चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
सिर्फ आदमी ही
है जो अक्सर ज्योतिषी के
चक्कर में
पड़ जाया करता; किसी जंतु जानवर को शायद
ही हम ऐसा करते
हुए देख पाते हों | आदमी की जरूरतें बढ़ती जा रही है,
प्रकृति से काफी कुछ
मांगी जा रही है
| अभी भी कुछ आदिम
जनजाति के लोग मिल
जाया करेंगे जो खुद को
पिछड़ा हुआ नहीं मानते | आजकल ईमानदारी, सत्यवादिता आदि मानव मूल्यों में गिरावट आ रही है
; यहाँ तक कि साधू
महात्मा भी भोग विलास
से ग्रसित हो गए हैं;
मूल्यों में गिरावट ही काफी
चिंता का विषय है
| जो सरलता और सादगी से
जीवन व्यतीत करते हैं उन्हें हम साधारण न
समझें; कम जरूरतों में
जीवन गुजारने वालों के
प्रति हम अपनी श्रद्धा
और भक्ति बनाये रखें | धर्म और विश्वास खोकर
प्रगति कर लेना कोई
बहादुरी नहीं समझी जा सकेगी; पढ़
लिखकर भी गुलामी अगर
नहीं जाती हो; प्रगति के नाम पर
अगर विरासत धूमिल होता रहे; उन्नत देश
के आकर्षण में अगर हमारी जड़ें कमजोर हो जाए ; जो
जानवरों के साथ शांतिपूर्वक
रह लें उन्हें हम पिछड़ा हुआ
नहीं मान सकते | दिमागी कसरत करने कि कला आ
जाने का भी यह
अर्थ नहीं निकाला जा सकेगा कि
नर ही नारायण बन
गया; मन पर जबतक
अंकुश नहीं पाया जा सकता; जबतक
स्व की पहचान नहीं
हो जाती; ईश्वर के प्रति जबतक
अनुराग न पैदा होता
हो; साधू के प्रति और
सत्संग के प्रति जबतक
अनुराग न पैदा होता
हो तबतक हम किसी भक्त
वत्सल का आध्यात्मिक उन्नति
की उम्मीद नहीं कर सकते | भक्तों
के चित्त में धर्म और अध्यात्म
विषयक अनुराग पैदा करने के लिए संचार
माध्यम की उतनी ही
भूमिका और उतना ही
दायित्व बनता है जितना कि
एक साधू महात्मा का | दुष्टों से निपटने का
कला कौशल कोई भगवान कृष्ण से सीखे ; बहुत
वीर अपने बीच संदर्भित हुए पर अगर जरुरत
पड़े तो छल, बल
और कौशल से धर्म विजय
सुनिश्चित करना होगा |
भाषा के बारे भी
काफी भ्रांतियां फ़ैल रही है; हिंदी के प्रति आकर्षण
होना चाहिए | भाषा से अलग हो
जाने का अर्थ मूल
संस्कृति से हट जाना
माना जाएगा | जो कर्म में
लगे रहते हैं उनके बीच संस्कार का बनाना तय
है; इस क्रम में
वासनाएं बढ़ती जाती है; इसमें बीजात्मक अज्ञान बना रहता है | उचित यही होगा कि व्यक्ति खुद
को देहाभिमान से मुक्त करते
हुए खुद के स्वरुप को
पहचाने |
जाग्रत
और स्वप्न
व्यक्ति या तो स्वप्न
में
रहेगा या फिर गहरी
नींद में; कभी
सुख - दुःख, लाभ-हानि का भान नींद
में नहीं पनप सकता | जब व्यक्ति नींद
में कोई स्वप्न देखता है तो उसके
प्रति भी अनुरक्त होने
लगता और हर ओर
स्वप्न का संसार ही
बनाने लग जाता; अपने
स्वप्न को फलित होता
हुआ भी देखना चाहेगा
|[1]
जन्म - मृत्यु के
चक्र से खुद को
अलग समझने लग जाता और
उसी धुन में जीवन व्यतीत भी कर देता
है | जिनको कोई पद मिला उन्हें
यही लगता कि उनका पद
सुरक्षित रहे; आश्रम के महंतों की
बड़ी बुरी हालत होती है ; उन्हें फिर अभिमान से छुटकारा ही
नहीं मिल पाता | अगर किसी को मुसीबत में
डालना हो तो उसे
बड़ा बना दें और उसपर जिम्मेदारियां
डाल दें | किस्मतवाला तो वो ही
है जो सदा सादगी
से जीवन व्यतीत कर दिया करेगा;
कुछ
पाने कि आशा ही
नहीं रखेगा और न ही भ्रम और प्रमाद में ग्रसित
हो जाया करेगा | वैराग्य उत्पन्न
होने की स्थिति का
निरूपण करते हुए कहा जा सकता है
कि अधिभूत और अधिदैवके निमित्तसे
होनेवाले तीनों प्रकारके दुःखोंमें दोष देखना; अथवा दुःखरूप
दोषको पहले कहे हुए प्रकारसे जन्मादिमें देखना अर्थात् जन्म दुःखमय है; मरना दुःख है; बुढ़ापा दुःख है और सब
रोग दुःख हैं -- इस प्रकार देखना
| ये जन्मादि दुःखके कारण होनेसे ही दुःख की
अनुभूति पनपती है ; स्वरूपसे दुःख नहीं मानी जा सकती ।
जन्मादि अनुक्रियाओं में दुःखरूप दोषको बारंबार देखनेसे शरीर, इन्द्रिय
और विषयभोगोंमें साधक के चित्त में
वैराग्य उत्पन्न हो जाता है।
गीता में भगवान कहते हैं कि इन्द्रियोंके
विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना
और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना भक्त वत्सल के लिए अति
आवश्यक माना जाएगा।[2]
यह शरीर को क्षेत्र कहा जाता है और
इसको जो जानता है, उसे तत्त्वज्ञ जन (क्षेत्रज्ञ) कहेंगे । समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ परम सत्ता को ही
माना जा सकेगा; उसके सर्वव्यापी स्वरुप को भी हम सही परिप्रेक्ष्य में समझें; क्षेत्र
और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही वास्तविक ज्ञान (सम्यक ज्ञान ) माना जाना चाहिए
| क्षेत्र में कुल चौबीस तत्वों का सम्मलेन हुआ: (मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व),
समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियोंके पाँच
विषय); इन सभी तत्वों को प्रकृति का अंश माना जायेगा । इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात,
चेतना (प्राणशक्ति) और धृति -- इन विकारोंसहित यह क्षेत्र व्याप्त होता रहता है | अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य
की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम, इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार
का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन, आसक्ति तथा पुत्र,
पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति
में समचित्तता आदि ये सभी प्रकृति के कारण ही पनपते और नष्ट होते रहेंगे |[3]
अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका
होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जन-समुदायमें प्रीति का न होना; अध्यात्मज्ञान
में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब
ज्ञान है | अनादि, परम ब्रह्म; जो न सत् और न असत् ही कहा जा सकता; वह जगत् में सबको
व्याप्त करके स्थित है; समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने
वाला, परन्तु (वस्तुत:) समस्त इन्द्रियों से रहित है; आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते
हुए भी सबको धारणपोषण करने वाला और गुणों का भोक्ता स्वरुप: भूत मात्र के अन्तर्बाह्य
स्थित है; वह चर और अचर है ;सूक्ष्म होने से वह अविज्ञेय होने के साथ
साथ सुदूर और अत्यन्त समीपस्थ भी हुआ करता
है ; अविभक्त होते हुए भी वह भूतों में विभक्त
के समान अभिव्यक्त रहता हो; वह ब्रह्म भूतमात्र का भर्ता, संहारकर्ता और उत्पत्ति कर्ता
है; वही ज्ञेय मानें | अंधकार से परे उस समस्त ज्योतियों की ज्योति , जो जीव मात्र
में अधिष्ठान स्वरुप रहता है उस स्वरुप को
ज्ञान के आलोक में भी जाना जा सकेगा | क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को तत्वतः जानकार साधक
सर्वदा ईश्वर अनुराग ही पाया करेंगे |[4] सभी प्रकार के विकार और गुण सर्वदा प्रकृति के तत्वों
के कारण ही पनपते रहेंगे और विलुप्त होते रहेंगे |
कार्य और कारण के उत्पन्न करने में
हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष सुख-दु:ख के भोक्तृत्व में हेतु मानें | प्रकृति के गुणों और विकारों में अनुरक्त
पुरुष उन विकारों और गुणों को भोगता रहेगा | अंततः परम पुरुष को ही देह में उपद्रष्टा,
अनुमन्ता ,भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा कहा जाता है | प्रकृति और पुरुष विषयक
सम्यक ज्ञान को ही मुक्ति का मार्ग समझें | ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग के फल
स्वरुप साधक आत्मा को महसूस कर पाते हैं ; भक्त वत्सल तो श्रवण, मनन और चिंतन के द्वारा
भी गुरु कृपा से माया के संसार से तर जाया
करेंगे | सृष्टि चक्र में जो भी उत्पन्न होते हों सबमें पुरुष और प्रकृति का सम्मलेन
अनिवार्य है |[5]
वह पुरुष सत्ता ही है जो हमें सम्यक दृष्टि दे और सभी जीव में परम सत्ता के अंश को
देख सकेंगे; उस परम सत्ता को जीव मात्र में अभिव्यक्त होता हुआ देख सकेंगे; सृष्टि
के हर कण में उस परम सत्ता को ही कारक रूप से महसूस कर सकेंगे; जीव, अंतर और परम के व्यतिरेक आत्मा के सर्वव्यापी व्यापक
स्वरुप के बारे में सम्यक ज्ञान भी हो जाया करेगा | सम्यक ज्ञान से पुष्ट साधक आत्मा
को अकर्ता मान लेगा; सभी जीव क एक परमात्मा में स्थित देखता और परम सत्ता ब्रह्म को
सृष्टि के सभी अवयवों में देखने लग जाता है; एक ऐसी अवस्था जब सभी जीव के चेतन स्वरुप
को हम समझने लग जाएँ; जब यह मानने लग जाएँ कि जीव मात्र ही अमृत के संतान हैं; निर्गुण
होने के कारण परमात्मा अव्यय है; न कर्ता है और न ही कर्म में लिप्त होता है | सूर्य
की भांति एक ही क्षेत्रज्ञ समग्र जीव जगत और सृष्टि को अभिव्यक्त करता है |[6] आत्मा को हम तबतक सही प्रकार से महसूस नहीं कर पाते
जबतक हम मन पर और इन्द्रिय समूह पर नियंत्रण न आ लें और सभी जीवों में मौजूद चेतन तत्व
को उसके सही स्वरुप के साथ अनुभव करने लग जाएँ |
वस्तुतः वह आत्मा ही है जो मन को किसी
एक विषय से दूसरे विषय में लगाने की पात्रता रखेगा; उसी के जरिये इन्द्रिय अपने विषयों
में तल्लीन हुआ करेगा; उसी परम सत्ता के कारण कर्मेन्द्रियों को विधायक कर्म में लगा
हुआ देखा जाएगा; वही एक विधायक तत्व है जो व्यक्ति के चेतना को दिव्य ज्ञान से आलोकित
करता रहेगा; उसी तत्व के आलोक में हम सत्य को भी अनुभव कर पाएंगे | मन की चंचलता के
कारण कल्पना, स्वप्न और माया का जाल हम खुद ही बना लिया करेंगे; औरों को धोखा देनेवाले
अक्सर खुद ही धोखा खा जाया करते हैं ; स्वप्न टूटने के तुरंत बाद ही कोई जागृत अवस्था
में आ जाएंगे ऐसा भी नहीं कहा जा सकेगा | दुःख-- सुख की इच्छा त्याग कर देनेवाले परिपक्व
चिदाकाश का धनी कभी मृत्यु के भय से उद्ग्रीव नहीं होता; भगवान को यह भी विशवास हो
जाता रहेगा कि भक्त तत्व कथा समझेगा; अगर नहीं
भी समझता होगा तो गुरु उसे वस्तुस्थिति समझने में मदद करते रहेंगे; यह प्रबोधन की निरंतरता
बनी रहेगी | जिनका विवेक जागृत हुआ होगा उन्हें ही पता चल सकता कि दुःख क्या है और
उस दुःख के क्या क्या कारण हो सकते !
मान आदि के लिए; दिखावे के लिए और भोग
वृत्ति को प्रशमित करने के लिए लोग अधिकाधिक धन कमाने लगते; उन्हें खुद से ही यह पूछना
होगा कि इस वृत्ति का क्या कोई ठोस कारण है? क्या ऐसा करने से वे खुद को संतोषी पाया
करेंगे? क्या ऐसा करने से देह से अहम् भाव मिट जाय करेगा ? क्या देह का अहंकार से मुक्त
किया जाने का कार्य भी हो सकेगा ? वेदांती जन यह क्षणिक सुख की उपलब्धि देनेवाले जीवन
से मुक्ति पाने के मार्ग बताया करते हैं } कभी कभी ज्ञान हो जाने के बाद प्रमाद का
और देहाभिमान का अंत ही नहीं होता; बिना कर्म के सुखी रह पाने की कल्पना और वैसा करने
का प्रयास भी भ्रान्ति से ग्रसित ही रहेगा; कर्म का त्याग न करके उस कर्म में निहित
अभिलाषा, आकांक्षा और प्रमाद का त्याग करना जरूरी है | यह एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर दिया करेगा जहाँ
हम मान-आमान, प्रशंशा - निंदा, सुख-दुःख आदि विषयों से ग्रसित होकर मन की चंचलता को
काम कर सकेंगे; काम करते करते मन को प्रशमित भी कर पाएंगे; प्रशमित मन का धनी होकर
आत्मा को उसके सही स्वरुप में (स्वयं प्रभा और स्वयं प्रकाश की स्थिति) अनुभव कर सकेंगे
| चैतन्य ही अहम् भाव में सात्विकता को पैदा कर सकेगा और आत्मा के सर्व-व्यापी स्वरुप
को उजागर होता हुआ भी महसूस किया जा सकेगा | उस सर्वव्यापी आत्मा को परमात्मा से एकरूप
होते हुए भी हम महसूस कर सकेंगे और उसी मार्ग पर क्रमिक उन्नति का साक्षी रूप में पाएंगे
| व्यक्ति के दुःखी या सुखी होने में सिर्फ अनुभव ही प्रमाण है; मान पाने के लिए उत्कंठा
भी मन को चंचल कर दिया करेगा; वैसा न मिलने की स्थिति में मन दुःखी हो जाता; दुःख या
सुख का अनुभव आत्मा तक नहीं पहुंचता |
मिटटी को अगर बार बार याद दिलाया जाये
तो वह एक घड़े का आधार है; बात तो सही है पर घड़े के बाहर अन्य अवयवों में भी मिटटी के
स्वरुप को अभिव्यक्त होता हुआ देखा जा सकेगा | आत्मा के साथ भी कुछ ऐसा ही अभ्व्यक्ति
के व्यापकत्व के विषय को समझें; ज्ञान को हम ज्ञानभास ही समझें; उस ज्ञान को परिपक्व
करने के लिए मन का प्रशमित होना बहुत जरूरी है | ज्ञान तो सदा सच्चा ही होता, उसका
झूठा होने का प्रश्न ही नहीं ! अगर हम जाग जाएँ तब पता चलता है कि स्वप्नावस्था में
प्राप्त जानकारी ज्ञान का आधार नहीं बन सकता; न ही उस आधार पर हम ज्ञान विषयक किसी
चिदाभास का अनुभव नहीं कर पाते | वास्तविक ज्ञान कभी समाप्त हो ही नहीं सकता ; अधिकांश
जगहों पर ज्ञान का सिर्फ चिदाभास ही होता न कि सम्यक ज्ञान का होने का अनुभव पाना |
ज्ञान तो अनंत है ; स्वप्न और जाग्रत
के अंत को जो देख लेता वो अनंत का सूचक है; जननभास का अंत हो सकता पर ज्ञान का कोई
अंत नहीं (उपनिषद् के सन्दर्भ में ) | चेतनता के न रहने का साक्षी चेतन ही होगा; सूर्य
और सूर्याभास में एक बुनियादी अंतर है; सूर्य का उदय और अस्त होना सिर्फ सूर्याभास
ही है न कि सूर्य के असल स्वरुप का साक्षी | सूर्य का उदय और अस्त सिर्फ पृथ्वी के
मर्यादा तक ही परिलक्षित किया जा सकेगा; महाशून्य में धरती कि सीमा से अरे सूर्य के
होने का सम्यक ज्ञान हो सकेगा | अतः यह देखा जा रहा है कि सूर्याभास ख़त्म हो सकता पर
एक विस्तृत परिसर में सूर्य के होने कि बात सत्यापित कि जा सकेगी; इस सत्य को एक क्रमिक
रूप से उजागर होते हुए भी महसूस किया जा सकेगा | विड़म्बना तब देखि जाती जब ज्ञान को
अनुभव कर लेनेवाले साधक इन्द्रिय सुख के अधीन मन कि स्थिरता खो बैठते हैं | ऐसा भी
देखा जाता है कि वैसे लोग भ्रम और प्रमाद से ग्रसित हो जाया करते; ऐसे व्यक्तियों के
ज्ञान को सिर्फ ज्ञानभास कहा जाएगा न कि सम्यक ज्ञान | ज्ञान तो एक सागर कि भाँती है
और ज्ञान को पाने कि अभिलाषा रखनेवाला साधक एक नमक का बना पुतला; जिसका ज्ञान सागर
में उतरते ही पिघल जाना एक भवितव्य ही मानें; कोई जल्दी पिघले और कोई कुछ देर बाद
! वह अनंत को जान लेने का प्रयास भर हो सकता, उसमें पूर्ण सम्यकत्व पाना कभी संभव ही
नहीं; ज्ञान पाने के क्रम में जीवन कि कड़ी ही अंतिम पड़ाव पेपर आ जाय करेगी; देह अभिमान
कि सीमा से अगर उभर सकें तो किसी परंपरा के अधीन सम्यकत्व में साधक अपनी कृति को जोड़
सकेंगे | जगत में सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होनेवाले अवयवों की संख्या ज्यादा है;
वास्तव में सूर्य खुद के मौजूद होने का प्रमाण प्रकाश के जरिये दे दिया करता; यह ज्ञान
के स्वयं प्रकाश विषयक अनुभूति का ही रूपक मानें | हम जगत का अनुभव इन्द्रिय के जरिये
ही किया करते; चैतन्य का स्वरुप कुछ ऐसा ही है जिसे इन्द्रिय अनुभव नहीं चाहिए; न ही
अन्य किसी अवलम्बन के जरिये जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में चित्त का स्थानांतरण होता
रहेगा | चैतन्य ही एक है जो कभी नहीं सोता; वह चिदाभास ही है जो देह को चढ़ाता है और
जागने के बाद फिर सक्रियता का जन्म देता | आत्मा कभी इन परिवर्तनों में लिप्त नहीं
होता | स्वरुप से द्रष्टा और दृश्य न होते हुए चेतन कल्पित नहीं है | देहाभिमान से
मुक्त होकर ही व्यक्ति स्वप्न के अनुभवों को पाया करेगा | एक परमात्मा ही जिसके बारे
में हमारे पास परखने की कोई कसौटी नहीं है | हम उसके सही स्वरुप को अनुभव करने के लिए
गुरु की शरणागति लिया करते | ब्रह्म जनानी
के लिए खोने या पाने लायक कुछ रहता ही नहीं इसी कारण से उन्हें सुख - दुःख की अनुभूति
परेशान नहीं किया करती |
[1] श्री राम चरित मानस की एक चौपाई में भगवान शिव माता पार्वती जी से कहते हैं :
“उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना ।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना ।।
आदि देव महादेव जगदम्बा उमा से कहते हैं "हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न की भाँति झूठा और कल्पना से ग्रसित ही मानें ।
[2] इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।
श्री मद्भागवद्गीता १३. ९ ।।
[3] श्री मद्भागवद्गीता १३.२- १ 0 ;
[4] श्रीमद्भागवद्गीता १३. ११- १९
[5] श्री मद्भागवद्गीता १३. २१ - २७
[6] श्रीमद्भागवद्गीता १३. २८-३४