कर्मयोग




फलत्यागी को अनंत फल मिलता है

1. भाइयों, दूसरे अध्याय में हमने सारे जीवन-शास्त्र पर निगाह डाली। अब तीसरे अध्याय में इसी जीवन-शास्त्र का स्पष्टीकरण है। पहले हमने तत्त्वों को विचार किया, अब उनकी तफसील में जायेंगे। पिछले अध्याय में कर्मयोग-सम्बन्धी विवेचन किया था। कर्मयोग में महत्त्व की वस्तु है फल-त्याग। कर्मयोग में फल-त्याग तो है, परन्तु प्रश्न यह उठता है कि फिर फल मिलता भी है या नहीं? अतः तीसरे अध्याय में कहते हैं कि कर्म फल को छोड़ने से कर्मयोगी उल्टा अनंतगुना फल प्राप्त करता है।

यहाँ मुझे लक्ष्मी की कथा याद आती है। उसका था स्वयंवर। सारे देव-दानव बड़ी आशा बांधे आये थे। लक्ष्मी ने अपना प्रण पहले प्रकट नहीं किया था। सभा-मंडप में आकर वह बोली-‘‘मै उसी के गले में वरमाला डालूंगी, जिसे मेरी चाह होगी।’’ वे सब तो लालच से आये थे। लक्ष्मी निःस्पृह वर खोजने निकल पड़ी। शेषनाग पर शांत भाव से लेटी हुई भगवान विष्णु की मूर्ति उसे दिखायी दी। उनके गले में वरमाला डालकर वह अब तक उनके चरण दबाती हुई बैठी ही है। मागे तयाची रमा होय दासी- 'जो नहीं चाहता, उसकी रमा दासी बनती है।' यही तो खूबी है।

 

2. साधारण मनुष्य अपने फल के आसपास बाड़ लगाता है। पर इससे मिलने वाला अनंत फल वह खो बैठता है। सांसारिक मनुष्य अपार कर्म करके अल्प फल प्राप्त करता है; पर कर्मयोगी थोड़ा-सा करके भी अनंतगुना प्राप्त करता है। यह फर्क सिर्फ एक भावना के कारण होता है। टॉलस्टॉय ने एक जगह लिखा है- "लोग ईसामसीह के त्याग की बहुत स्तुति करते हैं। परन्तु ये संसारी जीव तो रोज जाने अपना कितना खून सुखाते हैं, दौड़-धूप करते हैं! पूरे दो गधों का बोझ अपनी पीठ पर लादकर चक्कर काटने वाले ये संसारी जीव, इन्हें ईसा से कितना गुना ज्यादा कष्ट, कितनी ज्यादा इनकी दुर्गति! यदि ये इनसे आधे भी कष्ट भगवान के लिए उठायें, तो सचमुच ईसा से भी बढ़ जायेंगे।"

 

3. संसारी मनुष्य की तपस्या सचमुच बड़ी होती है, परन्तु वह होती है क्षुद्र फलों के खातिर। जैसी वासना, वैसा फल। अपनी चीज की जो कीमत हम आंकते हैं, उससे ज्यादा कीमत संसार में नहीं आंकी जाती। सुदामा चिउड़ा लेकर भगवान के पास गये। उस मुठ्ठी भर चिउड़े की कीमत एक धेला भी शायद हो, परन्तु सुदामा को वे अनमोल मालूम होते थे; क्योंकि उनमें भक्तिभाव था। वे अभिमंत्रित थे। उनके कण-कण में भावना भरी थी। चीज भले ही क्षुद्र क्यों हो, मंत्र से उसका मोल, उसका सामर्थ्य बढ़ जाता है। नोट का वजन भला कितना होगा? उसे सुलगायें, तो एक बूंद पानी भी शायद ही गरम हो! लेकिन उस पर मुहर लगी रहती है। उसी से उसकी कीमत होती है।

 

कर्मयोग में यही सारी खूबी है कर्म को नोट ही समझो। भावना रूपी मुहर की कीमत है, कर्मरूपी कागज के टुकड़े की नहीं। एक तरह से यह मैं मूर्ति-पूजा का ही रहस्य बतला रहा हूँ। मूर्ति-पूजा की कल्पना में बड़ा सौंदर्य है। इस मूर्ति को कौन तोड़ सकता है ? यह मूर्ति पहले एक टुकड़ा ही तो थी। मैंने इसमें प्राण डाला। अपनी भावना डाली। भला इस भावना के कोई टुकड़े कर सकता है ? टुकड़े पत्थर के हो सकते हैं, भावना के नहीं। जब में अपनी भावना मूर्ति में से निकाल लूंगा, तब वहाँ पत्थर बच रहेगा और तभी उसके टुकड़े हो सकते हैं।

11. फलत्यागी को अनंत फल मिलता है 4. कर्म का अर्थ हुआ पत्थर, या कागज का टुकड़ा। मेरी माँ ने कागज की एक चिट पर टूटी-फूटी भाषा में दो-चार टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियां लिखकर भेज दीं और दूसरे किसी ने पचास पत्रों का आलतू-फालतू पुलिंदा लिखकर भेजा। अब किसका वजन ज्यादा होगा? माँ की उन चार पंक्तियों में जो भाव है, वह अनमोल है, पवित्र है। उसकी बराबरी वह पुलिंदा नहीं कर सकता। कर्म में आर्द्रता चाहिए, भावना चाहिए। हम मजदूर के काम की पैसे में कीमत लगाते हैं और उसे मजदूरी दे देते हैं। परन्तु दक्षिणा की बात ऐसी नहीं है। दक्षिणा भिगोकर दी जाती है। दक्षिणा के सम्बन्ध में यह प्रश्न नहीं उठता कि कितनी दी। महत्त्व की बात यह है कि उसमें आर्द्रता है या नहीं। मनुस्मृति में एक बड़ी मजेदार बात है। एक शिष्य बारह साल गुरु-गृह में रहकर पशु से मनुष्य हुआ। अब वह गुरु-दक्षिणा क्या दे? प्राचीन समय में पहले ही फीस नहीं ले ली जाती थी। बारह साल पढ़ चुकने के बाद जो कुछ देना हो, सो गुरु को दे दिया जाता था। मनु कहते हैं- "चढ़ा दो गुरु जी को एक आध पत्र-पुष्प, दे दो एक आध पंखा या खड़ाऊं, या पानी से भरा कलश।’’ इसे आप मजाक मत समझिए, क्योंकि जो कुछ देना है, श्रद्धा का चिह्न समझकर देना है। फूल में भला क्या वजन है? परन्तु उसके भक्ति भाव में ब्रह्मांड के बराबर वजन है। रुक्मिणी नें एक्या तुळशीलळानें, गिरिधर प्रभु तुळिला- ‘रुक्मिणी ने एक ही तुलसी दल से गिरिधर प्रभु को तौल लिया। सत्यभामा के मन भर गहनों से काम नहीं चला। परन्तु भाव-भक्ति से पूर्ण एक तुलसी दल जब रुक्मिणी माता ने पलड़े में डाल दिया, तो सारा काम बन गया। वह तुलसी दल अभिमंत्रित था। अब वह मामूली नहीं रह गया था। कर्मयोगी के कर्म की भी यही बात है। 5.कल्पना कीजिए कि दो व्यक्ति गंगा स्नान करने गये हैं उनमें से एक कहता है- "लोग 'गंगा' 'गंगा' कहते हैं, उसमें क्या? दो हिस्से हाइड्रोजन, एक हिस्सा ऑक्सीजन, ऐसे दो गैस एकत्र कर दिये, तो हो गयी गंगा। इससे अधिक उसमें क्या है?" दूसरा कहता है- "भगवान विष्णु के पद-कमलों से निकली है, शंकर के जटाजूट में इसने वास किया है, हजारों ब्रह्मर्षियों ने और राजर्षियों ने इसके तीर पर तपस्या की है, अनंत पुण्य-कृत्य इसके तट पर हुए हैं- ऐसी यह पवित्र गंगामाई है।" इस भावना से अभिभूत होकर वह उसमें नहाता है। वह ऑक्सीजन-हाइड्रोजन वाला भी नहाता है। अब देह-शुद्धि रूपी फल तो दोनों को मिला ही। परन्तु उस भक्त को देह-शुद्धि के साथ ही चित्त-शुद्धि रूपी फल भी मिला। यों तो गंगा में बैल भी नहाये तो उसे देह-शुद्धि प्राप्त होगी। शरीर की गंदगी निकल जायेगी। परन्तु मन का मैल कैसे धुलेगा? एक को देह-शुद्धि का तुच्छ फल मिला, दूसरे को उसके अलावा चित्त-शुद्धि रूपी अनमोल फल भी मिला। स्नान करके सूर्य नमस्कार करने वाले को व्यायाम का फल तो मिलेगा ही। परन्तु वह अरोग्य के लिए नमस्कार नहीं करता, उपासना के लिए करता है। इससे उसके शरीर को तो आरोग्य-लाभ होता ही है, साथ ही बुद्धि की प्रभा भी फैलती है। आरोग्य के साथ स्फूर्ति और प्रतिभा भी उसे सूर्यनारायण से मिलेगी।

12. कर्मयोग के विविध प्रयोजन 8. निष्काम कर्मयोग में अद्भुत सामर्थ्य है। ऐसे कर्म से व्यक्ति और समाज, दोनों का परम कल्याण होता है। स्वधर्माचरण करने वाले कर्मयोगी की शरीर-यात्रा तो चलती ही है; परन्तु सदा-सर्वदा उद्योगरत रहने के कारण उसका शरीर निरोगी और स्वच्छ रहता है। उसके इस कर्म की बदौलत उस समाज का भी, जिसमें वह रहता है, अच्छी तरह योग-क्षेम चलता है। कर्मयोगी किसान, ज्यादा पैसा मिलेगा इसलिए अफीम और तंबाकू नहीं बोयेगा। वह अपने कर्म का सम्बन्ध समाज-मंगल के साथ जोड़ता है। स्वधर्मरूप कर्म समाज के लिए हितकर ही होगा। जो व्यापारी यह मानता है कि मेरा यह व्यवहार रूप कर्म जनता के हित के लिए है, वह कभी विदेशी कपड़ा नहीं बेचेगा। उसका व्यापार समाजोपकारक होगा। अपने को भूलकर अपने आस पास के समाज से समरस होने वाले ऐसे कर्मयोगी जिस समाज में पैदा होते हैं, उसमें सुव्यवस्था, समृद्धि और सौमनस्य रहता है। 9. कर्मयोगी के कर्म के फलस्वरूप उसकी शरीर-यात्रा तो चलती ही है, उसकी देह और बुद्धि तेजस्वी रहती है और समाज का भी कल्याण होता है। इन दो फलों के अलावा चित्त-शुद्धि का भी महान फल उसे मिलता है। कर्मणा शुद्धिः- ऐसा कहा गया है। कर्म चित्त-शुद्धि का साधन है; परन्तु सर्वसाधारण जो कर्म करते हैं, वह नहीं। कर्मयोगी जो अभिमंत्रित कर्म करता है, उसी से चित्तशुद्धि होती है। महाभारत में तुलाधार वैश्य की कथा है। जाजलि नामक ब्राह्मण तुलाधार के पास शब्द ज्ञान-प्राप्ति के लिए जाता है। तुलाधार उससे कहते हैं- "भैया, इस तराजू की डंडी को सदा सीधा रखना पड़ता है" इस बाह्य कर्म को करते हुए तुलाधार का मन भी सीधा-सरल हो गया। छोटा बच्चा दुकान में आये या बड़ी उम्र का, उसकी डंडी सबके लिए एक सी रहती है ऊंची, नीची। उद्योग का मन पर परिणाम होता है। कर्मयोगी के कर्म को एक प्रकार का जप ही समझो उससे उसकी चित्त-शुद्धि होती है और फिर निर्मल चित्त में ज्ञान का प्रतिबिंब पड़ता है। अपने उस-उस कर्मों से कर्मयोगी अंत में ज्ञान प्राप्त करते हैं। तराजू की डंडी से तुलाधार समवृत्ति मिली। सेना नाई बाल बनाया करता था। दूसरों के सिर का मैल निकालते-निकालते उसे ज्ञान हुआ- "देखो, मैं दूसरों के सिर का मैल तो निकालता हूं, परन्तु क्या खुद कभी अपने सिर का, अपनी बुद्धि का भी मैल मैंने निकाला है?" ऐसी आध्यात्मिक भाषा उसे उस कर्म से सूझने लगी। खेत का कचरा निकालते-निकालते कर्मयोगी को खुद अपने हृदय का वासना-विकाररूपी कचरा निकाल डालने को बुद्धि उपजती है। मिट्टी को रौंदकर समाज को पक्की हंडिया देने वाला गोरा कुम्हार अपने मन में ऐसी पक्की गांठ बांधता है कि मुझे अपने जीवन की भी हंडिया पक्की बना लेनी चाहिए। इस प्रकार वह हाथ में थपकी लेकरहंड़िया कच्ची है या पक्की?' यों संतों की परीक्षा लेने वाला परीक्षक बन जाता है। उस-उस कर्मयोगी को उस-उस कर्म या धंधे की भाषा में से ही भव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है। वे कर्म क्या थे, मानो उनकी आध्यात्म-शाला ही हों। उनके वे कर्म उपासनामय, सेवामय थे। वे देखने में व्यावहारिक, परन्तु वास्तव में आध्यात्मिक थे।

10. कर्मयोगी के कर्म से एक और भी उत्तम फल मिलता है और वह है, समाज के सामने एक आदर्श। समाज में यह भेद तो है ही कि यह पहले जनमा है और वह बाद में। जिनका जन्म पहले हुआ है, उनके जिम्मे बाद में पैदा होने वालों के लिए उदाहरण बन जाने का काम रहता है। बड़े भाई पर छोटे भाई को, मां-बाप पर बेटा-बेटी को, नेता पर अनुयायियों को, गुरु पर शिष्य को, अपनी कृति के द्वारा उदाहरण पेश करने की जिम्मेदारी है। ऐसा उदाहरण कर्मयोगी के सिवा और कौन उपस्थित कर सकता है? कर्मयोगी सदैव कर्म-रत रहता है; क्योंकि कर्म में ही उसे आनंद मालूम होता है। इससे समाज में दंभ नहीं बढ़ता। कर्मयोगी स्वयंतृप्त होता है, तो भी कर्म किये बिना उससे रहा नहीं जाता। तुकाराम कहते है- "भजन से भगवान मिल गया, तो क्या इसलिए मैं भजन छोड़ दूं? भजन तो अब हमारा सहज धर्म हो गया।" आधीं होता संतसंग। तुका झाला पांडुरंग। त्याचें भजन राहीना। मूळस्वभाव जाईना॥ 'पहले संतसंग था, जिससे तुकाराम पांडुरंग बन गया। लेकिन उसके भजन का तार अब टूटता नहीं। भला मूल स्वभाव भी कहीं छूटता है?' कर्म की सीढ़ी से चढ़कर शिखर तक पहुँच गये। परन्तु शिखर पर पहुँचने पर भी कर्मयोगी सीढ़ी नहीं छोड़ता। वह उससे छूट ही नहीं सकती। उसकी इंद्रियों को उन कर्मो को करने की सहज आदत पड़ जाती है। इस तरह स्वधर्म-कर्मरूपी सेवा की सीढ़ी का महत्त्व समाज को जंचाता रहता है। समाज से ढोंग का मिटना बहुत ही बड़ी चीज है। ढोंग-पाखंड से समाज डूब जाता है। ज्ञानी यदि शांत बैठ जाये, तो उसे देखकर दूसरे भी हाथ-पर-हाथ धरकर बैठने लगेंगे। ज्ञानी तो नित्य तृप्त होने के कारण आंतरिक सुख में तल्लीन रहकर शांत रहेगा; परन्तु दूसरा मनुष्य भीतर से रोता हुआ भी कर्म-शून्य हो जायेगा। एक अंतस्तृप्त होकर स्वस्थ बैठा है, तो दूसरा मन में कुढ़ता हुआ स्वस्थ बैठा है-ऐसी स्थिति भयंकर है। इससे दंभ, पाखंड बढ़ेगा। अतः सारे संत शिखर पर पहुँचकर भी साधना का पल्ला बड़ी सतर्कता से पकड़े रहे, आमरण स्वधर्माचरण करते रहे। माता बच्चों के गुड्डा-गुड़ियों के खेल में शरीर होकर उनमें रुचि उत्पन्न करती है। मां यदि उन खेलों में शरीक हो, तो बच्चों को उनमें मजा नहीं आयेगा। कर्मयोगी तृप्त होकर कर्म छोड़ देगा, तो दूसरे अतृप्त रहते हुए भी कर्म छोड़ देंगे, हालांकि मन में भूखे और निरानंद रहेंगे। अतः कर्मयोगी मामूली आदमी की तरह ही कर्म करता रहता है। वह यह नहीं मानता कि मैं कोई विशिष्ट मनुष्य हूँ। औरों की अपेक्षा वह अनंतगुना परिश्रम बाहर से करता है। अमुक एक कर्म पारमार्थिक है, ऐसी छाप लगाने की जरूरत नहीं है। कर्म का विज्ञापन करने की जरूरत नहीं है। यदि तुम उत्कृष्ट ब्रह्मचारी हो, तो अपने कर्म में औरों की अपेक्षा सौ गुना उत्साह दीखने दो। कम खाना मिलने पर भी तिगुना काम होने दो, समाज की सेवा अपने द्वारा अधिक होने दो। अपना ब्रह्मचर्य अपने आचार-व्यवहार में दीखने दो। चंदन की सुगंध बाहर फैलने दो। सार यह है कि कर्मयोगी फल की इच्छा छोड़ने से ऐसे अनंत फल प्राप्त करेगा। उसकी शरीर-यात्रा चलती रहेगी। शरीर और बुद्धि दोनों सतेज रहेंगे। जिस समाज में वह विचरेगा, वह समाज सुखी होगा। उसकी चित्तशुद्धि होकर ज्ञान भी मिलेगा और समाज से ढोंग, पाखंड मिटकर जीवन का पवित्र आदर्श भी प्रकट होगा। कर्मयोग की यह अनुभव सिद्ध महिमा है।

 

13. कर्मयोगव्रत का अंतराय 11. कर्मयोगी अपना कर्म औरों की अपेक्षा उत्कृष्ट रीति से करेगा; क्योंकि उसके लिए कर्म ही उपासना है, कर्म ही पूजा है। मैंने भगवान का पूजन किया। फिर पूजा का नैवेद्य प्रसाद के रूप में पाया। परंतु क्या वह नैवेद्य उस पूजा का फल है, जो नैवेद्य के लिए पूजन करेगा, उसे प्रसाद का अंश तो तुरंत मिलेगा ही। परन्तु जो कर्मयोगी है, वह अपने पूजा-कर्म के द्वारा परमेश्वर-दर्शनरूपी फल चाहता है। वह उस कर्म की कीमत इतनी थोड़ी नहीं समझता कि सिर्फ प्रसाद ही मिल जायें। वह अपने कर्म की कीमत कम आंकने के लिए तैयार नहीं है। स्थूल नाप से वह अपने कर्मों को नहीं नापता। जिसकी स्थूल दृष्टि है, उसे फल भी स्थूल ही मिलेगा। खेती की एक कहावत है- गहरा बो, पर गीला बो। महज गहरे जोतने से काम नहीं चलेगा, नीचे तरी भी होनी चाहिए। गहराई और तरी दोनों होंगी तो भुट्टा बड़ा, कलाई के बराबर निकलेगा। अतः कर्म गहरा अर्थात उत्कृष्ट होना चाहिए। फिर उसमें ईश्वर-भक्ति की ईष्वरार्पणतारूपी तरी भी होनी चाहिए। कर्मयोगी गहरा कर्म करके उसे ईश्वरार्पण कर देता है। परमार्थ के सम्बन्ध में कुछ मूर्खतापूर्ण कल्पनाएं हमारे अंदर फैल गयी हैं। लोग समझते हैं कि जो परमार्थी हो गया, उसे हाथ-पांव हिलाने की जरूरत नहीं, काम-काज करने की जरूरत नहीं। कहते हैं, जो खेती करता है, खादी बुनता है, वह कैसा परमार्थी? परन्तु कोई यह नहीं पूछता कि जो भोजन करता है, वह कैसा परमार्थी? कर्मयोगियों का परमेश्वर तो कहीं घोड़ों को खरहरा करता है, कहीं राजसूय-यज्ञ के समय जूठी पत्तलें उठाता है, कहीं जंगल में गायें चराने जाता है। वह द्वारिकाधीश फिर कभी गोकुल जाता, तो बंसी बजाते हुए गायें ही चराता। इस तरह संतों ने तो घोड़ों को खरहरा करने वाला, गायें चराने वाला, रथ हांकने वाला, पत्तल उठाने वाला, लीपने वाला, कर्मयोगी परमेश्वर खड़ा किया है। और खुद संत भी कोई दरजी का तो कोई कुम्हार का, कोई बुनकर का तो कोई माली का, कोई आटा पीसने का तो कोई बनिये का, कोई नाई का तो कोई मरे ढोर खींचने का, काम करते-करते मुक्त हो गये हैं। 12. ऐसे इस दिव्य कर्मयोग के व्रत से मनुष्य दो कारणों से डिगता है। इस सिलसिले में हमें इंद्रियों का विशिष्ट स्वभाव ध्यान में रखना चाहिए। हमारी इन्द्रियां सदैवयह चाहिए और वह नहीं चाहिए’- ऐसे द्वंद्वों से घिरी रहती हैं। जो चाहिए, उसके लिए राग अर्थात प्रीति, और जो नहीं चाहिए, उसके प्रति मन में द्वेष उत्पन्न होता है। ऐसे ये राग-द्वेष, काम-क्रोध मनुष्य को नोच-नोचकर खाते हैं कर्मयोग वैसे कितना बढ़िया, कितना रमणीय, कितना अनंत फलदायी है! परन्तु ये काम-क्रोधइसे ले और उसे छोड़’- ऐसा झमेला हमारे पीछे लगाकर दिन-रात हमे सताते रहते हैं। अतः भगवान इस अध्याय के अंत में खतरे की घंटी बजाते हैं कि इनका संग छोड़ो, इनसे बचो। स्थितप्रज्ञ जिस प्रकार संयम की मूर्ति होता है, उसी प्रकार कर्मयागी को बनना चाहिए।[1]

14. कर्म को विकर्म का योग चाहिए

1. भाइयो, पिछले अध्याय में हमने निष्काम कर्मयोग का विवेचन किया। स्वधर्म को टालकर यदि हम अवांतर धर्म स्वीकार करेंगे, निष्कामतारूपी फल अशक्य ही है। स्वदेशी माल बेचना व्यापारी का स्वधर्म है। परन्तु इस स्वधर्म को छोडकर जब वह सात समुन्दर पार का विदेशी माल बेचने लगता है, तब मूलतः उसके सामने यही हेतु रहता है कि बहुत नफा मिलेगा। तो फिर उसे कर्म में निष्कामता कहाँ से आयेगी? अतएव कर्म को निष्काम बनाने के लिए स्वधर्म पालन की अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु यह स्वधर्माचरण भीसकामहो सकता है। अहिंसा की ही बात हम लें, जो अहिंसा का उपासक है, उसके लिए हिंसा तो वर्ज्य है; परन्तु यह सम्भव है कि ऊपर से अहिंसक होते हुए भी वह वास्तव में हिंसामय हो; क्योंकि हिंसा मन का एक धर्म है। महज बाहर से हिंसा कर्म करने से ही मन अहिंसामय हो जायेगा, सो बात नहीं। तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परन्तु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं। ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है। निष्कामता के लिए 'पर धर्म' से तो बचना ही होगा। परन्तु यह तो निष्कामता का आरम्भ मात्र हुआ। इससे हम साध्य तक नहीं पहुँच गये।

निष्कामता मन का धर्म है। इसकी उत्पत्ति के लिए स्वधर्माचरण रूपी साधन ही काफी नहीं है। दूसरे साधनों का भी सहारा लेना पड़ेगा। अकेली तेल-बत्ती से दीया नहीं जल जाता। उसके लिए ज्योति की जरूरत होती है। ज्योति होगी, तो अंधेरा दूर होगा। यह ज्योति कैसे जलायें? इसके लिए मानसिक संशोधन की जरूरत है। आत्म-परीक्षण के द्वारा चित्त की मलिनता धो डालना चाहिए तीसरे अध्याय के अंत में यही मार्के की बात भगवान ने बतायी थी। इसी में से चौथे अध्याय का जन्म हुआ है।

 

2. गीता मेंकर्मशब्दस्वधर्मके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हमारा खाना, पीना, सोना, ये कर्म ही है; परन्तु गीता काकर्मशब्द से ये सब क्रियाएं सूचित नहीं होती हैं। कर्म से वहाँ मतलब स्वधर्माचरण से है। परन्तु इस स्वधर्माचरण रूपी कर्म को करके निष्कामता प्राप्त करने के लिए और भी एक महत्त्वपूर्ण सहायता जरूरी है। वह है, काम और क्रोध को जीतना। चित्त जब तक गंगाजल की तरह निर्मल और प्रशांत हो जाये, तब तक निष्कामता नहीं सकती। इस तरह चित्त-संशोधन के लिए जो-जो कर्म किये जायें, उन्हें गीताविकर्मकहती है।कर्म’ ‘विकर्मऔरअकर्म’- ये तीन शब्द इस चौथे अध्याय में बड़े महत्त्व के हैं।कर्मका अर्थ है, स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल क्रिया। इस बाहरी क्रिया में चित्त को लगाना हीविकर्महै। ऊपर से हम किसी को नमस्कार करते हैं, परन्तु सिर झुकाने की उस ऊपरी क्रिया के साथ ही यदि भीतर से मन भी झुकता हो, तो बाह्य क्रिया व्यर्थ है। अंतर्बाह्य दोनों एक होना चाहिए। बाहर से मैं शिवलिंग पर सतत जल-धार गिराते हुए अभिषेक करता हूँ। परन्तु इस जल-धारा के साथ ही यदि मानसिक चिन्तन की धारा भी अखंड चलती हो, तो उस अभिषेक की क्या कीमत रही? फिर तो सामने का वह शिव-लिंग भी पत्थर और मैं भी पत्थर। पत्थर के सामने पत्थर बैठा, यही उसका अर्थ होगा। निष्काम कर्मयोग तभी सिद्ध होता है, जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्त शुद्धिरूपी कर्म का भी संयोग होता है।

 

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