विभूति योग

 


गीता के सातवें, आठवें और नवें अध्‍याय में भक्ति आदि का निरूपण करने के बाद भगवान अपनी अनंत विभूतियों का कुछ दिग्‍दर्शन भक्‍त के लिए कराते हैं। 

श्रीभगवानुवाच भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वच:।

यत्तेऽहं पीयमाणाय वक्ष्‍यामि हितकाम्‍यया।।1।। 

श्रीभगवान बोले- हे महाबाहो! फिर परम वचन सुन। यह मैं तुझ प्रियजन को तेरे हित के लिए कहूंगा।   

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:। 

अहमादिहिं देवानां महर्षीणां च सर्वश:।।2।। 

देव और महर्षि मेरी उत्‍पत्ति को नहीं जानते, क्‍योंकि मैं ही देवों का और म‍हर्षियों का सब प्रकार से आदि कारण हूँ।   

यो मामजमनादिं वेत्ति लोकमहेश्‍वरम्। 

असंमूढ: स मर्त्‍येषु सर्वपापै: प्रमुच्‍यते।।3।। 

मृत्‍यु लोक में रहता हुआ जो ज्ञानी लोकों के महेश्‍वर मुझको अजन्‍मा और अनादि रूप में जानता है वह सब पापों से मुक्‍त हो जाता है।   

बुद्धिर्ज्ञानमसंमोह: क्षमा सत्‍यं दम: शम:। 

सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।4।। 

अहिंसा समता तृष्टिस्‍तपो दानं यशोऽयश:। 

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एवं पृथग्विधा:।।5।। 

बुद्धि, ज्ञान, अमूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रियनिग्रह, शांति, सुख, दु:ख जन्‍म, मृत्‍यु, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश, अपयश- इस प्रकार प्राणियों के भिन्‍न-भिन्‍न भाव मुझसे उत्‍पन्‍न होते हैं। 


महर्षय: सप्‍त पूर्वे चत्‍वारो मनवस्‍तथा।

मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा: प्रजा:।।6।।


सप्‍तर्षि, अनेक पहले सनकादिक चार और चौदह मनु मेरे संकल्‍प से उत्‍पन्‍न हुए और उनमें से ये लोक उत्‍पन्‍न हुए हैं।  


एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्‍वत:।

सोऽविकम्‍पेन योगेन युज्‍यते नात्र संशय:।।7।।


इस मेरी विभूति और शक्ति को जो यथार्थ जानता है वह अविचल समता को पाता है, इसमें संशय नहीं है।


अहं सर्वस्‍य प्रभवो मत्त: सर्व प्रवर्तते।

इति मत्‍वा भजन्‍ते मां बुधा भावसमन्विता:।।8।।


मैं सबकी उत्‍पत्ति का कारण हूँ और सब मुझसे ही प्रवृत्त होते हैं, यह जानकर समझदार लोग भावपूर्वक मुझे भजते हैं।


मच्यित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्‍त: परस्‍परम्।

कथयन्‍तश्‍च मां नित्‍यं तुष्‍यन्ति च रमन्ति च।।9।।


मुझमें चित्त लगाने वाले, मुझे प्राणार्पण करने वाले एक-दूसरे को बोध कराते हुए, मेरा ही कीर्तन करते हुए, संतोष और आनंद में रहते हैं।


तेषां सततयुक्‍तागां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10।।


इस प्रकार मुझमें तन्‍मय रहने वालों को और मुझे प्रेम से भजने वालों को मैं ज्ञान देता हूँ और उससे वे मुझे पाते हैं।  


तेषामेवानुकम्‍पार्थमहमज्ञानजं तम:।

नाशयाम्‍यात्‍मभवरथो ज्ञानदीपेन भास्‍वता।।11।।


उन पर दया करके उनके हृदय में स्थित मैं ज्ञानरूपी प्रकाशमय दीपक से उनके अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करता हूँ।


अर्जुन उवाच

परं ब्रह्म परं धाम पवित्र परमं भवान्।

पुरुषं शाश्‍वतं दिव्‍यमादिदेवमजं विभुम।।12।।

आहुस्‍त्‍वामृषय: सर्वे देवषिनरिदस्‍तथा।

असितो देवलो व्‍यास: स्‍वयं चैव ब्रवीषि मे।।13।।


अर्जुन बोले- हे भगवान! आप परम ब्रह्म हैं, परम धाम हैं, परम पवित्र हैं। समस्‍त ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल और व्‍यास आपको अविनाशी, दिव्‍यपुरुष, आदिदेव, अजन्‍मा, ईश्‍वर रूप मानते हैं और आप स्‍वयं भी वैसा ही कहते हैं।

 

सर्वमेतद्तं मन्‍ये यन्‍मां वदसि केशव।

न हि ते भगवन्‍व्‍यक्ति विदुर्देवा न दानवा:।।14।।


हे केशव! आप जो कहते हैं उसे मैं सत्‍य मानता हूँ। हे भगवान! आपके स्‍वरूप को न देव जानते हैं न दानव।


स्‍वयमेवात्‍मनात्‍मानं वेत्थ त्‍वं पुरुषोत्तम।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्‍पते।।15।।


हे पुरुषोत्तम! हे जीवों के पिता! हे जीवेश्‍वर! हे देवों के देव! हे जगत के स्‍वामी ! आप स्‍वयं ही अपने द्वारा अपने को जानते हैं।


वक्‍तुमर्हस्‍यशेषेण   दिव्‍या ह्यात्‍मविभूतय:।

याभिर्विभूतिभिर्लो का- निमांस्‍त्‍वं व्‍याप्‍य तिष्‍ठसि।।16।।


जिन विभूतियों के द्वारा इन लोकों में आप व्‍याप रहे हैं, अपनी वह दिव्‍य विभूतियां पूरी-पूरी मुझसे आपको कहनी चाहिए।  


कथं विद्यामहं योगिंस्‍त्‍वां सदा परिचिन्‍तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्‍त्‍योऽसि भगवन्‍मया।।17।।


हे योगिन! आपका नित्‍य चिंतन करते-करते आपको मैं कैसे पहचान सकता हूं? हे भगवान! किस-किस रूप में आपका चिंतन करना चाहिए ?  


विस्‍तरेणात्‍मनो योगं विंभूति च जनार्दन।

भूय: कथय तृप्तिहिं श्रृण्‍वतो नास्ति मेऽमृतम्।।18।।


हे जनार्दन! अपनी शक्ति और अपनी विभूति का वर्णन मुझसे फिर विस्‍तारपूर्वक कीजिए। आपकी अमृतमय वाणी सुनते-सुनते तृप्ति ही नहीं होती।


श्रीभगवानुवाच हन्‍त ते कथयिष्‍यामि दिव्‍या ह्यात्‍मविभूतय:। 

प्राधान्‍यत: कुरुश्रेष्‍ठ नास्‍त्‍यन्‍तो विस्‍तरस्‍य मे।।19।। 

श्रीभगवान बोले- हे कुरुश्रेष्‍ठ! अच्‍छा, मैं अपनी मुख्‍य-मुख्‍य दिव्‍य विभूतियां तुझे कहूंगा। उनके विस्‍तार का अंत तो है ही नहीं। 

अहमात्‍मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:। 

अहमादिश्‍च मध्‍यं च भूतानामन्‍त एव च।।20।। 

हे गुडाकेश! मैं सब प्राणियों के हृदय में विद्यमान आत्मा हूँ। मैं ही भूतमात्र का आदि, मध्‍य और अंत हूँ।   आदित्‍यानामहं विंष्‍णुज्‍योंतिषां रविरंशुमान्। 

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।21।। 

आदित्‍यों में विष्‍णु मैं हूं, ज्‍योतियों में जगमगाता सूर्य मैं हूं, वायुओं में मरीचि मैं हूं, नक्षत्रों में चंद्र मैं हूँ।   

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:। 

इन्द्रियाणां मनश्‍चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।22।। 

वेदों में सामवेद मै हूं, देवों में इंद्र मैं हूं, इंद्रियों में मन मैं हूँ और प्राणियों का चेतन मैं हूँ।


रुद्राणां शंकरश्‍चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्। 

वसूनां पावकश्‍चास्मि मेरु: शिखरिणामहम्।।23।। 

रुद्रों में शंकर मैं हूं, यक्ष और राक्षसों में कुबेर मैं हूं, वसुओं में अग्नि मैं हूं, पर्वतों में मेरु मैं हूँ।   

पुरोधसां च मुख्‍यं मा विद्धि पार्थ बृहस्‍पतिम्। 

सेनानीनामहं स्‍कन्‍द: सरसामस्मि सागर:।।24।। 

हे पार्थ! पुरोहितों में प्रधान बृहस्पति मुझे समझ। सेनापतियों में कार्तिक स्‍वामी मैं हूँ और सरोवरों में सागर मैं हूँ।   

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्‍म्‍येकमक्षरम्। 

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्‍थावराणां हिमलाय:।।25।। 

महर्षियों में भृगु मैं हूं, वाणी में एकाक्षरी ॐ मैं हूं, यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ और स्‍थावारों में हिमालय मैं हूँ। 

अश्‍वत्‍य: सर्ववृक्षाणां वेदर्षीणां च नारद:। 

गन्‍धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:।।26।। 

सब वृक्षों में अश्‍वत्‍थ मैं हूं, देवर्षियों में नारद मैं हूं, गंधर्वो में चित्ररथ मैं हूँ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ।


उच्‍चै:श्रवसमश्‍वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।

ऐरावतं गजेन्‍द्राणां नराणां च नराधिपम्।।27।।


अश्‍वों में अमृत में से उत्‍पन्‍न होने वाला उच्‍चै:श्रवा मुझे जान। हाथियों में ऐरावत और मनुष्‍यों में राजा मैं हूँ।  


आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।

प्रजनश्‍चास्मि कन्‍दर्प: सर्पाणामस्मि वासुकि:।।28।।


हथियारों में वज्र मैं हूं, गायों में कामधेनु मैं हूँ प्रजा की उत्‍पत्ति का कारण कामदेव मैं हूं, सर्पों में वासुकि मैं हूँ।  


अनन्‍तश्‍चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितृ णामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्।।29।।


नागों में शेषनाग मैं हूं, जलचरों में वरुण मैं हूँ पितरों में अर्यमा मैं हूँ और दंड देनेवालों में यम मैं हूँ।  


प्रह्लादश्‍चास्मि दैत्‍यानां काल: कलयतामहम्।

मृगाणां च मृगेन्‍द्रोऽहं वैनतेयश्‍च पक्षिणाम्।।30।।


दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूं, गिनने वालो में काल मैं हूं, पशुओं में सिंह मैं हूं, पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ।


पवन: पवतामस्मि राम: शस्‍त्रभृतामहम्।

झषाणां मकरश्‍चास्मि स्‍त्रोतसामस्मि जाह्रवी।।31।।


पावन करने वाले में पवन मैं हूं, शस्‍त्रधारियों में परशुराम मै हूं, मछलियों में मगरमच्‍छ मैं हूं, नदियों में गंगा मैं हूँ।  


सर्गाणामादिरन्‍तश्‍च मध्‍यं चैवाहमर्जुन।

अध्‍त्‍यामविद्या विद्यानां वाद: प्रवदत्तामहम्।।32।।


हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि, अंत और मध्‍य मैं हूँ , विद्याओं में अध्‍याय विद्या मैं हूँ और विवाद करने वालों का विवाद मैं हूँ।


            

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्‍द्व:सामासिकस्‍य च।

अहमेवाक्षय: कलो धाताहं विश्‍वतोमुख:।।33।।


अक्षरों में 'अकार' मैं हूं, समासों में द्वन्‍द्व मैं हूं, अविनाशी काल मैं हूँ और सर्वव्‍यापी धारण करने वाला भी मैं हूँ।


मृत्‍यु: सर्वहराश्‍चाहमुद्भश्‍च भविष्‍यताम्।

कीर्ति: श्रीर्वाक्‍च नरीणां स्‍मृतिर्मेधा धृति: क्षमा।।34।।


सबको हरने वाली मृत्‍यु मैं हूं, भविष्‍य में उत्‍पन्‍न होने वाले का उत्‍पत्ति कारण मैं हूँ और नारी-जाति के नामों में कीर्ति, लक्ष्‍मी, वाणी, स्‍मृ‍ति मेधा (बुद्धि), धृति (धैर्य) और क्षमा मैं हूँ।


बृहत्‍साम तथा साम्‍नां गायत्री छन्‍दसामहम्।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर:।।35।।


सामों में बृहत् (बड़ा) साम मैं हूं, छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ। महीनों में मार्गशीर्ष मैं हूं, ऋतुओं में वसंत मै हूँ।  


द्यूतं छलयतामस्मि

तेजस्‍तजस्विनामहम्।

जयोऽस्मि व्‍यवसायोऽस्मि 

रूत्‍वं सत्‍ववतामहम्।।36।।


छल करने वाले का द्यूत मैं हूं, प्रतापी का प्रभाव मैं हूं, जय मैं हूं, निश्‍चय मैं हूं, सात्त्विक भाव वाले का सत्‍व मैं हूँ।


टिप्‍पणी- छल करने वालों का द्यूत मैं हूं, इस वचन से भड़कने की आवश्‍यकता नहीं है। यहाँ सारासार का‍ निर्णय नहीं है, किंतु जो कुछ होता है वह बिना ईश्वर की मर्जी के नहीं होता, यह बतलाया है और सब उसके अधीन है, यह जानने वाला छली भी अपना अभिमान छोड़कर छल त्‍यागे।


वृष्‍णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्‍डवानां धनंजय:।

मुनीनामप्‍यहं व्‍यास: कवीनामुशना कवि:।।37।।


वृष्णि कुल में वासुदेव मैं हूं, पांडवों में धनंजय (अर्जुन) मैं हूं, मुनियों में व्‍यास मैं हूँ और कवियों मे उशना मैं हूँ।  


दण्‍डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।38।।


शासक का दंड मैं हूं, जय चाहने वालों की नीति मैं हूं, गुह्य बातों में मौन मै हूँ और ज्ञानवान का ज्ञान मैं हूँ।

यच्‍चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्‍स्‍यान्‍मया भूतं चराचरम्।।39।।


हे अर्जुन! समस्‍त प्राणियों की उत्‍पत्ति का कारण मैं हूँ। जो कुछ स्‍थावर या जंगम है, वह मेरे बिना नहीं है।


 

नान्‍तोस्ति मम दिव्‍यानां विभूतीनां परंतप।

एष तूद्देशत: प्रोक्‍तो विभूतेविस्‍तरो मया।।40।।


हे परंतप! मेरी दिव्‍य विभूतियों का अंत नहीं है। विभूतियों का विस्‍तार मैंने केवल दृष्‍टांत रूप से बतलाया है।  


यद्यद्विभूतिमत्‍सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्‍छ त्‍वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।41।।


जो कुछ भी विभूतिमान, लक्ष्‍मीवान या प्रभावशाली है, उस-उसको मेरे तेज के अंश से ही हुआ समझ।  


अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्‍टभ्‍याहमिदं कृत्‍स्‍नमेकांशेन स्थितो जगत्।।42।।


अथवा हे अर्जुन! यह विस्‍तारपूर्वक जानकर तुझे क्‍या करना है। अपने एक अंशमात्र से इस समूचे जगत को धारण करके मैं विद्यमान हूँ। 




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