आत्मा - परमात्मा

 



चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

कभी कभी हमें यह लगने लगता है कि मानव ही  केवल विशेष चेतना का धनी है और सिर्फ मानव को ही आत्मा, जीवात्मा और परमात्मा के अस्तित्व विषयक सम्यक ज्ञान हो चूका ; बाकी सभी जीव सिर्फ ईश्वर अनुकम्पा के ही अधिकारी हैं और उन्हें आत्मा- अनात्मा विषयक विवेक या चैतन्य विकसित होने की जरूरत ही नहीं है।

आत्मा के बारे में और इसके गुण धर्म के बारे में भारतीय दर्शन शास्त्र में काफी विस्तार से चर्चा का संदर्भ मिल जाया करेगा; उस सन्दर्भ के आलोक में हम यह भी माँ सकेंगे कि यह तीन गुणों से परे जीव का सत्ताधारी केन्द्रक स्वरुप है और अहम् के जरिये मन और चेतन तत्व का नियामक भी है |  आत्मा को शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती।[1] जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है। गीता में कहा गया: जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिये और न ही मृत प्राणी के लिये शोक करते।[2] इस कथन से यह आशय है कि हम उन लोगों के मारे जाने को लेकर शोक  ही क्यों करें; ख़ास कर उनके लिए जिनका विवेक ही कर्तव्य शून्य हो गया है और जिन्होंने कर्तव्य पालन न करने कि स्थिति में अपनी भूमिका को धूमिल कर चुके ! पंडित जन कभी किसी भी परिस्थिति में प्राण के वियोग विषयक घटना को लेकर भी शोक नहीं किया करते; उन्हें इस बात का भी ध्यान रहता है कि आत्मा सदैव ही अविनश्वर होने के साथ साथ त्रिगुणातीत भी है और कभी भी विनष्ट नहीं हो सकता; न ही उस आत्मा को कभी  भी बड़े चेतन सत्ता से अलग किया का सकेगा | वह तो हमारे इन्द्रिय क्रिया की सीमा का नतीजा ही माना जा सकेगा जिसके कारण हम कभी भी सम्प्पूर्ण विषयों को प्रतिभासित होता हुआ प्रत्यक्ष नहीं कर सकते ; न ही उस विषय से पूरी तरह खुद के मन और चित्त को अलग ही कर सकते |

कुछ हद तक इन्द्रिय उत्पीड़न का ही नतीजा है जिसके कारण हमारा मन विविध विषयों में रमता रहता है | जैसे बादल सूर्य के प्रकाश को रोक देता है और प्रकाश के रुक जाने से अंधकार छा जाता है उसी प्रकार मन भी आत्मा के विस्तृत पटल को ढक देता है और जीव को यह अनुभव भी करने नहीं देता कि प्रत्यक्ष रूप से हर क्रिया का नियामक वस्तुतः आत्मा ही है | कभी कभी यह भी कहा जाता कि आत्मा भले ही क्रिया का नियामक हो पर उसके होने या न होने को लेकर हमारा भ्रम तब तक बना रहता जब तक मन और चित्त सक्रिय रूप से खुद को कर्ता समझते हुए विविध विषयों में घूमता रहे | अगर किसी को गांव से नगर जाना हो और जाने के अगर कई मार्ग हों तो हम अक्सर किसी जानकार व्यक्ति से मार्ग पूछकर चल आते हैं और बताये हुए मार्ग पर बने रहते हैं | पर अगर मन में शंका बनाये रखते हुए किसी और व्यक्ति से पूछकर दूसरा मार्ग, फिर कुछ देर बाद तीसरा मार्ग .. अगर यही करते रहें तो शायद ही हम उस पड़ाव तक पहुँच पाएं और शायद ही हमें सफलता मिल पाए | यह शंकित मन का ही नतीजा माना जा सकेगा जो व्यक्ति को मार्ग से भटका देता है  और समस्याओं का भी जन्म देता है | वैसा शंकित और भ्रमित मन शायद ही आत्मा के अस्तित्व को सही तरीके से स्वीकार कर सके |

 

परमात्मा का स्वरुप

परमात्मा का अर्थ परम आत्मा से है; परम का अर्थ होता है सबसे श्रेष्ठ यानी सबसे श्रेष्ठ आत्मा | आत्मा का अर्थ होता है हर प्राणी के अंदर विराजमान चेतना के रूप में एक चेतन स्वरूप | यह उस सर्वोच्च सत्ता का उद्भाषक है जिसके प्रभाव से और जिसके संक्षिप्त अंश का आधार लेकर जीव और जड़ का भरा पूरा संसार प्रतिभासित होने लग जाता है और अस्तित्व में बना रहता है; शास्त्र में कहीं कहीं पर उस परम सत्ता को ईश्वर माना गया; कहीं उस सत्ता को ब्रह्म स्वरुप कहा गया | यज्ञ संस्कृति के जरिये ब्रह्म के एकरूपता के बारे में [3] कहा गया:  जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें दिया जानेवाला आहुति  भी ब्रह्म है, ऐसे यज्ञको करनेवाले व्यक्ति (साधक) की ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो जाया करेगी, उसके द्वारा यज्ञ से उत्पन्न होनेवाला फल भी ब्रह्म ही होना चाहिए | ब्रह्म के इस सर्व व्यापी स्वरुप से ही हमें इस बात का सम्यक ज्ञान हो जाना चाहिए कि ब्रह्म ही परम सत्ता या ईश्वर को प्रतिभासित करनेवाला एक सर्व शक्तिमान सत्ता है | परम सत्ता को अनुभव करने के लिए सबसे पहले मन पर और उस मन के जरिये नियंत्रित होनेवाले  इन्द्रिय समूह को नियंत्रण में रखते हुए विधायक कर्म में लगे रहना होगा और खुद को किसी भी गतिविधि का कर्ता न मानते हुए उस सर्व शक्तिमान परम को ही विधायक तत्व मान लेना होगा | ऐसा मान लेने के लिए अहम् को भी सात्विकता से पुष्ट होना होगा | अहम् तभी सात्विक हो सकेगा जब हम उसे ईश्वर अनुराग में निविष्ट कर सकेंगे |  भक्त के मन में इस बात को लेकर भी शंका उत्पन्न होता रहेगा जिसके आधार पर यह पुछा जाता है कि ईश्वर अनुकम्पा पाने का अधिकारी शायद सिर्फ ज्ञानी और परम योगी व्यक्ति ही होंगे, न कि कोई अल्पज्ञानी भक्त | पर हकीकत में तत्व ज्ञान से अनभिज्ञ शुद्ध भक्त अगर अपने चंचल मन पर नियंत्रण पाते हुए उसे ईश्वर अनुराग में पूरी तरह लगा चूका हो उसे तो परम सत्ता के सर्वव्यापी होने का विज्ञान स्वतः ही समझ में आ जाएगा |  जो मनुष्य केवल परमात्मामें लीन होते हुए सुख का अनुभव कर पता है और केवल परमात्मामें रमण करनेवाला साधक स्वरुप है तथा जो केवल परमात्मामें ही  ज्ञान को निविष्ट करनेवाला है, वह ब्रह्ममें अपनी स्थिति का सही तरीके से अनुभव करनेवाला सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्म की उपस्थिति को भी अनुभव कर पाता है।[4]

गुरु की भूमिका

            जब तक लघु का अस्तित्व है तब तक व्यक्ति जीवन में गुरु चाहिए ; अगर बादल रुपी शंका को भ्रम का निरसन हो जाए तो निर्मल आकाश रुपी आत्मा भी प्रतिभासित होने लगेगा और अनंत आकाश रुपी परम सत्ता के साथ एकरूप भी हो जाया करेगा | उस परिस्थिति में गुरु- लघु भेद भी समाप्त हो जाएगा | शंका बनी रहने कि स्थिति में चंचल मन को एक निर्दिष्ट मार्ग पर निरंतरता के साथ लगाकर रखने के लिए भी गुरु चाहिए; विषय की गंभीरता समझने के लिए; उस विषय को सही तरीके से आत्मसात करने के लिए; सम्यक ज्ञान के आधार पर उत्तम चरित्र निर्माण करने के जरिये; चरित्र बल के जरिये विधायक कर्म में लगे रहने के जरिये और निरंतर उपासना के आधार पर निरंतर परिपक्वता पाने के जरिये एक साधक दिव्य ज्ञानी, कुशल कर्मी, परम भक्त आदि बनते हुए ब्रह्म के सान्निध्य को अनुभव कर सकेगा | यह तो पाए हुए तत्व कि प्राप्ति ही  माना जा सकेगा |  लंका दहन के समय सम्यक  ज्ञान और परम भक्ति के धनी श्री हनुमान अपने सभी कारनामों के लिए अपने प्रभु श्री राम के प्रताप को ही कारण स्वरुप बताया और कृतियों का श्रेय श्री रघुनाथ के चरणों में अर्पित कर दिए |[5] संकल्प ही वह क्रिया जिसके कारण मन विविध विषयों में भटकता रहेगा और साधक को ब्रह्मज्ञान पाने से वंचित कर देगा | संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रिय-समूह को सभी ओरसे हटाकर; इन्द्रिय उत्पीड़न से खुद को अलग करके धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा संसार से और इन्द्रिय जन्य भ्रामक विषयों से धीरे-धीरे अनीहा दिखाते रहे और परमात्मस्वरूपमें मन-(बुद्धि-) को सम्यक् प्रकारसे लगाकर  कुछ  भी भ्रामक विषयों का चिंतन न करे । सभी  प्रकार वृत्ति नष्ट हो जाने के बाद और रजोगुण शांत हो जाने के बाद साधक को ब्रह्म स्वरुप का सम्यक ज्ञान सरलता पूर्वक ही हो जाया करेगा  और उत्तम सुख की अनुभूति भी हो सकेगी |[6]

यही वह पड़ाव है जहाँ साधक को समदर्शी के रूप में देखा जा सकेगा | योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब जीव  में और जीव मात्र  को आत्मा में देख सकेगा ; इस समदर्शी के लिए फिर जगत के सभी अंश में ब्रह्म और परम सत्ता के अंश को विविध रूप से प्रतिभासित होता हुआ देख सकेगा | [7] अगर व्यक्ति ब्रह्म के सर्वव्यापी स्वरुप को अनुभव करने लग जाए तब उसके लिए ईश्वर भी दृष्टिगोचर होने लग जाते हैं और वैसा सम्यक दर्शन का धनी भी ईश्वर अनुकम्पा का पात्र बन जाता है; यह तो शंका ही है जिसके कारण हम मृण्मयी स्वरुप में चिन्मयी सत्ता को नहीं देख पाते ;  मिटटी से बने संरचना और विग्रह में सिर्फ मिटटी, और पत्थर में बने मूर्ति में सिर्फ पत्थर देखने लग जाते हैं; अपने प्रियजन के किसी चित्र को बहुत ही जतन से  रखा करते हैं और किसी अजनबी के चित्र, या फिर किसी ऐसे व्यक्ति का चित्र जिसपर हमारी श्रद्धा न बनती हो, उसको फेंक भी देते हैं | यह उस दृष्टि का ही फल माना जा सकेगा जिसमें सम्यकत्व और व्यापकत्व न आया हो; हम अक्सर उस सम्यकत्व और व्याकत्व को पाने के लिए भी श्री गुरु की शरणागति लिया करेंगे | हमें यह भी यकीन नहीं होता कि कोई मृण्मयी मूर्ति में चिन्मयी का दर्शन कर पाता होगा | ईश्वर का सान्निध्य पाने के बात मन की अन्य अनुभूति प्रशमित हो जाने के बाद सिर्फ ईश्वर अनुराग ही शेष रह जाया करता है |   हम कभी कभी यह भी कहते हैं कि परम योगी हर पल सुख- दुःख , मान-अपमान, प्रशंशा- निंदा आदि विषयों को एकरूप से स्वीकार कर लेते हैं और ध्येय मार्ग पर अविचल रहते हैं ; ईश्वर अनुराग में तल्लीन रहा करते है | प्रकृति में सभी कार्य करते हुए भी सिर्फ ईश्वर के प्रति अनुरक्त रहा करते है |  

अंततः ज्ञान और भक्ति का ही कुशल सम्मलेन है जिसके कारण साधक आत्मा को परमात्मा से एकरूप होता हुआ पाते रहेंगे और क्रमशः जीवात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा का भेद घटता रहेगा; क्रमिक प्रगति के क्रम में वैसा भेद नष्ट भी हो जाया करेगा | साधना का यह ध्येय भी है कि सम्यक ज्ञान के आलोक में और भक्ति से अनुरक्त होते हुए भक्त वत्सल का मन आत्मा में तल्लीन हो जाए और भेद बुद्धि को नष्ट कर दे ; इस क्रम में अहम् को परम तक विकसित होते हुए देखा जा सकेगा और गुरु- लघु विषयक भेद भी हट जाया करेगा |



[1] श्रीमद्भगवदगीता, अध्याय 2, श्लोक 23.

[2] श्री मद्भगवद्गीता, अध्याय २ श्लोक ११;

[3] ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। गीता IV.24।।

[4] [गीता V.24]

[5] सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ कछू मोरि प्रभुताई॥

यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥ श्री रामचरितमानसा , सुन्दर कांड |

[6] [गीता VI. 24-27 ]:

[7] गीता .२९

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