गीता प्रवचन-भाग–१३

 1. गीता के पहले पांच अध्यायों में हमने देखा कि जीवन की कुल योजना क्या है, और हम अपना जन्म सफल कैसे कर सकते हैं। उसके बाद छठे अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक हमने भक्ति का भिन्न-भिन्न प्रकार से विचार किया। ग्यारहवें अध्याय में भक्ति का दर्शन हुआ। बाहरवें में सगुण और निर्गुण भक्ति की तुलना करके भक्त के महान लक्षण देखे। बारहवें अध्याय के अंत तक कर्म और भक्ति, इन दोनों तथ्यों की छानबीन हुई। ज्ञान का तीसरा विभाग रह गया था, उसे हमने तेरहवें, चौदहवें और पंद्रहवें अध्यायों में देख लिया- आत्मा को देह से अलग करना और उसके लिए तीनों गुणों को जीतकर अंत में सर्वत्र प्रभु को देखना। पंद्रहवें अध्याय में जीवन का संपूर्ण शास्त्र देख लिया। पुरुषोत्तम-योग में जीवन की पूर्णता होती है। उसके बाद फिर कुछ बाकी नहीं रहता।


2. कर्म, ज्ञान और भक्ति की पृथक्ता मुझे सहन नहीं होती। कुछ साधकों की ऐसी निष्ठा होती है कि उन्हें केवल कर्म ही सूझता है। कोई भक्ति के स्वतंत्र मार्ग की कल्पना करते हैं और उसी पर सारा जोर देते हैं। कुछ लोगों को झुकाव ज्ञान की ओर होता है। जीवन का अर्थ केवल कर्म, केवल भक्ति, केवल ज्ञान- ऐसा केवल-वाद मुझे मंजूर नहीं। इसके विपरीत कर्म भक्ति, कुछ ज्ञान और कुछ कर्म, इस तरह का उपयोगिता-वाद भी मुझे नहीं जंचता।


पहले कर्म, फिर भक्ति, फिर ज्ञान, इस तरह से क्रम-वाद को भी मैं नहीं स्वीकारता। तीनों वस्तुओं का समन्वय किया जाये, यह सामंजस्य-वाद भी मुझे पंसद नहीं है। मुझे तो यह अनुभव करने की इच्छा होती है कि जो कर्म है वही भक्ति है, वही ज्ञान है। बर्फी के एक टुकड़े की मिठास, उसका आकार और उसका वजन अलग-अलग नहीं है। जिस क्षण हम बर्फी का टुकड़ा मुँह में डालते हैं, उसी क्षण उसका आकार भी हम खा लेते है और उसका वजन भी पचा लेते हैं, और उसकी मिठास भी चख लेते हैं। तीनों बातें मिली-जुली हैं। बर्फी के प्रत्येक कण में आकार, वजन और मधुरता है। यह नहीं कि उसके एक टुकड़े में केवल आकार है, दूसरे में कोरी मिठास है और तीसरे में सिर्फ वजन ही है।


उसी तरह जीवन की प्रत्येक क्रिया में परमार्थ भरा रहना चाहिए- प्रत्येक कृत्य सेवामय, प्रेममय और ज्ञानमय होना चाहिए। जीवन के अंग-प्रत्यंग में कर्म, भक्ति और ज्ञान भरा रहना चाहिए, इसे ‘पुरुषोत्तम-योग’ कहते है। सारे जीवन को केवल परमार्थमय ही बना डालना- यह बात बोलने में तो बड़ी आसान है। परंतु इस कथन में जो भाव है, उसका यदि विचार करने लगें, तो केवल निर्मल सेवा करने के लिए अंतःकरण में शुद्ध ज्ञान-भक्ति की हार्दिकता गृहीत समझकर चलना होगा। इसलिए कर्म, भक्ति और ज्ञान अक्षरक्षः एकरूप हैं, इस परम दशा को ‘पुरुषोत्तम-योग’ कहते हैं। यहाँ जीवन की अंतिम सीमा आ गयी।


सत्रहवां अध्याय परिशिष्ट-2 साधक का कार्यक्रम 94. सुव्यवस्थित व्यवहार से वृत्ति मुक्त रहती है 1. प्यारे भाइयों, हम धीरे-धीरे अंत तक पहुँचते आ रहे हैं। पंद्रहवें अध्याय में हमने जीवन के संपूर्ण शास्त्र का अवलोकन किया। सोलहवें अध्याय में एक परिशिष्ट देखा। मनुष्य के मन में और उसके मन के प्रतिबिंब स्वरूप समाज में दो वृत्तियों, दो संस्कृतियों अथवा दो संपत्तियों का झगड़ा चल रहा है। इनमें से हमें दैवी संपत्ति का विकास करना चाहिए, यह शिक्षा सोलहवें अध्याय के परिशिष्ट से मिली है। आज सत्रहवें अध्याय में हमें दूसरा परिशिष्ट देखना है। एक दृष्टि से कह सकते हैं कि इसमें कार्यक्रम-योग कहा गया है। गीता इस अध्याय में रोज के कार्यक्रम की सूचना दे रही है। आज के अध्याय में हमें नित्य क्रिया पर विचार करना है। 2. अगर हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे, तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कार्यक्रम किसी-न-किसी निश्चित आधार पर चलना चाहिए। मन तभी मुक्त रह सकता है, जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में और एक निश्चित नियमित रीति से चलता रहे। नदी स्वच्छंदता से बहती है, परंतु उसका प्रवाह बंधा हुआ है। यदि वह बद्ध न हो, तो उसकी मुक्तता व्यर्थ चली जायेगी। ज्ञानी पुरुष का उदाहरण अपनी आंखों के सामने लाओ। सूर्य ज्ञानी पुरुषों का आचार्य है। भगवान ने पहले-पहल कर्मयोग सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य से मनु को, अर्थात विचार करने वाले मनुष्य को, वह प्राप्त हुआ। सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है। वह नियमित है- इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार है। यह हमारे अनुभव की बात है कि हमें एक निश्चित रास्ते से घूमने जाने की आदत है, तो रास्ते की ओर ध्यान न देते हुए भी मन से विचार करते हुए हम घूम सकते हैं। यदि घूमने के लिए हम रोज नये-नये रास्ते निकालते रहेंगे, तो सारा ध्यान उन रास्तों में लगाना पड़ेगा। फिर मन को मुक्तता नहीं मिल सकती। सारांश यह कि हमें अपना व्यवहार इसीलिए बांध लेना चाहिए कि जीवन एक बोझ सा नहीं, बल्कि आनंदमय प्रतीत हो।


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