कर्म की अनिवार्यता

 


इस कर्म का फल मुझे मिलेगा’ इस प्रकार कर्मों में आसक्त हुए कई अज्ञानी मनुष्य जैसे कर्म करते हैं आत्मवेत्ता विद्वान को भी आसक्तिरहित होकर उसी तरह कर्म करना चाहिए। आत्मज्ञानी उसकी तरह कर्म क्यों करता है? सो सुन- वह लोक संग्रह करने की इच्छा वाला है (इसलिए करता है)।


बुद्धि को विचलित करने का नाम बुद्धिभेद है, (ज्ञानी को चाहिए कि) कर्मों में आसक्ति वाले विवेक रहित अज्ञानियों की बुद्धि में भेद उत्पन्न न करे अर्थात् ‘मेरा यह कर्तव्य है,’ इस कर्म का फल मुझे भोगना है, इस प्रकार जो उनकी निश्चितरूपा बुद्धि बनी हुई है, उसको विचलित करना बुद्धिभेद करन है सो न करे।


तो फिर क्या करे? समाहितचित्त विद्वान् स्वयं अज्ञानियों के ही (सदृश) उन कर्मों का (शास्त्रानुकूल) आचरण करता हुआ उनसे सब कर्म करावे।


सत्व, रजस् और तमस्- इन तीनों गुणों की जो साम्यावस्था है, उसका नाम प्रधान या प्रकृति है, उस प्रकृति के गुणों से अर्थात् कार्य और करणरूप* समस्त विकारों से लौकिक और शास्त्रीय संपूर्ण कर्म सब प्रकार से किये जाते हैं। परंतु अहंकार विमूढात्मा- कार्य और करण के संघात रूप शरीर में आत्मभाव की प्रतीति का नाम अहंकार है, उस अहंकार से जिसका अंतःकरण अनेक प्रकार से मोहित हो चुका है ऐसा- देहेन्द्रिय के धर्म को अपना धर्म मानने वाला, देहाभिमानी पुरुष अविद्यावश प्रकृति के कर्मों को अपने में मानता हुआ उन-उन कर्मों का ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मान बैठता है।


वह तत्ववेत्ता, किसका तत्ववेत्ता? गुण-कर्म-विभाग का, अर्थात् गुण विभाग और कर्म विभाग के* तत्व को जानने वाला ज्ञानी, ‘इन्द्रियादि रूप गुण ही विषय रूप गुणों में बर्त रहे हैं, आत्मा नहीं बर्तता’ ऐसे मानकर आसक्त नहीं होता। उन कर्मों में प्रीति नहीं करता। परंतु जो- प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए पुरुष ‘हम अमुक फल के लिए यह कर्म करते हैं’ इस प्रकार गुणों के कर्मों में आसक्त होते हैं। उन पूर्ण रूप से न समझने वाले, कर्मफलमात्र को ही देखने वाले और कर्मों में आसक्त मन्दबुद्धि पुरुषों को अच्छी प्रकार समस्त तत्व को समझने वाला आत्मज्ञानी पुरुष स्वयं चलायमान न करे। अभिप्राय यह कि बुद्धिभेद करना ही उनको चलायमान करना है, सो न करे।


मुझ सर्वात्मरूप सर्वज्ञ परमेश्वर वासुदेव में विवेक बुद्धि से सब कर्म छोड़कर अर्थात् ‘मैं सब कर्म ईश्वर के लिए सेवक की तरह कर रहा हूँ’ इस बुद्धि से सब कर्म मुझमें अर्पण करके, तथा निराशी आशारहित और निर्मम यानी जिसका मेरापन सर्वथा नष्ट हो चुका हो उसे निर्मम कहते हैं, ऐसा होकर तू शोकरहित हुआ युद्ध कर अर्थात् चिन्ता संताप से रहितत हुआ युद्ध कर।


‘कर्म करने चाहिए’ ऐसा जो यह मत प्रमाणसहित कहा गया वह यथार्थ है (ऐसा मानकर)- जो श्रद्धायुक्त मनुष्य गुरुस्वरूप मुझ वासुदेव में असूया न करते हुए (मेरे गुणों में दोष न देखते हुए) मेरे इस मत के अनुसार चलते हैं, वे ऐसे मनुष्य भी पुण्य-पाप रूप कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो उनसे विपरीत हैं, मेरे इस मत को निन्दा करते हुए इस मेरे मत के अनुसार आचरण नहीं करते, वे समस्त ज्ञानों में अनेक प्रकार से मूढ़ हैं। सब ज्ञानों में मोहित हुए उन अविवेकियों को तू नाश को प्राप्त हुए ही जान।


तो फिर वे (लोग) किस कारण से आपके मत के अनुसार नहीं चलते? दूसरे के धर्म का अनुष्ठान करते हैं और स्वधर्माचरण नहीं करते? आपके प्रतिकूल होकर आपके शासन को उल्लंघन करने के दोष से क्यों नहीं डरते, इसमें क्या कारण है?


सभी प्राणी एवं ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही चेष्टा करते हैं अर्थात् जो पूर्वकृत पुण्य पाप आदि का संस्कार वर्तमान जन्मादि में प्रकट होता है, उसका नाम प्रकृति है, उसके अनुसार ज्ञानवान् भी चेष्टा किया करता है। फिर मूर्ख की तो बात ही क्या है?


इसलिए सभी प्राणी (अपनी) प्रकृति अर्थात् स्वभाव की ओर जा रहे हैं, इसमें मेरा या दूसरे का शासन क्या कर सकता है?।


यदि सभी जीव अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप ही चेष्टा करते हैं, प्रकृति से रहित कोई है ही नहीं, तब तो पुरुष के प्रयत्न की आवश्यकता न रहने से विधि निषेध बतलाने वाला शास्त्र निरर्थक होगा? इस पर यह कहते हैं- इन्द्रिय, इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् सभी इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में राग और द्वेष स्थित हैं, अर्थात् इष्ट में राग और अनिष्ट में द्वेष- ऐसे प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष दोनों अवश्य रहते हैं। वहाँ पुरुष प्रयत्न और शास्त्र की आवश्यकता का विषय इस प्रकार बतलाते हैं - शास्त्रानुसार वर्तन में लगे हुए मनुष्य को चाहिए कि वह पहले से ही राग द्वेष के वश में न हो।


अभिप्राय यह कि मनुष्य की जो प्रकृति है वह राग द्वेषपूर्वक ही अपने कार्य में मनुष्य को नियुक्त करती है। तब स्वाभाविकक ही स्वधर्म का त्याग और परधर्म का अनुष्ठान होता है। परंतु जब यह जीव प्रतिपक्ष- भावना से राग-द्वेष का संयम कर लेता है, तब केवल शास्त्रदृष्टिवाला हो जाता है, फिर यह प्रकृति के वश में नहीं रहता। '


इसलिए (कहते हैं कि) मनुष्य को राग द्वेष के वश में नहीं होना चाहिए; क्योंकि वे (राग-द्वेष) ही इस जीव के परिपन्थी हैं अर्थात् चोर की भांति कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले हैं।


राग द्वेषयुक्त मनुष्य तो शास्त्र के अर्थ को भी उलटा मान लेता है और परधर्म को भी धर्म होने के नाते अनुष्ठान करने योग्य मान बैठता है। परंतु उसका ऐसा मानना भूल है- अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये गये अर्थात् अंगे प्रत्यंगों सहित संपादन किये गये भी पर धर्म की अपेक्षा गुण रहित भी अनुष्ठान किया हुआ अपना धर्म कल्याण कर है अर्थात अधिक प्रशंसनीय है।


पर धर्म में स्थित पुरुष के जीवन की अपेक्षा स्वधर्म में स्थित पुरुष का मरण भी श्रेष्ठ है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयदायक है- नरक आदि रूप भय का देने वाला है। यह काम जो सब लोगों का शत्रु है, जिसके निमित्त से जीवों को सब अनर्थों की प्राप्ति होती है, वही यह काम किसी कारण से बाधित होने पर क्रोध के रूप में बदल जाता है, इसलिए क्रोध भी यही है।


यह काम रजोगुण से उत्पन्न हुआ है अथवा यों समझो कि रजोगुण का उत्पादक है; क्योंकि उत्पन्न हुआ काम ही रजोगुण को प्रकट करके पुरुष को कर्म में लगाया करता है। तथा रजोगुण के कार्य- सेवा आदि में लगे हुए दुःखित मनुष्यों का ही यह प्रलाप सुना जाता है कि ‘तृष्णा ही हमसे अमुक काम करवाती है’ इत्यादि।


तथा यह काम बहुत खाने वाला है। इसलिए महापापी भी है, क्योंकि काम से ही प्रेरित हुआ जीव पाप किया करता है। इसलिए इस काम को ही तू इस संसार में वैरी जान। जैसे प्रकाश स्वरूप अग्नि अपने साथ उत्पन्न हुए अन्धकार रूप धूएँ से और दर्पण जैसे मल से आच्छादित हो जाता है तथा जैसे गर्भ अपने आवरण रूप जेर से आच्छादित होता है वैसे ही उस काम से यह (ज्ञान) ढका हुआ है।


ज्ञानी के (विवेकी के) इस कामरूप नित्य वैरी से ज्ञान ढका हुआ है। ज्ञानी ही पहले से जानता है कि इसके द्वारा मैं अनर्थों में नियुक्त किया गया हूँ। इससे वह सदा दुखी भी होता है। इसलिए वह ज्ञानी का ही नित्य वैरी है मूर्ख का नहीं; क्योंकि वह मूर्ख तो तृष्णा के समय उसको मित्र के समान समझता है। फिर जब उसका परिणाम रूप दुःख प्राप्त होता है तब समझता है कि ‘तृष्णा के द्वारा मैं दुःखी किया गया हूँ’ पहले नहीं जानता, इसलिए यह ‘काम’ ज्ञानी का ही नित्य वैरी है।


कैसे काम के द्वारा (ज्ञान आच्छादित है? इस पर कहते हैं-) कामना- इच्छा ही जिसका स्वरूप है, जो अति कष्ट से पूर्ण होता है तता जो अनल है, भोगों से कभी भी तृप्त नहीं होता, ऐसे कामना रूप वैरी द्वारा (ज्ञान आच्छादित है)।


ज्ञान को आच्छादित करने वाला होने के कारण जो सबका वैरी है वह काम कहाँ रहने वाला है? अर्थात् उसका आश्रय क्या है? क्योंकि शत्रु के रहने का स्थान जान लेने पर सहज में ही उसका नाश किया जा सकता है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि यह सब इस काम के अधिष्ठान अर्थात् रहने के स्थान बतलाये जाते हैं। यह काम इन आश्रयभूत इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान को आच्छादित करके इस जीवात्मा को नाना प्रकार से मोहित किया करता है। जब कि ऐसा है- इसलिए हे भरतर्षभ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस ऊपर बतलाये हुए वैरी पापाचारी काम का परित्याग कर।


अभिप्राय यह कि शास्त्र और आचार्य के उपदेश से जो आत्मा अनात्मा और विद्या-अविद्या आदि पदार्थों का बोध होता है उसका नाम ‘ज्ञान’ है, एवं उसका जो विशेषरूप से अनुभव है उसका नाम विज्ञान है, अपने कल्याण की प्राप्ति के कारण रूप उन ज्ञान और विज्ञान को यह काम नष्ट करने वाला है, इसलिए इसका परित्याग कर।


पहले इन्द्रियों को वश में करके कामरूप शत्रु का त्याग कर- ऐसा कहा, सो किसका आश्रय लेकर इसका त्याग करना चाहिए, यह बतलाते हैं-  पण्डितजन बाह्य, परिच्छिन्न और स्थूल देह की अपेक्षा सूक्ष्म अन्तरस्थ और व्यापक आदि गुणों से युक्त होने के कारण श्रोत्रादि पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं।


तथा इन्द्रियों की अपेक्षा संकल्प- विकल्पात्मक मन को श्रेष्ठ कहते हैं और मन की अपेक्षा निश्चयात्तमिका बुद्धि को श्रेष्ठ बताते हैं।


एवं जो बुद्धिपर्यन्त समस्त दृश्य पदार्थों के अंतरव्यापी है, जिसके विषय में कहा है कि उस आत्मा को इन्द्रियादि आश्रयों से युक्त काम ज्ञानवरण द्वारा मोहित किया करता है, वह बुद्धि का (भी) द्रष्टा परमात्मा (सबसे श्रेष्ठ) है।


इस प्रकार बुद्धि से अति श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और आत्मा से ही आत्मा को स्तम्भन करके अर्थात् शुद्ध मन से अच्छी प्रकार आत्मा को समाधिस्थ करके, इस कामरूप दुर्जय शत्रु का त्याग कर अर्थात् जो दुःख से वश में किया जाता है उस अनेक दुर्विज्ञेय विशेषणों से युक्त काम का त्याग कर दे।





आज का विषय

लोकप्रिय विषय