स्थितप्रज्ञ



प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। 2.55 ।।


हे पृथान्दन ! जिस काल में साधक मनोगत संपूर्ण कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने आप में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।


व्गीता की यह एक शैली है कि जो साधक जिस साधन के द्वारा सिद्ध होता है, उसी साधन से उसकी पूर्णता का वर्णन किया जाता है। जैसे, भक्तियोग में साधक भगवान के सिवाय और कुछ है ही नहीं- ऐसे अनन्य-योग से उपासना करता है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण प्राणियों में द्वेष भाव से रहित हो जाता है। ज्ञानयोग में साधक स्वयं को गुणों से सर्वथा असंबद्ध एवं निर्लिप्त देखता है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण गुणों से सर्वथा अतीत हो जाताहै ऐसे ही कर्मयोग में कामना के त्याग की बात मुख्य कही गयी है; अतः सिद्धावस्था में वह संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है- यह बात इस श्लोक में बताते हैं।


‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’- इन पदों का तात्पर्य यह हुआ कि कामना न तो स्वयं में है और न मन में ही है। कामना तो आने-जाने वाली है और स्वयं निरंतर रहने वाला है; अतः स्वयं में कामना कैसे हो सकती है? मन एक करण है और उसमें भी कामना निरंतर नहीं रहती, प्रत्युत उसमें आती है- ‘मनोगतान्’; अतः मन में भी कामना कैसे हो सकती है? परंतु शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि से तादात्म्य होने के कारण मनुष्य मन में आने वाली कामनाओं को अपने में मान लेता है।


‘जहाति’ क्रिया के साथ ‘प्र’ उपसर्ग देने का तात्पर्य है कि साधक कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देता है, किसी भी कामना का कोई भी अंश किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता।


अपने स्वरूप का कभी त्याग नहीं होता और जिससे अपना कुछ भी संबंध नहीं है, उसका भी त्याग नहीं होता। त्याग उसी का होता है, जो अपना नहीं है, पर उसको अपना मान लिया है। ऐसे ही कामना अपने में नहीं है, पर उसको अपने में मान लिया है। इस मान्यता का त्याग करने को ही यहाँ ‘प्रजहाति’ पद से कहा गया है। यहाँ ‘कामान्’ शब्द में बहुवचन होने से ‘सर्वान्’ पद उसी के अंतर्गत आ जाता है, फिर भी ‘सर्वान्’ पद देने का तात्पर्य है कि कोई भी कामना न रहे और किसी भी कामना का कोई भी अंश बाकी न रहे।


‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’- जिस काल में संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आप में ही संतुष्ट रहता है अर्थात अपने-आप में सहज स्वाभाविक संतोष होता है।


संतोष दो तरह का होता है- एक संतोष गुण है और एक संतोष स्वरूप है। अंतःकरण में किसी प्रकार की कोई भी इच्छा न हो- यह संतोष गुण है; और स्वयं में असंतोष का अत्यंताभाव है- यह संतोष स्वरूप है। यह स्वरूप भूत संतोष स्वतः सर्वदा रहता है। इसके लिए कोई अभ्यास या विचार नहीं करना पड़ता। स्वरूपभूत संतोष में प्रज्ञा[6] स्वतः स्थिर रहती है।

‘स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते’- स्वयं जब बहुशाखाओं वाली अनन्त कामनाओं को अपने में मानता था, उस समय भी वास्तव में कामनाएं अपने में नहीं थी और स्वयं स्थितप्रज्ञ ही था। परंतु उस समय अपने में कामनाएँ मानने के कारण बुद्धि स्थिर न होने से वह स्थितप्रज्ञ नहीं कहा जाता था अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव नहीं होता था। अब उसने अपने में से संपूर्ण कामनाओं का त्याग कर दिया अर्थात उनकी मान्यता को हटा दिया, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है अर्थात उसको अपनी स्थितप्रज्ञता का अनुभव हो जाता है। साधक तो बुद्धि को स्थिर बनाता है। परंतु कामनाओं का सर्वथा त्याग होने पर बुद्धि को स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः स्वाभाविक स्थिर हो जाती है।


कर्मयोग में साधक का कर्मों से ज्यादा संबंध रहता है। उसके लिए योग में आरूढ़ होने में भी कर्म कारण है- ‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’।[1] इसलिए कर्मयोगी का कर्मों के साथ संबंध साधक अवस्था में भी रहता है और सिद्धावस्था में भी। सिद्धावस्था में कर्मयोगी के द्वारा मर्यादा के अनुसार कर्म होते रहते हैं, जो दूसरों के लिये आदर्श होते हैं।[2]इसी बात को भगवान ने चौथे अध्याय में कहा है कि कर्मयोगी कर्म करते हुए निर्लिप्त रहता है और निर्लिप्त रहते हुए ही कर्म करता है- ‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः’


भगवान ने तिरपनवें श्लोक में योग की प्राप्ति में बुद्धि की दो बातें कही थीं- संसार से हटने में तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मा में लगने में बुद्धि अचल तो बुद्धि निश्चल हो और परमात्मा में लगने में बुद्धि अचल हो अर्थात निश्चल कहकर संसार का त्याग बताया है और अचल कहकर परमात्मा में स्थिति बतायी। उन्हीं दो बातों को लेकर यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ पद से कहा गया है कि जब साधक कामनाओं से सर्वथा रहित हो जाता है और अपने स्वरूप में ही संतुष्ट रहता है, तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। तात्पर्य है कि जब तक कामना का अंश रहता है, तब तक वह साधक कहलाता है और जब कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाता है, तब वह सिद्ध कहलाता है। इन्हीं दो बातों का वर्णन भगवान ने इस अध्याय की समाप्ति तक किया है; जैसे- यहाँ ‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्’ पदों से संसार का त्याग बताया और फिर ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी।


छप्पनवें श्लोक के पहले भाग में[4] संसार का त्याग और ‘स्थितधीर्मुनि:’ पद से परमात्मा में स्थित बतायी। सत्तावनवें और अट्ठानवें श्लोक में पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। उनसठवें श्लोक के पहले भाग में संसार का त्याग बताया और ‘परं दृष्द्वा’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। साठवें से पैसठवें श्लोक तक पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘बुद्धिः पर्यवतिष्ठते’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। छाछठवें से अड़सठवें श्लोक तक पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। उनहत्तरवें श्लोक में या निशा ‘सर्वभूतानाम्’ तथा ‘यस्यां जाग्रति भूतानि’ पदों से संसार का त्याग बताया और ‘तस्यां जागर्ति संयमी’ तथा ‘सा निशा पश्यतो मुनेः’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। सत्तरवें और इकहत्तरवें श्लोक में पहले संसार का त्याग बताया और फिर ‘'स शान्तिमधिगच्छति'’ पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी। बहत्तरवें श्लोक में ‘'नैनां प्राप्य विमुह्यति’ पदों से संसार का त्याग बताया और ‘ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति’ आदि पदों से परमात्मा में स्थिति बतायी।


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। 2.56 ।।


अर्थ- दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील मनुष्य स्थिर बुद्धि कहा जाता है।


अर्जुन ने तो ‘स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है?’ ऐसा क्रिया की प्रधानता को लेकर प्रश्न किया था, पर भगवान भाव की प्रधानता को लेकर उत्तर देते हैं; क्योंकि क्रियाओं में भाव ही मुख्य है। क्रियामात्र भावपूर्वक ही होती है। भाव बदलने से क्रिया बदल जाती है अर्थात बाहर से क्रिया वैसी ही दीखने पर भी वास्तव में क्रिया वैसी नहीं रहती है। उसी भाव की बात भगवान यहाँ कह रहे हैं।


‘दुःखेष्वनुद्वग्नमनाः’- दुःखों की संभावना और उनकी प्राप्ति होने पर भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता अर्थात कर्तव्य-कर्म करते समय कर्म करने में बाधा लग जाना, निंदा अपमान होना, कर्म का फल प्रतिकूल होना आदि-आदि प्रतिकूलताएँ आने पर भी उसके मन में उद्वेग नहीं होता।


कर्मयोगी के मन में उद्वेग, हलचल न होने का कारण यह है कि उसका मुख्य कर्तव्य होता है- दूसरों के हित के लिए कर्म करना, कर्मों का सांगोपांग करना, कर्मों के फल में कहीं आसक्ति, ममता, कामना न हो जाए- इस विषय में सावधान रहना। ऐसा करने से उसके मन में एक प्रसन्नता रहती है। उस प्रसन्नता के कारण कितनी ही प्रतिकूला आने पर भी उसके मन में उद्वेग नहीं होता है।


‘सुखेषु विगतस्पृहः’- सुखों की संभावना और उनकी प्राप्ति होने पर भी जिसके भीतर स्पृहा नहीं होती अर्थात वर्तमान में कर्मों का सांगोपांग हो जाना, तात्कालिक आदर और प्रशंसा होना, अनुकूल फल मिल जाना आदि-आदि अनुकूलताएँ आने पर भी उसके मन में ‘यह परिस्थिति ऐसी ही बनी रहे; यह परिस्थिति सदा मिलती रहे’- ऐसी स्पृहा नहीं होती। उसके अंतःकरण में अनुकूलता का कुछ भी असर नहीं होता।


‘वीतरागभयक्रोधः’- संसार के पदार्थों का मन पर जो रंग चढ़ जाता है उसको ‘राग’ कहते हैं। पदार्थों में राग होने पर अगर कोई सबल व्यक्ति उन पदार्थों का नाश करता है, उनसे संबंध-विच्छेद कराता है, उनकी प्राप्ति में विघ्न डालता है, तो मन में ‘भय’ होता है। अगर वह व्यक्ति निर्बल होता है, तो मन में ‘क्रोध’ होता है। परंतु जिसके भीतर दूसरों को सुख पहुँचाने का, उनका हित करने का, उनकी सेवा करने का भाव जाग्रत हो जाता है, उसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है। राग के मिटने से भय और क्रोध भी नहीं रहते। अतः वह राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो जाता है।


जब तक आंशिक रूप से उद्वेग, स्पृहा, राग, भय और क्रोध रहते हैं, तब तक वह साधक होता है। इनसे सर्वथा रहित होने पर वह सिद्ध हो जाता है।


वासना, कामना आदि सभी एक राग के ही स्वरूप हैं। केवल वासना का तारतम्य होने से उसके अलग-अलग नाम होते हैं; जैसे अंतःकरण में जो छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम 'वासना' है। उस वासना का ही दूसरा नाम ‘आसक्ति’ और प्रियता है। मेरे को वस्तु मिल जाय- ऐसी जो इच्छा होती है, उसका नाम ‘कामना’ है। कामना पूरी होने की जो संभावना है, उसका नाम ‘आशा’ है। कामना पूरी होने पर भी पदार्थों के बढ़ने की तथा पदार्थों के और मिलने की इच्छा होती है, उसका नाम ‘लोभ’ है। लोभ की मात्रा अधिक बढ़ जाने का नाम ‘तृष्णा’ है। तात्पर्य है कि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों में जो खिंचाव है, श्रेष्ठ और महत्त्व बुद्धि है, उसी को वासना, कामना आदि नामों से कहते हैं।


‘स्थितधीर्मुनिरुच्यते’- ऐसे मननशील कर्मयोगी की बुद्धि स्थिर, अटल हो जाती हैं। ‘मुनि’ शब्द वाणी पर लागू होता है, इसलिए भगवान ने ‘किं प्रभाषेत’ के उत्तर में ‘मुनि’ शब्द कह दिया है। परंतु वास्तव में ‘मुनि’ शब्द केवल वाणी पर ही अवलंबित नहीं है। इसीलिये भगवान ने सत्रहवें अध्याय में ‘मौन’ शब्द का प्रयोग मानसिक तप में किया है, वाणी के तप में नहीं। कर्मयोग का प्रकरण होने से यहाँ मननशील कर्मयोग को मुनि कहा गया है। मननशीलता का तात्पर्य है- सावधानी का मनन, जिससे कि मन में कोई कामना आसक्ति न आ जाय। निरंतर अनासक्त रहना ही सिद्ध कर्मयोगी की सावधानी है; क्योंकि पहले साधक-अवस्था में उसकी ऐसी सावधानी रही है। और इसी से वह परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुआ है।


यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । 

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 2.57 ।। 


सब जगह आसक्ति रहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभ को प्राप्त करके न तो अभिनंदित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है। व्याख्या- [पूर्व श्लोक में तो भगवान ने कर्तव्य कर्म करते हुए निर्विकार रहने की बात बतायी। अब इस श्लोक में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति में सम, निर्विकार रहने की बात बताते हैं। ‘यः सर्वत्रानभिस्नेहः’- जो सब जगह स्नेहरहित है अर्थात जिसकी अपने कहलाने वाले शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि एवं स्त्री, पुत्र, घर, धन आदि किसी में आसक्ति, लगाव नहीं रहा है। वस्तु आदि बने रहने से मैं बना रहा और उनके बिगड़ जाने से मैं बिगड़ गया, धन के आने से मैं बड़ा हो गया और धन के चले जाने से मैं मारा गया- यह जो वस्तु आदि में एकात्मता की तरह स्नेह है, उसका नाम ‘अभिस्नेह’ है। स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी का किसी भी वस्तु आदि में यह अभिस्नेह बिलकुल नहीं रहता। बाहर से वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि का संयोग रहते हुए भी वह भीतर से सर्वथा निर्लिप्त रहता है। ‘तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं नाभिनन्दति न द्वेष्टि’- जब उस मनुष्य के सामने प्रारब्धवशात् शुभ-अशुभ, शोभनीय-अशोभनीय, अच्छी-मंदी, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह अनुकूल परिस्थिति को लेकर अभिनंदित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर द्वेष नहीं करता। अनुकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो प्रसन्नता आती है और वाणी से भी प्रसन्नता प्रकट की जाती है तथा बाहर से भी उत्सव मनाया जाता है- यह उस परिस्थिति का अभिनंदन करना है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर मन में जो दुःख होता है, खिन्नता होती है कि यह कैसे और क्यों हो गया! यह नहीं होता तो अच्छा था, अब यह जल्दी मिट जाय तो ठीक है-यह उस परिस्थिति से द्वेष करना है। सर्वत्र स्नेहरहित, निर्लिप्त हुआ मनुष्य अनुकूलता को लेकर अभिनंदन नहीं करता और प्रतिकूलता को लेकर द्वेष नहीं करता। तात्पर्य है कि उसको अनुकूल प्रतिकूल, अच्छे मंदे अवसर प्राप्त होते रहते हैं, पर उसके भीतर सदा निर्लिप्तता बनी रहती है। ‘तत्, तत्’ कहने का तात्पर्यहै कि जिन-जिन अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि से विकार होने की संभावना रहती है और साधारण लोगों में विकार होते हैं, उन-उन अनुकूल प्रतिकूल वस्तु आदि के कहीं भी, कभी भी और कैसे भी प्राप्त होने पर उसको अभिनंदन और द्वेष नहीं होता। ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’- उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है, एकरस और एकरूप है। साधनावस्था में उसकी जो व्यवसायात्मिका बुद्धि थी, वह अब परमात्मा में अचल-अटल हो गयी है। उसकी बुद्धि में यह विवेक पूर्णरूप से जाग्रत हो गया है कि संसार में अच्छे मंदे के साथ वास्तव में मेरा कोई भी संबंध नहीं है। कारण कि ये अच्छे-मंदे अवसर तो बदलने वाले हैं, पर मेरा स्वरूप न बदलने वाला है; अतः बदलने वाले के साथ न बदलने वाले का संबंध कैसे हो सकता है? वास्तव में देखा जाय तो फरक न तो स्वरूप में पड़ता है और न शरीर इंद्रियाँ मन बुद्ध में। कारण कि अपना जो स्वरूप है, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता; और प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य शरीरादि स्वाभाविक ही बदलते रहते हैं। तो फरक कहाँ पड़ता है? शरीर से तादात्म्य मिट जाता है, तब बुद्धि में जो फरक पड़ता था, वह मिट जाता है और बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। दूसरा भाव यह है कि किसी की बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धि से परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्मा के विषय में कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्मा को अपनी बुद्धि के अंतर्गत नहीं ला सकता। कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम अनन्त है। परंतु उस असीम परमात्मा में जब बुद्धि लीन हो जाती है, तब उस सीमित बुद्धि में परमात्मा के सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रहती- यही बुद्धि का परमात्मा में प्रतिष्ठित होना है। कर्मयोगी क्रियाशील होता है। अतः भगवान ने छप्पनवें श्लोक में क्रिया की सिद्धि-असिद्धि में अस्पृहा और उद्वेग रहित होने की बात कही तथा इस श्लोक में प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर अभिनंदन और द्वेष से रहित होने की बात कहते हैं।


यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।

इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 2.58 ।।


जिस तरह कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, ऐसे ही जिस काल में यह कर्मयोगी इंद्रियों के विषयों में इंद्रियों को सब प्रकार से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।


व्याख्या- ‘यदा संहरते.....प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’- यहाँ कछुए का दृष्टांत देने का तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः दीखते हैं- चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परंतु जब वह अपने अंगों को छिपा लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखाई देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच इंद्रियाँ और एक मन- इन छहों को अपने-अपने विषय से हटा लेता है। अगर उसका इंद्रियों आदि के साथ किञ्चिन्मात्र भी मानसिक संबंध बना रहता है, तो वह स्थितप्रज्ञ नहीं होता।


यहाँ ‘संहरते’ क्रिया देने का मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयों से इंद्रियों का उपसंहार कर लेता है अर्थात वह मन से भी विषयों का चिंतन नहीं करता।


इस श्लोक में ‘यदा’ पद तो दिया है, पर ‘तदा’ पद नहीं दिया है। यद्यपि 'यत्तदोर्नित्यसंबंधः’ के अनुसार जहाँ ‘यदा’ आता है, वहाँ ‘तदा’ का अध्याहार लिया जाता है अर्थात ‘यदा’ पद के अंतर्गत ही ‘तदा’ पद आ जाता है, तथापि यहाँ ‘तदा’ पद का प्रयोग न करने का एक गहरा तात्पर्य है कि इंद्रियों के अपने-अपने विषयों से सर्वथा हट जाने से स्वतः सिद्ध तत्त्व का जो अनुभव होता है, वह काल के अधीन, काल की सीमा में नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्याग का फल नहीं है। वह अनुभव उत्पन्न होने वाली वस्तु नहीं है।


अतः यहाँ कालवाचक ‘तदा’ पद देने की जरूरत नहीं है इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी वस्तु के अधीन होती है। जैसे आकाश में सूर्य रहने पर भी आँखें बंद कर लेने से सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और आँखों में कार्य-करण का संबंध नहीं है अर्थात आँखें खुलने से सूर्य पैदा नहीं हुआ है। सूर्य तो पहले से ज्यों का त्यों ही है। आँखें बंद करने से पहले भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करने पर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें बंद करने से हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इंद्रियों को विषय से हटाने से स्वतः सिद्ध परमात्मतत्त्व का जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव मनसहित इंद्रियों का विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतः सिद्ध तत्त्व भोगों[2] के साथ संबंध रखते हुए भोगों को भोगते हुए भी वैसा ही है। परंतु भोगों के साथ संबंध रूप परदा रहने से उसका अनुभव नहीं होता, और यहा परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है।



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