स्थितप्रज्ञ

मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति दूर होने पर योग को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि वाले पुरुष के विषय में अर्जुन प्रश्न करते हैं। 

अर्जुन उवाच 

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । 

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।। 54 ।। 

अर्जुन बोले- हे केशव ! परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? व्याख्या- यहाँ अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के विषय में जो प्रश्न किये हैं, इन प्रश्नों के पहले अर्जुन के मन में कर्म और बुद्धि को लेकर शंका पैदा हुई थी। परंतु भगवान ने बावनवें-तिरपनवें श्लोकों में कहा कि जब तेरी बुद्धि मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति को तर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा- यह सुनकर अर्जुन के मन में शंका हुई कि जब मैं योग को प्राप्त हो जाऊँगा, स्थित प्रज्ञ हो जाऊँगा तब मेरे क्या लक्षण होंगे? अतः अर्जुन ने इस अपनी व्यक्तिगत शंका को पहले पूछ लिया और कर्म तथा बुद्धि को लेकर अर्थात सिद्धांत को लेकर जो दूसरी शंका थी, उसको अर्जुन ने स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का वर्णन होने के बाद पूछ लिया। अगर अर्जुन सिद्धांत का प्रश्न यहाँ चौवनवें श्लोक में ही कर लेते तो स्थितप्रज्ञ के विषय में प्रश्न करने का अवसर बहुत दूर पड़ जाता।

‘समाधिस्थस्य’- जो मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो चुका है, उसके लियेयहाँ ‘समाधिस्थ’ पद आया है। ‘स्थितप्रज्ञस्य’- यह पद साधक और सिद्ध दोनों का वाचक है। जिसका विचार दृढ़ है, जो साधन से कभी विचलित नहीं होता, ऐसा साधक भी स्थितप्रज्ञ है और परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से जिसकी बुद्धि स्थिर हो चुकी है, ऐसा सिद्ध भी स्थितप्रज्ञ है। अतः यहाँ ‘स्थितप्रज्ञ’ शब्द से साधक और सिद्ध दोनों लिये गये हैं। पहले इकतालीसवें से पैंतालीसवें श्लोक तक और सैंतालीसवें से तिरपनवें श्लोक तक साधकों का वर्णन हुआ है; अतः आगे के श्लोक में सिद्ध के लक्षणों में साधकों का भी वर्णन हुआ है। यहाँ शंका होती है कि अर्जुन ने तो ‘समाधिस्थस्य’ पद से सिद्ध स्थितप्रज्ञ बात ही पूछी थी, पर भगवान ने स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में साधकों की बातें क्यों कहीं? इसका समाधान है कि ज्ञानयोगी साधक की तो प्रायः साधन-अवस्था में ही कर्मों से उपरति हो जाती है। सिद्ध अवस्था में वह कर्मों से विशेष उपराम हो जाता है। भक्तियोगी साधक की भी साधन-अवस्था में जप, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्संबंधी कर्म करने की रुचि होती है और इनकी बहलता भी होती है। सिद्ध-अवस्था में तो भगवत्संबंधी कर्म विशेषता से होते हैं। इस तरह ज्ञानयोगी और भक्तियोगी- दोनों का साधन और सिद्ध अवस्था में अंतर आ जाता है, पर कर्मयोगी की साधन और सिद्ध अवस्था में अंतर नहीं आता। उसका दोनों अवस्थाओं में कर्म करने का प्रवाह ज्यों का त्यों चलता रहता है। कारण कि साधन अवस्था में उसका कर्म करने का प्रवाह रहा है और उसके योग पर आरूढ़ होने में भी कर्म ही खास कारण रहे हैं। अतः भगवान ने सिद्ध के लक्षणों में, साधक जिस तरह सिद्ध हो सके, उसके साधन भी बता दिये हैं और जो सिद्ध हो गये हैं, उनके लक्षण भी बता दिये हैं। ‘का भाषा’- परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य को किस वाणी से कहा जाता है अर्थात उसके क्या लक्षण होते हैं? इसका उत्तर भगवान ने आगे के श्लोक में दिया है। ‘स्थितधीः किं प्रभाषेत’- वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है? ‘किमासीत’- वह कैसे बैठता है अर्थात संसार से किस तरह उपराम होता है? ‘व्रजेत किम्’- वह कैसे चलता है अर्थात व्यवहार कैसे करता है?

अब भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर देते हैं। 

श्रीभगवानुवाच 

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् । 

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। 55 ।। 

अर्थ- श्री भगवान बोले- हे पृथान्दन ! जिस काल में साधक मनोगत संपूर्ण कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने आप में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। व्याख्या- गीता की यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधन से उसकी पूर्णता का वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोग में साधक भगवान के सिवाय और कुछ है ही नहीं- ऐसे अनन्य-योग से उपासना करता है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण प्राणियों में द्वेष भाव से रहित हो जाता है। ज्ञानयोग में साधक स्वयं को गुणों से सर्वथा असंबद्ध एवं निर्लिप्त देखता है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण गुणों से सर्वथा अतीत हो जाताहै[5] ऐसे ही कर्मयोग में कामना के त्याग की बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है- यह बात इस श्लोक में बताते हैं। 

‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’- इन पदों का तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयं में है और न मन में ही है। कामना तो आने-जाने वाली है और स्वयं निरंतर रहने वाला है; अतः स्वयं में कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरंतर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती है- ‘मनोगतान्’; अतः मन में भी कामना कैसे हो सकती है? परंतु शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के कारण मनुष्य मन में आने वाली कामनाओं को अपने में मान लेता है। ‘जहाति’ क्रिया के साथ ‘प्र’ उपसर्ग देने का तात्पर्य है कि साधक कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामना का कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। अपने स्वरूप का कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी संबंध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसी का होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपने में नहीं है, पर उसको अपने में मान लिया है। इस मान्यता का त्याग करने को ही यहाँ ‘प्रजहाति’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘कामान्’ शब्द में बहुवचन होने से ‘सर्वान्’ पद उसी के अंतर्गत आ जाता है, फिर भी ‘सर्वान्’ पद देने का तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामना का कोई भी अंश बाकी न रहे। ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’- जिस काल में संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आप में ही संतुष्ट रहता है अर्थात अपने-आप में सहज स्वाभाविक संतोष होता है। संतोष दो तरह का होता है- एक संतोष गुण है और एक संतोष स्वरूप है। अंतःकरण में किसी प्रकार की कोई भी इच्छा न हो- यह संतोष गुण है; और स्वयं में असंतोष का अत्यंताभाव है- यह संतोष स्वरूप है। यह स्वरूप भूत संतोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिए कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत संतोष में प्रज्ञा pस्वतः स्थिर रहती है। ‘स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते’- स्वयं जब बहुशाखाओं वाली अनन्त कामनाओं को अपने में मानता था, उस समय भी वास्तव में कामनाएं अपने में नहीं थी और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परंतु उस समय अपने में कामनाएँ मानने के कारण बुद्धि स्थिर न होने से वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपने में से संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर दिया अर्थात उनकी मान्यता को हटा दिया, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव हो जाता है। साधक तो बुद्धि को स्थिर बनाता है। परंतु कामनाओं का सर्वथा त्याग होने पर बुद्धि को स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः स्वाभाविक स्थिर हो जाती है। 


कर्मयोग में साधक का कर्मों से ज्यादा संबंध रहता है। उसके लिए योग में आरूढ़ होने में भी कर्म कारण है- ‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’। इसलिए कर्मयोगी का कर्मों के साथ संबंध साधक अवस्था में भी रहता है और सिद्धावस्था में भी। सिद्धावस्था में कर्मयोगी के द्वारा मर्यादा के अनुसार कर्म होते रहते हैं, जो दूसरों के लिये आदर्श होते हैं। इसी बात को भगवान ने चौथे अध्याय में कहा है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है- ‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः’


भगवान ने तिरपनवें श्लोक में योग की प्राप्ति में बुद्धि की दो बातें कही थीं- संसार से हटने में तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मा में लगने में बुद्धि अचल तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मा में लगने में बुद्धि अचल हो अर्थात निश्चल कहकर संसार का त्याग बताया है और अचल कहकर परमात्मा में स्थिति बतायी। उन्हीं दो बातों को लेकर यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ पद से कहा गया है कि जब साधक कामनाओं से सर्वथा रहित हो जाता है और अपने स्वरूप में ही संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य है कि जब तक कामना का अंश रहता है, तब तक वह साधक कहलाता है और जब कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाता है, तब वह सिद्ध कहलाता है। इन्हीं दो बातों का वर्णन भगवान ने इस अध्याय की समाप्ति तक किया है; जैसे- यहाँ ‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्’ पदों से संसार का त्याग बताया और फिर ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी।


छप्पनवें श्लोक के पहले भाग में संसार का त्याग और ‘स्थितधीर्मुनि:’ पद से परमात्मा में स्थित बतायी। सत्तावनवें और अट्ठानवें श्लोक में पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। उनसठवें श्लोक के पहले भाग में संसार का त्याग बताया और ‘परं दृष्द्वा’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। साठवें से पैसठवें श्लोक तक पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘बुद्धिः पर्यवतिष्ठते’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। छाछठवें से अड़सठवें श्लोक तक पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। उनहत्तरवें श्लोक में या निशा ‘सर्वभूतानाम्’ तथा ‘यस्यां जाग्रति भूतानि’ पदों से संसार का त्याग बताया और ‘तस्यां जागर्ति संयमी’ तथा ‘सा निशा पश्यतो मुनेः’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। सत्तरवें और इकहत्तरवें श्लोक में पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘'स शान्तिमधिगच्छति'’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। बहत्तरवें श्लोक में ‘'नैनां प्राप्य विमुह्यति’ पदों से संसार का त्याग बताया और ‘ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति’ आदि पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी।


अब आगे के दो श्लोकों में ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है?’ इस दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हैं।


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। 56 ।।


अर्थ- दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि कहा जाता है।


अर्जुन ने तो ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है?’ ऐसा क्रिया की प्रधानता को लेकर प्रश्न किया था, पर भगवान भाव की प्रधानता को लेकर उत्तर देते हैं; क्योंकि क्रियाओं में भाव ही मुख्य है। क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है। भाव बदलने से क्रिया बदल जाती है अर्थात बाहर से क्रिया वैसी ही दीखने पर भी वास्तव में क्रिया वैसी नहीं रहती है। उसी भाव की बात भगवान यहाँ कह रहे हैं।


‘दुःखेष्वनुद्वग्नमनाः’- दुःखों की संभावना और उनकी प्राप्ति होने पर भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता अर्थात कर्तव्य-कर्म करते समय कर्म करने में बाधा लग जाना, निंदा अपमान होना, कर्म का फल प्रतिकूल होना आदि-आदि प्रतिकूलताएँ आने पर भी उसके मन में उद्वेग नहीं होता।


कर्मयोगी के मन में उद्वेग, हलचल न होने का कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है- दूसरों के हित के लिए कर्म करना, कर्मों का सांगोपांग करना, कर्मों के फल में कहीं आसक्ति, ममता, कामना न हो जाए- इस विषय में सावधान रहना। ऐसा करने से उसके मन में एक प्रसन्नता रहती है। उस प्रसन्नता के कारण कितनी ही प्रतिकूला आने पर भी उसके मन में उद्वेग नहीं होता है।


‘सुखेषु विगतस्पृहः’- सुखों की संभावना और उनकी प्राप्ति होने पर भी जिसके भीतर स्पृहा नहीं होती अर्थात वर्तमान में कर्मों का सांगोपांग हो जाना, तात्कालिक आदर और प्रशंसा होना, अनुकूल फल मिल जाना आदि-आदि अनुकूलताएँ आने पर भी उसके मन में ‘यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे; यह परिस्थिति सदा मिलती रहे’- ऐसी स्पृहा नहीं होती। उसके अंतःकरण में अनुकूलता का कुछ भी असर नहीं होता।


‘वीतरागभयक्रोधः’- संसार के पदार्थों का मन पर जो रंग चढ़ जाता है उसको ‘राग’ कहते हैं। पदार्थों में राग होने पर अगर कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थों का नाश करता है, उनसे संबंध-विच्छेद कराता है, उनकी प्राप्ति में विघ्न डालता है, तो मन में ‘भय’ होता है। अगर वह व्यक्ति निर्बल होता है, तो मन में ‘क्रोध’ होता है। परंतु जिसके भीतर दूसरों को सुख पहुँचाने का, उनका हित करने का, उनकी सेवा करने का भाव जाग्रत हो जाता है, उसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है। राग के मिटने से भय और क्रोध भी नहीं रहते। अतः वह राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो जाता है।


जब तक आंशिक रूप से उद्वेग, स्पृहा, राग, भय और क्रोध रहते हैं, तब तक वह साधक होता है। इनसे सर्वथा रहित होने पर वह सिद्ध हो जाता है।


[वासना, कामना आदि सभी एक राग के ही स्वरूप हैं। केवल वासना का तारतम्य होने से उसके अलग-अलग नाम होते हैं; जैसे अंतःकरण में जो छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम 'वासना' है। उस वासना का ही दूसरा नाम ‘आसक्ति’ और प्रियता है। मेरे को वस्तु मिल जाय- ऐसी जो इच्छा होती है, उसका नाम ‘कामना’ है। कामना पूरी होने की जो संभावना है, उसका नाम ‘आशा’ है। कामना पूरी होने पर भी पदार्थों के बढ़ने की तथा पदार्थों के और मिलने की इच्छा होती है, उसका नाम ‘लोभ’ है। लोभ की मात्रा अधिक बढ़ जाने का नाम ‘तृष्णा’ है। तात्पर्य है कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों में जो खिंचाव है, श्रेष्ठ और महत्त्व बुद्धि है, उसी को वासना, कामना आदि नामों से कहते हैं।]


‘स्थितधीर्मुनिरुच्यते’- ऐसे मननशील कर्मयोगी की बुद्धि स्थिर, अटल हो जाती हैं। ‘मुनि’ शब्द वाणी पर लागू होता है, इसलिए भगवान ने ‘किं प्रभाषेत’ के उत्तर में ‘मुनि’ शब्द कह दिया है। परंतु वास्तव में ‘मुनि’ शब्द केवल वाणी पर ही अवलंबित नहीं है। इसीलिये भगवान ने सत्रहवें अध्याय में ‘मौन’ शब्द का प्रयोग मानसिक तप में किया है, वाणी के तप में नहीं। कर्मयोग का प्रकरण होने से यहाँ मननशील कर्मयोग को मुनि कहा गया है। मननशीलता का तात्पर्य है- सावधानी का मनन, जिससे कि मन में कोई कामना आसक्ति न आ जाय। निरंतर अनासक्त रहना ही सिद्ध कर्मयोगी की सावधानी है; क्योंकि पहले साधक-अवस्था में उसकी ऐसी सावधानी रही है।[3] और इसी से वह परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुआ है।


यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 57 ।।


सब जगह आसक्ति रहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभ को प्राप्त करके न तो अभिनंदित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।

पूर्व श्लोक में तो भगवान ने कर्तव्य कर्म करते हुए निर्विकार रहने की बात बतायी। अब इस श्लोक में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में सम, निर्विकार रहने की बात बताते हैं।


‘यः सर्वत्रानभिस्नेहः’- जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात जिसकी अपने कहलाने वाले शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि एवं स्त्री, पुत्र, घर, धन आदि किसी में आसक्ति, लगाव नहीं रहा है।


वस्तु आदि बने रहने से मैं बना रहा और उनके बिगड़ जाने से मैं बिगड़ गया, धन के आने से मैं बड़ा हो गया और धन के चले जाने से मैं मारा गया- यह जो वस्तु आदि में एकात्मता की तरह स्नेह है, उसका नाम ‘अभिस्नेह’ है। स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी का किसी भी वस्तु आदि में यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता। बाहर से वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि का संयोग रहते हुए भी वह भीतर से सर्वथा निर्लिप्त रहता है।


‘तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं नाभिनन्दति न द्वेष्टि’- जब उस मनुष्य के सामने प्रारब्धवशात् शुभ-अशुभ, शोभनीय-अशोभनीय, अच्छी-मंदी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह अनुकूल परिस्थिति को लेकर अभिनंदित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर द्वेष नहीं करता।


अनुकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो प्रसन्नता आती है और वाणी से भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहर से भी उत्सव मनाया जाता है- यह उस परिस्थिति का अभिनंदन करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो दुःख होता है, खिन्नता होती है कि यह कैसे और क्यों हो गया! यह नहीं होता तो अच्छा था, अब यह जल्दी मिट जाय तो ठीक है-यह उस परिस्थिति से द्वेष करना है। सर्वत्र स्नेहरहित, निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलता को लेकर अभिनंदन नहीं करता और प्रतिकूलता को लेकर द्वेष नहीं करता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूल प्रतिकूल, अच्छे मंदे अवसर प्राप्त होते रहते हैं, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है।


‘तत्, तत्’ कहने का तात्पर्यहै कि जिन-जिन अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि से विकार होने की संभावना रहती है और साधारण लोगों में विकार होते हैं, उन-उन अनुकूल प्रतिकूल वस्तु आदि के कहीं भी, कभी भी और कैसे भी प्राप्त होने पर उसको अभिनंदन और द्वेष नहीं होता।


‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’- उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है, एकरस और एकरूप है। साधनावस्था में उसकी जो व्यवसायात्मिका बुद्धि थी, वह अब परमात्मा में अचल-अटल हो गयी है। उसकी बुद्धि में यह विवेक पूर्णरूप से जाग्रत हो गया है कि संसार में अच्छे मंदे के साथ वास्तव में मेरा कोई भी संबंध नहीं है। कारण कि ये अच्छे-मंदे अवसर तो बदलने वाले हैं, पर मेरा स्वरूप न बदलने वाला है; अतः बदलने वाले के साथ न बदलने वाले का संबंध कैसे हो सकता है?


वास्तव में देखा जाय तो फरक न तो स्वरूप में पड़ता है और न शरीर इंद्रियाँ मन बुद्ध में। कारण कि अपना जो स्वरूप है, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता; और प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य शरीरादि स्वाभाविक ही बदलते रहते हैं। तो फरक कहाँ पड़ता है? शरीर से तादात्म्य मिट जाता है, तब बुद्धि में जो फरक पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।


दूसरा भाव यह है कि किसी की बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धि से परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्मा को अपनी बुद्धि के अंतर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम अनन्त है। परंतु उस असीम परमात्मा में जब बुद्धि लीन हो जाती है, तब उस सीमित बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती- यही बुद्धि का परमात्मा में प्रतिष्ठित होना है। कर्मयोगी क्रियाशील होता है। अतः भगवान ने छप्पनवें श्लोक में क्रिया की सिद्धि-असिद्धि में अस्पृहा और उद्वेग रहित होने की बात कही तथा इस श्लोक में प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर अभिनंदन और द्वेष से रहित होने की बात कहते हैं।


अब भगवान आगे के श्लोक से ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बैठता है?’ इस तीसरे प्रश्न का उत्तर आरंभ करते हैं।


यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।

इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 58 ।।


जिस तरह कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, ऐसे ही जिस काल में यह कर्मयोगी इंद्रियों के विषयों में इंद्रियों को सब प्रकार से समेट लेता[1] है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।

 ‘यदा संहरते.....प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’- यहाँ कछुए का दृष्टांत देने का तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः दीखते हैं- चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परंतु जब वह अपने अंगों को छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखाई देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इंद्रियाँ और एक मन- इन छहों को अपने-अपने विषय से हटा लेता है। अगर उसका इंद्रियों आदि के साथ किञ्चिन्मात्र भी मानसिक संबंध बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता।


यहाँ ‘संहरते’ क्रिया देने का मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयों से इंद्रियों का उपसंहार कर लेता है अर्थात वह मन से भी विषयों का चिंतन नहीं करता।


इस श्लोक में ‘यदा’ पद तो दिया है, पर ‘तदा’ पद नहीं दिया है। यद्यपि 'यत्तदोर्नित्यसंबंधः’ के अनुसार जहाँ ‘यदा’ आता है, वहाँ ‘तदा’ का अध्याहार लिया जाता है अर्थात ‘यदा’ पद के अंतर्गत ही ‘तदा’ पद आ जाता है, तथापि यहाँ ‘तदा’ पद का प्रयोग न करने का एक गहरा तात्पर्य है कि इंद्रियों के अपने-अपने विषयों से सर्वथा हट जाने से स्वतः सिद्ध तत्त्व का जो अनुभव होता है, वह काल के अधीन, काल की सीमा में नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्याग का फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होने वाली वस्तु नहीं है।

अतः यहाँ कालवाचक ‘तदा’ पद देने की जरूरत नहीं है इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तु के अधीन होती है। जैसे आकाश में सूर्य रहने पर भी आँखें बंद कर लेने से सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखों में कार्य-करण का संबंध नहीं है अर्थात आँखें खुलने से सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहले से ज्यों का त्यों ही है। आँखें बंद करने से पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करने पर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करने से हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इंद्रियों को विषय से हटाने से स्वतः सिद्ध परमात्मतत्त्व का जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इंद्रियों का विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतः सिद्ध तत्त्व भोगों के साथ संबंध रखते हुए भोगों को भोगते हुए भी वैसा ही है। परंतु भोगों के साथ संबंध रूप परदा रहने से उसका अनुभव नहीं होता, और यहा परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है।


सम्बंध- केवल इन्द्रियों का विषयों से हट जाना ही स्थितप्रज्ञ का लक्षण नहीं है- इसे आगे के श्लोक में बताते हैं। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽयस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।। 59 ।। अर्थ- निराहारी[1] मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परंतु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य का तो रस भी परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से निवृत्त हो जाता है। व्याख्या- ‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः रसवर्जम्’- मनुष्य निराहार दो तरह से होता है- अपनी इच्छा से भोजन का त्याग कर देना अथवा बीमारी आने से भोजन का त्याग कर देना अथवा बीमारी आने से भोजन का त्याग हो जाना और संपूर्ण विषयों का त्याग करके एकांत में बैठना अर्थात इंद्रियों को विषयों से हटा लेना। यहाँ इंद्रियों को विषयों से हटाने वाले साधक के लिये ही ‘निराहारस्य’ पद आया है। रोगी के मन में यह रहता है कि क्या करूँ, शरीर में पदार्थों का सेवन करने की सामर्थ्य नहीं है, इसमें मेरी परवशता है; परंतु जब मैं ठीक हो जाऊँगा, शरीर में शक्ति आ जायगी, तब मैं पदार्थों का सेवन करूँगा। इस तरह उसके भीतर रसबुद्धि रहती है। ऐसे ही इंद्रियों को विषयों से हटाने पर विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; पर साधक के भीतर विषयों में जो रसबुद्धि, सुखबुद्धि है, वह जल्दी निवृत्त नहीं होती। जिनका स्वाभाविक ही विषयों में राग नहीं है और जो तीव्र वैराग्यवान है, उन साधकों की रसबुद्धि साधनावस्था में ही निवृत्त हो जाती है। परंतु जो तीव्र वैराग्य के बिना ही विचारपूर्वक साधन में लगे हुए हैं; उन्हीं साधकों के लिये यह कहा गया है कि विषयों का त्याग कर देने पर भी उनकी रसबुद्धि निवृत्त नहीं होती। ‘रसोऽपस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते’- इस स्थितप्रज्ञ की रसबुद्धि परमात्मा का अनुभव हो जाने पर निवृत्त हो जाती है। रसबुद्धि निवृत्त होने से वह स्थितप्रज्ञ होने से रसबुद्धि नहीं रहती- यह नियम है। ‘रसोऽप्यस्य’ पद से यह तात्पर्य निकलता है कि रसबुद्धि साधक की अहंता में अर्थात ‘मैं’- पन में रहती है। यही रसबुद्धि स्थूल रूप से राग का रूप धारण कर लेती है। अतः साधक को चाहिये कि वह अपनी अहंता से ही रस को निकाल दे कि ‘मैं तो निष्काम हूँ; राग करना, कामना करना मेरा काम नहीं है’। इस प्रकार निष्काम भाव आ जाने से अथवा निष्काम होने का उद्देश्य होने से रसबुद्धि नहीं रहती और परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से रस की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है।



संबंध- रस की निवृत्ति न हो तो क्या आपत्ति है? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं।


यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।

इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।। 60 ।।


अर्थ- हे कुंतीनंदन ! यत्न करते हुए विद्वान मनुष्य की भी प्रथमनशील इंद्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।

‘यततो ह्यपि.....प्रसभं मनः’[2]- जो स्वयं यत्न करता है, साधन करता है, हरेक काम को विवेक पूर्वक करता है, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करता है, दूसरों का हित हो, दूसरों को सुख पहुँचे, दूसरों का कल्याण हो- ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है, जो स्वयं कर्तव्य-अकर्तव्य, सार-असार को जानता है और कौन-कौन से कर्म करने से उनका क्या-क्या परिणाम होता है- इसको भी जानने वाला है, ऐसे विद्वान पुरुष के लिए यहाँ ‘यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः’ पद आये हैं। प्रयत्न करने वाले ऐसे विद्वान पुरुष की भी प्रमथनशील इंद्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं, विषयों की तरफ खींच लेती हैं अर्थात वह विषयों की तरफ खिंच जाता है, आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जब तक बुद्धि सर्वथा परमात्मतत्त्व में प्रतिष्ठित[3] नहीं होती, बुद्धि में संसार की यत्किञ्चित सत्ता रहती है, विषयेंद्रिय-संबंध से सुख होता है, भोगे हुए भोगों के संस्कार रहते हैं, तब तक साधनपरायण बुद्धिमान विवेक की पुरुष की भी इंद्रियाँ सर्वथा वश में नहीं होती। इंद्रियों के विषय सामने आने पर भोगे हुए भोगों के संस्कारों के कारण इंद्रियाँ मन-बुद्धि को जबर्दस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियों के उदाहरण भी आते हैं, जो विषयों के सामने आने पर विचलित हो गये। अतः साधक को अपनी इंद्रियों पर कभी भी ‘मेरी इंद्रियाँ वश में है’, ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिए[4] और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिए कि ‘मैं जितेंद्रिय हो गया हूँ।’


भगवान के परायण होने से इंद्रियाँ वश में होकर रस बुद्धि निवृत्त हो ही जायगी, पर भगवान के परायण न होने से क्या होता है- इस पर आगे के दो श्लोक कहते हैं।


ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। 62 ।।

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। 63 ।।


विषयों का चिंतन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।


व्याख्या- ‘ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते’- भगवान के परायण न होने से, भगवान का चिंतन न होने से विषयों का ही चिंतन होता है। कारण कि जीव के एक तरफ परमात्मा हैं और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्मा का आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसार का आश्रय लेकर संसार का ही चिंतन करता है; क्योंकि संसार के सिवाय चिंतन का कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिंतन करते-करते मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति, राग, प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होने से मनुष्य उन विषयों का सेवन करता है। विषयों का सेवन चाहे मानसिक हो, चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयों में प्रियता पैदा होती है। प्रियता से उस विषय का बार-बार चिंतन होने लगता है। अब उस विषय का सेवन करे, चाहे न करे, पर विषयों में राग पैदा हो ही जाता है- यह नियम है।


‘संगात्संजायते कामः’- विषयों में राग पैदा होने पर उन विषयों को प्राप्त करने की कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग वस्तुएँ मेरे को मिलें। ‘कामात्क्रोधोऽभिजायते’- कामना के अनुकूल पदार्थों के मिलते रहने से ‘लोभ’ पैदा हो जाता है और कामनापूर्ति की संभावना हो रही है, पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उस पर ‘क्रोध’ आ जाता है।


कामना एक ऐसी चीज है, जिसमें बाधा पड़ने पर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण, आश्रम, गुण, योग्यता आदि को लेकर अपने में जो अच्छाई का अभिमान रहता है, उस अभिमान में भी अपने आदर, सम्मान आदि की कामना रहती है; उस कामना में किसी व्यक्ति के द्वारा बाधा पड़ने पर भी क्रोध पैदा हो जाता है।


‘कामना’ रजोगुणी वृत्ति है, ‘सम्मोह’ तमोगुणी वृत्ति है और ‘क्रोध’ रजोगुण तथा तमोगुण के बीच की वृत्ति है।


कहीं भी किसी भी बात को लेकर क्रोध आता है तो उसके मूल में कहीं न कहीं राग अवश्य होता है। जैसे, नीति-न्याय से विरुद्ध काम करने वाले को देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्याय में राग है। अपमान तिरस्कार करने वाले पर क्रोध आता है,तो मान-सत्कार में राग है। निंदा करने वाले पर क्रोध आता है, तो प्रशंसा में राग है। दोषारोपण करने वाले पर क्रोध आता है, तो निर्दोषता के अभिमान में राग है; आदि आदि।


------ स्वामी रामसुखदास 

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