समत्व बोध

ज्ञान, निष्कामता, नैर्व्यक्तिकता, समता, स्वतःस्थित आंतर शांति और आनंद, प्रकृति के त्रिगुण के मायाजाल से छुटकारा या कम-से-कम उससे ऊपर उठे रहने की स्थिति, ये सब मुक्त पुरुष के लक्षण हैं और इसलिये इन सब लक्षणों को उसके समस्त कर्मों में वर्तमान रहना चाहिये। ये आत्मा की अविचल शांति के आधार हैं, वह शांति जिसको आत्मा संसार की समस्त क्रियाओं, आघातों और शक्ति-संघर्षों से घिरा हुआ होने पर भी अपने अंदर बनाये रहती है। यह शांति समस्त क्षरभावों में वर्तमान ब्रह्म के सम अक्षर भाव को प्रतिभासित करती है और उस अविभाज्य और सम एकता की शांति है, जो संसार के समस्त बहुत्वों में सदा ओत-प्रोत रहती है। कारण जगत् के असंख्य भेदों और वैषम्यों के बीच समस्वरूप और सबको समरूप करने वाली आत्मा ही आत्मा ही वह एकता है; और आत्मा का यह समत्व ही एकमात्र वास्तविक समत्व है। जगत् के अन्य सब पदार्थों में केवल सादृश्य, समायोजन और संतुलन ही हो सकता है, किंतु जगत् के बड़े-से-बड़े सादृश्यों में भी वैषमय और असदृशता के भेद नजर आते हैं और जगत् में जो समायोजित संतुलन होता है वह विषम वजनों को मिलाकर तौल बराबर करने की प्रक्रिया से ही होता है। इसीलिये गीता में कर्मयोग के जो तत्त्व बतलाये गये हें उनमें समत्व को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है ; वह जगत् के साथ मुक्त संबंध को जोड़ने वाली गांठ है। आत्मज्ञान, निष्कामता, नैर्व्यक्तिकता, आनंद, निस्त्रैगुण्य, ये सब जब अंतर्मुख, अपने-आपमें लवलीन और निष्क्रिय हों तो इन्हें समत्व की कोई आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि वहाँ उन पदार्थों का मान ही नहीं जिनमें सम-विषम का द्वन्द्व उत्पन्न होता है। परंतु ज्यों ही आत्मा प्रकृतिकर्म के बहुत्वों, व्यक्तित्वों, विभेदों और विषमताओं का मान करके उनसे व्यवहार करने लगती है त्यों ही उसे अपने युक्त स्वरूप के इन अन्य लक्षणों को व्यवहार में लाने के लिये अपने अद्वितीय प्रकट चिहृ समत्व का आश्रय लेना पड़ता है। ज्ञान है एकमेवाद्वितीय के साथ एकता का बोध और इसे जगत् की नानाविध सत्ताओं और अस्तित्वों के साथ अपने संबंध में यह प्रकट करना होगा कि यह सबके साथ समान रूप से एक है। नैर्व्यक्तिकता है एक अक्षर आत्मा की संसार में अपने नानाविध व्यक्तित्वों की विभिन्नता से श्रेष्ठता और इसे जगत् के व्यक्तित्वों के व्यवहार में यह प्रकट करना होगा कि इसकी क्रिया सबके साथ समान रूप से और निष्पक्ष भाव से होती है, फिर विविध संबंधों और परिस्थितियों के अंतर्गत होने के कारण इस क्रिया के बाह्य रूप चाहे अनेक प्रकार के क्यों न हों। इसलिये श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरा न कोई प्रिय है न किसी से द्वेष, मैं सबके लिये आत्माभाव में सम हूं; फिर भी ईश्वर-प्रेमी मेरी कृपा को विशेष रूप से पाता है; क्योंकि उसने मेरे साथ संबध स्थापित कर लिया है, और यद्यपि मैं सबका एक ही निष्पक्ष ईश्वर हूँ फिर भी मुझसे जो जैसे मिलता है, और उससे मैं वैसे ही मिलता हूँ।

निष्कामता है जगत् के पृथक्-पृथक् काम्य विषयों के बंधनकारक आकर्षण से अनंत आत्मा की श्रेष्ठता। और इसे जब उन विषयों के साथ संबंध स्थापित करना हो तो वह निष्कामता इन विषयों के पाने पर सम निष्पक्ष उदासीनता के रूप में अथवा सबके लिये वैसे ही सम निष्पक्ष अनासक्त आनंद और प्रेमी के रूप में प्रकट होगी, क्योंकि ये आनंद और प्रेम स्वतःसिद्ध होने के कारण विषयों के होने पर निर्भर नहीं हैं बल्कि अपने स्वभाव में अविचल और अक्षर हैं। आत्मानंद ही रहता है, और यदि इस आनंद को जगत् के पदार्थों और प्राणियों से नाता जोड़ना हो तो वह इसी प्रकार अपनी मुक्त आत्मास्थिति को प्रकट कर सकता है। त्रैगुणातीत्य है चिर चंचल विषमस्वरूप प्रकृति के गुणकर्मों के प्रवाह से अविचल आत्मा की श्रेष्ठता, और यदि इसे प्रकृति परस्पर-विरोधिनी और विषम क्रियाओं के साथ संबंध जोड़ना हो, यदि मुक्त आत्मा को अपने स्वभाव को कुछ भी कर्म करने देना हो तो उसे इस श्रेष्ठता को समस्त कर्मों, कर्म-फलों या घटनाओं के प्रति अपने निष्पक्ष समत्व के भाव के द्वारा ही प्रकट करना होगा। समत्व ही मुमुक्षु का लक्षण और कसौटी है। जहाँ कहीं जीव में विषमता है।


वहाँ प्रकृति के गुणों की विषम क्रीड़ा प्रत्यक्ष है, वहाँ कामना का वेग है, व्यक्तिगत इच्छा, भाव या कर्म का खेल है, सुख-दुःख की द्वन्द्वात्मक गति है या वह उद्विग्न या उद्वेगजनक आनंद है जो सच्चा आध्यात्मिक आनंद नहीं, बल्कि एक प्रकार की मानसिक तृप्ति है जिसके साथ अनिवार्य रूप से मानसिक अतृप्ति का प्रतिक्षेप या प्रतिरूप भी लगा रहता है। जीव में जहाँ कहीं विषमता है वहाँ ज्ञान से स्खलन है, सर्वसमाहारक और सर्वसमन्वयकारक ब्रह्मोक्य में और सचराचर जगत् के एकत्व में सुप्रतिष्ठ रहने का अभाव है। इस समत्व के द्वारा ही कर्मयोगी को कर्म करते समय भी यह ज्ञान रहता है कि वह मुक्त है। गीता ने जिस समत्व का विधान किया है उसका स्वरूप है आध्यात्मिक, वह अपने स्वभाव और व्यापकता में उच्च और विश्वव्यापी है और यही इस विषय में गीता के उपदेश की विशेषता है। नहीं तो समत्व का उपदेश मात्र देकर यह कहना कि ‘यह मन, अनुभव और स्वभाव की एक अत्यंत वांछनीय अवस्था है जिसमें पहुँचकर हम मानव-दुर्बलता के ऊपर उठ जाते हैं, ’गीता की अनूठी विशेषता नहीं है। ऐसा समत्व तो दार्शनिक आदर्श और साधु-महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श और साधु-महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है। गीता इस दार्शनिक आदर्श को स्वीकार अवश्य करती है पर उसे बहुत दूर ऐसे उच्च प्रदेशों में ले जाती है जहाँ हम अपने-आपको अधिक विशाल और विशुद्ध वातावरण में सांस लेते हुए पाते हैं।


आत्मा की सुख-दुख-उपेक्षी स्टोइक स्थिति और दार्शनिक का संतुलन गीतोक्त समत्व की पहली और दूसरी पैड़ियां हैं जिनसे प्राणवेग के भंवरजाल और कामनाओं के मंथन से ऊपर उठकर देवताओं की नहीं प्रत्युत भगवान् की परम आत्म-वशितवपूर्ण शांति और आनंद तक पहुँचा जा सकता है। स्टोइन संप्रदाय वालों की समता की धुरी है सदाचार और यह तापस सहिष्णुता के द्वारा प्राप्त आत्म-प्रभुत्व पर प्रतिष्ठित है; इसे अधिक सुख-साध्य और शांत स्वरूप है दार्शनिकों की समता का, ये लोग ज्ञान के द्वारा, अनासक्ति के द्वारा और हमारे प्राकृत स्वभावसुलभ विक्षोभों से ऊपर उठी हुई उच्च बौद्धिक उदासीनता के द्वारा आत्म-वशित्व प्राप्त करना अधिक पसंद करते हैं, इसीको गीता ने कहा है कि एक धार्मिक या ईयाई ढंग की समता भी है जिसका स्वरूप भगवदिच्छा के सामने सदानत होकर, घुटने टेककर झुके रहना या साष्टांग प्रणिपात के द्वारा भगवान् की इच्छा को सिर माथे चढा़ना। दिव्य शांति के ये तीन साधन-सोपान हैं-वीरोचित सहनशीलता, विवेकपूर्ण विरक्ति और धर्मनिष्ठ समर्पण या तितिक्षा, उदासीनता और नति। गीता अपने समन्वय के उदार ढंग में इन सभी का समावेश कर लेता है और अपनी आत्मा की ऊर्ध्व गति में उन्हें सन्निविष्ट कर लेती है।


वह इन तीनों की जड़ को अधिक गहराई में जमाती, प्रत्येक का लय अधिक व्यापक बनाती और प्रत्येक में सर्वव्यापक और सर्वातीत परम अर्थ भर देती है। कारण गीता इनमें से प्रत्येक को इनका आध्यात्मिक मूल्य और इनकी आध्यात्मिक सत्ता की शक्ति देती है, जो चरित्रबलसाधन के आयास, बुद्धि की कठिन समस्थिति और भावावेगों के झोंके से परे की चीज है। सामान्य मानव को प्राकृत जीवन के चिर-अभ्यस्त विक्षोभों से एक तरह का सुख मिलता है; और चूंकि उसे उनमें सुख मिलता है और इस सुख से सुखी होकर वह निम्न प्रकृति की अशांत क्रीड़ा को अपनी अनुमति देता है इसलिये त्रिगुणत्मिका प्रकृति की यह क्रीड़ा सदा चलती रहती है; कारण प्रकृति जो कुछ करती है वह अपने प्रेमी और भोक्ता पुरुष के सुख के लिये और उसीकी अनुमति से करती है। परंतु इस सत्य को हम नहीं पहचान पाते, क्योंकि जब प्रतिकूल विक्षोभ का प्रत्यक्ष आघात होता है, शोक, क्लेश, असुविधा, दुर्भाग्य विफलता, पराजय, निंदा, अपमान के आघात से मन पीछे की ओर हटता है, और इसके विपरीत जब अनुकूल और सुखद उत्तेजना होती है जेसे हर्ष, सुख, हर प्रकार की तुष्टि, समृद्धि, सफलता, जय, गौरव, प्रशंसा आदि, तो मन उन्हें लगाने के लिये उछल पड़ता है; पर इससे सत्य में कोइ अंतर नहीं पड़ता कि जीव जीवन में सुख लेता है और यह सुख मन के द्वन्दों के पीछे सदा वर्तमान रहता है।


योद्धा को अपने घावों से शारीरिक सुख नहीं मिलता न पराजित हाने पर उसे मानसिक संतोष ही होता, फिर भी युद्ध के देवत्व में उसे पूरा आनंद मिलता है, जो युद्ध उसके लिये जहाँ एक ओर पराजय और जखम लाता है वहाँ दूसरी ओर विजय भी दिलाता है। यहाँ पराजय और जखम की संभावना को और विजय की आशा को युद्ध के ताने-बाने के तौर पर स्वीकार करता है और उसमें रहने का आनंद खोजता है। युद्ध के जखम की स्मृति भी उसे हर्ष और गौरव देती है, पूरा हर्ष और गौरव तो तब होता है जब जखम की पीड़ा का अंत हो जाता है। परंतु प्रायः पीड़ा के रहते हुए भी ये उपस्थित रहते हैं और पीड़ा वास्तव में इनका पोषण करती हैं हार में भी अधिक बलवान् शत्रु का अदम्य प्रतिकार करने के कारण उसे हर्ष और गर्व होता है, अथवा यदि वह हीन कोटि का योद्धा हो तो उसे द्वेष और प्रतिशोध की भावनाओं से भी एक प्रकार का गर्ह्य और क्रूर सुख मिलता है। इसी प्रकार आत्मा भी हमारे जीवन की प्राकृत क्रीड़ा का आनंद लेती रहती है। मन जीवन के प्रतिकूल आघातों से कष्ट और अरुचि के द्वारा पीछे हटता है; यह आत्म-रक्षा-साधन में प्रकृति की युक्ति है जिसे जुगुत्सा कहते हैं, इसीके कारण हमारे स्नायु और शरीर के अतिकोमल अंग सहसा अपने ध्वंस का आलिंगन करने के लिये दौड़ नहीं पड़ते।


जीवन के अनुकूल स्पर्शों से मन को हर्ष होता है, यह प्रकृति का राजस भोग देकर प्रलोभन देना है, जिससे जीव की शक्ति जड़ता और अकर्मण्यता की तामसी प्रवृत्तियों को जीत सके और वह कर्म, कामना, संघर्ष और सफलता के लिये पूर्ण रूप से लग जायें और मन को इनके साथ आसक्त करके प्रकृति अपना प्रयोजन सिद्ध कर सके। हमारी गूढ़ आत्मा इस द्वन्द्व और संघर्ष में एक प्रकार का सुख अनुभव करती है, यह सुख उसे विषाद और दुःख में भी मिलता है। अतीत विपद् को याद करने और पीछे फिरकर देखने में तो उसे पूरा सुख मिलता ही है, पर जिस समय विपद् सिर पर हो उस समय भी वह आत्मा परदे के पीछे सुख लेती रहती है और प्रायः दुःखी मन के स्तर पर आकर भी उसके आवेश में सहारा देती है। परंतु जो चीज आत्मा को सचमुच आकर्षित करती है वह इस संसार का नानाविध द्वन्द्वों से भरा हुआ यह पदार्थ है जिसे हम जीवन कहते हैं, जो संघर्ष और कामना के विक्षोभ से, आकर्षण और विकर्षण से, लाभ और हानि से, हर प्रकार के वैचित्रय से भरा है। हमारे राजसिक कामनामय पुरुष को एकरस सुख, संघर्षरहित सफलता और आवरणरहित हर्ष कुछ काल बाद अवसादकर, नीरस, और अतृप्तिकर-सा लगने लगता है; प्रकाश का पूरा सुख भोगने के लिये इसे अंधकर की पृष्ठभूमि चाहिये; क्योंकि वह जो सुख चाहता और भोगता है वह ठीक उसी स्वभाव का, तत्त्वतः सापेक्ष होता है जो अपने विपरीत तत्त्व की प्रतीति और अनुभूति पर निर्भर है।


हमारे मन को जीवन से जो सुख मिलता है, उसका रहस्य यही है कि हमारी आत्मा जगत् के द्वन्द्वों में रस लेती है। यदि इस मन से इन सब विक्षोभों से ऊपर उठने और उस विशुद्ध आनंदमय पुरुष के अमिश्र सुख को प्राप्त करने के लिये कहा जाये जो सदा गुप्त रूप से इस द्वन्द्वमय जीवन में बल देता और स्थायित्व बनाये रखता है, तो वह तुरंत इस आवाहन से घबराकर पीछे हट जायेगा। वह ऐसे अस्तित्व पर विवास ही नहीं करता, वह मानता है कि वह अस्तित्व है भी तो वह जीवन तो नहीं हो सकता, जगत् में चारों ओर जो वैचित्र्यमय जीवन देख पड़ता है जिसमें रहकर आनंद लेने का उसे अभ्यास है वैसा जीवन तो नहीं हो सकता, वह कोई बेस्वाद और नीरस चीज होगी। अथवा वह समझता है कि यह प्रयत्न उसके लिये अत्यंत कठिन होगा, वह ऊपर उठने के प्रयास से कतराता है, यद्यपि वास्तविकता यह है कि कामनामय पुरुष सुखस्वप्नों को चरितार्थ करने के लिये जितना प्रयत्न करता है उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक परिवर्तन अधिक कठिन नहीं है और कामनामय पुरुष अपने अनित्य सुखों और कामनाओं के लिये जो महान् संघर्ष और उत्कट प्रयास करता है उसे अधिक संघर्ष और प्रयास की इसमें आवश्यकता नहीं होती।


मन की अनिच्छा का असली कारण यह है कि उससे अपने निजी वातावरण से ऊपर उठने और जीवन की एक अधिक असाधारण और अधिक विशुद्ध वायु का सेवन करने के लिये कहा जाता है, जहाँ के आनंद और शक्ति को वह अनुभव नहीं कर सकता, और उनकी वास्तविकता पर भी मुश्किल से विश्वास करता है। इस निम्नतर पंकिल प्रकृति के सुख ही उसके परिचित हैं और इन्हीं को वह आसानी से भोग सकता है। निम्न प्रकृति के सुखों का भोग भी अपने-आपमें दोषपूर्ण और निरर्थक नहीं है; प्रत्युत अन्नमय पुरुष जिस तामस अज्ञान और जड़त्व के अत्यंत अधीन होता है उससे ऊपर उठकर मानव-प्रकृति के ऊर्ध्वमुखीन विकास के साधन की यही शर्त है; परम आत्मज्ञान, शक्ति और आनंद की ओर मनुष्य का जो क्रमबद्ध आरोहण है उसकी यह राजसिक अवस्था है। परंतु यदि हम सदा इसी भूमिका पर बने रहें जिसे गीता ने मध्यमा गति कहा है तो हमारा आरोहण पूरा नहीं होता, आत्म-विकास अधूरा रह जाता है। जीव की सिद्धि का रास्ता सात्त्विक सत्ता और स्वभाव के भीतर से होकर वहाँ पहुँचता है जो त्रिगुणातीत है। जो क्रिया हमें निम्न प्रकृति के विक्षोभों से बाहर निकाल सकेगी वह अवश्य ही हमारे मन, चित्त और हमारी आत्मा में समत्व की ओर गति होगी। परंतु यह बात ध्यान में रहे कि यद्यपि अंत में हमें निम्न प्रकृति के तीनों गुणों के परे पहुँचना है फिर भी हमें आंतरिक अवस्था में इन तीनों में से किसी एक गुण का आश्रय लेकर ही आगे बढ़ना होगा।


हमारे मन को जीवन से जो सुख मिलता है, उसका रहस्य यही है कि हमारी आत्मा जगत् के द्वन्द्वों में रस लेती है। यदि इस मन से इन सब विक्षोभों से ऊपर उठने और उस विशुद्ध आनंदमय पुरुष के अमिश्र सुख को प्राप्त करने के लिये कहा जाये जो सदा गुप्त रूप से इस द्वन्द्वमय जीवन में बल देता और स्थायित्व बनाये रखता है, तो वह तुरंत इस आवाहन से घबराकर पीछे हट जायेगा। वह ऐसे अस्तित्व पर विवास ही नहीं करता, वह मानता है कि वह अस्तित्व है भी तो वह जीवन तो नहीं हो सकता, जगत् में चारों ओर जो वैचित्र्यमय जीवन देख पड़ता है जिसमें रहकर आनंद लेने का उसे अभ्यास है वैसा जीवन तो नहीं हो सकता, वह कोई बेस्वाद और नीरस चीज होगी। अथवा वह समझता है कि यह प्रयत्न उसके लिये अत्यंत कठिन होगा, वह ऊपर उठने के प्रयास से कतराता है, यद्यपि वास्तविकता यह है कि कामनामय पुरुष सुखस्वप्नों को चरितार्थ करने के लिये जितना प्रयत्न करता है उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक परिवर्तन अधिक कठिन नहीं है और कामनामय पुरुष अपने अनित्य सुखों और कामनाओं के लिये जो महान् संघर्ष और उत्कट प्रयास करता है उसे अधिक संघर्ष और प्रयास की इसमें आवश्यकता नहीं होती।


मन की अनिच्छा का असली कारण यह है कि उससे अपने निजी वातावरण से ऊपर उठने और जीवन की एक अधिक असाधारण और अधिक विशुद्ध वायु का सेवन करने के लिये कहा जाता है, जहाँ के आनंद और शक्ति को वह अनुभव नहीं कर सकता, और उनकी वास्तविकता पर भी मुश्किल से विश्वास करता है। इस निम्नतर पंकिल प्रकृति के सुख ही उसके परिचित हैं और इन्हीं को वह आसानी से भोग सकता है। निम्न प्रकृति के सुखों का भोग भी अपने-आपमें दोषपूर्ण और निरर्थक नहीं है; प्रत्युत अन्नमय पुरुष जिस तामस अज्ञान और जड़त्व के अत्यंत अधीन होता है उससे ऊपर उठकर मानव-प्रकृति के ऊर्ध्वमुखीन विकास के साधन की यही शर्त है; परम आत्मज्ञान, शक्ति और आनंद की ओर मनुष्य का जो क्रमबद्ध आरोहण है उसकी यह राजसिक अवस्था है। परंतु यदि हम सदा इसी भूमिका पर बने रहें जिसे गीता ने मध्यमा गति कहा है तो हमारा आरोहण पूरा नहीं होता, आत्म-विकास अधूरा रह जाता है। जीव की सिद्धि का रास्ता सात्त्विक सत्ता और स्वभाव के भीतर से होकर वहाँ पहुँचता है जो त्रिगुणातीत है। जो क्रिया हमें निम्न प्रकृति के विक्षोभों से बाहर निकाल सकेगी वह अवश्य ही हमारे मन, चित्त और हमारी आत्मा में समत्व की ओर गति होगी। परंतु यह बात ध्यान में रहे कि यद्यपि अंत में हमें निम्न प्रकृति के तीनों गुणों के परे पहुँचना है फिर भी हमें आंतरिक अवस्था में इन तीनों में से किसी एक गुण का आश्रय लेकर ही आगे बढ़ना होगा।


समत्व का यह आरंभ सात्त्विक हो सकता है अथवा राजस या तामस, क्योंकि मानव-स्वभाव में तामसी समता भी संभव है। यह समता सर्वथा तामसी भी हो सकती है, अर्थात् प्राणवृत्ति अहदी बन गयी हो, जीवन के आघातों का प्रत्युतर जड़ता के कारण बंद हो गया हो तथा एक प्रकार की मंद संज्ञाहीनता के कारण जीवन के सुखों के प्रति अनिच्छा हो गयी हो। अथवा सुखों का बहुत अधिक भोग करते-करते भावावेग और कामनाएं अधा गयी हों, या फिर जीवन की यंत्रणा सहते-सहते जीवन से एक प्रकार की निराशा या घृणा या ग्लानि पैदा हो गयी हो, जगत् से जी ऊब गया हो, वह भयावह त्रास-रूप हो उठा हो, उससे अरुचि हो गयी हो और ये सब कारण मिलकर सामसिक समता को ले आये हों; पर इस अवस्था में वह मिश्रित राजस-तामस होती है, यद्यपि उसमें तमोगुण की प्रधानता होती है। अथवा तामसी समता सत्त्वगुण की ओर झुकते हुए इस मानसिक बोध का सहारा ले सकती है कि जीवन की कामनाओं की कभी तृप्ति नहीं हो सकती, जीव में इतनी शक्ति नहीं कि जीवन को अपने वश में करे, यह सब केवल दुःखमय और अनत्यि प्रयास है, इस जीवन में कोई वास्तविक सत्य नहीं है कोई स्वस्ति नहीं, कोई प्रकाश नहीं, कोई सुख नहीं। यह समता का सात्त्विक-तामस सिद्धांत है, इसमें इतनी समता नहीं है-यद्यपि यह सिद्धांत समता की ओर ले जाने वाला हो सकता है-जितनी उदासीनता या समान रूप से अस्वीकृति। वस्तुतः तामसी समता प्रकृति के जुगुप्सा-तत्त्व का फैलाव है। किसी विशेष कष्ट या यंत्रणा से जी हटता है, वही फैलकर प्रकृति के समस्त जीवन को दुःखमय और यंत्राणामय मानने लगता है और यह समझने लगता है कि यह सारा जीवन दुःख और आत्म-यंत्रणा की ओर प्रभावित हो रहा है, जीव जिस आनंद की इच्छा करता है उसकी ओर नहीं। केवल तामसिक समता में वास्तविक मुक्ति नहीं है; किंतु जैसा कि भारतीय यतियों ने किया, इसको यदि प्रकृति के परे अक्षर ब्रह्म की महत्तर स्थिति, सत्यतर शक्ति और उच्चतर आनंद के अनुभव द्वारा सात्त्विक बनाया जा सके तो आरंभ करने के लिये तामसिक समता भी शक्तिशाली साधन हो सकती है। पर इस प्रकार की गति स्वभावतः संन्यास, अर्थात् जीवन और कर्मों के त्याग की ओर ले जाती है न कि कामना के आंतर त्याग के साथ प्रकृति के जगत् की चिरकर्मण्यता के एकत्व की ओर, जो गीता का प्रतिपाद्य विषय है। फिर भी, गीता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करती है, वह जन्म, रोग, मृत्यु, बुढ़ापा, दुःख आदि जागतिक जीवन के दोषों पर आधारित पीछे हटने की वृत्ति को भी स्थान देती है जहाँ से बुद्ध का ऐतिहासिक त्याग आरंभ हुआ था। 


जो लोग जरा और मरण से छुटकारा पाने के लिये तामसिक वैराग्य से भी आत्मसंयम करते हैं, उनकी साधना को भी गीता स्वीकार करती है। किंतु इस साधना से यदि कोई लाभ होना है तो इसके साथ एक उच्चतर अवस्था को सात्त्विक अनुभूति होनी चाहिये और भगवान् में ही आनंद और भगवान का ही आश्रय लेना चाहिये, तब जीव अपनी इस जुगुत्सा के द्वारा एक उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है, त्रिगुण से ऊपर उठ जाता है और जन्म, मुत्यु, जरा और दुःख से मुक्त होकर आत्मसत्ता का अमृतत्त्व भोगता है जीवन के दुःख और प्रयास को स्वीकार करने की तामसिक अनिच्छा अपने-आपमें एक प्रकार की दुर्बलता और अधोगति है और इसमें यह खतरा भी समाया हुआ है कि इसके द्वारा सबको समान भाव से वैराग्य और संसार से घृणा का उपदेश दिया जा सकता है, जिससे अनाधिकारी जीवों पर तामसिक दुर्बलता और संकुचन की मुहर लग जाती है, उनका बुद्धिभेद होता है, उनकी सतत अभीप्सा, जीवन में विश्वास और पुरुषार्थ की शक्ति-जिसकी मानव-जीव को अपने उपयोगी और आवश्यक राजस प्रयास के लिये आवश्यकता है, ताकि वह अपनी परिस्थिति को वश में कर सके-किसी उच्चतर लक्ष्य, महत्तर प्रयास और बलवत्तर विजय की ओर खुले बिना ( क्योंकि ऐसी क्षमता उसमें अभी नहीं आयी है ) क्षीण हो जाती है।


परंतु अधिकारी जीवों में तामसी विरक्ति उनकी राजसिक आसक्ति तथा निम्नतर जीवन में तल्लीनता को नष्ट करके-जो उनके सत्त्वगुण के जागरण में बाधक होकर उनकी उच्चतर संभावना को राकती है-उपयोगी आध्यात्मिक हेतु सिद्ध कर सकती है। तब इस प्रकार अपनी बनायी हुई शून्यावस्था में आश्रय ढू़ढ़ते हुए वे भगवान् की इस पुकार को सुन पाते हैं कि “ हे जीव! तू जो अपने-आपको इस अनित्य असुखी जगत् में पाता है, मेरी ओर मुंह कर और मुझमें आनंद ले। फिर भी इस क्रिया में समता केवल इतनी है कि यह, जगत जिन-जिन चीजों से बना है उन सभी से समान भाव से भागती है और जगत् के प्रति उपेक्षा और अलगाव का भाव पैदा करती है, इससे यह शक्ति नहीं मिलती जिसके द्वारा हम जगत् के सुखद या दुःखद सब स्पर्शों को समभाव से बिना किसी राग-द्वेष के ग्रहण कर सकें, जो गीता की साधना का एक आवश्यक तत्त्व है। इसलिये यदि हम तामसिक निवृत्ति से ही आरंभ करें-यद्यपि यह बिलकुल आवश्यक नहीं है-तो भी इसकी उपयोग किसी महान् प्रयास में प्रवृत्त होने के लिये एक आरंभिक प्रेरणा के तौर पर ही किया जा सकता है, किसी स्थायी नैराश्य के तौर पर नहीं। साधना तो यथार्थ में तब आरंभ होती है जब हम पहले जिन चीजों से भागना चाहते थे उन्हें अपने काबू में करने का प्रयत्न करें यहाँ एक प्रकार की राजसिक समता की संभावना होती है, जिसका निम्नतम रूप है आत्मवशित्व और आत्मसंयम प्राप्त करने में, प्राणवेग तथा दुर्बलता से ऊपर उठने में बलवान-स्वभाव का गर्व। किंतु स्टोइक आदर्श इसीको पकड़कर जीव को निम्न प्रकृति को समस्त दुर्बलताओ की अधीनता से सर्वथा मुक्त कर देने का प्रधान साधन बनाता है।


जिस प्रकार तामसिक निवृत्ति प्रकृति के जगुप्सा तत्त्व का, अर्थात दुःख से आत्मसंरक्षण का फैलाव है उसी प्रकार उर्ध्वमुखी राजसिक प्रवृत्ति संघर्ष और प्रयास को स्वीकार करने वाले तथा प्रभुत्त्व और विजय प्राप्त करने के लिय जीवन की अंतर्निहित प्रेरणा को स्वीकार करने वाले प्रकृति के दूसरे तत्त्व का फैलाव है; पर यह प्रवृत्ति युद्ध को उस क्षेत्र की ओर मोड़ देती है जो पूर्ण विजय लाभ का एकमात्र क्षेत्र है। कुछ छितरे हुए बाह्य उद्देश्यों और क्षणिक सफलताओं के लिये लड़ने-झगड़ने के बजाय यह साधना साधक को आध्यात्मिक युद्ध के द्वारा और आंतरिक विजय के द्वारा प्रकृति और स्वयं जगत् को ही विजित करने के रास्ते पर ले आती है। तामसिक निवृत्ति जगत् के सुख और दुःख, दोनों से किनारा काटती तथा उनसे भगना चाहती है और राजसिक साधना उन्हें सहने, उन्हें काबू में करने और उनसे ऊपर उठने का रास्ता निकालती है। स्टोइक आत्मनियंत्रण कामना और प्राणवेग को अपने योद्धाभाव में समलिंगित करता है और उन्हें अपनी भुजाओं के बीच चूर-चूर कर देता है जैसे महाभारत में धृतराष्ट्र ने भीम की लौह प्रतिमा को चूर-चूर कर डाला था।यह संयम का मार्ग सुखद और दुःखद सभी चीजों के धक्कों को सहता, प्रकृति के भौतिक और मानसिक असर के करणों को बरदाश्त करता और उनके परिणमों को चकनाचूर कर डालता है। इसकी पूर्णता तब समझनी चाहिये जब जीव बिना दुःखी या आकर्षित हुए, बिना उत्तेजित या व्याकुल हुए सब स्पर्शों को सह सके। इस साधना का हेतु मनुष्य को अपनी प्रकृति का विजेता और राजा बनाना है। गीता अर्जुन के क्षात स्वभाव का आवाहन करके इसे वीरोचित साधना से अपना उपदेश आरंभ करती है। गीता अर्जुन का आवाहन करती है कि तुम इस महाशत्रु कामना पर टूट पड़ो और इसे मार डालो। गीता ने समत्व का जो पहला वर्णन किया है वह स्टोइक दार्शनिक के वर्ण के जैसा ही है। ‘‘दुःखों के बीच जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों के बीच उनकी इच्छा नहीं होती, राग, भय, क्रोध जिससे निकल गये वही स्थितधी मुनि है। जो, चाहे उसे शुभ प्राप्त हो या अशुभ, सभी विषयों में स्नेहशून्य रहता है, न उनका हर्षपूर्ण स्वागत करता न उससे द्वेष करता है उसीकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है।” गीता ने एक स्थूल दृष्टांत देकर समझाया है कि यदि मनुष्य आहार न करे तो यह इनिद्रय-विषय उस पर असर न करेगा, पर इन्द्रिय में ‘रस‘ तो रहेगा ही; आत्मा की परम स्थिति तो तब प्राप्त हेती है जब इन्द्रिय से विषय ग्रहण करते हुए भी वह इन्द्रियभोग की लालसा से मुक्त रह सके, विषयों के मोह को छोड़ सके और आस्वादन के सुख का त्याग कर सके। राग-द्वेष से मुक्त, आत्मवशीकृत ज्ञानेंद्रियों के द्वारा विषयों के ऊपर विचरण करते हुए ही मनुष्य आत्मा और स्वभाव की उदार और मधुर पिवत्रता को प्राप्त कर सकता है, जिसमें काम, क्रोध और शोक-मोह के लिये काई स्थान नहीं है। 


सब कामनाएं आत्मा में वैसे ही प्रवेश करेंगी जैसे नदी-नद समुद्र में, और तब भी आत्मा को अचल और परिपूरित परंतु अक्षुब्ध रहना होगा, इस प्रकार अंत में सब कामनाओं का त्याग किया जा सकता है। इस बात पर बार-बार जोर दिया गया है कि काम-क्रोधमय मोह से छुटकारा पाना मुक्त-पद लाभ करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और इसलिये हमें इनके ध्क्कों को सहना सीखना पड़ेगा और यह कार्य इन धक्कों के कारणों का सामना किये बिना नहीं हो सकता। ‘‘जो इस शरीर में काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सह सकता है वही योगी है, वही सुखी है।” तितिक्षा, अर्थात् सहने का संकल्प और शक्ति इसका साधन है। ‘‘शीत और उष्ण, सुख और दुःख देने वाले मात्रस्पर्श अनित्य हैं, और आते-जाते रहते हैं, इन्हें सहना सीख। जिस पुरुष को ये व्यथित या दुःखी नहीं करते, सुख-दुःख में जो सम और धीर रहता है वही अपने-आपको अमृतत्त के लिये उपयुक्त बना लेता है।” जिसकी आत्मा समत्व को प्राप्त हो गयी है उसे दुःख सहना होता है, पर वह दुःख से घृणा नहीं करता, उसे सुख ग्रहण करना होता है, पर वह सुख से हर्षित नहीं होता। शारीरिक यंत्रणाओं को भी सहिष्णुता के द्वारा जीतना होता है और यह भी स्टोइक साधना का एक अंग है।


जरा, मुत्यु, दुःख यंत्रणा से भागने की जरूरत नहीं है, प्रत्युत इन्हें स्वीकार करके उदासीनता से परास्त करना है। प्रकृति के निम्नस्तरीण छभ्दारूपों से भीत होकर भागना नहीं, बल्कि ऐसी प्रकृति का सामना करके उसे जीतना ही पुरुषसिंह की तेजस्विनी प्रकृति का सच्चा सहज भाव है। ऐसे पुरुष से विवश होकर प्रकृति अपना छभ्दवेश उतार फेंकती है और उसे असली आत्मस्वरूप दिखा देती है, जिस स्वरूप में वह प्रकृति का दास नहीं, बल्कि उसका स्वराट् सम्राट् है।परंतु गीता इस स्टोइक साधना को, इस वीरधर्म को उसी शर्त पर स्वीकार करती है जिस शर्त पर वह तामसिक निवृत्ति को स्वीकार करती है, अर्थात् इसके ऊपर ज्ञान की सात्त्विक दृष्टि, इसके मूल में आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य और इसकी चाल में, दिव्य स्वभाव की ओर उध्र्वागति होनी चाहिये। जिस स्टोइक साधना के द्वारा मानव-स्वभाव के सामान्य स्नेहभाव कुचल डाले जाते हैं वह जीवन के प्रति तामसिक क्लांति, निष्फल नैराश्य और ऊसर जड़त्व की अपेक्षा तो कम खतरनाक है, क्योंकि यह जीव के पौरूष और आत्म-वशित्व को बढ़़ाने वाली है, फिर भी यह अमिश्र शुभ नहीं है, क्योंकि इससे सच्ची आध्यात्मिक मुक्ति नहीं मिलती, बल्कि इससे हृदयहीनता और निष्ठुर ऐकांतिकता आ सकती है। गीता की साधना में स्टोइक समता का जो समर्थन मिलता है वह इसीलिये है कि यह साधना क्षर मानव-प्राणी को मुक्त अक्षर पुरुष का साक्षात्कार करने में, और इस नवीन आत्मचेतना को प्राप्त करने में, साथ और सहायता दे सकती है।


---- गीता , योगी अरविन्द 


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