दान की प्रेरणा




मुझे खुशी हो रही है कि यहाँ कुछ ग़रीबों ने भी दान दिया | असल में लेना हैं . श्रीमंत लोगों से ही, लेकिन ग़रीबों को भी पुण्य की, दान की प्रेरणा होनी चाहिए | उन्हें भी, आपस में एक-दूसरे की फ़िक्र करने का धर्म समझना चाहिए | जिनको खाने को भी नहीं मिलता, ऐसों को कुछ देना सबका धर्म है | ग़रीब के घर में भी जब नया सदस्य जुड़ता है, तो सब बाँटकर खाते हैं | इसी तरह हमें समझना चाहिए कि हमारे घर में पाँच बच्चे हैं, तो छठा बच्चा समाज है | चाहे श्रीमंत हो या ग़रीब, उसके घर में एक और व्यक्ति है, जिसका हिस्सा देना हर एक का कर्तव्य है | केवल भूमि और संपत्ति का ही हिस्सा नहीं, बल्कि अपनी बुद्धि, शक्ति, समय का भी हिस्सा दान में देना चाहिए | यह दान -धर्म " नित्यधर्म " के तौर पर हमें अपने शास्त्रकारीं ने सिखाया है | जैसे रोज खाते हैं, वैसे ही रोज दान भी देना चाहिए |

(१२--१९५१)

उपनिषदों में राजा कहता है कि "   मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो….[1] - मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है और कंजूस नहीं है | "

कंजूस चोरों के बाप होते हैं; वे चोरों को, डाकुओं को पैदा करते हैं | इसी तरह आज जो अपने पास हज़ारों एकड़ ज़मीन रखते हैं, वे अलगाववादियों को पैदा करते हैं | संग्रह करने की वृत्ति ही पाप है | कत्ल करने से मसला हल नहीं हो सकता; क़ानून से भी बहुत थोड़ा ही काम हो सकता है | क़ानून मेरे समान ग़रीबों से ज़मीन नहीं ले सकता; उसकी एक मर्यादा होती है | लेकिन जहाँ हृदय परिवर्तन होता है वहाँ सर्वस्व त्याग करनेवाले फकीर निकलते हैं |

सूर्यपेट (१३--१९५१)

यह जो दान दिया जा रहा है, वह किसीपर कुछ उपकार नहीं किया जा रहा है | हमारे शास्त्रकारों ने दान की व्याख्या करते हुए कहा है कि "दानम् .संविभाग:[2] - दान से , समाज में समान विभाजन करने की बात है |

बच्चों पर माता पिता का नहीं बल्कि परमेश्वर का हक होता है | आपके घर परमेश्वर आता है उसे आप अपना बच्चा समझकर भूमि देते हैं | ग़रीब के घर भी वही परमेश्वर आता है | इसलिए होना यह चाहिए कि जितने बच्चे हैं, वे सारे परमेश्वर के हैं और उनकी चिंता सारा गाँव करता है, उसी तरह ज़मीन का और संपत्ति का कुछ हिस्सा ग़रीबों को भी देना चाहिए | जैसे घर के बच्चों का ज़मीन पर हक मानते हैं, वैसे ही ग़रीबों का भी उस ज़मीन पर हक है |

(१९--१९५१)



[1] प्राचीन कालमें एक समय महाराज अश्वपतिने कहा था

  मे  स्तेनो  जनपदे      कदर्यो    मद्यपः

नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः

                                        (छान्दोग्योपनिषद /११/)

 

          मेरे राज्यमें तो कोई चोर है, कोई कृपण है, कोई मदिरा पीनेवाला  शराबी है, कोई अनाहिताग्नि (अग्निहोत्र करनेवाला हो ऐसा व्यक्ति) है, कोई अविद्वान् (अनपढ़ या मूर्ख मानस वाला) है और कोई परस्त्रीगामी (चारित्र हीन या स्वाभाव से गिरा हुआ )ही है, फिर कुलटा स्त्री (बद चलन या स्वावभाव से गिरी हुई ) तो होगी ही कैसे ?’

 [2] शंकराचार्य कहते हैं-"दानं संविभाग:" --  अपना हिस्सा काट कर दूसरों को दान में देना। यह बहुत उत्तम विचार है। जो आपके अपने लिए है, उसमें कुछ कटौती करके दान देना चाहिए। इसे नित्य कर्म के साथ जोड़ देना चाहिए ताकि समाज में समानता लाने की प्रक्रिया निरंतर चलता रहे |

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