यह सबका अनुभव है कि हम अपने को जिस वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि कामानते हैं, उसी के अनुसार हमारा जीवन बनता है। पर यह मान्यता (जैसे- मैं ब्राह्मण हूँ; मैं साधु हूँ आदि) केवल (नाटक के स्वाँग की तरह) कर्तव्य-पालन के लिए है; क्योंकि यह सदा रहने वाली नहीं है। परंतु ‘भगवान का हूँ’ यह वास्तविकता सदा रहने वाली है। ‘मैं ब्राह्मण हूँ; मैं साधु हूँ’ आदि भाव कभी हमसे ऐसा नहीं कहते कि ‘तुम ब्राह्मण हो’ या ‘तुम साधु हो।’ इसी प्रकार मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर, धन, जमीन, मकान आदि जिन पदार्थों को हम भूल से अपना मान रहे हैं, वे हमें कभी भी ऐसा नहीं कहते कि तुम हमारे हो, पर संपूर्ण सृष्टि के रचियता परमात्मा स्पष्ट घोषणा करते हैं कि जीव मेरा ही है! विचार करना चाहिए कि शरीरादि पदार्थों को हम अपने साथ लाये नहीं, इच्छानुसार उसमें परिवर्तन कर सकते नहीं, इच्छानुसार उनको अपने पास स्थिर रख सकते नहीं, हम भी उनके साथ सदा रह सकते नहीं, उनको अपने साथ ले जा सकते नहीं, फिर भी उनको अपना मानते हैं- यह हमारी कितनी बड़ी भूल है! बचपन में हमारे मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर जैसे थे, वैसे अब नहीं हैं, सब-के-सब बदल गए हैं, फिर भी हम ‘मैं जो बचपन में था, वही अब हूँ’ ऐसा मानते हैं। कारण यही है कि शरीरादि में परिवर्तन होने पर भी हमारे में परिवर्तन नहीं हुआ। इस प्रकार शरीरादि हमें स्पष्ट परिवर्तन दीखता है। जिसको परिवर्तन दीखता है, वह स्वयं परिवर्तनरहित होता ही है। अतः संसार के पदार्थ, व्यक्ति हमारे साथी नहीं है। ‘मैं भगवान का हूँ’- ऐसा भाव रखना अपने-आपको भगवान में न लगाकर मन-बुद्धि को भगवान में लगाने की कोशिश करते हैं। ‘मैं भगवान का हूँ’- इस वास्तविकता को भूलकर ‘मैं ब्राह्मण हूँ; मैं साधु हूँ’ आदि भी मानते रहें और मन-बुद्धि को भगवान में लगाते रहें तो यह दुविधा कभी मिटेगी नहीं, और बहुत प्रयत्न करने पर भी मन-बुद्धि जैसे भगवान में लगने चाहिए, वैसे लगेंगे नहीं। भगवान ने भी इस अध्याय के चौथे श्लोक में ‘मैं उस परमात्मा के शरण हूँ’ पदों से अपने-आपको परमात्मा में लगाने की बात ही कही है। गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं कि पहले भगवान का होकर फिर नाम-जप आदि साधन करें तो अनेक जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति आज अभी सुधर सकती है- बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु । होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ।।[1] तात्पर्य है कि भगवान में केवल मन-बुद्धि लगाने की अपेक्षा अपने-आपको भगवान में लगाना श्रेष्ठ है। अपने आपको भगवान में लगाने से मन-बुद्धि स्वतः सुगमतापूर्वक भगवान में लग जाते हैं।
नाटक का पात्र हजारों दर्शकों के सामने यह कहता है कि ‘मैं रावण का बेटा मेघनाद हूँ’ और मेघनाद की तरह ही वह बाहरी सब क्रियाएँ करता है। परंतु उसके भीतर यह भाव हरदम रहता है कि यह तो स्वांग है; वास्तव में मैं मेघनाद हूँ ही नहीं। इसी तरह साधकों को भी नाटक के स्वांग की तरह इस संसाररूपी नाट्यशाला में अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भीतर से ‘मैं तो भगवान का हूँ’ ऐसा भाव हरदम जाग्रत रखना चाहिए। जीव सदा से ही भगवान का है- ‘सनातनः।’ भगवान ने न तो कभी जीव का त्याग ही किया, न कभी उससे विमुख ही हुए। जीव भी भगवान का त्याग नहीं कर सकता। भगवान के द्वारा ही मिली हुई स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके वह भगवान से विमुख हुआ है। जिस प्रकार सोने का गहना तत्त्वतः सोने से अलग नहीं हो सकता, उसी प्रकार जीव भी तत्त्वतः परमात्मा से कभी अलग नहीं हो सकता। बुद्धिमान कहलाने वाले मनुष्य की यह बहुत बड़ी भूल है कि वह अपने अंशी भगवान से विमुख हो रहा है। वह इधर खयाल ही नहीं करता कि भगवान इतने सुहृद (दयालु और प्रेमी) हैं कि हमारे न चाहने पर भी हमें चाहते हैं, न जानने पर भी हमें जानते हैं। वे कितने उदार, दयालु और प्रेमी हैं- इसका वर्णन भाषा, भाव, बुद्धि आदि के द्वारा हो ही नहीं सकता। ऐसे सुहृद भगवान को छोड़कर अन्य नाशवान जड पदार्थों को अपना मानना बुद्धिमानी नहीं, प्रत्युत महान मूर्खता है। जब मनुष्य भगवान के आज्ञानुसार अपने कर्तव्य का पालन करता है, तब वे उसकी इतनी उन्नति कर देते हैं कि जीवन सफल हो जाता है और जन्म-मरण रूप बंधन सदा के लिए मिट जाता है। जब मनुष्य भूल से कोई निषिद्ध आचरण (पाप) कर बैठता है, तब वे दुःखों को भेजकर उसको चेताते हैं, पुराने पापों को भुगतान कर उसको शुद्ध करते हैं और नये पापों में प्रवृत्ति से रोकते हैं। जीव कहीं भी क्यों न हो, नरक में हो अथवा स्वर्ग में, मनुष्ययोनि में हो अथवा पशुयोनियों में, भगवान सबको अपना ही अंश मानते हैं। यह उनकी कितनी अहैतु की कृपा, उदारता और महत्ता है! जीव के पतन को देखकर भगवान दुःखी होकर कहते हैं कि मेरे पास आने का उसका पूरा अधिकार था, पर वह मेरे को प्राप्त किए बिना (‘माम् अप्राप्य’) नरकों में जा रहा है।[1] मनुष्य चाहे किसी भी स्थिति में क्यों न हो, भगवान उसे वहाँ स्थिर नहीं रहने देते; उसे अपनी ओर खींचते ही रहते हैं। जब हमारी सामान्य स्थिति में कुछ भी परिवर्तन (सुख-दुःख, आदर-निरादर आदि) हो, तब यह मानना चाहिए कि भगवान हमें विशेष रूप से याद करके नयी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं; हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। ऐसा मानकर साधक प्रत्येक परिस्थिति में विशेष भगवत्कृपा को देखकर मस्त रहे और भगवान को कभी भूले नहीं।
अंशी को प्राप्त करने में अंश को कठिनाई और देरी नहीं लगती। कठिनाई और देरी इसलिए लगती है कि अंश ने अपने अंशी से विमुकता मानकर उन शरीरादि को अपना मान रखा है, जो अपने नहीं है। अतः भगवान के सम्मुख होते ही उनकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है। सम्मुख होना जीव का काम है; क्योंकि जीव ही भगवान से विमुक हुआ है। भगवान तो जीव को अपना मानते ही हैं; जीव भगवान को अपना मान ले- यही सम्मुखता है। मनुष्य से यह बड़ी भारी भूल हो रही है कि जो व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति अभी नहीं है अथवा जिसका मिलना निश्चित भी नहीं है और जो मिलने पर भी सदा नहीं रहेगी- उसकी प्राप्ति में वह अपना पूर्ण पुरुषार्थ और उन्नति मानता है। यह मनुष्य का अपने साथ बड़ा भारी धोखा है! वास्तव में जो नित्यप्राप्त और अपना है, उस परमात्मा को प्राप्त करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है, शूरवीरता है। हम धन, संपत्ति आदि संसारिक पदार्थ कितने ही क्यों न प्राप्त कर लें, पर अंत में या तो वे नहीं रहेंगे अथवा हम नहीं रहेंगे। अंत में ‘नहीं’ ही शेष रहेगा। वास्तव में जो सदा ‘है’, उस (अविनाशी परमात्मा) को प्राप्त कर लेने में ही शूरवीरता है। जो ‘नहीं’ है, उसको प्राप्त करने में कोई शूरवीरता नहीं है। जीव जितना ही नाशवान पदार्थों को महत्त्व देता है, उतना ही वह पतन की तरफ जाता है और जितना ही अविनाशी परमात्मा को महत्त्व देता है, उतना ही वह ऊँचा उठता है। कारण कि जीव परमात्मा का ही अंश है। नाशवान सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करके मनुष्य कभी भी बड़ा नहीं हो सकता। केवल बड़े होने का वहम या धोखा हो जाता है और वास्तव में असली बडप्पन- (परमात्मप्राप्ति) से वञ्चित हो जाता है। नाशवान पदार्थों के कारण माना गया बड़प्पन कभी टिकता नहीं और परमात्मा के कारण होने वाला बड़प्पन कभी मिटता नहीं। इसलिए जीव जिसका अंश है, उस सर्वोपरि परमात्मा को प्राप्त करने से ही वह बड़ा होता है। इतना बड़ा होता है कि देवतालोग भी उसका आदर करते हैं और कामना करते हैं कि वह हमारे लोक में आए। इतना ही नहीं, स्वयं भगवान भी उसके अधीन हो जाते हैं।
‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’- भगवान ने जिस प्रकार इसी श्लोक के पूर्वार्ध में जीव को अपने में स्थित न कहकर उसको उसको अपना अंश बताया है, उसी प्रकार श्लोक के उत्तरार्ध में मन तथा इंद्रियों को प्रकृति का अंश न कहकर उनको प्रकृति में स्थित बताया है। तात्पर्य है कि भगवान का अंश जीव सदा भगवान में ही स्थित है और प्रकृति में स्थित मन तथा इंद्रियाँ प्रकृति के ही अंश हैं। मन और इंद्रियों को अपना मानना, उनसे अपना संबंध मानना ही उनको आकर्षित करना है। यहाँ बुद्धि का अंतर्भाव, ‘मन’ शब्द में (जो अंतःकरण का उपलक्षण है) और पाँच कर्मेंद्रियों तथा पाँच प्राणों का अंतर्भाव ‘इंद्रिय’ शब्द में मान लेना चाहिए। उपर्युक्त पदों में भगवान कहते हैं कि मेरा अंश जीव मेरे में स्थित रहता हुआ भी भूल से अपनी स्थिति शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि में मान लेता है। जैसे शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि प्रकृति का अंश होने से कभी प्रकृति से पृथक नहीं होते, ऐसे ही जीव भी मेरा अंश होने से कभी मेरे से पृथक होता नहीं, हो सकता नहीं। परंतु यह जीव मेरे से विमुक होकर मुझे भूल गया है। यहाँ मन और पाँच ज्ञानेंद्रियों का नाम लेने का तात्पर्य यह है कि इन छहों से संबंध जोड़कर ही जीव बँधता है। अतः साधक को चाहिए कि वह शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि को संसार के अर्पण कर दे अर्थात संसार की सेवा में लगा दे और अपने-आपको भगवान के अर्पण कर दे।
1) मनुष्य भूल से शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई आदि नाशवान वस्तुओं को अपनी और अपने लिए मानकर दुःखी होता है। इससे भी नीची बात यह है कि इस सामग्री के भोग और संग्रह को लेकर वह अपने को बड़ा मानने लगता है; जबकि वास्तव में इनको अपना मानते ही इनका गुलाम हो जाता है। हमें पता लगे या न लगे, हम जिन पदार्थों की आवश्यकता समझते हैं, जिनमें कोई विशेषता या महत्त्व देखते हैं जिनकी हम गरज रखते हैं, वे (धन, विद्या आदि) पदार्थ हमसे बड़े और हम उनसे तुच्छ हो ही गये। पदार्थों के मिलने में जो अपना महत्त्व समझता है, वह वास्तव में तुच्छ ही है, चाहे उसे पदार्थ मिलें या न मिलें। भगवान का दास होने पर भगवान कहते हैं- ‘मैं तो हूँ भगवान का दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! परंतु जिनके हम दास बने हुए हैं, वे धनादि जड पदार्थ कभी नहीं कहते- ‘लोभी मेरे मुकुटमणि’! वे तो केवल हमें अपना दास ही बनाते हैं। वास्तव में भगवान को अपना जानकर उनके शरण हो जाने से ही मनुष्य बड़ा बनता है, ऊँचा उठता है। इतना ही नहीं; भगवान ऐसे भक्त को अपने से भी बड़ा मान लेते हैं और कहते हैं- अहं भक्तपराधीनो ह्रास्वतंत्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ।।[1] हे द्विज! मैं भक्तों के पराधीन हूँ, स्वतंत्र नहीं। भक्तजन मेरे को अत्यंत प्यारे हैं। मेरे हृदय पर उनका पूर्ण अधिकार है। कोई भी सांसारिक व्यक्ति, पदार्थ क्या हमें इतनी बड़ाई दे सकता है? यह जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी प्रकृति के अंश शरीरादि को अपना मानकर स्वयं अपना अपमान करता है और अपने को नीचे गिराता है। अगर मनुष्य इन शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि सांसारिक पदार्थों का दास न बने, तो वह भगवान का भी इष्ट हो जाए- ‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’।[2]
जिन्होंने भगवान को प्राप्त कर लिया है, उनको भगवान अपना प्रिय कहते हैं।[1] परंतु जिन्होंने भगवान को प्राप्त नहीं किया है; किंतु जो भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकों को तो वे अपना ‘अत्यंत प्रिय’ कहते हैं- ‘भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।’[2] ऐसे परम दयालु भगवान को, जो साधकों को ‘अत्यंत प्रिय’ और सिद्ध भक्तों को केवल ‘प्रिय’ कहते हैं, मनुष्य अपना नहीं मानता- यह उसका कितना प्रमाद है। संसार का एक छोटा सा अंश शरीर है और परमात्मा का अंश स्वयं (जीवात्मा) है। भूल यह होती है कि परमात्मा का अंश संसार के अंश के साथ मिलकर संसार और परमात्मा- दोनों को अपने अनुकूल बनाना चाहिए! साधक का काम है- इस भूल को मिटाना। इसके लिए वह शरीर को तो संसार के अनुकूल बना दे और स्वयं परमात्मा के अनुकूल बन जाए। तात्पर्य है कि शरीर को संसार पर छोड़ दे कि जैसी संसार की मरजी हो, वैसे रखे; और अपने को अपने को परमात्मा पर छोड़ दे कि जैसी परमात्मा की मरजी हो, वैसे रखे। संसार की चीज संसार को दे दे और परमात्मा की चीज परमात्मा को दे दे- यह ईमानदारी है। इस ईमानदारी का नाम ही ‘मुक्ति’ है। जिसकी चीज है, उसको न दे; संसार की चीज भी ले ले और परमात्मा की चीज भी ले ले- यह बेईमानी है। इस बेईमानी का नाम ही ‘बंधन’ है। संसार की चीज संसार पर और परमात्मा की चीज परमात्मा पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाए। अपनी कोई कामना न रखे। न जीने की कामना रखे, न मरने की। भगवान ऐसा कर देते तो ठीक रहता; भगवान वर्षा कर देते तो ठीक रहता; गरमी ज्यादा पड़ रही है, थोड़ी कम कर देते तो अच्छा था; बाढ़ आ गयी, वर्षा कम करते तो ठीक रहता- इस तरह मनुष्य परमात्मा को भी अपने अनुकूल बनाना चाहता है और संसार को भी। इस बात को छोड़कर अपने-आपको सर्वथा भगवान के अर्पित कर दे और भगवान से कह दे कि हे नाथ! आप मेरे को पृथ्वी पर रखें या स्वर्ग में रखें अथवा नरकों में रखें; बालक रखें या जवान रखें अथवा बूढ़ा रखें; अपमानित रखें या सम्मानित रखें; सुखी रखें या दुःखी रखें; जैसी परिस्थिति में रखना चाहें, वैसे रखें, पर मैं आपको भूलूँ नहीं। मनुष्य जिस घर को अपना मानता है, जिस कुटुम्ब को अपना मानता है, जिन रुपयों को अपना मानता है, उनकी ही चिंता उसको होती है। संसार में लाखों-करोड़ों घर हैं, अरबों आदमी हैं, अनगिनत रुपए हैं, पर उनकी चिंता नहीं होती; क्योंकि उनको वह अपना नहीं मानता। जिनको अपना नहीं मानता, उनसे तो मुक्त है ही। अतः ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है, थोड़ी सी ही मुक्ति बाकी है। विचार करना चाहिए कि जिन थोड़ी सी चीजों को हम अपनी मानते हैं, वे कौन सी सदा साथ रहने वाली है! चीजें तो रहेंगी नहीं, पर बंधन (उनका संबंध) रह जाएगा, जो जन्म-जन्मान्तर तक साथ रहेगा। इसलिए साधक को चाहिए कि वह या तो शरीर को संसार के अर्पण कर दे, जो कर्मयोग है; चाहे अपने को शरीर-संसार से सर्वथा अलग कर ले, जो ज्ञानयोग है; और चाहे अपने को भगवान के अर्पण कर दे, जो भक्तियोग है। इन तीनों में से कोई भी साधन अपना ले, तीनों का फल एक ही होगा। संबंध- मनसहित इंद्रियों को अपना मानने के कारण जीव किस प्रकार उनको साथ लेकर अनेक योनियों में घूमता है- इसका भगवान दृष्टान्तसहित वर्णन करते हैं।
शरीरं यदवान्प्रोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।8।। अर्थ- जैसे वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीरादि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मनसहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है। व्याख्या- ‘वायुर्गन्धानिवाशयात्’ – जिस प्रकार वायु इत्र के फोहे से गंध ले जाती है; किंतु वह गंध स्थायी रूप से वायु में नहीं रहती; क्योंकि वायु और गंध का संबंध नित्य नहीं है इसी प्रकार इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, स्वभाव आदि- (सूक्ष्म और कारण- दोनों शरीरों) को अपना मानने के कारण जीवात्मा उनको साथ लेकर दूसरी योनि में जाता है। जैसे वायु तत्त्वतः गंध से निर्लिप्त है, ऐसे ही जीवात्मा भी तत्त्वतः मन, इंद्रियाँ, शरीरादि से निर्लिप्त है; परंतु इन मन, इंद्रियाँ, शरीरादि में मैं-मेरेपन की मान्यता होने के कारण वह (जीवात्मा) इनका आकर्षण करता है। जैसे वायु आकाश का कार्य होते हुए भी पृथ्वी के अंश गंध को साथ लिए घूमती है, ऐसे ही जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश होते हुए भी प्रकृति के कार्य (प्रतिक्षण बदलने वाले) शरीरों को साथ लिए भिन्न-भिन्न योनियों में घूमता है। जड होने के कारण वायु में यह विवेक नहीं है कि वह गंध को ग्रहण न करे; परंतु जीवात्मा को तो यह विवेक और सामर्थ्य मिला हुआ है कि वह जब चाहे, तब शरीर से संबंध मिटा सकता है। भगवान ने मनुष्य मात्र को यह स्वतंत्रता दे रखी है कि वह चाहे जिससे संबंध जोड़ सकता है और चाहे जिससे संबंध तोड़ सकता है। अपनी भूल मिटाने के लिए केवल अपनी मान्यता बदलने की आवश्यकता है कि प्रकृति के अंश इन स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरों से मेरा (जीवात्मा का) की संबंध नहीं है। फिर जन्म-मरण के बंधन से सहज ही मुक्ति है। भगवान ने यहाँ तीन शब्द दृष्टांत के रूप में दिए हैं- (1) वायु, (2) गंध और (3) आशय। ‘आशय’ कहते हैं स्थान को; जैसे- जलाशय (जल+आशय) अर्थात जल का स्थान। यहाँ आशय नाम स्थूल शरीर का है। जिस प्रकार गंध के स्थान (आशय) इत्र के फोहे से वायु गंध ले जाती है और फोहा पीछे पड़ा रहता है, इसी प्रकार वायु रूप जीवात्मा गंधरूप सूक्ष्म और कारण-शरीरों को साथ लेकर जाता है, तब गंध का आशय-रूप स्थूल शरीर पीछे रह जाता है। ‘शरीरं यदवाप्नोति......गृहीत्वैतानि संयाति’- यहाँ ‘ईश्वर’ पद जीवात्मा का वाचक है। इस जीवात्मा से तीन खास भूलें हो रही हैं- अपने को मन, बुद्धि, शरीरादि जड पदार्थों का स्वामी मानता है, पर वास्तव में बन जाता है स्वयं उनका दास। अपने को उन जड पदार्थों का स्वामी मान लेने के कारण अपने वास्तविक स्वामी परमात्मा को भूल जाता है। जड पदार्थों से माने हुए संबंध का त्याग करने में स्वाधीन होने पर भी उनका त्याग नहीं करता।
परमात्मा ने जीवात्मा को शरीरादि सामग्री का सदुपयोग करने की स्वाधीनता दी है। उनका सदुपयोग करके अपना उद्धार करने के लिए ये वस्तुएँ दी हैं; उनका स्वामी बनने के लिए नहीं है। परंतु जीव से यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह उस सामग्री का सदुपयोग नहीं करता; प्रत्युत अपने को उनका मालिक मान लेता है, पर वास्तव में उनका गुलाम बन जाता है। जीवात्मा जड पदार्थों से माने हुए संबंध का त्याग तभी कर सकता है, जब उसे यह मालूम हो जाए कि इनका मालिक बनने से मैं सर्वथा पराधीन हो गया हूँ और मेरा पतन हो गया है। यह जिनका मालिक बनता है, उनकी गुलामी इसमें आ ही जाती है। इसे केवल वहम होता है कि मैं इनका मालिक हूँ। जड पदार्थों का मालिक बन जाने से एक तो इसे उन पदार्थों की ‘कमी’ का अनुभव होता है और दूसरा यह अपने को ‘अनाथ’ मान लेता है। जिसे मालिकपना या अधिकार प्यारा लगता है, वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि जो किसी व्यक्ति, वस्तु, पद आदि का स्वामी बनता है, वह अपने स्वामी को भूल जाता है- यह नियम है। उदाहरणार्थ, जिस समय बालक केवल माँ को अपना मानकर उसे ही चाहता है, उस समय वह माँ के बिना रह ही नहीं सकता। किंतु वही बालक जब बड़ा होकर गृहस्थ बन जाता है और अपने को स्त्री, पुत्र आदि का स्वामी मानने लगता है, तब उसी माँ का पास रहना उसे सुहाता नहीं। यह स्वामी बनने का ही परिणाम है। इसी प्रकार यह जीवात्मा भी शरीरादि जड पदार्थों का स्वामी (ईश्वर) बनकर अपने वास्तविक स्वामी परमात्मा को भूल जाता है- उनसे विमुख हो जाता है। जब तक यह भूल या विमुखता रहेगी, तब तक जीवात्मा दुःख पाता ही रहेगा। ‘ईश्वरः’ पद के साथ ‘अपि’ पद एक विशेष अर्थ रखता है कि यह ईश्वर बना जीवात्मा वायु के समान असमर्थ, जड और पराधीन नहीं है। इस जीवात्मा में ऐसी सामर्थ्य और विवेक है कि यह जब चाहे, तब माने हुए संबंध का छोड़ सकता है और परमात्मा के साथ नित्य संबंध का अनुभव कर सकता है। परंतु संयोगजन्य सुख की लोलुपता के कारण यह संसार से माने हुए संबंध को छोड़ता नहीं और छोड़ना चाहता भी नहीं। जडता (शरीरादि) से तादात्म्य छूटने पर जीवात्मा (गंध की तरह) शरीरों को साथ ले जा सकता ही नहीं। जीव को दो शक्तियाँ प्राप्त हैं- (1) प्राणशक्ति, जिससे श्वासों का आवागमन होता है और (2) इच्छाशक्ति, जिससे भोगों को पाने की इच्छा करता है। प्राणशक्ति हरदम (श्वासोच्छ्वास के द्वारा) क्षीण होती रहती है। प्राणशक्ति का खत्म होना ही मृत्यु कहलाती है। जड का संग करने से कुछ करने और पाने की इच्छा बनी रहती है।
पंचदश अध्याय प्राणशक्ति के रहते हुए इच्छा शक्ति अर्थात कुछ करने और पाने की इच्छा मिट जाए, तो मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। प्राणशक्ति नष्ट हो जाए और इच्छाएँ बनी रहें, तो दूसरा जन्म लेना ही पड़ता है। नया शरीर मिलने पर इच्छा शक्ति तो वही (पूर्वजन्म की) रहती है, प्राणशक्ति नयी मिल जाती है। प्राण शक्ति का व्यय इच्छाओं को मिटाने में होना चाहिए। निःस्वार्थ भाव से संपूर्ण प्राणियों के हित में रत रहने से इच्छाएँ सुगमता पूर्वक मिट जाती हैं। यहाँ ‘गृहीत्वा’ पद का तात्पर्य है- जो अपने नहीं हैं, उनसे राग, ममता, प्रियता करना। जिन मन, इंद्रियों के साथ अपनापन करके जीवात्मा उनको साथ लिए फिरता है, वे मन, इंद्रियाँ कभी नहीं कहतीं कि हम तुम्हारी हैं और तुम हमारे हो। इन पर जीवात्मा का शासन भी चलता नहीं; जैसा चाहे वैसा रख सकता नहीं, परिवर्तन कर सकता नहीं; फिर भी इनके साथ अपनापन रखता है, जो कि भूल ही है। वास्तव में यह अपनेपन का (राग, ममतायुक्त) संबंध ही बाँधने वाला होता है। वस्तु हमें प्राप्त हो या न हो, बढ़िया हो या घटिया हो, हमारे काम में आये न आए, दूर हो या पास हो यदि उस वस्तु को हम अपनी मानते हैं तो उससे हमारा संबंध बना हुआ ही है। अपनी तरफ से छोड़े बिना शरीरादि में ममता का संबंध मरने पर भी नहीं छूटता। इसलिए मृत शरीर की हड्डियों का गंगा जी में डालने से उस जीव को आगे गति होती है। इस माने हुए संबंध को छोड़ने में हम सर्वथा स्वतंत्र तथा सबल हैं। यदि शरीर के रहते हुए ही हम उससे अपनापन हटा दें, तो जीते-जी ही मुक्त हो जाएँ! जो अपना नहीं है, उसको अपना मानना और जो अपना है, उसको अपना न मानना- यह बहुत बड़ा दोष है, जिसके कारण ही पारमार्थिक मार्ग में उन्नति नहीं होती। इस श्लोक में आया ‘एतानि’ पद सातवें श्लोक के ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि’ (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ तथा मन) का वाचक है। यहाँ ‘एतानि’ पद को सत्रह तत्त्वों के समुदाय रूप सूक्ष्म शरीर एवं कारणशरीर (स्वभाव) का भी द्योतक मानना चाहिए। इन सबको ग्रहण करके जीवात्मा दूसरे शरीर में जाता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्याग करके नये वस्त्र धारण करता है, ऐसे ही जीवात्मा पुराने शरीर का त्याग करके नये शरीर को प्राप्त होता है।[1]
पंचदश अध्याय वास्तव में शुद्ध चेतन (आत्मा) का किसी शरीर को प्राप्त करना और उसका त्याग करके दूसरे शरीर में जाना हो नहीं सकता; क्योंकि आत्मा अचल और समानरूप से सर्वत्र व्याप्त है।[1] शरीरों का ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एकदेशीय) तत्त्व के द्वारा ही होना संभव है, जबकि आत्मा कभी किसी भी देश-कालादि में परिच्छिन्न नहीं हो सकता। परंतु जब यह आत्मा प्रकृति के कार्य शरीर से तादात्म्य कर लेता है अर्थात प्रकृतिस्थ हो जाता है, तब (स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों में अपने को तथा अपने में तीनों शरीरों को धारण करने अर्थात उनमें अपनापन करने से) वह प्रकृति के कार्य शरीरों का ग्रहण-त्याग करने लगता है। तात्पर्य यह है कि शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेने के कारण आत्मा सूक्ष्मशरीर के आने-जाने को अपना आना-जाना मान लेता है। जब प्रकृति के कार्य शरीर से तादात्म्य मिट जाता है अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण- शरीर से आत्मा का माना हुआ संबंध नहीं रहता; तब ये शरीर अपने कारणभूत समष्टि तत्त्वों में लीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि पुनर्जन्म का मूल कारण जीव का शरीर से माना हुआ तादात्म्य ही है। संबंध- अब भगवान सातवें श्लोक में आए हुए ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि’ पद का खुलासा करते हैं।
श्रोतं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।9।। अर्थ- यह जीवात्मा मन का आश्रय लेकर श्रोत्र, नेत्र, त्वचा, रसना और घ्राण- इन पाँचों इंद्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है। व्याख्या- ‘अधिष्ठाय मनश्चायम्’ – मन में अनेक प्रकार के (अच्छे-बुरे) संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। इनमें ‘स्वयं’ की स्थिति में कोई अंतर नहीं आता; क्योंकि ‘स्वयं’ (चेतन-तत्त्व, आत्मा) जड शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि से अत्यंत परे और उनका आश्रय तथा प्रकाशक है। संकल्प-विकल्प आते-जाते हैं और ‘स्वयं’ सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। मन का संयग होने पर ही सुनने, देखने, स्पर्श करने, स्वाद लेने तथा सूँघने का ज्ञान होता है। जीवात्मा को मन के बिना इंद्रियों से सुख-दुःख नहीं मिल सकता। इसलिए यहाँ मन को अधिष्ठित करने की बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि जीवात्मा मन को अधिष्ठित करके अर्थात उसका आश्रय लेकर ही इंद्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है। ‘श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च’- श्रवणेन्द्रिय अर्थात कानों में सुनने की शक्ति[1] ‘श्रोत्रम्’ है। आज तक हमने अनेक प्रकार के अनुकूल (स्तुति, मान, बड़ाई, आशीर्वाद, मधुर गान, वाद्य आदि) और प्रतिकूल (निन्दा, अपमान, शाप, गाली आदि) शब्द सुने हैं; पर उनसे ‘स्वयं’ में क्या फर्क पड़ा? किसी को पौत्र के जन्म तथा पुत्र की मृत्यु का समाचार एक साथ मिला। दोनों समाचार सुनने से एक के ‘जन्म’ दूसरी की ‘मृत्यु’ का जो ज्ञान हुआ, उस ‘ज्ञान’ में कोई अंतर नहीं आया। जब ज्ञान में भी कोई अंतर नहीं आया, जो फिर ‘ज्ञाता’ में अंतर आयेगा ही कैसे। अतः जन्म और मृत्यु का समाचार सुनने से अंतःकरण में (माने हुए संबंध के कारण) जो असर होता है, उसकी तरफ दृष्टि न रखकर इस ‘ज्ञान’ पर ही दृष्टि रखनी चाहिए। इसी तरह अन्य इंद्रियों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। नेत्रेन्द्रिय अर्थात नेत्रों में देखने की शक्ति ‘चक्षुः’ है। आज तक हमने अनेक सुंदर, असुंदर, मनोहर, भयानक रूप या दृश्य देखे हैं, पर उनसे अपने ‘स्वरूप’ में क्या फर्क पड़ा? स्पर्शेंद्रिय अर्थात त्वचा में स्पर्श करने की शक्ति ‘स्पर्शनम्’ है। जीवन में हमारे को अनेक कोमल, कठोर, चिपचिपे, ठंडे, गरम आदि स्पर्श प्राप्त हुए हैं, पर उनसे ‘स्वयं’ की स्थिति में क्या अंतर आया? रसेंद्रिय अर्थात जीभ में स्वाद लेने की शक्ति ‘रसनम्’ है। कडुआ, तीखा, मीठा, कसैला, खट्टा और नमकीन- ये छः प्रकार के भोजन के रस हैं। आज तक हमने तरह-तरह के रसयुक्त भोजन किए हैं; पर विचार करना चाहिए कि उनसे ‘स्वयं’ को क्या प्राप्त हुआ? घ्राणेन्द्रिय अर्थात नासिका में सूँघने की शक्ति ‘घ्राणम’ है। जीवन में हमारी नासिका ने तरह-तरह की सुगंध और दुर्गन्ध ग्रहण की है; पर उनसे ‘स्वयं’ में क्या फर्क पड़ा?
श्रोत का वाणी से, नेत्र का पैर से, त्वचा का हाथ से, रसना का उपस्थ से और घ्राण का गुदा से (पाँचों ज्ञानेंद्रियों का पाँचों कर्मेंद्रियों से) घनिष्ठ संबंध है। जैसे, जो जन्म से बहरा होता है, वह गूँगा भी होता है। पैर के तलवे में तेल की मालिश करने से नेत्रों पर तेल का असर पड़ता है। त्वचा के होने से ही हाथ स्पर्श का काम करते हैं। रसनेन्द्रिय के वश में होने से उपस्थेन्द्रिय भी वश में हो जाती है। घ्राण से गंध का ग्रहण तथा उससे संबंधित गुदा से गंध का त्याग होता है। पञ्चमहाभूतों में एक-एक महाभूत के सत्त्वगुण-अंश से ज्ञानेंद्रियाँ, रजोगुण-अंश से कर्मेंद्रियाँ और तमोगुण-अंश से शब्दादि पाँचों विषय बने हैं। पञ्चमहाभूत सत्त्वगुण-अंश रजोगुण-अंश तमोगुण-अंश आकाश श्रोत्र वाक् शब्द वायु त्वचा हस्त स्पर्श अग्नि नेत्र पाद रूप जल रसना उपस्थ रस पृथ्वी घ्राण गुदा गंध पाँचों महाभूतों के मिले हुए सत्त्वगुण-अंश से मन और बुद्धि, रजोगुण-अंश से प्राण और तमोगुण-अंश से शरीर बना है। ‘विषयानुपसेवते’- जैसे व्यापारी किसी कारणवश एक जगह से दुकान उठाकर दूसरी जगह दुकान लगाता है, ऐसे ही जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है; और जैसे पहले शरीर में विषयों का रागपूर्वक सेवन करता था ऐसे ही दूसरे शरीर में जाने पर (वही स्वभाव होने से) विषयों का सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्ति करने के कारण ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। भगवान ने यह मनुष्य शरीर अपना उद्धार करने के लिए दिया है, सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं। जैसे ब्राह्मण को गाय दान करने पर हम उसको चारा-पानी तो दे सकते हैं, पर दी गई गाय का दूध पीने का हमें हक नहीं है; ऐसे ही मिले हुए शरीर का सदुपयोग करना हमारा कर्तव्य है, पर इसे अपना मानकर सुख भोगने का हमें हक नहीं है। विशेष बात विषय-सेवन करने से परिणाम में विषयों में राग-आसक्ति ही बढ़ती है, जो कि पुनर्जन्म तथा संपूर्ण दुःखों का कारण है। विषयों में वस्तुतः सुख है भी नहीं। केवल आरंभ में भ्रमवश सुख प्रतीत होता है।[1] अगर विषयों में सुख होता है तो जिनके पास प्रचुर भोग-सामग्री है, ऐसे बड़े-बड़े धनी, भोगी और पदाधिकारी तो सुखी हो ही जाते, पर वास्तव में देखा जाए तो पता चलता है कि वे भी दुःखी, अशांत ही हैं। कारण यह है कि भोग-पदार्थों में सुख है ही नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। सुख लेने की इच्छा से जो-जो भोग भोगे गए, उन-उन भोगों से धैर्य नष्ट हुआ, ध्यान नष्ट हुआ, रोग पैदा हुए, चिन्ता हुई, व्यग्रता हुई, पश्चाताप हुआ, बेइज्जती हुई, बल गया, धन गया, शक्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक-उद्वेग आये- ऐसा यह परिणाम विचारशील व्यक्ति के प्रत्यक्ष देखने में आता है।[2]
जिस प्रकार स्वप्न मे जल पीने से प्यास नहीं मिटती, उसी प्रकार भोग-पदार्थों से न तो शांति मिलती है और न जलन ही मिटती है। मनुष्य सोचता है कि इतना धन हो जाए, इतना संग्रह हो जाए, इतनी (अमुक-अमुक) वस्तुएं प्राप्त हो जाँ तो शांति मिल जाएगी; किंतु उतना हो जाने पर भी शांति नहीं मिलती, उल्टे वस्तुओं के मिलने से उनकी लालसा और बढ़ जाती है।[1] धन आदि भोग-पदार्थों के मिलने पर भी ‘और मिल जाए, और मिल जाए’- यह क्रम चलता ही रहता है। परंतु संसार में जितना धन-धान्य है, जितनी सुंदर स्त्रियाँ हैं, जितनी उत्तम वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब एक साथ किसी एक व्यक्ति को मिल भी जाएं, तो भी उनसे उसे तृप्ति नहीं हो सकती।[2] इसका कारण यह है कि जीव अविनाशी परमात्मा का अंश तथा चेतन है और भोगपदार्थ नाशवान प्रकृति के अंश तथा जड है। चेतन की भूख जड पदार्थों के द्वारा कैसे मिट सकती है? भूख है पेट में और हलवा बाँधा जाए पीठ पर, तो भूख कैसे मिट सकती है? प्यास लगने पर बढ़िया से बढ़िया गरमागरम हलवा खाने पर भी प्यास नहीं मिट सकती। इसी प्रकार जीव को प्यास तो है चिन्मय परमात्मा की, पर वह उस प्यास को मिटाना चाहता है जड पदार्थों के द्वारा, जिससे तृप्ति होने की नहीं। तृप्ति तो दूर रही, ज्यों-ज्यों वह जड पदार्थों को अपनाता है, त्यों-त्यों उसकी भूख भी बढ़ती ही जाती है। यह उसकी कितनी बड़ी भूल है! साधक को चाहिए कि वह आज ही यह दृढ़ विचार (निश्चय) कर ले कि मेरे को भोगबुद्धि से विषयों का सेवन करना ही नहीं है। उसका यह पक्का निर्णय हो जाए कि संपूर्ण संसार मिलकर भी मेरे को तृप्त नहीं कर सकता। विषय-सेवन न करने का दृढ़ विचार होने से इंद्रियाँ निर्विषय हो जाती हैं; और इंद्रियों के निर्विषय हो जाने से मन निर्विकल्प हो जाता है। मन के निर्विकल्प हो जाने से बुद्धि स्वतः सम हो जाती है; और बुद्धि के सम हो जाने से परमात्मा की प्राप्ति का स्वतः अनुभव हो जाता है;[3] क्योंकि परमात्मा तो सदा प्राप्त ही है। विषयों में प्रवृत्ति होने के कारण ही उनकी प्राप्ति का अनुभव नहीं हो पाता। सुखभोग और संग्रह- इन दो में जो आसक्त हो जाते हैं, उनके लिए परमात्मप्राप्ति तो दूर रही, वे परमात्मा की तरफ चलने का दृढ़ निश्चय भी नहीं कर पाते।[4] गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी महाराज श्रीरामचरित मानस के अंत में प्रार्थना करते हैं- कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ।।[5] ‘जैसे कामी को स्त्री (भोग) और लोभी को धन (संग्रह) प्यारा लगता है, ऐसे ही रघुनाथ का रूप और राम-नाम मुझे प्यारा लगता है, ऐसे ही रघुनाथ का रूप और राम-नाम मुझे निरंतर प्यारा लगे।’ तात्पर्य यह है कि जैसे कामी स्त्री के रूप में आकृष्ट होता है, ऐसे ही मैं रघुनाथ के रूप में निरंत आकृष्ट रहूँ और जैसे लोभी धन का संग्रह करता रहता है, ऐसे ही मैं राम-नाम का (जप के द्वारा) निरंतर संग्रह करता रहूँ। संसार का भोग और संग्रह निरंतर प्रिय नहीं लगता- यह नियम है; पर भगवान का रूप और नाम निरंतर प्रिय लगता है। संतों ने भी अपना अनुभव कहा है- चाख चाख सब छाड़िया माया रस खारा हो। नाम-सुधारस पीजिए छिन बारंबारा हो ।। लगे मोहि राम पियारा हो।। संबंध- पीछे के तीन श्लोकों में जीवात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। उस विषय का उपसंहार करने के लिए आगे के श्लोक में ‘जीवात्मा के स्वरूप को कौन जानता है और कौन नहीं जानता’- इसका वर्णन करते हैं।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।10।।
अर्थ- शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरूपी नेत्रों वाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं। व्याख्या- ‘उत्क्रामन्तम्’ – स्थूल शरीर को छोड़ते समय जीव सूक्ष्म और कारण शरीर को साथ लेकर प्रस्थान करता है। इसी क्रिया को यहाँ ‘उत्क्रामन्तम्’ पद से कहा है। जब तक हृदय में धड़कन रहती है, तब तक जीव का प्रस्थान नहीं माना जाता। हृदय की धड़कन बंद हो जाने के बाद भी जीव कुछ समय तक रह सकता है। वास्तव में अचल होने से शुद्ध चेतन-तत्त्व का आवागमन नहीं होता। प्राणों का ही आवागमन होता है। परंतु सूक्ष्म और कारण शरीर से संबंध रहने के कारण जीव का आवागमन कहा जाता है। आठवें श्लोक में ईश्वर बने जीवात्मा के विषय में आए ‘उत्क्रामति’ पद को यहाँ ‘उत्क्रमन्तम्’ पद से कहा गया है। ‘स्थितं वा’- जिस प्रकार कैमरे पर वस्तु का जैसा प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसका वैसा ही चित्र अंकित हो जाता है। इसी प्रकार मृत्यु के समय अंतःकरण में जिस भाव का चिन्तन होता है, उसी आकार का सूक्ष्मशरीर बन जाता है। जैसे कैमरे पर पड़े प्रतिबिम्ब के अनुसार चित्र के तैयार होने में समय लगता है, ऐसे ही अंतकालीन चिंतन के अनुसार भावी स्थूल शरीर के बनने में (शरीर के अनुसार कम या अधिक) समय लगता है। आठवें श्लोक में जिसका ‘यदवाप्नोति’ पद से वर्णन हुआ है, उसी को यहाँ ‘स्थितम्’ पद से कहा गया है। ‘अपि भुञ्जानं वा’- मनुष्य जब विषयों को भोगता है, तब अपने को बड़ा सावधान मानता है और विषय-सेवन में सावधान रहता भी है। विषयी मनुष्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इनमें से एक-एक विषय को अच्छी तरह जानता है। अपनी जानकारी से एक-एक विषय को भी बड़ी स्पष्टता से वर्णन करता है। इतनी सावधानी रखने पर भी वह ‘मूढ़’ (अज्ञानी) ही है; क्योंकि विषयों के प्रति यह सावधानी किसी काम की नहीं है, प्रत्युत मरने पर नरकों और नीच योनियों में ले जाने वाली है। परमात्मा, जीवात्मा और संसार- इन तीनों के विषय में शास्त्रों और दार्शनिकों के अनेक मतभेद हैं; परंतु जीवात्मा के संबंध से महान दुःख पाता है और परमात्मा के संबंध से महान सुख पाता है- इसमें सभी शास्त्र और दार्शनिक एकमत हैं। संसार एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता- यह अकाट्य नियम है। संसार क्षणभंगु है- यह बात कहते, सुनते और पढ़ते हुए भी मूढ़ मनुष्य संसार को स्थिर मानते हैं। भोग-सामग्री, भोक्ता और भोगरूप क्रिया- न सबको स्थायी माने बिना भोग हो ही नहीं सकता। भोगी मनुष्य की बुद्धि इतनी मूढ़ हो जाती है कि वह ‘इन भोगों से बढ़कर कुछ है ही नहीं’- ऐसा मूढ़ निश्चय कर लेता है।[1] इसलिए ऐसे मनुष्यों के ज्ञान नेत्र बंद ही रहते हैं। वे मौत को निश्चित जानते हुए भी भोग भोगने के लिए (मरने वालों के लोक में रहते हुए भी) सदा जीते रहने की इच्छा रखते हैं।
जीवात्मा जिस समय स्थूल शरीर से निकलकर (सूक्ष्म और कारणसहित) जाता है, दूसरे शरीर को प्राप्त होता है तथा विषयों का उपभोग करता है- इन तीनों ही अवस्थाओं में गुणों से लिप्त दीखने पर भी वास्तव में वह स्वयं निर्लिप्त ही रहता है। वास्तविक स्वरूप में न ‘उत्क्रमण’ है, न ‘स्थिति’ है और न ‘भोक्तापन’ ही है। पिछले श्लोक के ‘विषयानुपसेवते’ पद को ही यहाँ ‘भुञ्जानम्’ पद से कहा गया है। ‘गुणान्वितम्’- यहाँ ‘गुणान्वितम्’ पद का तात्पर्य यह है कि गुणों से संबंध मानते रहने के कारण ही जीवात्मा में उत्क्रमण, स्थिति और भोग- ये तीनों क्रियाएँ प्रतीत होती हैं। वास्तव में आत्मा का गुणों से संबंध है ही नहीं। भूल से ही इसने अपना संबंध गुणों से मान रखा है, जिसके कारण इसे बारंबर ऊँच-नीच योनियों में जाना पड़ता है। गुणों से संबंध जोड़कर जीवात्मा संसार से सुख चाहता है- यह उसकी भूल है। सुख लेने के लिए शरीर भी अपना नहीं है, फिर अन्य की बात ही क्या है। मनुष्य मानो किसी-न-किसी प्रकार से संसार में ही फँसना चाहता है। व्याख्यान देने वाला व्यक्ति श्रोताओं को अपना मानने लग जाता है। किसी का भाई-बहन न हो, तो वह धर्म का भाई-बहन बना लेता है। किसी का पुत्र न हो, तो वह दूसरे का बालक गोद में ले लेता है। इस तरह नये-नये संबंध जोड़कर मनुष्य चाहता तो सुख है, पर पाता दुःख ही है। इसी बात को भगवान कह रहे हैं कि जीव स्वरूप से गुणातीत होते हए भी गुणों (देश, काल, व्यक्ति, वस्तु) से संबंध जोड़कर उनसे बँध जाता है। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में आए ‘प्रकृतिस्थानि’ पद को ही यहाँ ‘गुणान्वितम्’ पद से कहा गया है। मार्मिक बात जब तक मनुष्य का प्रकृति अथवा उसके कार्य- गुणों से किञ्चिन्मात्र भी संबंध रहता है, तब तक गुणों के अधीन होकर उसे कर्म करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।[1] चेतन होकर गुणों के अधीन रहना अर्थात जड की परतंत्रता स्वीकार करना व्यभिचार-दोष है। प्रकृति अथवा गुणों से सर्वथा मुक्त होने पर जो स्वाधीनता का अनुभव होता है, उसमें भी साधक जब तक (अहम् की गंध रहने के कारण) रस लेता है, तब तक व्यभिचार-दोष रहता ही है। रस न लेने से जब वह व्यभिचार-दोष मिट जाता है, तब अपने प्रेमास्पद भगवान के प्रति स्वतः प्रियता जाग्रत होती है। फिर प्रेम ही प्रेम रह जाता है, जो उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। इस प्रेम को प्राप्त करना ही जीव का अंतिम लक्ष्य है। इस प्रेम की प्राप्ति में ही पूर्णता है। भगवान भी भक्त को अपना अलौकिक प्रेम देकर ही राजी होते हैं और ऐसे प्रेमी भक्त को योगियों में सर्वश्रेष्ठ योगी मानते हैं।[2] गुणातीत होने में तो (स्वयं का विवेक सहायक होने के कारण) अपने साधन का संबंध रहता है, पर गुणातीत होने के बाद प्रेम की प्राप्ति होने में भगवान की कृपा का ही संबंध रहता है।
‘विमूढा नानुपश्यन्ति’- जैसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य करने पर भी हम वही रहते हैं, ऐसे ही गुणों से युक्त होकर शरीर को छोड़ते, अन्य शरीर को प्राप्त होते तथा भोग भोगते समय भी ‘स्वयं’ (आत्मा) वही रहता है। तात्पर्य यह है कि परिवर्तन क्रियाओं में होता है, ‘स्वयं’ में नहीं। परंतु जो भिन्न-भिन्न क्रियाओं के साथ मिलकर ‘स्वयं’ को भी भिन्न-भिन्न देखने लगता है[1], ऐसे अज्ञानी (तत्त्व को न जानने वाले) मनुष्य के लिए यहाँ ‘विमूढा नानुपश्यन्ति’ पद दिए गए हैं। मूढ़लोग भोग और संग्रह में इतने आसक्त रहते हैं कि शरीरादि पदार्थ नित्य रहने वाले नहीं है- यह बात सोचते नहीं। भोग भोगने का क्या परिणाम होगा उस ओर वे देखते ही नहीं। भगवान ने गीता के सत्रहवें अध्याय में जहाँ सात्त्विक, राजस और तामस पुरुषों को प्रिय लगने वाले आहारों का वर्णन किया है, वहाँ सात्त्विक आहार के परिणाम का वर्णन पहले किया गया है; राजस आहार के परिणाम का वर्णन पहले किया गया है; राजस आहार के परिणाम का वर्णन अंत में किया गया है और तामस आहार के परिणाम का वर्णन ही नहीं किया गया है।[2] इसका कारण यह है कि सात्त्विक मनुष्य कर्म करने से पहले उसके परिणाम (फल) पर दृष्टि रखता है; राजस मनुष्य पहले सहसा काम कर बैठता है, फिर परिणाम चाहे जैसा आए; परंतु तामस मनुष्य तो परिणाम की तरफ दृष्टि ही नहीं डालता। इसी प्रकार यहाँ भी ‘विमूढा नानुपश्यन्ति’ पद देकर भगवान मानो यह कहते हैं कि मोहग्रस्त मनुष्य तामस ही हैं; क्योंकि मोह तमोगुण का कार्य है। वे विषयों का सेवन करते समय परिणाम पर विचार ही नहीं करते। केवल भोग भोगने और संग्रह करने में ही लगे रहते हैं। ऐसे मनुष्यों का ज्ञान तमोगुण से ढका रहता है। इस कारण वे शरीर और आत्मा के भेद को नहीं जान सकते। ‘पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः’- प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति- कोई भी स्थिर नहीं है अर्थात दृश्यमात्र निरंतर आदर्श में जा रहा है- ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होना ही ज्ञानरूप चक्षुओं से देखना है। परिवर्तन की ओर दृष्टि होने से अपरिवर्तनशील तत्त्व में स्थित स्वतः होती है; क्योंकि नित्य परिवर्तनशील पदार्थ का अनुभव अपरिवर्तनशील तत्त्व को ही होता है। यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ज्ञानी मनुष्य का भी स्थूल शरीर से निकलकर दूसरे शरीर को प्राप्त होना तथा भोग भोगना होता है।
ज्ञानी मनुष्य का स्थूल शरीर तो छूटेगा ही, पर दूसरे शरीर को प्राप्त करना तथा रागबुद्धि से विषयों का सेवन करना उसके द्वारा नहीं होते। दूसरे अध्याय के तेरहवें श्लोक मे भगवान ने कहा है कि जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, परंतु उस विषय में ज्ञानी मनुष्य मोहित अथवा विकार को प्राप्त नहीं होता। कारण यह है कि वह ज्ञानी मनुष्य ज्ञानरूप नेत्रों के द्वारा यह देखता है कि जन्म-मृत्यु आदि सब क्रियाएँ या विकार परिवर्तनशील शरीर में ही हैं, अपरिवर्तनशील स्वरूप में नहीं। स्वरूप इन विकारों से सब समय सर्वथा निर्लिप्त रहता है। शरीर को अपना मानने तथा उससे सुख लेने की आशा रखने से ही विमूढ़ मनुष्यों को तादात्म्य के कारण ये विकार स्वयं में होते प्रतीत होते हैं। विमूढ़ मनुष्य आत्मा को गुणों से युक्त देखते हैं और ज्ञान नेत्रों वाले मनुष्य आत्मा को गुणों से रहित वास्तविक रूप से देखते हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में वर्णित तत्त्व को जो पुरुष यत्न करने पर जानते हैं, उनमें क्या विशेषता है; और जो यत्न करने पर भी नहीं जानते, उनमें क्या कमी है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।।11।।
अर्थ- यत्न करने वाले योगी लोग अपने-आपमें स्थित इस परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। परंतु जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते। व्याख्या- ‘यतन्तो योगनिश्चैनं पश्यन्ति’– यहाँ ‘योगिनः’ पद उन सांख्ययोगी साधकों का वाचक है, जिनका एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने का बन चुका है। यहाँ ‘यतन्तः’ पद साधनपरक है। भीतर की लगन, जिसे पूर्ण किए बिना चैन से न रहा है, यत्न कहलाती है। जिन साधकों का एकमात्र उद्देश्य परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है, उनमें असंगता, निर्ममता और निष्कामता स्वतः आ जाती है। उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनन्यभाव से जो उत्कण्ठा, तत्परता, व्याकुलता, विरहयुक्त चिन्तन, प्रार्थना एवं विचार साधक के हृदय में प्रकट होते हैं, उन सबको यहाँ ‘यतन्तः’ पद के अंतर्गत समझना चाहिए। जिसकी प्राप्ति का उद्देश्य बनाया और जिसकी विमुखता को यत्न के द्वारा दूर किया, उसी तत्त्व का योगिजन अपने-आपमें अनुभव करते हैं। परमात्मा के पूर्ण सम्मुख हो जाने के बाद योगी की परमात्मतत्त्व में सदा सहज स्थिति रहती है। यही ‘पश्यन्ति’ पद का भाव है। जो सांख्ययोगी साधक सत्-असत् के विचार द्वारा सत्-तत्त्व की प्राप्ति और असत् संसार की निवृत्ति करना चाहते हैं, विवेक की सर्वथा जागृति होने पर वे अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। ‘आत्मन्यवस्थितम्’ परमात्मतत्त्व से देश-काल की दूरी नहीं। वह समानरूप से सर्वत्र एवं सदैव विद्यमान है। वही सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा है- ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’।[1] इसलिए योगी लोग अपने-आपमें ही इस तत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। सत्ता (अस्तित्व या ‘है’- पन) दो प्रकार की होती है- (1) विकारी और (2) स्वतः सिद्ध है। जो सत्ता उत्पन्न होने के बाद प्रतीत होती है, वह ‘विकारी’ सत्ता कहलाती है और जो सत्ता कभी उत्पन्न नहीं होती, प्रत्युत सदा (अनादिकाल से) ज्यों-की-त्यों रहती है, वह ‘स्वतः सिद्ध’ सत्ता कहलाती है। इस दृष्टि से संसार एवं शरीर की सत्ता ‘विकारी’ और परमात्मा एवं आत्मा की सत्ता ‘स्वतः सिद्ध’ है। विकारी सत्ता को स्वतः सिद्ध सत्ता में मिला देना भूल है।[2] उत्पन्न हुई विकारी सत्ता से संबंध-विच्छेद करके अनुत्पन्न स्वतः सिद्ध सत्ता में स्थित होना ही ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों का भाव है।
जीव (चेतन) ने भगवत्प्रदत्त विवेक का अनादर करके शरीर (जड) को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लिया अर्थात शरीर से अपना संबंध मान लिया। जीव के बंधन का कारण यह माना हुआ संबंध ही है। यह संबंध इतना दृढ़ है कि मरने पर भी छूटता नहीं और कच्चा इतना है कि जब चाहे, तब छोड़ा जा सकता है। किसी से अपना संबंध जोड़ने अथवा तोड़ने में जीव सर्वथा स्वतंत्र है। इसी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके जीव शरीरादि विजातीय पदार्थों से अपना संबंध मान लेता है। अपने विवेक (शरीर से अपनी भिन्नता का ज्ञान) को महत्त्व न देने से विवेक दब जाता है। विवेक के दबने पर शरीर (जड-तत्त्व) की प्रधानता हो जाती है और वह सत्य प्रतीत होने लगता है। सत्संग, स्वाध्याय आदि से जैसे-जैसे विवेक विकसित होता है, वैसे-वैसे शरीर से माना हुआ संबंध छूटता चला जाता है। विवेक जाग्रत होने पर परमात्मा (चिन्मय-तत्त्व) से पहले वास्तविक संबंध का- उसमें अपनी स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो जाता है। यही ‘आत्मनि अवस्थितम्’ पदों का भाव है। विकारी सत्ता (संसार) के संबंध से अहंता- (‘मैं’- पन) की उत्पत्ति होती है। यह अहंता दो प्रकार से मानी जाती है- (1) श्रवण से मानना; जैसे- दूसरों से सुनकर ‘मैं अमुक वर्ण वाला हूँ’ आदि अहंता मान लेते हैं (2) क्रिया से मानना; जैसे- व्याख्यान देना, शिक्षा देना, चिकित्सा करना आदगि क्रियाओं से ‘मैं वक्ता हूँ,’ ‘मैं शिक्षक हूँ’, ‘मैं चिकित्सक हूँ’ आदि अहंता मान लेते हैं। ये दोनों ही प्रकार की अहंता सदा रहने वाली नहीं है, जबकि ‘है’- रूप स्वतः सिद्ध सत्ता सदा रहने वाली है। ‘मैं’- रूप में मानी हुई अहंता का त्याग होने पर ‘हूँ’ –रूप विकारी सत्ता का भी स्वतः त्याग हो जाता है और योगी को ‘है’ –रूप स्वतः सिद्ध सत्ता में अपनी स्थिति का अनुभव हो जाता है। यही अपने-आपमें तत्त्व का अनुभव करना है।
देश–काल आदि की अपेक्षा से कहे जाने वाले ‘मै’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- इन चारों के मूल में ‘है’ के रूप में एक ही परमात्मतत्त्व समानरूप से विद्यमान है, जो इन चारों का प्रकाशक और आधार है। ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- ये चारों निरंतर परिवर्तनशील हैं और ‘है’ नित्य अपरिवर्तनशील है। इनमें ‘तू है’, ‘यह है’ और ‘वह है’- ऐसा तो कहा जाता है, पर ‘मैं है’- ऐसा न कहकर ‘मैं हूँ’ कहा जाता है। कारण यह है कि ‘मैं हूँ’ में ‘हूँ’ ‘मैं’ –पन के कारण आया है। जब तक ‘मैं’ –पन है, तभी तक ‘हूँ’ के रूप में एकदेशीयता या परिच्छिन्नता है। ‘मैं’ –पन के मिटने पर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है। ‘आत्मनि अवस्थितम्’ का तात्पर्य यह है कि ‘हूँ’ में ‘है’ और ‘है’ में ‘हूँ’ स्थित है। दूसरे शब्दों में व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि स्थित है। जिस प्रकार समुद्र और लहरें दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते, उसी प्रकार ‘है’ और ‘हूँ’ दोनों एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। परंतु जैसे जल-तत्त्व में समुद्र और लहरें- ये दोनों ही नहीं है (वास्तव में एक ही जल-तत्त्व है), ऐसे ही परमात्मतत्त्व (‘है’) में ‘हूँ’ और ‘है’- ये दोनों ही नहीं है। ऐसा अनुभव करना ही अपने-आप (स्वयं) में स्थित तत्त्व का अनुभव करना है। ‘मैं’- पन के कारण (संसार में सुखासक्ति तथा परमात्मा से विमुखता होने से) ही परमात्मा का अपने-आप में अनुभव नहीं होता। इसलिए परमात्मा को अपने-आपसे भिन्न में देखने के कारण उससे दूरी या वियोग का अनुभव करना पड़ता है और उसकी प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटना पड़ता है। अपने-आपसे भिन्न जितने पदार्थ हैं, उनसे वियोग होना अवश्यम्भावी है। परंतु अपने-आप में परमात्मा अनुभव करने वाले को उससे अपनी दूरी या वियोग का अनुभव नहीं करना पड़ता।[1]। अपने-आपमें परमात्मा को देखना भिन्नता (द्वैतभाव) का पोषक नहीं, प्रत्युक भिन्नता का नाशक है। वास्तव में ‘मैं’-पन ही भिन्नता का पोषक है। मनुष्य ने भिन्नता के वाचक ‘मैं’ –पन अथवा परिच्छिन्नता, पराधीनता, अभाव, अज्ञान आदि विकारों को भूल से अपने-आप में ही मान लिया है। इनको दूर करने के लिए परमात्मा को अपने-आपमें देखना है।
इन विकारों का नाश अपने-आपमें परमात्मा को देखने पर ही हो सकता है। ये विकार तभी तक हैं, जब तक साधक ‘हूँ’ को देखता (मानता) है, ‘है’ को नहीं। इस ‘हूँ’ के स्थान पर ‘है’ को देखने पर कोई विकार नहीं रहता; क्योंकि ‘है’ में किञ्चिन्मात्र भी विकार नहीं है। संसार बदलने वाला है। संसार का ही अंश होने के कारण ‘मैं’ भी बदलने वाला है; जैसे- ‘मैं बालक हूँ’, ‘मैं युवा हूँ’, ‘मैं वृद्ध हूँ’, ‘मैं रोगी हूँ’, ‘मैं[1] नीरोग हूँ’ इत्यादि। संसार की तरह ‘मैं’ भी उत्पन्न और नष्ट है वाला है। जैसे संसार नहीं है, ऐसे ही ‘मैं’ भी नहीं है। है सो सुंदर है सदा, नहिं सो सुंदर नाहि । नहिं सो परगट देखिए, है सो दीखे नाहिं ।। ‘है’ सदा है और ‘नहीं’ कभी नहीं है। ‘है’ दीखने में नहीं आता, पर ‘नहीं’ दीखने में आता है; क्योंकि जिसके द्वारा हम ‘नहीं’ को देखते हैं, वे मन, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि भी ‘नहीं’ के अंश हैं। त्रिपुटी में देखना सजातीयता में ही होता है। अर्थात त्रिपुटी से होने वाले (करण-सापेक्ष) ज्ञान में सजातीयता का होना आवश्यक है। अतः ‘नहीं’ के द्वारा ‘नहीं’ को ही देखा जा सकता है, ‘है’ को नहीं। ‘है’ का ज्ञान त्रिपुटी से रहित (कारण-निरपेक्ष) है। ‘नहीं’ की स्वतंत्रता सत्ता न होने पर भी ‘है’ की सत्ता से ही उसकी सत्ता दीखती है। ‘है’ ही ‘नहीं’ का प्रकाशक और आधार है। जिस प्रकार नेत्र से संसार को तो देख सकते हैं, पर नेत्र से नेत्र को नहीं देखते; क्योंकि जिससे देखते हैं, वह नेत्र है। इसी प्रकार जो सबके जानने वाला है, उस परमात्मा को कैसे और किसके द्वारा जाना जा सकता है ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।’[2]? जो ‘है’ से प्रकाशित होता है, वह (‘नहीं’) ‘है’ को कैसे प्रकाशित कर सकता है? अपने-आपमें स्थित तत्त्व (‘है’) का अनुभव अपने-आप- (‘है’) से बिलकुल नहीं। अपने-आपसे होने वाला ज्ञान स्वाधीन और दूसरों (मन, बुद्धि आदि) से होने वाला ज्ञान पराधीन होता है। अपने-आपमें स्थित तत्त्व का अनुभव करने के लिए किसी दूसरे की सहायता लेने की जरूरत भी नहीं है।
कानों से सुनने, मन से मनन करने, बुद्धि से विचार करने आदि उपायों से कोई तत्त्व को नहीं जान सकता।[1]। कारण कि इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, देश, काल, वस्तु आदि सब प्रकृति के कार्य हैं। प्रकृति के कार्य से तत्त्व को कैसे जाना जा सकता है, जो प्रकृति से सर्वथा अतीत है? अतः प्रकृति के कार्य का त्याग (संबंध-विच्छेद) करने पर ही तत्त्व की प्राप्ति होती है और वह अपने-आपमें ही होती है। साधक से सबसे बड़ी गलती यह होती है कि वह जिस रीति से संसार को जानता है, उसी रीति से परमात्मा को भी जानना चाहता है। परंतु संसार और परमात्मा- दोनों को जानने की रीति एक दूसरे से विरुद्ध है। संसार को इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जाना जाता है; क्योंकि उसकी जानकारी करण-सापेक्ष है; परंतु परमात्मा को इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि के द्वारा नहीं जाना जा सकता; क्योंकि उसकी जानकारी करण-निरपेक्ष है। जड़ता के आश्रय से चिन्मयता में स्थिति का अनुभव हो ही नहीं सकता। जडता (स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर) का आश्रय लेकर जो परमात्मतत्त्व का अनुभव करना चाहते हैं, वे पुरुष समाधि लगाकर भी परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं कर पाते; क्योंकि समाधि भी कारण-शरीर के आश्रित रहती है।[2] जो परमात्मा को अपना तथा अपने को परमात्मा का जानते हैं, वे ज्ञानरूप नेत्रों वाले योगीलोग शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से अपने को अलग करके अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। परंतु जो शरीर को अपना और अपने को शरीर का मानते हैं, वे विमूढ़ और अकृतात्मा पुरुष शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा यत्न करने पर भी अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं कर पाते। ‘आत्मन अवस्थितम्’ पदों में भगवान ने अपने को संपूर्ण प्राणियों की आत्मा में स्थित (सर्वव्यापी) बताया है। इसका अनुभव करने के लिए साधक को ये चारे बातें दृढ़तापूर्वक मान लेनी चाहिए- परमात्मा यहाँ हैं। परमात्मा अभी हैं। परमात्मा अपने में हैं। परमात्मा अपने हैं।
परमात्मा सब जगह (सर्वव्यापी) होने से यहाँ भी हैं; समय समय (तीनों कालों में) होने से अभी भी भी हैं; सबमें होने से अपने में भी हैं; और सबके होने से अपने भी हैं। इस दृष्टि से परमात्मा यहाँ होने से उनको प्राप्त करने के लिए दूसरी जगह जान की आवश्यकता नहीं है; अभी होने से उनकी प्राप्ति के लिए भविष्य की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है; अपने में होने से उनके सिवाय किसी को भी अपना मानने की आवश्यकता नहीं है। अपने होने से वे स्वाभाविक ही अत्यंत प्रिय लगेंगे। प्रत्येक साधक के लिए उपर्युक्त चारों बातें अत्यंत महत्त्वपूर्ण और तत्काल लाभदायक हैं। साधक को ये चारों बातें दृढ़ता से मान लेनी चाहिए। समस्त साधनों का यह सार साधन है। इसमें किसी योग्यता, अभ्यास, गुण आदि की भी जरूरत नहीं है। ये बातें स्वतः सिद्ध और वास्तविक हैं, इसलिए इसको मानने के लिए सभी योग्य हैं, सभी पात्र हैं, सभी सामर्थ्य हैं। शर्त यही है कि वे एकमात्र परमात्मा को ही चाहते हों। ‘यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः’- जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है, उन पुरुषों को यहाँ ‘अकृतात्मानः’ कहा गया है। सत्-असत् के ज्ञान (विवेक) को महत्त्व न देने के कारण ऐसे पुरुषों को ‘अचेतसः’ कहा गया है। जिनके अंतःकरण में संसार के व्यक्ति, पदार्थ आदि का महत्त्व बना हुआ है और जो शरीरादि को अपना मानते हुए उनसे सुख-भोग की आशा रखते हैं, ऐसे सभी पुरुष ‘अकृतात्मानः’ ‘अचेतसः’ हैं। ऐसे पुरुष तत्त्व की प्राप्ति तो चाहते हैं, पर वे शरीर, मन, बुद्धि आदि जड (प्राकृत) पदार्थों की सहायता से चेतन परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहते हैं। परमात्मा जड पदार्थों की सहायता से नहीं, प्रत्युत जड के त्याग (संबंध-विच्छेद) से मिलते हैं। इस श्लोक में ‘यतन्तः’ पद दो बार आया है। यह भाव यह है कि यत्न करने में समानता होने पर भी एक (ज्ञानी) पुरुष तो तत्त्व का अनुभव कर लेता है, दूसरा (मूढ़) नहीं कर पाता।
इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि के द्वारा किया गया यत्न तत्त्वप्राप्ति में सहायक होने पर भी अंतःकरण (जडता) के साथ संबंध बने रहने के कारण और अंतःकरण में सांसारिक पदार्थों का महत्त्व रहने के कारण (यत्न करने भी) तत्त्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिनकी दृष्टि असत्- (सांसारिक भोग और संग्रह) पर ही जमी हुई है, ऐसे पुरुष सत् (तत्त्व) के कैसे देख सकते हैं। अकृतात्मा और अचेतस पुरुष करने में तो ध्यान, स्वाध्याय, जप आदि सब कुछ करते हैं, पर अंतःकरण में जडता (सांसारिक भोग और संग्रह) का महत्त्व रहने के कारण उन्हें तत्त्व का अनुभव नहीं होता। यद्यपि ऐसे पुरुषों के द्वारा किया गया यत्न भी निष्फल नहीं जाता, तथापि तत्त्व का अनुभव उन्हें वर्तमान में नहीं होता। वर्तमान में तत्त्व का अनुभव जडता का सर्वथा त्याग होने पर ही हो सकता है। जिसका आश्रय लिया जाए, उसका त्याग नहीं हो सकता- यह नियम है। अतः शरीर, मन, बुद्धि आदि जड पदार्थों का आश्रय लेकर साधक जडता का त्याग नहीं कर सकता। इसके सिवाय मन, बुद्धि आदि जड पदार्थों को लेकर साधन करने वाले में सूक्ष्म अहंकार बना रहता है, जो जडता का त्याग होने पर ही निवृत्त होता है। जडता का त्याग करने का सुगम उपाय है- एकमात्र भगवान का आश्रय लेना अर्थात ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’ इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेना; इस पर अटल विश्वास कर लेना। इसके लिए यत्न या अभ्यास करने की भी जरूरत नहीं है। वास्तविक बात को दृढ़तापूर्वक स्वीकारमात्र कर लेने की जरूरत है। संबंध- पंद्रहवें अध्याय में पाँच-पाँच श्लोकों के चार प्रकरण हैं। उनमें से यह तीसरा प्रकरण बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक का है, जिसमें छठा श्लोक भी लेने से पाँच श्लोक पूरे हो जाते हैं। यह तीसरा प्रकरण विशेष रूप से भगवान के प्रभाव और महत्त्व को प्रकट करने वाला है। छठे श्लोक में जो विषय (परमधाम को सूर्य, चंद्र और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते) स्पष्ट नहीं हो पाया था, उसी का स्पष्ट विवेचन अब भगवान आगे के श्लोक में करते हैं।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भावसयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्रौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ।।12।। अर्थ- सूर्य में आया हुआ जो तेज संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है और जो तेज चंद्रमा में है तथा जो तेज अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान। व्याख्या- [प्रभाव और महत्त्व की ओर आकर्षित होना जीव का स्वभाव है। प्राकृत पदार्थों के संबंध से जीव प्राकृत पदार्थों के प्रभाव से प्रभावित हो जाता है। कारण यह है कि प्रकृति में स्थित होने के कारण जीव को प्राकृत पदार्थों (शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि-) का महत्त्व दीखने लगता है, भगवान का नहीं। अतः जीव पर पड़े प्राकृत पदार्थों का प्रभाव हटाने के लिए भगवान अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन प्राकृत पदार्थों में जो प्रभाव और महत्त्व देखने में आता है, वस्तुः (मूल में) मेरा ही है, उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं।] ‘यदादित्यगतं तेजो जगद्भावसयतेऽखिलम्’- जैसे भगवान ने[1] कामनाओं को ‘मनोगतान्’ बताया है, ऐसे ही यहाँ तेज को ‘आदित्यगतम्’ बताते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे मन में स्थित कामनाएँ मन का धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक हैं, ऐसे ही सूर्य में स्थित तेज सूर्य का धर्म या स्वरूप न होकर आगन्तुक है अर्थात वह तेज सूर्य का अपना न होकर (भगवान से) आया हुआ है। सूर्य का तेज (प्रकाश) इतना महान है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड उससे प्रकाशित होता है। ऐसा वह तेज सूर्य का दीखने पर भी वास्तव में भगवान का ही है। इसलिए सूर्य भगवान को या उनके परमधाम को प्रकाशित नहीं कर सकता। महर्षि पतंजलि कहते हैं- पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।।[2] ‘ईश्वर सबके पूर्वजों का भी गुरु है; क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है।’ संपूर्ण भौतिक जगत में सूर्य के समान प्रत्यक्ष प्रभावशाली पदार्थ कोई नहीं है। चंद्र, अग्नि, तारे, विद्युत आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं, वे सभी सूर्य से ही प्रकाश पाते हैं।
पंचदश अध्याय भगवान से मिले हुए तेज के कारण जब सूर्य इतना विलक्षण और प्रभावशाली है, तब स्वयं भगवान कितने विलक्षण और प्रभावशाली होंगे! ऐसा विचार करने पर स्वतः भगवान की तरफ आकर्षण होता है। सूर्य ‘नेत्रों’ का अधिष्ठात्-देवता है। अतः नेत्रों में जो प्रकाश (देखने की शक्ति) है वह भी परंपरा से भगवान से ही आयी हुई समझनी चाहिए। ‘यच्चन्द्रमसि’- जैसे सूर्य में स्थित प्रकाशित का शक्ति और दाहिका शक्ति- दोनों ही भगवान से प्राप्त (आगत) हैं, ऐसे ही चंद्रमा की प्रकाशित का शक्ति और पोषण शक्ति- दोनों (सूर्य द्वारा प्राप्त होने पर भी परंपरा से) भगवत्प्रदत्त ही हैं। जैसे भगवान का तेज ‘आदित्यगत’ है, ऐसे ही उनका तेज ‘चंद्रगत’ भी समझना चाहिए। चंद्रमा में प्रकाश के साथ शीतलता, मधुरता, पोषणता आदि जो भी गुण हैं, वह सब भगवान का ही प्रभाव है। यहाँ चंद्रमा को तारे, नक्षत्र आदि का भी उपलक्षण समझना चाहिए। चंद्रमा ‘मन’ का अधिष्ठातृ-देवता है। अतः मन में जो प्रकाश (मनन करने की शक्ति) है, वह भी परंपरा से भगवान से ही आयी हुई समझनी चाहिए। ‘यच्चाग्रौ’- जैसे भगवान का तेज ‘आदित्यगत’ है, ऐसे ही उनका तेज ‘अग्निगत’ भी समझना चाहिए। तात्पर्य है कि अग्नि की प्रकाशिका शक्ति और दाहिका शक्ति- दोनों भगवान की ही हैं, अग्नि की नहीं। यहाँ अग्नि को विद्युत, दीपक, जुगनू आदि का भी उपलक्षण समझना चाहिए। अग्नि ‘वाणी’ का अधिष्ठात्-देवता है। अतः वाणी में जो प्रकाश (अर्थ प्रकाश करने की शक्ति) है, वह भी परंपरा से भगवान से ही आयी हुई समझनी चाहिए। ‘तत्तेजो विद्धि मामकम्’- जो तेज सूर्य, चंद्रमा और अग्नि में है और जो तेज इन तीनों के प्रकाश से प्रकाशित अन्य पदार्थों (तारे, नक्षत्र, विद्युत, जुगनू आदि) में देखने तथा सुनने में आता है, उसे भगवान का ही तेज समझना चाहिए।
उपर्युक्त पदों से भगवान यह कह रहे हैं कि मनुष्य जिस-जिस तेजस्वी पदार्थ की तरफ आकर्षित होता है, उस-उस पदार्थ में उसको मेरा ही प्रभाव देखना चाहिए।[1] जैसे बूँदों के लड्डू में जो मिठास है, वह उसकी अपनी न होकर चीनी की ही है, ऐसे ही सूर्य, चंद्रमा और अग्नि में तेज है, वह उनका अपना न होकर भगवान का ही है। भगवान के प्रकाश से ही यह संपूर्ण जगत प्रकाशित होता है- ‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’।[2] वह संपूर्ण ज्योतियों की भी ज्योति है- ‘ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः’।[3] सूर्य, चंद्रमा और अग्नि क्रमशः नेत्र, मन और वाणी के अधिष्ठाता एवं उनको प्रकाशित करने वाले हैं। मनुष्य अपने भावों को प्रकट करने और समझने के लिए नेत्र, मन (अंतःकरण) और वाणी- इन तीन इंद्रियों का ही उपयोग करता है। ये तीन इंद्रियाँ जितना प्रकाश करतीं हैं, उतना प्रकाश अन्य इंद्रियाँ नहीं करतीं। प्रकाश का तात्पर्य है- अलग-अलग ज्ञान कराना। नेत्र और वाणी बाहरी करण हैं तथा मन भीतरी करण है। करणों के द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है। ये तीनों ही करण (इंद्रियाँ) भगवान को प्रकाशित नहीं कर सकते; क्योंकि इनमें जो तेज या प्रकाश है, वह इनका अपना न होकर भगवान का ही है। संबंध- दृश्य (दीखने वाले) पदार्थों में अपना प्रभाव बताने के बाद अब भगवान आगे के श्लोक में जिस शक्ति से समष्टि जगत में क्रियाएँ ही रही हैं, उस समष्टि-शक्ति में अपना प्रभाव प्रकट करते हैं।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।13।। अर्थ- मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ; और मैं ही रसमय चंद्रमा के रूप में समस्त औषधियों- (वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूँ। व्याख्या- ‘गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा’- भगवान ही पृथ्वी में प्रवेश करके उस पर स्थित संपूर्ण स्थावर जंगम प्राणियों को धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि पृथ्वी में जो धारण-शक्ति देखने में आती है, वह पृथ्वी की अपनी न होकर भगवान की ही है।[1] वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पृथ्वी की अपेक्षा जल का स्तर ऊँचा है और पृथ्वी पर जल का भाग स्थल की अपेक्षा बहुत अधिक है।[2] ऐसा होने पर भी पृथ्वी जलमग्न नहीं होती- यह भगवान की धारण शक्ति का ही प्रभाव है। पृथ्वी के उपलक्षण से यह समझना चाहिए कि पृथ्वी के सिवाय जहाँ भी धारण-शक्ति देखने में आती है, वह सब भगवान की ही है। पृथ्वी में अन्नादि ओषधियों को उत्पन्न करने की (उत्पादि का) शक्ति एवं गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी भगवान की ही समझनी चाहिए। ‘पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः’- चंद्रमा में दो शक्तियाँ हैं- प्रकाशिका-शक्ति और पोषण-शक्ति। प्रकाशिका-शक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन पूर्वश्लोक में करने के बाद अब भगवान इस श्लोक में चंद्रमा की पोषण-शक्ति में अपना प्रभाव बताते हैं कि चंद्रमा के माध्यम से संपूर्ण वनस्पतियों को मैं ही पुष्ट करता हूँ। चंद्रमा शुक्ल पक्ष में पोषक और कृष्ण पक्ष में शोषक होता है। शुक्ल पक्ष में रसमय चंद्रमा की मधुर किरणों से अमृतवर्षा होने के कारण ही लता-वृक्षादि पुष्ट होते हैं और फलते-फूलते हैं। माता के उदर में स्थित शिशु भी शुक्ल पक्ष में वृद्धि को प्राप्त होता है।
यहाँ ‘सोमः’ पद चंद्रलोक का वाचक है, चंद्रमंडल का नहीं। नेत्रों से हमें जो दीखता है, वह चंद्रमंडल है। चंद्रमंडल से भी ऊपर (आँखों से न दीखने वाला) चंद्रलोक है। उपर्युक्त पदों में विशेष रूप ‘सोमः’ पद देने का अभिप्राय यह है कि चंद्रमा में प्रकाश के साथ-साथ अमृत वर्षा की शक्ति भी है। वह अमृत पहले चंद्रलोक से चंद्रमंडल में आता है और फिर चंद्रमंडल से भूमंडल पर आता है। यहाँ ‘ओषधीः’ पद के अंतर्गत गेहूँ, चना आदि सब प्रकार के अन्न समझने चाहिए। चंद्रमा के द्वारा पुष्ट हुए अन्न का भोजन करने से ही मनुष्य, पशु, पक्षी आदि समस्त प्राणि पुष्टि प्राप्त करते हैं। ओषधियों, वनस्पतियों में शरीर को पुष्ट करने की जो शक्ति है, वह चंद्रमा से आती हैं। चंद्रमा की वह पोषण शक्ति भी उसकी अपनी न होकर भगवान की ही है। भगवान ही चंद्रमा को निमित्त बनाकर सबका पोषण करते हैं। संबंध- समष्टि-शक्ति में अपना प्रभाव बताने के बाद अब भगवान जिस शक्ति से व्यष्टि-जगत में क्रियाएँ हो रही हैं, उस व्यष्टि-शक्ति में अपना प्रभाव बताते हैं।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।14।। अर्थ- प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण-अपना से युक्त वैश्वानर होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ। व्याख्या- ‘अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः’- बारहवें श्लोक में अग्नि की प्रकाशक-शक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन करने के बाद भगवान इस श्लोक में वैश्वानरूप अग्नि की पाचन शक्ति में अपने प्रभाव का वर्णन करते हैं।[1] तात्पर्य यह है कि अग्नि के दोनों ही कार्य (प्रकाश करना और पचाना) भगवान की ही शक्ति से होते हैं। प्राणियों के शरीर को पुष्ट करने तथा उनके प्राणों की रक्षा करने के लिए भगवान ही वैश्वानर (जठराग्नि) के रूप से उन प्राणियों के शरीर में रहते हैं। मनुष्यों की तरह लता, [[वृक्ष] आदि स्थावर और पशु, पक्षी आदि जंगम प्राणियों में भी वैश्वानर की पाचन शक्ति काम करती है। लता, वृक्ष आदि जो खाद्य, जल ग्रहण करते हैं, पाचन-शक्ति के द्वारा उसका पाचन होने के फलस्वरूप ही उन लता-वृक्षादि की वृद्धि होती है। ‘प्राणापानसमायुक्तः’- शरीर में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान- ये पाँच प्रधान वायु एवं नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय- ये पाँच उपप्रधान वायु रहती है।[2] इस श्लोक में भगवान दो प्रधान वायु- प्राण और अपान का ही वर्णन करते हैं; क्योंकि ये दोनों वायु जठराग्नि को प्रदीप्त करती हैं। जठराग्नि से पचे हुए भोजन के सूक्ष्म अंश या रस को शरीर के प्रत्येक अंग में पहुँचाने का सूक्ष्म कार्य भी मुख्यतः प्राण और अपान वायु का ही है। ‘पचाम्यन्नं चतुर्विधम्’- प्राणी चार प्रकार के अन्न का भोजन करते हैं- भोज्य- जो अन्न दाँतों से चबाकर खाया जाता है; जैसे- रोटी, पुआ आदि। पेय- जो अन्न निगला जाता है; जिसको खिचड़ी, हलवा, दूध, रस आदि। चोष्य- दाँतों से दबाकर जिस खाद्य पदार्थ का रस चूसा जाता है और बचे हुए असार भाग को थूक दिया जाता है; जैसे- ऊख, आम आदि। वृक्षादि स्थावर योनियों में इसी प्रकार से अन्न को ग्रहण करती है। लेह्य- जो अन्य जिह्वा से चाटा जाता है; जैसे- चटनी, शहद आदि। अन्न के उपर्युक्त चार प्रकारों में भी एक-एक के अनेक भेद हैं। भगवान कहते हैं कि उन चारों प्रकार के अन्नों को वैश्वानर (जठराग्नि) रूप से मैं ही पचाता हूँ। अन्न का ऐसा कोई अंश नहीं है, जो मेरी शक्ति के बिना पच सके। संबंध- पीछे के तीन श्लोकों में अपनी प्रभावयुक्त विभूतियों का वर्णन करके अब उस विषय का उपसंहार करते हुए भगवान सब प्रकार के जानने योग्य तत्त्व स्वयं को बताते हैं।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदव चाहम्।।15।। अर्थ- मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। संपूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। व्याख्या- ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्ट’[1]- पीछे के श्लोकों में अपनी विभूतियों का वर्णन करने के बाद अब भगवान यह रहस्य प्रकट करते हैं कि मैं स्वयं सब प्राणियों के हृदय में विद्यमान हूँ। यद्यपि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी स्थानों में भगवान विद्यमान हैं, तथापि हृदय में वे विशेष रूप से विद्यमान हैं। हृदय शरीर का प्रधान अंग है। सब प्रकार के भाव हृदय में ही होते हैं। समस्त कर्मों में भाव ही प्रधान होता है। भाव की शुद्धि से समस्त पदार्थ, क्रिया आदि की शुद्धि हो जाती है। अतः महत्त्व भाव का ही है, वस्तु, व्यक्ति, कर्म आदि का नहीं। वह भाव हृदय में होने से हृदय की बहुत महत्ता है। हृदय सत्त्वगुण का कार्य है, इसलिए भी भगवान हृदय में विशेष रूप से रहते हैं। भगवान कहते हैं कि मैं प्रत्येक मनुष्य के अत्यंत नजदीक उसके हृदय में रहता हूँ; अतः किसी भी साधक को (मेरे से दूरी अथवा वियोग का अनुभव करते हुए भी) मेरी प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिए। इसलिए पापी-पुण्यात्मा, मूर्ख-पंडित, निर्धन-धनवान, रोगी-निरोगी आदि कोई भी स्त्री-पुरुष किसी भी जाति, वर्ण, संप्रदाय, आश्रय, देश, काल, परिस्थिति आदि में क्यों न हो, भगवत्प्राप्ति का वह पूरा अधिकारी है। आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्ति ऐसी तीव्र अभिलाषा, लगन, व्याकुलता की है, जिसमें भगवत्प्राप्ति के बिना रहा न जाए। परमात्मा सर्वव्यापी अर्थात सब जगह समान रूप से परिपूर्ण होने पर भी हृदय में प्राप्त होते हैं। जैसे गाय के संपूर्ण शरीर से दूध व्याप्त होने पर भी वह उसके स्तनों से ही प्राप्त होता है अथवा पृथ्वी में सर्वत्र जल रहने पर भी वह कुएँ आदि से ही प्राप्त होता है, ऐसे ही सूर्य, चंद्र अग्नि, पृथ्वी, वैश्वानर आदि सबमें व्याप्त होने पर भी परमात्मा ‘हृदय’ में प्राप्त होते हैं।[2]
हृदय में निरंतर स्थित रहने के कारण परमात्मा वास्तव में मनुष्य मात्र को प्राप्त हैं; परंतु जडता (संसार) से माने हुए संबंध के कारण जडता की तरफ ही दृष्टि रहने से नित्यप्राप्त परमात्मा अप्राप्त प्रतीत हो रहे हैं अर्थात उनकी प्राप्ति का अनुभव नहीं हो रहा है। जडता से सर्वथा संबंध-विच्छेद होते ही सर्वत्र विद्यमान (नित्यप्राप्त) परमात्मतत्त्व स्वतः अनुभव में आ जाता है। परमात्मप्राप्ति के लिए जो सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन किया जाता है, उसमें जडता (असत्) का आश्रय रहता ही है। कारण है कि जडता (स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर) का आश्रय लिए बिना इनका होना संभव ही नहीं है। वास्तव में इनकी सार्थकता जडता से संबंध-विच्छेद कराने में ही है। जडता से संबंध-विच्छेद तभी होगा, जब ये (सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन) केवल संसार के हित के लिए ही किए जाएँ, अपने लिए नहीं। किसी विशेष साधन, गुण, योग्यता, लक्षण आदि के बदले में परमात्मप्राप्ति होगी- यह बिलकुल गलत धारणा है। किसी मूल्य के बदले में जो वस्तु प्राप्त होती है, वह उस मूल्य से कम मूल्य की ही होती है- यह सिद्धांत है। अतः यदि किसी विशेष साधन, योग्यता आदि के द्वारा ही परमात्मप्राप्ति का होना माना जाए, तो परमात्मा उस साधन, योग्यता आदि से कम मूल्य के (कमज़ोर) ही सिद्ध होते हैं, जबकि परमात्मा किसी से कम मूल्य के नहीं हैं।[1] इसलिए वे किसी साधन आदि से खरीदे नहीं जा सकते। इसके सिवाय अगर किसी मूल्य (साधन, योग्यता आदि) के बदले में परमात्मा की प्राप्ति मानी जाए, तो उनसे हमें लाभ भी क्या होगा? क्योंकि उनसे अधिक मूल्य की वस्तु (साधन आदि) तो हमारे पास पहले से है ही! जैसे सांसारिक पदार्थ कर्मों से मिलते हैं, ऐसे परमात्मा की प्राप्ति कर्मों से नहीं होती; क्योंकि परमात्मप्राप्ति किसी कर्म का फल नहीं है। प्रत्येक कर्म की उत्पत्ति अहंभाव से होती है और परमात्मप्राप्ति अहंभाव के मिटने पर होती है। कारण कि अहंभाव कृति (कर्म) है और परमात्मा कृतिरहित हैं। कृतिरहित तत्त्व को किसी कृति से कैसे प्राप्त किया जा सकता है- ‘नास्त्यकृतः कृतेन।’
तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर आदि जड-पदार्थों के द्वारा नहीं, प्रत्युत जडता के त्याग से होती है। जब तक मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर, देश, काल, वस्तु आदि का आश्रय है, तब तक एक परमात्म का आश्रय नहीं हो सकता। मन, बुद्धि आदि के आश्रय से परमात्माप्राप्ति होगी- यही साधक की मूल भूल है। अगर जडता का आश्रय और विश्वास छूट जाए तथा एकमात्र परमात्मा का ही आश्रय और विश्वास हो जाए, तो परमात्मप्राप्ति में देरी नहीं लग सकती। ‘मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनंच’- किसी बात की भूली हुई जानकारी का (किसी कारण से) पुनः प्राप्त होना ‘स्मृति’ कहलाती है। स्मृति और चिन्तन- दोनों में फर्क है। नयी बात का ‘चिन्तन’ और पुरानी बात की ‘स्मृति’ होती है। अतः चिन्तन संसार का और स्मृति परमात्मा की होती है; क्योंकि संसार पहले नहीं था और परमात्मा पहले (अनादिकाल) से हैं। स्मृति में जो शक्ति है, वह चिन्तन में नहीं है। स्मृति में कर्तापन का भाव कम रहता है, जबकि चिन्तन में कर्तापन का भाव अधिक रहता है। एक स्मृति की जाती है और एक स्मृति होती है। जो स्मृति की जाती है, वह ‘बुद्धि’ में और जो होती है, वह ‘स्वयं’ में होती है। होने वाली स्मृति जडता से तत्काल संबंध-विच्छेद करा देती है। भगवान यहाँ कहते हैं कि यह (होने वाली) स्मृति मेरे से ही होती है। परमात्मा का अंश होते हुए भी जब भूल से परमात्मा से विमुख हो जाता है और अपना संबंध संसार से मानने लगता है। इस भूल का नाश होने पर ‘मैं भगवान का ही हूँ, संसार का नहीं’ ऐसा साक्षात अनुभव हो जाना ही ‘स्मृति’ है।[1] स्मृति में कोई नया ज्ञान या अनुभव नहीं होता, प्रत्युत हमारा वास्तविक संबंध है। इस वास्तविकता का प्रकट होना ही स्मृति का प्राप्त होना है। जीव में निष्कामभाव (कर्मयोग), स्वरूप-बोध (ज्ञानयोग) और भगवत्प्रेम (भक्तियोग)- तीनों स्वतः विद्यमान हैं। जीव को (अनादिकाल से) इनकी स्मृति हो गयी है। एक बार इनकी स्मृति हो जाने पर फिर विस्मृति नहीं होती। कारण यह स्मृति ‘स्वयं’ में जाग्रत होती है। ‘बुद्धि’ में होने वाली लौकिक स्मृति (बुद्धि के क्षीण होने पर) नष्ट भी हो सकती है, पर ‘स्वयं’ में होने वाली स्मृति कभी नष्ट नहीं होती।
किसी विषय की जानकारी को ‘ज्ञान’ कहते हैं। लौकिक और पारमार्थिक जितना भी ज्ञान है, वह सब ज्ञानस्वरूप परमात्मा का आभास-मात्र है। अतः ज्ञान को भगवान अपने से ही होने वाला बताते हैं। वास्तव में ज्ञान वही है, जो ‘स्वयं’ से जाना जाए। अनन्त, पूर्ण और नित्य होने के कारण इस ज्ञान में कोई संदेह या भ्रम नहीं होता। यद्यपि इंद्रिय और बुद्धि-जन्य ज्ञान भी ‘ज्ञान’ कहलाता है, तथापि सीमित, अल्प (अपूर्ण) तथा परिवर्तनशील होने के कारण इस ज्ञान में संदेह या भ्रम रहता है; जैसे- नेत्रों से देखने पर सूर्य अत्यंत बड़ा होते हुए भी (आकाश में) छोटा सा दीखता है इत्यादि। बुद्धि से जिस बात को पहले ठीक समझते थे, बुद्धि के विकसित अथवा शुद्ध होने पर वही बात गलत दीखने लग जाती है। तात्पर्य यह है कि इंद्रिय और बुद्धि-जन्य ज्ञान करण-सापेक्ष और अल्प होता है। अल्प ज्ञान ही ‘अज्ञान’ कहलाता है। इसके विपरीत ‘स्वयं’ का ज्ञान किसी कारण (इंद्रिय, बुद्धि आदि) की अपेक्षा नहीं रखता और वह सदा पूर्ण होती है। वास्तव में इंद्रिय और बुद्धि-जन्य ज्ञान भी ‘स्वयं’ के ज्ञान से प्रकाशित होते हैं अर्थात सत्ता पाते हैं। संशय, भ्रम, विपर्यय (विपरीत भाव), तर्क-वितर्क आदि दोषों के दूर होने का नाम ‘अपोहन’ है। भगवान कहते हैं कि ये (संशय आदि) दोष भी मेरी कृपा से ही दूर होते हैं। शास्त्रों की बातें सत्य हैं या असत्य? भगवान को किसने देखा है? संसार ही सत्य है इत्यादि संशय और भ्रम भगवान की कृपा से ही मिटते हैं। सांसारिक पदार्थों में अपना हित दीखना, उनकी प्राप्ति में सुख दीखना, प्रतिक्षण नष्ट होने वाला संसार की सत्ता दीखना आदि विपरीत भाव भी भगवान की कृपा से ही दूर होते हैं। गीतोपदेश के अंत में अर्जुन भी भगवान की कृपा से ही अपने मोह का नाश, स्मृति की प्राप्ति और संशय का नाश होना स्वीकार करते हैं।[1] ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’- यहाँ ‘सर्वैः’ पद वेद एवं वेदानुकूल संपूर्ण शास्त्रों का वाचक है। संपूर्ण शास्त्रों का एकमात्र तात्पर्य परमात्मा का वास्तविक ज्ञान कराने अथवा उनकी प्राप्ति कराने में ही है।
यहाँ भगवान यह बात स्पष्ट करते हैं कि वेदों का वास्तविक तात्पर्य मेरी प्राप्ति कराने में ही है, सांसारिक भोगों की प्राप्ति कराने में नहीं। श्रुतियों में सकामभाव का विशेष वर्णन आने का यह कारण भी है कि संसार में सकाम मनुष्यों की संख्या अधिक रहती है। इसलिए श्रुति (सबकी माता होने से) उनका भी पालन करती है। जानने योग्य एकमात्र परमात्मा ही हैं, जिनको जान लेने पर फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। परमात्मा को जाने बिना संसार को कितना ही क्यों न जान लें, जानकारी कभी पूरी नहीं होती, सदा अधूरी ही रहती है।[1] अर्जुन में भगवान को जानने की विशेष जिज्ञासा थी। इसीलिए भगवान कहते हैं कि संपूर्ण वेदों और शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य मैं स्वयं तुम्हारे सामने बैठा हूँ। ‘वेदान्तकृत्’- भगवान से ही वेद प्रकट हुए हैं।[2] अतः वे ही वेदों के अंतिम सिद्धांत को ठीक-ठीक बताकर वेदों में प्रतीत होने वाले विरोधों का अच्छी तरह समन्वय कर सकते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि (वेदों का पूर्ण वास्तविक ज्ञाता होने के कारण) मैं ही वेदों के यथार्थ तात्पर्य का निर्णय करने वाला हूँ। ‘वेदविदेव चाहम्’- वेदों के अर्थ, भाव आदि को भगवान ही यथार्थरूप से जानते हैं। वेदों में कौन सी बात किस भाव या उद्देश्य से कही गयी है; वेदों का यथार्थ तात्पर्य क्या है इत्यादि बातें भगवान ही पूर्णरूप से जानते हैं; क्योंकि भगवान से ही वेद प्रकट हुए हैं। वेदों में भिन्न-भिन्न विषय होने के कारण अच्छे-अच्छे विद्वान भी एक निर्णय नहीं कर पाते।[3] इसलिए वेदों के यथार्थ ज्ञाता भगवान का आश्रय लेने से ही वे वेदों का तत्त्व जान सकते हैं और ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ से मुक्त हो सकते हैं। इस (पंद्रहवें) अध्याय के पहले श्लोक में भगवान ने संसारवृक्ष को तत्त्व से जानने वाले मनुष्य को ‘वेदवित्’ कहा था। अब इस श्लोक में भगवान स्वयं को ‘वेदवित्’ कहते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि संसार के यथार्थ तत्त्व को जान लेने वाला मनुष्य भगवान से अभिन्न हो जाता है। संसार के यथार्थ तत्त्व को जानने का अभिप्राय है- ‘संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं है और परमात्मा की ही सत्ता है’- इस प्रकार जानते हुए संसार से माने हुए संबंध को छोड़कर अपना संबंध भगवान से जोड़ना संसार का आश्रय छोड़कर भगवान के आश्रित हो जाना। प्रकरण संबंधी विशेष बात भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता के चार अध्यायों में भिन्न-भिन्न रूपों से अपनी विभूतियों का वर्णन किया है- सातवें अध्याय में आठवें श्लोक से बारहवें श्लोक तक सृष्टि के प्रधान-प्रधान पदार्थों में कारण रूप से सत्रह विभूतियों का वर्णन करके भगवान ने अपनी सर्वव्यापकता और सर्वरूपता सिद्ध की है। नवें अध्याय में सोलहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक क्रिया, भाव, पदार्थ आदि में कार्य-कारण से सैंतीस विभूतियों का वर्णन करके भगवान ने अपने को सर्वव्यापक बताया है। दसवें अध्याय का तो नाम ही ‘विभूति योग ’ है। इस अध्याय में चौथे और पाँचवें श्लोक में भगवान ने प्राणियों के भाव के रूप में बीस विभूतियों का और छठे श्लोक में बीसवें श्लोक से उन्तालीवें श्लोक तक भगवान ने बयासी प्रधान विभूतियों का विशेष रूप से वर्णन किया है। इस पंद्रहवें अध्याय में बारहवें श्लोक से पंद्रहवें श्लोक तक भगवान ने अपना प्रभाव बतलाने के लिए तेरह विभूतियों का वर्णन किया है।[1] उपर्युक्त चारों अध्यायों में भिन्न-भिन्न रूप में विभूतियों का वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि साधक को ‘वासुदेवः सर्वम्’[2] ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ इस तत्त्व का अनुभव हो जाए। इसलिए अपनी विभूतियों का वर्णन करते समय भगवान ने अपनी सर्वव्यापकता को ही विशेष रूप से सिद्ध किया है; जैसे- ‘मत्तः परतरं नान्यत्किश्चदस्ति’[3] ‘मेरे से बढ़कर इस जगत का दूसरा कोई भी महान कारण नहीं है।’ ‘सदसच्चाहमर्जुन’[4] ‘सत् और असत्- सब कुछ मैं ही हूँ।’ ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’[5] ‘मैं ही सबकी उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे से ही सब जगत चेष्टा करता है।’
संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास पंचदश अध्याय ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।’[1] ‘चर और अचर कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो मेरे से रहित हो अर्थात चराचर सब प्राणी मेरे ही स्वरूप है।’ इसी प्रकार इस पंद्रहवें अध्याय में भी अपनी विभूतियों के वर्णन का उपसंहार करते हुए भगवान कहते हैं- ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’[2] ‘मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थिति हूँ।’ तात्पर्य यह हुआ कि संपूर्ण प्राणी, पदार्थ परमात्मा की सत्ता से ही सत्तावान हो रहे हैं। परमात्मा से अलग किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। प्रकाश के अभाव (अंधकार) में कोई वस्तु दिखायी नहीं देती। आँखों से किसी वस्तु को देखने पर पहले प्रकाश दीखता है, उसके बाद वस्तु दीखती है अर्थात हरेक वस्तु प्रकाश के अंतर्गत ही दीखती है; किंतु हमारी दृष्टि प्रकाश पर न जाकर प्रकाशित होने वाली वस्तु पर जाती है। इसी प्रकार यावन्मात्र वस्तु, क्रिया, भाव आदि का ज्ञान एक विलक्षण और अलुप्त प्रकाश- ज्ञान के अंतर्गत होता है, जो सबका प्रकाशक और आधार है। प्रत्येक वस्तु से पहले ज्ञान (स्वयं प्रकाश परमात्मतत्त्व) रहता है। अतः संसार में परमात्म को व्याप्त कहने पर भी वस्तुतः संसार बाद में है और उसका अधिष्ठान परमात्मतत्त्व पहले है अर्थात पहले परमात्मतत्त्व दीखता है, बाद में संसार। परंतु संसार में राग होने के कारण मनुष्य की दृष्टि उसके प्रकाशक (परमात्मतत्त्व) पर नहीं जाती। परमात्मा की सत्ता के बिना संसार की कोई सत्ता नहीं है। परंतु परमात्मसत्ता की तरफ दृष्टि न रहने तथा सांसारिक प्राणी-पदार्थों में राग या सुखासक्ति रहने के कारण उन प्राणी-पदार्थों की पृथक् (स्वतंत्र) सत्ता प्रतीत होने लगती है और परमात्मा की वास्तविक सत्ता (जो तत्त्व से है) नहीं दीखती। यदि संसार में राग या सुखासक्ति का सर्वथा अभाव हो जाए, तो तत्त्व से एक परमात्मसत्ता ही दीखने या अनुभव में आने लगती है। अतः विभूतियों के वर्णन का तात्पर्य यही है कि किसी भी प्राणी-पदार्थ की तरफ दृष्टि जाने पर साधक को एकमात्र भगवान की स्मृति होनी चाहिए अर्थात उसे प्रत्येक प्राणी-पदार्थ में भगवान को ही देखना चाहिए।[3]
तब तक भगवान के प्रभाव को जानने की बड़ी आवश्यकता है। अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए भगवान ने (इस अध्याय के बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक) यह बताया कि मैं ही संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता हूँ; मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सब प्राणियों को धारण करता हूँ; मैं ही पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न करके उसको पुष्ट करता हूँ; जब मनुष्य उस अन्न को खाता है, तब मैं ही वैश्वानर-रूप से उस अन्न को पचाता हूँ और मनुष्य में स्मृति, ज्ञान और अपोहन भी मैं ही करता हूँ। इस वर्णन से सिद्ध होता है कि आदि से अंत तक, समष्टि से व्यष्टि तक की संपूर्ण क्रियाएँ भगवान के अंतर्गत, उन्हीं की शक्ति से हो रही हैं। मनुष्य अहंकारवश अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है अर्थात उन क्रियाओं को व्यक्तिगत मान लेता है और बँध जाता है। संबंध- भगवान ने इसी अध्याय के पहले श्लोक से पंद्रहवें श्लोक तक (तीन प्रकरणों में) क्रमशः संसार, जीवात्मा और परमात्मा का विस्तार से वर्णन किया। अब उस विषय का उपसंहार करते हुए आगे के दो श्लकों में उन तीनों का क्रमशः क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम नाम से स्पष्ट वर्णन करते हैं।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।। इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी)- ये दो प्रकार के पुरुष हैं। संपूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है। व्याख्या- ‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’- यहाँ ‘लोके’ पद को संपूर्ण संसार का वाचक समझना चाहिए। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में ‘जीवलोके’ पद भी इसी अर्थ में आया है। इस जगत में दो विभाग जानने में आते हैं- शरीरादि नाशवान पदार्थ (जड) और अविनाशी जीवात्मा (चेतन)। जैसे, विचार करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक तो प्रत्यक्ष दीखने वाला शरीर है और एक उसमें रहने वाला जीवात्मा है। जीवात्मा के रहने से ही प्राण कार्य करते हैं और शरीर का संचालन होता है। जीवात्मा के साथ प्राणों के निकलते ही शरीर का संचालन बंद हो जाता है और शरीर सड़ने लगता है। लोग उस शरीर को जला देते हैं। कारण कि महत्त्व नाशवान शरीर का नहीं, प्रत्युत उसमें रहने वाला अविनाशी जीवात्मा का है। पञ्चमहाभूतों- (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से बने हुए शरीरादि जितने पदार्थ हैं, वे सभी जड और नाशवान हैं। प्राणियों के (प्रत्यक्ष देखने में आने वाले) स्थूल शरीर स्थूल समष्टि-जगत के साथ एक हैं; दस इंद्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि- इन सत्रह तत्त्वों से युक्त सूक्ष्मशरीर सूक्ष्म समष्टि- जगत के साथ एक हैं और कारण-शरीर (स्वभाव, कर्मसंस्कार, अज्ञान) कारण समष्टि-जगत्- (मूल प्रकृति) के साथ एक हैं। ये सब क्षरणशील (नाशवान) होने के कारण ‘क्षर’ नाम से कहे गये हैं। वास्तव में ‘व्यष्टि’ नाम से कोई वस्तु है ही नहीं; केवल समष्टि-संसार के थोड़े अंश की वस्तु को अपनी मानने के कारण उसको व्यष्टि कह देते हैं। संसार के साथ शरीर आदि वस्तुओं की भिन्नता केवल (राग-ममता आदि के कारण) मानी हुई है, वास्तव में है नहीं। मात्र पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृति की ही है।[1] इसलिए स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर की समस्त क्रियाएँ क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण समष्टि-संसार के हित के लिए ही करनी हैं, अपने लिए नहीं।
जिस तत्त्व का कभी विनाश नहीं होता और जो सदा निर्विकार रहता है, उस जीवात्मा का वाचक यहाँ ‘अक्षरः’ पद है।[1] प्रकृति जड है और जीवात्मा (चेतन परमात्मा का अंश होने से) चेतन है। प्रकृति जड है और जीवात्मा (चेतन परमात्मा का अंश होने से) चेतन है। इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने जिसका छेदन करने के लिए कहा था, उस संसार को यहाँ ‘क्षरः’ पद से और सातवें श्लोक में भगवान ने जिसको अपना अंश बताया था, उस जीवात्मा को यहाँ ‘अक्षरः’ पद से कहा गया है। यहाँ आये क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम शब्द क्रमशः पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग हैं। इससे यह समझना चाहिए कि प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा न तो स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं। वास्तव में लिंग भी शब्द की दृष्टि से है, तत्त्व से कोई लिंग नहीं है।[2] क्षर और अक्षर- दोनों से उत्तम ‘पुरुषोत्तम’ नाम की सिद्धि के लिए यहाँ भगवान ने क्षर और अक्षर- दोनों को ‘पुरुष’ नाम से कहा जाता है। ‘क्षरः सर्वाणि भूतानि’- इसी अध्याय के आरंभ में जिस संसारवृक्ष का स्वरूप बताकर उसका छेदन करने की प्रेरणा की गयी थी, उसी संसारवृक्ष को यहाँ ‘क्षर’ नाम से कहा गया है। यहाँ ‘भूतानि’ पद प्राणियों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरों का ही वाचक समझना चाहिए। कारण कि यहाँ भूतों को नाशवान बताया गया है। प्राणियों के शरीर ही नाशवान होते हैं, प्राणी स्वयं नहीं। अतः यहाँ ‘भूतानि’ पद जड शरीरों के लिए ही आया है। ‘कूटस्थोऽक्षर उच्यते’- इसी अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान ने जिसको अपना सनातन अंश बताया है, उसी जीवात्मा को यहाँ ‘अक्षर’ नाम से कहा गया है। जीवात्मा चाहे जितने शरीर धारण करे, चाहे जितने लोकों में जाए, उसमें कभी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता; वह सदा ज्यों-का-त्यों रहता है।[3] इसीलिए यहाँ उसको ‘कूटस्थ’ कहा गया है। गीता में परमात्मा और जीवात्मा दोनों के स्वरूप का वर्णन प्रायः समान ही मिलता है। जैसे परमात्मा को[4] ‘कूटस्थ’ तथा[5] ‘अक्षर’ कहा गया है, ऐसे ही यहाँ[6] जीवात्मा को भी ‘कूटस्थ’ और ‘अक्षर’ कहा गया है। जीवात्मा और परमात्मा- दोनों में ही परस्पर तात्त्विक एवं स्वरूपगत एकता है। स्वरूप से जीवात्मा सदा-सर्वदा निर्विकार ही है; परंतु भूल से प्रकृति और उसके कार्य शरीरादि से अपनी एकता मान लेने के कारण उसकी ‘जीव’ संज्ञा हो जाती है, नहीं तो (अद्वैत सिद्धांत के अनुसार) वह साक्षात परमात्मतत्त्व ही है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।17।। अर्थ- उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो परमात्मा नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है। व्याख्या- ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’- पूर्वश्लोक में क्षर और अक्षर दो प्रकार के पुरुषों का वर्णन करने के बाद अब भगवान यह बताते हैं कि उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही हैं।[1] यहाँ ‘अन्य:’ पद परमात्मा अविनाशी अक्षर (जीवात्मा) से भिन्न बताने के लिए नहीं, प्रत्युत उससे विलक्षण बताने के लिए लिए आया है। इसीलिए भगवान ने आगे अठारहवें श्लोक में अपने को नाशवान क्षर से ‘अतीत’ और अविनाशी अक्षर से ‘उत्तम’ बताया है। परमात्मा का अंश होते हुए भी जीवात्मा की दृष्टि या खिंचाव नाशवान क्षर की ओर हो रहा है। इसीलिए यहाँ भगवान को उससे विलक्षण बताया गया है। ‘परमात्मेत्युदाहृतः’- उस उत्तम पुरुष को ही ‘परमात्मा’ नाम से कहा जाता है। ‘परमात्मा’ शब्द निर्गुण का वाचक माना जाता है, जिसका अर्थ है- परम (श्रेष्ठ) आत्मा अथवा संपूर्ण जीवों की आत्मा। इस श्लोक में ‘परमात्मा’ और ‘ईश्वर’- दोनों शब्द आए हैं, जिसका तात्पर्य है कि निर्गुण और सगुण सब एक पुरुषोत्तम ही है। ‘यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः’- वह उत्तम पुरुष (परमात्मा) तीनों लोकों में अर्थात सर्वत्र समानरूप से नित्य व्याप्त है। यहाँ ‘बिभर्ति’ पद का तात्पर्य यह है कि वास्तव में परमात्मा ही संपूर्ण प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं, पर जीवात्मा संसार से अपना संबंध मान लेने के कारण भूल से सांसारिक व्यक्तियों आदि को अपना मानकर उनके भरण-पोषणादि का भार अपने ऊपर ले लेता है। इससे वह व्यर्थ ही दुःख पाता रहता है।[2] भगवान को ‘अव्ययः’ कहने का तात्पर्य है कि संपूर्ण लोकों का भरण-पोषण करते रहने पर भी भगवान का कोई व्यय (खर्चा) नहीं होता अर्थात उनमें किसी तरह की किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती। वे सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं। ‘ईश्वरः’ शब्द सगुण का वाचक माना जाता है, जिसका अर्थ है- शासन करने वाला।
यद्यपि माता-पिता बालक का पालन पोषण किया करते हैं, तथापि बालक को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मेरा पालन-पोषण कौन करता है, कैसे करता है और किसलिए करता है? इसी तरह यद्यपि भगवान मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं, तथापि अज्ञानी मनुष्य को (भगवान पर दृष्टि न रहने से) इस बात का पता ही नहीं लगता कि मेरा पालन-पोषण कौन करता है। भगवान का शरणागत् भक्त ही इस बात को ठीक तरह से जानता है कि एक भगवान ही सबका सम्यक प्रकार से पालन-पोषण कर रहे हैं। पालन-पोषण करने में भगवान किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सभी का समान रूप से पालन-पोषण करते हैं।[1] प्रत्यक्ष देखने में आता है कि भगवान द्वारा रचित दृष्टि में सूर्य सबको समानरूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सबको समान रूप से धारण करती है, वैश्वानर-अग्नि सबके अन्न को समान रूप से पचाती है, वायु सबको (श्वास लेने के लिए) समान रूप से प्राप्त होती है, अन्न-जल सबको समानरूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि। संबंध- पूर्वश्लोक में वर्णित उत्तम पुरुष के साथ अपनी एकता बताकर अब साकार रूप से प्रकट भगवान श्रीकृष्ण अपना अत्यंत गोपनीय रहस्य प्रकट करते हैं।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।18।। अर्थ- मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ। व्याख्या- ‘यस्मात्क्षरमतीतोऽहम्’- इन पदों में भगवान का यह भाव है कि क्षर (प्रकृति) प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मैं नित्य-निरंतर निर्विकार रूप से ज्यों-का-त्यों रहने वाला हूँ। इसलिए मैं क्षर से सर्वथा अतीत हूँ। शरीर से पर (व्यापक, श्रेष्ठ, प्रकाशक, सबल, सूक्ष्म) इंद्रियाँ हैं, इंद्रियों से पर मन है और मन से पर बुद्धि है।[1] इस प्रकार एक दूसरे से पर होते हुए भी शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि एक ही जाति के, जड हैं। परंतु परमात्मतत्त्व इनसे भी अत्यंत पर है; क्योंकि वह जड नहीं है, प्रत्युत चेतन है। ‘अक्षरादपि चोत्तमः’- यद्यपि परमात्मा का अंश होने के कारण जीवात्मा (अक्षर) की परमात्मा से तात्त्विक एकता है, तथापि यहाँ भगवान अपने को जीवात्मा से भी उत्तम बताते हैं। इसके कारण ये हैं- (1) परमात्मा का अंश होने पर भी जीवातामा क्षर (जड प्रकृति) के साथ अपना संबंध मान लेता है[2] और प्रकृति के गुणों से मोहित हो जाता है, जबकि परमात्मा (प्रकृति से अतीत होने के कारण) कभी मोहित नहीं होते।[3] (2) परमात्मा प्रकृति को अपने अधीन करके लोक में आते, अवतार लेते हैं[4], जबकि जीवात्मा प्रकृति के वश में होकर लोक में आता है।[5] (3) परमात्मा सदैव निर्लिप्त रहते हैं,[6] जबकि जीवात्मा को निर्लिप्त होने के लिए साधन करना पड़ता है।[7] भगवान द्वारा अपने को क्षर से ‘अतीत’ और अक्षर से ‘उत्तम’ बताने से यह भाव भी प्रकट होता है कि क्षर और अक्षर- दोनों में भिन्नता है। यदि उन दोनों में भिन्नता न होती, तो भगवान अपने को या तो उन दोनों से ही अतीत बताते या दोनों से ही उत्तम बताते। अतः यह सिद्ध होता है कि जैसे भगवान क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम हैं, ऐसे ही अक्षर भी क्षर से अतीत और उत्तम है।
‘अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः’- यहाँ ‘लोके’ पद का अर्थ है- पुराण, स्मृति आदि शास्त्र। शास्त्रों में भगवान ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हैं। शुद्ध ज्ञान का नाम ‘वेद’ है, जो अनादि है। वही ज्ञान आनुपूर्वीरूप से ऋक्, यजुः आदि वेदों के रूप से प्रकट हुआ है। वेदों में भगवान ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा था कि क्षर और अक्षर- दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है। वह उत्तम पुरुष कौन है- इसको बताते हुए भगवान यह रहस्य प्रकट करते हैं कि वह उत्तम पुरुष- ‘पुरुषोत्तम’ मैं ही हूँ। विशेष बात (1) भौतिक सृष्टि मात्र ‘क्षर’ (नाशवान) है और परमात्मा का सनातन अंश जीवात्मा ‘अक्षर’ (अविनाशी) है। क्षर से अतीत और उत्तम होने पर भी अक्षर ने क्षर से अपना संबंध मान लिया- इससे बढ़कर और कोई दोष, भूल या गलती है ही नहीं। क्षर के साथ यह संबंध केवल माना हुआ है, वास्तव में एक क्षण भी रहने वाला नहीं है। जैसे बाल्यावस्था से अब तक शरीर बिलकुल बदल गया, फिर भी हम कहते हैं कि ‘मैं वही हूँ।’ यह भी हम नहीं बता सकते कि अमुक दिन बाल्यावस्था खत्म हुई और युवावस्था शुरू हुई। कारण कि नदी के प्रवाह की तरह शरीर निरंतर ही बहता रहता है, जबकि अक्षर (जीवात्मा) नदी में स्थित शिला- (चट्टान) की तरह सदा अचल और असंग रहता है। यदि अक्षर भी क्षर की तरह निरंतर परिवर्तनशील और नाशवान होता तो इसकी आफत मिट जाती। परंतु स्वयं (अक्षर) अपरिवर्तनशील और अविनाशी होते हुए भी निरंतर परिवर्तनशील और नाशवान क्षर को पकड़ लेता है- उसको अपना मान लेता है। होता यह है कि अक्षर क्षर को छोड़ता नहीं और क्षर एक क्षण भी ठहरता नहीं। इस आफत को मिटाने का सुगम उपाय है- क्षर (शरीरादि) को क्षर (संसार) की ही सेवा में लगा दिया जाए- उसको संसार-रूपी वाटिका की खाद बना दी जाए। मनुष्य को शरीरादि नाशवान पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना मानने के लिए नहीं मिले हैं, प्रत्युत सेवा करने के लिए ही मिले हैं। इन पदार्थों के द्वारा दूसरों की सेवा करने की ही मनुष्य पर जिम्मेवारी है, अपना मानने की बिलकुल जिम्मेवारी नहीं।
2) पंद्रहवें अध्याय में भगवान ने पहले क्षर- संसार-वृक्ष का वर्णन किया। फिर उसका छेदन करके परमपुरुष परमात्मा के शरण होने अर्थात संसार से अपनापन हटाकर एकमात्र परमात्मा को अपना मानने की प्रेरणा की। फिर अक्षर-जीवात्मा को अपना सनातन अंश बताते हुए उसके स्वरूप का वर्णन किया। उसके बाद भगवान ने (बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक) अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए बताया कि सूर्य, चन्द्र और अग्नि में मेरा ही तेज है; मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से चराचर सब प्राणियों को धारण करता हूँ; मैं ही अमृतमय चंद्र के रूप से संपूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ; वैश्वार अग्नि के रूप में मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित होकर उनके द्वारा खाये हुए अन्न को पचाता हूँ; मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से विद्यमान हूँ; मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (भ्रम, संशय आदि दोषों का नाश) होता है; वेदादि सब शास्त्रों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ; और वेदों के अंतिम सिद्धांत का निर्णय करने वाला तथा वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ। इस प्रकार अपना प्रभाव करने के बाद इस श्लोक में भगवान यह गुह्यतम रहस्य प्रकट करते हैं कि जिसका यह सब प्रभाव है, वह (क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम) ‘पुरुषोत्तम’ मैं (साक्षात साकाररूप से प्रकट श्रीकृष्ण) ही हूँ। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर बहुत विशेष कृपा करके ही अपने रहस्य की बात अपने मुख से प्रकट की है; जैसे- कोई पिता अपने पुत्र के सामने अपनी गुप्त संपत्ति प्रकट कर दे अथवा कोई आदमी किसी भूले-भटके मनुष्य को अपना परिचय दे दे कि जिसके लिए तू भटक रहा है, वह मैं ही हूँ और तेरे सामने बैठा हूँ! संबंध- चौदहवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में भगवान ने जिस अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही थी और जिसको प्राप्त कराने के लिए इस पंद्रहवें अध्याय में संसार, जीव और परमात्मा का विस्तृत विवेचन किया गया, उसका अब आगे के श्लोक में उपसंहार करते हैं।
भगवान को जानने वाला व्यक्ति कितना ही कम पढ़ा-लिखा क्यों न हो, वह सब कुछ जानने वाला है; क्योंकि उस न जानने योग्य तत्त्व को जान लिया। उसको और कुछ भी जानना शेष नहीं है। जो मनुष्य भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जान लेता है, उस ‘सर्ववित्’ मनुष्य की पहचान यह है कि वह सब प्रकार से स्वतः भगवान का ही भजन करता है। जब मनुष्य भगवान को ‘क्षर से अतीत’ जान लेता है, तब उसका मन (राग) क्षर (संसार) से हटकर भगवान में लग जाता है और जब वह भगवान को ‘अक्षर से उत्तम’ जान लेता है, तब उसकी बुद्धि (श्रद्धा) भगवान में लग जाती है।[1] फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान का भजन होता है। इस प्रकार प्रकार से भगवान का भजन करना ही ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’ है। शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सांसारिक पदार्थों से जब तक मनुष्य रागपूर्वक अपना संबंध मानता है, तब तक वह सब प्रकार से भगवान का भजन नहीं कर सकता। कारण कि जहाँ राग होता है, वृत्ति स्वतः वहीं जाती है। ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान ही मेरे हैं’- इस वास्तविकता को दृढ़तापूर्वक मान लेने से स्वतः सब प्रकार से भगवान का भजन होता है। फिर भक्त की मात्र क्रियाएँ (सोना, जागना, बोलना, चलना, खाना-पीना आदि) भगवान की प्रसन्नता के लिए ही होती है, अपने लिए नहीं। ज्ञानमार्ग में ‘जानना’ और भक्तिमार्ग में ‘मानना’ मुख्य होता है। जिस बात में किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो, उसे दृढ़तापूर्वक ‘मानना’ ही भक्तिमार्ग में ‘जानना’ है। भगवान को सर्वोपरि मान लेने के बाद भक्त सब प्रकार से भगवान का ही भजन करता है।[2] भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ (सर्वोपरि) मानने से भी मनुष्य ‘सर्ववित्’ हो जाता है, फिर सब प्रकार से भगवान का भजन करते हुए भगवान को ‘पुरुषोत्तम’ जान जाय- इसमें तो कहना ही क्या है! संबंध- ‘अरुन्धती-दर्शन-न्याय’- (स्थूल से क्रमशः सूक्ष्म की ओर जाने) के अनुसार भगवान ने इस अध्याय में पहले ‘क्षर’ और फिर ‘अक्षर’ का विवेचन करने के बाद अंत में ‘पुरुषोत्तम’ का वर्णन किया- अपने पुरुषोत्तमत्व को सिद्ध किया। ऐसा वर्णन करने का तात्पर्य और प्रयोजन क्या है- इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।।20।। अर्थ- हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अत्यंत गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरतवंशी अर्जुन! इसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान (तथा प्राप्त-प्राप्तव्य) और कृतकृत्य हो जाता है। व्याख्या- ‘अनघ’- अर्जुन को निष्पाप इसलिए कहा गया है कि वे दोष-दृष्टि-(असूया) से रहित थे। दोष-दृष्टि करना पाप है। इससे अंतःकरण अशुद्ध होता है। जो दोष-दृष्टि से रहित होता है, वही भक्ति का पात्र होता है। गोपनीय बात दोष-दृष्टि से रहित मनुष्य के सामने ही कही जाती है।[1] यदि दोष-दृष्टि वाले मनुष्य के सामने गोपनीय बात कह दी जाए, तो उस मनुष्य पर उस बात का उल्टा असर पड़ता है अर्थात वह उस गोपनीय बात का उल्टा अर्थ लगाकर वक्ता में भी दोष देखने लगता है कि यह आत्मश्लाघी है; दूसरों को मोहित करने के लिए कहता है इत्यादि। इससे दोष-दृष्टि वाले मनुष्य की बहुत हानि होती है। दोष-दृष्टि होने में खास कारण है- अभिमान। मनुष्य में जिस बात का अभिमान हो, उस बात की उसमें कमी होती है। उस कमी को वह दूसरों में देखने लगता है। अपने में अच्छाई का अभिमान होने से दूसरों में बुराई दीखती है; और दूसरों में बुराई देखने से ही अपने में अच्छाई का अभिमान आता है। यदि दोष-दृष्टि वाले मनुष्य के सामने भगवान अपने को सर्वोपरि ‘पुरुषोत्तम’ कहें, तो उसको विश्वास नहीं होगा, उल्टा वह यह सोचेगा कि भगवान आत्मश्लाघी (अपने मुँह अपने बड़ाई करने वाले) हैं- ‘निज अग्यान राम पर धरहीं।’[2] भगवान के प्रति दोष-दृष्टि होने से उसकी बहुत हानि होती है। इसलिए भगवान् और संतजन दोष-दृष्टि वाले अश्रद्धालु मनुष्य के सामने गोपनीय बातें प्रकट नहीं करते।[3] वास्तव में देखा जाए तो दोष-दृष्टि वाले निकलती ही नहीं! अर्जुन के लिए ‘अनघ’ संबोधन देने में यह भाव भी हो सकता है कि इस अध्याय में भगवान ने जो परमगोपनीय प्रभाव बताया है, वह अर्जुन- जैसे दोष-दृष्टि से रहित सरल पुरुष के सम्मुख ही प्रकट किया जा सकता है।
‘इति गुह्यतमं शास्त्रमिदम्’- चौदहवें अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कहने के बाद भगवान ने पंद्रहवें अध्याय के पहले श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक जिस (क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम के) विषय का वर्णन किया है, उस विषय की पूर्णता और लक्ष्य का निर्देश यहाँ ‘इति इदम्’ पदों से किया गया है। इस अध्याय में पहले भगवान ने क्षर (संसार) और अक्षर (जीवात्मा) का वर्णन करके अपना अप्रतिम प्रभाव (बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक) प्रकट किया। फिर भगवान ने यह गोपनीय बात प्रकट की कि जिसका यह सब प्रभाव है, वह (क्षर से अतीत और अक्षर से उत्तम) ‘पुरुषोत्तम’ मैं ही हँ। नाटक में स्वाँग धारण किए हुए मनुष्य की तरह भगवान इस पृथ्वी पर मनुष्य का स्वाँग धारण करके अवतरित होते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं कि अज्ञानी मनुष्य उनको नहीं जान पाते।[1] स्वांग में अपना वास्तविक परिचय नहीं दिया जाता, गुप्त रखा जाता है। परंतु भगवान ने इस अध्याय में (अठारहवें श्लोक में) अपना वास्तविक परिचय देकर अत्यंत गोपनीय बात प्रकट कर दी कि मैं ही पुरुषोत्तम हूँ। इसलिए इस ध्याय को ‘गुह्यतम’ कहा गया है। ‘शास्त्र’ में प्रायः संसार, जीवात्मा और परमात्मा का वर्णन आता है। इन तीनों का ही वर्णन पंद्रहवें अध्याय में हुआ है, इसलिए इस अध्याय को ‘शास्त्र’ भी कहा गया है। सर्वशास्त्रमयी गीता में केवल इसी अध्याय को ‘शास्त्र’ की उपाधि मिली है। इसमें ‘पुरुषोत्तम’ का वर्णन मुख्य होने के कारण इस अध्याय को ‘गुह्यतम शास्त्र’ कहा गया है। इस गुह्यतम शास्त्र में भगवान ने अपनी प्राप्ति के छः उपायों का वर्णन किया है- संसार को तत्त्व से जानना।[2] संसार से माने हुए संबंध का विच्छेद करके एक भगवान के शरण होना।[3] अपने में स्थित परमात्मतत्त्व को जानना।[4] वेदाध्ययन के द्वारा तत्त्व को जानना।[5] भगवान को पुरुषोत्तम जानकर सब प्रकार से उनका भजन करना।[6] संपूर्ण अध्याय के तत्त्व को जानना।[7] जिस अध्याय में भगवत्प्राप्ति के ऐसे सुगम उपाय बताये गये हों, उसको ‘शास्त्र’ कहना उचित ही है।
मया उक्तम्’- इन पदों से भगवान यह कहते हैं कि संपूर्ण भौतिक जगत् का प्रकाशक और अधिष्ठान, समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित, वेदों के द्वारा जानने योग्य एवं क्षर और अक्षर दोनों से उत्तम साक्षात मुझ पुरुषोत्तम के द्वारा ही यह गुह्यतम शास्त्र अत्यंत कृपापूर्वक कहा गया है। अपने विषय में जैसा मैं कह सकता हूँ, वैसा कोई नहीं कह सकता। कारण कि दूसरा पहले (मेरी ही कृपाशक्ति से) मेरे को जानेगा[1], फिर वह मेरे विषय में कुछ कहेगा, जबकि मेरे में अनजानपना है ही नहीं। वास्तव में स्वयं भगवान के अतिरिक्त दूसरा कोई भी उनको पूर्णरूप से नहीं जान सकता।[2] छठे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में अर्जुन ने भगवान से कहा था कि आपके सिवाय दूसरा कोई भी मेरे संशय का छेदन नहीं कर सकता। यहाँ भगवान मानो यह कह रहे हैं कि मेरे द्वारा कहे हुए विषय में किसी प्रकार का संशय रहने की संभावना ही नहीं है। ‘एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत’- पूरे अध्याय में भगवान ने जो संसार की वास्तविकता, जीवात्मा के स्वरूप और अपने अप्रतिम प्रभाव एवं गोपनीयता का वर्णन किया है, उसका (विशेष रूप से उन्नीसवें श्लोक का) निर्देश यहाँ ‘एतत्’ पद से किया गया है। इस गुह्यतम शास्त्र को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह ज्ञानवान अर्थात ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है। उसके लिए कुछ भी जानना शेष नहीं रहता; क्योंकि उसने जानने योग्य पुरुषोत्तम को जान लिया। परमात्मातत्त्व को जानने से मनुष्य को मूढ़ता नष्ट हो जाती है। परमात्मतत्त्व को जाने बिना लौकिक संपूर्ण विद्याएँ, भाषाएँ, कलाएँ आदि क्यों न जान ली जाएँ, उनसे मूढ़ता नहीं मिटती; क्योंकि लौकिक सब विद्याएं आरंभ और समाप्त होने वाली तथा अपूर्ण हैं। जितनी लौकिक विद्याएँ हैं, सब परमात्मा से ही प्रकट होने वाली हैं; अतः वे परमात्मा को कैसे प्रकाशित कर सकती है? इन सब लौकिक विद्याओं से अनजान होते हुए भी जिसने परमात्मा को जान लिया है, वही वास्तव में ज्ञानवान है। उन्नीसवें श्लोक में सब प्रकार से भजन करने वाले जिस मोहरहित भक्त को ‘सर्ववित्’ कहा गया है, उसी को यहाँ ‘बुद्धिमान्’ नाम से कहा गया है। यहाँ ‘च’ पद से पूर्वश्लोक में आयी बात के फल (प्राप्त-प्राप्तव्यता) का अनुकर्षण है। पूर्वश्लोक में सर्वभाव से भगवान का भजन करने अर्थात अव्यभिचारिणी भक्ति की बात विशेष रूप से आयी है। भक्ति के समान कोई लाभ नहीं है- ‘लाभु कि किछु हरि भगति समाना’। अतः जिसने भक्ति को प्राप्त कर लिया, वह प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है अर्थात उसके लिए कुछ भी पाना शेष नहीं रहता।