विनोबा
भावे का मूल नाम
विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र
में एक गांव है,
गागोदा. यहां के चितपावन ब्राह्मण
थे, नरहरि भावे. गणित के प्रेमी और
वैज्ञानिक सूझबूझ वाले. रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंगों
को बाहर से आयात करना
पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में
लगे रहते. बस एक धुन
थी उनकी कि भारत को
इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके. उनकी
पत्नी रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं. इसका असर उनके दैनिक कार्य पर भी पड़ता
था। मन कहीं ओर
रमा होता तो कभी सब्जी
में नमक कम पड़ जाता,
कभी ज्यादा.
कभी दाल के बघार में
हींग डालना भूल जातीं तो कभी बघार
दिए बिना ही दाल परोस
दी जाती. पूरा घर भक्ति रस
से सराबोर रहता था। इसलिए इन छोटी-मोटी
बातों की ओर किसी
का ध्यान ही नहीं जाता
था। उसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का
जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था
विनायक. मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर
बुलातीं. विनोबा के अलावा रुक्मिणी
बाई के दो और
बेटे थे: वाल्कोबा और शिवाजी. विनायक
से छोटे वाल्कोबा. शिवाजी सबसे छोटे. विनोबा नाम गांधी जी ने दिया
था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’
लगाने का जो चलन
है, उसके अनुसार. तुकोबा, विठोबा और विनोबा.
वो हाजिरजवाब भी
थे और एक बार
उनके नाखून नहीं कटे होने कि वजह से
साथ वाले मित्रो ने चुटकी ली
कि क्या बात है विनोबा तुम्हारे
नाखून क्यों नहीं कटे है इस पर
विनोबा ने सहज भाव
से उत्तर दिया ” तुम्हे क्यों चिंता हो रही है
तुम नाई हो क्या ” सुनकर
सब लड़के हंस पड़े और वो बालक
जिसने सवाल किया था बहुत लज्ज्ति
हुआ | वो जितने पढाई
में तेज थे उतने ही
अन्य कार्यो में भी थे गणित
में तो खासतौर पर
वो अपनी क्लास में सबसे आगे रहते |
उसी तरह वो देशभक्ति में
भी खूब आगे थे एक दिन
उनके गाँव में उनके किसी मित्र के यंहा खेत
में एक अंग्रेज अफसर
आया जिसने विनोबा के मित्र के
यंहा खेत में अपना तम्बू गाडा और अपने काम
पर चला गया |विनोबा को जब मालूम
हुआ तो अपने सब
मित्रो को लेकर वो
अपने मित्र के यंहा पहुंचे
और अपने मित्र से कहा जिन
लोगो ने हम गुलाम
बना रखा है तुमने उसी
को अपने यंहा ठहरा रखा है | इस पर उनके
मित्र ने कहा मुझे
तो कुछ मालूम नहीं इस पर वो
अपने मित्रो के साथ उस
खेत में पहुंचे और उस अंग्रेज
का तम्बू बातों ही बातों में
उखड कर फेंक दिया
और वो अंग्रेज अधिकारी
उन साहसी बालकों का विरोध भी
नहीं कर पाया |
आचार्य विनोबा भावे का स्वांतत्र्योतर समय
में महत्वपूर्ण कामगिरी मतलब भूदान आंदोलन इस आंदोलन में
जमीनदारों ने उनके जमीन
का छटवां हिस्सा उन्हें दान में देना जिनके पास जमीन नहीं. ऐसी विनोबा ने मांग की.
1951 में नक्षलवादी समूह ने आंध्रप्रदेश के
तेलंगना हिस्से में जमीनदारो के खिलाफ सहस्त्र
संघर्ष शुरू कराने के बाद विनोबाने
अपना ‘भूदान आंदोलन’ व्यापक किया. पंतप्रधान पं. जवाहरलाल नेहरू को मिलने के
लिये वो दिल्ली को
चलकर गये. उसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, ओरिसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र ऐसे अनेक राज्यों से 1951 से 1964 ऐसे 14 साल विनोबा ग्रामदान के आंदोलन के
लिये देशभर पैदल घुमे. खुदके उम्र के 55 से 68 इतने साल 40 हजार मैल चलकर उन्होंने देश का बड़ा सवाल
जनता के पास जाकर
सुलझाने का प्रयास किया.
ग्रामदान, संपत्तीदान ये आंदोलन चलाये.
और दूसरी तरफ कंचनमुक्ती, ॠषीशेती जैसे खेत के विषय में
प्रयोग भी किये.
विनोबाने किया हुवा ‘सब भूमी गोपाल
की’ का नाश उस
समय में भारत में बहोत गूंजा. विनोबा खुद को विश्व नागरिक
समजते थे इसीवजह से
अपने किसी भी लेख अथवा
संदेश के आखीर में
वो ‘जय जगत’ ऐसा
याद से लिखते थे.
हिंदु, मुस्लिम, ख्रिचन वैसेही बौद्ध ये सभी धर्म
को लोगों में संघर्ष के अलावा प्रेम,
बंधुभाव और शांतता की
शिक्षा उन्होंने दी. इसी दृष्टिकोण के वजह से
उन्होंने हिंदू के धर्म ग्रथों
के जैसे ही मुस्लिम, और
ख्रिस्ती इन धर्म ग्रंथो
का भी उन्होनें अभ्यास
किया. लोगों-लोगों में का फर्क भुलकर
शांती और प्रेम का
मार्ग दिखानेवाली विश्वधर्म की स्थापना होनी
चाहिये इसलिये विनोबाने सर्वोदय की योजना बनायीं.
25 मार्च 1916 को इंटरमीडियट करने
के पश्चात् वे अहमदाबाद स्थित
गांधीजी के आश्रम में
पहुंचे । वहां से
कुछ समय पश्चात् सूरत, उत्तरप्रदेश पहुंचकर भिक्षुक की तरह जीवन
बिताया । 1920 में वर्धा आश्रम के संचालन का
कार्य उन्होंने अपने कन्धों पर ले लिया
। गांधीजी की तरह सत्य,
अहिंसा तथा सत्याग्रह के माध्यम से
अंग्रेज विरोधी आन्दोलनों का नेतृत्व किया
। नागपुर में झण्डा सत्याग्रह कर सजा काटी
। 1940 में प्रथम सत्याग्रही के रूप में
विनोबा ने अपना भाषण
पवनार में दिया । 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो
आन्दोलन के सिलसिले में
जेल चले गये । 9 जुलाई 1945 को जेल से
रिहा होकर पवनार आश्रम का भार पुन:
अपने कन्धों पर ले लिया
। 15 अगस्त को आजादी मिलते
ही बंगाल में दीन-दुखियों के कष्ट निवारण
के लिए निकल पड़े ।
विनोबाजी ने शिक्षा को
एक आन्तरिक प्रक्रिया माना है, बाह्य ज्ञान नहीं । वे शिक्षा
का उद्देश्य बालक को उत्तम संस्कार
देने के साथ-साथ
शरीर, मन, आत्मा का विकास मानते
थे । सामाजिक विकास
सभी व्यक्तियों का विकास, आर्थिक
स्वावलम्बन का विकास, जीवन
जीने की कला का
विकास, आध्यात्मिक विकास उनके शैक्षिक उद्देश्य थे । बालक
के पाठ्यक्रम में सामाजिकता के विकास तथा
वर्धा शिक्षा योजना के पाठ्यक्रम को
महत्त्व दिया । क्रियात्मक विधि,
श्रुत विधि, विश्रामसहित शिक्षण, भ्रमण विधि को श्रेष्ठ शिक्षण
विधि माना । स्त्रियों की
शिक्षा पर उन्होंने विशेष
बल दिया ।
विनोबा भावे का 'भूदान आंदोलन' का विचार 1951 में
जन्मा। जब वह आन्ध्र
प्रदेश के गाँवों में
भ्रमण कर रहे थे,
भूमिहीन अस्पृश्य लोगों या हरिजनों के
एक समूह के लिए ज़मीन
मुहैया कराने की अपील के
जवाब में एक ज़मींदार ने
उन्हें एक एकड़ ज़मीन
देने का प्रस्ताव किया।
इसके बाद वह गाँव-गाँव
घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि
का दान करने की अपील करने
लगे और उन्होंने इस
दान को गांधीजी के
अहिंसा के सिद्धान्त से
संबंधित कार्य बताया। भावे के अनुसार, यह
भूमि सुधार कार्यक्रम हृदय परिवर्तन के तहत होना
चाहिए न कि इस
ज़मीन के बँटवारे से
बड़े स्तर पर होने वाली
कृषि के तार्किक कार्यक्रमों
में अवरोध आएगा, लेकिन भावे ने घोषणा की
कि वह हृदय के
बँटवारे की तुलना में
ज़मीन के बँटवारे को
ज़्यादा पसंद करते हैं। हालांकि बाद में उन्होंने लोगों को 'ग्रामदान' के लिए प्रोत्साहित
किया, जिसमें ग्रामीण लोग अपनी भूमि को एक साथ
मिलाने के बाद उसे
सहकारी प्रणाली के अंतर्गत पुनर्गठित
करते।
विचार
:
• मनुष्य
जितना ज्ञान में घुल गया हो उतना ही
कर्म के रंग में
रंग जाता है।
• जिस
राष्ट्र में चरित्रशीलता नहीं है उसमें कोई
योजना काम नहीं कर सकती।
• प्रतिभा
का अर्थ है बुद्धि में
नई कोपलें फूटते रहना। नई कल्पना, नया
उत्साह, नई खोज और
नई स्फूर्ति प्रतिभा के लक्षण हैं।
• जबतक
कष्ट सहने की तैयारी नहीं
होती तब तक लाभ
दिखाई नहीं देता। लाभ की इमारत कष्ट
की धूप में ही बनती है।
• हिन्दुस्तान
का आदमी बैल तो पाना चाहता
है लेकिन गाय की सेवा करना
नहीं चाहता। वह उसे धार्मिक
दृष्टि से पूजन का
स्वांग रचता है लेकिन दूध
के लिये तो भैंस की
ही कद्र करता है। हिन्दुस्तान के लोग चाहते
हैं कि उनकी माता
तो रहे भैंस और पिता हो
बैल। योजना तो ठीक है
लेकिन वह भगवान को
मंजूर नहीं है।
• सिर्फ
धन कम रहने से
कोई गरीब नहीं होता, यदि कोई व्यक्ति धनवान
है और इसकी इच्छाएं ढेरों हैं तो वही सबसे
गरीब है।
• हिन्दुस्तान
की एकता के लिये हिन्दी
भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है।
• तगड़े
और स्वस्थ व्यक्ति को भीख देना,
दान करना अन्याय है। कर्महीन मनुष्य भिक्षा के दान का
अधिकारी नहीं हो सकता।
• संघर्ष
और उथल पुथल के बिना जीवन
बिल्कुल नीरस बन कर रह
जाता है। इसलिए जीवन में आने वाली विषमताओं को सह लेना
ही समझदारी है।
• भविष्य
में स्त्रियों के हाथ में
समाज का अंकुश आने
वाला है। उसके लिए स्त्रियों को तैयार होना
पड़ेगा। स्त्रियों का उद्धार तभी
होगा, जब स्त्रियाँ जागेंगी
और स्त्रियों में शंकराचार्य जैसी कोई निष्ठावान स्त्री होगी।
• अभिमान
कई तरह के होते हैं,
पर मुझे अभिमान नहीं है, ऐसा भास होने जैसा भयानक अभिमान दूसरा नहीं है.
• प्रतिभा
का अर्थ है बुद्धि में
नयी कोंपलें फूटते रहना. नयी कल्पना, नया उत्साह, नयी खोज और नयी स्फूर्ति
प्रतिभा के लक्षण हैं.
• अनुशासन,
लक्ष्यों और उपलब्धि के
बीच का सेतु है.
यकीन मानिए ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान
ज्यादा आत्मविश्वास पैदा करता है.
• जब
हम किसी नयी परियोजना पर विचार करते
हैं तो हम बड़े
गौर से उसका अध्ययन
करते हैं. केवल सतह मात्र का नहीं, बल्कि
उसके हर एक पहलू
का.
• प्रतिभा
का अर्थ है बुद्धि में
नई कोपलें फूटते रहना नई कल्पना, नया
उत्साह, नई खोज और
नई स्फूर्ति प्रतिभा के लक्षण हैं
• हिन्दुस्तान
की एकता के लिये हिन्दी
भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है
• भविष्य
में स्त्रियों के हाथ में
समाज का अंकुश आने
वाला है उसके लिए
स्त्रियों को तैयार होना
पड़ेगा स्त्रियों का उद्धार तभी
होगा, जब स्त्रियाँ जागेंगी
और स्त्रियों में शंकराचार्य जैसी कोई निष्ठावान स्त्री होगी |