दो बुद्धियाँ

 


गीताशास्त्र के दूसरे अध्याय में भगवान् ने प्रवृत्ति विषयक योगबुद्धि और निवृत्ति विषयक सांख्यबुद्धि ऐसी दो बुद्धियाँ दिखलायी हैं।


वहाँ सांख्यबुद्धि का आश्रय लेने वालों के लिए ‘प्रजहाति यदा कामान्’ इस श्लोक से लेकर अध्यायसमाप्तिक, सर्वकर्मों का त्याग करना कर्तव्य बतलाकर ‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’ इस श्लोक में उसी ज्ञाननिष्ठा से उनका कृतार्थ होना बतलाया है।


परंतु अर्जुन को ‘तेरा कर्म में ही अधिकार है’ ‘कर्म न करने में तेरी प्रीति न होनी चाहिए’ इत्यादि वचनों से (ऐसा कहा कि) योगबुद्धि का आश्रय लेकर तुझे कर्म ही करना चाहिए, (पर) उसी से मुक्ति की प्राप्ति नहीं बतलायी।


इस बात को विचार कर अर्जुन की बुद्धि व्याकुल हो गयी और वे बोले- (‘ज्यायसी चेत्’ इत्यादि)।


कल्याण चाहने वाले भक्त के लिए मोक्ष का साक्षात् साधन जो सांख्यबुद्धि निष्ठा है उसे सुनाकर भी जो प्रत्यक्षीकृत अनेक अनर्थों से युक्त हैं और क्रम से आगे बढ़ने पर भी (इसी जन्म में) एकमात्र मोक्ष की प्राप्ति रूप फल जिनका निश्चित नहीं है ऐसे कर्मों में मुझे भगवान् क्यों लगाते हैं। इस प्रकार अर्जुन का व्याकुल होना उचित ही है।


और उस व्याकुलता के अनुकूल ही यह ‘ज्यायसी चेत्’ इत्यादि प्रश्न है।


इस प्रश्न को निवृत्त करने वाले वचन भी भगवान् ने पूर्वोक्त विभागविषयक शास्त्र में (जहाँ ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा का अलग-अलग वर्णन है) कहे हैं।


तो भी कितने ही टीकाकार अर्जुन के प्रश्न का प्रयोजन दूसरी तरह मानकर उससे विपरीत भगवान् का उत्तर बतलाते हैं तथा पहले भूमिका में तथा पहले भूमिका में स्वयं जैसा गीता का तात्पर्य बतला आये हैं, उससे भी यहाँ प्रश्न और उत्तर का अर्थ विपरीत प्रतिपादन करते हैं।


कैसे? (सो कहते हैं कि)- वहाँ भूमिका में तो (उन टीकाकारों ने) ऐसे कहा है कि गीता शास्त्र में सब आश्रम वालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय निरूपण किया है और विशेषरूप से यह भी कहा है कि ‘जब तक जीवे अग्निहोत्रादि कर्म करता रहे’ इत्यादि श्रुतिविहित कर्मों का त्याग कररके केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है, इस सिद्धांत का गीताशास्त्र में निश्चित रूप से निषेध है।


परंतु यहाँ (तीसरे अध्याय में) उन्होंने आश्रमों का विकल्प दिखलाते हुए ‘जदब तक जीवे’ इत्यादि श्रुतिविहित कर्मों का ही त्याग बतलाया है।


इससे यह शंका होती है कि इस प्रकार के विरुद्ध अर्थ वाले वचन भगवान् अर्जुन से कैसे कहते और सुनने वाला (अर्जुन) भी ऐसे विरुद्ध अर्थ को कैसे स्वीकार करता?


पू.- यदि वहाँ (भूमिका में) ऐसा अभिप्राय हो गृहस्थ के लिए ही श्रौत कर्म के त्यागपूर्वक केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का निषेध किया है, दूसरे आश्रमवालों के लिए नहीं, तो?


उ.- यह भी पूर्वापरविरुद्ध ही है; क्योंकि सभी आश्रमवालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय गीताशास्त्र का निश्चित अभिप्राय है ऐसी प्रतिज्ञा करके उसकके विपरीत यहाँ दूसरे आश्रमवालों के लिए वे केवल ज्ञान से मोक्ष कैसे बतलाते?


पू.- कदाचित् ऐसा मान लें कि यह कहना श्रौतकर्म की अपेक्षा से है अर्थात् श्रौतकर्म से रहित केवल ज्ञान से गृहस्थों के लिए मोक्ष का निषेध किया गया है, उसमें जो, केवल ज्ञान से गृहस्थों का मोक्ष नहीं होता, ऐसा कहा है कि वह विद्यमान स्मार्त- कर्म की भी अविद्यमान के सदृश उपेक्षा करके कहा है।

कैसे? (सो कहते हैं कि)- वहाँ भूमिका में तो (उन टीकाकारों ने) ऐसे कहा है कि गीता शास्त्र में सब आश्रम वालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय निरूपण किया है और विशेषरूप से यह भी कहा है कि ‘जब तक जीवे अग्निहोत्रादि कर्म करता रहे’ इत्यादि श्रुतिविहित कर्मों का त्याग कररके केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है, इस सिद्धांत का गीताशास्त्र में निश्चित रूप से निषेध है।


परंतु यहाँ (तीसरे अध्याय में) उन्होंने आश्रमों का विकल्प दिखलाते हुए ‘जदब तक जीवे’ इत्यादि श्रुतिविहित कर्मों का ही त्याग बतलाया है।


इससे यह शंका होती है कि इस प्रकार के विरुद्ध अर्थ वाले वचन भगवान् अर्जुन से कैसे कहते और सुनने वाला (अर्जुन) भी ऐसे विरुद्ध अर्थ को कैसे स्वीकार करता?


पू.- यदि वहाँ (भूमिका में) ऐसा अभिप्राय हो गृहस्थ के लिए ही श्रौत कर्म के त्यागपूर्वक केवल ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का निषेध किया है, दूसरे आश्रमवालों के लिए नहीं, तो?


उ.- यह भी पूर्वापरविरुद्ध ही है; क्योंकि सभी आश्रमवालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय गीताशास्त्र का निश्चित अभिप्राय है ऐसी प्रतिज्ञा करके उसकके विपरीत यहाँ दूसरे आश्रमवालों के लिए वे केवल ज्ञान से मोक्ष कैसे बतलाते?


पू.- कदाचित् ऐसा मान लें कि यह कहना श्रौतकर्म की अपेक्षा से है अर्थात् श्रौतकर्म से रहित केवल ज्ञान से गृहस्थों के लिए मोक्ष का निषेध किया गया है, उसमें जो, केवल ज्ञान से गृहस्थों का मोक्ष नहीं होता, ऐसा कहा है कि वह विद्यमान स्मार्त- कर्म की भी अविद्यमान के सदृश उपेक्षा करके कहा है।


दूसरी बात यह भी है कि यदि ऊर्ध्वरेताओं को मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान के साथ केवल स्मार्त कर्म के समुच्चय की ही आवश्यकता है तो इस न्याय से गृहस्थों के लिए भी केवल स्मार्त कर्मों के साथ ही ज्ञान का समुच्चय आवश्यक समझा जाना चाहिए, श्रौतकर्मों के साथ नहीं। पू.- यदि ऐसा मानें कि गृहस्थ को ही मोक्ष के लिए श्रौत और स्मार्त दोनों प्रकार के कर्मों के साथ ज्ञान के समुच्चय की आवश्यकता है, ऊर्ध्वरेताओं का तो केवल स्मार्त कर्मयुक्त ज्ञान से मोक्ष हो जाता है? उ.- ऐसा मान लेन से तो गृहस्थ के ही सिर पर विशेष परिश्रमयुक्त और अति दुःखरूप श्रौत स्मार्त दोनों प्रकार के कर्मों का बोझ लादना हुआ। पू. – यदि कहा जाय कि बहुत परिश्रम होने के कारण गृहस्थ की ही मुक्ति होती है, (अन्य आश्रमों में) श्रौत नित्यकर्मों का अभाव होने के कारण अन्य आश्रम वालों का मोक्ष नहीं होता तो? उ.- यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सब उपनिषद्, इतिहास, पुराण और योगशास्त्रों में मुमुक्षु के लिए ज्ञान का अंग मानकर सब कर्मों के संन्यास का विधान किया है तथा श्रुति स्मृतियों में आश्रमों के विकल्प और समुच्चय भी विधान है।* पू.- तब तो सभी आश्रम वालों के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय सिद्ध हो जाता है। उ.- नहीं; क्योंकि मुमुक्षु के लिए सर्व कर्मों के त्याग का विधान है।

सब प्रकार के भोगों से विरक्त होकर भिक्षावृत्ति का अवलम्बन करते हैं।’ ‘इसलिए इन सब तपों में संन्यास को ही श्रेष्ठ कहते हैं।’ ‘संन्यास ही श्रेष्ठ बताया गया है’ ‘न कर्म से, न प्रजा से, न धन से, पर केवल त्याग से ही कई एक महापुरुष अमृतत्व को प्राप्त हुए हैं।’ ‘ब्रह्मचर्य से ही संन्यास ग्रहण करें।’ इत्यादि श्रुतिवचन हैं।


बृहस्पति ने भी कच से कहा है कि ‘धर्म और अधर्म को छोड़, सत्य और झूठ दोनों को छोड़, सत्य और झूठ दोनों को छोड़कर जिस (अहंकार) से इनको छोड़ता है उसको भी छोड़।’ ‘संसार को साररहित देखकर परवैराग्य के आश्रित हुए पुरुष, सार वस्तु के दर्शन की इच्छा से विवाह किए बिना (ब्रह्मचर्य आश्रम से) ही संन्यास ग्रहण करते हैं।’


व्यासजी ने भी शुकदेवजी को शिक्षा देते समय कहा है कि ‘जीव कर्मों से बँधता है और ज्ञान से मुक्त होता है, इसलिए आत्मतत्व के ज्ञाता यति कर्म नहीं करते।’


यहाँ (गीता में) भी ‘सब कर्मों को मन से छोड़कर’ इत्यादि वचन कहे हैं। मोक्ष अकार्य है अर्थात् किसी क्रिया से प्राप्त होने वाला नहीं है, इससे भी मुमुक्षु के लिए कर्म व्यर्थ है। पू.- यदि ऐसा कहें कि प्रत्यवाय* दूर करने के लिए नित्यकर्मों का अनुष्ठान करना आवश्यक है, तो? उ.- यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि प्रत्यवाय की प्राप्ति संन्यासी के लिए नहीं, असंन्यासी के लिए है। जो संन्यासी नहीं है, ऐसे कर्म कनरे वाले गृहस्थों को और ब्रह्मचारियों को भी जिस प्रकार विहित कर्म न करने से प्रत्यवाय होता है, वैसे अग्निहोत्रादि कर्म न करने से संन्यासी के लिए प्रत्यवाय प्राप्ति की कल्पना नही की जा सकती।


तथा नित्यकर्मों के अभाव से ही भावरूप प्रत्यवाय के उत्पन्न होने की भी कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि ‘असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है?’ इस प्रकार अभाव से भाव की उत्पत्ति को असंभव बतलाने वाले श्रुति के वचन हैं। यदि कहो कि (कर्मों के अभाव से भावरूप प्रत्यवाय) असंभव होने पर भी विहित कर्मों के न करने से प्रत्यवाय का होना वेद बतलाता है, तब तो यह कहना हुआ कि वेद अनर्थकारक और अप्रमाणिक है। क्योंकि (ऐसा मानने से) वेदविहित कर्मों के करने और न करने दोनों ही में केवल दुख ही फल हुआ। इसके सिवा शास्त्र ज्ञापक नहीं बल्कि कारक है अर्थात् अपूर्व शक्ति उत्पन्न करने वाला है, ऐसा युक्ति शून्य अर्थ भी मानना हुआ*। यह किसी को इष्ट नहीं है। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि संन्यासियों के लिए कर्म नहीं है, अतएव ज्ञान कर्म का समुच्चय भी युक्तियुक्त नहीं है। तथा ‘ज्यायसी चेत् कर्मणस्ते मता बुद्धिः’ इत्यादि अर्जुन के प्रश्नों की संगति नहीं बैठने के कारण भी ज्ञान और कर्म का समुच्चय नहीं बन सकता। क्योंकि यदि दूसरे अध्याय में भगवान् ने अर्जुन से यह कहा होता कि ज्ञान और कर्म दोनों का तुझे एक साथ अनुष्ठान करना चाहिए तो फिर अर्जुन का यह पूछना नहीं बनता कि ‘हे जनार्दन! यदि कर्मों की अपेक्षा आप ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं’ इत्यादि।

यदि भगवान् ने अर्जुन से यह कहा हो कि तुझे ज्ञान और कर्म का एक साथ अनुष्ठान करना चाहिए, तब जो कर्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ है, उस ज्ञान का (संपादन करने के लिए) भी कह ही दिया गया, फिर यह पूछना किसी तरह भी नहीं बन सकता कि ‘तो हे केशव! मुझे घोर कर्मों में क्यों लगाते हैं।’


ऐसी तो कल्पना की ही नहीं जा सकती कि भगवान् ने पहले ऐसा कह दिया था कि उस श्रेष्ठ ज्ञान का अनुष्ठान अर्जुन को नहीं करना चाहिए, जिससे कि अर्जुन का ‘ज्यायसी चेत्’ इत्यादि प्रश्न बन सके।


हाँ, यदि ऐसा हो कि ज्ञान और कर्म का परस्पर विरोध होने के कारण एक पुरुष से एक काल में (दोनों का) अनुष्ठान सम्भव नहीं, इसलिए भगवान् ने दोनों को भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा अनुष्ठान करने के योग्य पहले बतलाया है तो ‘ज्यायसी चेत्’ इत्यादि प्रश्न बन सकता है।


यदि ऐसी कल्पना करें कि ‘अर्जुन ने यह प्रश्न अविवेक से किया है’ तो भी भगवान् का यह उत्तर देना युक्तियुक्त नहीं ठहरता कि ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा दोनों भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा अनुष्ठान की जाने योग्य हैं।


भगवान् के उत्तर को अज्ञानमूलक मानना तो (सर्वथा) अनुचित है।


अतएव भगवान् के इस उत्तर को कि ‘ज्ञाननिष्ठा और कर्म निष्ठा का अनुष्ठान करने वाले अधिकारी भिन्न-भिन्न है,’ देखने से यह सिद्ध होता है कि ज्ञान कर्म का समुच्चय संभव नहीं।


इसलिए गीता में और सब उपनिषदों में यही निश्चित अभिप्राय है कि केवल ज्ञान से ही मोक्ष होता है।


यदि दोनों का समुच्चय संभव होता तो ज्ञान और कर्म दोनों में से एक को निश्चय करकरे कहो, इस प्रकार एक ही बात कहने के लिए अर्जुन की प्रार्थना नहीं बन सकती।


इसके सिवा ‘कुरु कर्मैव तस्मातत्वम्’ इस निश्चित कथन से भगवान् भी अर्जुन के लिए (आगे) ज्ञाननिष्ठा असंभव दिखलायेगा।


यदि ज्ञान और कर्म दोनों का समुच्चय भगवान् को सम्मत होता तो फिर ‘कल्याण का वह एक साधन कहिये’ ‘कर्मों से ज्ञान श्रेष्ठ है’ इत्यादि वाक्यों द्वारा अर्जुन का ज्ञान से कर्मों को पृथक् करना अनुचित होता है।


क्योंकि (समुच्चय – पक्ष में) कर्म की अपेक्षा उस (ज्ञान)—का फल के नाते श्रेष्ठ होना संभव नहीं।


तथा भगवान् ने कर्मों की अपेक्षा ज्ञान को कल्याण- कारक बतलाया और मुझसे ऐसा कहते हैं कि ‘तू अकल्याण कारक कर्म ही कर’ इसमें क्या कारण है- यह सोचकर कर्म ही कर इसमें क्या कारण है- ह सोचकर अर्जुन ने भगवान् को उलाहना सा देते हुए जो ऐसा कहा कि ‘तो फिर हे केशव! मुझे इस हिंसारूप घोर क्रूर कर्म में क्यों लगाते हैं?’ वह भी उचित नहीं होता।


आप यदि अलग-अलग अधिकारियों द्वारा किये जाने योग्य ज्ञान और कर्म का अनुष्ठान एक पुरुष द्वारा किया जाना असंभव मानते हैं तो उन दोनों मे से ‘ज्ञान या कर्म यही एक बुद्धि, शक्ति और अवस्था के अनुसार अर्जुन के लिए योग्य है’- ऐसा निश्चय करके मुझसे कहिये, जिस ज्ञान या कर्म किसी एक से मैं कल्याण को प्राप्त कर सकूँ।


यदि कर्मनिष्ठा में गौणरूप से भी ज्ञान को भगवान् ने कहा होता तो ‘दोनों मे से एक एक कहिये’ इस प्रकार एक ही को सुनने की अर्जुन की इच्छा कैसे होती?


क्योंकि ‘ज्ञान और कर्म इन दोनों मे से मैं तुझसे एकही कहूँगा, दोनों नहीं’- ऐसा भगवान् ने कहीं नहीं कहा कि जिससे अर्जुन अपने लिए दोनों की प्राप्ति असम्भव मानकर एक के लिए ही प्रार्थना करता।।2।।


प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देते हुए- श्री भगवान् बोले-


लोकेस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।


लोके अस्मिन् शास्त्रानुष्ठानाधिकृतानां त्रैवर्णिकानां द्विविधा द्विप्रकारा निष्ठा स्थितः अनुष्ठेयतात्पर्यं पुरा पूर्वं सर्गादौ प्रजाः सृष्टा तासाम् अभ्युदयनिः श्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थ सम्प्रदायम् आविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन ईश्वरेण हे अनघ अपाप।


हे निष्पाप अर्जुन! इस मनुष्यलोक में शास्त्रोक्त कर्म और ज्ञान के जो अधिकारी हैं, ऐसे तीनों वर्णवालों के लिए (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए) दो प्रकार की निष्ठा- स्थिति अर्थात कर्तव्यतत्परता, पहले सृष्टि के आदिकाल में प्रजा को रचकर उनकी लौकिक उन्नति और मोक्ष की प्राप्ति के साधन रूप वैदिक सम्प्रदाय को आविष्कार करने वाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा कही गयी हैं।


वह दो प्रकार की निष्ठा कौन सी हैं? सो कहते हैं-


जो आत्म अनात्म के विषय में विवेकजन्य ज्ञान से संपन्न हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य आश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर लिया है, जिन्होंने वेदान्त के विज्ञान द्वारा आत्मतत्व का भलीभाँति निश्चय कर लिया है, जो परमहंस संन्यासी हैं, जो निरंतर ब्रह्म में स्थित हैं ऐसे सांख्ययोगियों की निष्ठा ज्ञानरूप योग से कही है।

तथा कर्मयोग से कर्मयोगियों की अर्थात् कर्म करने वालों की निष्ठा कही है।


यदि एक पुरुष द्वारा एक ही प्रयोजन की सिद्धि के लिए ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने योग्य हैं, ऐसा अपना अभिप्राय भगवान् द्वारा गीता में पहले कहीं कहा गया होता, या आगे कहा जाने वाला होता, अथवा वेद में कहा गया होता तो शरण में आये हुए प्रिय अर्जुन को यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि निष्ठा और कर्मनिष्ठा अलग-अलग भिन्न-भिन्न अधिकारियों द्वारा ही अनुष्ठान की जाने योग्य हैं।


यदि भगवान् का यह अभिप्राय मान लिया जाए कि ज्ञान और कर्म दोनों को सुनकर अर्जुन स्वयं ही दोनों का अनुष्ठान कर लेगा, दोनों को भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा अनुष्ठान करने योग्य तो दूसरों के लिए कहूँगा। तब तो भगवान् को राग द्वेषयुक्त और अप्रामाणिक मानना हुआ। ऐसा मानना सर्वर्था अनुचित है।


इसलिए किसी भी युक्ति से ज्ञान और कर्म का समुच्चय नहीं माना जा सकता है।


कर्मों की अपेक्षा ज्ञान की श्रेष्ठता जो अर्जुन ने कही थी वह तो सिद्ध है ही, क्योंकि भगवान् ने उसका निराकरण नहीं किया।


उस ज्ञाननिष्ठा के अनुष्ठान का अधिकार संन्यासियों का ही है; क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्न-भिन्न पुरुषों द्वारा अनुष्ठान करने योग्य बतलायी गयी हैं। इस कारण भगवान् की यही सम्मति है। यह प्रतीत है।।3।।


बन्धन के हेतु रूप कर्मों में ही भगवान् मुझे लगाते हैं- ऐसा समझकर व्यथितचित्त हुए और मैं कर्म नहीं करूँगा, ऐसा मानने वाले अर्जुन को देखकर भगवान् बोले- ‘न कर्मणामनारम्भात्’ इति। अथवा ज्ञाननिष्ठा का और कर्म निष्ठा का परस्पर विरोध होने के कारण एक पुरुष द्वारा एक काल में दोनों का अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। इससे एक दूसरे की अपेक्षा न रखकर दोनों अलग-अलग मोक्ष में हेतु हैं, ऐसी शंका होने पर- यह बात स्पष्ट प्रकट करने की इच्छा से कि ज्ञाननिष्ठा की प्राप्ति में साधन होने के कारण कर्मनिष्ठा मोक्षरूप पुरुषार्थ में हेतु है, स्वतंत्र नहीं है; और कर्मनिष्ठा उपाय से सिद्ध होने वाली ज्ञाननिष्ठा अन्य की अपेक्षा न रखकर स्वतंत्र ही मुक्ति में हेतु है,


कर्मों का आरंभ किये बिना अर्थात् यज्ञादि कर्म जो कि इस जन्म या जन्मान्तर में किये जाते हैं और सञ्चित पापों का नाश करने के द्वारा अंतःकरण की शुद्धि में कारण है एवं ‘पाप-कर्मों का नाश होने पर मनुष्यों के (अंतःकरण में) ज्ञान प्रकट होता है’ इस स्मृति के अनुसार जो अंतःकरण की शुद्धि में कारण होने से ज्ञाननिष्ठा के भी हेतु हैं, उन यज्ञादि कर्मों का आरंभ किये बिना-


मनुष्य निष्कर्मभाव को कर्मशून्य स्थिति को, अर्थात् जो निष्क्रिय आत्मस्वरूप में स्थित होना रूप ज्ञानयोग से प्राप्त होने वाली निष्ठा है, उसको नहीं पता।


पू.- कर्मों का आरंभ नहीं करने से निष्कर्म भाव को प्राप्त नहीं होता- इस कथन से यह पाया जाता है कि इसके विपरीत करने से अर्थात् कर्मों का आरंभ करने से मनुष्य निष्कर्मभाव को पाता है, सो (इसमें) क्या कारण है कि कर्मों का आरंभ किये बिना मनुष्य निष्कर्मता को प्राप्त नहीं होता? उ.- क्योंकि कर्मों का आरंभ ही निष्कर्मता की प्राप्ति का उपाय है और उपाय के बिना उपेय की प्राप्ति हो नहीं सकती, यह प्रसिद्ध ही है। निष्कर्मता रूप ज्ञानयोग का उपाय कर्मयोग है, यह बात श्रुति में और यहाँ गीता में भी प्रतिपादित है। श्रुति में प्रस्तुत ज्ञेयरूप आत्मलोक के जानने का उपाय बतलाते हुए ‘उस आत्मा को ब्राह्मण वेदाध्ययन और यज्ञ से जानने की इच्छा करते हैं’ इत्यादि वचनो से कर्मयोग को ज्ञानयोग का उपाय बतलाया है। तथा यहाँ (गीताशास्त्र में) भी- ‘हे महाबाहो! बिना कर्म योग के संन्यास प्राप्त करना कठिन है’, ‘योगी लोग आसक्ति छोड़कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म किया करते हैं’, ‘यज्ञ, दान और तप बुद्धिमानों को पवित्र करने वाले हैं’ इत्यादि वचनो से आगे प्रतिपादित करेंगे। यहाँ यह शंका होती है कि ‘सब भूतों को अभयदान देकर संन्यास ग्रहण करे, इत्यादि वचनों में कर्तव्यकर्मों के त्याग द्वारा भी निष्कर्मता की प्राप्ति दिखलायी है और लोक में भी कर्मों का आरंभ न करने से निष्कर्मता का प्राप्त होना अत्यंत प्रसिद्ध है। फिर निष्कर्मता चाहने वाले को कर्मों के आरंभ से क्या प्रयोजन? इस पर कहते हैं-’ केवल संन्यास से अर्थात् बिना ज्ञान के केवल कर्म परित्याग मात्र से मनुष्यक निष्कर्मता रूप सिद्धि को अर्थात् ज्ञानयोग से होने वाली स्थिति को नहीं पाता।।4।।

कोई भी मनुष्य कभी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता; क्योंकि ‘सभी प्राणी’ प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम- इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं।


यहाँ सभी प्राणी के साथ अज्ञानी (शब्द) और जोड़ना चाहिए (अर्थात् ‘सभी अज्ञानी प्राणी’ ऐसे पढ़ना चाहिए); क्योंकि आगे ‘जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता’ इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है, अतः अज्ञानियों के लिए ही कर्मयोग है, ज्ञानियों के लिए नहीं।


क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित नहीं किये जा सकते, उन ज्ञानियों में स्वतः क्रिया का अभाव होने से उनके लिए कर्मयोग संभव नहीं है।


ऐसे ही ‘वेदाविनाशिनम्’ इस श्लोक की व्याख्या में विस्तारपूर्वक कहा गया है।


जो आत्मज्ञानी न होने पर भी शास्त्रविहित कर्म नहीं करता, उसका वह कर्म न करना बुरा है;

जो मनुष्य हाथ, पैर आदि कर्मेन्द्रियों को रोककर इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता रहता है, वह विमूढात्मा अर्थात् मोहित अंतःकरण वाला मिथ्याचारी, ढोंगी, पापाचारी कहा जाता है।।6।।


यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।


यः तु पुनः कर्मणि अधिकृतः अज्ञो बुद्धीन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन कर्मेन्द्रियैः वाक्यपाण्यादिभिः।


'किम् आरभते इति आह-'


कर्मयोगम् असक्तः सन् स विशिष्यते इतरस्माद् मिथ्याचारात्।


परंतु हे अर्जुन! जो कर्मों का अधिकारी अज्ञानी, ज्ञानेन्द्रियों को मन से रोककर वाणी, हाथ इत्यादि कर्मेन्द्रियों से आचरण करता है। किसका आचरण करता है? सो कहते हैं-


आसक्तिरहित होकर कर्मयोग का आचरण करता है, वह (कर्मयोगी) दूसरे की अपेक्षा अर्थात् मिथ्याचारियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है।


यज्ञ ही विष्णु है’ इस श्रुतिप्रमाण से यज्ञ ईश्वर है और उसके लिए जो कर्म किया जाय वह ‘यज्ञार्थ कर्म’ है, उस (ईश्वरार्थ) कर्म को छोड़कर दूसरे कर्मों से, कर्म करने वाला अधिकारी मनुष्य समुदाय, कर्मबन्धनयुक्त हो जाता है, पर ईश्वरार्थ किये जाने वाले कर्म से नहीं। इसलिए हे कौन्तेय! तू कर्मफल और आसक्ति से रहित होकर ईश्वरार्थ कर्मों का भली प्रकार आचरण कर।।9।। इस आगे बतलाये जाने वाले कारण से भी अधिकारी को कर्म करना चाहिए-

सृष्टि के आदिकाल में यज्ञसहित प्रजा को अर्थात् (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन) तीनों वर्णों को रचकर जगत् के रचयिता प्रजापति ने कहा कि इस यज्ञ से तुमलोग प्रसव- उत्पत्ति, यानी वृद्धिलाभ करो। यह यज्ञच तुमलोगों को इष्ट कामनाओं काक देने वाला अर्थात् इच्छित फलरूप नाना भोगों को देने वाला हो।


यज्ञशिष्ट अन्न का भोजन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं अर्थात् देवयज्ञादि करके उसमें बचे हुए अमृत नामक अन्न को भक्षण करना जिनका स्वभाव है, वे सब पापों से अर्थात् गृहस्थ में होने वाले चक्की, चूल्हे आदि के पाँच पापों से और प्रमाद से होने वाले हिंसादिजनित अन्य पापों से भी छूट जाते हैं।


तथा जो उदरपरायण लोग केवल अपने लिए ही अन्न पकाते हैं वे स्वयं पापी हैं और पाप ही खाते हैं।


इसलिए भी अधिकारी को कर्म करना चाहिए, क्योंकि कर्म जगत् चक्र की प्रवृत्ति का कारण है। कैसे? सो कहते हैं-

भक्षण किया हुआ अन्न रक्त और वीर्य के रूप में परिणत होने पर उससे प्रत्यक्ष ही प्राणी उत्पन्न होते हैं। पर्जन्य से अर्थात् वृष्टि से अन्न की उत्पत्ति होती है और यज्ञ से वृष्टि होती है।


‘अग्नि में विधि पूर्वक दी हुई आहुति सूर्य में स्थित होती है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है’ इस स्मृति वाक्य से भी यही बात पायी जाती है।


ऋत्विक् और यजमान के व्यापार का नाम कर्म है और उस कर्म से जिसकी उत्पत्ति होती है वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसमुद्भव है अर्थात् वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।


क्रिया रूप कर्म को तू वेदरूप ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जान, अर्थात् कर्म की उत्पत्ति का कारण वेद है, ऐसे जान और वेद रूप ब्रह्म अक्षर से उत्पन्न हुआ है अर्थात् अविनाशी परब्रह्म परमात्मा वेद की उत्पत्ति का कारण है । वेदरूप ब्रह्म साक्षात् परमात्मा नामक अक्षर से पुरुष के निःश्वास की भाँति उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह सब अर्थों को प्रकाशित करने वाला होने के कारण सर्वगत है।


तथा यज्ञ विधि में वेद की प्रधानता होने के कारण वह सर्वगत होता हुआ ही सदा यज्ञ में प्रतिष्ठित है।


इस लोक में जो मनुष्य कर्माधिकारी होकर इस प्रकार ईश्वर द्वारा वेद और यत्नपूर्वक चलाये हुए इस जगत चक्र के अनुसार (वेदाध्ययन यज्ञादि) कर्म नहीं करता, हे पार्थ! वह पापायु अर्थात् पापमय जीवन वाला और इन्द्रियारामी अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों में रमण करने वाला व्यर्थ ही जीता है- उस पापी का जीना व्यर्थ ही है।


इसलिए इस प्रकरण का अर्थ यह हुआ कि अज्ञानी अधिकारी को कर्म अवश्य करना चाहिए।


अनात्मज्ञ अधिकारी पुरुष को आत्मज्ञान की योग्यता प्राप्त होने के पहले ज्ञाननिष्ठा प्राप्ति के लिए कर्मयोग का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए, यह ‘न कर्मणामनारम्भात्’ यहाँ से लेकर ‘शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः’ इस श्लोक तक के वर्णन से प्रतिपादन करके-


‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र’ से लेकर ‘मोघं पार्थ स जीवति’ तक के ग्रंथ से भी आत्मज्ञान से रहित कर्माधिकारी के लिए कर्मों के अनुष्ठान करने में बहुत से प्रसंगानुकूल कारण कहे गये तथा उन कर्मों के अनुष्ठान करने में बहुत से प्रसंगानुकूल कारण कहे गये तथा उन कर्मों के न करने में बेहुत से दोष भी बतलाये गये।


यदि ऐसा है तो क्या इस प्रकार चलाये हुए इस सृष्टि चक्र के अनुसार सभी को चलना चाहिए? अथवा पूर्वोक्त कर्मयोगानुष्ठानरूप उपाय से प्राप्त होने वाली और आत्मज्ञानी सांख्ययोगियों द्वारा सेवन किए जाने योग्य ज्ञानयोग से ही सिद्ध होने वाली निष्ठा को न प्राप्त हुए अनात्मज्ञ को ही इसके अनुसार बर्तना चाहिए? (या तो) इस प्रकार अर्जुन के प्रश्नन की आशंका करके (भगवान् बोले-) अथवा स्वयं ही भगवान् शास्त्र के अर्थ को भलीभाँति समझाने के लिए ‘यह जो प्रसिद्ध आत्मा है उसका जानकर जिनका मिथ्या ज्ञान निवृत्त हो चुका है, ऐसे जो महात्मा ब्राह्मणगण अज्ञानियों द्वारार अवश्य की जाने वाली पुत्रादि की इच्छाओं से रहित होकर केवल शरीर निर्वाह के लिए भिक्षा का आचरण करते हैं, उनका आत्मज्ञान निष्ठा से अतिरिक्त अन्य कुछ कर्तव्य नहीं रहता’ ऐसा श्रुति का तात्पर्य जो कि इस गीताशास्त्र में प्रतिपादन करना उनको इष्ट है,


परंतु जो आत्मज्ञाननिष्ठ सांख्ययोगी, केवल आत्मा में ही रतिवाला है अर्थात् जिसका आत्मा में ही प्रेम है, विषयों में नहीं और जो मनुष्य अर्थात् संन्यासी आत्मा से ही तृप्त है- जिसकी तृप्ति अन्न- रसादिन के अधीन नहीं रह गयी है तथा जो आत्मा में ही संतुष्ट है, बाह्य विषयों के लाभ से तो सबको संतोष होता ही है, पर उनकी अपेक्षा न करके जो आत्मा में ही संतुष्ट है अर्थात् सब ओर से तृष्णारहित है। जो कोई ऐसा आत्मज्ञानी है उसके लिए कुछ भी कर्तव्य नहीं है।


उस परमात्मा में प्रीतिवाले पुरुष का इस लोक में कर्म करने से कोई प्रयोजन ही नहीं रहता है।


तो फिर कर्म न करने से उसको प्रत्यवायरूप अनर्थ की प्राप्ति होती होगी? (इस पर कहते हैं-)


उसके न करने से भी उस इस लोक में कोई प्रत्यवायप्राप्ति रूप या आत्महानिरूप अनर्थ की प्राप्ति नहीं होती तथा ब्रह्मा से लेकर स्थावर तक सब प्राणियों में उसका कुछ भी अर्थ व्यपाश्रय नहीं होता।



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