भक्तियोग

  


पुरुषोत्तम के दर्शन अनन्‍य भक्ति से ही होते हैं, भगवान के इस वचन के बाद तो भक्ति का स्‍वरूप ही सामने आना चाहिए। गीता का यह बारहवां अध्‍याय सबको कंठ कर लेना चाहिए। यह छोटे-से-छोटे अध्‍यायों में एक है। इस में दिए हुए भक्त के लक्षण नित्‍य मनन करने योग्‍य हैं।   

अर्जुन उवाच एवं सततयुक्‍ता ये भक्‍तास्‍त्‍वां पर्युपासते। 

ये चाप्‍यक्षरमव्‍यक्‍तं तेषां के योगवित्तमा:।।1।। 

अर्जुन बोले- इस प्रकार जो भक्त आपका निरंतर ध्‍यान धरते हुए आपकी उपासना करते हैं और जो आपके अविनाशी अव्‍यक्‍त स्‍वरूप का ध्‍यान धरते हैं, उनमें से कौन योगी श्रेष्‍ठ माना जायगा ? 

श्रीभगवानुवाच मय्यावेश्य मनो ये मां नित्‍ययुक्‍ता उपासते। 

श्रद्धया परयोपेतास्‍ते में युक्‍ततमा मता:।।2।। 

श्रीभगवान बोले- नित्‍य ध्‍यान करते हुए, मुझमें मन लगाकर जो श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना करता है उसे मैं श्रेष्‍ठ योगी मानता हूँ।    

ये त्‍वक्षरमनिर्देश्‍यमव्‍यक्‍तं पर्युपासते। 

सर्वत्रगमचिन्‍त्‍यं च कूटस्‍थमचलं ध्रुवम्।।3।। 

संनियम्‍येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:। 

ते प्राप्‍नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।।4।। 

सब इंद्रियों को वश में रखकर, सर्वत्र समत्‍व का पालन करके जो दृढ़ अचल, धीर, अचिंत्‍य, सर्वव्‍यापी, अव्‍यक्‍त, अवर्णनीय, अविनाशी स्‍वरूप की उपासना करते हैं, वे सारे प्राणियों के हित में लगे हुए मुझे ही पाते हैं।


कलेशोऽधिकतरस्‍तेषामव्‍यक्‍तासक्‍तचेतसाम्।

अव्‍यक्‍त हि गति र्दु:खं देहवद्भिरवाप्‍यते।।5।।


जिनका चित्त अव्‍यक्‍त में लगा हुआ है उन्‍हें कष्‍ट अधिक है। अव्‍यक्‍त गति को देहधारी कष्‍ट से ही पा सकता है।


टिप्‍पणी- देहधारी मनुष्‍य अमूर्त स्‍वरूप की केवल कल्‍पना ही कर सकता है, पर उसके पास अमूर्त स्‍वरूप के लिए एक भी निश्‍चयात्‍मक शब्‍द नहीं है, इ‍सलिए उसे निषेधात्‍मक ʻनेतिवाचक ' शब्‍द से संतोष करना ठहरा। इस दृष्टि से मूर्ति-पूजा का निषेध करने वाले भी सूक्ष्‍म रीति से विचारा जाय तो मूर्ति-पूजक ही होते हैं। पुस्‍तक की पूजा करना, ये सभी साकार पूजा के लक्षण हैं। तथापि साकार के उस पार निराकार अचिंत्‍य स्‍वरूप है, इतना तो सबके समझ लेने में ही निस्‍तार है। भक्ति की पराकाष्‍ठा यह है कि भक्त भगवान में विलीन हो जाय और अंत में केवल एक अद्वितीय अरूपी भगवान ही रह जाय। पर इस स्थिति को साकार द्वारा सुलभता से पहुँचा जा सकता है, इसलिए निराकार को सीधे पहुँचने का मार्ग कष्‍टसाध्‍य बतलाया है।


ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्‍य मत्‍परा:।

अनन्‍येनैव योगेन मां ध्‍यायन्‍त उपासते।।6।।

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्‍युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्‍पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।7।।


परंतु हे पार्थ! जो मुझमें परायण रहकर, सब कर्म मुझे समर्पण करके, एक निष्‍ठा से मेरा ध्‍यान धरते हुए मेरी उपासना करते हैं और मुझमें जिनका चित्त पिराया हुआ है उन्‍हें मृत्‍युरूपी संसार-सागर से मैं झटपट पार कर लेता हूं  


मय्येव मन आधत्‍स्‍व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्‍यसि मय्येव अत ऊर्ध्‍व न संशय:।।8।।


अपना मन मुझमें लगा, अपनी बुद्धि मुझमें रख, इससे इस जन्‍म के बाद नि:संशय मुझे ही पावेगा।


अथ चित्तं समाधातुं न शक्‍नोशि मयि स्थिरम्।

अभ्‍यासयोगेन ततो मामिच्‍छाप्‍तुं धनंजय।।9।।


जो तू मुझमें अपना मन स्थिर करने में असमर्थ हो तो, हे धनंजय! अभ्‍यास-योग द्वारा मुझे पाने की इच्‍छा रखना।  


अभ्‍यासेऽप्‍यसमर्थोऽसि मत्‍कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवास्‍यसि।।10।।


ऐसा अभ्‍यास रखने में भी तू असमर्थ हो तो कर्म मात्र मुझे अर्पण कर और इस प्रकार मेरे निमित्त कर्म करते-करते भी तू मोक्ष पावेगा।  


अथैतदप्‍यशक्‍तोऽसि कर्तं मद्योगमाश्रित:।

सर्वकर्मफलत्‍यागं तत: कुरु यतात्‍मवान्।।11।।


और जो मेरे निमित्त कर्म करने भर की तेरी शक्ति न हो यो यत्‍नपूर्वक सब कर्मों के फल का त्‍याग कर।


श्रेयो हि ज्ञानमभ्‍यासा-

ज्‍ज्ञानाद्ध्‍यानं विशिष्‍यते

ध्यानात्कर्मफलत्याग-

स्‍त्‍यागाच्‍छान्तिरनन्‍तरम्।।12।।


अभ्‍यास-मार्ग से ज्ञान मार्ग श्रेयस्‍कर है। ज्ञान-मार्ग से ध्‍यान-मार्ग विशेष है और ध्‍यान-मार्ग से कर्म फल त्‍याग श्रेष्‍ठ है, क्‍योंकि इस त्‍याग के अंत में तुरंत शांति ही होती है।


टिप्‍पणी- अभ्‍यास अर्थात चित्त-वृत्ति-निरोध की साधना, ज्ञान अर्थात श्रवण-मननादि, ध्‍यान अर्थात उपासना। इनके फलस्‍वरूप यदि कर्म-फल-त्‍याग न दिखाई दे तो वह अभ्‍यास अभ्‍यास नहीं है, ज्ञान ज्ञान नहीं है और ध्‍यान ध्‍यान नहीं है।


अद्वेष्‍टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च। 

निर्ममो निरहंकार: समदु:ससुख: क्षमी।।13।। 

संतुष्‍ट: सततं योगी यतात्‍मा दृढ़निश्‍चय:। 

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्‍त: स में प्रिय:।।14।। 

जो प्राणी मात्र के प्रति द्वेष रहित, सबका मित्र दयावान, ममता रहित, अहंकार रहित, सुख-दु:ख में समान, क्षमावान, सदा संतोषी, योगयुक्‍त, इंद्रिय निग्रही और दृढ़निश्‍चयी है और मुझमें जिसने अपनी बुद्धि और मन अर्पण कर दिया है, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है।   

यस्‍मान्‍नोद्विजते लोको लोकान्‍नोद्विजते च य:। 

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्‍तो य: स च में प्रिय:।।15।। 

जिससे लोग उद्वेग नहीं पाते, जो लोगों से उद्वेग नहीं पाता, जो हर्ष, क्रोध, ईर्ष्‍या, भय, उद्वेग से मुक्‍त है, वह मुझे प्रिय है।   

अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्‍यथ:। 

सर्वारम्‍भपरित्‍यागी यो मद्भक्‍त: स मे प्रिय:।।16।। 

जो इच्‍छा रहित है, पवित्र है, दक्ष है, तटस्‍थ चिंता-रहित है, संकल्‍प मात्र का जिसने त्‍याग किया है वह मेरा भक्‍त है, वह मुझे प्रिय है।


यो न हृष्‍यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‌क्षति।

शुभाशुभपरित्‍यागी भक्तिमान्‍य: स मे प्रिय:।।17।।


जिसे हर्ष नहीं होता, जो द्वेष नहीं करता, जो चिंता नहीं करता, जो आशाएं नहीं बांधता, जो शुभाशुभ का त्‍याग करने वाला है, वह भक्तिपरायण मुझे प्रिय है।


सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।

शीतोष्‍णसुखदु:खेषु सम: सगंविवर्जित:।।18।।

तुल्‍यनिन्‍दास्‍तुतिमौंनी संतुष्‍टो येन केनचित्।

अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्‍मे प्रियो नर:।।19।।


शत्रु-मित्र,मान-अपमान, शीत-उष्‍ण, सुख-दु:ख - इन सब में जो समतावान है, जिसने आसक्ति छोड़ दी है, जो निंदा और स्‍तुति में समान भाव से बर्तता है और मौन धारण करता है, चाहे जो मिले उससे जिसे संतोष है, जिसका कोई अपना निजी स्‍थान नहीं है, जो स्थिर चित्त वाला है, ऐसा मुनि भक्त मुझे प्रिय है।  


ये तु धर्म्‍यामृतमिदं यथोक्‍तं पर्युपासते।

श्रद्दधाना मत्‍परमा भक्‍तास्‍तेऽतीव मे प्रिया:।।20।।


यह पवित्र अमृत रूप ज्ञान जो मुझमें परायण रहकर श्रद्धा-पूर्वक सेवन करते हैं वे मेरे अतिशय प्रिय भक्त हैं। 


यह भक्तियोग है। विवाह के अवसर पर दंपती को पांच यज्ञों में इसे भी एक यज्ञ रूप से कंठ करके मनन करने को हम कहते हैं। भक्ति के बिना तथा कर्म शुष्‍क हैं और उनके बंधन रूप हो जाने की संभावना है। इसलिए भक्ति-भाव से गीता का यह मनन आरंभ करना चाहिए। अर्जुन ने भगवान से पूछा - साकार और निराकार को पूजने वाले भक्‍तों में अधिक श्रेष्‍ठ कौन है? भगवान ने उत्तर दिया - जो मेरे साकार रूप का श्रद्धा- पूर्वक मनन करते हैं, उसमें लीन होते हैं, वे श्रद्धालु मेरे भक्‍त हैं, पर जो निराकार तत्‍व का भजते हैं और उसे भजने के लिए समस्‍त इंद्रियों का संयम करते हैं, सब जीवों के प्रति समभाव रखते हैं, उनकी सेवा करते है, किसी को ऊँच-नीच नहीं गिनते, वे भी मुझे पाते हैं। इसलिए यह नहीं कह सकते कि दोनों में अमुक श्रेष्‍ठ है, पर निराकर की भक्ति शरीरधारी द्वारा संपूर्ण रूप से होना अशक्‍त माना जाता है, निराकार निर्गुण है, अत: मनुष्‍य की कल्‍पना से परे है। इसलिए सब देहधारी जाने-अनजाने साकार के ही भक्‍त हैं। सो तू तो मेरे साकार विश्‍व रूप में ही अपना मन पिरो। सब उसे सौंप दें। पर यह न कर सकता हो तो चित्त के विकारों को रोकने का अभ्‍यास कर, यानी यम- नियम आदि का पालन करके, प्राणायाम, आसन आदि की मदद लेकर, मन को वश में कर। ऐसा भी न कर सकता हो तो जो कुछ करता है, सो मेरे लिए करता है, इस धारणा से अपने सब काम कर तो मेरा मोह, तेरी ममता क्षीण होती जायगी और त्‍यों त्‍यों तू निर्मल शुद्ध होता जायगा और तुझमें भक्तिरस आ जायगा। यह भी न हो सकता हो तो कर्ममात्र के फल का त्‍याग करके यानि कल की इच्‍छा छोड़ दे। तेरे हिस्‍से में जो काम आ पड़े, उसे करता रह। फल का मालिक मनुष्‍य हो ही नहीं सकता। बहुतेरे अंगों के एकत्र होने पर तब फल उपजता है, अत: तू केवल निमित्त मात्र हो जाना। जो चार रीतियां मैंने बताई हैं, उनमें किसी को कमोवेश मत मानना। इनमें जो तुझे अनुकूल हो, उससे तू भक्ति का रस ले ले। ऐसा लगता है कि ऊपर जो यम-नियम, प्राणायाम, आसान आदि का मार्ग बता आये है, उनकी अपेक्षा श्रवण-मनन आदि ज्ञानमार्ग सरल हैं।


उसकी अपेक्षा उपासना रूप ध्‍यान सरल है और ध्‍यान की अपेक्षा कर्मफल-त्‍याग सरल है। सबके लिए एक ही वस्‍तु समान भाव से सरल नहीं होती और किसी-किसी को सभी मार्ग लेने पड़ते हैं। वे एक-दूसरे के साथ मिल-जुले तो हैं ही। चाहे जिस मार्ग से हो, तुझे तो भक्त होना है। जिस मार्ग से भक्ति सधे, उस मार्ग से उसे साघ।


मैं तुझे भक्‍त के लक्षण बतलाता हूँ - भक्‍त किसी का द्वेष न करे, किसी के प्रति बैर-भाव न रखे, जीवमात्र से मैत्री रखे, जीवमात्र के प्रति करुणा का अभ्‍यास करे, ऐसा करने के लिए ममता छोड़े, अपनापन मिटाकर शून्‍यवत हो जाये, दु:ख-सुख को समान माने। कोई दोष करे तो उसे क्षमा करे संतोषी रहे, अपने शुभ निश्‍चयों से कभी विचलित न हो। मन-बुद्धि सहित सर्वस्‍व मेरे अर्पण करे। उससे लोगों को उद्वेग नहीं होना चाहिए, न लोग उससे डरें, वह स्‍वयं लोगों से दु:ख न माने, न डरे। मेरा भक्‍त हर्ष, शोक, भय आदि से मुक्‍त होता है। उसे किसी प्रकार की इच्‍छा नहीं होती, वह पवित्र होता है, कुशल होता है, वह बड़े-बड़े आरम्‍भों को त्‍यागे हुए होता है, निश्‍चय में दृढ़ होते हुए भी शुभ और अशुभ परिणाम, दोनों का वह त्‍याग करता है, अर्थात उसके बारे में निश्चित रहता है। उसके लिए शत्रु कौन और मित्र कौन? उसे मान क्‍या, अपमान क्‍या? वह तो मौन धारण करके जो मिल जाय, उससे संतोष रखकर एकाकी की भाँति बिचरता हुआ सब स्थितियों में स्थिर होकर रहता है। इस भाँति श्रद्धालु होकर चलने वाला मेरा भक्त है।


टिप्‍पणी - 

प्रश्‍न - ʻभक्‍त आरंभ न करेʼ का क्‍या मतलब है? कोई दृष्‍टांत देकर समझाइयेगा?

उत्तर - ʻभक्‍त आरंभ न करेʼ इसका मतलब यह है कि किसी भी व्‍यवसाय के मनसूबे न गांठे। जैसे एक व्‍यापारी आज कपड़े का व्‍यापार करता है तो कल उसमें लकड़ी का और शामिल करने का उद्यम करने लगा, अथवा कपड़े की एक दुकान है तो कल पांच और दूकानें खोल बैठा, इसका नाम आरम्भ है। भक्‍त उसमें न पड़े। यह नियम सेवाकार्य के बारे में भी लागू होता है। आज खादी की मार्फत सेवा करता है तो कल गाय की मार्फत, परसों खेती की मार्फत और चौथे दिन डाक्‍टरी की मार्फत। इस प्रकार सेवक भी फुदकता न फिरे। उसके हिस्‍से में जो आ जाय, उसे पूरी तरह करके मुक्‍त हो। जहाँ ʻमैंʼ वहाँ ʻमुझेʼ क्‍या करने को रह जाता है?


ʻʻसूतरने तांतणे मने हरजीए बांधी,

जेम ताणे तेम तेमनी रे

मने लागी कटारी प्रेमनी रे।ʼʼ


भक्‍त के सब आरंभ भगवान रचता है। उसे सब कर्म- प्रवाह प्राप्‍त होते हैं, इससे वह ʻसंतुष्‍टो येन केनचित्ʼ रहे। सर्वारंभ त्‍याग का भी यही अर्थ है। सर्वारंभ अर्थात् सारी प्रवृत्ति या काम नहीं, बल्कि उन्‍हें करने के विचार, मनसूबे गांठना। उसका त्‍याग करने के मानी उनका आरंभ न करना, मनसूबे गांठने की आदत हो तो उसे छोड़ देना। ʻइदमद्य मया लब्‍धमिमं प्राप्‍स्‍ये मनोरथम्ʼ यह आरंभ त्‍याग का उलटा है। मेरे खयाल में तुम जो जानना चाहते हो, सब इसमें आ जाता है। कुछ बाकी रह गया हो तो पूछना।




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