सत साहस

 


क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।। 3 ।।



इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।। 3 ।।


प्रश्न- ‘पार्थ’ सम्बोधन के सहित नपुंसकता को मत प्राप्त हो और तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती- इन दोनों वाक्यों का क्या भाव है?


उत्तर- कुन्ती का दूसरा नाम पृथा था। कुन्ती वीरमाता थी। जब भगवान् श्रीकृष्ण दूत बनकर कौरव-पाण्डवों की सन्धि कराने के लिये हस्तिनापुर गये और अपनी बुआ कुन्ती से मिले, उस समय कुन्ती ने श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को वीरतापूर्ण सन्देश भेजा था, उसमें विदुला और उनके पुत्र संजय का उदाहरण देकर अर्जुन को युद्ध के लिये उत्साहित किया था। अतः यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करके माता कुन्ती के उस क्षत्रियोचित सन्देश की स्मृति दिलाते हुए उपर्युक्त दोनों वाक्यों द्वारा यह सूचित किया है कि तुम वीर जननी के वीर पुत्र हो, तुम्हारे अंदर इस प्रकार की कायरता का संचार सर्वथा अनुचित है। कहाँ महान्-से-महान् महारथियों के हृदयों को कँपा देने वाला तुम्हारा अतुल शौर्य? और कहाँ तुम्हारी यह दीन स्थिति?- जिसमें शरीर के रोंगटे खड़े हैं, बदन काँप रहा है, गाण्डीव गिरा जा रहा है और चित्त विषादमग्न होकर भ्रमित हो रहा है। ऐसी कायरता और भीरुता तुम्हारे योग्य कदापि नहीं है।


प्रश्न- यहाँ ‘परन्तप’ सम्बोधन का क्या भाव है?


उत्तर- जो अपने शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाला हो उसे ‘परन्तप’ कहते हैं। अतः यहाँ अर्जुन को ‘परन्तप’ नाम से सम्बोधित करने का यह भाव है कि तुम शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाले प्रसिद्ध हो। निवात कवचादि असीम शक्तिशाली दानवों को अनायास ही पराजित कर देने वाले होकर आज अपने क्षत्रिय स्वभाव के विपरीत इसका पुरुषोचित कायरता को स्वीकार कर उलटे शत्रुओं को प्रसन्न कैसे कर रहे हो?


प्रश्न- ‘क्षुद्रम्’ विशेषण के सहित ‘हृदयदौर्बल्यम्’ पद किस भाव का वाचक है? और उसे त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा होने के लिये कहने का क्या भाव है?


उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे जैसे वीर पुरुष के अन्तःकरण में रणभीरु कायर प्राणियों के हृदय में रहने वाली, शूरजनों के द्वारा सर्वथा त्याज्य, इस तुच्छ दुर्बलता का प्रादुर्भाव किसी प्रकार भी उचित नहीं है। अतएव तुरंत इसका त्याग करके तुम युद्ध के लिये डटकर खड़े हो जाओ।


दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से दोनों सेनाओं की बात कही, पर द्रोणाचार्य कुछ भी बोले नहीं। इसमें दुर्योधन दुःखी हो गया। तब दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए भीष्म जी ने जोर से शंख बजाया। भीष्मजी का शंक बजने के बाद कौरव और पांडवसेना के बाजे बजे। इसके बाद[1] श्रीकृष्णार्जुन संवाद आरंभ हुआ। अर्जुन ने भगवान से अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने के लिए कहा। भगवान ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म, द्रोण आदि के सामने रथ को खड़ा करके अर्जुन से कुरुवंशियों को देखने के लिए कहा। दोनों सेनाओं में अपने ही स्वजनों- संबंधियों को देखकर अर्जुन में कौटुम्बिक मोह जाग्रत हुआ, जिसके परिणाम में अर्जुन युद्ध करना छोड़कर बाणसहित धनुष का त्याग करके रथ के मध्य भाग में बैठ गये। इसके बाद विषादमग्न अर्जुन के प्रति भगवान ने क्या कहा- यह बात धृतराष्ट्र को सुनाने के लिए संजय दूसरे अध्याय का विषय आरंभ करते हैं।


अर्जुन रथ में सारथि रूप में बैठे हुए भगवान को यह आज्ञा देते है कि हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए, जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्ध में मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं? अर्थात मेरे जैसे शूरवीर के साथ कौन-कौन से योद्धा साहस करके लड़ने आए हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे साथ लड़ने की उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुन में युद्ध के लिए इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओं में अपने कुटुम्बियों को देखकर उनके मरने की आशंका से मोहग्रस्त होकर इनते शोकाकुल हो गए हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीर में कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथ से धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहने की भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुन का यह स्वभाव कि ‘न दैत्यं न पलायनम्’ और कहाँ अर्जुन का कायरता के दोष से शोकाविष्ट होकर रथ के मध्यभाग में बैठ जाना! बड़े आश्चर्य के साथ संजय यही भाव उपर्युक्त पदों से प्रकट कर रहे हैं।

पहले अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में भी संजय ने अर्जुन के लिए ‘कृपया परयाविष्टः’ पदों का प्रयोग किया है।

‘अश्रुपूर्णाकुलेक्षम्’- अर्जुन-जैसे महान शूरवीर के भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रों में आँसू भर आए! आँसू भी इतने ज्यादा भर आए कि नेत्रों से पूरी तरह तरह देख भी नहीं सकते।

‘विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः’- इस प्रकार कायरता के कारण विषाद करते हुए अर्जुन से भगवान मधुसूदन ने ये[2] वचन कहे।


‘पार्थ’- माता पृथा के संदेश की याद दिलाकर अर्जुन के अंतःकरण में क्षत्रियोचित वीरता का भाव जाग्रत करने के लिए भगवान अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से संबोधित करते हैं। तात्पर्य है कि अपने में कायरता लाकर तुम्हें माता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।

‘क्लैब्यं मा स्म गमः’- अर्जुन कायरता के कारण युद्ध करने में अधर्म और युद्ध न करने में धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुन को चेताने के लिए भगवान कहते हैं कि युद्ध न करना धर्म की बात नहीं है, यह तो नपुंसकता[4] है। इसलिए तुम इस नपुंसकता को छोड़ दो।

‘नैतत्त्वय्युपपद्यते’- तुम्हारे में यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिए था; क्योंकि तुम कुंती- जैसी वीर क्षत्राणी माता के पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो। तात्पर्य है कि जन्म से और अपनी प्रकृति से भी यह नपुंसकता तुम्हारे में सर्वथा अनुचित है।

‘परंतप’- तुम स्वयं ‘परंतप’ हो अर्थात शत्रुओं को तपाने वाले, भगाने वाले हो, तो क्या तुम इस समय युद्ध से विमुख होकर अपने शत्रुओं को हर्षित करोगे?

‘क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ’- यहाँ ‘क्षुद्रम्’ पद के दो अर्थ होते हैं-


यह हृदय की दुर्बलता तुच्छता को प्राप्त कराने वाली है अर्थात मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्ति देने वाली नहीं है अर्थात मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्ति को देने वाली नहीं है। अगर तुम इस तुच्छता का त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे, और

यह हृदय की दुर्बलता तुच्छ चीज है। तुम्हारे जैसे शूरवीर के लिए ऐसी तुच्छ चीज का त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है।

तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता, तो यह तुम्हारे हृदय की दुर्बलता है, कमज़ोरी है। इसका त्याग करके तुम युद्ध के लिए खड़े हो जाओ अर्थात अपने प्राप्त कर्तव्य का पालन करो।

यहाँ अर्जुन के सामने युद्ध रूप कर्तव्य-कर्म है। इसलिए भगवान कहते हैं कि ‘उठो, खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्य का पालन करो।’ भगवान के मन में अर्जुन के कर्तव्य के विषय में जरा सा भी संदेह नहीं है। वे जानते हैं कि सभी दृष्टियों से अर्जुन के लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है। अतः अर्जुन की थोथी युक्तियों की परवाह न करके उनको अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारी के साथ युद्ध करने के लिए खड़े हो जाओ।


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