पुरुषोत्तम योग

 



भगवान ने इस अध्‍याय में क्षर और अक्षर से परे अपना उत्तम स्‍वरूप समझाया है-


श्रीभगवानुवाच-

ऊर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥1॥


श्रीभवगान बोले- जिसका मूल ऊंचे है, जिसकी शाखा नीचे है और वेद जिसके पत्ते हैं, ऐसे अविनाशी अश्‍वत्‍थ वृक्ष का बुद्धिमान लोगों ने वर्णन किया है, इसे जो जानते हैं वे वेद के जानने वाले ज्ञानी हैं।


टिप्‍पणी- ‘श्‍व:’ का अर्थ है आने वाला कल। इसलिए अश्‍वत्‍थ का मतलब है आगामी कल तक न टिकने वाला क्षणिक संसार। संसार का प्रतिक्षण रुपांतर हुआ करता है इससे वह अश्‍वत्‍थ है; परंतु ऐसी स्थिति में वह सदा रहने वाला होने के कारण तथा उसका मूल ऊर्ध्‍व अर्थात ईश्वर है, इस कारण वह अविनाशी है उसमें यदि वेद अर्थात धर्म के शुद्ध ज्ञान रूपी पत्ते न हों तो वह शोभा नहीं दे सकता। इस प्रकार संसार या यथार्थ ज्ञान जिसे है और जो धर्म को जानने वाला है वह ज्ञानी है।


अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला: ।

अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥2॥


गुणों के स्‍पर्श द्वारा बढ़ी हुई और विषय रूपी कोंपलों वाली उस अश्‍वत्‍थ की डालियां नीचे- ऊपर फैली हुई हैं; कर्मों का बंधन करने वाली उसकी जड़ें मनुष्‍य - लोक में नीचे फैली हुई हैं।


टिप्‍पणी- यह संसार-वृक्ष अज्ञानी की दृष्टि वाला वर्णन है। उसके ऊंचे ईश्वर में रहने वाले मूल को वह नहीं देखता, बल्कि, विषयों की रमणीयता पर मुग्‍ध रहकर, तीनों गुणों द्वारा इस वृक्ष का पोषण करता है और मनुष्‍य लोक में कर्म पाश में बंधा हुआ रहता है।


न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।

अश्वत्थमेन सुविरूढमूलमसग्ङशस्त्रेण दृढेन छित्वा ॥3॥ 

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: ।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी ॥4॥


उसका यथार्थ स्‍वरूप देखने में नहीं आता। उसका अंत नहीं है, आदि नहीं है, नींव नहीं है। खूब गहराई तक गई हुई जड़ों वाले इस अश्‍वत्‍थ वृक्ष को असंगरूपी बलवान शस्‍त्र के काट कर मनुष्‍य यह प्रार्थना करे- ‘जिसने सनातन प्रवृत्ति-माया–को फैलाया है उस आदि पुरुष की मैं शरण जाता हूँ।’ और उस पद को खोज जिसे पाने वाले को पुन: जन्‍म-मरण के फेर में पड़ना नहीं पड़ता।


टिप्‍पणी- असंग से मतलब है असहयोग, वैराग्‍य। जब तक मनुष्‍य विषयों से असहयोग न करे, उनके प्रलोभनों से दूर न रहे तब तक वह उनमें फंसता ही रहेगा। इस श्‍लोक का आशय यह है कि विषयों के साथ खेल-खेलना और उनसे अछूता रहना, यह अनहोनी बात है।


निर्मानमोहा जितसग्ङदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: ।

 द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् ॥5॥ 

जिसने मान-मोह का त्‍याग किया है, जिसने आसक्ति से होने वाले दोषों को दूर किया है, जो आत्मा में नित्‍य निमग्‍न है, जिसके विषय शांत हो गये हैं, जो सुख-दु:ख रूपी द्वंद्वों से मुक्‍त है वह ज्ञानी अविनाशी पद को पाता है।


न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥6॥

वहाँ सूर्य को, चंद्र को या अग्नि को प्रकाश नहीं देना पड़ता। जहाँ जाने वाले को फिर जन्‍मना नहीं पड़ता, वह मेरा परमधाम है। 


ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । 

मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥7॥ 

मेरा ही सनातन अंश जीव लोक में जीव होकर प्रकृति में रहने वाली पांच इंद्रियों को और मन को आकर्षित करता है।


शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: ।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥8॥

जीव बना हुआ यह मेरा अंशरूपी ईश्वर जब शरीर धारण करता है या छोड़ता है तब यह उसी तरह मन के साथ इंद्रियों को साथ ले जाता है। जैसे वायु आस-पास के मंडल में से गंध ले जाता है।


श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । 

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥9॥ 

और वह कान, आंख, त्‍वचा, जीभ, नाक और मन का आश्रय लेकर विषयों का सेवन करता है। टिप्‍पणी- यहाँ ‘विषय’ शब्‍द का अर्थ वीभत्‍स विलास नहीं है, बल्कि प्रत्‍येक इंद्रिय की स्‍वाभाविक क्रिया है, जैसे आंख का विषय है देखना, कान का सुनना, जीभ का चखना। ये क्रियाऐं जब विकार वाली, अहं भाव वाली होती हैं तब दूषित- वीभत्‍स ठहरती हैं। जब निर्विकार होती हैं तब वे निर्दोष हैं। बच्‍चा आंख से देखता या हाथ से छूता हुआ विकार नहीं पाता, इसलिए नीचे के श्‍लोक में कहते हैं- 


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । 

विमूढ़ा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ॥10॥ 

शरीर का त्‍याग करने वाले या उसमें रहने वाले अथवा गुणों का आश्रय लेकर भोग भोगने वाले को इस अंश रूपी ईश्वर को, मूर्ख नहीं देखते, किंतु दिव्‍य चक्षु ज्ञानी देखते हैं। 


यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । 

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ॥11॥ 

यत्‍न करते हुए योगीजन अपने में स्थित इस ईश्वर को देखते हैं। जिन्‍होंने आत्‍म-शुद्धि नहीं की है, ऐसे मूढ़ जन यत्‍न करते हुए भी इसे नहीं पहचानते। टिप्‍पणी- इसमें और नवें अध्‍याय में दुराचारी को भगवान ने जो वचन दिया है उसमें विरोध नहीं है। अकृतात्‍मा से तात्‍पर्य है भक्तिहीन। स्‍वेच्‍छाचारी, दुराचारी जो नम्रतापूर्वक श्रद्धा से ईश्वर को भजता है वह आत्‍म शुद्ध हो जाता है और ईश्वर को पहचानता है। जो यम- नियमादि की परवाह न कर केवल बुद्धि प्रयोग से ईश्वर को पहचानना चाहते हैं, वे अचेता- चित्त से रहित, राम


से रहित, राम को नहीं पहचान सकते।

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् । 

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥12॥ 

सूर्य में विद्यमान जो तेज समूचे जगत को प्रकाशित करता है और जो तेज चंद्र में तथा अग्नि में विद्यमान है, वह मेरा है, ऐसा जान।


गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । 

पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक: ॥13॥ 

पृथ्‍वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से मैं प्राणियों को धारण करता हूँ और रसों को उत्‍पन्‍न करने वाला चंद्र बनकर समस्‍त वनस्‍पतियों का पोषण करता हूँ। 


अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । 

प्राणापानसमायुक्त:पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥14॥ प्राणियों के शरीर का आश्रय लेकर जठराग्नि होकर प्राण और अपान वायु के द्वारा मैं चार प्रकार का अन्‍न पचाता हूँ। 


सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । 

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥15॥ 

सबके हृदय में अधिष्ठित मेरे द्वारा स्‍मृति, ज्ञान और उनका अभाव होता है। समस्‍त वेदों द्वारा जानने योग्‍य मैं ही हूं, वेदों का जानने वाला मैं हूं, वेदांत का प्रकट करने वाला भी मैं ही हूँ। 


द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । 

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥16॥ 

इस लोक में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी दो पुरुष हैं। भूतमात्र क्षर हैं और उनमें जो स्थिर रहने वाला अंतर्यामी है वह अक्षर कहलाता है।


उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: । 

यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वर: ॥17॥ 

इसके सिवा उत्तम पुरुष और है, वह परमात्‍मा कहलाता है। वह अव्‍यय ईश्वर तीनों लोक में प्रवेश करके उनका पोषण करता है। 


यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: । 

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥18॥ 

क्‍योंकि मैं क्षर से परे और अक्षर से भी उत्तम हूं, इसलिए वेदों और लोकों में पुरुषोत्तम नाम से प्रख्‍यात हूँ। 


यो मामेवमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् । 

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥19॥ 

हे भारत! मोहरहित होकर मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार जो जानता है वह सब जानता है और मुझे पूर्णभाव से भजता है। 


इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । 

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृकृत्यश्च भारत ॥20॥ 

हे अनध! यह गुह्य से गुह्य शास्‍त्र मैंने तुझसे कहा। हे भारत! इसे जानकर मनुष्‍य को चाहिए कि वह बु‍द्विमान बने और अपना जीवन सफल करे।

 ऊँ तत्‍सत्



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