है, वैसे ही परमेश्वर और चेतन में भी है। तो, कुल मिलाकर पाँच प्रकार के भेद हुए :


जड़-चेतन,  जड़-जड़,  चेतन-चेतन,  परमेश्वर-जड़ और  परमेश्वर-चेतन।

किंतु भागवत ये सारे भेद खतम करने की बात कह रही है। इन पाँचों भेदों में जो अभेद देखेगा, वही उत्तीर्ण होगा। वह ‘भागवतोत्तम:’ होगा यानि उत्तम भक्त होगा। प्रथम श्रेणी का, पहले दर्जे का भक्त होगा। इस तरह की आशा रखना तो ठीक ही है।


(3.2) ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।

प्रेम-मैत्री-कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यम:॥


यह है द्वितीय श्रेणी का- दूसरे दर्जे का भक्त!


ईश्वरे- ईश्वर में।

तदधीनेषु- ईश्वर के भक्तों में।

बालिशेषु- सामान्य मूढ़जनों में।

द्विषत्सु- हमसे द्वेष-दुश्मनी करने वालों में।

यः- जो।

प्रेम-मैत्री-कृपोपेक्षा- क्रमशः प्रेम, मैत्री, कृपा और उपेक्षा।

करोति- करता है।

स मध्यमः- वह मध्यम कोटि का यानि द्वितीय श्रेणी का भक्त कहा गया है।

इस तरह यहाँ 1. परमेश्वर, 2. परमेश्वर के भक्त, 3. मढजन और 4. दुश्मनी करने वाले- ऐसे चार वर्ग बताये। भक्त इन चारों के साथ चार प्रकार के व्यवहार करता है, यानि उसके व्यवहार में कुछ भेद है। उसके चित्त में परमेश्वर के लिए प्रेम होगा। सारा प्रेम उसने परमेश्वर के लिए ही इकट्ठा किया है। प्रेम का ईश्वर के लिए समर्पण ही उसका निर्णय है। फिर, ईश्वर के जो भक्त हैं, उनके साथ वह मैत्री करता है, यानि उनका ‘फ्रैंड यूनिट’ होता है। ‘मैत्री’ शब्द ईसाइयों में बहुत प्रचलित है। उनमें ‘मैत्री-संघ’, ‘मित्र संघ’ इस तरह के संघ हुआ करते हैं। फिर जो मूढ़जन हैं, उनके लिए उसके मन में कृपा यानि करुणा होती है और जो दुश्मनी करते हैं, उनके लिए उपेक्षा। कौन दुश्मन है, यह हम नहीं जानते। लेकिन यदि कोई दुश्मनी करता है, तो भक्त उसकी उपेक्षा करेगा। यानि उसकी ओर ध्यान नहीं देगा। इस प्रकार की भावना करने वाला नंबर दो का भक्त होगा।



भगवान बुद्ध ने भक्त की जो कल्पना की थी, वही यह है। किंतु उन्होंने सर्वोत्तम भक्त की यह कल्पना की, जबकि भागवत के अनुसार वह नम्बर दो में आता है। भगवान बुद्ध ने भी कहा था कि भक्त को चार प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। गौतम बुद्ध ने 40 दिन उपवास किये थे। ईसा और मूसा ने भी 40 उपवास किये। शायद यह प्रथा गौतम बुद्ध से ही आयी हो। मुझे वेद में भी इस अर्थ के कुछ वचन मिले हैं, जिनमें 40 उपवासों की बात कही गयी है। लेकिन वह मेरा ख़ास अर्थ है। गौतम बुद्ध ने 40 दिनों के उपवास के अंत में जब आँखें खोलीं तो उन्हें एक दिशा में मैत्री का दर्शन हुआ, दूसरी दिशा में करुणा का तीसरी में प्रेम का तो चौथी दिशा में उपेक्षा का दर्शन हुआ। तब से वे ये चार भावनाएँ समझाने लगे। पर भागवत कहती है कि जो ऐसी भावना करेगा, वह नम्बर दो का भक्त होगा; क्योंकि उसमें एक ईश्वर, एक भक्त, एक मूढ़ और एक दुश्मन, ऐसी पहचान है अर्थात भेदबुद्धि या विवेक है। पर नंबर एक के भक्त में यह पहचान भी नहीं होती।



पतंजलि ने ‘योगसूत्र’ में यह कहकर कि ‘चार प्रकार की भावना करोगे तो चित्त प्रसन्न रहेगा’- मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा- ये चार प्रकार बताये हैं। दुःखी जनों के लिए करुणा, सुखी जनों के साथ मैत्री, पुण्यवानों को देखकर आनंद या प्रेम और पापियों की उपेक्षा यानि दूसरों के पाप की तरफ ध्यान न देना। 


सुख, दुःख, पाप, पुण्य,- ये चार विषय बताकर उनके लिए चार प्रकार की भावनाएँ करने पर चित्त प्रसन्न होगा, यह पतंजलि का मत है। यही भाव उन्होंने निम्नलिखित रूप में सूत्रबद्ध किया है :


'मैत्री-करुणा-मुदितोपेक्षाणां सुख-दुःख-पुण्यापुण्य-

विषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।


ये चार ही बातें भागवत में कही गयी हैं, लेकिन उनमें थोड़ा फ़रक है। वहाँ ईश्वर के लिए प्रेम बताया गया है। पुण्यवान का अर्थ ईश्वर भी हो सकता है, लेकिन यहाँ वैसा नहीं है। भागवत के इस श्लोक में ईश्वर और उसके भक्त दोनों में भेद है, यह स्पष्ट कर दिया है।


(3.3) अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते।

न तद्भक्तेषु चान्येषु स: भक्तः प्राकृतः स्मृतः॥[1]


यह है तीसरे दर्जे का भक्त!


अर्चायाम्- मूर्ति में, चिह्न में या मंत्र में।

हरये पूजां यः श्रद्धयेहते- श्रद्धा रखकर भगवान की पूजा करना चाहता है।

तद्भक्तेषु चान्येषु च- भगवान के भक्तों और अन्य लोगों की वैसी श्रद्धा से पूजा करना नहीं चाहता।

स प्राकृतः भक्तः स्मृतः- वह प्राकृत, सर्वसाधारण, तीसरे दर्जे का भक्त कहा गया है।


सिख लोग ‘ग्रंथ’ (गुरुग्रंथ साहिब) पर श्रद्धा रखते और मानते हैं कि उसमें से प्रकाश मिलता है। कोई मंत्र पर श्रद्धा रखते हैं। किसी की ॐकार या स्वस्तिक के चिह्न पर श्रद्धा होती है। इस तरह अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार ये भक्ति करते हैं, लेकिन भगवान के भक्तों की पूजा नहीं करते। इसका मतलब यह नहीं कि उनके लिए आदर नहीं रखते। आदर रखते हैं, पर मानते हैं कि जो कुछ है, वह सब मूर्ति में ही है, बाकी सब शून्य है। क्योंकि भगवान के भक्त कैसे पहचाने जाएंगे? उनके मन में क्या-क्या है, यह कैसे पता चलेगा? इसलिए मूर्ति, चिह्न, मंत्र या ग्रंथ पर उनकी श्रद्धा होती है। इस प्रकार के भक्तों को ‘प्राकृत भक्त’ कहा गया है। यानि तीसरे दर्जे का भक्त! इसमें सब उत्तीर्ण हो सकते हैं। बात इतनी ही है कि श्रद्धा होनी चाहिए। 


इसके बाद भक्तों का चौथा दर्जा भगवान के पास नहीं है। इसीलिए भगवान ने यह आख़िरी दर्जा दिया और कहा है कि तुम मूर्ति की पूजा करो तो भी चल जाएगा। 


लेकिन तुकाराम महाराज ने उलटा ही कहा है :

'देव सारावे परते। संत पूजावे आरते।।


‘परते’ यानि उस पार, ‘आरते’ यानि इस पार। भगवान की मूर्ति को दूर करो और प्रथम संतों की पूजा करो। मतलब यह कि आपके घर में कोई संत आया और आप भगवान की मूर्ति की पूजा में लगे हों, तो उसे छोड़कर पहले संत की पूजा करें। मूर्ति-पूजा अलग रखकर संत की पूजा करने लगेंगे, तो जरा ऊपर उठेंगे- यह तुकाराम के इस वचन में खूबी है। वे कहते हैं कि जरा आधी डिग्री तो ऊपर उठो।


सवाल आता है कि संत कैसे पहचाना जाए? मूर्ति के बारे में तो यह सवाल पैदा ही नहीं होता। वहाँ चित्त डाँवाडोल नहीं होता, शत प्रतिशत श्रद्धा होती है। किंतु कोई संत आता है, तो तुरंत सवाल पैदा होता है कि वह संत है या नहीं? संतों की परीक्षा करें, तो आपको वह अधिकार नहीं। यानि बिना परीक्षा किए ही उनका आदर करना होगा। कहने का अर्थ इतना ही है कि लोग जिसे ‘सज्जन’ मानते हैं, उन्हें हम नम्रतापूर्वक सज्जन मानें। पत्थर की मूर्ति जैसी हो, वैसी स्वीकार करके श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं। इसी तरह हमें भी श्रद्धापूर्वक बिना परीक्षा किए संतों की पूजा करनी चाहिए। फिर इसके लिए मूर्ति की पूजा अलग रखनी पड़े, तो भी हर्ज नहीं। इससे भगवान नाराज नहीं होंगे।


भक्तों का इस तरह का वर्णन गीता में नहीं मिलता। सब भूतों में भगवान को देखो, यह बात गीता में है, लेकिन भक्तों के ये तीन दर्जे वहाँ नहीं मिलते।


भक्तों के ये जो दर्जे बताये हैं, उनका क्या अर्थ है? क्या उनमें मान-सम्मान की बात है? ऐसा नहीं। हमारे लिए सहूलियत मात्र कर दी गयी, इतनी ही बात है। एक के बाद एक सीढ़ी बतायी है, ताकि हम आगे बढ़ सकें। इससे चित्त एकाग्र करने में कठिनाई नहीं होगी। जिस पर श्रद्धा हो, उस पर चित्त एकाग्र होता है, इसलिए पहले यह बात बतायी। फिर चार प्रकार की भावनाएँ बतायीं। यह उससे आगे का क़दम हुआ। फिर उत्तम भक्त तक पहुँचने के लिए रास्ता बताया। मतलब यही कि यदि आप इस रास्ते से जाते हैं, तो अपने ध्येय तक पहुँच सकते हैं।


देखने में ऐसा लगता है कि भक्तों का दूसरा दर्जा कठिन नहीं है। किंतु वह भी सरल बात नहीं है। उसमें ईश्वर को प्रेम देने की बात कही है। इस पर सवाल आएगा कि हमारे जो निकट संबंधी हैं, उनके लिए प्रेम होना चाहिए या नहीं? सच पूछें तो हमारा प्रेम उन्हीं में बँटा हुआ है। किंतु वहाँ हमें आसक्ति है। तो, पहले वह आसक्ति हटानी पड़ेगी। मतलब यह कि जिस पर हमारा प्रेम है, उसे ईश्वर की भावना से देखा जाए।


इसके लिए क्या करना होगा? उस व्यक्ति की सेवा करनी होगी। सेवा लेनी नहीं होगी। सेवा लेते हैं, तो हम लोग भोग रहे हैं, ऐसा होगा। भोग भोगना प्रेम नहीं। दूसरी बात, संबंधियों, रिश्तेदारों पर हक़ माना जाता है। हक़ की यह भावना भी हटानी होगी। पति-पत्नी, पिता-पुत्र आदि रिश्तों में कामना का अंश होता है। इसलिए वह प्रेम भक्ति में मान्य नहीं। निष्काम प्रेम ही भक्ति को मान्य होता है। मित्र समानशील होते हैं, एक साथ खेलते हैं, उनमें मैत्री होती है, प्रेम बनता है। वैसा ही यहाँ कहा है कि भक्तों के साथ हमें मैत्री करनी चाहिए। मैत्री के लिए क्या करना होगा? आदर-सत्कार की बात अलग है और मैत्री ज़रा कठिन है। भक्तों के साथ मैत्री करनी है, तो हमें भी भक्त बनना पड़ेगा।


सामान्य मूढ़जनों के लिए चित्त में करुणा आनी चाहिए। उनके लिए तिरस्कार न हो। मन में दूरीभाव न होना, प्रतीकार न करना, कुछ टेढ़ी बात मालूम होती है। पर ईसा ने तो इससे भी टेढ़ी बात कही है। वह कहता है : लव दाय एनिमी- शत्रु पर प्यार करो। तुम उससे द्वेष करते हो, तो द्वेष से द्वेष बढ़ेगा, कम नहीं होगा। द्वेष के विरोध में तो प्रेम ही चाहिए। पूर्ण प्रेम करो। दुश्मनों पर भी प्रेम करो। ईसा ने यह एक विधायक (पॉजिटिव) बात कही, केवल निषेधक (निगेटिव) नहीं। जिसने आप पर अपकार किया है, मौक़ा देखकर उसका भला करो, तब उसका हृदय जीता जा सकेगा। किसी ने गलत काम किया हो, तो उसका प्रभाव अपने पर न होने दें, यह बात कुछ आसान है। लेकिन ईसा विधायक (पॉजिटिव) बात कहता है कि हम अपने ऊपर असर होने दें। ऐसा असर हो कि हम अधिक प्रेम करने लगें।


मुझे लगा कि यह बात ज़रा साफ होनी चाहिए, क्योंकि द्वितीय श्रेणी में सफ़र करनी है, तो उसके लिए कितना खर्चा पड़ेगा, यह भी तो देख लेना होगा। उतने पैसे हमारी जेब में हों, तभी द्वितीय श्रेणी में सफ़र कर सकेंगे, नहीं तो तृतीय श्रेणी है ही।


फिर तीसरे दर्जे की बात जो बतायी है कि मूर्ति, मंत्र, चिह्न, पुस्तक आदि के लिए विशेष भाव है, पर प्रत्यक्ष भक्त आ जाए तो उस पर कोई परिणाम नहीं होता, वह आरंभमात्र है। बच्चों को सिखाते समय चित्र दिखाते हैं, वैसा ही वह केवल आरंभ है। कुछ लोगों का सवाल है कि तीसरे वर्ग में जो कहा गया है, उसका स्थान मुहम्मद पैगम्बर ने नहीं माना। किंतु “मुसलमानों की ‘कुरान’ पर बहुत निष्ठा होती है।” यह उसी का एक प्रकार है। यह ठीक है कि इसका जितना स्थूलरूप अपने यहाँ है, उतना उनमें नहीं है, सूक्ष्म है। किंतु मूर्तिपूजा देहधारी के लिए टल नहीं सकती। उसके प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।


यह प्रकार आरंभ में होता है, इसलिए इसको नाम दिया है ‘प्राकृत’ यानि पामर। एक प्रकार से निषेध किया है और एक तरह से स्वीकृति भी दी है। यानि दोनों को इकट्ठा कर लिया है, वह भागवत की खूबी है। इससे भागवत यही कहना चाहती है कि जल्दी से जल्दी दूसरे दर्जे में आ जाएं, तो अच्छा।


उत्तम भक्त के लक्षण

तीन प्रकार के भक्तों का वर्णन हो गया। अब भगवान उनमें से उत्तम भक्त के विशेष लक्षण बता रहे हैः


'(3.4) गृहीत्वाऽपींद्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति

विष्णोर् मायां-इदं पश्यन् स वै भागवतोत्तम:॥ 


जो इंद्रियों से विषयों का ग्रहण करते हुए भी चित्त में हर्ष और द्वेष पैदा होने नहीं देता, उसे उत्तम भक्त मानना चाहिए। अनुकूल विषयों से प्रसन्नता और प्रतिकूल विषयों से खेद, यह वह नहीं जानता। वह समझता है कि अनुकूल प्रतिकूल सभी विषय विष्णु की माया है। एक कहेगा ‘तरकारी में नमक अधिक है’, तो दूसरा कहेगा ‘फीका है।’ यह सारा इंद्रियों की आदत पर निर्भर है। इसीलिए आश्रम में हम लोग तरकारी में नमक डालते ही नहीं थे। जिसे चाहिए, वह ऊपर से ले लेता था। आख़िर तय किया कि नमक की आवश्यकता ही नहीं और उसका उपयोग ही छोड़ दिया। बंदर तरकारी तोड़-तोड़कर खाते हैं, तो कहाँ नमक की राह देखते हैं? मतलब, यह सारा इंद्रियों की आदत पर निर्भर है। भगवान कहते हैं कि इसलिए हर्ष खेद से दूर रहो। हमें धीरे-धीरे उत्तम भक्त के दर्जे में ले जाने का भगवान का यह तरीका है।


'(3.5) देहेंद्रिय-प्राण-मनो-धियां यो जन्माप्यय-क्षुद्-भय-तर्ष-कृच्छैः।

संसारदर्मैर् अविमुह्यमानः स्मृत्या हरेर् भागवतप्रधानः।।


स्मृतया हरेः भागवतप्रधानः- भगवान के भक्त को हरि का स्मरण हमेशा रहता है।

इसलिए संसारधर्मेः अविमुह्यमानः- वह संसार- धर्मों से मोहित नहीं होता। यानि संसार धर्मों का उस पर असर नहीं पड़ता। उसने एक बख़्तर पहन लिया है। कौन सा?

‘स्मृत्या हरेः’- हरि का स्मरण।

जन्म और अप्ययन यानि मरण संसार धर्म है। कुछ लोग बाबा को सालों तक पत्र नहीं लिखते। लेकिन तीन प्रसंगों पर उनके पत्र अवश्य आते हैं- किसी की मृत्यु पर, जन्म पर और शादी पर। जन्म हुआ तो सब प्रसन्न होते हैं, मृत्यु पर रोने लगते हैं। ज्ञानदेव महाराज ने वर्णन किया है कि लड़का पैदा होता है, तो वह बेचारा रोता है, लेकिन बाकी सारे खुशी मनाते हैं।


यह निश्चित है कि जन्म-मृत्यु होना ही है, और वह होता है, तो उस समय रोना ही है। पर कहीं तो मैंने देखा कि मृत्यु पर किराये से रोनेवाले बुलाते हैं। यानि वह एक विधि ही मानी गयी। शास्त्रकार तो कहता है कि ‘कोई मर जाय और आप रोते हैं तो मरने वाले की गति में बाधा आती है।’ लेकिन कोई इसका ख्याल नहीं करता। आत्मा की अमरता के विषय में हिंदुस्तान में जितना प्रचार हुआ है, उतना कहीं नहीं, और मरने पर रोना-धोना भी यहीं सबसे अधिक चलता है किंतु जिसने हरि-स्मरण रूपी बख़्तर पहन लिया है, उसे दुःख होता ही नहीं।

क्षुधा और तृषा भी संसार धर्म बताए गये हैं। सामान्य मनुष्य क्षुधा-तृषा से पीड़ित होता है, पर उत्तम भक्त नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि उसे भूख ही नहीं लगती। उत्तम भक्त को भूख लगती है, प्यास भी लगती है, लेकिन क्षुधा-तृषा की भावना से वह अभिभूत नहीं होता। उसे भय भी नहीं रहता। भय की भावना सर्वत्र फैली हुई है। इसलिए भय को भगवान ने संसार धर्म बताया है। इन संसार धर्मों का प्रभाव उत्तम भक्त पर नहीं होता, क्योंकि उसने हरि-स्मरण का बख़्तर पहन लिया है।


ये धर्म किसके हैं? देह के और इंद्रियों के भी। आत्मा के साथ उनका कोई संबंध नहीं। फिर सवाल आयेगा कि ऐसा है, तो फिर दुःख क्यों करते हो? भय क्यों करते हो? भय है तो देह के साथ है, दुःख है तो मन के साथ, इंद्रियों के साथ है। फिर तुम रोते क्यों हो? मतलब यह कि इन भावनाओं का प्रभाव नहीं होने देना चाहिए।


आज दुनिया में डर के कारण जुल्मी लोग अपना काम करवा लेते हैं। ‘गीता-प्रवचन’ में एक राक्षस की कहानी है। एक राक्षस ने एक मनुष्य को पकड़ लिया और उससे अखंड काम लेता रहा। मनुष्य जरा रुक जाता तो राक्षस कहता : ‘काम कर, नहीं तो तुझे खा डालूँगा। मनुष्य डर-डरकर काम करता रहा। आख़िर एक दिन जब राक्षस ने ‘खा डालूँगा’ कहा, तो मनुष्य ने भी कहा : ‘खा लो’। तब राक्षस चुप हो गया। उसके ध्यान में आ गया कि इसे खा लूँगा, तो काम करने वाला कोई नहीं रहेगा।

मनुष्य जब तक डरता रहा, तभी तक उसे राक्षस के जुल्म के नीचे दबना पड़ा। इसलिए ध्यान में रखना चाहिए कि डर से हम कोई गलत काम न करें। इतने गंभीर दर्शन की पहचान न होगी, तो मानवता नीचे गिरेगी। आज पेट के लिए मनुष्य चाहे जो काम करने के लिए तैयार होता है। इससे मानवता नीचे गिरती है। लेकिन उत्तम भक्त ऐसा कभी नहीं करेगा।


(3.6) न-काम-कर्म-बीजनां यस्य चेतसि संभवः।

वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः॥


जिसने भगवान को ही अपना घर बना लिया है, वह उत्तम भक्त है।


वासुदेवैकनिलयः- एकमात्र वासुदेव ही जिसका घर है।

यस्य चेतसि- जिसके चित्त में।

काम-कर्म-बीजानाम्- काम-वासना, कर्म का अहंकार और कामना के बीज।

न संभवः- हैं ही नहीं।

स वै भागवतोत्तमः- निश्चय ही वह उत्तम भक्त है। वासुदेव ही हमारे लिए एकमात्र आश्रय है, ऐसा जो सोचता है, वह उत्तम भक्त है।

जब तक मनुष्य अपने घर में रहता है, तब तक उसे विश्वास नहीं होता कि बाहर निकलने पर खाना मिल सकता है। लेकिन बाबा का अनुभव है कि एक बार बाहर निकल पड़ेगे तो खाना तो मिलता ही है, दूसरी भी सारी व्यवस्थाएँ हो जाती है। यह बात किसी के ध्यान में नहीं आती। एक भाई बहुत सारे प्रदेश घूम आए। उन्हें लोगों ने पूछा कि ‘सबसे कठिन घाटी कौन सी है?’ तो बोले : ‘सबसे कठिन घाटी देहली-घाटी है। एक बार घर की देहली को लाँघ लिया, तो फिर सब आसान है। उससे ऊँची कोई घाटी है ही नहीं।’


बात यह है कि हम दूसरों पर प्रेम करेंगे, तो दूसरे भी हम पर प्रेम करेंगे। उत्तम भक्त के लिए वासुदेव ही वसति-स्थान है और उसके चित्त में काम-कर्म के बीज नहीं है, जिसके कारण मनुष्य घर से चिपका रहता है। ज्ञानदेव महाराज ने लिखा है : हे विश्वचि माझें घर- भक्त मानता है कि यह विश्व ही मेरा घर है।

(3.7) न यस्य जन्म-कर्मम्या न वर्णाश्रम जातिभिः।

सज्जतेऽस्मिन् अहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥[2]


आज हिंदुस्तान में वर्णाश्रम क़रीब-क़रीब समाप्त ही है। लेकिन- भागवत-काल में यहाँ वर्णाश्रम पद्धति अच्छी तरह चल रही थी। लोग अपने-अपने कर्तव्य करते थे। स्वे-स्वेऽधिकारे या निष्ठा- अपने-अपने अधिकार में निष्ठा रखते हुए लोग काम करते थे। व्यापारी ठीक व्यापार करता था। ग्राहकों को ठगता नहीं था। इसलिए व्यापारी भी परमेश्वर के पास पहुँच सकता है, यह मान्यता थी। यह उस रचना को विशेषता थी। आज वह नहीं रही। उसमें ऊँच-नीच भाव आ गया और उसके गुण नहीं रहे।


इस श्लोक में कहा है कि अपने जन्म के कारण, कर्म के कारण या वर्ण जाति के कारण भक्त के मन में अहंभाव पैदा नहीं होता। जब वर्णाश्रम अच्छी तरह चल रहा था, उस समय भी भगवान ने इस तरह चेतावनी दी। भिन्न-भिन्न काम करते हैं, कर्म का विभाजन होता है, यह बुरा नहीं। लेकिन उसका अभिमान नहीं होना चाहिए। उसके कारण ऊँच-नीच भाव नहीं आना चाहिए। अच्छे काम का लोग गौरव करें तो उससे ऐसा भास न हो कि हमने कुछ किया। उस गौरव का चित्त पर असर न होने देना चाहिए।


अहंकार मुक्ति के लिए दो तीन ढंग से सोचा जा सकता है। एक है बचपन से आज तक माता-पिता और समाज का हम पर कितना उपकार हुआ और आज हम क्या कर रहे हैं, इसका विचार। इसका लेखा-जोखा लेने पर ध्यान में आएगा कि हम पर दूसरों का जितना उपकार हुआ है, उस हिसाब से हम कुछ भी अदा नहीं कर सके हैं। अहंकार मुक्ति का यह बिलकुल सीधा-सादा उपाय है। लेकिन भगवान ने दूसरा भी उपाय बताया है। उसमें ‘देहे’ ऐसा लिखा है। कहना यह चाहते हैं कि गुण-दोष जो हैं, वे देह के हैं। अपने को देह से अलग मान लें, निरहंकार बनें तो काम आसान हो जाता है। हम देह को अलग मानेंगे, तो अच्छे-बुरे कर्मों का हम पर भार नहीं होगा। भक्त ऐसा भार कभी नहीं उठाता।


देहे वै स हरेः प्रियः के दो अर्थ हैं : एक, देह में इन चीजों का भार नहीं उठाता, उससे अलिप्त रहता है। दूसरा, वह मनुष्य देह में रहकर ही भगवान को प्यारा है। हरि का आशीर्वाद जीते जी प्राप्त होना चाहिए। मरने के बाद वह भगवान का प्रिय बनेगा, ऐसा नहीं। उसे इसी जीवन में हरि-स्पर्श का साक्षात अनुभव आये। समाज में जो विषमताएँ पड़ी हैं, उन्हें वह माने ही नहीं।


(3.8) न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।

सर्वभूतसमः शांतः स वै भागवतोत्तम:॥[1]


जिसके मन में भिदा यानि भेद नहीं, वह उत्तम भक्त है। कौन सा भेद? 'यह मेरा, यह दूसरे का' इस तरह का भेद और ‘यह मेरा धन, वह दूसरे का धन’ यह भेद। इस तरह का भेद भक्त के मन में नहीं रहता। यहाँ भी यही सुझाया है कि आर्थिक विषमता और सामाजिक विषमता मिटनी चाहिए। आर्थिक और सामाजिक आज़ादी की बात भूदान-ग्रामदान में चलती है। मान लीजिए, आपके पास धन है। दूसरा व्यक्ति उसे चाहता है। वह यदि यह सिद्ध कर दे कि उस धन का आपकी अपेक्षा उसे अधिक उपयोग है, तो उसे तत्काल दे देना चाहिए। धनवान को समझना चाहिए कि ‘मैं अपनी संपत्ति का मालिक नहीं, ‘ट्रस्टी’ (थातीदार) हूँ।’


मैं आश्रम में था। मेरे पास एक बार एक भाई आए। कहने लगे कि ‘आश्रम में तो समय-समय पर घंटियाँ बजती हैं, आपको घड़ी की उतनी आवश्यकता नहीं, मैं घूमता रहता हूँ, मुझे उसकी आवश्यकता है, इसलिए घड़ी मुझे दीजिए।’ मैंने अपनी घड़ी तुरंत उनको दे दी। कुछ दिनों बाद दूसरे एक भाई ने मेरे पास घड़ी नहीं है, यह देख अपनी कलाई की घड़ी मुझे दे दी। दो-तीन दिनों बाद पहले भाई मुझसे मिलने के लिए आए। उन्होंने मेरे पास नयी घड़ी देखी तो बोलेः ‘आपको इस रिस्ट वॉच की क्या आवश्यकता? आप अपनी पुरानी घड़ी रख लीजिए और यह मुझे दे दीजिए। मुसाफिरों में रिस्ट वॉच सुविधाजनक रहेगी।’ मैंने रिस्ट वॉच उनको दे दी और पुरानी घड़ी रख ली।


यह मिसाल मैंने इसलिए दी कि भागवत में जो बातें बतायी हैं, वे अव्यावहारिक नहीं है। भगवान कह रहे हैं कि जिसके मन में मिल्कियत की भावना नहीं रहेगी, जो कुछ है वह सबका है, यह भावना रहेगी, जो सब भूतों के विषय में समान व्यवहार करेगा और शांत होगा, वह उत्तम भक्त होगा।

(3.9) त्रिभुवन – विभव – हेतवे – ऽप्यकुंठ-

स्मृतिरजितात्म-सुरादिभिर् विमृग्यात्।

न चलति भगवत्पदारविंदात्

लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्य॥


ये सारे लक्षण हैं भगवान के श्रेष्ठ भक्त के, भगवद-भक्तश्रेष्ठ के, भक्तोत्त्म, भागवतोत्तम या वैष्णव-शिरोमणि के।


त्रिभुवनविभवहेतवे अपि'- त्रिभुवन का वैभव प्राप्त होने पर भी।

अकुंठस्मृतिः- जिसकी स्मृति कायम है। प्रायः वैभव में मनुष्य भगवान का स्मरण भूल जाता है। किंतु श्रेष्ठ भक्त तो जनक महाराज के समान होता है। महान साम्राज्य प्राप्त होने पर भी उसको भगवत स्मृति बनी ही रहती है।

ऐसा भक्त लवनिमिषार्धमपि- आधा निमिष भी।

न चलति भगवत्- पदारविदात्- भगवान के चरणों से अलग नहीं होता। निमेष और उन्मेष, ये दो शब्द हैं। निमेष का अर्थ है- आँखें बंद करना और उन्मेष है- आँखें खोलना। ऐसे भक्त को आधा निमेष भी भगवत स्मरण से अलगाव नहीं होता। वह ‘वैष्णवाग्र्यः’ यानि वैष्णव-शिरोमणि होता है।

तीनों लोकों का आधिपत्य प्राप्त हो जाने पर भी इस वैष्णव-शिरोमणि की भगवत स्मृति कायम ही रहती है। प्रायः ऐसे समय स्मृति कायम नहीं रह पाती। इसीलिए कुंती ने वर मांगा था :


 'विपदः संतु नः शश्वत् तत्र तत्र जगद्गुरो। भवतो दर्शनं यत् स्याद् अपुनर्भवदर्शनम्॥ हे जगदगुरो! मुझे बार-बार विपत्ति दीजिए, जिससे आपका स्मरण, आपका दर्शन होता रहे। यही हिंदुस्तान की संपत्ति है। हमें क्या प्राप्त करना है? भगवद-दर्शन, भगवत-स्मरण। इसलिए ऐसी चीज मांग ली, जिससे सतत भगवत स्मरण बना रहे। तुलसी-रामायण में एक प्रसंग है। राम ने बाली को बाण मारा। बाली देह छोड़ने की तैयारी में है। वह प्रभु से पूछता है कि ‘मैंने आपका कौन सा अपराध किया, जो आपने मुझे इस तरह मारा?’ भगवान जवाब देते हैं : ‘मैं तो तुम पर बड़ा प्रसन्न हूँ। मात्र तुमने एक गलत काम किया था, इसलिए मुझे यह करना पड़ा। लेकिन अब भी चाहो, तो तुम्हें जीवन दे सकता हूँ।’ तब बाली कहता है : ‘मैं बेवकूफ नहीं, जो मरते समय आपके प्रत्यक्ष दर्शन के बिना मर जाऊँ। मेरा बड़ा भाग्य है कि मरते समय आपका दर्शन हो रहा है।’ फिर भगवान ने बाली को अपने धाम वैकुण्ठधाम में गति दी। यही भारत की शक्ति है। चीनी लेखक लिन यु टाँग ने लिखा है : इंडिया इज़ ए गॉड इंटाक्सिकेटेड लैंड- भारत को भगवान का नशा है। ऐसा भक्त भगवत चरण से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होता। भगवान का चरण कौन सा है? मूर्ति का चरण तो दीखेगा, पर भगवान का चरण कैसे दीखेगा? वेदों में भगवत चरण का वर्णन आया है : पादोऽस्य विश्वा भूतानि- यह सारी सृष्टि, जो सामने दीख रही है, भगवान का चरण है इसलिए भगवद्भक्त भगवान के चरणों की सेवा में लगे रहते हैं, जनता की सेवा करते हैं। जन-सेवा को भगवत-चरण-सेवा मानते हैं। यह दृष्टि आ जाए, तो एक क्षण भी विस्मृति न होगी। अकुंठस्मृतिः- शब्द बड़ा सुंदर है। कितना भी बड़ा आघात आ जाए, स्मरण कुंठित नहीं होता, टूटता नहीं- इसमें उतना आश्चर्य नहीं, जितना आश्चर्य इसमें है कि सुखों का आघात होने पर भी वह नहीं टूटता। प्रायः लोग सोचते हैं कि मनुष्य दुःखी है तो उसे उसमें से छुड़ाया जाय। किंतु उन्हें इसका ख़्याल नहीं कि दुःख की तरह सुख से भी मनुष्य को छुड़ाना चाहिए। जितना खतरा दुःख में है, सुख में उससे बहुत अधिक खतरा है। इसलिए सुखी मनुष्य को भी जागृत करना चाहिए कि ‘भाई, भगवत-स्मरण से अलग हो रहे हो, खतरा है। सावधान!’ ध्यान रखें कि सुख और दुःख दोनों में खतरा है। मान लीजिए, हम बैलगाड़ी में बैठकर जा रहे हैं। यदि बैलगाड़ी समतल रास्ते पर चल रही है तो गाड़ीवाला सो जाए, तो भी गाड़ी धीरे-धीरे चलती रहेगी। किंतु चढ़ाव आने पर मुश्किल हो जाएगा, बैल आगे नहीं बढ़ेंगे और जोर लगाकर गाड़ी को ढकेलना होगा। उसमें खतरा है। उतार आएगा तो उसमें भी खतरा है। बैल जोरों से दौड़ने लगेंगे, काबू में नहीं रहेंगे और गाड़ी गड्ढे में जा गिरेगी। दूसरे शब्दों में सुख है उतार, तो दुःख है चढ़ाव। सुख में सारी इंद्रियाँ लालायित रहती हैं और गिर जाती हैं। दुःख में मनुष्य आगे नहीं बढ़ता, उसकी हिम्मत पस्त हो जाती है। इसलिए चढ़ाव और उतार दोनों में खतरा है। समतल रास्ता ही सुरक्षित होता है। किंतु जो वैष्णव-शिरोमणि है, उनका चित भगवत-स्मरण से एक क्षण भी दूर नहीं होता। जहाँ चित्त में भगवत-स्मरण है, चित्त एकाग्र है, वहाँ काम, क्रोध, मत्सर, अहंकारादि टिक नहीं पाते। हमें बचपन में कहा गया गया था कि राम-नाम के सामने भूत टिक नहीं सकता। फिर होड़ लगती कि ‘कौन श्मशान में जाकर खूँटा गाड़ आता है?’ राम-नाम के सामने भूत कैसे टिकेंगे? यह श्रद्धा की बात है। इसके सामने कोई विकार टिक नहीं पाता। विकारों के पीछे पड़ने के बजाय, ‘यह हटाओ, वह हटाओ’ आदि निषेधक कार्यक्रम के बजाय विधायक कार्यक्रम अच्छा होगा कि ‘भगवत स्मरण करो।’ नहीं तो ‘छोड़ना है, छोड़ना है’ कहते-कहते जो छोड़ना हो, वही पक्का हो जाता है। इसलिए भगवत-स्मरण पकड़ लो तो विकार यों ही खतम हो जाएंगे।



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