विश्‍वरूपदर्शनयोग

  


इस अध्‍याय में भगवान अपना विराट स्‍वरूप अर्जुन को बतलाते हैं। भक्‍तों को यह अध्‍याय बहुत प्रिय है। इसमें दलीलें नहीं बल्कि केवल काव्‍य है। इस अध्‍याय का पाठ करते-करते मनुष्‍य थकता ही नहीं।   

अर्जुन उवाच 

मदनुग्रहाय परमं ग्रह्यमध्‍यात्‍मसंज्ञितम्। 

यत्‍वयोक्‍तं वचस्‍तेन मोहोऽयं विगतो मम।।1।। 

अर्जुन बोले- आपने मुझ पर कृपा करके यह आध्‍यात्मिक परम रहस्‍य कहा है। आपके मुझसे कहे हुए इन वचनों से मेरा यह मोह टल गया है। 

भवाप्‍ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्‍तारशो मया। 

त्‍वत्त: कमलपत्राक्ष महात्‍म्‍यमपि चाव्‍ययम्।।2।। 

प्राणियों की उत्‍पत्ति और नाश के संबंध में आपसे मैंने विस्‍तारपूर्वक सुना। हे कमलपत्राक्ष, उसी प्रकार आपका अविनाशी महात्‍म्‍य भी सुना। 

एवमेतद्ययात्‍थ त्‍वमात्‍मनं परमेश्‍वर। 

द्रष्‍टुमिचछामि ते रूपमैश्‍वरं पुरुषोत्तम।।3।। 

हे परमेश्वर! आप जैसा अपने को पहचान वाते हैं वैसे ही हैं। हे पुरुषोत्तम! आपके उस ईश्वरी रूप के दर्शन करने की मुझे इच्‍छा होती है।   

मन्‍यसे यदि तच्‍छक्‍यं मया द्रष्‍टुमिति प्रभो। 

योगेश्‍वर ततो मे त्‍वं दर्शयात्‍मानमव्‍ययम्।।4।। 

हे प्रभो! वह दर्शन करना मेरे लिए संभव मानते हैं तो हे योगेश्‍वर! उस अव्‍यय रूप का दर्शन कराइए।


श्री भगवानुवाच

पश्‍य मे पार्थ रूपाणि शताशोऽथ सहस्‍त्रश:।

नानाविधानि दिव्‍यानि नानावर्णाकृतीनि च।।5।।


श्रीभगवान बोले- हे पार्थ! मेरे सैकड़ों और हजारों रूप देख। वे नाना प्रकार के दिव्‍य, भिन्‍न-भिन्‍न रंग और आकृति वाले हैं।  


पश्‍यादित्‍यान्‍वसून्‍रुद्रानश्विनौ मरुतस्‍तथा।

बहून्‍यदृष्‍टपूर्वाणि पश्‍याश्‍चर्याणि भारत।।6।।


हे भारत! आदित्‍यों, वसुओं, रुद्रों, दो अश्विनीकुमारों और मरुतों को देख। पहले न देखे गये, ऐसे बहुत-से आश्‍चर्यों को तू देख।


इहैकस्‍थं जगत्‍कृत्‍स्‍नं पश्‍याद्य सचराचरम्।

मम देहे गुडाकेश यच्‍चान्‍द्द्रष्‍टुमिच्‍छसि।।7।।


हे गुडाकेश! यहाँ मेरे शरीर में एक रूप से स्थित समूचा स्‍थावर और जंगम जगत तथा और जो कुछ तू देखना चाहता हो वह आज देख।  


न तु मां शक्‍यसे द्रष्‍टुमनेनैव स्‍वचक्षुषा।

दिव्‍यं ददामिते चक्षु: पश्‍य मे योगमैश्‍वरम्।।8।।


इन अपने चमचक्षुओं से तू मुझे देख नहीं सकता। तुझे मैं दिव्‍य चक्षु देता हूँ। तू मेरा ईश्वरीय योग देख।


संजय उवाच

एवमुक्‍त्‍वा ततो राजन्‍महायोगेश्‍वरो हरि:।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्‍वम्।।9।।


संजय ने कहा- हे राजन! योगेश्‍वर कृष्‍ण ने ऐसा कहकर पार्थ को अपना परम ईश्‍वरीय रूप दिखलाया।


अनेकवक्‍त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।

अनेकदिव्‍याभरणं दिव्‍यानेकोद्यतायुधम्।।10।।


वह अनेक मुख और आंखों वाला, अनेक अद्भुत दर्शन वाला, अनेक दिव्‍य आभूषण वाला और अनेक उठाये हुए दिव्‍य शस्‍त्रों वाला था।  


दिव्‍यमाल्‍याम्‍बरधरं दिव्‍यगन्‍धानुलेपनम्।

सर्वाश्‍चर्यमयं देवमनन्‍तं विश्‍वतोमुखम्।।11।।


उसने अनेक दिव्‍य मालाएं और वस्‍त्र धारण कर रखे थे, उसके दिव्‍य सुगंधित लेप लगे हुए थे। ऐसा वह सर्वप्रकार से आश्‍चर्यमय, अनंत, सर्वव्‍यापी देव था।


दिवि सूर्यसहस्‍त्रस्‍य भवेद्युगपदुत्थिता।

यदि भा: सदृशी सा स्‍याद्भासस्‍तस्‍य महात्‍मन:।।12।।


आकाश में हजार सूर्यों का तेज एक साथ प्रकाशित हो उठे तो वह तेज उस महात्‍मा के तेज-जैसा कदाचित हो।


तत्रैकस्‍थं जगतंकृत्‍स्‍नं प्रविभक्‍तमनेकधा।

अपश्‍यद्देवदेवस्‍य शरीरे पाण्‍डवस्‍तदा।।13।।


वहाँ इस देवाधिदेव के शरीर में पांडव ने अनेक प्रकार से विभक्‍त हुआ समूचा जगत एक रूप में विद्यमान देखा।


तत: स विस्‍मयाविष्‍टो हृष्‍टरोमा धनंजय:।

प्रणम्‍य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।14।।


फिर आश्‍चर्यचकित और रोमांचित हुए धनंजय सिर झुका, हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-


 

अर्जुन उवाच

पश्‍यामि देवांस्‍तव देव देहे।

सर्वा‍स्‍तथा भूतविशेषसंघान्।

ब्रह्माणमीशं कमलासनस्‍थ-

मूर्षीश्‍च सर्वानुरगांश्‍च दिव्‍यान्।।15।।


अर्जुन बोले-  हे देव! आपकी देह में मैं देवताओं को, भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के सब प्राणियों के समुदायों को, कमलासन पर विराजमान ईश ब्रह्मा को, सब ऋषियों को और दिव्‍य सर्पों को देखता हूँ।  


 

अनेकबाहूदरवक्‍त्रनेत्रं 

पश्‍यामि त्‍वां सर्वतोऽनन्‍तरूपम्।

नान्‍तं न मध्‍यं न पुनस्‍तवादिं

पश्‍यामि विश्‍वेश्‍वर विश्‍वरूप।।16।।


आपको मैं अनेक हाथ, उदर, मुख और नेत्रयुक्‍त अनंत रूपवाला देखता हूँ। आपका अंत नहीं है, न मध्‍य न आपका आदि है। विश्‍वेश्‍वर! आपके विश्‍व रूप का मैं दर्शन कर रहा हूँ।


किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च

तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्‍तम्।

पश्‍यामि त्‍वां दुनिंरीक्ष्‍यं समन्‍ता-

द्दीप्‍तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।17।।


मुकुटधारी, गदाधारी, चक्रधारी, तेज के पुंज, सर्वत्र जगमगाती ज्‍योति वाले, साथ ही कठिनाई से दिखाई देने वाले, अपरिमित और प्रज्‍वलित अग्नि किंवा सूर्य के समान भी दिशाओं में देदीप्‍यमान आपको मैं देख रहा हूँ।


त्‍वमक्षरं परमं वेदित्‍व्‍यं 

त्‍वमस्‍य विश्‍वस्‍य परं निधानम्।

त्‍वमव्‍यय: शाश्‍वतधर्मगोप्‍ता 

सनातनस्‍त्‍वं पुरुषो मतो मे।।18।।


आपको मैं जानने योग्‍य परम अक्षररूप, इस जगत का अंतिम आधार, सनातन धर्म का अविनाशी रक्षक और सनातन पुरुष मानता हूँ।  


अनादिमध्‍यान्‍तमनन्‍तवीर्य-

मनन्‍तबाहुं शशिसूर्य नेत्रम्।

पश्‍यामि त्‍वां दीप्‍तहुताशवक्‍त्रं 

स्‍वतेजसा विश्‍वमिदं तपन्‍तम्।।19।।


जिसका आदि, मध्‍य या अंत नहीं है, जिसकी शक्ति अनंत है, जिसके अनंत बाहु हैं, जिसके सूर्य-चंद्ररूपी नेत्र हैं, जिसका मुख प्रज्‍वलित अग्नि के समान है और जो अपने तेज से इस जगत को तपा रहा है, ऐसे आपको मैं देख रहा हूँ।  


द्यावापृथिव्‍योरिदमन्‍तरं हि

व्‍याप्‍तं त्‍वयैकेन दिशश्‍च सर्वा:।

दृष्‍ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं

लोकत्रयं प्रव्‍यथितं महात्‍मन्।।20।।


आकाश और पृथ्‍वी के बीच के इस अंतर में और समस्‍त दिशाओं में आप ही अकेले व्याप्त हो रहे हैं। हे महात्मन! यह आपका अद्भुत उग्र रूप देख कर तीनों लोक थरथराते हैं।


अमी हित्वां सुरसंघा विशन्ति 

केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणंति ।

स्वस्तीत्युक्त्वा मह्रर्षिसिद्ध् संघा:

स्तुवंति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि: ॥21॥


और यह देवों का संघ आपमें प्रवेश कर रहा है। भयभीत हुए कितने ही हाथ जोड़कर आपका स्तवन कर रहे हैं। महर्षि और सिद्धों का समुदाय 'जगत का कल्याण हो' कहता हुआ अनेक प्रकार से आपका यश गा रहा है।


रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या 

विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चीष्मपाश्च। 

गंधर्वयक्षासुर सिद्धसंघा 

वीक्षंते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥22॥


रुद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुत, गरम ही पीने वाले पितर, गंधर्व, यक्ष, असुर, और सिद्धों का संघ ये सभी विस्मित होकर आपको निरख रहे हैं।


रूपं महत्ते बहवक्त्रनेत्रं 

महाबाहो बहुबाऊरुपादम्‌ ।

बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं 

दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्‌ ॥23॥


हे महाबाहो! बहुत मुख और आंखों वाला, बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाला, बहुत पेटो वाला और बहुत दाढ़ों के कारण विकराल दीखने वाला विशाल रूप देखकर लोग व्याकुल हो गये हैं। वेसे मैं भी व्याकुल हो उठा हूँ।


नभ:स्पृशं दीप्त्मनेकवर्णं 

व्यात्ताननं दीप्त्विशाल्नेत्रं ।

दृष्ट्‌वा हित्वां प्रव्यथितांतरात्मा 

धृतिं न विंदामि शमं च विष्णो ॥24॥


आकाश का स्पर्श करते, जगमगाते, अनेक रंग वाले, खुले मुख वाले और विशाल तेजस्वी नेत्र वाले,आपको देखकर, हे विष्णु! मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है और मैं धैर्य या शांति नहीं रख सकता।


दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि 

दृष्ट्‌वैव कालानलसन्निभानि ।

दिशो न जाने न लभे च शर्म 

प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥25॥


प्रलयकाल के अग्नि के समान और विकराल दाढ़ों वाला आपका मुख देखकर न मुझे दिशाएं जान पड़ती हैं, न शांति मिलतीहै। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइए।


अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्र: 

सर्वे सहैवावनिपालसंघै: ।

भीष्मो द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ

सहासम्दीयैरपि योधमुख्यै: ॥26॥


वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशंति 

दृंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।

कैचिद्विलग्ना दशनांतरेषु

संदृश्यंते चूर्णितैरुत्तङ्गै: ॥27॥


सब राजाओं के संघ सहित, धृतराष्ट्र के ये पुत्र, भीष्म, द्रोणाचार्य, यह सूतपुत्र कर्ण और हमारे मुख्य योद्धा, विकराल दाढ़ों वाले आपके भयानक मुख में वेगपूर्वक प्रवेश कर रहै हैं। कितनों के ही सिर चूर होकर आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखाई देते हैं।


यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा: 

समुद्र्मेवाभिमुखा द्रवंति ।

तथा तवामी नरलोकवीरा 

विशंति वक्त्राण्यभिविज्वल्न्त ॥28॥


यथा प्रदीप्‍तं ज्‍वलनं पतंगा।

विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा:।

तथैव नाशाय विशन्ति लोका-

स्‍तवापि वक्‍त्राणि समृद्धवेगा:।।29।।


जलते हुए दीपक में जैसे पतंग बढ़ते हुए वेग से पड़ते हैं, वैसे ही आपके मुख में भी सब लोग बढ़ते हुए वेग से प्रवेश कर रहे हैं।


लेलिह्य से ग्रसमान: समन्‍ता-

ल्‍लोकान्‍समग्रान्‍वदनैर्ज्‍वलद्भि:।

तेजोभिरापूर्य जगत्‍समग्रं 

भासस्‍ततवोग्रा: प्रतपन्ति विष्‍णो।।30।।


सब लोकों को सब ओर से निगलकर आप अपने धधकते हुए मुख से चाट रहे हैं। हे सर्वव्‍यापी विष्‍णु! आपका उग्र प्रकाश समूचे जगत का तेज से पूरित कर रहा है और तपा रहा है।


आख्‍याहि मे को भवानुग्ररूपो 

नमोऽस्‍तु ते देववर प्रसीद।

विज्ञातुमिच्‍छामि भवन्‍तमाद्यं 

न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।31।।


उग्ररूप आप कौन हैं सो मुझसे कहिए। हे देववर! आप प्रसन्‍न होइए। आप जो आदि कारण हैं उन्‍हे मैं जानना चाहता हूँ। आपकी प्रवृत्ति मैं नहीं जानता।  


श्रीभगवानुवाच 

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्‍प्रवृद्धो

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।

ऋतेऽपि त्‍वां न भविष्‍यन्ति सर्वे

येऽवस्थिता: प्रत्‍यनीकेषु योधा:।।32।।


श्री भगवान बोले- लोकों का नाश करने वाला, बढ़ा हुआ मैं काल हूँ। लोकों का नाश करने के लिए यहाँ आया हूँ। प्रत्‍येक सेना में जो ये सब योद्धा आये हुए हैं उनमें से कोई तेरे लड़ने से इन्कार करने पर भी बचने वाला नहीं है।


तस्‍मात्‍वमुत्ष्ठि यशो लभस्‍व 

जित्‍वा शत्रून्‍भुङ्‌क्ष्‍व राज्‍यं समृद्धम्‌।

मयैवैते निहता: पूर्वमेव

निमित्तमात्रं भव सव्‍यसाचिन्।।33।।


इसलिए तू उठ खड़ा हो, कीर्ति प्राप्‍त कर, शत्रु को जीतकर धन-धान्‍य से भरा हुआ राज्‍य भोग। इन्‍हें मैंने पहले से ही मार रखा है। हे सव्‍यसाची! तू तो केवल निमित्त रूप बन।  


द्रोणं च भीष्‍मं च जयद्रथ च 

कर्ण तथान्‍यानपि योधवीरान्।

मया हतांस्‍त्‍वं जहि मा व्‍यथिष्‍ठा 

युध्‍यस्‍व जेतासि रणे सपत्‍नान्।।34।।


द्रोण, भीष्‍म, जयद्रथ, कर्ण और अन्‍यान्‍य योद्धाओं को मैं मार ही चुका हूँ। उन्‍हें तू मार। डर मत, लड़। शत्रु को तू रण में जीतने को है।


संजय उवाच

एतच्‍छुत्‍वा वचनं केशवस्‍य 

कृताञ्जलिर्वेपमान: किरीटी।

नमस्‍कृत्‍वा भूय एवाह कृष्‍णं 

सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्‍य।।35।।


संजय ने कहा- केशव के ये वचन सुनकर हाथ जोडे़, कांपते, बारंबार नमस्‍कार करते हुए, डरते-डरते प्रणाम करके मुकुटधारी अर्जुन श्रीकृष्‍ण से गद्-गद् कंठ से इस प्रकार बोले-


अर्जुन उवाच

स्‍थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्‍या

जगत्‍प्रहृष्‍यत्‍यनुरज्‍यते च।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति 

सर्वे नमस्‍यन्ति च सिद्धसंधा:।।36।।


अर्जुन बोले- हे हृषीकेश! आपका कीर्तन करके जगत को जो हर्ष होता है और आपके लिए जो अनुराग उत्‍पन्‍न होता है वह उचित्त ही है। भयभीत राक्षस इधर-उधर भाग रहे हैं और सिद्धों का सारा समुदाय आपको नमस्‍कार कर रहा है।


कस्‍माच्‍च ते न नमेरन्‍महात्‍मन् 

गरीयसे ब्रह्मणोऽप्‍यादिकर्त्रे।

अनन्‍त देवेश जगन्निवास 

त्‍वमक्षरं सदसत्तत्‍परं यत्।।37।।


हे महात्‍मन्! ये आपको क्‍यों नमस्‍कार न करें? आप ब्रह्मा से भी बड़े आदिकर्ता हैं। हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास! आप अक्षर हैं, असत हैं और इससे जो परे है वह भी आप ही हैं।  


त्‍वमादिदेव: पुरुष: पुराण-

स्‍त्‍वमस्‍य विश्‍वस्‍य परं निधानम्।

वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम

त्‍वया ततं विश्‍वमनन्‍तरूप।।38।।


आप आदि देव हैं। आप पुराण-पुरुष हैं। आप इस विश्‍व के परम आश्रय स्‍थान हैं। आप जानने वाले हैं और जानने योग्‍य हैं। आप परमधाम हैं। हे अनंतरूप! इस जगत में आप व्‍याप्‍त हो रहे हैं।  


वायुर्षमोऽग्निर्वरुण: शशाक:

प्रजापतिस्‍त्‍वं प्रपितामहश्‍च।

नमो नमस्‍तेऽस्‍तु सहस्‍त्रकृत्‍व: 

पुनश्‍च भूयोऽपित नमो नमस्‍ते।।39।।


वायु, यम, अग्नि, वरुण,चंद्र, प्रजापति, प्रपितामह आप ही हैं। आपको हजारों बार नमस्‍कार पहुँचे और फिर-फिर आपको नमस्‍कार पहुँचे।  


नम: पुरस्‍तादथ पृष्‍ठतस्‍ते 

नमोऽस्‍तु ते सर्वत एव सर्व।

अनन्‍तवीर्यामितविक्रमस्‍त्‍वं

सर्व समाप्‍नोषि ततोऽसि सर्व:।।40।।


हे सर्व! आपको आगे, पीछे, सब ओर से नमस्‍कार है। आपका वीर्य अनंत है, आपकी शक्ति अपार है, सब आप ही धारण करते हैं, इसलिए आप सर्व हैं।


सखेति मत्‍वा प्रसभं यदुक्‍तं 

हे कृष्‍ण हे यादव हे सखेति।

अजानता महिमानं तवेदं

मया प्रमादात्‍प्रणयेन वापि।।41।।

यच्‍चावहासार्थमसत्‍कृतोऽसि 

विहारशय्यासनभोजनेषु।

एकोऽथवाप्‍यच्‍युत तत्‍समक्षं 

तत्‍क्षामये त्‍वामहमप्रमेयम्।।42।।


मित्र जानकर और आपकी यह महिमा न जानकर, ʻहे कृष्‍ण!̕ʻ हे यादव!̕ʻ हे सखा!̕ इस प्रकार संबोधन कर मुझसे भूल में या प्रेम में भी जो अविवेक हुआ हो और विनोदार्थ खेलते, सोते, बैठते या खाते अर्थात सोहबत में आपका जो कुछ अपमान हुआ हो उसे क्षमा करने के लिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ।


पितासि लोकस्‍य चराचरस्‍य 

त्‍वमस्‍य पूज्‍यश्‍च गुरुर्गरीयान्।

न त्‍वत्‍समोऽस्‍त्‍यभ्‍यधिक: कुतोऽन्‍यो 

लोकत्रयेऽप्‍यप्रतिमप्रभाव।।43।।


स्‍थावर-जंगम जगत के आप पिता हैं। आप उसके पूज्‍य और श्रेष्‍ठ गुरु हैं। आपके समान कोई नहीं है तो आपसे अधिक तो कहाँ से हो सकता है? तीनों लोक में आपके सामर्थ्‍य का जोड़ नहीं है।  


तस्‍मात्‍प्रणम्‍य प्रणिधाय कायं

प्रसादये त्‍वामहमीशमीड्यम्।

पितेव पुत्रस्‍य सखेव सख्‍यु:

प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढ्म।।44।।


इसलिए साष्‍टांग नमस्‍कार करके आपसे, पूज्‍य ईश्वर से प्रसन्‍न होने की प्रार्थना करता हूँ। हे देव! जिस तरह पिता पुत्र को, सखा को सहन करता है वैसे आप मेरे प्रिय होने के कारण मेरे कल्‍याण के लिए मुझे सहन करने योग्‍य हैं।


अदृष्‍टपूर्व हषितोऽस्मि दृष्‍ट्वा 

भयेन च प्रव्‍यथितं मनो मे।

तदेप मे दर्शय देव रूपं

प्रसीद देवेश जगन्निवास।।45।।


पहले न देखा हुआ आपका ऐसा रूप देखकर मेरे रोएं खड़े हो गए हैं और भय से मेरा मन व्‍याकुल हो गया है। इ‍सलिए, हे देव! अपना पहले का रूप दिखलाइए। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्‍न होइए।  


किरीटिनं गदिनं चक्रहस्‍त-

मिच्‍छामि त्‍वां द्रष्‍टुमहं तथैव।

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन 

सहस्‍त्रबाहो भव विश्‍वमूर्ते।।46।।


पूर्व की भाँति आपका- मुकुट, गदा चक्रधारी का दर्शन करना चाहता हूं! हे सहस्‍त्रबाहु! हे विश्‍वमूर्ति! अपना चतुर्भुज रूप धारण कीजिए।  


श्रीभगवानुवाच

मया प्रसन्‍नेन तदार्जुनेदं

रूपं परं दशितमात्‍मयोगात्।

तेजोमयं विश्‍वमन्‍तमाद्यं 

यन्‍मे त्‍वदन्‍येन न द्ष्‍टपूर्वम्।।47।।


श्री भगवान बोले-  हे अर्जुन! तुझ पर प्रसन्‍न होकर तुझे मैने अपनी शक्ति से अपना तेजोमय, विश्‍वव्‍यापी, अनंत, परम, आदि रूप दिखाया है। यह तेरे सिवा और किसी ने पहले नहीं देखा है।  


न वेदयज्ञाध्‍ययनैर्न दानै-

र्न च क्रियाभिनं तपोभिरूग्रै:।

एवंरूप: शक्‍य अहं नृलोके 

द्रष्‍टुं त्‍वदन्‍येन कुरुप्रवीर।।48।।


हे कुरुप्रवीर! वेदाभ्‍यास से, यज्ञ से, अन्‍यान्‍य शास्‍त्रों के अध्‍ययन से, दान से, क्रियाओं से या उग्र तपों से तेरे सिवा दूसरा कोई यह मेरा रूप देखने में समर्थ नहीं है।


मा ते व्‍यथा मा च विमूढभावो 

दृष्‍ट्वा रूपं घोरमीदृड् ममेदम्।

व्‍यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्‍त्‍वं 

तदेव मे रूपमिदं प्रपश्‍य।।49।।


यह मेरा विकराल रूप देखकर तू घबरा मत, मोह में मत पड़। डर छोड़कर शांति चित्त हो और यह मेरा परिचित रूप फिर देख।  


संजय उवाच

इत्‍यर्जुनं वासुदेवस्‍तथोक्‍त्‍वा 

स्‍वकं रूपं दर्शयामास भूय:।

आश्‍वासयामास च भीतमेनं 

भूत्‍वा पुन: सौम्यवपुर्महात्‍मा।।50।।


संजय ने कहा-  यों वासुदेव ने अर्जुन से कहकर अपना रूप फिर दिखाया और फिर शांत मूर्ति धारण करके भयभीत अर्जुन को उस महात्‍मा ने आश्‍वासन दिया।


अर्जुन उवाच 

दृष्‍ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्‍यं जनार्दन।

इदानीमस्मि संवृत्त: सचेता: प्रकृतिं गत:।।51।।


अर्जुन बोले-  हे जनार्दन! यह आपका सौम्‍य मानव स्‍वरूप देखकर अब मैं शांत हुआ हूँ और ठिकाने आ गया हूँ।


श्रीभगवानुवाच

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्‍टवानसि यन्‍मम।

देवा अप्‍यस्‍य रूपस्‍य नित्‍यं दर्शनकाड्क्षिण:।।52।।


श्रीभगवान बोले-  मेरा जो रूप तूने देखा उसके दर्शन बहुत दुर्लभ हैं। देवता भी वह रूप देखने को तरसते रहते हैं।

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्‍यया।

शक्‍य एवंविधो द्रष्‍टृं दृष्‍टवानसि मां यथा।।53।।


जो मेरे दर्शन तूने किये हैं वह दर्शन न वेद से, न तप से, न दान से अथवा न यज्ञ से हो सकते हैं।  


भवक्‍या त्‍वनन्‍यया शक्‍य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्‍टुं च तत्‍वेन प्रवेष्‍टुं च परंतप।।54।।


परंतु हे अर्जुन! हे परंतप! मेरे संबंध में ऐसा ज्ञान, ऐसे मेरे दर्शन और मुझमें वास्‍तविक प्रवेश केवल अनन्‍य भक्ति से ही संभव है।  


मत्‍कर्षकृन्‍मत्‍परमो मद्भक्‍त: सङ्‌गवर्जित:।

निर्वेर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्‍डव।।55।।


हे पांडव! जो सब कर्म मुझे समर्पण करता है, मुझे में परायण रहता है, मेरा भक्त बनता है, आसक्ति का त्‍याग करता है और प्राणीमात्र में द्वेष-रहित होकर रहता है, वह मुझे पाता है।



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