वस्त्रोत्पादन करने वाले यदि यह चाहें कि उनको सस्ता अन्न मिले, तो अन्न पैदा करने वालों को भी सस्ता कपड़ा मिले, इसकी व्यवस्था उनको करनी चाहिए। परस्पर हित की भावना जब छूट जायेगी, वर्गवाद आ जायेगा। वर्गवाद संघर्ष की सृष्टि करता है। असल में वर्ग शब्द का अर्थ ही संवर्जन, अर्थात् तुम नहीं मैं। संवर्ग शब्द उपनिषदों में बहुत अधिक प्रसिद्ध है- ‘वर्जनम् वर्गः’। जहाँ भी वर्ग बना वहाँ संघर्ष हुआ। जब आप व्यवहार में एक दूसरे के हित पर दृष्टि रखेंगे तभी आपको श्रेय की प्राप्ति होगी।
एक और छोटी-सी बात आपको सुनाता हूँ। वृन्दावन में ग्वारिया बाबा नाम के एक प्रसिद्ध महात्मा रहते थे। उनके प्रति दतिया के राजा की बड़ी श्रद्धा थी। वे उनको अपना गुरु मानते थे। एक बार वे उनको आग्रहपूर्वक दतिया ले गये। वहाँ राजा ने पूछा- ‘महाराज! आपकी क्या सेवा करें? ‘बाबा बोले- ‘मुझे राजा बना दे।’ राजा ने कहा- ‘ब्रिटिश सरकार से अनुमति लिये बिना मैं आपको राजा नहीं बना सकता।’ किन्तु जब बाबा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे राजा बनने का आग्रह करते रहे, तब राजा ने कहा- ‘अच्छा महाराज! मैं तीन दिन के लिए राज्य से कहीं बाहर जा रहा हूँ और आप शासन की बागडोर सम्भाल लीजिये।’ बाबा बोले ‘अच्छी बात है मेरे लिए तीन दिन बहुत हैं।’ राजा जाते समय आदेश दे गये कि सब लोग बाबा की आज्ञा का पालन करें।
इन श्लोकों का अर्थ हम बहुत थोड़े समझाते हैं। बात प्राचीन पद्धति कही गयी है और नयी पद्धति से हम उसको समझाने की कोशिश करते हैं। एक शब्द है जो दो हज़ार वर्ष पहले अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होता था किन्तु आज उसका बहुत बुरा अर्थ हो गया है। इसी प्रकार जो शब्द पहले बुरे अर्थ में प्रयुक्त होता था, अब अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है।
मैं ऐसे कितने ही शब्दों को जानता हूँ- जिन्होंने दो हज़ार वर्ष में अपना कलेवर, अपना अर्थ, अपना प्रयोग बदल दिया है। जो लोग पुरानी बात को पुरानी भाषा में नहीं समझते, नयी भाषा में समझने की कोशिश करते हैं, वे अपनी बात को ठीक कह लेते हैं, लेकिन पुरानी बात में क्या कहा गया है, यह पकड़ नहीं पाते और उसके साथ अन्याय हो जाता है। आपने ‘जीव’ शब्द पर ध्यान दिया होगा? इसका जो मूल रूप है उसको ‘बीज’ बोलते हैं। ज+ई+ब मिलाकर जीव बनता है और एक ओर से पढ़ते हैं तो ‘बीज’ और दूसरी ओर से पढ़ते हैं तो ‘जीव’। जहाँ तक उच्चारण की बात है ‘व’ अन्तःस्थ है और ‘ब’ ओष्ठ्य। जब हम वृक्ष-वनस्पतियों के बारे में बताते हैं तब बीज शब्द का प्रयोग करते हैं और चेतन के बारे में बताते हैं तब जीव शब्द का प्रयोग करते हैं। वृक्ष-वनस्पति भी प्राणी हैं, ये हवा में साँस लेते हैं और आपस में बातचीत भी करते हैं। परस्पर सम्बन्ध रखते हैं। वसन्त ऋतु में जब सरसों फूलती है तो उसका एक पौधा दूसरे पौधों पर निशाना लगाकर पिचकारी मारता है। वृक्ष-वनस्पतियों को गाली दी जाये तो वे दास हो जाते हैं। संगीत सुनाया जाये तो सुखी हो जाते हैं। इनमें भी भाव होता है। वैज्ञानिकों ने यह सब देख लिया है। सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि- अन्न सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि के लिए है। पृथ्वी अन्न है, जल अन्न है, अग्नि अन्न है, वायु अन्न है, आकाश अन्न है, क्योंकि इन सबका भोजन करते हैं, ‘जीव’ और ‘बीज’। यदि बीज को खाने के लिए मिट्टी न मिले, पीने के लिए पानी न मिले, रोशनी न मिले तो क्या बीज अंकुरित होगा? आगे बढ़ेगा? बीज को भी भोजन चाहिए और जीव को भी। चमकने वाली सारी सृष्टि माया, प्रकृति, अविद्या, महतत्त्व, अहंकार, तन्मात्रा ये सब अन्न हैं। अन्न से ही जीव प्रकट होते हैं। परन्तु अन्न का स्वभाव पर्जन्य से प्रकट होता है। पर्जन्य का अर्थ है मेघ, मेहन करने वाला परमात्मा परमेश्वर। एवं जीव ही समष्टि जीव है, हिरण्यगर्भ है और वही पर्जन्य है। वह सबपर बरसता है। परन्तु उसमें विशेषता यज्ञ से आती है। जिसके जीवन में जितना यज्ञ है, उसमें उतनी ही उत्कृष्ट विशेषता है। पहले यज्ञ है फिर पर्जन्य है। पर्जन्य से अन्न है और अन्न से प्राणी हैं।
तीन के ऊपर जो यज्ञ है और यज्ञ के ऊपर जो तीन हैं, इन सबको चक्र बोलते हैं। यज्ञ है चक्री और छह हैं उसके अरे। यदि संसार की ओर देखें तो यज्ञ ही जी को, अन्न को और प्राणियों को पालन-पोषण दे रहा है। ऊपर की ओर देखें तो यज्ञ से कर्म, कर्म से ब्रह्म, ब्रह्म से अक्षर-इनका साक्षात्कार होता है। इस प्रकार यज्ञ परमात्मा के साक्षात्कार में भी सहायक है और सृष्टि के सन्चालन में भी सहायक है।
यज्ञ बीच में धुरी के केन्द्र में बैठा हुआ है। इसी से परमात्मा मिलता है और इसी से संसार बनता है। हमारे जीवन में यज्ञ का आविर्भाव होना चाहिए। यदि यज्ञ नहीं आयेगा तो संसार का न तो आध्यात्मिक कल्याण होगा और न भौतिक। जैसा कि यज्ञ के बारे में आपको कई बार बताया गया, एक ओर यज्ञ जहाँ ग्रहण करता है दूसरी ओर उसे लौटा देता है। आपके हाथ कमायें लेकिन जिससे कमाते हैं उनके ऊपर फिर बरस दें। ठीक वैसे ही जैसे मेघ समुद्र से जल लेकर बरस देता है।
जल मेघ का जीवन भी है और दूसरों का जीवन भी है। यह जो सृष्टि-यज्ञ हो रहा है इसके अनुसार हम अपने को सूर्य के साथ, चन्द्रमा के साथ, वायु के साथ- अग्नि के साथ जितना जोड़ देगें और इनके गुणों को धारण करके जितना सबका भला करेंगे उतना ही हमारे जीवन में यज्ञ आयेगा और उससे संसार भी बनेगा तथा भगवत्प्राप्ति भी होगी।
भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ रखा बीच में। एक और परमार्थ तथा दूसरी ओर व्यवहार को प्रतिष्ठित किया। शरीर-निर्माण के निर्वाहक तत्त्व हैं भूत और उनका निर्वाहक तत्त्व है अन्न। मिट्टी, पानी, आग में भोक्ता की जो शक्ति है वह पर्जन्य है। सम्पूर्ण विश्व का भोक्ता एक होता है। जीव-दृष्टि से आत्मा सबका भोक्ता है और सबके रूप में है। विश्व-दृष्टि से परमेश्वर सबका भोक्ता है। सबका भोग ईश्वर कर रहा है- यह विश्वास है और सबका भोग आत्मदेव कर रहे हैं- यह अनुभूति है। ईश्वर के सम्बन्ध में हम जितना सोचते हैं- यदि विश्वास नहीं होगा तो उसका पूरा पड़ना कठिन हो जायेगा। अपने बारे में हम जितना सोचते हैं, उतना सब-का-सब अनुभावारूढ़ होना चाहिए, केवल कल्पना नहीं। अनुभव की दिशा है आत्मा और विश्वास का गन्तव्य है परमात्मा।
एक बात देखो। दृष्टिकोण का भी फर्क हो जाता है। दुनिया को यदि केवल मशीनों से नापा जाये तो जड़ता-ही-जड़ता मिलेगी, क्योंकि मशीन की नोंक पर जड़ आता है, चेतन कभी आता ही नहीं। साइन्स सारा-का-सारा मशीन की नोंक पर चलता है। इसलिए उसको जड़, मैटर-मृत्ति का आदि के सिवाय दूसरी कोई वस्तु मिलने वाली नहीं। जब केवल बुद्धि से सोचते हैं तब शून्य का बोध होता है, जब श्रद्धायुक्त बुद्धि से सोचते हैं तब ईश्वर प्राप्त होता है और जब अनुभूति के सम्मुख परमेश्वर को देखते हैं तब आत्मा एवं ब्रह्म की एकता मिलती है। हम कहाँ बैठे हैं और किस दृष्टिकोण से सृष्टि को तौल रहे हैं इसके कारण बहुत फर्क पड़ जाता है। आप किसी पत्थर के टुकड़े को यहाँ बैठकर तौलिये और फिर उसी को भारमुक्त वातावरण में तौलिये तो उसके वजन में फर्क पड़ेगा।
इस तरह हम वस्तुओं के सम्बन्ध में जो नाप-तौल करते हैं, वह हमारे स्तर के अनुरूप हो जाता है। अनुभव के क्षेत्र में आत्मा का बाध नहीं। यह बताया जा चुका है। कि हम लोग जो कर्म अथवा यज्ञ करते हैं, उसमें पहले शरीर है। शरीर के बाद भूत हैं, भूत के बाद भोक्ता है और भोक्ता के बाद यज्ञ बैठा हुआ है। फिर यज्ञ के बाद कर्म, कर्म के बाद ब्रह्म और ब्रह्म के बाद अक्षर है। तीन ऊपर और तीन नीचे के छह अरों वाले चक्र को चलाने वाला है यज्ञ। यदि आप स्वार्थ चाहते हैं तो भी यज्ञ कीजिए और परमार्थ चाहते हैं तो भी यज्ञ कीजिये।
यज्ञ एक ओर आपके अन्तःकरण को शुद्ध करेगा और दूसरी ओर आपको मनचाहे फल देगा। यज्ञ को संसार की ओर लगायें तो मनचाहे फल मिलेंगे और निष्काम होकर करें तो अन्तःकरण शुद्ध होकर परमार्थ का साक्षात्कार होगा।