इस अध्याय में तीसरे का विशेष विवेचन है और भिन्न-भिन्न प्रकार के कई यज्ञों का वर्णन है।
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोदतवानहमव्ययन्।
विवास्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।1।।
श्रीभगवान बोले-
यह विनाशी योग मैंने विवस्वान (सूर्य) से कहा। उन्होंने मनु से और मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप।।2।।
इस प्रकार परंपरा से प्राप्त, राजर्षियों का जाना हुआ वह योग दीर्घकाल के बल से नष्ट हो गया।
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुरातन:।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्योतदुत्तमम्।।3।।
वही पुरातन योग मैंने आज तुझसे कहा है। कारण, तू मेरा भक्त है और यह योग उत्तम मर्म की बात है।
अर्जुन उवाच
अपरं भक्तो जन्म परं जन्म विवस्वत:।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4।।
अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अभी हुआ है, विवस्वान का पहले हो चुका है। तब मैं कैसे जानूं कि आपने वह (योग) पहले कहा था?
श्रीभगवानुवाच बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव
चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।।5।।
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! मेरे और तेरे जन्म तो बहुत हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूं, तू नहीं जानता।
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीरश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभ्वाम्यात्ममायया।।6।।
मैं अजन्मा, अविनाशी और इसके सिवा भूतमात्र का ईश्वर हूं; तथापि अपने स्वभाव को लेकर अपनी माया के बल से जन्म ग्रहण करता हूँ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदातमानं सृजाम्यहम्।।7।।
हे भारत! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म जोर करता है, तब-तब मैं जन्म धारण करता हूँ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनाथयि संभवामि युगे युगे।।8।।
साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश तथा धर्म का पुनरुद्धार करने के लिए युग-युग में मैं जन्म लेता हूँ। टिप्पणी- यहाँ श्रद्धालु को आश्वासन है और सत्य की, धर्म की, अविचलता की प्रतिज्ञा है। इस संसार में उतार-चढ़ाव हुआ ही करता है, परंतु अंत में धर्म की ही जय होती है। संतों का नाश नहीं होता, क्योंकि सत्य का नाश नहीं होता। दुष्टों का नाश ही है, क्योंकि असत्य का अस्तित्व नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि इसका ख्याल रखकर अपने कर्तापन के अभिमान के कारण हिंसा न करे, दुराचार न करे। ईश्वर की गहन माया अपना काम करती ही रहती है। यही अवतार या ईश्वर का जन्म है। वस्तुत: तो ईश्वर का जन्म होता ही नहीं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।9।।
हे अर्जुन! इस प्रकार जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म का रहस्य जानता है वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म नहीं पाता, बल्कि मुझे पाता है।
टिप्पणी- क्योंकि जब मनुष्य का दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ईश्वर सत्य की ही जय कराता है तब वह सत्य को नहीं छोड़ता, धीरज रखता है, दु:ख सहन करता है और ममतारहित रहने के कारण जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर ईश्वर का ही ध्यान धरते हुए उसी में लय हो जाता है।
वीतरागभयक्रोधा मन्नया मामुपाश्रिता:।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भवमागता:।।10।।
राग, भय और क्रोध से रहित हुए मेरा ही ध्यान धरते हुए, मेरा ही आश्रय लेने वाले ज्ञानरूपी तप से पवित्र हुए बहुतों ने मेरे स्वरूप को पाया है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।11।।
जो जिस प्रकार मेरा आश्रय लेते हैं, उस प्रकार मैं उन्हें फल देता हूँ। चाहे जिस तरह भी हो, हे पार्थ! मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं, मेरे शासन में रहते हैं।
टिप्प्णी- तात्पर्य, कोई ईश्वरी नियम का उल्लंघन नहीं कर सकता। जैसा बोता है, वैसा काटता है; जैसा करता है, वैसा भरता है, ईश्वरी कानून में कर्म के नियम में अपवाद नहीं है। सबको समान अर्थात अपनी योग्यता के अनुसार न्याय मिलता है।
कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।12।।
कर्म की सिद्धि चाहने वाले इस लोक में देवताओं को पूजते हैं। इससे उन्हें कर्मजनित फल तुरंत मनुष्य-लोक में ही मिल जाता है।
टिप्पणी- देवता से मतलब स्वर्ग में रहने वाले इंद्र-वरुणादि व्यक्तियों से नहीं है। देवता का अर्थ है ईश्वर की अंशरूपी शक्ति। इस अर्थ में मनुष्य भी देवता है। भाप, बिजली आदि महान शक्तियां देवता हैं। उनकी आराधना करने का फल तुरंत और इसी लोक में मिलता हुआ हम देखते हैं। वह फल क्षणिक होता है। वह आत्मा को ही संतोष नहीं देता तो मोक्ष तो दे ही कहाँ से सकता है?
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तामपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।।13।।
गुण और कर्म के विभागानुसार चार वर्ण मैंने उत्पन्न किये हैं, उनका कर्त्ता होने पर भी मुझे तू अविनाशी-अकर्ता जानना।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।14।।
मुझे कर्म स्पर्श नहीं करते हैं। मुझे इनके फल की लालसा नहीं है। इस प्रकार जो मुझे अच्छी तरह जानते हैं, वे कर्म के बन्धन में नहीं पड़ते।
टिप्पणी- क्योंकि मनुष्य के सामने, कर्म करते हुए अकर्मी रहने का सर्वोत्तम दृष्टांत है। और सबका कर्त्ता ईश्वर ही है, हम निमित्तमात्र ही हैं, तो फिर कर्त्तापन का अभिमान कैसे हो सकता है ?
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वेरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मेव तस्मात्वं पूर्वे: पूर्वतरं कृतम्।।15।।
ऐसे जानकर पूर्वकाल में मुमुक्षु व्यक्तियों ने कर्म किये हैं। इससे तू भी पूर्वज जैसे सदा से करते आये हैं वैसे कर।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशूभात्।।16।।
कर्म क्या है, अकर्म क्या है, इस विषय में समझदारों को भी मोह हुआ है। उस कर्म के विषय में मैं तुझे यथार्थ रूप से बतलाऊंगा उसे जानकर तू अशुभ से बचेगा।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्एं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।।17।।
कर्म, निषिद्धकर्म और अकर्म का भेद जानना चाहिए। कर्म की गति गूढ़ है।
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत।।18।।
कर्म में जो अकर्म देखता है और अकर्म में जो कर्म देखता है, वह लोगों में बुद्धिमान गिना जाता है। वह योगी है और वह संपूर्ण कर्म करने वाला है।
टिप्पणी- कर्म करते हुए भी जो कर्त्तापन का अभिमान नहीं रखता, उसका कर्म अकर्म है और जो कर्म का बाहर से त्याग करते हुए भी मन के महल बनाता ही रहता है, उसका अकर्म कर्म है। जिसे लकवा हो गया है वह जब इरादा करके, अभिमानपूर्वक बेकार हुए अंग को हिलाता है, तब हिलता है। वह बीमार अंग को हिलाने रूपी क्रिया का कर्त्ता बना। आत्मा का गुण अकर्त्ता का है। मोहग्रस्त होकर अपने को कर्त्ता मानने-वाले आत्मा को मानो लकवा हो गया है और वह अभिमानी होकर कर्म करता है। इस भाँति जो कर्म की गति को जानता है, वही बुद्धिमान योगी कर्त्तव्यपरायण गिना जाता है। ʻमैं करता हूँ ̕ यह मानने वाला कर्म-विकर्म का भेद भूल जाता है और साधन के भले-बुरे का विचार नहीं करता। आत्मा की स्वाभाविक गति ऊर्ध्व है, इसलिए जब मनुष्य नीति-मार्ग से हटता है तब यह कहा जाना चाहिए कि उसमें अहंकार अवश्य है। अभिमान रहित पुरुष के कर्म से ही सात्त्विक होते हैं।
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निनदग्धकमणिं तमाहु: पण्डितं बुधा:।।19।।
जिसके समस्त आरंभ कामना और संकल्परहित हैं, उसके कर्म ज्ञानरूपी अग्नि द्वारा भस्म हो गये हैं, ऐसे ही ज्ञानी लोग पंडित कहते हैं।
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय:।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति स:।।20।।
जिसने कर्म फल का त्याग किया है, जो सदा संतुष्ट रहता है, जिसे किसी आश्रय की लालसा नहीं है, वह कर्म में अच्छी तरह लगे रहने पर भी, कहा जा सकता है कि वह कुछ भी नहीं करता।
टिप्पणी- अर्थात उसे कर्म का बंधन भोगना नहीं पड़ता।
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवल कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।21।।
जो आशारहित है, जिसका मन अपने वश में है, जिसने सारा संग्रह छोड़ दिया है और जिसका शरीर भर ही कर्म करता है, वह करते हुए भी दोषी नहीं होता।
टिप्पणी- अभिमानपूर्वक किया हुआ कुल कर्म चाहे जैसा सात्त्विक होने पर भी बंधन करने वाला है। वह जब ईश्वरार्पण बुद्धि से, बिना अभिमान के होता है, तब बंधनरहित बनता है। जिसका ʻमैं̕ शून्यता को प्राप्त हो गया है, उसका शरीर भर ही कर्म करता है। सोते हुए मनुष्य का शरीर भर ही कर्म करता है, यह कहा जा सकता है। जो कैदी विवश होकर अनिच्छा से हल चलाता है, उसका शरीर ही काम करता है। जो अपनी इच्छा से ईश्वर का कैदी बना है, उसका भी शरीर भर ही काम करता है। खुद तो शून्य बन गया है, प्रेरक ईश्वर है।
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।22।।
जो यथालाभ से संतुष्ट रहता है, जो सुख-दु:खादि द्वंद्वों से मुक्त हो गया है, जो द्वेषरहित हो गया है, जो सफलता, निष्फलता में तटस्थ है, वह कर्म करते हुए भी बंधन में नहीं पड़ता है।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।।23।।
जो आसक्तिरहित है, जिसका चित्त ज्ञानमय है, जो मुक्त है और जो यज्ञार्थ ही कर्म करने वाला है, उसके सारे कर्म लय हो जाते हैं।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्र ह्माग्नों ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मवै तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।24।।
यज्ञ में अर्पण ब्रह्म है, हवन की वस्तु हवि ब्रह्म है, ब्रह्म रूपी अग्नि में हवन करने वाला भी ब्रह्म है; इस प्रकार कर्म के साथ जिसने ब्रह्म का मेल साधा है वह ब्रह्म को ही पाता है।
देवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति।।25।।
इसके सिवा कितने ही योगी देवताओं का पूजनरूपी यज्ञ करते हैं और कितने ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को ही होमते हैं।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निनषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।26।।
और कितने ही श्रवणादि इंद्रियों का संयमरूप यज्ञ करते हैं और कुछ शब्दादि विषयों को इंद्रियाग्निन में होमते हैं।
टिप्पणी- सुनने की क्रिया इत्यादि का संयम करना एक बात है और इंद्रियों को उपयोग में लाते हुए उनके विषयों को प्रभुप्रीत्यर्थ काम में लाना दूसरी बात है, जैसे
भजनादि सुनना। वस्तुत: तो दोनों एक हैं।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुहूति ज्ञानदीपिते।।27।।
और कितने ही समस्त इंद्रिय कर्मों को और प्राणकर्मों को ज्ञानदीपक से प्रज्वलित की हुई आत्मसंयरूपी योगाग्निन में होमते हैं।
टिप्प्णी- अर्थात परमात्मा में तन्मय हो जाते हैं।
द्रव्ययज्ञास्तपोज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्याज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:।।28।।
इस प्रकार कोई यज्ञार्थ द्रव्य देने वाले होते हैं; कोई तप करने वाले होते हैं। कितने ही अष्टांग योग साधने वाले होते हैं। कितने ही स्वाध्याय और ज्ञान यज्ञ करते हैं। ये सब कठिन व्रतधारी प्रयत्नशील याज्ञिक हैं।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:।।29।।
कितने ही प्राणायाम में तत्पर रहने वाले अपान को प्राण-वायु में होमते हैं, प्राण को अपान में होमते हैं अथवा प्राण और अपान दोनों का अवरोध करते हैं।
टिप्पणी- ये तीन प्रकार के प्राणायाम हैं - रेचक, पूरक और कुंभक। संस्कृत में प्राणवायु का अर्थ गुजराती और हिंदी की अपेक्षा उलटा है। वहाँ प्राणवायु अंदर से बाहर निकलने वाली वायु को कहते हैं। इस प्रकार से हम जिसे अंदर खींचते हैं उसे प्राणवायु (आक्सीजन) कहते हैं।
अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपतिकल्मषा:।।30।।
इसके सिवा दूसरे आहार का संयम करके प्राणों को प्राण में होमते हैं। यज्ञों द्वारा अपने पापों को क्षीण करने वाले ये सब यज्ञ के जानने वाले हैं।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम।।31।।
हे कुरुसत्तम! यज्ञ से बचा हुआ अमृत खाने वाले लोग सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए यह लोक नहीं है तो परलोक तो हो ही कहाँ से सकता है।
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।32।।
इस प्रकार वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन हुआ है। इन सबको कर्म से उत्पन्न हुआ जान। इस प्रकार सबको जानकर तू मोक्ष पावेगा।
टिप्पणी- यहाँ कर्म का व्यापक अर्थ है। अर्थात शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। ऐसे कर्म के बिना यज्ञ नही हो सकता। यज्ञ बिना मोक्ष नहीं होता। इस प्रकार जानना और तदनुसार आचरण करना, इसका नाम यज्ञों का पालना है। तात्पर्य यह कि मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि और आत्मा को प्रभुप्रीत्यर्थ - लोकसेवार्थ काम में न लावे तो वह चोर ठहरता है और मोक्ष के योग्य नहीं बन सकता। केवल बुद्धि शक्ति को ही काम में लावे और शरीर तथा आत्मा को चुरावे तो वह पूरा याज्ञिक नहीं है। इन शक्तियों को प्राप्त किए बिना उसका परोपकारार्थ उपयोग नहीं हो सकता। इसलिए आत्म-शुद्धि के बिना लोकसेवा असंभव है। सेवक को शरीर, बुद्धि और आत्मा अर्थात नीति, तीनों का समान रूप से विकास करना कर्त्तव्य है।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।33।।
हे परंतप! द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक अच्छा है, क्योंकि हे पार्थ! कर्म मात्र ज्ञान में ही पराकाष्ठा को पहुँचते हैं।
टिप्पणी- परोपकार-वृति से दिया हुआ द्रव्य भी यदि ज्ञानपूर्वक न दिया गया हो तो बहुत बार हानि करता है, यह कितने अनुभव नहीं किया है? अच्छी वृत्ति से होने वाले सब कर्म तभी शोभा देते हैं जब उनके साथ ज्ञान का मेल हो। इसलिए कर्ममात्र पूर्णाहुति तो ज्ञान में ही है।
तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदशिन:।।34।।
इसे तू तत्व को जानने वाले ज्ञानियों की सेवा करके और नम्रतापूर्वक विवेक सहित बारम्बार प्रश्न करके जानना। वे तेरी जिज्ञासा तृप्त करेंगे।
टिप्पणी- ज्ञान प्राप्त करने की तीन शर्ते- प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा इस युग में खूब ध्यान में रखने योग्य हैं। प्रणिपात अर्थात नम्रता विवेक, परिप्रश्न अर्थात बारम्बार पूछना, सेवारहित नम्रता खुशामद में शुमार हो सकती है। फिर, ज्ञान खोज के बिना संभव नहीं है, इसलिए जब तक समझ में न आवे तब तक शिष्य का गुरु से नम्रतापूर्वक प्रश्न पूछते रहना जिज्ञासा की निशानी है। इसमें श्रद्धा की आवश्यकता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती उसकी ओर हार्दिक नम्रता नहीं होती, उसकी सेवा तो हो ही कहाँ से सकती है ?
यज्ज्ञात्वा न पुनमर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।35।।
यह ज्ञान पाने के बाद, हे पांडव! तुझे फिर ऐसा मोह न होगा। इस ज्ञान के द्वारा तू भूतमात्र को आत्मा में और मुझमें देखेगा।
टिप्पणी-ʻयथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे̕ का यही अर्थ है। जिसे आत्मदर्शन हो गया है वह अपनी और दूसरे की आत्मा में भेद नहीं देखता।
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।।36।।
तू समस्त पापियों में बडे़-से-बडे़ पापी होने पर भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा सब पापों को पार कर जायगा।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।37।।
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देता है।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।।38।।
ज्ञान के समान इस संसार में दूसरा कुछ पवित्र नहीं है। योग में समत्व में पूर्णता प्राप्त मनुष्य समय पर अपने-आपमें उस ज्ञान को पाता है।
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांति- मचिरेणाधिगच्छति।।39।।
श्रद्धावान ईश्वरपरायण, जितेंद्रिय पुरुष ज्ञान पाता है और ज्ञान पाकर तुरंत परम शान्ति हो पाता है।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:।।40।।
जो अज्ञानी और श्रद्धारहित होकर संशयवान है, उसका नाश होता है। संशयवान के लिए न तो यह लोक है, न परलोक। उसे कहीं सुख नहीं है।
योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंज्ञय।।41।।
जिसने समत्व रूपी योग द्वारा कर्मों को अर्थात कर्मफल का त्याग किया है और ज्ञान द्वारा संशय को छिन्न कर डाला है वैसे आत्मदर्शी को, हे धनंजय! कर्म बंधन रूप नहीं होते।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्सथं ज्ञानासिनात्मन:।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।42।।
इसलिए, हे भारत! हृदय में ज्ञान से उत्पन्न हुए संशय को आत्म ज्ञान रूपी तलवार से नाश करके योग समत्व धारण कmके खड़ा हो।