[ आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था और जागतिक महामारी के सन्दर्भ में ]
चंदन सुकुमार सेनगुप्ता
संक्षिप्तसार
इन दिनों आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा
प्रणाली को लेकर दो समूहों के बीच छिड़ा विवाद अपने चरम पर है | और दूसरी ओर जनता जनार्दन
सहमी हुई है : सभी जन एक ही उम्मीद का दिया जलाए हुए हैं कि कोरोना की तीसरी लहर आने
के पहले कम से कम कोई सुरक्षा कवच बन जाए और कुछ जानें बचाई जा सके | अदालत में वैयक्तिक
अभिमातों को भी चुनौती दिए जा रहे हैं, अपितु संत स्वाभाव के व्यक्ति के प्रति आपत्तिजनक
भाषा का भी इस्तेमाल होने लग गया है | आयुर्वेद का कोई वैज्ञानिक आधार न होने का समीकरण
भी समझाया जाने का सिलसिला चल पड़ा | आयुर्वेद और संबंधित व्यवस्था पर विश्वास रखनेवालों
को पीड़ा तो ज़रूर होती होगी, पर संगठित न हो पाने की स्थिति में उनकी आवाज़ दबी सी
है | इस बात से हम शायद ही इनकार कर पाएँ कि चिकित्सा विज्ञान एक विकसित व्यवसाय का
रूप ले चुका है और उसमें कई तंत्र व समूह प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रूप से जुड़ चुके
हैं | जनता जनार्दन को भी कई गुने अधिक मात्रा में इसका मोल भी चुकाना पड़ रहा है | चिकित्सा के नाम प्रपंच की तो एक अलग ही
कहानी है | इससे जुड़ी समस्याओं, मान्यताओं और निदान तंत्र को संबोधित कर सके, इस प्रयास से मौजूदा लेख को एक विस्तृत लेखनी से
निकाले गये सार संक्षेप के रूप में तैयार किया गया है |
इन दिनों अख़बारों और संचार माध्यमों
के ज़रिए यह अक्सर सुनने में आ रहा है कि गिने चुने कुछ चिकित्सकों ने किसी आयुर्वेदाचार्य
के बारे में कुछ शिकायतें लेकर अदाअलत पहुँच गये | यहाँ तक तो ठीक ही था, किसी वैयक्तिक
मत को आधार मानकर लड़ पड़ने की तमन्ना रखने वालों को ईश्वर इतनी समझ ज़रूर दिया होगा
कि स्थान, काल और पात्रता की विवेचना करते हुए वो इतना तय कर सकें कि किसके साथ कौन
तुलनीय है | भला अतुलनीय के सामने हम कहीं खड़ा हो सकेंगे ! इसी क्रम में हम यह भी
विवेचना करने का प्रयास करेंगे कि आख़िर कौन कौन सी परिस्थितियों में दो विधाओं में
हम तुलना कर पाएँगे | हमें यह भी समझना होगा
कि वो कौन कौन से नियामक हैं जहाँ हम अपने समुदाय के प्रति उत्तरदायित्व का बोध रखते
हुए समन्वय के मार्ग से समस्या का समाधान सूत्र निकालने हेतु तत्पर हो जाते हैं; और
एक ऐसी विधा में और अधिक तत्परता रहेगी जहाँ जीवन - मृत्यु का समीकरण बनता हो | इस
संसार में कोई भी सर्वशक्तिमान के वजूद और गरिमा का मुकाबला नहीं कर सकता , चाहे वो
कितना ही पढ़ा लिखा और कितना ही होनहार क्यों न हो ! अब इस सीमांकन को समझने का प्रयास
करते हुए हम ज़रूर समन्वयवादी होने का प्रयास करते हुए निरंतर आगे बढ़ने का प्रयास करना पसंद कर पाएँ |
आयुर्वेद
की
मान्यता
और
सीमाएँ
आयुर्वेदाचार्य तीन दोषों ( वात, पित्त और कफ ) को
रोगों का कारण मानते
हैं, और इन तीन
दोषों के संतुलन को
आरोग्य | यह आयु का
ज्ञान कराने वाला विज्ञान है | अर्थात किस आयु में कौन कौन से कार्य किए
जाने चाहिए और कौन कौन
से कार्य वर्जित होंगे | यह स्वस्थ एवं
आतुर दोनों प्रकार के व्यक्तियों के
लिए निदान तंत्र देने का विज्ञान भी
है | इस सर्वांगीण चिकित्सा
प्रणाली के अंतर्गत व्यक्ति
के शारीरिक, मानसिक तथा शारीरवृत्तीय संतुलन
ला पाना संभव हो सकेगा | यह
चिकित्सा प्रणाली नैसर्गिक भी है, क्योंकि
इसमें इस्तेमाल
होने वाले घटक प्रकृति
से ही प्राप्त किए
जाते हैं | अधिकांश क्षेत्र में भोजन और नित्य क्रियाओं
के ज़रिए ही निदान तंत्र
विकसित करते हुए व्यक्ति को स्वस्थ और
निरोगी रह
पाने का उपाय समझाया
जाता है |[i]
इस विज्ञान के
समृद्धि का आकलन इस
बात से भी लगाया
जा सकता है कि करीब
२,५०० सूत्र के माध्यम से
इस विज्ञान में जल चिकित्सा, तैल
चिकित्सा,
शल्य चिकित्सा, नाड़ी शुद्धि, प्राणायाम, योगाभ्यास, आधुनिक चिकित्सा, विशल्य्करनि, सदृश चिकित्सा( होम्योपैथी) आदि से जुड़े तत्वों
का समावेश कुशलता पूर्वक बहुत पहले से ही हो चुका
था | विष का उपयोग करके
व्यक्ति को विषमुक्त करने
का विज्ञान भी काफ़ी पुराना
है | इस दृष्टि से
चरक शुश्रुत आदि वेदचार्यों से जुड़े तथ्यों
को अधिक खंगालने की आवश्यकता शायद
ही हो | हम इतना तो
जानते ही हैं कि
सभी आयुर्वेदाचार्य संत
का जीवन ही व्यतीत करते
थे |[ii]
आयु के बारे में भी अओर्वेद में हमें
एक व्यवस्थित विवरण मिलता है | आयु के
प्रमुख चार प्रकार भेद को आयुर्वेद में
मान्य किया गया:
१. सुखायु -- किसी
प्रकार शारीरिक, मानसिक या शारीरवृत्तीय विकार
से रहित धन-धान्य आदि
से समृद्ध व्यक्ति की आयु |
२. दुःखायु -- सुखायु
के विपरीत परिस्थिति का सामना करने
वालों की आयु |
३. हितायु -- स्वास्थ्य,
साधन आदि से संपन्न होते
हुए या उनमें से
किसी एक की किंचित
कमी की परिस्थितियों को नज़र अंदाज
करते हुए लोक हितार्थ जीवन जीने वालों की आयु |
४. अहितायु -- हितायु
के विपरीत परिस्थितियों का सामना करने
वालों की आयु |
आयुर्वेद के मान्यताओं और
शोध क्रियाओं के अनुसार सारे
शरीर में ३०० अस्थियां, तथा संधियाँ (ज्वाइंट्स) २००, स्नायु (लिंगामेंट्स) ९००, शिराएं (ब्लड वेसेल्स, लिम्फॉटीक्स ऐंड
नर्ब्ज़ ) ७००, धमनियां (क्रेनियल नर्ब्ज़) २४ और उनकी
शाखाएं २००, पेशियां (मसल्स) ५०० (स्त्रियों में २० अधिक) तथा
सूक्ष्म स्रोत ३०,९५६ हैं।
यह तथ्य आयुर्वेद के वैज्ञानिक आधार को ही दर्शाता है |
हेतु ज्ञान, लिंग ज्ञान और औषधि ज्ञान
के तीन स्कंधों पर ही आयुर्वेद
का विज्ञान टिका हुआ
है | रोग के कारणों का
अनुसंधान (हेतु ज्ञान), उसके लक्षणों के बारे में
भली भाँति पड़ताल ( लिंग ज्ञान ) और संबंधित औषधियों
और निदान प्रणाली खोजना (औषधि ज्ञान ) ही आयुर्वेदाचार्य के
लिए अहम होता है | इन तीनों प्रक्रिया
से उन्हें अवश्य ही हर परिस्थिति
में गुज़रना होता है |
आहार विहार या औषधि का
प्रयोग निम्न वर्णित विधि में से किसी एक
विधि के अंतर्गत किया
जा सकेगा,:
१. हेतु के
विपरीत;
२. व्याधि, वेदना
या लक्षणों के विपरीत;
३. हेतु और
व्याधि दोनों के विपरीत;
४. रोग के
कारण के समान होते
हुए भी उसके विपरीत
कार्य करनेवाले ;
५. रोग या
वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत
होते हुए भी व्याधि के
विपरीत कार्य करनेवाले ;
६. कारण और
वेदना दोनों के समान प्रतीत
होते हुए भी दोनों के
विपरीत कार्य करनेवाले
परिस्थितियों
के मुताबिक आहार विहार और औषधि प्रयोग
करने का नियम अपनाया
जाता रहता है | इस चर्चा से
यह भी पता चल
रहा है कि सबके
सब आयुर्वेदाचर्य मूर्ख हैं और वैज्ञानिक समझ
से परे हैं, ऐसा कह पाने का
कोई ठोस
आधार नही मिलेगा |
आयुर्वेद
का विज्ञान इतना ही व्यापक है
कि इसमें शल्य चिकित्सा, औषधि विज्ञान, मनोचिकित्सा, होम्योपैथी आदि से जुड़े सभी
वैज्ञानिक धारणाओं को समाया जा
सकेगा | इसमें सभी प्रणालियों का ज़रूरत के
मुताबिक इस्तेमाल करने की मान्यताएँ दर्ज
है | अतः आयुर्वेद से जुड़ा विज्ञान
आधुनिक होने के साथ साथ
युगानुकूल भी है | यही
कारण है कि पश्चिम
के देशों में इसकी लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही
है | आए दिन योग
और प्राकृतिक चिकित्सा के नये नये
केंद्र खोले जा रहे हैं
| आयुर्वेदाचार्य स्वाभाव से ही संत
प्रकृति के होने के
कारण उन्हें किसी प्रमाण पत्र या मान्यताओं की
आवश्यकता शायद ही हो | फिर
भी कई देश में
और आधुनिक समाज में इस शास्त्र के
लिए विशेष अध्ययन केंद्र खोले जा रहे हैं
|
एलोपैथी
की
मर्यादा
मानव समाज में प्रगति के साथ साथ
शल्य चिकित्सा और औषधि विज्ञान
के क्षेत्र में कुछ प्रगती होते रहे और निदान तंत्र
में मशीनों का उपयोग बढ़ता
चला गया | प्रदूषण आदि की समस्या के
कारण विविध प्रकार के रोगों की
पहचान भी होती रही
| आज एक ऐसी परिस्थित
का निर्माण हुआ है जहाँ व्यक्ति
चाहते हुए भी ज़हरीले रसायनों
और प्रदूषणों से छुटकारा नहीं
पा सकता | आसपास की हवा भी
ज़हरीली होती चली जा रही है
| चिकित्सकीय अनुसंधान रोग निदान तंत्र विकसित करने के साथ साथ
ऐसे ऐसे औषधियों को उपयोग में
लाने के लिए प्रेरित
होते चला जहाँ तुरंत में राहत मिल सके और छोटे मोटे
स्वास्थ के नुकसान को
दूसरी दवा से ठीक किया
जा सके | संपूर्ण चिकित्सा प्रणाली से हटकर इस
विज्ञान को अलग से
हम एलोपैथी के नाम से
प्रचलित होता हुआ देख सकेंगे |
इस विज्ञान की
अपनी मर्यादा है |[iii]
इसमें एक चिकित्सा विज्ञान
के
विद्यार्थी को उतना ही
सिखाया जाता है जितना कि
उन्हें रोग निदान, संबंधित औषधि और तत्संबंधित जटिलताओं
का
ज्ञान करा दिए जा सकें | जाहिर
सी बात है कि हम किसी भी
चिकित्सकीय प्रणाली द्वारा प्रमाणित चिकित्सक से संपूर्ण सवस्थ
और रोग मुक्त होने हेतु परामर्श पाने
की उम्मीद रख भी नहीं
सकते | इस विज्ञान का
क्षेत्र इतना विस्तृत हो चला है
कि हमें अपने शरीर के अलग अलग
अंग तंत्र के लिए अलग
अलग चिकित्सकों से निदान तंत्र
विषयक विमर्श करना होगा | हृदय रोग विशेषज्ञ फेफड़ों में पानी जमने का निदान नहीं
देना चाहेंगे | कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी
हैं जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में ठोस कोई इलाज है ही नहीं
; जैसे कि हृदय रोग,
उच्च रक्त चाप, मधुमेह आदि | ऐसी परिस्थितियों में जीवन भर दवा लेते
रहने का परामर्श दिया
जाता है |
चिकित्सकों
के
कौशल्य
विषयक
मर्यादा
सभी चिकित्सक एक जैसे कुशल
नहीं होते हैं ; यह एक नैसर्गिक
घटना ही है | कुछ
लोगों ने चिकित्सा विज्ञान
को एक धन कमाने
का उत्तम मार्ग बना लिया है और अन्य
कुछ लोग सेवा भाव से ओत प्रोत होकर चिकित्सा
विज्ञान के क्षेत्र में
कदम रखते हैं | जाहिर सी बात है,
उनका चिकित्सकीय कौशल उनकी बुद्धि और
मानवीय मान्यताओं के मुताबिक ही
तय होता रहेगा | अतः उस संप्रदाय में
हमे सुर - असुर का दर्शन तो
होगा ही | इसी लिए समाज में एक मान्यता चल
पड़ती है : फलाना चिकित्सक
बहुत अच्छा है और दूसरा
चिकित्सक बिल्कुल ही अच्छा नहीं
है , फलाने अस्पताल की व्यवस्था अच्छी
है, आदि
| दूसरा एक विषय है
चिकित्सकों का घमंड से
ग्रसित हो जाना | घमंड
से ग्रसित हो जाने के
कारण ही मरीजों के
साथ सही तरीके से पेश नहीं
आ
पाते हैं और निदान प्रक्रिया
में ग़लतियाँ कर बैठते हैं
| उनको इस बात का
अंदाज़ा बाद में लगता है कि उनकी
ग़लती किसी की जान लेने
के लिए काफ़ी हो सकता है
|
तुलनात्मकता
का
विज्ञान
कभी भी हम किसी
भी प्रकार की तुलना करने
जाएँ तो उसमें सबसे
पहले हमें उन पहलुओं पर
ध्यान केंद्रित करना होगा जिसके ज़रिए कम से कम
इतना पता लगाया जा सके कि
जिनके बीच हमें तुलना करना है उनमें उद्देश्
पूर्ति के कुछ समदर्शी
मानक हैं भी या नहीं
| इसी विषय को अमल में
लाते हुए हम आयुर्वेद और
एलोपैथी की तुलना किसी
भी हालत में नहीं कर सकते |
हम यह भी उम्मीद
नहीं रख सकते कि
कोई चिकित्सक अपने सीमित दायरों में
रहते हुए किसी योगाचार्य और संत महात्माओं
से बहस में उलझते रहे | दोनों में से एक व्यक्ति
को पूरब की दिशा में
जाना है तो दूसरा
व्यक्ति
पश्चिम मार्ग का राही है
| एक व्यक्ति लोगों को जीवन जीने
की कला बताना चाहेगा तो दूसरा व्यक्ति
किसी ख़ास रोग से तुरंत छुटकारा
पाने का आधा अधूरा
उपाय बताना चाहेगा |
तुलना ऐसे भी नहीं की
जा सकती, क्योंकि एलोपैथी को आयुर्वेद का
ही एक हिस्सा माना
जा रहा है जिसके अंतर्गत
ज़रूरत पड़ने पर औषधि उपयोग
में लाने का प्रावधान
स्वीकृत है ; पर हमेशा औषधि
लेते रहने की मान्यता को
खंडित की जाती है
| रोग से छुटकारा पाने
के लिए मरीज को
मदद करने के विज्ञान से
ओतप्रोत होने के कारण आयुर्वेद को विकसित देशों
में अधिकाधिक लोकप्रियता मिलती जा रही है
|
जनता
जनार्दन
की
पीड़ा
जनता जनार्दन इस बात को
लेकर शंकित रहता है कि अगर
मानें भी,
तो
किसकी बात मानें | चिकित्सा जगत में काम करने वालों को भारी कीमत
अदा करके सक्रिय रखा जाता है | उसपर भी यह आम
बात हो चली है
कि उन चिकित्सकों को
जिस समय जहाँ होना चाहिए वहाँ उन्हें ढूँढ पाना अपने आप में एक
कठिन कसरत है | कम शब्दों में
कहा जाय तो लोगों की
कमज़ोरी का लाभ उठाकर कुछ
चिकित्सक दोगुने, और कभी कभी
कई गुने, मात्रा में समाज से पैसे उठा
लेते हैं | उन्हें इस बात की
चिंता कभी शायद ही रहती हो
कि मरीज के परिजन किस
परिस्थिति में धनराशि का इंतज़ाम करते
होंगे | ऐसी भी बात कभी
कभी सुनने और देखने में
आती है कि लाखों
रुपये खर्च करने के उपरांत परिजन
का मृत शरीर ही घर पर
आता है | इस बात से
भी इनकार नहीं किया जा सकता कि
चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों
का प्राथमिक ध्येय भरपूर पैसा कमाना हो गया है
; चिकित्सकीय गुणवत्ता और सुविधाओं में
दायत्वशीलता का मानक उसके
बाद रखा जाने लग गया है
| यह भी एक कारण
है जिसके लिए खोजी वृत्ति रखनेवाले समुदाय अब परंपरागत चिकित्सा
प्रणाली को पौराणिक किताबों
और पुराणों से निकालकर सर
जमीन पर मूर्त रूप
देने में लग चुके हैं
| उनके इस प्रयास से
जिनको डर लगता
होगा वे ही बिना
कुछ समझ बूझ रखते हुए उनका विरोध करने पर उतरने लगेंगे
|
कोरोना काल में हमें एक ऐसी दवा
के
बारे में जानकारी मिली है जिसकी सफलता
मात्रा बहुत अधिक मानी जा रही है
| इसको बनाने में आयुर्वेद की
मान्यताओं और विधाओं का ध्यान रखा गया है | यह
एक ऐसी दवा है, जो मानव शरीर
में कार्यरत प्रतिरक्षा तंत्र
को मजबूत करने का काम करती
है। यह आयुर्वेदिक प्रथम
श्रेणी की दवाओं और
जड़ी बूटियों का एक बहु-दवा संयोजन है। शोध कर्ताओं का
मानना है कि यह
दवा एक प्राकृतिक
एंटीबायोटिक की तरह काम
करता है और संक्रमण,
फ्लू और दर्द से
लड़ता है। आयुर्वेद और एलोपैथी के
जोड़ से सफलता मिल
पाने का कई ज्वलंत
उदाहरण हमें निरंतर
ही मिलते रहते हैं | [iv]
शंका
निरसन
अगर किसी योगाचार्य या किसी चिकित्सक
को समाज में सफलता मिलती है तो इतना
तो मान लेना होगा कि जनता जनार्दन
के बीच उनकी सराहना होती होगी | कोई दवा या किसी निदान
तंत्र की व्यवस्था पर
अगर सवाल खड़े किए जाते होंगे तो उस विषय
में भी इतना तो
मान्य करना ही होगा कि
लोगों को उस तंत्र
में निहित दुष्परिणामों की जानकारी मिली
होगी | बात यहीं नहीं थम रही है,
आज के सूचना प्रौद्योगिकी
काल में किसी भी व्यक्ति से
कोई भी रहस्य छिपा
हुआ नहीं है | अरबों रुपये खर्च करके विदेश जाकर इलाज कराकर आने की आकांक्षा रखने
वालों को उन देशों
में प्रचलित चिकित्सा प्रणाली का दर्शन कोरोना
काल में हो ही गया
होगा |
प्रकृति द्वारा नियोजित सीमित सांसाधनों के दायरे में
रहकर सतत कार्यशील रहने की तमन्ना लिए
जो समुदाय अपने यहाँ व्यवस्था कायम रखने की इच्छा रखते
हैं उनके लिए ज़्यादे दिन तक धरती पर
टिके रहने
की संभावना प्रबल है, न कि उनके
लिए जो कुछ सोच
विचार किए बिना मोहांध होकर प्रकृति का दोहन करते
रहें | यहाँ फिर से उस सत्य
को दोहराना उचित होगा जिसके बल पर हम
यह मान्य करते हैं कि नैसर्गिक चिकित्सा
प्रणाली उस आयुर्वेद का
ही हिस्सा है | हम मानें या
न मानें, कुछ न कुछ विधियों
के अंतर्गत हम सभी आयुर्वेद
चिकित्सा प्रणाली के किसी न
किसी प्रक्रिया या तत्व का
अभ्यास तो करते ही
हैं | कोई ध्यानस्थ व्यक्ति जब अपने प्राण
वायु को नियंत्रण में
रखने का प्रयास करता
है तो वह आयुर्वेद
में वर्णित प्राणायाम के किसी एक
विधा का
अभ्यासी तो हो ही
जाता है, भले ही अपने उस
कृति का वह व्यक्ति
अपने समझ और संस्कृति के
मुताबिक कोई दूसरा नाम दे दे | हम
सभ्यता में आदि होने के साथ साथ
भले ही कुछ कारनामों
से आधुनिक हुए हों, पर हमारा शरीर
और उसके अंतर्गत अंग तंत्र आधुनिक नहीं हो पाया है
और न ही उसमें
कोई विवर्तन आया है | अतः किसी चिकित्सा प्रणाली के नयेपन और पुरानेपन
का विज्ञान भी सत्य की
कसौटी पर खरा नहीं
उतरेगा | हमारे मान लेने से या फिर
हमारे विरोध करने से उत्तम चिकित्सा
प्रणाली को दाग लगेगा,
यह मान लेना भी अपनी नादानी
ही समझी जाएगी | किसी परिपक्व बुद्धि और समझ रखने
वाले किसी अग्रज की सोच इस
प्रकार की हो ही
नहीं सकती |
किसी को आयुर्वेद की
वकालत करने की आवश्यकता नहीं
है, और न ही
आयुर्वेद किसी के वकालत की
अपेक्षा रखता है | यह तो
दिन प्रतिदिन समृद्ध होते रहने वाला विज्ञान है | बल्कि यूँ कहा जा सकता है
कि यह विज्ञान सबके
सीखने लायक उत्तम कोटि का एक विज्ञान
है | इसकी सीख से हम खुद
के जीवन को भली भाँति
संवार सकते हैं और व्यक्ति जीवन
के साथ साथ समाज जीवन में भी सफलता और
प्रगती का दर्शन कर
सकेंगे | हमें इस बात के
लिए भी किसी का
इंतजार नहीं करना है कि कोई
समूह हमारे हुनर और कौशल्य के
लिए हमें पुरस्कृत करे या फिर हमें
प्रमाणपत्र से सम्मानित करे
| जीवन जीने की कला अपने
आप में जीवन को सजाकर और
संवारकर हमें पूर्ण रूप से समृद्ध
करता चलेगा ऐसा
दृढ़ विश्वास हमें
रखना ही होगा |
सर्वोपरि हमें यह भी प्रतीत
हो रहा है कि आयुर्वेद
और एलोपैथी में सही सामंजस्य ला पाने की
स्थिति में सफलता की मात्रा का
बढ़ना भी अनिवार्य ही
होगा; यह भी हमें
समझना होगा कि किसी एक
विधा की कमज़ोरी को
दूर करने
के लिए किसी दूसरे निदान तंत्र और औषधि विज्ञान
का सहारा लिया जा सकता है
|
आरोप प्रत्यारोप का क्र्म एक
ऐसा क्रम है जिसके बीच
से सफलता की
ओर जाने लायक कोई मार्ग है ही नही,
अतः हम ईश्वर से
यही निवेदन करना चाहेंगे कि हमारे समझदारी
के क्षेत्र का निर्माण होने
के साथ साथ हम और ज़्यादा
दायत्वशील होते हुए तथा जनता
जनार्दन को संकट से
उभार पाने लायक एक साझी कार्य
कौशल का निर्माण करते हुए विश्व पटल पर अग्रज की
भूमिका ले सकें, इतना आत्मबल हमें मिले | | यह
वक्त की ज़रूरत भी
है और समय की
माँग भी |
[i] "आयुर्वेद में स्वास्थ्य लक्षण एवं आयु". मूल से 24 मार्च 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 अगस्त 2019.
[ii] "Ayurvedic concept of
life". मूल से 2 अप्रैल 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 अगस्त 2019.
[iii] आयुर्वेद एवं एलोपैथी : एक तुलनात्मक विवेचन Archived 2018-06-15 at the Wayback
Machine (संजय जैन)
[iv]
सरकार द्वारा संचालित अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान (आया) के प्रमुख ने कहा है कि इस अस्पताल ने चिकित्सा की दोनों पद्धतियों को लागू करके कम से कम 600 कोविड रोगियों का सफलतापूर्वक इलाज किया है | आयुर्वेदिक फार्माकोलॉजी में एमडी प्रो. नेसारी ने पीटीआई-भाषा को बताया, '94 प्रतिशत से अधिक रोगियों को शुद्ध आयुर्वेदिक उपचार प्रदान किया गया था, लेकिन जरुरत पड़ने पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के दिशानिर्देशों के अनुसार एलोपैथी का उपयोग किया गया था. यही हमारी सफलता का कारण है... हमने एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया है.'
श्रोत: हिन्दी समाचार माध्यम (न्यूज़ १८)