कर्म की अनिवार्यता


जब कर्म अनिवार्य हैं तब उन्हें व्यवस्थित, मर्यादित और प्रयोजनपूर्वक करना चाहिए। प्रयोजन में भी चार बातें ध्यान करने लायक हैं। एक तो यह कि इससे लोक का भला होता है। दूसरे, इससे अन्तःकरण की शुद्धि होती है, तीसरे, इससे परमेश्वर प्रसन्न होते हैं। चौथे इसको पूरा करना हमारा कर्तव्य है, वैसे किसी काम को पूरा करना अपने वश की बात नहीं। यह भी एक कामना ही है। यदि भगवती भागीरथी ब्रह्मलोक से धरती पर आ सकती हैं तो हमारी दूसरी, तीसरी पीढ़ी भी हमारे अधूरे काम को पूरा कर सकती है। अपने से जितना सम्भव हो सके उतना करते चलना चाहिए।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।

काम करने का ढोंग बिलकुल नहीं करना चाहिए। ढोंग क्या है? यही कि हम चाहते तो हैं सब कुछ परन्तु बोलते हैं कि हमको कुछ नहीं चाहिए। ढोंग का पता कर्म से भी चलता है। मैं निष्काम हूँ, कहने मात्र से मनुष्य निष्काम नहीं होता। जब वह अपनी कामना का सदुपयोग करता है तब निष्काम होता है। पहले शुभकामना होना चाहिए फिर भगवत्प्राप्ति की कामना होनी चाहिए और फिर भगवान मिले-मिलाये हैं- यह ज्ञान हो जाने पर कामना की निवृत्ति करनी चाहिए। कामना अपने हाथ में नहीं कि जब हम चाहेंगे तब उसको उठाकर फेंक देंगे। क्रम-क्रम से अभ्यास करने पर ही निष्कामता आ सकती है।


अब फिर यह प्रश्न उठा कि कार्य कैसे करना चाहिए? इसका उत्तर श्रीकृष्ण देते हैं कि मनसे इन्द्रियों को वश में करके कर्म करना चाहिए-


यस्त्विन्द्रराणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेंन्द्रियै कर्मयोगमसक्त स विशिष्यते॥


विशिष्ट कर्ता अथवा अच्छा काम करने वाला वही है जो किसी कर्म में आसक्त नहीं होता। उसे इन्द्रियों की चर्चा में नहीं पड़ना चाहिए। खाने-पीने की व्यवस्था तो जीवन में होनी ही चाहिए, अन्यथा अपने आपको ही मार डालेंगे। ऐसा भोग जो कर्म-शक्ति का ही लोप कर दे, वर्जित है। ऐसी दवा भी जिसको खाने से दो-चार-दस दिन तो लाभ प्रतीत हो, अच्छा भोग मिले, बाद में भोग-शक्ति का ही लोप हो जाये, निषिद्ध है। हमें तो ऐसी खुराक चाहिए जिससे मेधा प्राप्त हो, बुद्धि प्राप्त हो।


ये छह बातें ध्यान में रखने योग्य हैं-

पहली, यदि आप सिद्धि चाहते हैं तो भी कार्य करना चाहिए।

दूसरी, केवल कर्मत्याग से कोई सिद्धि नहीं मिलती।

तीसरी, बिना कर्म किये कोई रह नहीं सकता।

चौथी, वासना रखकर कर्म छोड़ दोगे तो पतन हो जायेगा।

पाँचवी, वासना मिटाने के लिए व्यवस्थित कर्म अपेक्षित है।

छठी, कर्म के अभाव में मनुष्य का जीवन चल ही नहीं सकता। इस पर थोड़ा और विचार करें। यदि कर्म नहीं होगा तो शरीर की यात्रा चल ही नहीं सकती-


शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ॥

शरीर में कर्म-ही-कर्म हो रहे हैं। जिस प्रकार अपने आप पलक गिरती है, साँस चलती है उसी प्रकार शरीर के प्रत्येक अवयव में कुछ-न-कुछ क्रिया होती रहती है। क्रिया के साथ विक्रिया भी होती है। विक्रिया का अर्थ है विकार। बच्चे जवान हो रहे हैं, जवान बूढ़े हो रहे हैं। काले बाल सफेद हो रहे हैं। ये सब क्या हैं? यही कि प्रकृति के नियमानुसार इस शरीर में स्वतः परिवर्तन हो रहे हैं। हम क्रिया के माध्यम से जीवन धारण करते हैं। परन्तु विक्रिया निसर्ग के नियमानुसार स्वयं होती है। क्रिया का कर्ता होता है और विक्रिया स्वाभाविक होती है। यदि हम स्वभाव पर छोड़ देंगे तो जीवन में सत्त्वगुण से रजोगुण और राजेगुण से तमोगुण आ जायेगा।

हमारे एक मित्र हैं। उन्होंने देखा कि सड़क पर एक कोढ़ी आदमी है। उसकी साँस भी तेज चल रही है। वह दमे का रोगी है। उनके हृदय में बहुत दया आयी और वे उसको उठाकर अपने घर ले आये। उसको स्नान कराया, वस्त्र पहनाया, बढ़िया भोजन खिलाया, आराम कराया। अब उसके मन में आया कि आज मैंने बहुत बढ़िया काम किया।

वास्तव में उन्होंने अच्छा किया। दया सत्त्वगुण है। परन्तु उनका यह विचार कि उन्होंने इतना अच्छा काम किया कि जो दूसरे नहीं कर सकते। उनके कर्तृत्वाभिमान का कारण बन गया। दया के बाद अभिमान आया जिससे उन्होंने अपने आप को बड़ा समझा। फिर उनकी दृष्टि उस कोढ़ी की गन्दगी पर गयी कि इसके शरीर से तो पीब निकल रही है, हमारा घर गन्दा हो रहा है। अब उनके हृदय में उस रोगी के प्रति घृणा हो गयी। उन्होंने उसको घर से बाहर कर दिया। इस प्रकार घृणा में तमोगुण और अभिमान में रजोगुण आ गया।

मनुष्य का जो मन है, वह स्वभाव से ही सत्त्व से रज में और रज से तम में जाता रहता है। किन्तु यदि हम इसमें भगवत्सेवा की भावना जोड़ दें और यह समझे कि हमने उस रोगी का कोई उपकार नहीं किया; बल्कि भगवान की सेवा की है और वह भी ऐसी सेवा नहीं की, जो दूसरे नहीं कर सकते, तो बात बदल जाती है। इस विशाल संसार में कितने कोढ़ी हैं, कितने दमे के रोगी हैं, कितने विकलांग हैं, इस पर आपकी दृष्टि जायेगी तो आप अनुभव करेंगे कि आपने जो एक रोगी की सेवा की वह कोई बहुत बड़ी सेवा नहीं, और न इसकी कोई क़ीमत है।

यदि आप समग्रता पर, ईश्वरता पर ध्यान रखेंगे तो आपका सत्त्वगुण-रजोगुण और तमोगुण के रूप में परिवर्तित नहीं होगा तथा आपकी दया घृणा न बन सकेगी। हमारा यही कर्म है, यही पौरुष है कि हम दया को घृणा न बनने देंगे। दया आना स्वाभाविक है, घृणा आना भी स्वाभाविक है। परन्तु आपका पौरुष यह है कि आप अपने जीवन में अभिमान न आने दें और अपने कर्तव्य को ठीक-ठीक पूरा करते चलें। भगवान ने यह सृष्टि ऐसी बनायी है कि इस पर आपका ध्यान जाये और आप इससे प्रेरणा ग्रहण करें। सूर्य सबको निरन्तर रोशनी देता है। उसके रूप में स्वयं ईश्वर प्रकट होकर कर्म-यज्ञ का आदर्श उपस्थित करता है। यज्ञ माने यजन, पूजन। अतः हमें इस बात का ध्यान करना चाहिए कि हमारे कर्म, यज्ञ के किस देवता का भजन-पूजन कर रहे हैं।


सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिष्टकामधुक् ॥[


यज्ञ के सम्बंध में एक वेदमन्त्र है ‌-


स्वस्ति पंथामनुचरेम सूर्या चंद्रमसाविव


पुनर्ददता घ्नता जानता संगमेमहि।


इसका तात्पर्य है कि हम इस जीवन में सूर्य के समान प्रकाश देते हुए और चन्द्रमा के समान चाँदनी बरसाते हुए निरन्तर चलते रहते रहें। हम अपने मित्रों को पहचानें, सत्पात्र को दान दें और किसी को दुःख न पहुँचावें। यही यज्ञ की प्रणाली है। यह प्रकट हुआ कि पृथ्वी के रूप में यह सबको फूल देती है, पौधा देती है। हरे-हरे वृक्ष पृथ्वी के वैभव हैं। ये हमारी आँखों को शीतलता देते हैं, नासिका को सुगन्ध देते हैं, प्राणों को शक्ति देते हैं, हमारे हित के लिए आकाश में फैली हुई अच्छाइयों को आकृष्ट करके धरती पर ले आते हैं और पानी बरसाते हैं। यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देने का नाम नहीं, वह भी यज्ञ है। पृथ्वी जब गुलाब, चमेली, मालती, माधवी आदि के फूलों को खिलाती है और उसके द्वारा सृष्टि में जो सुगन्ध फैलती है वह क्या आपके हवन के धुएँ से कुछ कम है? जब हमारे हृदयों को तर कर रहा है, आप्यायन दे रहा है। तेज हमें शक्ति दे रहा है। सूर्य-चन्द्रमा रोशनी दे रहे हैं। वायु सांस दे रहा है। आकाश अवकाश दे रहा है। इस प्रकार यह सारी सृष्टि हमारे लिए एक यज्ञ क्रिया है।


हमारा जन्म ही यज्ञ के साथ हुआ है। भगवान ने कहा कि इस संसार को देखो और यहाँ प्रकृति द्वारा जो यज्ञ हो रहा है उससे प्रेरणा ग्रहण करके आगे बढ़ो। प्रसविष्यध्वम् का अर्थ है खूब बढ़िया-बढ़िया फल आपके जीवन में प्रकट हों। प्रजापति ने आदेश दिया कि आप यज्ञ करेंगे तो आगे बढ़ेंगे, देंगे तब प्राप्त करेंगे, प्रेम करेंगे तो आपको प्रेम मिलेगा, सेवा करेंगे तो सेवा मिलेगी।


देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।

परस्परं भावयन्त: श्रेय परमवाप्स्यथ ॥


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